Wednesday 16 December 2020

49 साल पहले उन्हें मिला मुल्क हमें मिले शरणार्थी



49 साल पहले आज ही के दिन भारत और पाकिस्तान के बीच हुआ युद्ध समाप्त हुआ था जिसकी परिणिति बांग्ला  देश नामक एक नए देश के रूप में हुई। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद वह पहला ऐसा युद्ध था जिसने दुनिया के नक्शे में बदलाव कर दिया। 1947 में भारत कहने को तो दो टुकड़ों में विभाजित हुआ था लेकिन वस्तुत: उसके तीन भाग हुए क्योंकि पाकिस्तान भले एक देश के रूप में अस्तित्व में आया लेकिन उसके दो हिस्से पश्चिमी और पूर्वी पाकिस्तान के रूप में एक दूसरे से सैकड़ों मील की दूरी पर स्थित थे। पूर्वी पाकिस्तान वैसे तो मुस्लिम बहुल होने के कारण भारत  से अलग हुआ लेकिन बंगला भाषा और संस्कृति के कारण वह पश्चिमी पाकिस्तान के साथ सामंजस्य नहीं  बिठा पा रहा था। 1971 आते-आते तक दोनों के बीच खींचतान चरम पर जा पहुंची। पाकिस्तान की नेशनल असेम्बली में पूर्वी पाकिस्तान की अवामी लीग पार्टी ने बहुमत हासिल कर लिया और शेख मुजीबुर्रहमान प्रधानमंत्री पद के दावेदार बन बैठे जिसे पश्चिमी हिस्से के पंजाबी और पठान नेता बर्दाश्त न कर पाए। मुजीब गिरफ्तार कर लिए गए और पूर्वी पाकिस्तान में गृह युद्ध जैसी स्थिति बन गई। लाखों शरणार्थी सीमा पार करते हुए भारत आने लगे। पहले-पहल तो मानवीय आधार पर उन्हें शरण दी जाने लगी लेकिन जब ये लगा कि सिलसिला रुकने का नाम नहीं ले रहा तब तत्कालीन प्रधानमन्त्री इंदिरा गांधी ने सेनाध्यक्ष जनरल मानेक शॉ से सैन्य कार्वाई करने कहा। दिसम्बर में भारतीय सेना ने अपना अभियान शुरू किया जिसे वहां की जनता से खुलकर समर्थन मिला। पाकिस्तान ने बौखलाहट में पश्चिमी सीमा पर भी युद्ध शुरू कर दिया लेकिन भारतीय सेनाओं ने दोनों मोर्चों पर उसे पराजय झेलने मजबूर कर दिया। पूर्वी पाकिस्तान में तो भारतीय सेना ने पराक्रम  की पराकाष्ठा करते हुए 90 हजार पाकिस्तानी सैनिकों से आत्मसमर्पण करवाया और बांग्ला देश नामक  एक नये राष्ट्र का उदय हो गया। मुजीब रिहा होकर सत्ता में आ गये। आज के ही दिन ढाका में भारतीय सेनाओं ने इतिहास का वह स्वर्णिम अध्याय पूरा किया था। 90 हजार पाकिस्तानी युद्धबंदी भारत के पास थे। पाकिस्तान दो टुकड़ों में बंट चुका था। अमेरिका और ब्रिटेन जैसी ताकतें भी उसे जीत न दिला सकीं। इंदिरा जी  अंतर्राष्ट्रीय क्षितिज पर एक सर्वशक्तिमान साहसी नेता के तौर पर स्थापित हो गईं। लेकिन इसके बाद फिर वही गलतियाँ दोहराई जाती रहीं जिनकी वजह से हमें आजादी के नाम पर देश का विभाजन झेलना पड़ा। बांग्ला देश से आये लाखों शरणार्थियों को वापिस भेजने का समुचित प्रयास करने की बजाय हमारे नेता विजयोल्लास में डूबे रहे। उधर पाकिस्तान के साथ शिमला में बातचीत हुई तब ये उम्मीद थी कि 90 हजार युद्धबंदियों की रिहाई के बदले इंदिरा जी पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर को वापिस लेने की शर्त रखेंगी जिसे मान लेने के सिवाय पाकिस्तान के पास कोई दूसरा रास्ता नहीं था। लेकिन न जाने क्या हुआ और लौह व्यक्तित्व के तौर पर स्वीकार कर ली गईं श्रीमती गांधी ने महज एक औपचारिक समझौता करते हुए युद्धबंदी तो रिहा कर दिए लेकिन पाक अधिकृत कश्मीर की एक इंच जमीन भी वापिस लेने की कोशिश नहीं की। युद्ध के मैदान में जीतने के बाद वार्ता की टेबिल पर हारने का ये दूसरा मौका था। 1965 की जंग में भी भारत ने पाकिस्तान को जमकर धूल चटाई थी। यदि युद्ध दो-चार दिन और खिंचता तब हमारी सेना लाहौर पर कब्जा कर लेती किन्तु वैश्विक दबाव में पहले तो युद्धविराम करते हुए सेना के कदम रोक दिए गये और बाद में ताशकंद  वार्ता के दौरान जीते हुए इलाके खाली करने का समझौता कर  लिया गया। जिसके बाद वहीं तत्कालीन प्रधानमन्त्री लालबहादुर शास्त्री की रहस्यमय मौत हो गई। 1971 की जीत तो उससे भी बहुत बड़ी थी। 90 हजार सैनिकों के भारत में बंदी होने के कारण पाकिस्तान  की सरकार पर जबरदस्त घरेलू दबाव था। लेकिन इंदिरा जी ने न जाने किस दबाव में उस सुनहरे अवसर को गंवा दिया। पाकिस्तान ने तो बिना कुछ दिए अपने सैनिक वापिस ले लिए और हमें मिला लाखों शरणार्थियों का स्थायी बोझ जो अब बढ़कर करोड़ों में जा पहुंचा है। युद्ध के फौरन बाद यदि इंदिरा जी बांग्ला देश के प्रधानमन्त्री  शेख मुजीब पर दबाव बनातीं तो शरणार्थी वापिस हो सकते थे। लेकिन वह नहीं किया गया। महज चार साल के बाद ही मुजीब की हत्या के बाद  बांग्लादेश में भारत विरोधी फौजी हुकूमत सत्तासीन हो गई। धर्मनिरपेक्षता का लबादा उतार फेंका गया और हिन्दू मंदिरों के विध्वंस का वैसा ही अभियान शुरू हो गया जैसा पश्चिमी पाकिस्तान में 1947 से आज तक चला आ रहा है। सीमा विवाद के अलावा और भी अनेक ऐसे मामले हैं जिनमें बांग्ला देश का रवैया पाकिस्तान से कम शत्रुतापूर्ण नहीं रहा। 49 साल पहले आये शरणार्थियों का लौटना तो दूर अब तो उनकी तीसरी पीढ़ी तक भारत की नागरिक बनकर देश के पूर्वी हिस्सों की राजनीति को प्रभावित करने लगी है। आज 49 साल बाद उस ऐतिहासिक विजय की याद करने के साथ ही हमें उन भूलों के बारे में भी सोचना चाहिए जिनके चलते उसका लाभ हमें जितना मिलना चाहिए था उससे ज्यादा समस्याएं हमारी झोली में आईं। इतिहास बेशक अतीत के गर्त में समा जाता है लेकिन वह भविष्य के लिए मार्गदर्शक के तौर पर भी उपयोगी होता है, बशर्ते हम उसकी गलतियों को दोहराने से बचें। दुर्भाग्य से शरणार्थियों की जो समस्या बांग्ला देश के निर्माण के प्रतिफल के तौर पर भारत के हिस्से में आई उसके हल की किसी भी कोशिश को षड्यंत्रपूर्वक विफल करने का कुचक्र रच दिया जाता है। उस दृष्टि से आज जैसे दिवस पर हमारी सेनाओं के गौरवगान के साथ ही उन गलतियों पर विचार करते हुए उन्हें दुरुस्त करने की कार्ययोजना भी बनना चाहिए। शरणार्थियों के प्रति अति उदारता का दुष्परिणाम फ्रांस, ब्रिटेन, स्वीडन, जर्मनी में हालिया घटनाओं से देखने मिला। हमारे देश में आतंकवाद की शुरुवात भी बांग्ला देश के निर्माण के बाद ही हुई। ऐसे में ये जरूरी हो जाता है कि इस गम्भीर समस्या के स्थायी  हल के लिए राजनीति से ऊपर उठकर नीति और निर्णय की प्रक्रिया शुरू की जाए। बांग्ला देश युद्ध के समय के विपक्ष ने जिस जिम्मेदारी से अपनी भूमिका का  निर्वहन किया उसकी पुनरावृत्ति की आज बेहद जरूरत है। भले ही कोरोना के कारण नागरिकता संबंधी कानूनों को लेकर विमर्श बाधित हो गया किन्तु देश की अखंडता और आंतरिक सुरक्षा के मद्देनजर इस विषय पर ठोस निर्णय लेकर उसका क्रियान्वयन समय की मांग है ।

- रवीन्द्र वाजपेयी

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