Monday 21 December 2020

नेपाल : पड़ोसी के आँगन में सुलग रही चिंगारी उड़कर हमारे घर भी आ सकती है




पड़ोसी देश नेपाल से हमारे सम्बन्ध राजनयिक औपचारिकताओं से बहुत ऊपर हैं। सांस्कृतिक और धार्मिक दृष्टि से दोनों एक  है। भगवान राम की पत्नी सीता जी की जन्मस्थली जनकपुर नेपाल में ही है। काठमांडू स्थित पशुपतिनाथ का मंदिर भी भारत के  हिन्दुओं  के लिए उतना ही पूजनीय है जितना नेपाल के। दोनों देशों के नागरिकों को  बिना पासपोर्ट के आवजाही की छूट है। नेपाल में हजारों भारतीय व्यापारी  हैं वहीं भारत में लाखों नेपाली अपना पेट पालते हैं। नेपाली नागरिक भारतीय फौज में भी भर्ती होते हैं। गोरखा रेजीमेंट भारतीय सेना की शान मानी जाती है। बिहार से सटे तराई इलाके में रहने वाले मधेसी मूलत: बिहार और पूर्वी उप्र से जुड़े होने से आज भी अपने बेटे-बेटी का रिश्ता वहीं करना पसंद करते हैं। नेपाल के पूर्व राजवंश के साथ ही संपन्न वर्ग के लोग अपने बच्चों को भारत में शिक्षा हेतु भेजते हैं। भारत ने नेपाल के विकास में भी बढ़-चढ़कर मदद की है। एकमात्र हिन्दू राष्ट्र होने से भारत में इस पहाड़ी देश के प्रति छोटे भाई जैसा भाव सदियों  से  रहा है। नेपाल का विदेशी व्यापार  भारत के बंदरगाहों और सड़क मार्ग से ही होता है। लेकिन आजादी के बाद देश में बनी पंडित नेहरु की सरकार को नेपाल की राजशाही और हिन्दू राष्ट्र होने की बात नागवार गुजरने के कारण राजपरिवार के विरोध में आन्दोलन करने वाले नेताओं को भारत में पनाह मिलती रही। समाजवादी और वामपंथी विचारधारा के लोगों ने भी वहां राजतंत्र को अस्थिर करने वालों को प्रश्रय और प्रोत्साहन दिया। इस कारण नेपाल के राजवंश में भारत के प्रति शंका का बीजारोपण हुआ और वह चीन की तरफ झुकने लगा। यद्यपि इसके पीछे सोच ये थी कि शायद चीन का समर्थन और शह पाकर नेपाल में सक्रिय हो उठे माओवादियों को दबाकर रखा जा सकेगा लेकिन यहीं राजवंश चूक कर गया और चीन के साथ दोस्ती की भारी कीमत उसे चुकानी पड़ी।  देश गृह युद्ध में फंसता चला गया।  रही-सही कसर पूरी  कर दी राजघराने में हुए खूनी संघर्ष ने जिसमें तत्कालीन महाराजा वीरेन्द्र और उनके समूचे परिवार की नृशंस ह्त्या उन्हीं के बेटे दीपेन्द्र द्वारा किया जाना बताया गया। 1 जून 2001 को हुए उस काण्ड की पृष्ठभूमि में यूँ तो राजकुमार की प्रेम कथा प्रचारित हुई  लेकिन अधिकतर लोगों का मानना था कि उस घटना के पीछे कोई षड्यंत्र था जिसके तार स्वर्गीय महाराजा के भाई ज्ञानेंद्र से जुड़े थे। यही वजह रही कि ज्ञानेन्द्र महाराजा तो बन गये  लेकिन जनता का विश्वास और सम्मान दोनों गँवा बैठे जिसका लाभ उठाकर माओवादी अपनी जड़ें मजबूत करते गए और 2006 में हालात बेकाबू होने लगे तब ज्ञानेन्द्र को माओवादियों से समझौता करना पड़ा और नेपाल सीमित राजतंत्र से पूर्ण प्रजातान्त्रिक देश में बदल गया। दुनिया के सबसे गरीब देशों में शुमार नेपाल की जनता को ये लगा था कि राजतंत्र के खात्मे के बाद उनकी दशा सुधर जायेगी लेकिन उनकी उम्मीदें पूरी नहीं हुईं। माओवादी सत्ता में देश  राजनीतिक अस्थिरता के भंवर में फंसता चला गया जिसका लाभ लेकर  चीन ने उसे अपना उपनिवेश बनाने का जाल बिछा दिया। इसी  कारण नेपाल में भारत विरोधी भावनाएं तेजी से फैलाई जाती रहीं जिसका चरमोत्कर्ष बीत रहे साल में मिला जब भारत के साथ नक्शा विवाद शुरू करते हुए वहां की ओली सरकार ने सैन्य टकराव तक की स्थिति पैदा कर दी। सबसे बड़ी बात ये रही कि लद्दाख में  चीन और भारत के बीच उत्पन्न सैन्य तनाव के दौरान ही नेपाल भी भारत से दो-दो हाथ करने की हिमाकत करने लगा। यद्यपि भारत द्वारा बनाये गये दबाव से  प्रारम्भिक अकड़ के बाद वह ठंडा पड़ता गया  लेकिन  उसके बाद वहां के वामपंथी नेता ही आपस में भिड़ गए। पूर्व प्रधानमंत्री पुष्प दहल कमल ने वर्तमान प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली को सत्ता से हटाने के लिये जबरदस्त अभियान छेड़ दिया। दोनों के बीच समझौते की कोशिशें भी हुईं लेकिन प्रचंड नहीं माने और जब ओली को लगा कि बात नहीं बन रही तब उन्होंने गत दिवस संसद भंग करवाकर नए चुनाव का रास्ता साफ़ कर दिया। रोचक बात ये है कि ओली और प्रचंड दोनों चीन द्वारा ही पालित और पोषित हैं। ऐसे में उनमें मतभेदों का इतना गहरा जाना रहस्यमय है। लगता है चीन की इसके पीछे भी कोई दूरगामी रणनीति है। लेकिन इस सबसे अलग एक अप्रत्याशित घटनाक्रम नेपाल में चल पड़ा और वह है राजतंत्र की वापिसी के लिए आंदोलन की शुरुवात। देश के अनेक हिस्सों से ये मांग उठ रही है कि माओवादी शिकंजे से निकलकर राजशाही की ओर लौटा जाए। अनेक राजनीतिक  दलों ने इस आन्दोलन की बागडोर संभाल रखी है। प्रधानमन्त्री ओली द्वारा भारत से शत्रुता लेकर चीन के चरणों में लोटने की नीति को भी  एक वर्ग नापसंद कर रहा है। भले ही एक तबके के मन में भारत विरोधी भावनाएं स्थापित करने में माओवादी सफल हो गये हों लेकिन ज्यादातार नेपाली मानते हैं कि भारत के साथ रिश्ते खराब करने से नेपाल का गुजारा संभव नहीं है। तराई में रहने वाले मधेसी भी वहां जनमत को प्रभावित  करने  की हैसियत रखते हैं जिनके हितों की रक्षा के लिए ही कुछ बरस पहले मोदी सरकार ने नेपाल की नाकेबंदी कर उसे सबक सिखाने की नीति अपनाई थी। उसके बाद से दोनों के बीच तल्खी बढी लेकिन ओली सरकार की हालिया हरकतों के बाद तो हालात युद्ध की कगार तक जा पहुंचे थे। बीते कुछ समय से नेपाल एक बार फिर  अस्थिरता में घिर गया है। माओवादी आपस में लड़ रहे हैं। चीन के विरोध में जनता सड़कों पर उतरने से परहेज नहीं कर रही, राजशाही की वापिसी की आवाजें उठ रही हैं। और इसी बीच प्रधानमंत्री ओली ने संसद भंग कर नया विवाद खड़ा कर दिया। निश्चित रूप से ये नेपाल का अंदरूनी मामला है लेकिन इसकी परिणिति 1970 में तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान में पैदा हुए हालातों जैसी हो सकती है और तब भारत को नयी शरणार्थी समस्या का सामना करना पड़े तो आश्चर्य नहीं होगा। चीन ने नेपाल को राजनीतिक तौर पर कब्जाने की पूरी तैयारी कर रखी है। ओली और प्रचंड सभी उसके मोहरे हैं। गृहयुद्ध के हालात बनाकर वह ठीक वैसे ही हस्तक्षेप कर सकता है जैसा भारत ने 1971 में पूर्वी पाकिस्तान में किया था। वैसे भी चीन के लिए नेपाल में घुसना बहुत ही आसान है। भारत के लिए पड़ोस में सुलग रही इस आग से खुद को बचाते हुए अपने हितों को सुरक्षित रखने की चुनौती है। हालाँकि नेपाल  भारत से पूरी तरह नाता तोड़ने की जुर्रत करने जैसा आत्मघाती कदम तो नहीं उठा सकता लेकिन उसकी भीतरी उथल पुथल पर हमें पैनी नजर रखनी होगी क्योंकि इस पहाड़ी देश के भीतर चल रहे सत्ता संघर्ष में केवल ओली और प्रचंड ही नहीं चीन भी अघोषित पक्ष है और यही भारत के लिए चिंता का सबसे बड़ा कारण है।

-रवीन्द्र वाजपेयी


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