Tuesday 31 October 2023

मराठा आंदोलन को देख अन्य जातियां भी मैदान में उतर सकती हैं


महाराष्ट्र में मराठा समुदाय द्वारा आरक्षण की मांग लंबे समय से चली आ रही है। इसे लेकर बड़े आंदोलन भी हुए जिनमें हिंसा भी देखने मिली। गत दिवस एक बार फिर मराठा आरक्षण आंदोलन में हिंसा के बाद तनाव है।  एनसीपी के दो विधायकों के घर फूंक दिए गए । जिनमें एक शरद पवार और दूसरा अजीत पवार के गुट का है। मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे गुट के दो सांसदों और एक भाजपा विधायक द्वारा आंदोलन के पक्ष में इस्तीफा दे दिया गया। लोकसभा चुनाव के कुछ माह पहले उठे  इस बवाल का असर हरियाणा , प.उत्तर प्रदेश , राजस्थान सहित कुछ और  राज्यों में भी पड़ सकता है जिनमें जाट, गुर्जर और मीणा जातियां अनेक वर्षों से आंदोलन करती रहीं। दरअसल तात्कालिक उपायों के तौर पर कुछ मांगें मानकर बाकी को टाल दिए जाने से आंदोलन के जो बीज दबे रह जाते हैं उनमें अनुकूल वातावरण मिलते ही दोबारा अंकुरण होने लगता है। महाराष्ट्र में मराठा जाति अगड़ी है या पिछड़ी ये भी विवाद का विषय है। गत दिवस मुख्यमंत्री ने किसी रिपोर्ट के आधार पर उनमें से कुछ को आरक्षण देने की बात कही तो आंदोलन के नेता ने जिद पकड़ी कि सभी मराठाओं को आरक्षण का लाभ दिया जावे। इस बारे में सबसे महत्वपूर्ण ये है कि हिंसा होने पर इन आंदोलनों की जमीन तैयार करने वाले नेता चूहों की तरह बिल में दुबक जाते हैं । इसीलिए मराठा आरक्षण की मांग के समर्थन या विरोध में बोलने का साहस शरद पवार जैसे दिग्गज  तक नहीं कर पाते। एनसीपी विधायकों का  घर आग के हवाले करने के बाद भी पवार परिवार घटना की निंदा करने का साहस नहीं जुटा सका । जो राजनीतिक दल मराठा समुदाय की इस मांग का समर्थन करते रहे हैं वे भी अपनी चमड़ी बचाते देखे जा सकते हैं । देश भर में  जातिगत जनगणना करवाने की गारंटी बांट रहे राहुल गांधी ने भी  मौन साध रखा है । कांग्रेस ने राज्य सरकार से इस मामले में नीति स्पष्ट करने कहा है किंतु उद्धव  सरकार की सहयोगी रहते हुए मराठा आरक्षण का मसला हल करने का काम उसने क्यों नहीं किया ये बड़ा सवाल है । शरद पवार भी अनेक बार मुख्यमंत्री बने किंतु  मराठाओं का सबसे बड़ा नेता होने के बावजूद उन्होंने भी इस विवाद का हल खोजने का सार्थक प्रयास नहीं किया । ऐसे मामले वैसे तो देश के लगभग सभी राज्यों में हैं। मणिपुर में मैतेई समुदाय आरक्षण मांग रहा था । कुछ महीनों पहले उच्च न्यायालय ने उसकी दशकों पुरानी मांग मंजूर कर ली किंतु उसके बाद वह राज्य गृहयुद्ध जैसे हालात में उलझकर रह गया। शायद इसीलिए राजनेता ऐसे संवेदनशील मुद्दों पर बचते फिरते हैं क्योंकि एक पक्ष का समर्थन करने से दूसरे का विरोध झेलने का खतरा बन जाता है। दुर्भाग्य से जातिगत आरक्षण के  लिए आने वाले नए - नए दबाव राजनीति को पूरी तरह से विकृत करने का कारण बन रहे हैं। जाति आधारित जनगणना के पैरोकार भी अपने बनाए जाल में फंसने लगे हैं । इसका ताजा प्रमाण बिहार है जहां मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का  जातिगत जनगणना के आंकड़े जारी करने वाला दांव उनके लिए संकट का कारण बन गया। यहां तक कि  उनके अपने जनता दल (यू) में ही  भारी असंतोष देखने मिल रहा है। इस कदम का उद्देश्य  पिछड़ी जातियों की सही संख्या जानकर उनको लाभान्वित करना था किंतु उल्टे नए जातीय विवादों का खतरा बढ़ गया  । मराठा , जाट, मीणा अथवा गुर्जर आरक्षण की मांग को किसी न किसी राजनीतिक नेता अथवा पार्टी ने ही हवा दी है। इसके पीछे उनके अपने निजी और  निहित स्वार्थ होते हैं किंतु व्यापक नजरिए से देखें तो देश और समाज के लिए ये मुद्दे विघटनकारी साबित हो रहे हैं। हंसी तो तब आती है जब दलित और पिछड़ी जातियों के राजनीतिक नेता अंतर्जातीय विवाह का आदर्श प्रस्तुत करने के बावजूद भीर जाति की राजनीति करते हैं। उदाहरण के लिए स्व.रामविलास पासवान की दूसरी पत्नी उच्च जाति की हैं , अखिलेश यादव के अलावा लालू प्रसाद यादव के दोनों बेटों ने भी पिछड़ी जाति से बाहर जाकर विवाह किया , सचिन पायलट की पत्नी मुस्लिम है। लेकिन ये सब अपनी जाति के नेता कहलाते हैं। स्व.गोपीनाथ मुंडे पिछड़ी जाति के थे । उन्होंने स्व.प्रमोद महाजन की बहिन से विवाह किया जो ब्राह्मण जाति की थीं। उसके बाद भी स्व.मुंडे पार्टी नेतृत्व से पिछड़े होने के नाम पर भिड़ते रहे। यही काम उनकी बेटियां करती हैं। राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे वैसे तो ग्वालियर के  सिंधिया राजवंश की पुण्याई को भुनाती हैं किंतु  जाट समुदाय की सरगना बनी हुई हैं। कड़वी सच्चाई तो ये है कि पिछड़े और दलित जातियों के हित चिंतक बने  नेताओं ने अपना और अपने परिवार का  उत्थान तो खूब कर लिया किंतु अपनी जाति के लोगों के सामाजिक स्थिति को सुधारने के लिए कुछ नहीं। इसीलिए आजादी के 75 वर्षों बाद भी अगड़े -  पिछड़े के नाम पर समाज को बांटने की राजनीति का गंदा खेल चल रहा है।


- रवीन्द्र वाजपेयी 

Monday 30 October 2023

केरल में विस्फोट आने वाले बड़े खतरे का संकेत



केरल के एर्नाकुलम जिले  में गत दिवस ईसाई समुदाय की एक प्रार्थना सभा में हुए विस्फोटों में  अब तक 3 मौतें हुई और दर्जनों लोग घायल हो गए। जिस सभागार में धमाका हुआ उसमें निकलने के अनेक दरवाजे थे वरना धुएं से दम घुटने के कारण और भी जानें जा सकती थीं। जिस व्यक्ति ने विस्फोट की जिम्मेदारी लेते हुए आत्मसमर्पण कर दिया , उसकी बातों की पुष्टि नहीं हो पाई है। जांच एजेंसियां सक्रिय हो गई हैं। चर्चों सहित अन्य धार्मिक स्थलों की सुरक्षा कड़ी किए जाने के साथ ही ये पता लगाने की कोशिश की जा रही है कि इन धमाकों का संबंध कहीं इजराइल और हमास के बीच चला आ रहा युद्ध तो नहीं है। वैसे ईसाई समुदाय के भीतर ही एक उग्रवादी संगठन पैदा हो गया है जो काफ़ी आक्रामक है। जांच एजेंसियों को ये चिंता भी है कि कहीं ये  हमास समर्थक मुस्लिम संगठनों की कारस्तानी तो नहीं है ? उल्लेखनीय है केरल में मुस्लिम जनसंख्या भी काफी है और यह मुस्लिम लीग का एक मात्र प्रभावक्षेत्र बचा है।  ईसाई समुदाय आम तौर पर इजराइल समर्थक माना जाता है । उधर  देश भर में जिस प्रकार  से हमास की तरफदारी करने मुस्लिम समुदाय मुखर हुआ उसके कारण दोनों के बीच शत्रुता बढ़ने की आशंका बलवती हो गई है। संयोग से केरल में ईसाई और मुस्लिम दोनों समुदायों का काफी असर है। लेकिन जिस  व्यक्ति ने विस्फोट की जिम्मेदारी ली वह खुद को ईसाई समुदाय के भीतर यहोवा के साक्षी , नामक समूह का विरोधी बताता है जिसके केरल में काफी  अनुयायी हैं। यह समूह ईसाई होते हुए भी उनसे कई मामलों में अलग रास्ते पर चलता है। विस्फोट की जिमेदारी लेने वाले व्यक्ति ने इसको राष्ट्रविरोधी बताया है। इसी के साथ सुरक्षा एजेंसियां भारत में रहने वाले यहूदियों की सुरक्षा को लेकर भी सतर्क हैं । दरअसल जिस तरह से इजराइल पर हमास के हमले को न्यायोचित ठहराने का अभियान देश भर चलाया जा रहा है उसको देखते हुए यहूदियों पर  हमले की आशंका बनी हुई है। लेकिन अपेक्षाकृत शांत समझे जाने वाले ईसाई समुदाय के भीतर उभर रहे अंतर्विरोध भी हिंसात्मक रूप लेने लगे तो फिर उसे सस्ते में नहीं लिया जा सकता। चिंता का विषय ये भी है कि केरल जैसे राज्य के  लाखों लोग खाड़ी देशों में कार्यरत हैं जिनमें ईसाई और मुस्लिम भी बड़ी संख्या में  हैं। इनके जरिए विदेशों में बैठी भारत विरोधी ताकतें देश की आंतरिक सुरक्षा को खतरे में डालने का षडयंत्र रचें तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। लेकिन  सबसे महत्वपूर्ण बात ये है कि केरल ईसाई मिशनरियों के साथ ही मुस्लिम संगठनों का मजबूत गढ़ बन चुका है जिनको विदेशी आर्थिक सहायता मिलने की बात भी सर्वविदित है। इस राज्य में वामपंथी विचारधारा लंबे समय से हावी रही है। दुनिया की पहली निर्वाचित साम्यवादी सरकार केरल में ही अस्तित्व में आई थी। हालांकि कांग्रेस के नेतृत्व  वाला मोर्चा भी सत्ता में आता - जाता रहा किंतु उसका  मुस्लिम लीग के साथ गठबंधन होने से वह हिंदूवादी शक्तियों को दबाता रहा है। हालांकि बीते कुछ दशकों से इस राज्य में रा.स्व.संघ का प्रभाव क्षेत्र गांव - गांव तक फैलने से राजनीति त्रिकोणीय होने लगी है । केरल की मौजूदा वामपंथी सरकार को अब तक की सबसे क्रूर माना जा रहा है। राजनीतिक विरोधियों की इतनी हत्याएं पहले यहां पहले  कभी नहीं हुईं । हालांकि वामपंथी खुद को अनीश्वरवादी मानते हैं लेकिन राष्ट्रवादी हिंदू संगठनों को रोकने के लिए वे  भी कांग्रेस की तरह मुस्लिमों और ईसाइयों का तुष्टीकरण करने से बाज नहीं आते । ये देखते हुए गत दिवस एर्नाकुलम में जो विस्फोट हुए वे किसी बड़ी कार्ययोजना का हिस्सा लगते हैं। भले ही इसके पीछे ईसाई समुदाय के भीतर का वैचारिक मतभेद हो लेकिन कहीं न कहीं विदेशी हाथ से इंकार नहीं किया जा सकता। दुर्भाग्य से राष्ट्रीय पार्टी होने के बाद भी कांग्रेस केरल में मुस्लिम लीग और ईसाई मिशनरियों को खुश रखने में लगी रहती है। 2019 में जब राहुल गांधी को अमेठी में अपनी हार का खतरा दिखा तब वे केरल की वायनाड सीट से भी लड़े। यद्यपि वे कहीं से भी लड़कर अपना जनाधार साबित कर सकते थे किंतु उन्होंने वायनाड का चयन किया क्योंकि वहां ईसाई मतदाताओं का वर्चस्व है। आगामी लोकसभा चुनाव के लिए बने विपक्षी गठबंधन में यूं तो वामपंथी दल भी है किंतु प.बंगाल में कांग्रेस के साथ उनके गठजोड़ के बावजूद केरल में वे दूरी बनाकर चलते हैं । हालांकि बीते कुछ चुनावों से वहां हिदुवादी राजनीति जोर पकड़ने लगी है किंतु अभी वह राजनीतिक संतुलन बनाने - बिगाड़ने की स्थिति में नहीं है। यही वजह है कि ईसाई मिशनरियों के अलावा मुस्लिम धर्मांधता केरल में हावी है। गत दिवस हुए विस्फोट की असली वजह साफ नहीं हुई है। लेकिन जो और जैसे भी हुआ वह किसी भावी खतरे का संकेत है । केंद्रीय जांच एजेंसियों को इसकी तह तक जाना चाहिए क्योंकि केरल देश का तटीय राज्य है जहां गैर हिन्दू संगठनों के विदेशों से रिश्ते किसी से छिपे नहीं हैं।


- रवीन्द्र वाजपेयी 

Sunday 29 October 2023

राज्य वन अनुसंधान संस्थान का तुगलकी फैसला:सुबह - शाम टहलने वालों पर भी लगा दिया टोल टैक्स

 पोलीपाथर स्थित राज्य वन अनुसंधान संस्थान के स्थानीय अधिकारी एक बार फिर जनविरोधी रवैए पर उतर आए हैं। इस संस्थान में प्रातः एवं सायंकाल सैकड़ों लोग भ्रमण हेतु आते हैं। अतीत में भी अनेक मर्तबा संस्थान के अधिकारियों द्वारा इस मार्ग पर प्रवेश हेतु प्रतिबंध एवं शुल्क का प्रावधान किया था जिसे जनविरोधी मानकर रद्द किए जाता रहा। अचानक वह जिन्न फिर बोतल से निकल आया है। संस्थान के संचालक के हस्ताक्षर से जारी निर्देश के अनुसार 1 नवंबर से नियमित प्रवेश करने वाले व्यक्तियों और वाहनों को 50 रु. प्रति माह अर्थात 600 रु. प्रतिवर्ष देना होगा। इसके पहले जब भी इस तरह का निर्णय हुआ जनता के विरोध के बाद विभाग को उसे वापिस लेना पड़ा। ऐसे में सवाल उठता है कि इस संस्थान के कर्ताधर्ता नौकरशाह बार - बार वही हेकड़ी क्यों दोहराते हैं ? जो लोग या वाहन इस परिसर में आते हैं उनका उद्देश्य गैर व्यवसायिक है। इस मार्ग के उपयोग को लेकर यहां से भोपाल तक अनेक मर्तबा कागज दौड़े और हर बार यही फैसला हुआ कि संस्थान में आने - जाने वालों पर कोई पाबंदी या शुल्क नहीं लगाया जाए। ताजा फैसला संभवतः चुनाव आचार संहिता का लाभ लेते हुए संस्थान के हुक्मरानों ने किया है। उनको लगता है इस समय नेता और जनप्रतिनिधि व्यस्त हैं , इसलिए वे अपनी मर्जी जनता पर थोप सकते है। वहां सैर करने आने वाले कुछ बुजुर्ग नागरिकों ने इस बात की आशंका भी जताई कि संस्थान के भीतर आने वालों पर शुल्क लादकर अधिकारीगण चुनाव में जनप्रतिनिधियों विशेष रूप से भाजपा के विरुद्ध जनता की नाराजगी बढ़ाना चाहते हैं।

Saturday 28 October 2023

सपा , बसपा और आम आदमी पार्टी म.प्र में विश्वसनीयता गंवाती जा रहीं




म.प्र विधानसभा चुनाव में विपक्ष का राष्ट्रीय गठबंधन कारगर नहीं हो सका। कांग्रेस द्वारा हठधर्मिता दिखाए जाने के कारण सपा, बसपा और आम आदमी पार्टी ने अपने उम्मीदवार खड़े कर दिए। आखिर - आखिर में जनता दल (यू) ने भी अपनी सूची जारी कर दी। इसका चुनाव परिणाम पर  क्या असर होगा ये तो मतगणना में ही स्पष्ट होगा किंतु जिन सीटों पर भाजपा और कांग्रेस के बीच हार - जीत का अंतर कम होगा उनमें इन पार्टियों द्वारा बटोरे गए मत नतीजे की दिशा तय कर सकते हैं। हालांकि सपा और बसपा अतीत में कुछ सीटें जीतते आए हैं किंतु धीरे - धीरे  उनकी ताकत घटती गई। इसका कारण उनके विधायकों का पाला बदलना रहा। इस बार आम आदमी पार्टी सिंगरौली सहित एक दो स्थानों पर उम्मीद लगाए हुए है। इक्का - दुक्का निर्दलीय भी जीत सकते हैं किंतु बाद में उन सबका भाजपा या कांग्रेस की गोद में बैठ जाना तय है। यही कारण है कि इन पार्टियों की विश्वसनीयता समाप्त हो चुकी है। कमोबेश यही हालत गोंडवाना गणतंत्र पार्टी और जयस जैसे दलों की है। प्रदेश की राजनीति में कभी सपा और बसपा का वैचारिक आधार था। कुछ नेता उनके ऐसे थे जो पार्टी की पहिचान हुआ करते थे। वे विधायक रहें या नहीं किंतु सैद्धांतिक दृढ़ता के कारण उनका सम्मान  विरोधी भी करते थे।  इसीलिए उनके समर्थक मतदाता भी प्रतिबद्धता प्रदर्शित करने में नहीं झिझकते थे । लेकिन बीते दो दशकों में इन पार्टियों का चेहरा विकृत होता चला गया। हर हाल में साथ रहने वाले नेताओं और कार्यकर्ताओं की बजाय  ये पार्टियां प्रवासी और मतलबपरस्त  नेताओं की सराय बनकर रह गई। जिनको भाजपा - कांग्रेस ने टिकिट नहीं दिया उनके लिए दरवाजे खोलकर ऐसे दलों ने अपनी जड़ों को खुद ही खोद डाला। एक जमाना था जब प्रदेश में समाजवादी विचारधारा वाले राष्ट्रीय स्तर के नेता हुआ करते थे। इसी तरह बसपा के भी प्रादेशिक नेता दलित समुदाय में  अपनी पकड़ रखते थे। इस पार्टी के उदय से प्रदेश में दलित राजनीति का भविष्य काफी उज्जवल नजर आने लगा था । लेकिन निहित स्वार्थों के लिए सौदेबाजी करने वाले विधायकों और नेताओं ने बसपा के प्रति विश्वास पूरी तरह घटा दिया। यही स्थिति सपा की भी रही जिसके विधायक बिकाऊ निकले । दरअसल पार्टी का जनाधार बढ़ाने के लिए इन दोनों ने दूसरी पार्टी में टिकिट से वंचित नेताओं को बुलाकर उम्मीदवारी दी । जो मतलब निकलते ही  छोड़कर चलते बने। इस चुनाव में भी यही देखने मिल रहा है। चौंकाने वाली बात ये है कि साफ - सुथरी राजनीति करने वाली आम आदमी पार्टी भी इसी धारा में बहने लगी और भाजपा - कांग्रेस के असंतुष्टों को अपनी नाव में बिठाने को तैयार हो उठी। किसी भी राजनीतिक दल के लिए चुनाव अपना प्रभाव बढ़ाने का माध्यम है। इस दौरान वैचारिक आधार पर सहमति और असहमति के कारण लोग एक पार्टी छोड़कर दूसरी में जाते हैं। लेकिन जो नेता महज इसलिए आते हैं कि उनकी पार्टी ने उन्हें चुनाव की टिकिट नहीं दी तो उनकी निष्ठा पर भरोसा करना निरी मूर्खता है। इस बुराई से भाजपा और कांग्रेस जैसी राष्ट्रीय पार्टियां भी अछूती नहीं हैं और इसके नुकसान भी उनको उठाने पड़ रहे हैं लेकिन छोटी और क्षेत्रीय पार्टियों का ढांचा अपेक्षाकृत छोटा होने से अचानक आए बाहरी नेता उस पर भारी पड़ जाते हैं। उनका आगमन क्षणिक लाभ तो दे जाता है किंतु जाना दूरगामी नुकसान का कारण बनता है। आज से 15 - 20 साल पहले तक प्रदेश में सपा और बसपा के कुछ नेता ऐसे थे  जिनकी प्रदेश भर में पहिचान और प्रभाव  था। लेकिन आज ऐसा एक भी शख्स नहीं है। ये देखते हुए भाजपा और कांग्रेस द्वारा ठुकराए गए नेताओं को थाली में रखकर टिकिट देने से कुछ हासिल तो होगा नहीं । उल्टे बची - खुची साख भी मिट्टी में मिल जायेगी । नई भर्ती वाले उम्मीदवारों में से दो - चार जीत भी गए तो वे टिकाऊ नहीं होंगे और बेहतर अवसर दिखते ही दाएं - बाएं होने में देर नहीं लगाएंगे। आम आदमी पार्टी तो अभी प्रदेश में अपने पांव जमाने की स्थिति में है। ऐसे में वह यदि मतलबपरस्त नेताओं को शरण देने की भूल करेगी तब ये अपने लिए गड्ढा खोदने जैसा होगा। चूंकि ये पार्टियां और निर्दलीय मिलकर ज्यादातर भाजपा विरोधी मतों में ही  सेंध लगाएंगे । इसलिए कांग्रेस के साथ उनके रिश्ते और बिगड़ने की आशंका बनी रहेगी जिसका असर 2024 के लोकसभा चुनाव में बनने जा रहे  गठबंधन पर पड़ना तय है। बेहतर होता ये पार्टियां अपने प्रभावक्षेत्र में सीमित सीटों पर वैचारिक तौर प्रतिबद्ध प्रत्याशी उतारतीं तब मतदाता उन्हें गंभीरता से लेते। लेकिन आज की स्थिति में इनको वोट कटवा ही माना जा रहा है। हो सकता है दल बदलू उम्मीदवारों के कारण कुछ सीटें इनकी झोली में आ जाएं किंतु जीते हुए विधायक ज्यादा देर साथ नहीं रहेंगे क्योंकि उनका उद्देश्य केवल अपना स्वार्थ साधना है।

- रवीन्द्र वाजपेयी 


Friday 27 October 2023

भारतीय नागरिकों को मौत की सजा सुनाकर कूटनीतिक दबाव बना रहा कतर


कतर नामक खाड़ी देश में  8 पूर्व भारतीय नौसैनिकों  को मृत्युदंड की सजा सुनाए जाने से देश में खलबली है। सरकार ने इस पर अचरज जताते हुए उनको कानूनी सहायता देने की पहल की है। उन सब पर इजराइल के लिए जासूसी करने का आरोप है। वैसे भारत और कतर के आपसी संबंध काफी अच्छे हैं। लेकिन दुनिया के सभी इस्लामिक आतंकवादी संगठनों को वह खुलकर आर्थिक सहायता देता है । कतर की सऊदी अरब से जरा भी नहीं पटती । चूंकि इसके पास गैस का सबसे बड़ा भंडार है इसलिए अमेरिका तक उससे दबता है। जबकि वह इजराइल को फूटी आंखों नहीं देखना चाहता। बीते 7 अक्टूबर को गाजा पट्टी पर काबिज हमास नामक संगठन द्वारा इजराइल पर हमला किया जाने के बाद भारत ने इजराइल के साथ खड़े होने की जो पेशकश की उससे कतर नाराज बताया जाता है। कतर और ईरान वे देश हैं जो इस लड़ाई में खुलकर हमास के साथ खड़े हुए हैं। इसी बीच अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडन का बयान आ गया कि हमास द्वारा इजराइल पर हमले के पीछे भारत - मध्यपूर्व यूरोप आर्थिक कारीडोर परियोजना है जिसके लिए दिल्ली में हुए जी - 20 सम्मेलन में अमेरिका , फ्रांस , इटली , यूरोपीय यूनियन , सऊदी अरब , यूएई ने  सहमति दी थी। इस कारीडोर को भारत की बड़ी कूटनीतिक सफलता माना गया। उल्लेखनीय है चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग द्वारा  यूरोप तक वन बेल्ट वन रोड की जो योजना शुरू की गई थी वह खटाई में पड़ती जा रही है। अनेक देश उससे हाथ खींचते जा रहे हैं । यहां तक कि पाकिस्तान तक में  विरोध की आवाजें उठने लगीं। इससे चीन को जबरदस्त आर्थिक नुकसान हो रहा है। जी - 20 में जिनपिंग की गैर मौजूदगी में ही भारत द्वारा प्रस्तावित  कारीडोर पर रजामंदी बनी। चूंकि ईरान भी चीन की परियोजना में शामिल था इसलिए उसे भी भारत की ये सफलता रास नहीं आई। वह इस बात से भी भन्नाया हुआ है कि भारत - इजराइल बेहद निकट आ चुके हैं । दूसरी तरफ अमेरिका द्वारा सऊदी अरब और इजराइल के बीच दोस्ती करवाने के प्रयासों में रुकावट पैदा करने के लिए भी ईरान और कतर बेचैन थे । वैश्विक राजनीति के जानकार ये मानकर चल रहे हैं कि हमास के  हमले का निशाना  केवल इजराइल ही नहीं अपितु सऊदी अरब और भारत - मध्यपूर्व यूरोप आर्थिक कारीडोर भी है। कतर में पूर्व सैन्य अधिकारियों को मृत्यदंड के पीछे भी भारत द्वारा  इजराइल के साथ खड़े होने का फैसला बताया जाता है। उसका सोचना ये हो सकता है कि इस बहाने वह भारत को दबाने में कामयाब हो जाएगा। और फिर गैस की आपूर्ति को लेकर भी तो भारत काफी हद तक उस पर निर्भर है। कूटनीति  में जो दिखता है वास्तविकता उससे काफी हटकर रहती है। इसीलिए इजराइल पर हमास के हमले को भले ही फिलिस्तीन  से जोड़कर देखा गया किंतु असली कारण सऊदी अरब और इजराइल की दोस्ती में बाधा पैदा करना भी था । साथ ही  जिनपिंग की  खीझ भी है जो वन बेल्ट वन रोड परियोजना के खटाई में पड़ने से तो परेशान थे ही , जी - 20  सम्मेलन में नरेंद्र मोदी के भारत मध्यपूर्व यूरोप आर्थिक कारीडोर के प्रस्ताव पर अमेरिका,  यूरोप , यूएई  और सऊदी अरब की सहमति  मिलने से चीन के साथ ही ईरान और पाकिस्तान जैसे देश  परेशान हो उठे । हमास के  हमले के बाद जिस तरह से अरब देशों के साथ ही ईरान , कतर और चीन खुलकर उसके पक्षधर बनकर उभरे उससे बहुत सारी बातें स्पष्ट हो गईं। अमेरिकी राष्ट्रपति के बयान और कतर में पूर्व भारतीय नौसैनिकों को मृत्युदंड के समाचार एक साथ आना भी महज संयोग है। ऐसा ऐसा लगता है पश्चिम एशिया में नया शक्ति संतुलन बनने  से  इस्लामिक देशों की एकजुटता  छिन्न - भिन्न होने लगी है। यूएई तो इजराइल से पहले ही दोस्ताना कायम कर चुका है। मिस्र ने भी  गाजा पट्टी से आने वाले शरणार्थियों के लिए अपने दरवाजे बंद कर दिए । सऊदी अरब के नए शाही शासक देश को आधुनिकता की ओर ले जाने प्रयासरत हैं।  ऐसे में इस्लाम के नाम पर आतंकवाद और कट्टरता के पोषक यदि उद्वेलित हैं तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। कतर में भारतीय नागरिकों को मौत की सजा दिया जाना भी भारत पर कूटनीतिक दबाव बनाने की कोशिश है जिससे वह इजराइल के साथ खड़े रहने से बचे । हालांकि भारत सरकार ने फिलीस्तीन के भूमि अधिकार का समर्थन दोहराते हुए गाजा पट्टी में राहत सामग्री भी भेजी किंतु कतर द्वारा उठाए गए कदम के बाद प्रधानमंत्री श्री मोदी को वहां की सरकार से सीधे बात करनी चाहिए। ऐसे  अवसरों पर ही कूटनीतिक कुशलता की परीक्षा होती है। इस सबके बीच भारत को अपने राष्ट्रीय हितों के साथ विदेशों में रह रहे अपने नागरिकों की सुरक्षा की चिंता भी करनी होगी। उल्लेखनीय है कतर सहित खाड़ी देशों में लाखों भारतीय कार्यरत हैं।

-

 रवीन्द्र वाजपेयी

Thursday 26 October 2023

शिक्षा , कला , साहित्य और संस्कृति का भारतीयकरण समय की मांग


एनसीईआरटी  (राष्ट्रीय शैक्षिक और अनुसंधान परिषद ) द्वारा अपनी पुस्तकों में देश का नाम इंडिया की जगह भारत लिखने की सिफारिश , एक सार्थक कदम है। नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति के अंतर्गत पाठ्यक्रम  में विषयों के नाम बदलने की प्रक्रिया चल रही है। उदाहरण के तौर पर प्राचीन इतिहास के स्थान पर शास्त्रीय इतिहास लिखने और भारत का ज्ञान नामक पुस्तक का प्रकाशन किया जाना है। विशेषज्ञों के साथ ही राज्यों से भी इस बारे में अभिमत लिया गया जिनमें से कुछ ने बदलाव के प्रति असहमति व्यक्त कर दी। कर्नाटक की कांग्रेस सरकार ने कश्मीरी पंडितों के नरसंहार जैसी घटनाओं को पाठ्यक्रम में रखे जाने की पिछली सरकार की सिफारिश वापस ले ली। वहीं अनेक गैर भाजपा राज्य सरकारें अंधविश्वास से बचने की पक्षधर हैं तो कुछ संतुलन बनाए रखने की। इसमें दो मत नहीं हैं कि पाठ्यक्रम की विषयवस्तु का छद्म धर्मनिरपेक्षता के पैरोकारों ने जमकर सत्यानाश किया । दूसरा नुकसान अंग्रेजियत में डूबे तबके के हाथों हुआ। दुर्भाग्य से आजादी के बाद साम्यवादी विचारधारा के  चुनिन्दा लोग शिक्षा और संस्कृति के क्षेत्र में घुस आए जिन्हें पंडित नेहरू ने प्रोत्साहित किया जो खुद सोवियत संघ की साम्यवादी क्रांति से प्रभावित थे। इसके अलावा विदेशों में शिक्षित लोग शिक्षा - शास्त्री बनकर व्यवस्था में बैठ गए और ज्ञान - विज्ञान का सारा श्रेय पश्चिम को देते हुए अंग्रेजी को प्रगतिशीलता की निशानी बना दिया। इस वजह से भारत के इतिहास ,    पौराणिक ग्रंथों , महानायकों और उपलब्धियों पर उपेक्षा की धूल डाली जाती रही। भारत के महान साहित्यकारों , कलाकारों और उनकी कलाओं  को नजरंदाज किया जाने लगा । देश के लिए अपना सर्वस्व दांव पर लगाने वाले महाराणा प्रताप की बजाय अकबर को महान बताया जाने लगा। गुलाम मानसिकता के प्रतीक चिन्ह मार्ग देश की राजधानी में बाबर , हुमायूं , औरंगजेब के नाम पर बनाए गए। प्रशासन में भी भारतीय संस्कृति को पिछड़ेपन से जोड़कर देखने वाले कथित आधुनिक भर गए । वर्तमान दुरावस्था का सबसे बड़ा कारण शिक्षा पद्धति और पाठ्यक्रम ही है जिसने हमारे इतिहास और संस्कृति के गौरवशाली पक्ष पर परदा डालते हुए  निराशाजनक पहलुओं को उभारने का प्रयास किया । केंद्र में मोदी सरकार आने के बाद नई शिक्षा नीति पर काम शुरू हुआ और अब जाकर पाठ्यक्रम में सकारात्मक बदलाव और सुधार  किए जाने की प्रक्रिया प्रारंभ होने जा रही है। प्राचीन ग्रंथों पर शोध कार्य को यदि प्रोत्साहन और संरक्षण दिया गया होता तो युवा पीढ़ी को पश्चिम से प्रभावित होने से रोका जा सकता था। लेकिन प्रतिभा पलायन का जो  सिलसिला आजादी के बाद शुरू हुआ उसे रोकने के लिए सार्थक प्रयास कभी हुए ही नहीं क्योंकि  हमारे नीति नियंता ही भारतीयता को लेकर हीन भावना से ग्रसित रहे । उस दृष्टि से एनसीईआरटी के पाठ्यक्रम और पुस्तकों का भारतीयकरण किया जाना 21 वीं सदी को भारत के नाम लिखने के लिए नितांत जरूरी है। हजारों साल पहले भारत में विज्ञान और तकनीक का जो विकास हुआ वह उन मंदिरों में देखा जा सकता है जिनकी अभी तक उपेक्षा होती रही। आजकल भारत की प्राचीन स्थापत्य और वास्तु कला के सैकड़ों ऐसे स्मारकों की जानकारी आ रही है जिनके सामने ताजमहल तुच्छ है। उनके निर्माण में जिस इन्जीनियरिंग कौशल और खगोलीय ज्ञान का उपयोग किया गया उसे देखकर पश्चिम के वैज्ञानिक भौचक रह जाते हैं किंतु हमारे देश में मुगल इतिहास और वामपंथी विचारधारा से प्रभावित शिक्षा शास्त्रियों को वह सब महत्वहीन प्रतीत होता है। हमारे पौराणिक ग्रंथों में जिन प्रसंगों का विवरण है उनका समुचित अध्ययन कर ईमानदारी से शोध किया जाए तो ये साबित किया जा सकता है कि आज पश्चिम जिन बातों के आधार और खुद को श्रेष्ठ समझता है वे सब भारतीय ज्ञान परंपरा का अभिन्न अंग रहीं। लेकिन कालांतर में  राजनीतिक प्रतिद्वंदिता के कारण राष्ट्र के व्यापक हितों को  उपेक्षित किए जाने से हमारे सीमांत असुरक्षित हुए जिससे विदेशी लुटेरों के हमले होने लगे जो भारत की संपन्नता के किस्से सुनकर  लूटपाट करने आते और लौट जाते। धीरे - धीरे उन्हें लगा  कि यहां के शासक संकीर्ण मानसिकता के शिकार हैं जिसने उनको बार - बार आने के अवसर दिए  । अंततः वे यहां राज करने के इरादे पाल बैठे जिससे सैकड़ों वर्षों के लिए  गुलामी ने हमें जकड़ लिया। उसी का दुष्परिणाम प्राचीन ज्ञान , विज्ञान, कला और संस्कृति पर विदेशी प्रभाव के रूप में देखा जा सकता है। 1193 में बख्तियार खिलजी नामक एक मुस्लिम आक्रांता ने नालंदा के पुस्तकालय को आग के हवाले कर दिया ताकि हमारी समूची ज्ञान संपदा भस्म हो जाए। इसी तरह मुस्लिम शासकों ने ऐतिहासिक मंदिरों एवं सांस्कृतिक केंद्रों को ध्वस्त किया जिससे भारत की धार्मिक - सांस्कृतिक जड़ें नष्ट हो जाएं। अंग्रेजों ने तोड़फोड़ तो नहीं की किंतु हमारे अभिजात्य वर्ग में भारतीयता के प्रति हीन भावना का बीजारोपण जरूर कर दिया जिसका असर अभी भी स्पष्ट नजर आता है। देश का वह वर्ग जो अंग्रेजी के चार अक्षर भी लिख -  पढ़ नहीं सकता वह भी अंग्रेजियत से जुड़ने की कोशिश करता है। इससे जो नुकसान हुआ उसका आकलन करना बेहद कठिन है किंतु समय आ गया है जब शिक्षा, कला , साहित्य और संस्कृति का भारतीयकरण किया जाए । एनसीईआरटी द्वारा इस दिशा में प्रारंभ किए गए प्रयास को व्यापक समर्थन मिलना चाहिए क्योंकि इसका उद्देश्य भावी पीढ़ी के मन में भारतीयता के प्रति आदर का भाव उत्पन्न करना है।


- रवीन्द्र वाजपेयी


Wednesday 25 October 2023

युद्ध रोकने की ताकत खोता जा रहा संरासंघ


तीन सप्ताह होने जा रहे हैं किंतु हमास और इजराइल के बीच चल रहा युद्ध खत्म होने का नाम नहीं ले रहा। उल्टे उसका दायरा लेबनान और सीरिया तक बढ़ता जा रहा है। 7 अक्टूबर को गाजा पट्टी पर शासन कर रहे हमास नामक इस्लामिक उग्रवादी गुट ने इजराइल पर हजारों रॉकेट छोड़कर जैसे बर्र के छत्ते में हाथ डाल दिया हो। पलक झपकते सैकड़ों नागरिक  मारे गए। हमास के लड़ाकों ने इजराइल की जमीनी सीमा में घुसकर भी तांडव मचाया। इसके अलावा पैरा ग्लाइडर्स के जरिए भी हमला किया गया जिसमें  सैकड़ों जानें चली गईं।  बड़ी संख्या में लोगों को हमास ने बंधक बना लिया जिनके साथ किए गए अमानवीय व्यवहार के वीडियो अल्लाह हु अकबर के नारों के साथ प्रसारित  भी किए गए।  हमले के बाद बंधकों के साथ की गई बर्बरता से इजराइल बुरी तरह भड़कते हुए हमास को जड़ से नष्ट करने पर आमादा हो गया।  और फिर उसने जिस तरह का हमलावर रुख अपनाया उससे समूचे गाजा क्षेत्र में विध्वंस का माहौल बन गया। अपने  लोगों की मौत का बदला इजराइल ने  गाजा में रहने वाले  हजारों नागरिकों और हमास के लोगों को मारकर लिया । जिनमें बड़ी संख्या में बच्चे बताए जाते हैं।  हजारों इमारतें मलबे में तब्दील हो चुकी हैं। बिजली , पानी , दवाइयां जैसी जरूरी चीजों का अकाल हो चुका है। उल्लेखनीय है गाजा में इन सबकी आपूर्ति इजराइल से ही की जाती थी जो 7 अक्टूबर के हमले के बाद रोक दी गई। इसके कारण वहां  इंसानी जिंदगी पूरी तरह से संकट में है। अनेक देशों  ने राहत के लिए हाथ बढ़ाए हैं । संरासंघ भी आगे आया है। भारत ने इजराइल पर हुए हमले के फौरन बाद उसके साथ खड़े रहने का ऐलान किया था किंतु गाजा के लोगों की सहायता के लिए उसने भी सामग्री भेजी। यहां तक कि इजराइल के  स्थायी संरक्षक अमेरिका ने भी बड़ी रकम गाजा वासियों के लिए स्वीकृत की। अरब देशों के अलावा दुनिया भर से इजराइल पर ये दबाव पड़ रहा है कि वह युद्ध रोके। अमेरिका ने तो उसको गाजा पर कब्जा करने के गंभीर परिणामों की चेतावनी भी दी है। संरासंघ के महासचिव भी इजराइल पर लगातार दबाव डाल रहे हैं किंतु  प्रधानमंत्री नेतन्याहू ने विश्व संगठन को ही खरी - खोटी सुना दी और हमास के खात्मे तक हमला जारी रखने का ऐलान कर दिया। गत दिवस सीरिया के सैन्य ठिकानों पर भी इजराइल ने जबर्दस्त हमला किया। लेबनान भी उसकी मार झेल चुका है। ऐसे में ये आशंका बढ़ रही है कि कहीं ये युद्ध इजराइल विरुद्ध अरब जगत न हो जाए। लेकिन इस सबके बीच ध्यान रखने वाली बात ये है कि संरासंघ अपना प्रभाव खोता जा रहा है। रूस - यूक्रेन युद्ध शुरू हुए डेढ़ साल से ज्यादा का समय बीत गया जिसमें  5 लाख से ज्यादा लोग हताहत हो चुके हैं। यूक्रेन के ज्यादातर हिस्से रूसी हमलों में  बरबाद कर दिए गए। यदि अमेरिका और उसके समर्थक देश उसकी मदद न करते तो अब तक रूस उस पर कब्जा कर लेता । उस युद्ध से शीतयुद्ध वाले  माहौल का पुनर्जन्म हो गया। लेकिन इतना समय बीत जाने के बाद भी संरासंघ उस युद्ध को रूकवाने के लिए कुछ न कर सका । इजराइल ने तो हमास के  हमले का बदला लेने के लिए गाजा पर कहर बरसाया किंतु रूस आज तक यूक्रेन पर  हमले का औचित्य साबित नहीं कर सका। चूंकि सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्यों में रूस और चीन की  अमेरिका , फ्रांस और ब्रिटेन से नहीं पटती अतः वे एक दूसरे के विरुद्ध वीटो का इस्तेमाल करते हुए जरूरी मसलों पर फैसला नहीं होने देते।  इसीलिए यूक्रेन युद्ध के बाद अब इजराइल और हमास की लड़ाई में भी संरासंघ की लाचारी खुलकर सामने आ रही है। इस सबसे   अन्य देशों की अर्थव्यवस्था बुरी तरह प्रभावित होती है। कोरोना संकट से उबरने के बाद उक्त दोनों लड़ाइयों ने कच्चे तेल और खाद्यान्न का संकट बढ़ा दिया है। लेकिन सबसे बड़ी बात ये है कि विश्व संगठन पूरी तरह असरहीन साबित होने लगा है। न तो उसके कहने से रूस ने यूक्रेन पर हमले रोके और न ही  इजराइल उसकी सुन रहा है। दूसरी तरफ जो अरब देश इजराइल के हमले को अमानवीय ठहरा रहे हैं वे भी हमास की बर्बरता के विरुद्ध मुंह खोलने तैयार नहीं हैं। मुस्लिम देशों द्वारा  इसी तरह कश्मीर में पाकिस्तान प्रवर्तित आतंकवाद की निंदा करने से परहेज किया जाता है। इसका कारण भी संरासंघ का पंगु हो जाना  है जिसके लिए सुरक्षा परिषद की लगाम चंद बड़े देशों के हाथ में होना है जो बजाय समाधान देने के समस्या को बढ़ावा देते हैं। फिलिस्तीनियों की जमीन का मसला निश्चित तौर पर  काफी पुराना है किंतु वर्तमान संकट के लिए केवल और केवल हमास ही जिम्मेदार है और इसीलिए इजराइल को गाजा की तबाही का बहाना मिल गया। ये जंग कहां जाकर रुकेगी कहना कठिन है । दरअसल नेतन्याहू का राजनीतिक भविष्य भी इसके परिणाम पर निर्भर है । लेकिन सबसे बड़ा डर इस बात का है कि दुनिया में जंग को रोकने का कोई प्रभावी उपाय नहीं बचा। ऐसे में अगर चीन भी वन चाइना नीति के तहत  ताइवान पर हमला कर दे तब उसे रोकने वाला कौन होगा क्योंकि रूस की तरह उसके पास भी सुरक्षा परिषद वाला वीटो जो है।


- रवीन्द्र वाजपेयी


Monday 23 October 2023

राजनीतिक दल केवल चुनाव लड़ने की मशीन बनकर रह जाएंगे


म.प्र विधानसभा चुनाव में भाजपा और कांग्रेस द्वारा उम्मीदवारों की पूरी सूची लगभग जारी हो चुकी है। इक्का - दुक्का सीटें ही शेष हैं । प्रत्याशियों के प्रति मतदाताओं की पसंद - नापसंद तो मतगणना के बाद ही स्पष्ट होगी लेकिन सूची सार्वजनिक होते ही भाजपा और कांग्रेस में जिस प्रकार से विरोध और असंतोष देखने मिल रहा है वह राजनीति के गिरते स्तर का परिचायक है। बड़े नेताओं के मुर्दाबाद के नारे और पुतला दहन , पार्टी दफ्तरों का घेराव और आत्मदाह का प्रयास तक देखने मिल रहा है। जिन नेताओं को लोग अपना रहनुमा मानते थे वे ही टिकिट न मिलने पर  खलनायक मान लिए जाते हैं । दशकों तक जिस पार्टी की विचारधारा को धर्मशास्त्रों की तरह पूजा जाता है उसे एक झटके में रद्दी की टोकरी में फेंकने से परहेज नहीं किया जाता। नीतिगत निष्ठा , आदर्श सब पल भर में बदल दिए जाते हैं। इसके पीछे यदि नीतिगत और कार्यप्रणाली का मतभेद हो तो बात समझ में भी आती है किंतु आजकल राजनीति  पूरी तरह स्वार्थसिद्धि पर आधारित हो चली है। नीतियां और नेता भी तभी तक सुहाते हैं जब तक वे निहित स्वार्थों की पूर्ति करते रहें।  ज्यादातर लोगों का एकमात्र ध्येय चुनाव की टिकिट प्राप्त करना मात्र रह गया है। केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी ने कुछ साल पहले राजस्थान विधानसभा में आयोजित कार्यक्रम में कहा था कि राजनीति में काम करने वालों की महात्वाकांक्षा अंतहीन  है। विधायक बनने के बाद मंत्री और मंत्री बन जाने के बाद मुख्यमंत्री बन जाने के लिए हाथ - पांव मारे जाते हैं । उस आयोजन में मंच पर कांग्रेस के नेता भी मौजूद थे। हास - परिहास में गहरी और गंभीर बात कह जाने के लिए प्रसिद्ध श्री गडकरी आज के दौर में स्व.अटल जी की तरह उन राजनीतिक नेताओं में से हैं जिनका कोई शत्रु नहीं है। बावजूद इसके कि वे रास्वसंघ और भाजपा की विचारधारा के प्रति पूरी तरह समर्पित और प्रतिबद्ध हैं। लेकिन उनकी अपनी पार्टी में ही  ऐसे लोग कम होते जा रहे हैं जो केवल वैचारिक प्रतिबद्धता के कारण उससे जुड़े हैं और निःस्वार्थ भाव से विचारधारा की सेवा करते हैं। कांग्रेस की तो बात ही करना बेकार है क्योंकि उसमें व्यक्ति निष्ठा के चलते  विचारधारा नाम की कोई चीज बची ही नहीं । रही बात क्षेत्रीय दलों की तो वे किसी  नेता या परिवार की निजी मिल्कियत जैसे हैं जिनकी विचारधारा केवल निहित स्वार्थ साधने तक सीमित है। वामपंथी दल इस बुराई से दूर कहे जा सकते थे किंतु राष्ट्रीय राजनीति में हाशिए पर सिमटते जाने के कारण वे भी बेमेल गठबंधन करने लगे हैं। भाजपा के अंध विरोध ने उन्हें नकारात्मक राजनीति की तरफ धकेल दिया जिससे युवा पीढ़ी उनसे विमुख हो चली है । मौजूदा परिदृश्य देखें  तो म.प्र जैसे राज्य  की राजनीति बीते पांच दशक से पूरी तरह दो ध्रुवीय हो चली है। इसीलिए जिसे भी नेतागिरी करनी होती है वह भाजपा और कांग्रेस में संभावनाएं तलाशता है। ऐसे में इन पार्टियों को भी ये सतर्कता बरतनी चाहिए कि वे किसी भी नए व्यक्ति को  सदस्यता देते समय उसे ये बात समझा दें कि चुनावी टिकिट मिलने की कोई गारंटी नहीं है। आजकल सेवा निवृत्त नौकरशाहों में  भी राजनीति का आकर्षण जाग उठा है। जिंदगी भर अफसरी करने के बाद सांसद और विधायक बन जाने की कार्ययोजना के साथ ये लोग राजनीति में कदम रखते हैं और किसी नेता के कृपा पात्र बनकर लालबत्ती हासिल कर लेते हैं। लेकिन ज्योंही इनको लगता है कि इनका स्वार्थ सिद्ध नहीं हो रहा ,  ये पाला बदलने में संकोच नहीं करते। प्रदेश के एक पूर्व आई.पी.एस अधिकारी उमा भारती के समय भाजपा में आए और देखते - देखते विधायक और  मंत्री बन गए। उसके बाद किसी आयोग का अध्यक्ष पद भी उनको दिया गया।  पिछला चुनाव वे हारे और इस बार टिकिट नहीं मिली तो बेटे को बसपा से उम्मीदवार बनवा दिया । ऐसे ही लोग कांग्रेस में भी घुसे हुए हैं । दरअसल इस श्रेणी के जो रेडीमेड नेता आते हैं उनकी विचारधारा में तो रुचि होती नहीं और न ही वे जमीनी कार्यकर्ता बनकर काम करना पसंद करते हैं। बड़े नेताओं के साथ निकटता कायम कर वे महिमामंडित हो जाते हैं । लेकिन इनकी वजह से बरसों तक दरी - फट्टा उठाने वाले कार्यकर्ता के मन में जो कुंठा पैदा होती है उसी का परिणाम है कि थोड़े समय बाद ही उसकी महत्वाकांक्षा जोर मारने लगती है । और जब उसे लगता है कि उसके योगदान का मूल्यांकन नहीं हो रहा और नेताओं के कृपापात्र अवसरवादी मलाई के हकदार बने हुए हैं तब वह भी दबाव की राजनीति पर उतारू हो जाता है। बीते दो - तीन दिनों में प्रदेश के कोने - कोने से भाजपा और कांग्रेस में  बगावत की खबरें इसी कारण से आ रही हैं । यदि भाजपा और कांग्रेस ने इस सबसे सबक नहीं  लिया तो भविष्य में वे केवल चुनाव लड़ने वाले मशीन बनकर रह जाएंगी जिसका विचारधारा से कोई संबंध नहीं होगा । वैसे भी  मतदाताओं को आकर्षित करने के लिए पार्टी की नीतियां और कार्यक्रम कारगर नहीं रहे । इसीलिए मुफ्त उपहारों के  पैकेज के भरोसे चुनाव जीतने की कोशिश की जा रही है।


- रवीन्द्र वाजपेयी

Saturday 21 October 2023

सपा और कांग्रेस के बीच कलह से विपक्षी एकता का भविष्य खतरे में




हालांकि चुनाव के मौसम में ऐसी  बातें बेहद आम हैं किंतु बीते दो दिनों में सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव और कांग्रेस नेताओं के बीच जिस तरह की बयानबाजी हुई उसका बुरा असर  इंडिया नामक  नवजात विपक्षी गठबंधन पर पड़े बिना नहीं रहेगा।  श्री यादव के अनुसार  सपा नेताओं की  म.प्र के दो पूर्व मुख्यमंत्रियों कमलनाथ और दिग्विजय सिंह के साथ जो चर्चा हुई उसमें पिछले आंकड़ों के आधार पर उसके लिए छह विधानसभा सीटें छोड़ने पर सहमति बनी थी। लेकिन कांग्रेस द्वारा उन सीटों पर भी उम्मीदवार घोषित करने से नाराज सपा अध्यक्ष ने  उसको धोखेबाज कहकर चेतावनी दे डाली कि भविष्य में  वे उसके साथ गठबंधन पर अपने ढंग से विचार करेंगे। इसी के साथ उन्होंने उ.प्र कांग्रेस के अध्यक्ष अजय राय द्वारा सपा के बारे में दिए बयान पर नाराजगी जताते हुए उनके बारे में चिरकुट जैसे शब्द का प्रयोग तक कर डाला । कांग्रेस इस बयान से हतप्रभ रह गई । श्री राय ने पहले तो संयम दिखाया किंतु बाद में अखिलेश पर ये कहते हुए हमला किया कि जो अपने पिता का सम्मान न कर सका उससे और क्या अपेक्षा की जा सकती है। बात यहीं नहीं रुकी और म.प्र कांग्रेस के अध्यक्ष कमलनाथ ने पत्रकारों द्वारा अखिलेश के बयान पर सवाल पूछे जाने पर कह दिया छोड़ो अखिलेश - वखलेश। इस सबके बीच सपा ने प्रदेश में अनेक  सीटों पर प्रत्याशी उतारकर समझौते की गुंजाइश ही समाप्त कर दी। दोनों पार्टियों के बीच गरमागरम बयानबाजी उप्र में पहले भी हुई है। हालांकि वहां  2017 का  विधानसभा चुनाव राहुल गांधी और अखिलेश यादव  मिलकर लड़े थे किंतु बाद में वह गठबंधन टूट गया। हालांकि हाल ही में हुए घोसी विधानसभा उपचुनाव में कांग्रेस ने सपा को समर्थन दिया और वह जीती किंतु पड़ोसी राज्य  उत्तराखंड के बागेश्वर उपचुनाव में सपा का उम्मीदवार खड़ा होने से कांग्रेस को मात खानी पड़ी। उसके बाद से ही दोनों के मन में खटास बढ़ गई।  म.प्र की राजनीति वैसे भी दो ध्रुवीय होने से कांग्रेस को लगा कि  अन्य दलों से तालमेल बिठाने पर सपा से  ज्यादा आम आदमी पार्टी को सीटें देनी होंगी। इसीलिए प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कमलनाथ ने किसी अन्य विपक्षी दल को भाव नहीं दिया । जबकि भाजपा से आए तमाम नेताओं को  टिकिट दे दी। आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल और भगवंत सिंह मान ने प्रदेश में की गई रैलियों में जिस तरह कांग्रेस को आड़े हाथ लिया उससे श्री नाथ खुश नहीं थे। विपक्षी एकता के नाम पर सीटें न छोड़ना पड़ें इसलिए उन्होंने 5 अक्टूबर को भोपाल में होने वाली इंडिया की पहली बड़ी रैली भी रद्द करवा दी। इस घटनाक्रम से ये स्पष्ट हो गया कि 2024 में भाजपा को हराने की मंशा से एकजुट होने का दिखावा कर रहे विपक्षी दलों के बीच आपसी विश्वास का नितांत अभाव है । और वे अपने प्रभावक्षेत्र में दूसरे किसी को बर्दाश्त करने राजी नहीं हैं । म. प्र के अलावा  राजस्थान और छत्तीसगढ़ में भी कांग्रेस ने अन्य किसी विपक्षी दल से गठजोड़ नहीं किया। तेलंगाना में वह के.सी राव की क्षेत्रीय पार्टी के विरुद्ध मैदान में है । म.प्र में बसपा भी अलग लड़ रही है। इस घटनाक्रम से एक बार फिर ये साफ हो गया कि विपक्षी एकता पर नेताओं की व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाएं भारी पड़ रही हैं। श्री नाथ को अपने वर्चस्व की ज्यादा फिक्र है , बजाय विपक्षी एकता के। इसी तरह  श्री केजरीवाल  और अखिलेश जैसे नेताओं में भी विपक्षी गठबंधन की आड़ में अपनी पार्टी का विस्तार कर लेने की भावना है। इसीलिए इंडिया गठबंधन  राष्ट्रीय विकल्प बनने का स्वरूप नहीं ले पा रहा। उदाहरण के लिए  म.प्र  , राजस्थान और छत्तीसगढ़ में  कांग्रेस यदि विपक्षी गठबंधन बनाकर चुनाव लड़ती तो भाजपा की मुश्किलें बढ़ जातीं । लेकिन उसके भीतर ही एक वर्ग ऐसा है जो आम आदमी पार्टी के साथ जुड़ने का घोर विरोधी है। विशेष रूप से पंजाब और दिल्ली के कांग्रेस जन इस बारे में ज्यादा ही मुखर हैं । इसी तरह उ. प्र में सपा नेतृत्व कांग्रेस की दयनीय स्थिति देखते हुए उसके साथ जुड़ने के प्रति उदासीन है। अन्य राज्यों में भी कमोबेश ऐसी स्थितियां नजर आ रही हैं। भले ही ये कहा जाए कि इंडिया का गठन 2024 के लोकसभा चुनाव के लिए किया गया है किंतु उसके पहले हो रहे राज्यों के विधानसभा चुनाव में विपक्षी एकता का पूर्वाभ्यास किया जाता तो आगे का रास्ता आसान हो जाता। बीते दो दिनों में सपा और कांग्रेस के बीच हुई  तीखी बयानबाजी के बाद विपक्षी एकता को लेकर व्यक्त की जा रही शंकाएं और गहराती जाएंगी। ऐसे में संभावना यही है कि म.प्र , राजस्थान , छत्तीसगढ़ और तेलंगाना  के चुनाव परिणामों के बाद राष्ट्रीय राजनीति के समीकरण नया रूप ले सकते हैं।


- रवीन्द्र वाजपेयी 

Thursday 19 October 2023

ताकि 20 अक्टूबर 1962 जैसा धोखा दोबारा न खाना पड़े


कहने को तो 20 अक्टूबर एक तारीख मात्र है।  लेकिन  61 वर्ष  पूर्व का 20 अक्टूबर कभी न भूलने वाला बन गया ।  1962 में इसी दिन चीन ने दोस्ती की धज्जियां उड़ाते हुए लद्दाख से अरुणाचल तक हमला बोल दिया था। तत्कालीन प्रधानमन्त्री पं. नेहरु के साथ ही पूरा देश हतप्रभ रह गया। आजादी के महज 15 साल बाद देश की सैन्य तैयारी ऐसी नहीं थी कि उस आक्रमण का मुकाबला कर पाते। इसीलिए अप्रतिम  शौर्य और पराक्रम का परिचय देने के बाद भी हमारे हिस्से में हार आई और  हजारों वर्ग किलोमीटर भूमि चीन ने हथिया ली । आज भी  वह चाहे जब लद्दाख, अरुणाचल ,  सिक्किम और भूटान से लगे  क्षेत्रों को अपना बताने की शरारत  किया करता है। अपने नक्शे में अरुणाचल को दक्षिणी तिब्बत नाम देकर दर्शाने से भी वह बाज नहीं आता। 1962 के बाद हालांकि  छुटपुट झड़पें अवश्य होती रहीं लेकिन आपसी समझौते के अंतर्गत शस्त्रों के उपयोग से दोनों देश बचते रहे। इसीलिए  2020 की गर्मियों में गलवान घाटी में हुई झड़प में बड़ी संख्या में दोनों पक्षों के  सैनिकों के हताहत होने के बावजूद एक भी गोली नहीं चली । वास्तविक नियन्त्रण रेखा की स्थिति को बदलने का जो प्रयास चीन द्वारा किया गया वह भारत की जबरदस्त सैनिक और कूटनीतिक तैयारी से सफल न हो सका । अग्रिम मोर्चों तक सडकें , पुल और हवाई पट्टी का  निर्माण करते हुए हमने उन दुर्गम सीमा क्षेत्रों में अपनी प्रभावशाली उपस्थिति दर्ज कराई है। इसी वजह से  स्थिति बेहद तनावपूर्ण होने के बाद भी 1962 की पुनरावृत्ति नहीं हो सकी।  भारत द्वारा चीन से सटी पूरी सीमा पर सैनिकों के अलावा  मिसाइलें, तोपें, टैंक और  लड़ाकू विमानों के साथ ही अत्याधुनिक राडार प्रणाली स्थापित कर दी गई। इसीलिए चीन सीधी लड़ाई से बचता है। लेकिन आज के दिन हमें इस बात पर मंथन करना चाहिए कि 61 वर्षों में चीन के साथ सीमा विवाद का हल क्यों नहीं हो सका ? भले ही वह आज दुनिया की  बड़ी आर्थिक और सैन्य महाशक्ति हो परंतु 30 - 35 वर्ष  पूर्व तक भारत उसकी तुलना में कहीं बेहतर स्थिति में था। और फिर ये सवाल भी अपनी जगह है कि उसके आधिपत्य में चली गई भूमि की वापसी के लिए हमने कभी कोई मुहिम क्यों नहीं चलाई ? गौरतलब है लगभग डेढ़ दशक से चीन के साथ हमारा व्यापार पूरी तरह से इकतरफा चल रहा है। अर्थात निर्यात कम और आयात ज्यादा होने से उसको तो बेशुमार लाभ पहुंचा परंतु हमारे  छोटे  और मझोले उद्योग बरबाद हो गये। गलवाल की घटना के बाद केंद्र सरकार द्वारा आर्थिक मोर्चे पर कड़े कदम उठाकर चीन को शह देने का जो साहसिक कदम उठाया गया वैसा पहले ही उठाया जाता तो स्थिति दूसरी होती। उस दृष्टि से 20 अक्टूबर की तारीख ये सोचने की है कि चीन द्वारा विस्तारवाद की नीति के अंतर्गत तिब्बत पर  कब्जे  को मान्यता देने जैसी गलती का खामियाजा भुगतने के बाद भी उसको लेकर हमारी कोई ठोस नीति क्यों नहीं बन सकी ? तिब्बत को कब्जाने के बाद चीन ने  अंग्रेजों के ज़माने के समझौतों को नकारकर कहना शुरू कर दिया कि भारत के साथ  सीमाओं का कभी निर्धारण हुआ ही नहीं और आज भी वह  उसी बात पर अड़ा है । ऐसे  में उसको ये बताने की जरूरत है कि यदि सीमा संबंधी ऐतिहासिक समझौते बेमानी हैं तब तिब्बत पर उसका कब्जा भी गैर कानूनी है। बीते कुछ वर्षों के घटनाक्रम से एक बात तो स्पष्ट हो गई कि चीन को उसी की शैली में जवाब दिया जाए तो उसकी अकड़ कम हो जाती है। आज भले ही युद्ध न हो रहा हो लेकिन यही उचित समय है जब भारत को ऐसी नीति बना लेनी चाहिए जिसमें हम बातचीत की शर्तें निर्धारित करने की स्थिति में हों। चीन माओ के दौर से ही  इस नीति पर चला कि दुनिया झुकती है, झुकाने वाला चाहिए। जबसे भारत भी उसी भाषा में  बात करने लगा तभी से वह गर्मी के साथ ही नर्मी की नीति पर चलने लगा है। गलवान घाटी में मारे गए अपने सैनिकों की सही संख्या वह आज तक सार्वजनिक नहीं कर सका । वन बेल्ट वन रोड परियोजना के खटाई में पड़ने के कारण उसे आर्थिक नुकसान भी हो रहा है। वहीं  कोविड संक्रमण फैलाने के आरोप की वजह से उसकी साख पर बट्टा लगा है। वैश्विक मंचों पर भारत की बढ़ती वजनदारी के कारण भी वह दबाव में है । लेकिन उससे सतर्क रहना बेहद जरूरी है ताकि 20 अक्टूबर 1962 जैसा धोखा दोबारा न खाना पड़े।


- रवीन्द्र वाजपेयी


वादे लपेट लीजिए लंगोटी नहीं तो क्या ....




चुनावी घोषणापत्र यूं तो विभिन्न विषयों पर केंद्रित होता है किंतु हर वर्ग उसमें से अपने मतलब की बात पर ध्यान देते हुए ये मन बनाता है कि अपना मत किसे दे ? राजनीतिक दलों के अलावा जो निर्दलीय प्रत्याशी लड़ते हैं वे भी मतदाता के सामने कुछ वायदे परोसते हैं। हालांकि इस सबसे अलग हमारे देश में कुछ प्रत्याशी भावनात्मक मुद्दों पर भी चुनाव लड़ते और जीतते हैं। इनमें जाति , धर्म और क्षेत्रीय  भावनाओं के साथ ही व्यक्तिगत मान - अपमान प्रमुख होता है। कुछ जातिगत और धार्मिक पार्टियां बिना वायदे के भी जीतती रहती हैं क्योंकि उनका जनाधार कुछ अलग ही किस्म का होता है। उ.प्र और बिहार में  अनेक ऐसे विधायक और सांसद बने जो अपराधी सरगना होने के बावजूद जीतते रहे जिसके पीछे उनका आतंक और धनबल मुख्य वजह बना। इसके ठीक विपरीत अनेक सुशिक्षित , पेशेवर , समाजसेवी  चुनाव मैदान में बुरी तरह पराजित हुए । उल्लेखनीय है विश्विख्यात अर्थशास्त्री की छवि के बावजूद डा.मनमोहन सिंह दक्षिण दिल्ली से लोकसभा चुनाव हार गए थे । लोगों को सफलता का मंत्र देने वाले शिव खेड़ा भी जमानत गंवाने का स्वाद चख चुके हैं । इंफोसिस जैसी कंपनी के स्तंभ कहे जाने वाले देश के विख्यात और सम्मानित उद्योगपति नंदन नीलेकणी को बेंगलुरु की जनता ने हरा दिया। जबकि अतीक अहमद , अफजाल अंसारी , शहाबुद्दीन और पप्पू यादव जेल में रहकर भी जीत जाते थे। कुल मिलाकर देखें तो चुनावी जीत का कोई निश्चित और कालजयी फार्मूला नहीं है। इसीलिए चुनावी घोषणापत्र के प्रति  उनको जारी करने वाले राजनीतिक दल भी गंभीर नहीं रहे। इसी तरह वचन पत्र के प्रति वचनबद्ध होना जरूरी नहीं समझा जाता। चुनावी वायदे करने वाली पार्टियां  भी उनको भूल जाती हैं और कुछ समय बाद मतदाता भी। यही कारण है कि चुनाव दर चुनाव वही बातें दोहराए जाने के बाद भी  कोई ये पूछने वाला नहीं है कि पिछली बार जो कहा था , उसे पूरा क्यों नहीं किया गया? विशेष रूप से सत्ता में रही पार्टी को तो नए वायदे करने से पहले पुरानों का लेखा - जोखा पेश करना ही चाहिए।  इस बारे में सर्वोच्च न्यायालय भी अनेक मर्तबा टिप्पणी कर चुका है कि चुनावी घोषणा या वचन पत्र को कानूनी स्वरूप दिया जाए किंतु चुनाव आयोग और राजनीतिक पार्टियां इस बारे में पूरी तरह उदासीन नजर आती हैं । आजादी के 75 साल बाद भी हमारे राजनीतिक दल यदि विश्वानीयता की कसौटी पर अपने को साबित नहीं कर पाए तो इसके लिए चुनावी वायदों के प्रति ईमानदारी का अभाव ही है। लाखों और करोड़ों लोगों को रोजगार देने का वायदा तो कर दिया जाता है किंतु सत्ता मिलते ही उसकी तरफ ध्यान देने की जरूरत नहीं समझी जाती। बिहार विधानसभा के पिछले चुनाव में तेजस्वी यादव ने वायदा किया था कि सत्ता संभालते ही 10 लाख बेरोजगारों को नौकरी देंगे। हालांकि उस समय उनकी  सरकार नहीं बनी किंतु बीच में नीतीश कुमार का साथ मिल जाने से वे सरकार में तो आ गए किंतु उनको अपना वह वायदा पूरा करने में नानी याद आ गई। हालांकि ये अकेला उदाहरण नहीं है जहां कोई राजनीतिक दल या नेता अपने वायदे से साफ मुकर गया हो। हमारे देश में घोषणापत्र की गंभीरता और पवित्रता का ध्यान रखना चूंकि कानूनन आवश्यक नहीं है इसलिए उनको एक रस्म अदायगी मान लिया गया है। बीते कुछ वर्षों से चुनावी साल में सरकारी खजाना लुटाने का रिवाज बन गया है और इस बारे में सभी राजनीतिक दल तकरीबन एक जैसे हैं । ये देखते हुए समय आ गया है जब चुनावी वायदों की जवाबदेही निश्चित की जाए। लोकतंत्र को सार्थकता प्रदान करने के लिए राजनेताओं और पार्टियों की प्रामाणिकता असंदिग्ध होना चाहिए। इसके लिए चुनाव पूर्व आसमानी वायदे करने के बाद तरह - तरह के बहाने बनाकर उनको पूरा करने से बचते रहने का चलन बंद होना जरूरी है। चूंकि इस बारे में किसी भी तरह का कानूनी बंधन नहीं है इसलिए ऐसे - ऐसे वायदे कर दिए जाते हैं जिनको पूरा करना असम्भव होता है। हर पार्टी आरक्षण को लेकर चुनाव में तो आश्वासन बांट देती है जबकि उसे पता होता है कि सर्वोच्च न्यायालय ने उसकी सीमा तय कर रखी है और पहले से ही अनेक मामले उसके समक्ष विचाराधीन हैं । आशय यही है कि चुनावी वायदों की गरिमा तभी कायम रह सकेगी जब उन्हें पूरा करने की बाध्यता हो और उनका पालन किसी कारणवश न हो सके तो संबंधित नेता और पार्टी को उसका समुचित कारण भी सार्वजनिक करना चाहिए । वरना किसी शायर की ये पंक्तियां दोहराई जाती रहेंगी :-
 सब कुछ है मेरे देश में रोटी नहीं तो क्या,
वादे लपेट लीजिए लंगोटी नहीं तो क्या।

- रवीन्द्र वाजपेयी 


Wednesday 18 October 2023

राज्य की आय नहीं बढ़ी तो मुफ्त उपहारों के लिए धन कहां से आएगा


म.प्र विधानसभा चुनाव के लिए प्रत्याशियों की सूची जारी करने में भले ही कांग्रेस पिछड़ गई किंतु मतदाताओं के समक्ष वायदे परोसने के लिए वचन पत्र जारी करने में उसने बाजी मार ली।  प्रदेश अध्यक्ष कमलनाथ ने पार्टी के ढेर सारे नेताओं की मौजूदगी में सरकार बनने पर समाज के सभी वर्गों को लाभ पहुंचाने वाले कार्यक्रमों और योजनाओं का ब्यौरा पेश किया। इस वचन पत्र में किसानों , महिलाओं ,  विद्यार्थियों , खिलाड़ियों , श्रमिकों और पत्रकारों को दिल खोलकर उपकृत करने का वायदा किया गया है। इससे किसी को एतराज नहीं होगा क्योंकि कमोबेश भाजपा भी ऐसा ही कुछ घोषणापत्र लेकर आएगी। फर्क ये होगा कि वह कांग्रेस की तुलना में कुछ ज्यादा देने का वायदा कर सकती है। मसलन महिलाओं को कांग्रेस ने 1500 रु .हर माह देने की बात कही है जबकि शिवराज सरकार ने लाड़ली बहना योजना में पहले से ही 1250 रु. देना शुरू कर दिया और उसे 3 हजार रु. तक बढ़ाने का कह चुकी है। ऐसे ही अनेक मुद्दे हैं जिनमें कांग्रेस मौजूदा सरकार से ज्यादा देने का वायदा कर रही है। गेंहू और धान के अधिक खरीदी मूल्य सहित मुफ्त और सस्ती बिजली , सिंचाई और अन्य सुविधाओं के लिए मुक्त हस्त खर्च करने की बात वचन पत्र में शामिल है। कांग्रेस आजकल गारंटी शब्द का इस्तेमाल भी करने लगी है। हालांकि राहुल गांधी द्वारा 2018 में  सरकार बनने के बाद 10 दिन में किसानों के कर्ज माफ करने की गारंटी जैसे तमाम वायदे अधूरे ही रह गए थे। दरअसल राजनीतिक दलों के मन में ये बात बैठ चुकी है  कि जनता की याददाश्त बेहद कमजोर होती है। इसीलिए पांच साल पहले किए वायदों को पूरे न करने के अपराध को  नए वायदों की चकाचौंध में धोने का प्रयास बीते 75 साल से चला आ रहा है। 1971 के चुनाव में इंदिरा जी ने गरीबी हटाओ के नारे पर दो तिहाई बहुमत हासिल कर लिया था । आज नौबत अति गरीब तक आ चुकी है लेकिन कोई कांग्रेस से उसके बारे में नहीं पूछता। अन्य पार्टियां भी वायदे पूरे  करने में विफल रहने के बाद नए झुनझुने पकड़ाकर मतदाताओं को बहलाने का प्रपंच रचती हैं। दिल्ली में आम आदमी पार्टी सरकार ने मुफ्त बिजली , मोहल्ला क्लीनिक और सरकारी शालाओं के उन्नयन का वायदा पूरा कर एक उदाहरण पेश किया किंतु राष्ट्रीय राजधानी होने से वहां विकास संबंधी ज्यादातर कार्य केंद्र  सरकार करवाती है जबकि अन्य राज्यों की स्थिति दिल्ली से सर्वथा भिन्न है। ऐसे में मुफ्त उपहारों के अलावा सामाजिक कल्याण के जितने भी कार्यक्रम और योजनाएं हैं उनकी जरूरत तो है किंतु कांग्रेस के घोषणापत्र में प्रदेश के औद्योगिक और इन्फ्रास्ट्रक्चर के विकास की बात या तो है नहीं या फिर किसी कोने में दबी हुई है। इसी तरह मुफ्त और सस्ती बिजली का वायदा तो आकर्षित करता है किंतु विद्युत उत्पादन बढ़ाने और विद्युत कंपनियों को   घाटे से उबारने की कोई कार्ययोजना पेश नहीं की गई । कर्मचारियों को लुभाने के लिए पुरानी पेंशन योजना शुरू करने का वायदा भी कांग्रेस ने किया है । जबकि हिमाचल और कर्नाटक में उसकी सरकार को वेतन बांटने तक में परेशानी का सामना करना पड़ रहा है। ये देखते हुए जरूरी हो गया है कि राजनीतिक दल विकास संबंधी अपनी कार्ययोजना भी वचनपत्र में पेश करें। नई नौकरियों के वायदे तो कर दिए जाते हैं लेकिन उसे कैसे अमल में लाया जाएगा इसकी कोई रूपरेखा नहीं बताई जाती। बेहतर हो घोषणापत्र को विकास केंद्रित करने की परिपाटी शुरू हो। मसलन सौर ऊर्जा का उत्पादन बढ़ाने , सड़कों का निर्माण , औषधालय , विद्यालय - महाविद्यालय , जल आपूर्ति और जन सुविधा केंद्र जैसी बातों पर ज्यादा जोर दिया जाना जरूरी है। जब तक औद्योगिकीकरण के लिए अनुकूल वातावरण नहीं बनाया जाता तब तक रोजगार के अवसर पैदा करने की बात सपने देखने जैसा है। सरकारी नौकरियां तेजी से सिमट रही हैं ,  ऐसे में निजी क्षेत्र ही विकल्प है। सबसे बड़ी बात ये है कि राज्य की आर्थिक स्थिति सुधारने के बारे में सभी राजनीतिक दल अपने चुनाव घोषणापत्र में शांत नजर आते हैं । ऐसे में जब प्रदेशों पर कर्ज का बोझ बढ़ता जा रहा है तब मुफ्त उपहारों के लिए धन कहां से आएगा इसका उत्तर किसी के पास नहीं है। 500 रुपए में रसोई गैस सिलेंडर देने वाले राजनीतिक दल पेट्रोल - डीजल को सस्ता करने हेतु उसे जीएसटी के अंतर्गत लाने का वायदा क्यों नहीं करते ये बड़ा सवाल है। म. प्र देश के उन राज्यों में है जहां पेट्रोलियम उत्पाद सबसे महंगे हैं। कांग्रेस यदि इनको सस्ता करने का वायदा करती तो उससे समाज का हर वर्ग आकर्षित होता। लेकिन राजनीतिक दलों का उद्देश्य प्रदेश के विकास के बजाय मुफ्तखोरी को बढ़ावा देना रह गया है। और इसे देखते हुए कांग्रेस के घोषणापत्र में किसी नए पन का एहसास नहीं होता। सही बात तो ये है कि राजनीतिक दल इतने झूठे वायदे कर चुके हैं कि उनकी विश्वसनीयता पूरी तरह खत्म हो चुकी है। इसीलिए वे आजकल नगदी बांटकर मतदाताओं को लुभाने का प्रयास करने लगे हैं।


- रवीन्द्र वाजपेयी

Tuesday 17 October 2023

दलबदलुओं के मकड़जाल में फंसा लोकतंत्र



दलबदल देश की राजनीति के साथ अभिन्न रूप से जुड़ गया है जो चुनाव के समय अपने सबसे घृणित रूप में नजर आने लगता है। म.प्र में विधानसभा चुनाव के लिए भाजपा ने अपने प्रत्याशी काफी पहले घोषित कर दिए थे । जबकि कांग्रेस ने पहली सूची नवरात्रि के पहले दिन जारी की। पार्टी किसे टिकिट दे ये उसका विशेषाधिकार है । निर्णय करने से पहले वह प्रत्याशी के जीतने की क्षमता का आकलन करती है । जातीय संतुलन भी देखा जाता है। पार्टी के प्रति निष्ठा तो खैर आवश्यक होती ही है,  किसी नेता से नजदीकी और रिश्तेदारी भी इस मामले में  सहायक होती है। टिकिट प्राप्त करने के इच्छुक व्यक्ति पार्टी के प्रति वफादारी का प्रदर्शन करने में आगे - आगे नजर आते हैं। विचारधारा में विश्वास जताने का कोई अवसर भी नहीं छोड़ा जाता। पार्टी द्वारा आयोजित कार्यक्रमों में बढ़ - चढ़कर योगदान देकर वे अपनी सक्रियता भी दिखाते हैं। लेकिन जैसे ही पता चलता है कि पार्टी ने उनको  टिकिट नहीं दी तो उनका नया रूप सामने आने में देर नहीं लगती । म.प्र में बीते कुछ दिनों से भाजपा और कांग्रेस ऐसे ही नेताओं के क्रोध का सामना कर रही हैं जिनका गुस्सा उम्मीदवारों की सूची में नाम नहीं आने से सातवें आसमान पर जा पहुंचा है। हालांकि ऐसे लोग भी कम नहीं हैं जो  शांत भाव से पार्टी का काम करते रहते हैं । लेकिन ऐसे लोगों की संख्या निरंतर बढ़ रही है जिनका एकमात्र उद्देश्य चुनावी टिकिट होता है। और उससे वंचित होते ही उनकी वफादारी , वैचारिक प्रतिबद्धता और समर्पण बगावत में तब्दील  हो जाता है। देश में केवल वामपंथी पार्टियां ही इस बीमारी के संक्रमण से मुक्त कही जा सकती हैं । हालांकि उनमें भी वैचारिक मतभेदों के आधार पर टूटन होती रही है। सीपीआई और सीपीएम के बाद भी न जाने कितने वामपंथी समूह राजनीति के मैदान में आ चुके हैं । जेएनयू के  छात्र नेता रहे कन्हैयाकुमार जरूर अपवाद कहे जाएंगे जो 2019 में सीपीआई टिकिट पर बेगूसराय से लोकसभा चुनाव हारने के बाद राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं की खातिर कांग्रेस में आ गए । एक समय था जब भाजपा के नेता और कार्यकर्ता  वैचारिक प्रतिबद्धता के लिए जाने जाते थे। लेकिन अब उसमें भी स्वार्थ पूरा न होते ही बगावत का झंडा उठाने वाले बढ़ रहे हैं। कांग्रेस तो भारत के अधिकांश राजनीतिक दलों का उद्गम स्थल ही है। उस दृष्टि से भारतीय राजनीति को कांग्रेसी संस्कृति से प्रेरित और प्रभावित कहना गलत न होगा। बीते कुछ समय से चुनाव वाले राज्यों में टिकिट कटने के अंदेशे में ही बड़ी संख्या में दलबदल देखने मिल रहा है। म.प्र , राजस्थान , छत्तीसगढ़ और तेलंगाना में जिस तरह से लोगों ने अपनी पार्टी छोड़कर दूसरे के साथ नाता जोड़ा वह नई बात नहीं है। नए - नए आए नेताओं को टिकिट देकर उपकृत करने की परिपाटी भी अब आम हो गई है। भाजपा और कांग्रेस द्वारा उम्मीदवार न बनाए जाने पर अनेक लोग आम आदमी पार्टी , बसपा और सपा का दामन थाम रहे हैं। कुछ निर्दलीय मैदान में उतरने का  पुरुषार्थ प्रदर्शित करने में भी पीछे नहीं है। अभी पूरी टिकिटें नहीं बंटी तब ये आलम है। पूरी सूची घोषित होने के बाद बागियों के असली दांव पेंच समझ में आयेंगे। जिनको कहीं ठिकाना नहीं मिलेगा वे मान - मनौव्वल के बाद भविष्य में कुछ पाने की प्रत्याशा में  टिके रहेंगे तो कुछ ऐसे भी हैं जो खेलेंगे नहीं तो खेल बिगाड़ेंगे का रूप अख्तियार करने से नहीं चूकेंगे। जो दृश्य देखने मिल रहे हैं उनसे ये प्रतीत हो रहा है कि राजनीति विशुद्ध व्यापार अर्थात लाभ कमाने पर केंद्रित हो गई है। जिस पार्टी में स्वार्थ सिद्ध हों और महत्वाकांक्षाएं पूरी हो सकें उसमें घुसना और मकसद पूरा न होने पर बाहर आ जाना एक तरह का कर्मकांड बन गया है। हालांकि दल बदलना लोकतंत्र में कोई अपराध नहीं है। निर्वाचित जनप्रतिनिधियों पर तो कानूनी बंदिश भी है परंतु उसका भी तोड़ निकाल लिया गया है। लेकिन टिकिट के लालच में पार्टी में आना और न मिलने पर उसे छोड़ देने वाले कितने विश्वसनीय होंगे ये विचारणीय प्रश्न है। दो - दो , चार - चार बार विधायक , सांसद  यहां तक कि मंत्री रहने वाले भी जब उम्मीदवार न बनाए जाने पर बगावत का झंडा उठाते हुए पार्टी की जड़ें खोदने में जुट जाते हैं तब आश्चर्य से ज्यादा दुख होता है। संसदीय लोकतंत्र में दलीय व्यवस्था एक अनिवार्यता है। हालांकि निर्दलीय के लिए भी स्थान है। अनेक चर्चित व्यक्तित्व दलीय बंधन से मुक्त रहते हुए भी सांसद और विधायक बनते रहे और अपने योगदान से लोकप्रियता और सम्मान अर्जित किया परंतु  ज्यादातर निर्दलीय राजनीतिक सौदेबाजी का प्रतीक बने। आजादी के 75 साल बाद भी हमारे देश के लोकतंत्र में गुणात्मकता का जो अभाव है उसका कारण राजनीति का व्यापारीकरण ही है। स्वार्थसिद्धि के लिए किसी पार्टी में आते समय उसकी शान में कसीदे पढ़ना और निहित उद्देश्य पूरे न होते ही तीखी आलोचना करते हुए उसे छोड़ देना साधारण बात हो चली है। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र होने का गौरवगान हमें आए दिन सुनने मिलता है लेकिन बिना किसी सैद्धांतिक आधार के पार्टी में आना या उसे छोड़ देना उस गौरव पर कालिमा पोत देता है। इस बारे में रोचक तथ्य ये है कि पार्टी को गरियाकर उससे निकल जाने वाला नेता कुछ समय बाद जब उसी में वापस लौटता है तो उसे घर वापसी कहते हुए उसके लिए लाल कालीन बिछाए जाते हैं।

- रवीन्द्र वाजपेयी 


Monday 16 October 2023

इजराइल एक वास्तविकता है जिसे अरब देशों को स्वीकारना ही होगा


इजराइल और हमास के बीच  युद्ध को एक सप्ताह से ज्यादा बीत चुका । 7 अक्टूबर को हमास द्वारा गाज़ा पट्टी से हजारों राकेट छोड़े जाने के अलावा उसके पैराग्लाइडर्स द्वारा इसराइल के भीतर आकर हत्या , अपहरण , बलात्कार जैसे अमानवीय कृत्य किए जाने के बाद पूरी दुनिया कांप गई । गाज़ा पट्टी पर कब्जा किए बैठे आतंकवादी संगठन हमास ने इसराइल की सुरक्षा व्यवस्था को जिस तरह बेअसर किया उसने अमेरिका में हुए  9/11 हमले की स्मृतियां ताजा कर दी थीं। लेकिन कुछ घंटों के भीतर ही इसराइल ने  पलटवार करते हुए लड़ाई का केंद्र गाज़ा पट्टी को बना दिया। उसके प्रधानमंत्री नेतन्याहू ने  स्पष्ट कर दिया कि हमास को उसी की भाषा में उत्तर दिया जाएगा । और फिर गाज़ा में बिजली और पेयजल के अलावा सारी जरूरी आपूर्ति रोक दी गई। सैकड़ों इमारतें मलबे में बदल गईं । हजारों लोग मारे जा चुके हैं। हमास कमांडरों को खत्म किया जा रहा है। लेबनान ने भी इजराइल पर हमले की कोशिश की लेकिन उसे भी ठंडा कर दिया गया। हमास के सबसे बड़े मददगार ईरान ने  उसे इस हमले के लिए उकसा तो दिया किंतु वह भी  धमकियां देने के अलावा और कुछ न कर सका । उधर इजराइल ने गाज़ा पर कब्जे की मंशा व्यक्त कर डाली । जिसके बाद  लोग बोरिया - बिस्तर समेटकर सुरक्षित स्थान की तलाश में चल दिए। गाज़ा से मिस्र जाने वाले  सभी रास्तों पर जनसैलाब उमड़ पड़ा। लेकिन मिस्र ने अपनी सीमा सील करते हुए  उनके प्रवेश पर पाबंदी लगा दी। संरासंघ ,  इजराइल को युद्ध के नियमों से परे जाकर गाज़ा को बरबाद करने के विरुद्ध चेतावनी दे रहा है। लेकिन नेतन्याहू ने साफ कह दिया कि वे पीछे नहीं हटेंगे।  लगता है जिन ताकतों ने हमास को उकसाया उनको इजराइल से ऐसे जवाब की उम्मीद नहीं थी। खुद हमास भी अंदाज लगाने में चूक गया । उल्लेखनीय है स्व.यासर अराफात के जीवनकाल में ही फिलीस्तीनियों के साथ इजराइल का समझौता होने के बाद दोनों शांति के साथ रहने तैयार हो गए थे। लेकिन कट्टरपंथी इस्लामिक देश यहूदियों को वहां से बेदखल करने पर अड़े हुए हैं। बीते हफ्ते भर में इजराइल ने जिस दृढ़ता का परिचय दिया वह सीखने लायक है । वहां का प्रत्येक नागरिक सैनिक की भूमिका में आ गया है। विदेशों में रह रहे यहूदी देश को संकट में देख घर लौट रहे हैं। विपक्ष के साथ आपातकालीन राष्ट्रीय सरकार भी बना ली गई है। कुल मिलाकर इजराइल शत्रु की जड़ों में मठा डालने की जिस चाणक्य नीति पर चल रहा है वही तो वे सभी देश अपनाते हैं जो उसे संयम रखने की सलाह दे रहे हैं । अमेरिका ने 9/11 के सूत्रधार ओसामा बिन लादेन को सात समंदर पार कर दूसरे देश की सीमा में घुसकर मारा। रूस अपने राष्ट्रीय हितों के लिए यूक्रेन में जो कुछ कर रहा है उसके बाद उसे  इजराइल को रोकने का नैतिक अधिकार ही नहीं है। चीन भी तिब्बत में जिस निर्दयता से मानवीय अधिकारों का कत्लेआम करता आया और उइगर मुसलमानों को जैसे खून के आंसू रुलाता है , वह भी किसी से छिपा नहीं है। आज जो इस्लामिक जगत यहूदियों को अत्याचारी बताता है उसे इस बात का भी जवाब देना पड़ेगा कि जिस धरती पर यहूदी धर्म जन्मा वह उनकी भी तो मातृभूमि है। येरुशलम को ईसाई , यहूदी और मुसलमान तीनों अपना पवित्र स्थल मानते हैं। ऐसे में पूरी सहानुभूति फिलीस्तीनियों के साथ जोड़ देना एकपक्षीय है। इजराइल एक वास्तविकता है जिसे स्वीकार करने  के अलावा  कोई और विकल्प नहीं है। इस युद्ध के पहले ही संयुक्त अरब अमीरात और मिस्र जैसे अनेक देश इजराइल के साथ कारोबारी रिश्ते बना चुके थे। वहीं सऊदी अरब भी दोस्ताना कायम करने जा रहा था । लेकिन ईरान सहित कुछ  विघ्नसंतोषियों ने पश्चिम एशिया को आग में झोंकने का षडयंत्र रच दिया।  देखने वाली बात ये है कि बीते 75 सालों में अनेक मुस्लिम देशों ने कभी अकेले तो कभी मिलकर इजराइल को मिटाने का दुस्साहस किया । लेकिन हर युद्ध में वह पहले से ज्यादा ताकतवर होकर उभरा और फिलिस्तीनियों की जमीन घटती चली गई। मौजूदा विवाद का अंजाम भी वैसा ही होने का अंदेशा है। गाज़ा पट्टी की घेराबंदी तो इजराइल शुरू से करता आया है।  लेकिन अब वह उस पर कब्जा करने आमादा है जिसके लिए इस्लामिक कट्टरता के पोषक तत्व जिम्मेदार हैं। बतौर इंसान फिलिस्तीनी समुदाय के अधिकारों की रक्षा बेशक होनी चाहिए लेकिन जब तक उनको केवल मुसलमान माना जायेगा तब तक वे इसी तरह खानाबदोश बने रहेंगे। इजराइल को किसी पर ज्यादती का अधिकार कतई नहीं है परंतु अपनी सार्वभौमिकता की रक्षा करने के उसके अधिकार की अनदेखी भी नहीं की जा सकती।


- रवीन्द्र वाजपेयी


Friday 13 October 2023

चुनाव बना डिस्काउंट सेल और मतदाता ग्राहक


कांग्रेस महासचिव प्रियंका वाड्रा ने गत दिवस म.प्र के आदिवासी जिले मंडला में पार्टी द्वारा आयोजित  जनाक्रोश रैली में प्रदेश की भाजपा सरकार पर ताबड़तोड़ आरोपों की झड़ी लगाने के साथ कुछ चुनावी वायदे भी कर डाले। जिनमें पहली से 12 वीं तक की मुफ्त शिक्षा के अलावा कक्षा आठवीं तक के छात्रों को  500 रु. , नौवीं और दसवीं में 1000 रु. और 11 वीं तथा 12 वीं के छात्रों को 1500 रु. हर महीने देने का वायदा कर दिया। अपने भाषण में श्रीमती वाड्रा ने अनेक वही बातें दोहराईं जो उनके भ्राता राहुल गांधी हाल ही में पड़ोसी जिले शहडोल में बोलकर गए थे। स्कूली छात्रों को निशुल्क शिक्षा  सरकारी शालाओं में तो अभी भी दी जाती है। कापी, किताबें , सायकिल , स्कूटी , लैपटॉप जैसी चीजों का वितरण भी पात्रतानुसार किया जाता है।  मध्यान्ह भोजन की भी व्यवस्था है। बावजूद इसके आदिवासी क्षेत्रों में शिक्षा की स्थिति दयनीय है। शाला के भवन खस्ता हालत में हैं। शिक्षकों की पर्याप्त संख्या नहीं है । जो हैं वे भी  नियमित नहीं आते। लड़कियों के बारे में तो स्थिति और भी खराब है। आदिवासी  वर्ग को  सरकार से अनेक प्रकार की और भी  सुविधाएं मुफ्त में दी जाती हैं किंतु अपेक्षित परिणाम नहीं निकल रहे। ऐसे में प्रियंका द्वारा नगद रुपए देने का वायदा चुनावी पैंतरा  हो सकता है किंतु इससे आदिवासी बच्चों की शिक्षा का स्तर सुधारने में कोई मदद मिलेगी , यह सोचना गलत है। ऐसा लगता है शिवराज सरकार द्वारा लाड़ली बहना योजना लागू किए जाने के जवाब में  कांग्रेस अब शालेय छात्रों को नगद राशि देने का प्रलोभन देकर उनके माता - पिता को अपनी ओर खींचना चाह रही है। अभी ये स्पष्ट नहीं है कि उक्त योजना केवल गरीब परिवारों के बच्चों के लिए रहेगी अथवा सभी आय वर्गों को इसका लाभ मिलेगा । बहरहाल , चुनावी वायदों से हटकर विचारणीय मुद्दा ये है कि ग्रामीण क्षेत्रों में संचालित सरकारी विद्यालयों की दशा जब तक नहीं सुधारी जाती तब तक जो हश्र मध्यान्ह भोजन का हुआ वही छात्रों को दी जाने वाली नगद राशि का होगा। गरीब परिवार के  बच्चों को मिली राशि को उनकी शिक्षा पर खर्च करने के बजाय अभिभावक उससे अपने घर का खर्च चलाएंगे । बेहतर होता श्रीमती वाड्रा ये वायदा करतीं कि आदिवासी क्षेत्रों में संचालित सरकारी विद्यालयों को उच्चस्तरीय एवं सर्वसुविधा संपन्न  बनाया जावेगा। उनमें शिक्षकों की उपस्थिति सुनिश्चित की जाएगी और वे निजी विद्यालयों की तुलना में कुछ कम भले हों लेकिन दोनों में जमीन - आसमान का अंतर न रहेगा। वास्तविकता ये है कि  शालेय छात्रों को सरकार की तरफ से दी जाने वाली मुफ्त सुविधाएं भी यदि सरकारी विद्यालयों को प्रतिस्पर्धा में खड़ा नहीं कर पा रहीं तो उसका कारण  गुणवत्ता का अभाव है। यहां तक कि दोपहर में दिए जाने वाले मुफ्त आहार तक के सकारात्मक परिणाम नहीं आए , उल्टे भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिला । ये देखते हुए प्रियंका ने छात्रों को नगद रुपए दिए जाने का जो वायदा किया वह सुनने में तो आकर्षक है। और हो सकता है उसके लालच में कांग्रेस को चुनावी लाभ भी हो जाए किंतु जब तक सरकारी विद्यालयों का स्तर नहीं सुधरेगा तब तक छात्रों को दी जानी मुफ्त सुविधाएं पैसे की बरबादी ही कहलाएगी। यदि राजनीतिक दल केवल चुनावी वायदे उछालकर शिक्षा को बढ़ावा देना चाहते हैं तो फिर ये कहने में कुछ भी गलत नहीं है कि न तो उन्हें विद्यालयों में रुचि है और न ही विद्यार्थियों में । केवल श्रीमती वाड्रा ही नहीं अपितु अन्य राजनीतिक दल भी इसी ढर्रे पर चलकर चुनाव रूपी वैतरणी पार करना चाहते हैं। शिक्षा ही क्यों जनकल्याण की ज्यादातर योजनाएं इसी प्रवृत्ति का शिकार होकर अपने लक्ष्य से भटक जाती हैं। इस बारे में  दिल्ली की केजरीवाल सरकार की तारीफ करनी होगी जिसने सरकारी शालाओं को निजी क्षेत्र की शिक्षण संस्थाओं के मुकाबले ला खड़ा किया। जिन राज्यों में भी आगामी माह विधानसभा चुनाव होने वाले हैं उनमें सत्तारूढ़ पार्टी के अलावा विपक्ष नगद राशि बांटने पर जोर दे रहा है । मुफ्त शिक्षा और चिकित्सा  की बात भी जोर शोर से की जा रही है किंतु इसके लिए ढांचागत सुधार किए जाने की जो जरूरत है उसके बारे में कोई योजना नजर नहीं आती। राजनीतिक दलों का समूचा चिंतन येन -  केन - प्रकारेण चुनाव जीतने पर केंद्रित हो गया है। मुफ्त की योजनाओं से व्यवस्था में सुधार का असली काम उपेक्षित हो जाता है । निष्पक्ष आकलन करें तो ये लगेगा कि जितना धन मुफ्त उपहारों में खर्च होता है उतने में  शिक्षा और स्वास्थ्य व्यवस्था को सुधारा जाए तो जनकल्याण का उद्देश्य कहीं बेहतर तरीके से पूरा हो सकेगा । दुर्भाग्य से भारतीय राजनीति भी पूरी तरह बाजारवाद के शिकंजे में फंसकर रह गई है और चुनाव डिस्काउंट सेल बन गए हैं। मतदाता को ग्राहक समझकर लुभाने की प्रतिस्पर्धा जिस तरह से बढ़ती जा रही है उसके कारण लोकतंत्र मजाक बनकर रह गया है। जिस आदिवासी क्षेत्र में श्रीमती वाड्रा ने गत दिवस रैली की वहां आदिवासियों के विकास के नाम पर बीते 75 साल में अरबों - खरबों रुपए खर्च होने के बाद भी गरीबी , अशिक्षा और पिछड़ापन क्यों है इस सवाल का उत्तर भी दिया जाना चाहिए। 


- रवीन्द्र वाजपेयी


Thursday 12 October 2023

मंडल तो पूरी तरह लागू हुआ नहीं और ये नया बखेड़ा खड़ा हो गया


इन दिनों सोशल मीडिया पर दो वीडियो प्रसारित हो रहे हैं। एक में स्व. इंदिरा गांधी  को ये कहते  सुना जा सकता है कि जाति शब्द को ही देश से हटा देना चाहिए क्योंकि इसके नाम पर लोग समाज को तोड़ते हैं। दूसरे में उनके पोते राहुल गांधी जातिगत आधार पर हिस्सेदारी  की मांग कर रहे हैं। यद्यपि ये मुद्दा मंडल की राजनीति करने वालों ने गर्माया। खास तौर पर बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने तो अपने राज्य में जातिगत जनगणना करवाकर उसके आंकड़े भी सार्वजनिक कर दिए। अब कांग्रेस कह रही है वह पूरे देश में जातिगत जनगणना करवाएगी। यद्यपि कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया अपने  पिछले कार्यकाल में करवाई गई जातिगत जनगणना के आंकड़े दोबारा सत्ता में आने के बाद भी जारी करने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे और न ही श्री गांधी ने अब तक उन पर ऐसा करने का दबाव ही बनाया। धीरे - धीरे ये बात भी सामने आ रही है कि नीतीश की पार्टी  के साथ ही कांग्रेस में भी जातिगत जनगणना को लेकर विरोध सामने आने लगा है। कुछ नेता खुलकर तो कुछ दबी जुबान बोल रहे हैं।  लेकिन पिछड़ी जातियों को एकजुट करने की रणनीति के अंतर्गत जातिगत जनगणना के जिस दांव को कुछ विपक्षी  दल और कांग्रेस चलना चाह रहे हैं , उसका दुष्प्रभाव भी सामने आने लगा है। मसलन बिहार में ऊंची जातियों का गुस्सा तो अपनी जगह है किंतु पिछड़े और अति पिछड़े जाति समूह जिस तरह जातिगत जनगणना के आंकड़ों को फर्जी बताते हुए दोबारा जनगणना की मांग कर रहे हैं उससे नीतीश के साथ ही लालू प्रसाद यादव और उनका परिवार  दबाव में आ गया है। प्रदेश कांग्रेस के नेता भी उसकी प्रामाणिकता पर  उंगली उठा रहे हैं। राष्ट्रीय स्तर पर भी भले ही विपक्षी गठबंधन में ज्यादातर पार्टियां जातिगत जनगणना के पक्ष में हों किंतु ममता बैनर्जी जैसी प्रमुख नेता अपने राज्य में उसके लिए राजी नहीं हैं।  उ.प्र में भी कांग्रेस के साथ ही सपा के गैर यादव नेता ये कहते सुने जा सकते हैं कि इसका उद्देश्य पहले से ताकतवर बनी हुई ओबीसी जातियों के वर्चस्व पर सरकारी मोहर लगवाना है। बिहार में यादवों के सबसे बड़ी जाति बनकर सामने आने से  उ.प्र में भी हड़कंप है। उधर दलितों और आदिवासियों के बीच भी ये जनगणना असंतोष फैला रही है क्योंकि राहुल जनसंख्या के हिसाब से हिस्सेदारी की जो बात कर रहे हैं उससे उनको डर है कि कांग्रेस और उसकी सहयोगी पार्टियां मिलकर आरक्षण का प्रतिशत इतना न बढ़ा दें जिससे उनके अधिकारों पर अतिक्रमण हो जाए। कुल मिलाकर इस जनगणना पर ओबीसी नेता भले ही खुशी जाहिर कर रहे हों लेकिन आम जनता को इसमें कोई फायदा नजर नहीं आ रहा। इसके साथ ही मुस्लिम समुदाय में भी इस बात  पर नाराजगी है कि उनको न तो पिछड़े वर्ग का लाभ मिलता है और न ही दलित समुदाय का । दूसरी तरफ यदि श्री गांधी के सुझाए अनुसार जनसंख्या के अनुसार आरक्षण और उस जैसे लाभों का बंटवारा किया जाए तब मुस्लिम भी उसके दायरे में आएंगे जो ओबीसी और दलितों को नागवार गुजरेगा।  ऐसे में जातिगत जनगणना भी महज राजनीतिक प्रपंच का शिकार होकर रह जाएगी। उल्लेखनीय है मंडल आयोग की सिफारिशें लागू हुए तीन दशक से ज्यादा बीतने के बाद भी ओबीसी आरक्षण की गुत्थी उलझी हुई है और अनेक राज्यों के मामले सर्वोच्च न्यायालय में लंबित हैं। अब जातिगत जनगणना के आंकड़ों के आधार पर आरक्षण सहित उससे जुड़ी अन्य सुविधाओं का पुनर्निर्धारण किस तरह किया जाएगा ये यक्ष प्रश्न है। राजनीतिक विश्लेषक मान रहे हैं कि ये सारी उठापटक भाजपा को मिल रहे जबरदस्त ओबीसी और दलित मतदाताओं के समर्थन को रोकने की जा रही है। लेकिन नीतीश और श्री गांधी भूल जाते हैं कि दलितों और आदिवासियों के बीच जातिगत भेदभाव उतने नहीं हैं जितने ओबीसी में शामिल दर्जनों जातियों और उनके भीतर से उत्पन्न हुई नई - नई उपजातियों में हैं । और इन छोटे - छोटे जाति समूहों में जो नए नेता  उभर आए हैं वे भी  सौदेबाजी  सीख चुके हैं। इसलिए जातिगत जनगणना की राजनीति भी शेर की सवारी जैसी है। नीतीश और लालू प्रसाद तो राजनीति के घाघ हैं किंतु राहुल अभी भी नौसिखिया जैसा व्यवहार कर रहे हैं । उनके भाषण सुनने के बाद ये कहा जा सकता है कि उनको जो रटा दिया जाता है वे उसे ही दोहराते रहते हैं। इसीलिए उनको गंभीरता से नहीं लिया जाता क्योंकि वे किसी मुद्दे की गहराई को जाने बिना ही उसमें कूद जाते हैं। गौरतलब है  हर राज्य में दलित , आदिवासी और ओबीसी का वर्गीकरण अलग - अलग है। ऐसे में किसी एक सर्वमान्य फार्मूले को लागू करना सामाजिक विद्वेष और विघटन का कारण बने नहीं रहेगा । याद रखने  वाली बात है कि अभी तक मंडल की सिफारिशों से तय हुआ आरक्षण ही पूरी तरह लागू नहीं किया जा सका तब इस नए बखेड़े को खड़ा करने का औचित्य समझ से परे है।


- रवीन्द्र वाजपेयी

Tuesday 10 October 2023

मुस्लिमों के डर से हमास का विरोध करने से बच रही कांग्रेस




इजरायल और फिलिस्तीनियों का झगड़ा पुराना है। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद जब इजरायल अस्तित्व में आया तभी से इस बात का विवाद चला आ रहा है कि यहूदियों ने सैकड़ों साल बाद लौटकर अपना मुल्क आबाद करते हुए वहां रह रहे मुस्लिमों को उनकी जमीन से खदेड़ दिया। लेकिन यहां ये प्रश्न भी तो उठता है कि आखिर यहूदियों का भी तो उस भूभाग पर अधिकार था। जिस येरुशलम  से मुस्लिम और ईसाई समुदाय के लोगों की भावना जुड़ी हुई है वह यहूदियों का भी  पवित्र स्थल है। ऐसे में उससे उनको दूर कैसे रखा जा सकता है ? रही बात फिलिस्तीनियों की तो उनके लिए जो स्थान दोनों पक्षों में हुए समझौते के अंर्तगत आवंटित  किया गया वे उस पर शांति के साथ रहें इसमें किसी को परेशानी नहीं होना चाहिए । लेकिन  इजरायल के अस्तित्व को खत्म करने का जो पागलपन उनके दिमाग में है वह उनके लिए समस्या बना हुआ है। बीते शनिवार गाजा पट्टी पर काबिज हमास नामक इस्लामी उग्रवादी संगठन द्वारा इजरायल पर किए हमले के बाद उत्पन्न हालातों में एक बार फिर ये समस्या चर्चित हो चली है। हमास ने जो किया वह निश्चित रूप से बर्बरता थी और अब इजरायल जो जवाबी कार्रवाई कर रहा है उसमें भी निरपराध लोग जान गंवा रहे हैं।  लेकिन चूंकि हमास ने इस युद्ध को भड़काया इसलिए इजरायल को भी पलटवार करने का अवसर प्राप्त हो गया। जहां तक बात भारत की है तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बिना संकोच किए इजरायल का समर्थन कर दिया। लेकिन देश की दूसरी राष्ट्रीय पार्टी कांग्रेस इस मामले में एक बार फिर बड़ी गलती कर बैठी । पार्टी की राष्ट्रीय समिति ने प्रस्ताव पारित कर फिलीस्तीनियों के भूस्वामित्व और स्व - शासन के अधिकार का समर्थन करते हुए मौजूदा संकट के हल हेतु बातचीत का रास्ता तो सुझाया किंतु हमास के हमले की निंदा करने का साहस पार्टी नहीं जुटा सकी ।  इसे लेकर   कार्यसमिति के भीतर भी  मतभेद उभरकर सामने आए। वरिष्ट सदस्य रमेश चेन्निथला ने फिलीस्तीन का समर्थन करने के साथ ही हमास के हमले की निंदा का सुझाव दिया जिसे नजरंदाज कर दिया गया। पार्टी प्रवक्ता जयराम रमेश ने भी अपनी प्रतिक्रिया में हमास या आतंकवाद का जिक्र करने से परहेज किया । फिर भी कार्यसमिति के कुछ सदस्य ये कहने से नहीं चूके कि पार्टी आतंकवाद का विरोध करने से बच रही है। निश्चित रूप से कांग्रेस का ये रवैया मुस्लिम समुदाय को खुश करने के लिए ही अपनाया जा रहा है। भारत की घोषित नीति सदा से फिलीस्तीन समर्थक रही है। उसके सर्वोच्च नेता  यासर अराफात को इंदिरा गांधी ने नेहरू शांति पुरस्कार और राजीव गांधी ने इंदिरा शांति पुरस्कार देकर करोड़ों रुपए भी दिए। लेकिन इसका विरोधाभासी पहलू ये रहा कि अराफात ने कभी भी कश्मीर मामले में भारत का समर्थन नहीं किया जबकि उनके संघर्ष को भारत सदैव सहयोग देता रहा। अराफात ही नहीं शायद ही किसी मुस्लिम राष्ट्र ने कश्मीर को भारत का हिस्सा मानने की तरफदारी की हो। ऐसे में फिलीस्तीनियों के न्यायोचित अधिकार के प्रति समर्थन तो मानवीयता की दृष्टि से जरूरी है । ठीक उसी तरह इजरायल भी अब एक ऐसी वास्तविकता है जिसे नकारना असंभव है। ऐसे में कांग्रेस द्वारा हमास की निंदा करने से कन्नी काट जाना ये दर्शाता है कि पार्टी बदलते वैश्विक परिदृश्य के साथ सामंजय नहीं बैठा पा रही। उसे ये भय सता रहा है कि हमास की निंदा से देश के मुसलमान उससे नाराज हो जायेंगे । लेकिन पार्टी  को अपने राजनीतिक फायदे से ऊपर उठकर देश के दूरगामी हितों के बारे में भी सोचना चाहिए। फिलिस्तीनियों के प्रति सहानुभूति वाजिब  है। यासर अराफात ने उनके लिए जो संघर्ष किया उसके लिए उनकी प्रशंसा करना भी गलत नहीं है किंतु  कूटनीति में आपसी संबंध एक पक्षीय नहीं होते। मसलन यदि भारत ने यासर अराफात के संघर्ष को समर्थन दिया तब उन पर भी कश्मीर पर भारत के रुख का समर्थन करने का दबाव बनाना था । यही चूक तिब्बत पर चीन द्वारा कब्जा किए जाने का समर्थन करते समय हुई जब हिंदी - चीनी , भाई - भाई की खुश फहमी में डूबकर हमने चीन के विस्तारवाद को मान्यता दी । लेकिन वही चीन कश्मीर के मामले में पाकिस्तान का सबसे बड़ा समर्थक बना हुआ है । समय आ गया है जब कांग्रेस को ढर्रे से निकलना चाहिए। फिलिस्तीन का समर्थन  बुरा नहीं किंतु हमास जैसे आतंकवादी संगठन द्वारा की जा रही बर्बरता की भी खुले शब्दों में निंदा जरूरी है क्योंकि दुनिया में जितने भी इस्लामिक आतंकवादी संगठन हैं उनके  बीच प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से निकटता है । और  वे सभी भारत विरोधी हैं । वैसे ये अच्छा संकेत है कि कांग्रेस पार्टी में थोड़े ही सही किंतु कुछ नेता तो हैं जो ऐसे मामलों में खुलकर राय व्यक्त करने  का साहस दिखाते हैं।

- रवीन्द्र वाजपेयी 


हमास को जो करना था कर चुका अब इजरायल की बारी है


बीते शनिवार को फिलिस्तीन समर्थक हमास नामक उग्रवादी लड़ाकों द्वारा इजरायल पर जिस तरह का भीषण हमला किया गया उससे पूरी दुनिया थर्रा उठी। वैसे इस इलाके में बीते सात दशक से भी ज्यादा युद्ध के हालात स्थायी रूप से बने हुए हैं। हालांकि  इजरायल ने अपनी वायु और थल सीमा को पूरी तरह से अभेद्य बना लिया था किंतु हमास ने हजारों राकेट छोड़कर उसकी आकाशीय रक्षा प्रणाली को तो ध्वस्त किया ही , थल सीमा पर बनी दीवारें बुलडोजरों से गिराकर  मारकाट मचा दी। पैरा ग्लाइडर से भी उसके लड़ाके इजरायल में प्रविष्ट हो गए। हमला इतना आकस्मिक और सुनियोजित था कि किसी को कुछ समझ में ही नहीं आया । सैकड़ों लोग मारे गए और बड़ी संख्या में इजरायली और अन्य देशों के लोगों को बंधक बनाकर ले जाया गया।  यद्यपि हमास के साथ इजरायल की झड़प होती रहती है लेकिन ये  तो सीधा - सीधा युद्ध ही है और इसीलिए इजरायल के प्रधानमंत्री नेतन्याहू ने बिना देर लगाए जवाबी कार्रवाई के आदेश दिए और कुछ घंटों के भीतर ही लड़ाई का केंद्र इजरायल से हटकर हमास के कब्जे वाले गाजा पट्टी में स्थानांतरित हो गया। बीते दो दिनों से इजरायल ने जो रौद्र रूप दिखाया उसके कारण पूरी गाजा पट्टी में बरबादी का आलम है। लाखों लोग पलायन करने मजबूर हैं।  महज 365 वर्ग कि.मी आकार के इस क्षेत्र में लगभग 21 लाख लोग रहते हैं। जो दुनिया की सबसे घनी रिहायश है। गाजा के पीछे समुद्र होने से वहां के लोगों के लिए बचाव का एकमात्र रास्ता मिस्र से लगी सीमा ही है । इजरायल ने लंबे समय से गाजा की घेराबंदी कर रखी है जहां चुनाव के जरिए काबिज हुए हमास ने  लोकतांत्रिक प्रक्रिया खत्म कर दी। उसे ईरान और मिस्र सहित कुछ मुस्लिम देश आर्थिक और सैन्य सहायता देते हैं । लेकिन जो लड़ाई फिलहाल चला रही है उसकी शुरुआत जिस धमाकेदार अंदाज में हमास द्वारा की गई उससे लगता है उस पर किसी बड़ी ताकत का हाथ है जो चीन या रूस भी हो सकते हैं। हमले के समय का सामरिक से ज्यादा कूटनीतिक महत्व है क्योंकि मुस्लिम जगत का मुखिया माने जाने वाले सऊदी अरब ने इजरायल के साथ दोस्ती का हाथ बढ़ाते हुए उसे मान्यता देने का निर्णय कर लिया था ।  लेकिन ईरान को ये दोस्ती रास नहीं आ रही थी। संभवतः  हमास को उसी ने आक्रमण हेतु उकसाया और मदद भी की जिससे इजरायल की तरफ झुक रहे अरब देशों के बढ़ते  कदम रुक जाएं। संयुक्त अरब अमीरात के अलावा ज्यादातर मुस्लिम देश हमास के पक्ष में नजर आ रहे हैं। सऊदी अरब को भी फिलिस्तीनियों का समर्थन करना पड़ रहा है। यद्यपि उसने और तुर्किए ने सुलह के लिए मध्यस्थता की पेशकश भी की है किंतु इजरायल  शुरुआती झटका खाने के बाद जिस तरह से गाजा पर कब्जे का इरादा जताते हुए भीषण हमले कर रहा है उसके कारण  पूरा इलाका खंडहर में तब्दील होता जा रहा है। उसने  वहां रहने वालों की बिजली , पानी और भोजन सामग्री की आपूर्ति रोक दी है। इसे अमानवीय भी कहा जा सकता है किंतु इजरायल की ये बात गौरतलब है कि जैसा दुश्मन  ही वैसा ही व्यवहार उसके साथ किया जावेगा। आगे आने वाले 50 सालों तक न भूलने वाला सबक देने की जो धमकी नेतन्याहू ने दी है वह कार्यरूप में बदलती दिखने लगी है। हमास ने इजरायली गुप्तचर एजेंसी मोसाद के साथ उसकी आकाशीय रक्षा प्रणाली को भेदने में तो सफलता हासिल कर पूरी दुनिया का ध्यान खींच लिया लेकिन दो दिन बाद ही उसके पैर उखड़ने लगे हैं । सर्वविदित है इजरायल अपने शत्रुओं से निपटने में किसी भी तरह का रहम नहीं करता । यही कारण है कि दुश्मनों से घिरा होने के बाद भी छोटा सा यह देश मुस्तैदी से टिका हुआ है। उसकी असली ताकत इजरायली जनता में देश के प्रति सम्पूर्ण समर्पण की भावना है । हमास का हमला इजरायल की गुप्तचर एजेंसी , सेना और सरकार तीनों की विफलता मानी जा रही है। नेतन्याहू के विरुद्ध काफी समय से चल रहे जनांदोलन के कारण राजनीतिक अस्थिरता भी बनी हुई थी। बावजूद इसके हमला होते ही पूरा देश एकजुट हो गया। सेना में रहे हुए एक पूर्व प्रधानमंत्री ने तत्काल सेना में जाकर कार्य शुरू कर दिया। नौजवान सेना में  शामिल होने भर्ती  दफ्तरों के सामने जमा हो गए। विपक्ष ने  सरकार के विरुद्ध एक शब्द तक नहीं कहा और हमास के विरुद्ध कार्रवाई में उसके साथ खड़ा हुआ है। भारत ने भी जिस तरह इजरायल के साथ खड़े होने का साहस दिखाया वह हमारी विदेश नीति का बेहद साहसिक पक्ष है । प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अतीत में  संकट के समय इजरायल द्वारा दी गई सहायता के बदले उसको समर्थन देकर ये संकेत दे दिया कि भारत दबाव से बाहर आकर अपने विशुद्ध राष्ट्रीय हितों के प्रति जागरूक है। इस लड़ाई  का अंत क्या होगा ये तो कहना कठिन है क्योंकि फिलीस्तीन और इजरायल दोनों में सांप - नेवले जैसी जन्मजात दुश्मनी है किंतु इसकी वजह से दुनिया का संकट और बढ़ गया है। विशेष तौर पर कच्चे तेल की कीमतों में उछाल आना तय है जिसका प्रभाव भारतीय अर्थव्यवस्था पर भी पड़े बिना नहीं रहेगा। बहरहाल , इजरायल कहां जाकर रुकेगा ये देखने वाली बात है क्योंकि हमास को जो करना था वह कर चुका है । ईरान और मिस्र जैसे देशों के बहकावे में  आकर उसने शेर की सवारी तो कर ली किंतु उस पर से उतरना उसके लिए आत्मघाती साबित होगा। 


- रवीन्द्र वाजपेयी

Sunday 8 October 2023

जातिगत जनगणना ढोल में पोल साबित हो रही :नीतीश का दांव उल्टा पड़ सकता है


बिहार में जिस जातिगत जनगणना को लेकर नीतीश कुमार सामाजिक न्याय के महानायक बनकर उभरना चाहते थे वह उनके गले की फांस बनती जा रही है। उसके आंकड़ों ने विभिन्न जाति समूहों में असंतोष की लहर पैदा कर दी है। जिस  आधार पर  आंकड़े जारी किए गए उसकी प्रामाणिकता पर सवाल सवर्ण उठाते तब तो उपेक्षित किया जा सकता था परंतु  जब पिछड़ी और अति पिछड़ी जातियां ही उनको फर्जी बता रही हैं तब नीतीश को बजाय लाभ होने के राजनीतिक नुकसान होने के आसार बढ़ रहे हैं। उल्लेखनीय है एक तरफ तो कांग्रेस नेता राहुल गांधी जातिगत जनगणना की मांग जोरदार तरीके से उठा रहे हैं किंतु कर्नाटक में उनकी ही पार्टी के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया अपने पिछले कार्यकाल में करवाई जातिगत जनगणना के आंकड़े सार्वजनिक करने का साहस नहीं जुटा पा रहे क्योंकि उनसे  लिंगायत और वोक्कालिंगा समुदाय के नाराज हो जाने की जो आशंका है उससे  राज्य सरकार खतरे में पड़ सकती है। बिहार को ही लें तो चुनाव सर्वेक्षण करने के बाद राजनीति के मैदान में उतरे प्रशांत किशोर ने ही इस जनगणना पर सवाल उठाकर नीतीश और लालू प्रसाद यादव को कठघरे में खड़ा करते हुए कहा है कि राज्य में बीते तीस वर्षों से उन दोनों ने ही  सत्ता चलाई लेकिन किसी अति पिछड़े या मुस्लिम को मुख्यमंत्री नहीं बनाया।  इस सर्वे पर एतराज करते हुए अनेक जाति समूहों ने भी कहा है कि यादवों को ताकतवर बनाने के लिए विभिन्न जातियों और उपजातियों को अनेक हिस्सों में बांटकर उनकी संख्या कम बताई गई ताकि उनकी राजनीतिक वजनदारी घट जाए। सवर्ण जातियों में वैश्य वर्ग को भी अनेक हिस्सों में बांटकर उनकी संख्या घटा दी गई जबकि सभी को जोड़ने पर वे 9 फीसदी से भी अधिक हैं । वहीं 10 यदुवंशी उपजातियों को यादव नाम देकर 14 प्रतिशत का  सबसे बड़ा जाति समूह बना दिया गया। अन्य जातियों के साथ भी ऐसा ही खेल हुआ। ब्राह्मणों को भी शिकायत है कि उनकी जनसंख्या पहले से भी कम कर दी गई। अति पिछड़ी जातियों को उपजातियों में विभाजित कर उनके आंकड़े कम दर्शाने की शिकायतें आ रही हैं । इससे लगता है कि जातिगत जनगणना सामाजिक न्याय की बजाय विद्वेष का आधार बन रही है। यादवों के साथ जिन यदुवंशी उपजातियों को समाहित कर लिया गया वे भी इस बात से रूष्ट हैं कि उनको लालू परिवार के अधीन कर उनके नेतृत्व को खत्म करने की चाल चली गई है। इस सबके कारण बिहार में नए जातिगत जनगणना आयोग की मांग उठ खड़ी हुई है जिसका अध्यक्ष उच्च न्यायालय के किसी सेवानिवृत्त  न्यायाधीश को बनाने कहा जा रहा है। इससे यह स्पष्ट है कि जातिगत जनगणना की आड़ में पिछड़ी जातियों को गोलबंद करने की जो चाल चली गई थी वह नाकामयाब साबित हुई । पिछड़ी और अति पिछड़ी जातियों के बीच ही जबरदस्त असंतोष देखने मिल रहा है और ज्यादातर की शिकायत है कि उनकी ताकत को कमतर दिखाकर राजनीतिक हिस्सेदारी छीनी जा रही है। इस माहौल से लगता है कि आगामी चुनावों में बिहार में विपक्षी दलों का गठबंधन होने की बजाय दलों का दलदल देखने मिलेगा और छोटे - छोटे जाति समूह अपनी ताकत दिखाने के लिए चुनावी मैदान में उतरे बिना नहीं रहेंगे। नीतीश  की अपनी पार्टी जनता दल (यू)  में ही जातिगत जनगणना को लेकर जिस तरह की उथल - पुथल है उससे लगता है कि भाजपा को पटकनी देने का नीतीश का दांव उनके अपने लिए खतरे की घंटी बन गया है। हालांकि विपक्ष इसे राष्ट्रव्यापी मुद्दा बनाने की सोच रहा है किंतु बिहार से आ रही खबरें उससे होने वाले नुकसान का भी संकेत दे रही हैं। बिहार के बाद अब पूरे देश में छोटी जातियां गोलबंद होने लगी हैं ताकि जाति आधारित जनगणना होने पर उनकी सही संख्या सामने आ सके । इसी तरह कुछ उपजातियां आपस में मिलकर खुद को बड़ा साबित करने की राह पर बढ़ रही हैं। इसका प्रभाव सवर्णों पर भी देखा जा सकता है। विशेष रूप से वैश्य समुदाय में जो बिखराव है उसे दूर कर एक बड़ी जातीय शक्ति के तौर पर वे उभर सकते हैं । दूसरी तरफ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गरीबी को सबसे बड़ी जाति बताकर विपक्ष को चौकन्ना कर दिया है । विपक्ष के इस पैंतरे की काट के तौर पर वे  ऐसा कुछ कर सकते हैं जिससे आरक्षण की मौजूदा व्यवस्था को रखते हुए भी बिना  जातिगत भेदभाव के समूचा वंचित वर्ग लाभान्वित हो सके । यदि मोदी सरकार  आर्थिक आधार पर लोगों की मदद करने की कोई नई योजना लेकर आई तो जातिगत जनगणना का कथित मास्टर स्ट्रोक बेअसर होकर रह जावेगा क्योंकि साधारण लोगों को तो रोटी , कपड़ा और मकान के साथ ही अपनी दैनंदिन जरूरतें पूरा होने से मतलब होता है। प्रधानमंत्री इस वास्तविकता से परिचित हैं  और इसीलिए उन्होंने जनकल्याण की जितनी भी योजनाएं चलाई उनका सीधा लाभ कमजोर वर्ग को मिल रहा है। उ.प्र विधानसभा के पिछले चुनाव में अखिलेश यादव द्वारा जयंत चौधरी , ओमप्रकाश राजभर और स्वामी प्रसाद मौर्य जैसे नेताओं को मिलाकर महागठबंधन बनाए जाने के बावजूद भाजपा की सत्ता में वापसी को नहीं रोका जा सका। इसलिए ये आकलन गलत नहीं है कि नीतीश कुमार द्वारा करवाई गई जातिगत जनगणना ढोल में पोल साबित होगी क्योंकि जिन पिछड़ी जातियों को एकजुट करने यह दांव खेला गया उनमें तो पहले से ज्यादा बिखराव नजर आने लगा है । 


- रवीन्द्र वाजपेयी


यूक्रेन संकट से दुनिया उबर पाती उसके पहले ही हमास ने नई मुसीबत पैदा कर दी




इजरायल पर हमास द्वारा किया गया हमला पश्चिम एशिया में नए संकट का आरंभ माना जा सकता है। ऐसे समय जब सऊदी अरब इजरायल को मान्यता देने जा रहा था तभी फिलिस्तीनी इलाके से एक साथ 5000 राकेट दागे जाने से इजरायल के हवाई रक्षा कवच की अभेद्यता पर भी सवाल खड़े हो गए हैं। भारत के लिए ये इसलिए ध्यान देने योग्य है क्योंकि उसने इजरायल से ये तकनीक हासिल की है। इसके अलावा भी रक्षा उपकरण के क्षेत्र में दोनों देशों के बीच काफी सौदे हुए हैं। हमास का हमला इस बात का संकेत है कि यूक्रेन संकट में फंसे विश्व को राहत की सांस लेने का अवसर जल्द मिलने की संभावना नजर नहीं आती। इसका कारण इजरायल के आक्रामक शैली है जिसमें वह दुश्मन के प्रति रत्ती भर भी उदारता बरतने में यकीन नहीं करता। 

गत दिवस हमास द्वारा राकेटों से किए गए ताबड़तोड़ हमलों के बाद इजरायल को लंबे समय बाद बड़ा धक्का पहुंचा। उसके सैकड़ों लोग मारे जाने के साथ ही बड़ी संख्या में बंधक भी बना लिए गए जिनका उपयोग इजरायल में बंद अपने लोगों को छुड़ाने के लिए किए जाने की बात भी उसने कही है। हमलावरों ने इजरायली नागरिकों विशेष तौर पर महिलाओं के साथ जिस तरह का दुर्व्यवहार किया उसके बाद इजरायल का पलटवार स्वाभाविक था और प्रधानमंत्री नेतन्याहू द्वारा बिना देर लगाए युद्ध की घोषणा कर हमास को नतीजे भुगतने की चेतावनी दे डाली। इसी के साथ इजरायली वायुसेना भी हरकत में आई और गाजा पर हमले शुरू करते हुए सैकड़ों लोगों को मारने के साथ अनेक इमारतें ध्वस्त कर दीं। 

फिलिस्तीन का यह संकट लाइलाज बन गया है। हालांकि अरब जगत के अनेक मुस्लिम देशों ने इजरायल के साथ राजनयिक और व्यापारिक रिश्ते कायम कर लिए हैं। सऊदी अरब के अलावा खाड़ी के कई मुस्लिम मुल्क पुरानी दुश्मनी भूलकर यहूदियों के इस देश से हाथ मिलाने आगे आए हैं। सैन्य शक्ति के साथ ही इजरायल ने विज्ञान और तकनीक के मामले में भी जबरदस्त तरक्की की है। इसमें कोई शक नहीं है कि अमेरिका और अन्य पश्चिमी देशों का संरक्षण न होता तो उसके पड़ोसी मुस्लिम देश उसे कभी का नेस्तनाबूत कर चुके होते । लेकिन इसके बावजूद भी यहूदी कौम की तारीफ करननी होगी जिसने सदियों की खानाबदोशी के बाद भी अपनी भाषा , संस्कृति और प्रतिभा को अक्षुण्ण रखा। 

1948 में अस्तित्व में आते ही उस पर पड़ोसी देशों ने आक्रमण कर दिया किंतु नवजात इजरायल ने जिस तरह मुंहतोड़ उत्तर दिया उससे उसकी मारक क्षमता और आत्मविश्वास प्रगट हो गया। तब से अभी तक वह अनेक युद्धों का सामना करते हुए विजेता बनकर खड़ा हुआ है। वैसे तो उसके सीमावर्ती इलाके हर समय युद्धभूमि का नजारा उत्पन्न करते हैं। दरअसल येरूशलम नामक जिस शहर के कारण इजरायल की अन्य मुस्लिम देशों से शत्रुता है वह इस्लाम , ईसाई और यहूदी तीनों के लिए अत्यंत पवित्र है। वर्तमान में वह इजरायल के आधिपत्य में है। दरअसल मुस्लिम देश शुरू से ही इजरायल के अस्तित्व को पचाने तैयार नहीं है। उनको लगता है पश्चिमी ताकतों ने दूसरे महायुद्ध से उत्पन्न हालातों का लाभ लेते हुए उनके सिर पर अपना पिट्ठू लाद दिया । इस बारे में ये बात भी गौरतलब है कि ईसाई समुदाय यहूदियों के प्रति अच्छी भावना नहीं रखता था। यूरोप के अनेक देशों में उनके साथ दोयम दर्जे का व्यवहार होता रहा। हिटलर द्वारा उनका नरसंहार तो इतिहास का काला अध्याय है । चूंकि अमेरिका में यहूदी आर्थिक दृष्टि से संपन्नता के कारण राजनीतिक तौर पर प्रभावशाली हो चले थे , लिहाजा उसने भी इजरायल पर अपना हाथ रखकर उसे मजबूत बनाया । 

अब तक के इतिहास के मुताबिक हमास द्वारा किए गए ताजा हमले का नुकसान तो उसे उठाना ही पड़ेगा क्योंकि इजरायल अपने एक भी नागरिक की हत्या बर्दाश्त नहीं कर सकता। पश्चिमी देशों ने हमेशा की तरह उसको समर्थन दे दिया है और भारत ने भी तत्काल उसकी तरफदारी का ऐलान कर डाला।  

लेकिन यह युद्ध लंबा चला तब भारत के लिए समस्या बढ़ जावेगी क्योंकि प.एशिया में होने वाली किसी भी गड़बड़ी का तात्कालिक असर कच्चे तेल की कीमतों में वृद्धि के रूप में देखने मिलता है। पिछले कुछ समय से सऊदी अरब और रूस ने उत्पादन घटाकर कीमतें बढ़ने के हालात उत्पन्न कर दिए हैं। यह युद्ध उसमें और वृद्धि का कारण बन जाए तो आश्चर्य नहीं होगा। ऐसे में कच्चे तेल के बड़े आयातक के रूप में भारत को नुकसान होने की आशंका है। साथ ही इजरायल से प्राप्त होने वाले सैनिक साजो - सामान की आपूर्ति भी बाधित होने की आशंका बनी रहेगी। 

इसके अलावा वैश्विक हालात और खराब हो सकते हैं क्योंकि यूक्रेन पर रूस के हमले से मची उथल - पुथल से ही दुनिया उबर नहीं पाई है। कोरोना की विभीषिका किसी तरह खत्म हो पाती उसके पहले ही रूस ने यूक्रेन पर हमला कर दिया। इसकी वजह से शीतयुद्ध के पुराने दिन लौट आए । इसका असर जी 20 के नई दिल्ली में संपन्न सम्मेलन में रूस और चीन के राष्ट्रपति क्रमशः पुतिन और जिनपिंग के शामिल न होने के रूप में देखने मिला। 

चूंकि रूस और चीन फिलिस्तीन के साथ हैं और प.एशिया के संकट में रूस अमेरिका विरोधी खेमे के साथ खुलकर खड़ा होता रहा इसलिये इस युद्ध के दूसरा यूक्रेन संकट बन जाने का खतरा है। भारत ने उसमें तो तटस्थता की नीति अपना ली लेकिन हमास के हमले की प्रतिक्रिया स्वरूप इजरायल का समर्थन कर अपना रुख स्पष्ट कर दिया । उसका ये फैसला रूस को नागवार गुजर सकता है किंतु भारत ने जिस तरह यूक्रेन युद्ध में अपने राष्ट्रीय हितों को सर्वोपरि रखा उसी तरह से इजरायल को समर्थन देना भी जरूरी है। 
ताजा रिपोर्ट के अनुसार लेबनान ने भी इजरायल पर हमला बोल दिया है। इससे लगता है हमास का आक्रमण किसी बड़ी लड़ाई की शुरुआत है। बड़ी बात नहीं मिस्र और सीरिया भी इसमें कूद पड़ें और वैसा हुआ तो 1967 में हुई जंग के हालात देखने मिल सकते हैं। ये भी सच है कि अचानक हुए इस हमले से इजरायल भौचक रह गया है। जिस बड़ी संख्या में उसके सैनिक और नागरिक मारे गए उसके कारण उसका बौखलाना बनता है और वह अपना दबदबा कायम रखने के लिए दुश्मनों से चौतरफा मुकाबला करने में भी सक्षम है। लेकिन इस युद्ध से प.एशिया एक बार फिर नये संकट में फंसने जा रहा है जिसका दुनिया की अर्थव्यवस्था के साथ ही कूटनीतिक संतुलन पर भी असर पड़ेगा। 
क्या होगा इसका अंदाजा तत्काल लगाना कठिन है लेकिन हमास ने बर्र के छत्ते को छेड़ने का जो दुस्साहस किया उसका दुष्परिणाम उसे तो भोगना ही पड़ेगा । देखने वाली बात ये है कि मुस्लिम देशों का मुखिया कहलाने वाले सऊदी अरब का इस संकट पर क्या रुख रहता है जो इजरायल को मान्यता देने के रास्ते पर पर आगे बढ़ रहा है।

: रवीन्द्र वाजपेयी 

Friday 6 October 2023

सांसदों , विधायकों , मंत्रियों और न्यायाधीशों की राजसी सुविधाओं का बोझ भी करदाता पर ही पड़ता है


सर्वोच्च न्यायालय ने म.प्र और राजस्थान के साथ ही केंद्र सरकार तथा रिजर्व बैंक को नोटिस भेजकर चुनाव पूर्व मुफ्त सौगातों पर चार सप्ताह में उत्तर मांगा है। प्रधान न्यायाधीश डी. वाय. चंद्रचूड़ ने एक जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए उक्त आदेश दिया। साथ ही इस बारे में पहले पेश की जा चुकी याचिकाओं की सुनवाई एक साथ करने की बात भी कही। इन याचिकाओं का सार ये है कि राज्य की वित्तीय स्थिति का ध्यान किए बिना जो खैरात बांटी जाती है उससे करदाताओं पर बोझ बढ़ता है। पुराने घाटे के बावजूद नए कर्ज का बोझ लादकर सत्ताधारी नेता चुनाव आते ही जो मांगोगे वही मिलेगा की तर्ज पर खजाना खोल देते हैं । सर्वोच्च न्यायालय में इसके पहले से जो याचिकाएं पेश हुईं  उनके बाद भी अनेक राज्यों के चुनाव संपन्न हुए जिनमें चुनाव पूर्व खैरातें बांटने के साथ ही मुफ्त उपहारों के वायदे किए गए। उस समय ही सर्वोच्च न्यायालय और चुनाव आयोग  सख्ती दिखाते तो बात इतनी आगे न बढ़ती। वैसे ये बीमारी अब भारतीय राजनीति से स्थायी तौर पर जुड़ चुकी है। विपक्ष सत्ताधारी दल पर खजाना खाली करने का आरोप लगाए बिना नहीं थकता किंतु खुद उससे अधिक मुफ्तखोरी का वायदा करने में नहीं चूकता। कर्नाटक में कांग्रेस ने जो वायदे किए थे  सत्ता में आते ही उनको पूरा करने की इच्छाशक्ति भी दिखाई किंतु जल्द ही केंद्र से मदद प्राप्त न होने का बहाना बनाया जाने लगा। संदर्भित याचिकाओं में करदाता के पैसे से मुफ्त उपहार बांटने पर रोक की मांग की गई है। राजस्थान और म. प्र की सरकारों द्वारा बीते कुछ महीनों में जिस दरियादिली से जनता को नगद पैसा और सुविधाएं प्रदान की गईं  उनका उद्देश्य निश्चित रूप से चुनाव जीतना है ।  याचिकाकर्ता के अनुसार  इस बारे में कोई सीमा रेखा तो होनी ही चाहिए। हालांकि मुफ्त रेवड़ियां बांटने के बारे में सभी दल एक ही नाव पर सवार हैं । फर्क इतना है कि उनके बीच ये प्रतिस्पर्धा चल रही है कि कौन  कितना ज्यादा बांटेगा। मसलन राजस्थान में कांग्रेस की गहलोत सरकार ने 500 रु. में रसोई गैस सिलेंडर देने की व्यवस्था की तो म.प्र में कांग्रेस ने  सत्ता में आने  पर वैसा ही वायदा कर डाला। जवाब में म.प्र की शिवराज सरकार ने 450 रु .में सिलेंडर देकर कांग्रेस के दांव को बेअसर कर दिया । इसी तरह म.प्र में कांग्रेस ने  गरीब महिलाओं को 1500 रुपए प्रति माह देने के वायदे के साथ उनसे आवेदन भरवाने का अभियान चलाकर महिला मतदाताओं को अपने पाले में खींचने का पैंतरा चला तो प्रदेश की भाजपा सरकार ने लाड़ली बहना योजना शुरू करते हुए 1000 रुपए प्रति माह देने की शुरुआत कर दी और उसे 3000 रुपए तक ले जाने  का आश्वासन देते हुए 1250 तक पहुंचा भी दिया।  याचिका में  चुनाव के कुछ समय पहले से  रेवड़ी वितरण पर आपत्ति जताई गई है लेकिन  चुनाव  आते ही सरकारी कर्मचारी भी आंदोलन रूपी दबाव बनाते हैं जिनकी नाराजगी से बचने के लिए उनकी  मांगें सरकार मंजूर कर लेती है। इस बारे में देखने वाली  बात ये है कि सरकार चूंकि पांच साल के लिए चुनी जाती है इसलिए उस अवधि के दौरान वह नीतिगत निर्णय तो कर ही सकती है। चुनाव की तारीख का ऐलान हो जाने के बाद भले ही उसे वैसा करने से रोका जाता है और वह गलत भी नहीं है किंतु अदालत में बैठे न्यायाधीश भी तो सेवानिवृत्ति के कुछ घंटों पहले तक ऐसे मामलों में फैसला देते हैं जिनके नीतिगत दूरगामी परिणाम होते हैं। ऐसे अनेक फैसलों पर उंगलियां भी उठती रही हैं। उस लिहाज से सत्ताधारी यदि चुनावी वर्ष में जनता को फायदा पहुंचाने के लिए नीतियां बनाते और निर्णय लेते हैं तब जनहित के आधार पर उन्हें गलत नहीं माना  जा सकता । रही बात आर्थिक प्रबंधन की है तो वह निश्चित रूप से चिंता और चिंतन दोनों का  विषय है। सरकार के अलावा व्यवसायिक प्रतिष्ठान अथवा व्यक्ति के लिए ये जरूरी होता है कि वह जितनी चादर उतने पांव फैलाने की सीख का पालन करे जिससे उस पर कर्ज का बोझ न बढ़े । हालांकि लोक कल्याणकारी राज्य में जनता को सुख -  सुविधा प्रदान करना सरकार का प्राथमिक दायित्व है लेकिन उसकी सीमा और स्वरूप भी तय होना चाहिए । अतीत में सर्वोच्च न्यायालय ने ही कहा था कि सरकारी गोदामों में सड़ाने से बेहतर है अनाज गरीबों को बांट दिया जावे। धीरे - धीरे बात बढ़ते हुए नगदी वितरण तक आ गई। चिंता इस बात को लेकर है कि मुफ्त सुविधाओं का दायरा सुरसा के मुंह की तरह विस्तार लेता जा रहा है। यदि इन्हें आर्थिक अनुशासन से न जोड़ा गया तब बड़ी बात नहीं आने वाले समय में इन पर पूर्ण विराम लगा दिया जाए। कोरोना के दौरान रेलवे टिकिट में मिलने वाली रियायतें इसी आधार पर बंद कर दी गईं जो आज तक शुरू नहीं की जा सकीं। ऐसे में सर्वोच्च न्यायालय को इस याचिका पर फैसला लेते समय विभिन्न  पहलुओं पर ध्यान देना होगा क्योंकि जनता को मिलने वाली मुफ्त सुविधाओं को बंद करने के पहले  सांसदों , विधायकों ,मंत्रियों और न्यायाधीशों को मिल रही राजसी सुविधाएं बंद करने पर भी विचार करना चाहिए क्योंकि उनका बोझ भी तो आखिर करदाता पर ही पड़ता है।


-रवीन्द्र वाजपेयी

शराब घोटाले में आम आदमी पार्टी का नैतिक पक्ष बेहद कमजोर है




दिल्ली के बहुचर्चित शराब घोटाले की गुत्थी उलझती जा रही है। उपमुख्यमंत्री मनीष सिसौदिया छह महीने से जेल में हैं। उनके अलावा कुछ व्यापारी एवं बिचौलिए भी सीखचों के भीतर किए जा चुके हैं। इसी सिलसिले में ईडी (प्रवर्तन निदेशालय )  द्वारा  आम आदमी पार्टी के राज्यसभा सांसद संजय सिंह को दो दिन पूर्व लंबी पूछताछ के बाद गिरफ्तार कर लिया गया। दरअसल दिनेश अरोड़ा नामक आरोपी ने अदालत से  सरकारी गवाह बनने की अनुमति मिलने के बाद ये खुलासा किया था कि शराब व्यापारियों की जो  बैठक मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के घर पर हुई थी उसी में संजय सिंह द्वारा चंदे का चैक लिया गया था।  उसी के बाद उन्हें गिरफ्तार कर  जांच एजेंसी ने पांच दिन का रिमांड ले लिया । दिनेश को उनका करीबी माना जाता है। आंध्र प्रदेश की सत्तारूढ़ पार्टी के एक सांसद का बेटा भी सरकारी गवाह बन गया है। इस बहुचर्चित मामले का सबसे बड़ा पेच ये है कि करोड़ों के लेन देन का आरोप होने  के बावजूद अब तक  न तो किसी के पास से बड़ी रकम बरामद हुई और न ही किसी को पैसा मिलने का प्रमाण सामने आया है। अरोड़ा द्वारा किए खुलासे में आम आदमी पार्टी को शराब व्यापारियों से चंदा मिलने की बात कही गई है जिसके बाद  ईडी अब पूरी पार्टी पर शिकंजा कसने की तैयारी में  है । बात तो श्री केजरीवाल की गिरफ्तारी की भी होने लगी है। इस घोटाले के तार दिल्ली से दक्षिण भारत तक जुड़े हुए बताए जा रहे हैं । तेलंगाना के मुख्यमंत्री के. सी.राव की बेटी से भी  ईडी पूछताछ कर चुकी है। इस मामले में कांग्रेस की  भूमिका ढुलमुल है। शुरुआत में  दिल्ली प्रदेश कांग्रेस ने केजरीवाल सरकार पर खुलकर आरोप लगाए। श्री सिसौदिया की गिरफ्तारी पर भी कांग्रेस नेताओं ने खुशी व्यक्त की थी किंतु श्री सिंह के पकड़े जाने का पार्टी नेता वेणुगोपाल ने विरोध किया है। जबकि पंजाब में आम आदमी पार्टी सरकार ने अनेक कांग्रेस नेताओं को भ्रष्टाचार के आरोप में गिरफ्तार किया है। राजनीति और जांच एजेंसियों की कार्रवाई से हटकर देखें तो केजरीवाल सरकार की शराब नीति में भ्रष्टाचार से दिल्ली की आम जनता को कुछ लेना देना नहीं है किंतु उसके अंतर्गत शराब दुकानों की संख्या दोगुनी हो गई और एक बोतल के साथ एक मुफ्त जैसे आकर्षक ऑफर देते हुए शराब पीने के प्रति लोगों को आकर्षित किया जाने लगा । स्कूल और धर्म स्थलों तक के पास शराब दुकानें खोल दी  गईं। इसे लेकर दिल्ली में आम आदमी पार्टी के समर्थक भी नाराज हैं । आम जनता को इस बात पर हैरानी है कि  पार्टी ने एक तरफ तो मोहल्ला क्लीनिक और सरकारी शालाओं के उन्नयन जैसा जनहितकारी काम किया वहीं दूसरी तरफ शराब  दुकानों की संख्या बढ़ाकर लोगों के स्वास्थ्य के साथ ही समाज का वातावरण खराब करने का इंतजाम कर दिया। मुख्यमंत्री सहित आम आदमी पार्टी के तमाम नेता ये सफाई तो देते हैं इस  नीति में किसी भी तरह का भ्रष्टाचार  नहीं हुआ और प्रदेश सरकार को राजस्व का घाटा होने की बात भी तथ्यहीन है। उसके इस दावे की सच्चाई तो  अदालत में ही तय होगी किंतु ये कहना कतई गलत न होगा कि ये नीति श्री केजरीवाल और श्री सिसौदिया के साथ ही आम आदमी पार्टी की छवि के पूरी तरह प्रतिकूल थी। नैतिक दृष्टि से यह बहुत ही गलत फैसला था। जिसे सही साबित करने के बजाय यदि श्री केजरीवाल और उनके सहयोगी जनता से क्षमा याचना कर लेते तो उनके प्रति जनता के मन में सम्मान और बढ़ता । लेकिन बजाय ऐसा करने के वे भाजपा , प्रधानमंत्री , सीबीआई और ईडी के विरुद्ध आंय - बांय बकते रहे। श्री सिंह ने अपने घर पर ईडी का स्वागत किए जाने के पोस्टर लगा रखे थे। श्री केजरीवाल जांच एजेंसी की पैंट गीली होने जैसी शेखी बघारकर उसका उपहास करने से नहीं चूके। गिरफ्तार किए जाते समय श्री सिंह ने प्रधानमंत्री को अडानी का नौकर बताते हुए अपना गुस्सा निकाला । यदि सब कुछ पाक - साफ है तब केजरीवाल सरकार को खुद सीबीआई जांच का प्रस्ताव देना था किंतु वह केंद्र सरकार के विरुद्ध लड़ाई छेड़ने का दांव चलती रही। उसकी ये रणनीति कितनी कारगर होगी ये तो भविष्य बताएगा किंतु फिलहाल उसका संकट बढ़ता जा रहा है। विडंबना ये है कि हमारे देश में जांच और दंड प्रक्रिया कछुआ गति से चलती है जिससे दोष साबित करने में लंबा समय लग जाता है। कई मामलों में तो प्रकरण की  गंभीरता भी नष्ट हो जाती है। इसीलिए सत्ता में रहकर भ्रष्टाचार करने वालों के मन में कानून का भय नहीं रहा। और फिर भ्रष्ट नेताओं को अपने निहित स्वार्थ के लिए समर्थन और संरक्षण देने की जो संस्कृति राजनीतिक दलों में व्याप्त है वह भी समस्या को बढ़ा रही है। मसलन लालू प्रसाद यादव को जेल पहुँचाने वाले नीतीश कुमार उनके साथ खड़े हैं। ऐसे ही केजरीवाल सरकार को भ्रष्ट मानने वाली कांग्रेस उनको बचाने में लगी है। एनसीपी छोड़कर एनडीए में आते ही अजीत पवार बेदाग मान लिए गए। इनसे साबित होता है कि राजनेताओं ने खुद को कानून से ऊपर मान लिया है। दिल्ली शराब घोटाले का हश्र क्या होगा ये अभी से कहना कठिन है किंतु इससे आम आदमी पार्टी और अरविंद केजरीवाल  भी उस जमात में शामिल हो गए हैं जिसकी कथनी और करनी में जमीन - आसमान का फर्क है।


-रवीन्द्र वाजपेयी 


Thursday 5 October 2023

गरीबी को आधार बनाया जाना सही कदम होगा


देश का राजनीतिक विमर्श एक बार फिर जाति के मकड़जाल में आकर उलझ गया है। बिहार की नीतीश सरकार ने सामाजिक न्याय की अगुआई करने के लिए  जातिगत जनगणना का जो दांव चला उससे ओबीसी के भीतर अति पिछड़ी और आर्थिक दृष्टि से कमजोर  जातियों की उपेक्षा का मसला उठ खड़ा हुआ है। इसका तात्कालिक असर ये होगा कि ओबीसी के भीतर भी वर्ग संघर्ष की स्थिति पैदा हो सकती है। बिहार को ही लें तो तो वहां यादव सबसे  बड़े जातीय समूह के रूप में सामने आए किंतु आर्थिक दृष्टि से बेहद कमजोर होने के साथ ही सामाजिक और राजनीतिक तौर पर उपेक्षित पिछड़ी जातियों की कुल संख्या यादवों से कहीं ज्यादा है।अब तक देखने में ये मिलता रहा कि राजनीतिक सत्ता पर यादवों का प्रभाव ज्यादा रहा । लालू प्रसाद यादव का समूचा कुनबा नव सामंतवादी व्यवस्था का पर्याय बन गया। अर्थात मंडल आयोग की सिफारिशों का अधिकतम लाभ इस जाति के लोगों ने न सिर्फ बिहार अपितु उ.प्र में भी बटोरा जहां जिला पंचायत से लेकर तो संसद तक में स्व.मुलायम सिंह यादव के परिवार के लोग बैठे नजर आएंगे। अब जबकि जातिगत जनगणना के आंकड़े आ गए हैं तब मंडलवादी नेताओं के माथे पर पसीने की बूंदें छलछलाने लगी हैं क्योंकि जिस तरह महादलित जैसी नई श्रेणी सामने आई उसी  तरह से  अब अति पिछड़ी जातियों की संख्या भी स्पष्ट हो चली है। आरक्षण के भीतर आरक्षण की मांग करने वाले ओबीसी नेताओं को ये डर सताने लगा है कि कहीं अति पिछड़ी और आर्थिक दृष्टि से कमजोर जातियां गोलबंद हो गईं तो प्रभावशाली पिछड़े नेताओं की जमीन खिसकने लगेगी। ये आशंका गलत भी नहीं है क्योंकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गरीबी को ही आरक्षण का आधार बनाए जाने का मुद्दा छेड़ दिया है। जो लोग जातिगत जनगणना को विपक्ष का तुरुप का पत्ता मान बैठे थे उन्हें भी अपनी राय बदलने बाध्य होना पड़ रहा है क्योंकि  केंद्र सरकार ने आर्थिक तौर पर कमजोर वर्ग को आरक्षण और उससे जुड़े लाभ देने की पहल कर दी तो जातिगत जनगणना का पूरा खेल उलट जावेगा। वैसे भी अब ये कहा जाने लगा है कि जातिगत आरक्षण के अपेक्षित परिणाम नहीं निकले , उल्टे समाज टुकड़ों में विभाजित होता जा रहा है। जब तक अनु. जाति और जनजाति ही आरक्षण के अंतर्गत रहीं तब तक तो सामाजिक विद्वेष नहीं बढ़ा किंतु ओबीसी आरक्षण ने सामाजिक स्तर पर जातिगत टकराव और बढ़ा  दिया । राजनीतिक दलों के भीतर भी इसे लेकर खेमेबाजी बढ़ी है। सबसे बड़ी बात ये हुई कि राष्ट्रीय दलों के भीतर भी पिछड़ी जातियों के नेताओं में  आलाकमान पर दबाव बनाने की प्रवृत्ति नजर आने लगी। जातिगत जनगणना को ही लें तो उसके बारे में जिस तरह की प्रतिक्रियाएं सुनाई दे रही हैं उनसे स्पष्ट है कि आरक्षण को लेकर पार्टियों के भीतर भी खींचातानी चल पड़ी है । लेकिन इस विवाद के बीच  एक बात अच्छी हो रही है  कि ओबीसी की सियासत करने वाले छत्रप भी ये भांप गए हैं कि आर्थिक दृष्टि से कमजोर तबके को मदद पहुंचाए बिना आरक्षण की वर्तमान व्यवस्था को जारी रखना मुश्किल हो जाएगा । बीते तीन दशक में देश की सामाजिक स्थिति में जो बदलाव हुआ उसे देखते हुए  आर्थिक आरक्षण को बेहतर विकल्प मानने वाले बढ़ रहे हैं। प्रधानमंत्री श्री मोदी ने सामाजिक कल्याण की जितनी भी योजनाएं प्रारंभ कीं उनका केंद्र गरीबी रही न कि जाति। मुफ्त और सस्ता अनाज , आवास , रसोई गैस , किसान कल्याण , शौचालय जैसी योजनाओं में जाति को आधार नहीं बनाए जाने से सामाजिक तौर पर ईर्ष्या नहीं पनप सकी। आर्थिक तौर पर कमजोर वर्ग के लिए आरक्षण की जो नीति बनी उसका भी सकारात्मक प्रभाव हुआ। जातिगत आरक्षण के समर्थकों को ये बात समझ लेनी चाहिए कि सरकारी नौकरी दिन ब दिन कम होती जा रही हैं। जो राहुल गांधी केंद्रीय सचिवालय में ओबीसी सचिवों की बेहद कम संख्या को मुद्दा बनाए हुए घूम रहे हैं वे शायद भूल गए कि उनकी ही  पार्टी के प्रधानमंत्री  डा.मनमोहन सिंह ने  सरकार का आकार छोटा करने की शुरुआत करते हुए निजी क्षेत्र को काम सौंपने की शुरुआत की थी। उसी के बाद स्व.रामविलास पासवान ने निजी क्षेत्र में भी आरक्षण की मांग उछाली । यद्यपि उसे ज्यादा बल नहीं मिला। आगामी लोकसभा चुनाव में भाजपा को शिकस्त देने बनाए गठबंधन के पास चूंकि प्रधानमंत्री की टक्कर का दूसरा नेता नहीं है इसलिए उन्होंने जातिगत जनगणना  को मुद्दा बनाने का दांव चल तो दिया लेकिन जैसे संकेत आ रहे हैं उनसे लगता है भाजपा आर्थिक दृष्टि से कमजोर तबके को केंद्र में रखकर इसे नई दिशा दे सकती है। जहां तक बात नौकरी और चुनावी टिकिट की है तो उसकी तुलना में  समाज का बड़ा तबका आर्थिक दृष्टि से मदद का आकांक्षी है। ऐसे में यदि केंद्र सरकार ऐसे कदम उठाती है जिनसे समाज का  गरीब वर्ग लाभान्वित हो तो उससे सामाजिक विद्वेष तो कम  होगा ही ,  आरक्षण की आड़ में  की जाने वाली सौदेबाजी पर भी लगाम लगेगी।


-रवीन्द्र वाजपेयी


Wednesday 4 October 2023

जातिगत जनगणना जैसे मुद्दों में उलझकर अपना कद छोटा कर रही कांग्रेस


बिहार में जातिगत जनगणना के नतीजों ने राष्ट्रीय राजनीति में उबाल ला दिया है। विपक्ष इस मुद्दे से भाजपा को पटकनी देना चाह रहा है।उसकी परेशानी ये है कि उच्च जातियों की पार्टी कहलाने वाली भाजपा पिछड़ों और दलितों की  पसंद बनकर  केंद्र में स्पष्ट बहुमत हासिल कर ले गई। सबसे बड़ा नुकसान कांग्रेस को हुआ जो उ.प्र और बिहार में हाशिए पर चली गई। मंडल वादियों की कर्मभूमि रहे इन राज्यों में भाजपा का उभार  चौंकाने वाला था। कांग्रेस की मुसीबत ये है कि आज उसके साथ न तो मुस्लिम पूरी तरह हैं और न ही ओबीसी तथा दलित। सवर्ण  पहले ही खिसक चुके थे। उन्हें रिझाने के  लिए राहुल गांधी ने खुद को जनेऊ धारी ब्राह्मण और शिव भक्त  प्रचारित करवाते हुए मंदिरों - मठों में मत्था टेकना शुरू कर दिया । लेकिन ये दांव जब कारगर नहीं हुआ तब कुछ महीनों से वे पिछड़ी जातियों को लुभाने का प्रयास करने लगे। जिसकी जितनी संख्या ,  उसका उतना हिस्सा , वाला नारा लगाकर वे जिस सामाजिक न्याय का ढोल पीट रहे हैं वह बात तो डा.राममनोहर लोहिया ने आजादी के बाद  ही कहना शुरू कर दिया था। जब जातिगत जनगणना का कोई जिक्र तक नहीं करता था तब लोहिया जी ने पिछड़ा पावै 100 में साठ का नारा लगाया था। मंडल आयोग तो उनके न रहने के बरसों बाद बना। सवाल ये है कि कांग्रेस को ओबीसी के हितों की चिंता पहले क्यों नहीं हुई  और अनु. जाति/जनजाति को आरक्षण देते समय संविधान सभा ने ओबीसी को क्यों उपेक्षित किया?  1979 में जब चौधरी चरणसिंह की केंद्र सरकार से कांग्रेस ने समर्थन वापस लिया था तब उसके सांसद स्व.कल्पनाथ राय की टिप्पणी थी , जातिवाद का काला नाग मारा गया। दरअसल चौधरी साहब ने अजगर नामक गठबंधन बनाकर उ. प्र में पहली गैर कांग्रेसी सरकार गठित की थी । अजगर से अभिप्राय अहीर(यादव) , जाट, गुर्जर और राजपूत था। इसमें ब्राह्मण और दलितों को दूर रखा गया । बाद में नए - नए समीकरण बनते बिगड़ते रहे। सवर्ण जातियों को जूते मारने का नारा बुलंद करने वाली बसपा उनके समर्थन के लिए हाथी नहीं गणेश है, ब्रह्मा , विष्णु , महेश है का राग अलापने लगी । 2007 में इन्हीं के बल पर मायावती ने उ. प्र में पूर्ण बहुमत वाली सरकार बनाई। इसी तरह 2012 में अखिलेश यादव को सत्ता में लाने में भी सवर्णों की भूमिका थी जो मायावती के दलित मोह से त्रस्त हो चुके थे। लेकिन वे भी यादव प्रेम में फंसकर सवर्णों के साथ अन्य पिछड़ी जातियों का समर्थन गंवा बैठे जिसका लाभ उठाकर भाजपा ने इस राज्य में  अपने दम पर बहुमत हासिल कर लिया । और पिछड़े या अगड़े के बजाय योगी आदित्यनाथ को मुख्यमंत्री बनवाया जो हैं तो क्षत्रिय किंतु सन्यासी होने से उनकी  जातिगत पहिचान मुद्दा नहीं बन पाती। 2022 में भाजपा की सोशल इन्जीनियरिंग को ध्वस्त करने अखिलेश ने जाट  नेता जयंत चौधरी से गठजोड़ किया लेकिन वह भी कारगर नहीं हो सका । सबसे चौंकाने वाली ये रही कि इस राज्य कांग्रेस का जनाधार घटता चला गया। बिहार में भी कांग्रेस दुर्गति की शिकार है और लालू प्रसाद यादव और उनके बेटों के इशारों पर नाचने की मजबूरी झेल रही है। सही बात तो ये है कि  जबसे राहुल के हाथ बागडोर आई है तबसे पार्टी वैचारिक  भटकाव का शिकार होकर रह गई है। बिहार में हुई जातिगत जनगणना के नतीजों से बल्लियों उछल रहे श्री गांधी को इस सवाल का उत्तर भी देना चाहिए कि केंद्र में 2004 से 2014 तक जो सरकार चली उसकी लगाम उनके परिवार के हाथ थी। खुद राहुल इतने ताकतवर थे कि केंद्र सरकार द्वारा जारी अध्यादेश को पत्रकार वार्ता में फाड़कर फेंकने जैसा दुस्साहस कर बैठे । यदि जातियों के आधार पर हिस्सेदारी की फिक्र होती तो वे मनमोहन सरकार से कहकर  नीतिगत फैसला करवा लेते। 2011 की जनगणना तो यूपीए के राज में ही हुई थी । और जिस तरह बिहार सरकार ने जातिगत जनगणना के लिए प्रतिबद्धता दिखाई वैसी कांग्रेस शासित पंजाब , राजस्थान और छत्तीसगढ़ भी दिखाते तब ये कहा जा सकता था कि पार्टी जातियों की संख्या के आधार पर सामाजिक और राजनीतिक बंटवारा करने की हिमायती है। अचानक श्री गांधी जिस प्रकार जातिगत जनगणना के पक्षधर बनकर सामने आए उसके बारे में उनकी पार्टी के भीतर भी मतैक्य नहीं है। एक नेता द्वारा  सोशल मीडिया पर की गई विपरीत टिप्पणी हालांकि जल्द ही वापस ले ली गई लेकिन उससे काफी कुछ संकेत तो मिल ही गए । सबसे महत्वपूर्ण ये है कि कांग्रेस कब तक दूसरों के मुद्दों पर राजनीति करेगी जबकि लंबे समय से वह इस प्रवृत्ति का खामियाजा भुगत रही है। उसने तात्कालिक लाभ हेतु जितने भी नीतिगत फैसले किए उस सबकी महंगी कीमत चुकाने के बावजूद उसे अक्ल नहीं आ रही तो फिर ये मानकर चलना गलत न होगा कि देश की सबसे पुरानी पार्टी दिशाहीनता का शिकार होकर निर्णय क्षमता खो बैठी है।  राहुल सहित पूरी पार्टी को ये समझ लेना चाहिए कि नीतीश , लालू और अखिलेश जैसे नेता कांग्रेस को दोबारा उठने नहीं देंगे क्योंकि उससे उनकी राजनीति को ग्रहण लग जाएगा । कांग्रेस को चाहिए वह राष्ट्रीय पार्टी की तरह आचरण करे क्योंकि क्षेत्रीय मुद्दों में उलझकर उसका ऊंचा कद बौनेपन में तब्दील हो चुका है। 


-रवीन्द्र वाजपेयी