शिवसेना के प्रवक्ता संजय राउत राज्यसभा के सदस्य होने के साथ-साथ ही पार्टी द्वारा संचालित सामना नामक अख़बार के सम्पादन का दायित्व भी सँभालते हैं। आये दिन उनके तीखे बयान और लेख चर्चा में रहने के साथ ही विवाद खड़े करते हैं। गत दिवस उन्होंने सामना में प्रकाशित अपने विशेष कालम में लिखा कि यदि केंद्र सरकार को ये एहसास नहीं हुआ कि हम अपने राजनीतिक लाभ के लिये लोगों को नुकसान पहुंचा रहे हैं तो जैसे सोवियत संघ से टूटकर विभिन्न हिस्से अलग हो गए वैसा ही हमारे देश में होने में ज्यादा समय नहीं लगेगा। शिवसेना और भाजपा के बीच चूंकि राजनीतिक दूरियां काफी बढ़ चुकी हैं इसलिए श्री राउत समय-समय पर जहर बुझे तीर छोड़ते रहते हैं। उनके अधिकांश बयानों में भाषायी मर्यादा की धज्जियां उडाई जाती रही हैं। चूंकि शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे उनको रोकते-टोकते नहीं हैं इसलिए ये माना जा सकता है कि श्री राउत जो भी बोलते हैं वह पार्टी का अधिकृत विचार है। राजनीतिक पार्टियों की ओर से उनके प्रवक्ता अथवा अन्य नेतागण जो भी टिप्पणी या प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं उसे नीतिगत माना जाता है। यदि वे ऐसी कोई बात बोल जाते हैं जो पार्टी की नीतियों से मेल न खाती हो तब ये सफाई दी जाती कि वे उनके निजी विचार थे। उस दृष्टि से देखें तो अब तक श्री राउत के संदर्भित लेख पर शिवसेना की तरफ से कोई टीका-टिप्पणी नहीं किये जाने से स्पष्ट है कि पार्टी उनके विचारों से सहमत है। लेकिन भारत के सोवियत संघ की तरह विघटित होने संबंधी बात ऐसी नहीं है जिसे किसी नेता की नासमझी अथवा मूर्खता मानकर उपेक्षित किया सके। वरना भारत तेरे टुकड़े होंगे जैसे नारे लगाने वाले भी बेकसूर ठहराए जाने लगेंगे । अपनी उग्र छवि के बावजूद शिवसेना राष्ट्रीय एकता और अखंडता की रक्षा को लेकर सदैव बेहद संवेदनशील रही है । राजनीतिक मतभेदों के बावजूद भी उसकी तरफ से इस तरह की बात कभी सुनने नहीं मिली जबकि मराठी अस्मिता उसकी राजनीति का आधार रहा है । आजादी के बाद 500 से अधिक रियासतों का भारत संघ में विलय कुछ अपवादों को छोड़कर जिस सरलता और सहजता से संभव हुआ उसका कारण प्राचीनकाल से भारत का एक राष्ट्र के तौर कायम रहना ही था । आजादी के उपरान्त तेलंगाना में साम्यवादियों का सशस्त्र विद्रोह भी असफल हो गया । उसके बाद से पूर्वोत्तर के बड़े इलाके में विदेशी ताकतों के संरक्षण में अलगाववादी संगठनों द्वारा हिंसा का सहारा लेकर भारत से अलग होने के लिए लम्बा संघर्ष किया गया किन्तु अंतत: उन्हें भी संघीय ढांचे के अंतर्गत आकर प्रजातान्त्रिक प्रक्रिया को स्वीकार करना पड़ा । बीते अनेक दशकों से चीन के टुकड़ों पर पलने वाले नक्सली भारत को तोड़ने के सपने देख रहे हैं लेकिन उन्हें इसलिए सफलता नहीं मिल रही क्योंकि आतंक के बावजूद जनमानस न तो उनसे डरा और न ही प्रभावित हुआ। पंजाब में खालिस्तान के नाम पर देश के को खंडित करने का जोरदार प्रयास भी अंतत: अपनी मौत मर गया क्योंकि अलग पहिचान बनाये रखने के बाद भी सिख समुदाय ने भारत से अलग होने वाली सोच को ठुकरा दिया। कश्मीर घाटी ने भी अलगाववाद और आतंक का लम्बा दौर देखा लेकिन कश्मीरी पंडितों को आतंकित कर घाटी छोड़ने के लिए मजबूर भले कर दिया गया हो लेकिन कश्मीर को भारत से अलग करने का षडयंत्र कामयाब न हो सका तो उसकी वजह इस देश की प्राकृतिक संरचना और प्राचीनता ही है । तमिलनाडु में भी भारत से अलग होकर पृथक तमिल राष्ट्र बनाने की मुहिम शुरू हुई जिसका फैलाव श्रीलंका तक हुआ जहां लिट्टे नामक आतंकवादी संगठन ने गृहयुद्ध की परिस्थितियां तक उत्पन्न कर दीं किन्तु वह प्रयास भी आखिरकार असफल रहा क्योंकि तमिलनाडु की जनता को तमिल भाषा और द्रविड़ पहिचान के प्रति आकर्षण के बावजूद भारत से अलग होना मंजूर नहीं हुआ। ये सब देखते हुए संजय राउत ने जो चेतावनी दी वह गीदड़ भभकी से ज्यादा कुछ नहीं। आश्चर्य है महाराष्ट्र सरकार में शामिल रांकापा और कांग्रेस दोनों ने इस बारे में कुछ भी कहना उचित नहीं समझा। भाजपा ने जरूर श्री राउत के विरुद्ध मामला कायम करने की मांग की है । लेकिन ये बात केवल राजनीतिक आरोप - प्रत्यारोप तक सीमित नहीं रहना चाहिए क्योंकि भारतीय संसद के उच्च सदन का एक वरिष्ठ सदस्य देश के टुकड़े होने की बात करे तो ये एक गम्भीर मुद्दा है । आश्चर्य की बात है कि पत्रकार होने के बावजूद श्री राउत को ये ज्ञान नहीं है कि भारत भले ही राज्यों का संघ है किन्तु ये राज्य सोवियत संघ में शामिल विभिन्न देशों की तरह न होकर इस देश के अभिन्न हिस्से थे । इसलिए राजनीतिक मतभेदों के बावजूद राष्ट्रीय एकता और अखंडता के सवाल पर संसद से ग्राम पंचायत तक पूरा देश एकमत है । आपातकाल के दौरान जब इंदिरा गांधी ने मौलिक अधिकार समाप्त करते हुए पूरे विपक्ष को जेल में ठूंस दिया तब भी देश को तोड़ने जैसी बात कहीं सुनाई नहीं दी । और लोकतान्त्रिक प्रक्रिया के अंतर्गत ही आपातकाल की शक्ल में आई तानाशाही पर जीत हासिल की गई । 1947 से देश में चले आ रहे एकदलीय प्रभुत्व का दौर भी 1977 में खत्म हो गया । बहुदलीय गठबंधन सरकारें भी आती - जाती रहीं । राजनीतिक अस्थिरता का आलम भी देश ने देखा और स्थायित्व भी देख रहा है । लेकिन किसी भी दौर में देश के टूटकर बिखरने जैसी बात यदि नहीं हुई तो उसका कारण भारत की सांस्कृतिक एकता ही थी जिसका सोवियत संघ में सर्वथा अभाव था क्योंकि वह एक कृत्रिम रचना थी । संजय राउत ने जो कुछ भी लिखा वह बेहद गैर जिम्मेदाराना है । बेहतर तो यही होगा कि उद्धव ठाकरे उनके विरुद्ध ऐसी कार्रवाई करें जिससे उनकी प्रमाणिकता साबित हो । यदि वे ऐसा नहीं करते तब ये माना जाएगा कि शिवसेना अपने संस्थापक बाल ठाकरे की विरासत को समंदर में डुबोने पर आमादा है । शिवसेना को ये याद रखना चाहिए कि उसके नासमझ नेता के कहने मात्र से ये देश तो टूटने वाला नहीं है किन्तु यदि उसने उनकी जुबान पर लगाम नहीं लगाई तब ये पार्टी जरूर छिन्न - भिन्न हो जायेगी।
-रवीन्द्र वाजपेयी
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