Wednesday 30 December 2020

राष्ट्रीय विकल्प के तौर पर कांग्रेस जरूरी है लेकिन .....



कांग्रेस ने विगत दिवस अपना  136 वां स्थापना  दिवस मनाया। इस मौके पर देश भर में पार्टी के नेताओं और कार्यकर्ताओं ने पार्टी के प्रति अपनी निष्ठा  प्रदर्शित करते हुए उसे दोबारा मजबूत करने का संकल्प लिया। वैसे तो ये महज एक रस्म थी लेकिन इस साल पार्टी के पूर्व और भावी अध्यक्ष  माने जा रहे  राहुल गांधी स्थापना दिवस के पहले ही विदेश चले गये। उनका गंतव्य हमेशा की तरह गोपनीय रखे  जाने पर सफाई दी गई कि वे इटली में अपनी नानी से मिलने गए हैं । पार्टी की कार्यकारी अध्यक्ष सोनिया गांधी भी राष्ट्रीय मुख्यालय में आयोजित समारोह में नहीं पहुँची जबकि वे दिल्ली  में ही थीं। इसका कारण उनकी  अस्वस्थता बताया गया जो काफ़ी हद तक सही है। लेकिन कांग्रेस के प्रथम परिवार के दोनों सदस्यों की गैर मौजूदगी पर न सिर्फ भाजपा अपितु राजनीति में रूचि रखने वाले अनेक लोगों ने व्यंग्य बाण छोड़े। जहाँ तक बात श्रीमती गांधी की है तो उनके स्वास्थ्य संबंधी जानकारी सर्वविदित है। वे अक्सर अस्पताल में भी भर्ती होती रहती हैं। जाँच हेतु विदेश भी उन्हें जाना पड़ता है किन्तु ऐसे समय जब पार्टी के सामने   भाजपा से लड़ने के साथ ही  अपने घर में चल रही कलह से भी जूझने जैसी समस्या खड़ी हो तब राहुल के   गैर हाजिर रहने से देश भर के  कार्यकर्ताओं में निराशा का  भाव  आना स्वाभाविक है। चूंकि उनकी अधिकतर विदेश  यात्राओं को पूरी तरह गोपनीय रखा जाता है इसलिए उन पर सदैव सवाल खड़े होते रहे हैं। मौजूदा प्रवास  यदि केवल नानी से मिलने के लिए है तब भी ये पूछा जाना गैर वाजिब नहीं होगा कि क्या वे दो दिन बाद नहीं जा सकते थे ? पहले भी  संसद में अनेक महत्वपूर्ण मुद्दों पर  पार्टी का पक्ष रखने की बजाय श्री गांधी विदेश यात्रा पर जाते रहे। एक साल तो  बजट सत्र जैसे महत्वपूर्ण अवसर पर वे पूरे समय देश के बाहर कहाँ  रहे ये आज भी रहस्य है। सुरक्षा के मद्देनजर ये गोपनीयता भले ही आवश्यक हो लेकिन देश की सबसे पुरानी राष्ट्रीय पार्टी के वास्तविक सर्वोच्च नेता के साथ जुड़ी इस तरह की बातें भारतीय संदर्भ में अटपटी लगती हैं। 2019 के लोकसभा चुनाव में राहुल ही कांग्रेस  के  चेहरे थे। पूरे चुनाव अभियान में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर उन्होंने जिस तरह हमले किये उससे ऐसा लगा कि वे खुद को अगला प्रधानमंत्री मान बैठे थे किन्तु नतीजों ने ये साबित कर दिया कि जनता ने उन्हें उस  लायक नहीं समझा। अगर कांग्रेस की संख्या लोकसभा में 100 तक भी पहुँच जाती  तब शायद श्री गांधी अपनी पीठ थपथपा  सकते थे लेकिन वह  एक बार फिर आधे शतक के करीब आकर ठहर गई जिसके बाद उन्होंने अध्यक्ष पद तो छोड़ दिया परन्तु उत्तराधिकारी चुनने में पार्टी ने महीनों गँवा दिए और फिर सोनिया जी को ही  कामचलाऊ अध्यक्ष बना दिया जो  स्वास्थ्य अच्छा नहीं होने से वे पार्टी को पर्याप्त समय नहीं दे पाईं। वहीं राहुल भी बयानों के तीर छोडऩे से ज्यादा कुछ न कर सके। इससे दुखी होकर अंतत: पार्टी के ही दो दर्जन नेताओं ने सोनिया जी को  चिट्ठी  लिखकर अपनी  चिंता और नाराजगी जाहिर कर डाली जिसके बाद का वृतान्त  जगजाहिर है। कुछ दिनों पहले  सुलह की कोशिश भी हुई जिसके बाद दोबारा श्री गांधी की ही ताजपोशी पर सहमति बनने का संकेत दिया गया। संगठन चुनाव की प्रक्रिया शुरू होने के बारे में भी  कुछ निर्णय हुए। ये सब देखते हुए स्थापना  दिवस पर यदि राहुल पूरे देश में फैले कांग्रेस कार्यकर्ताओं में उत्साह भरने का काम  करते तो वह बेहद रचनात्मक कदम होता। लेकिन एक बार फिर वे मौके पर चौका लगाने से चूक गए। प्रश्न उठ सकता है कि कांग्रेस के भीतर  जो चल रहा है उससे किसी और को क्या लेना देना ? लेकिन इसका जवाब ये है कि कांग्रेस महज एक राजनीतिक दल नहीं  अपितु  संसदीय लोकतंत्र की जरूरत भी है। देश एक ही राष्ट्रीय पार्टी के एकाधिकार का दुष्परिणाम आपातकाल के रूप में देख चुका है। इंदिरा इज इण्डिया और इण्डिया इज इंदिरा जैसा दरबारी संस्कृति वाला नारा राष्ट्रीय विकल्प के अभाव के कारण ही सुनाई दिया था।   बीते छ: साल में जिस तरह की राजनीतिक परिस्थितियां बनती आ  रही हैं उनसे कांग्रेस के अस्तित्व पर संकट के बादल मंडराते दिखने लगे हैं। न सिर्फ जनता अपितु कांग्रेसजन भी काफी  निराश हो चले हैं। चूंकि  दूसरी पंक्ति के नेतृत्व को समय रहते विकसित होने का अवसर नहीं दिया गया इसलिए बतौर उत्तराधिकारी कोई चेहरा भी  नजर नहीं आ रहा। किसी  राजनीतिक पार्टी के जीवन में जय-पराजय आती-जाती रहती हैं किन्तु  राष्ट्रीय पार्टी के रूप में संसदीय संतुलन बनाये रखने के लिए कांग्रेस का सशक्त रहना  जरूरी है। क्षेत्रीय दल संसद में कितनी भी बड़ी संख्या में जीतकर आ जाएँ लेकिन उनका दृष्टिकोण संकुचित होने से वे राष्ट्रीय स्तर पर प्रभावशाली नहीं हो पाते। कांग्रेस बेशक अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रही है लेकिन न केवल  उसका बना  रहना बल्कि सशक्त विपक्ष के तौर पर संसद और सड़कों पर मौजूदगी प्रजातंत्र की अच्छी सेहत के लिए जरूरी है। आज की स्थिति में देश सक्षम विपक्ष की कमी को महसूस करने लगा है फिर भी  कांग्रेस यदि जनता का विश्वास नहीं जीत पा रही तो  उसके लिए वह स्वयं जिम्मेदार है। लोकतंत्र में चुनावी जीत का बहुत महत्व है किन्तु विपक्षी दल संसद या विधानसभा के बाहर भी जनहित के लिए संघर्ष कर सकते हैं। कांग्रेस के लिए आज ऐसा ही मौका है।  लेकिन इसके लिए उसे एक गतिशील पार्टी के तौर पर सामने आना होगा। कांग्रेस एक ऐतिहसिक पार्टी है लेकिन यदि वह इसी तरह चलती रही तब वह इतिहास बन जाए तो आश्चर्य नहीं होगा।

-रवीन्द्र वाजपेयी


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