Monday 23 October 2023

राजनीतिक दल केवल चुनाव लड़ने की मशीन बनकर रह जाएंगे


म.प्र विधानसभा चुनाव में भाजपा और कांग्रेस द्वारा उम्मीदवारों की पूरी सूची लगभग जारी हो चुकी है। इक्का - दुक्का सीटें ही शेष हैं । प्रत्याशियों के प्रति मतदाताओं की पसंद - नापसंद तो मतगणना के बाद ही स्पष्ट होगी लेकिन सूची सार्वजनिक होते ही भाजपा और कांग्रेस में जिस प्रकार से विरोध और असंतोष देखने मिल रहा है वह राजनीति के गिरते स्तर का परिचायक है। बड़े नेताओं के मुर्दाबाद के नारे और पुतला दहन , पार्टी दफ्तरों का घेराव और आत्मदाह का प्रयास तक देखने मिल रहा है। जिन नेताओं को लोग अपना रहनुमा मानते थे वे ही टिकिट न मिलने पर  खलनायक मान लिए जाते हैं । दशकों तक जिस पार्टी की विचारधारा को धर्मशास्त्रों की तरह पूजा जाता है उसे एक झटके में रद्दी की टोकरी में फेंकने से परहेज नहीं किया जाता। नीतिगत निष्ठा , आदर्श सब पल भर में बदल दिए जाते हैं। इसके पीछे यदि नीतिगत और कार्यप्रणाली का मतभेद हो तो बात समझ में भी आती है किंतु आजकल राजनीति  पूरी तरह स्वार्थसिद्धि पर आधारित हो चली है। नीतियां और नेता भी तभी तक सुहाते हैं जब तक वे निहित स्वार्थों की पूर्ति करते रहें।  ज्यादातर लोगों का एकमात्र ध्येय चुनाव की टिकिट प्राप्त करना मात्र रह गया है। केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी ने कुछ साल पहले राजस्थान विधानसभा में आयोजित कार्यक्रम में कहा था कि राजनीति में काम करने वालों की महात्वाकांक्षा अंतहीन  है। विधायक बनने के बाद मंत्री और मंत्री बन जाने के बाद मुख्यमंत्री बन जाने के लिए हाथ - पांव मारे जाते हैं । उस आयोजन में मंच पर कांग्रेस के नेता भी मौजूद थे। हास - परिहास में गहरी और गंभीर बात कह जाने के लिए प्रसिद्ध श्री गडकरी आज के दौर में स्व.अटल जी की तरह उन राजनीतिक नेताओं में से हैं जिनका कोई शत्रु नहीं है। बावजूद इसके कि वे रास्वसंघ और भाजपा की विचारधारा के प्रति पूरी तरह समर्पित और प्रतिबद्ध हैं। लेकिन उनकी अपनी पार्टी में ही  ऐसे लोग कम होते जा रहे हैं जो केवल वैचारिक प्रतिबद्धता के कारण उससे जुड़े हैं और निःस्वार्थ भाव से विचारधारा की सेवा करते हैं। कांग्रेस की तो बात ही करना बेकार है क्योंकि उसमें व्यक्ति निष्ठा के चलते  विचारधारा नाम की कोई चीज बची ही नहीं । रही बात क्षेत्रीय दलों की तो वे किसी  नेता या परिवार की निजी मिल्कियत जैसे हैं जिनकी विचारधारा केवल निहित स्वार्थ साधने तक सीमित है। वामपंथी दल इस बुराई से दूर कहे जा सकते थे किंतु राष्ट्रीय राजनीति में हाशिए पर सिमटते जाने के कारण वे भी बेमेल गठबंधन करने लगे हैं। भाजपा के अंध विरोध ने उन्हें नकारात्मक राजनीति की तरफ धकेल दिया जिससे युवा पीढ़ी उनसे विमुख हो चली है । मौजूदा परिदृश्य देखें  तो म.प्र जैसे राज्य  की राजनीति बीते पांच दशक से पूरी तरह दो ध्रुवीय हो चली है। इसीलिए जिसे भी नेतागिरी करनी होती है वह भाजपा और कांग्रेस में संभावनाएं तलाशता है। ऐसे में इन पार्टियों को भी ये सतर्कता बरतनी चाहिए कि वे किसी भी नए व्यक्ति को  सदस्यता देते समय उसे ये बात समझा दें कि चुनावी टिकिट मिलने की कोई गारंटी नहीं है। आजकल सेवा निवृत्त नौकरशाहों में  भी राजनीति का आकर्षण जाग उठा है। जिंदगी भर अफसरी करने के बाद सांसद और विधायक बन जाने की कार्ययोजना के साथ ये लोग राजनीति में कदम रखते हैं और किसी नेता के कृपा पात्र बनकर लालबत्ती हासिल कर लेते हैं। लेकिन ज्योंही इनको लगता है कि इनका स्वार्थ सिद्ध नहीं हो रहा ,  ये पाला बदलने में संकोच नहीं करते। प्रदेश के एक पूर्व आई.पी.एस अधिकारी उमा भारती के समय भाजपा में आए और देखते - देखते विधायक और  मंत्री बन गए। उसके बाद किसी आयोग का अध्यक्ष पद भी उनको दिया गया।  पिछला चुनाव वे हारे और इस बार टिकिट नहीं मिली तो बेटे को बसपा से उम्मीदवार बनवा दिया । ऐसे ही लोग कांग्रेस में भी घुसे हुए हैं । दरअसल इस श्रेणी के जो रेडीमेड नेता आते हैं उनकी विचारधारा में तो रुचि होती नहीं और न ही वे जमीनी कार्यकर्ता बनकर काम करना पसंद करते हैं। बड़े नेताओं के साथ निकटता कायम कर वे महिमामंडित हो जाते हैं । लेकिन इनकी वजह से बरसों तक दरी - फट्टा उठाने वाले कार्यकर्ता के मन में जो कुंठा पैदा होती है उसी का परिणाम है कि थोड़े समय बाद ही उसकी महत्वाकांक्षा जोर मारने लगती है । और जब उसे लगता है कि उसके योगदान का मूल्यांकन नहीं हो रहा और नेताओं के कृपापात्र अवसरवादी मलाई के हकदार बने हुए हैं तब वह भी दबाव की राजनीति पर उतारू हो जाता है। बीते दो - तीन दिनों में प्रदेश के कोने - कोने से भाजपा और कांग्रेस में  बगावत की खबरें इसी कारण से आ रही हैं । यदि भाजपा और कांग्रेस ने इस सबसे सबक नहीं  लिया तो भविष्य में वे केवल चुनाव लड़ने वाले मशीन बनकर रह जाएंगी जिसका विचारधारा से कोई संबंध नहीं होगा । वैसे भी  मतदाताओं को आकर्षित करने के लिए पार्टी की नीतियां और कार्यक्रम कारगर नहीं रहे । इसीलिए मुफ्त उपहारों के  पैकेज के भरोसे चुनाव जीतने की कोशिश की जा रही है।


- रवीन्द्र वाजपेयी

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