Saturday 31 December 2022

प्रधानमंत्री का आचरण सत्ताधारी राजनेताओं के लिए सन्देश



गत दिवस प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी की वयोवृद्ध माताजी का निधन हो गया | वे दिल्ली से अहमदाबाद पहुंचे और बिना किसी  तामझाम के उनका अंतिम संस्कार किया | नगर निगम के शव वाहन में माँ  के पार्थिव शरीर के साथ बैठकर वे श्मशान भूमि गए | वहां भी बिना भीड़ एकत्र किये उन्होंने माँ को मुखाग्नि दी और  लौटकर राजभवन में आभासी माध्यम से कोलकाता में आयोजित पूर्व  निर्धारित कार्यक्रमों में सम्मिलित हुए जिसके लिए उन्हें वहां जाना था | प. बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी ने प्रधानमंत्री की  माँ  को अपनी माँ बताते हुए उन्हें आराम करने की सलाह भी दी किन्तु श्री मोदी ने  शोक की घड़ी में भी  कर्तव्य के निर्वहन को प्राथमिकता दी और शाम दिल्ली लौट गए | प्रचार माध्यमों में उनकी इस सोच के प्रति प्रशंसात्मक भाव व्यक्त किये जाने लगे | साधारण सी अर्थी कंधे पर लिए अपने भाई के साथ  चलते प्रधानमंत्री के चित्र देखते - देखते दुनिया भर में प्रसारित हो गये | शोक संदेशों की बाढ़ आ गयी | ऐसे अवसरों पर राजनीतिक मतभेद भूलकर  सांत्वना और संवेदना  व्यक्त करने का जो शिष्टाचार है उसका भी विधिवत पालन होता दिखा जो निश्चित रूप से स्वागतयोग्य है | लेकिन कुछ घंटों के बाद ही छींटाकशी का सिलसिला शुरू हो  गया | कुछ लोगों को प्रधानमंत्री द्वारा माँ की चिता ठंडी होने के पहले ही काम में लग जाना बुरा लगा तो किसी ये बात नागवार गुजरी कि उन्होंने बजाय शोकाकुल होकर बैठने के कोलकाता में वन्दे भारत ट्रेन के शुभारम्भ के साथ ही कुछ और विकास योजनाओं की शुरुआत की , जिन्हें या तो स्थगित किया जा सकता था या फिर  कोई और उस कार्य को कर देता | साधारण तौर पर हमारी सामाजिक व्यवस्था में शोकग्रस्त  व्यक्ति सब काम छोड़कर निर्धारित कर्मकांड में उलझकर रह जाता है | लेकिन  प्रधानमंत्री का एक - एक  क्षण पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार उपयोग होता है | उनके किसी भी आयोजन की तैयारियां अग्रिम रूप से की जाती हैं जिन पर भारी खर्च होता है | शासन – प्रशासन के साथ ही आम जनता भी ऐसे  आयोजन से प्रत्यक्ष या परोक्ष तौर पर जुड़ जाती है | ऐसे में उसका रद्द होना लोगों को तो निराश करता ही है , सरकारी पैसे की बर्बादी भी होती है | ये देखते हुए श्री मोदी ने निजी दुःख को दरकिनार रखते हुए  समाज को जो सन्देश दिया वह महत्वपूर्ण है | हमारे देश में  वीआईपी संस्कृति के कारण  पद , प्रतिष्ठा और पैसे के भौंड़े  प्रदर्शन की प्रतिस्पर्धा चल पड़ी | शादी – विवाह ही नहीं अपितु शोक प्रसंगों  में भी वैभव और हैसियत का दिखावा होने लगा | उस दृष्टि से प्रधानमंत्री ने अपनी माताजी के अंतिम संस्कार में जिस सादगी का परिचय दिया वह कम से कम राजनीतिक जगत के लिये तो सन्देश है ही | वे चाहते तो पार्थिव शरीर को जनता के दर्शनार्थ रख सकते थे | देश भर से नेता और अन्य विशिष्ट जन श्रद्धांजलि देने के लिए लाइन लगाकर खड़े रहते जिसका सीधा प्रसारण होता परन्तु उन्होंने इन सबसे बचते हुए अंतिम संस्कार की  पूरी प्रक्रिया साधारण तरीके से संपन्न करने  के उपरांत प्रधानमंत्री के तौर पर अपनी जिम्मेदारी को महसूस करते हुए दिनचर्या जारी रखी | सत्ता में बैठे लोगों को इस बात से ये समझना चाहिए कि वे भले ही वीआईपी  शिष्टाचार और सम्मान से जुड़ी सुविधाओं और सम्मान के हकदार हों लेकिन उनका पूरा कुनबा उसे अपना अधिकार समझे ये अनुचित है | श्री मोदी की माता जी निश्चित रूप से उनके और परिजनों के लिए पूज्य थीं किन्तु थीं तो एक साधारण नागरिक ही जो अपने छोटे बेटे के साथ रहती थीं | प्रधानमंत्री अक्सर उनसे मिलने जाया करते थे किन्तु परिजनों को उन्होंने किसी भी प्रकार की  सुविधाओं से उपकृत नहीं किया | पूर्व राष्ट्रपति स्व. एपीजे कलाम ने भी  राष्ट्रपति भवन में अपने भाईयों सहित अन्य परिजनों को नहीं रखा | और न ही रामेश्वरम स्थित पुश्तैनी घर में किसी भी प्रकार का सरकारी इंतजाम किया | मोदी जी की राजनीतिक विचारधारा का विरोध चाहे जितना होता हो लेकिन बतौर प्रधानमंत्री उन्होंने कार्य संस्कृति और दायित्व बोध के जो नये मापदंड स्थापित किये वे लोकतान्त्रिक व्यवस्था की आड़ में पैर जमा चुके नव सामंतवाद को खत्म करने में सहायक होंगे  | गत दिवस गुजरात के मुख्यमंत्री को छोड़कर भाजपा के नेताओं की गैर मौजूदगी इस बात का सन्देश है कि सरकारी हैसियत से परिवार को महिमामंडित और लाभान्वित करना जनतांत्रिक सोच के विरुद्ध है | प्रधानमंत्री के इस कदम में भी जिन्हें आलोचना के बिंदु दिख गये वे वैसा करने के लिए स्वतंत्र हैं | लेकिन जनता के मन में राजनेताओं और राजनीति के प्रति बढ़ती वितृष्णा रोकने में  इस तरह के उदाहरण सहायक हो सकते हैं | महात्मा गांधी ने आजादी के बाद राष्ट्रपति के लिए  वायसराय हाउस ( राष्ट्रपति भवन ) की जगह छोटे बंगले की व्यवस्था करने का सुझाव दिया था जिसे अनसुना कर दिया गया | उसी का परिणाम है कि समाज में सत्ताधीशों ने पूर्व राजा  – महाराजाओं जैसी हैसियत अर्जित कर ली | उससे भी बड़ी बात  ये हुई कि उनके परिजन भी खुद को राज परिवार का हिस्सा समझने लगे | प्रधानमंत्री ने गत दिवस जिस तरह की सादगी दिखाई उसे अगर उनकी पार्टी के अन्य नेतागण ही  अपनाने लगें तो राजनीति की छवि में कुछ सुधार हो सकता है | गांधी , लोहिया और दीनदयाल ने जो  राजनीतिक संस्कार दिए थे उनका गुणगान तो खूब होता है लेकिन आचरण में उनका लेशमात्र पालन करने की मानसिकता खत्म हो चुकी है | किसी शोकग्रस्त व्यक्ति को बधाई देना तो बेहूदगी होगी लेकिन प्रधानमंत्री ने जिस दायित्वबोध का परिचय दिया उसकी प्रशंसा राजनीति से ऊपर उठकर होनी चाहिए |


रवीन्द्र वाजपेयी 

Friday 30 December 2022

फ़ुटबाल के निर्विवाद सर्वकालीन महानायक पेले



जिस तरह सर डॉन ब्रेडमेन क्रिकेट और  मेजर ध्यानचंद हॉकी के सर्वकालीन महान खिलाड़ी माने जाते हैं ठीक उसी तरह ब्राजील के पेले को निर्विवाद रूप से फुटबाल का  महानतम खिलाड़ी कहना गलत नहीं होगा | 82 वर्ष की आयु में उनका निधन हो गया | 10 नम्बर की जर्सी पहनकर मैदान में जब वे उतरते तो दर्शकों का उत्साह देखने लायक होता था | अपने कलात्मक खेल के बदौलत उन्होंने ब्राजील को तीन विश्व कप जितवाए थे | एक दौर ऐसा था जब फ़ुटबाल और ब्राजील समानार्थी हो गए थे जिसका श्रेय काफी हद तक उनको दिया जा सकता है | यही नहीं तो फ़ुटबाल पर यूरोपीय देशों की बादशाहत खत्म करते हुए उसे लैटिन अमेरिकी देशों में राष्ट्रीय खेल के रूप में स्थापित करने में पेले का योगदान इस खेल के इतिहास का एक महत्वपूर्ण अध्याय बन गया है | जिस तरह ब्रेडमेन और ध्यानचंद को उनके नैसर्गिक खेल के लिए याद किया जाता है ठीक वैसे ही पेले के पांवों की  चपलता को दैवीय उपहार माना गया था | अपने लंबे खेल जीवन में वे  साफ़ सुथरे खेल के लिए ही जाने गए इसीलिये  उनका खेल आनन्दित करने वाला होता था | 128 अंतर्राष्ट्रीय गोल का  रिकॉर्ड उनके  नाम पर अंकित है | 1958 में महज 17 साल की उम्र में स्वीडन के  विरुद्ध विश्व कप के फायनल मैच में  2 गोल मारने वाले पेले वह कारनामा करने वाले सबसे कम के उम्र के खिलाड़ी बने | उनकी महानता के मद्देनजर उन्हें ब्राजील का खेल मंत्री  भी बनाया गया था | वे  पेशेवर खिलाड़ी भी रहे और उन्होंने फुटबाल से पैसा भी खूब कमाया किन्तु आम आदमी के इस मैदानी खेल को उनका योगदान साफ़ – सुथरा और कलात्मक प्रदर्शन रहा | आजकल इस खेल के जो अंतर्राष्ट्रीय खिलाड़ी हैं उनकी ख्याति उन्हें मिलने वाली पारिश्रमिक की राशि से होती है जबकि पेले की लोकप्रियता उनके व्यक्तित्व और खिलाड़ी भावना के कारण बढ़ी | क्लब फ़ुटबाल सहित अपने कैरियर में 1000 गोल करने वाले पेले ने ब्राजील के साथ ही अन्य लैटिन अमेरिकी देश अर्जेंटीना , चिली , कोलंबिया , क्यूबा आदि में फुटबाल के प्रति जो दीवानगी उत्पन्न की वह अभूतपूर्व है | सबसे बड़ी बात ये है कि वे कभी विवादास्पद नहीं हुए | लैटिन अमेरिका में पैसा और प्रसिद्धि प्राप्त  करने के बाद अनेक खिलाड़ी नशीली दवाओं के फेर में पड़कर अपना स्वास्थ्य और सम्मान गँवा बैठे | अर्जेंटीना के सुपर स्टार रहे डिएगो मैराडोना इसके उदाहरण हैं | वैसे भी दुनिया का ये हिस्सा नशे के कारोबार के लिए कुख्यात है | लेकिन पेले इससे दूर रहे | और यही वजह थी कि संरासंघ ने उनको पारस्थितिकी और पर्यावरण के लिए अपना राजदूत बनाया | पेले के प्रति ब्राजील की जनता के मन में कितना प्यार था ये उस समय देखने मिला जब उनके सन्यास लेने पर लोग फूट - फूटकर रोये | किसी खिलाड़ी के लिए इस तरह के सम्मान का दूसरा उदाहरण खेलों के इतिहास में दुर्लभ है | उनके मैदान से दूर हो जाने के बाद के दौर में फुटबाल और लोकप्रिय हुई है | कतर में हाल ही में संम्पन्न विश्व कप में अनेक छोटे – छोटे देशों ने दिग्गज टीमों को जिस  तरह मात दी उससे लग गया कि इस खेल की वैश्विक स्वीकार्यता बढ़ी है |  हालाँकि पेले के बाद इस खेल में एक से एक बड़े सितारा खिलाड़ी आये जिन्होंने अपने खेल से फ़ुटबाल प्रेमियों का दिल जीत लिया लेकिन उन सब में कहीं न  कहीं पेले जैसा बनने की इच्छा   है | किंग ऑफ फ़ुटबाल और ब्लैक पर्ल जैसे नामों से जाने गए पेले को 20 वीं सदी का महानतम फुटबालर कहा गया | लेकिन जिस शैली का खेल वे खेलते थे उसमें जीत का जूनून होने के साथ ही खेल की आत्मा समाहित थी | और इसीलिये उन्हें भूतो न भविष्यति जैसे विशेषण से सम्बोधित करना गलत न होगा | खेल , शौक और मनोरंजन से आगे निकलकर अब व्यवसाय का रूप ले चुके हैं | किसी सितारा खिलाड़ी के रेकॉर्ड के साथ ही उसके द्वारा कमाई गई दौलत भी उसकी सफलता का मापदंड मानी जाती है | खिलाड़ी मैदान में बैठे हजारों दर्शकों के अलावा टीवी पर मैच देख रहे असंख्य खेल प्रेमियों  को आनंदित करता है | लेकिन सच्चा खिलाड़ी वही होता है जो अपने खेल से स्वयं आनंदित होकर उसमें डूब जाए  | पेले उसी श्रेणी के खिलाड़ी थे इसलिए उनका नाम लेते ही फ़ुटबाल में रूचि रखने वाले व्यक्ति को सुखद एहसास होने लगता है | अपने साफ़ सुथरे खेल और शालीन आचरण से फ़ुटबाल प्रेमियों के दिल में बसे इस महान खिलाड़ी को विनम्र श्रद्धांजलि |  

रवीन्द्र वाजपेयी 



Thursday 29 December 2022

कोरोना से डरने की जरूरत नहीं लेकिन लापरवाही महंगी पड़ सकती है



एक बात पूरी तरह साफ है कि भारत में कोरोना नए रूप में आ चुका है | चीन में हालात भयावह हो जाने के बाद हमारे देश में भी दहशत का माहौल बनने  लगा था | केंद्र सरकार द्वारा राज्यों को भेजी गयी निर्देशिका और उसके बाद  चिकित्सा प्रबंधों को लेकर की गई माकड्रिल के कारण आम जनता के साथ ही व्यापार जगत में भी भय व्याप्त  होने लगा | 2020 और 21 की डरावनी यादों  ने लॉक डाउन की वापसी की आशंका पैदा कर दी | इक्का – दुक्का लोग मास्क लगाये भी नजर आने लगे | भीड़ भाड़ वाली जगहों में जाने से बचने की सलाह दी जाने लगी | माकड्रिल  के दौरान ये बात भी उजागर हुई कि कोरोना की दूसरी लहर के दौरान लगाये गए अधिकतर आक्सीजन संयंत्र बंद पड़े थे | बहरहाल एक बात अच्छी है कि कोरोना के दो हमलों के दौरान चिकित्सा प्रबंधों में जो कमियाँ देखने मिली उन्हें समय रहते दुस्स्त करने की अक्लमंदी सरकार दिखा रही है | उससे भी अच्छी बात ये है कि जनसाधारण को भी कोरोना से बचाव के तौर - तरीके पता हैं | लेकिन इस जानकारी की वजह से भय का भूत खड़ा करने के बजाय सतर्कता ज्यादा जरूरी है | सबसे बड़ी बात है उद्योग – व्यापार जगत में घबराहट फैलने से रोकना क्योंकि बीते दो सालों में अर्थव्यवस्था को जो झटके लगे उससे वह काफी कुछ उबर चुकी है | अनेक क्षेत्रों में तो कोरोना पूर्व से भी अच्छी स्थिति नजर आने लगी है | चिकित्सा विशेषज्ञों द्वारा दी जा रही जानकारी के अनुसार कोरोना नए रूप में एक बार फिर सक्रिय हो उठा है | लेकिन वह पहले जैसा घातक नहीं होने से संक्रमित व्यक्ति अस्पताल में दाखिल हुए बिना भी साधारण इलाज से ठीक हो सकता है | अभी तक देश में जितने भी नए मामले कोरोना के आये  वे सब कुछ ही दिनों में ही  संक्रमण मुक्त हो गए | इक्का दुक्का को ही अस्पताल में भर्ती होने लायक समझा गया | हालाँकि इसी वायरस के कारण चीन में स्थितियां भयावह रूप ले चुकी हैं | अस्पतालों में बिस्तर कम पड़ने से अफरातफरी का माहौल है | दवाओं की आपूर्ति नहीं होने से उनकी कालाबाजारी होने की खबरें भी आ रही हैं जो साम्यवादी शासन प्रणाली वाले देश में चौंकाने वाली बात है | लेकिन भारत में चूंकि टीकाकरण समय पर और पर्याप्त संख्या में होने के बाद बूस्टर डोज भी ज्यादातार लोगों को लग चुका है इसलिए कोरोना का प्रकोप पूर्वापेक्षा गंभीर शायद नहीं होगा | लेकिन वैक्सीन लगने के बाद व्यक्ति कोरोना से स्थायी तौर पर सुरक्षित रहेगा ये खुशफहमी भी जानलेवा हो सकती है | इसलिए भयाक्रांत हुए बिना साधारण सतर्कता बरतने मात्र से इस संकट से बचा जा सकता है | बीते कुछ दिनों में ही पूरे देश में हजारों लोगों के संक्रमित होने के बाद चिकित्सा विशेषज्ञों ने आगाह किया है कि जनवरी माह से संक्रमण में तेजी आयेगी  | विदेशों से आने वाले यात्रियों की जाँच से भी नए मामले सामने आ रहे हैं | ये सब देखते हुए हर किसी को चाहिए वह अपना  और अपने परिवार का ध्यान रखे | व्यक्तिगत दायित्वबोध ही अंततः सामूहिक संस्कार बन जाता है | कोरोना के पिछले दोनों हमलों में भारत की जनता ने अद्वितीय अनुशासन और धैर्य का जो परिचय दिया उसका ही परिणाम था कि भारत ने अमेरिका , ब्रिटेन और इटली जैसे बेहतर स्वास्थ्य सेवाओं वाले देशों की तुलना में अच्छा प्रदर्शन किया | इसलिए हमें घबराने की जरूरत तो नहीं है किन्तु ये मानकर भी नहीं बैठना चाहिए कि वायरस जितना आज कमजोर नजर आ रहा है उतना ही आगे भी बना रहेगा | इसलिए जनवरी महीने में उसका फैलाव  होने के पहले ही यदि सामूहिक तौर पर सावधानी रखी जाए तो इस कथित तीसरी लहर से भी आसानी से निपटा जा सकेगा | पिछले अनुभवों ने हमें काफी कुछ सिखाया है जिसकी वजह से कोरोना का सामना करने के प्रति हमारा आत्मविश्वास प्रबल है लेकिन जरा सी लापरवाही नुकसानदेह हो सकती है | कोरोना के इस दौर में हमें केवल लोगों की जान की नहीं अपितु अर्थव्यवस्था की चिंता भी करनी होगी | सरकार ने इसीलिये कहा है कि वह अपनी तरफ से किसी भी प्रकार के प्रतिबंध नहीं लगाएगी | ऐसे में जनता की जिम्मेदारी और  भी ज्यादा बढ़ जाती है | कोरोना की ये लहर कब तक चलेगी ये तो पक्के  पर कोई भी नहीं बता सकता | ये भी हो सकता है कि वह थोड़े अन्तराल के बाद नए - नए रूप में लौटकर आता रहे | हालाँकि कोई भी महामारी एक सीमा के बाद अपनी तीव्रता खो बैठती है लेकिन कोरोना के उदय के प्रति ये आशंका शुरू से ही व्यक्त की जाती रही है कि वह मानव निर्मित है | यदि ऐसा है तब तो सारे अनुमान हवा – हवाई साबित होते रहेंगे | इसलिये नए साल का जश्न मनाते समय इस बात का ध्यान रखना होगा कि रंग में भंग वाली स्थिति  न बने | मकर संक्रांति से शादियों  का मौसम शुरू हो जाएगा | साल के अंत में देश भर के पर्यटन केन्द्रों में भारी भीड़ की खबरें हैं | इसीलिए जनवरी में संक्रमण के बढ़ने की बात कही जा रही है | सरकार ने अपनी तरफ से लोगों को सतर्क कर दिया है | चिकित्सा  विशेषज्ञ भी लगातार नवीनतम जानकारियाँ दे रहे हैं | अब ये जनता के ऊपर है कि वह अपने स्तर पर कितनी जिम्मेदारी का परिचय देती है | 


: रवीन्द्र वाजपेयी 

Wednesday 28 December 2022

बेलगाम : समय रहते विवाद न सुलझाने का दुष्परिणाम



किसी विवाद को अक्सर इसलिए टाला जाता है कि फैसला करने पर एक पक्ष नाराज हो जाएगा | लेकिन कालांतर में वह  और जटिल हो जाता है तब उसका हल तलाशना बेहद कठिन होता है | हमारा देश इसका सबसे बड़ा उदाहरण है | ताजा सन्दर्भ महाराष्ट्र  और कर्नाटक के बीच बेलगावी जिसका प्रचलित नाम बेलगाम है , को लेकर चले आ रहे विवाद का है | 1956 में भाषावार प्रान्तों की रचना के समय बेलगाम नामक मराठी भाषी जिला कर्नाटक में मिला दिया गया था | इसे लेकर शुरू से दोनों के बीच झगड़ा चला आ रहा है | हिंसक आन्दोलन और संघर्ष भी देखने मिले | राजनीतिक स्तर पर विवाद सुलझाने के प्रयास अनेक मर्तबा उस समय भी हुए जब केंद्र के साथ ही दोनों राज्यों  में एक ही दल सता में था और केन्द्रीय नेतृत्व भी  काफी ताकतवर था | लेकिन इच्छाशक्ति और दृढ़ता की कमी के कारण मामला अनसुलझा रह गया | फिलहाल प्रकरण सर्वोच्च न्यायालय के अधीन है | उसका जो भी फैसला  आएगा वह दोनों राज्यों पर बंधनकारी होगा | लेकिन बीते कुछ दिनॉ से ये विबाद एक बार फिर जमीन पर उतर आया है | इसकी वजह निकट भविष्य में होने जा रहे कर्नाटक विधानसभा के चुनाव हैं | उसकी  विधानसभा में एक प्रस्ताव गत सप्ताह पारित किया गया जिसके  अनुसार महाराष्ट्र को बेलगाम की थोड़ी सी भी जमीन नहीं दी जावेगी | जवाब में गत दिवस महाराष्ट्र विधानसभा  और विधानपरिषद ने बेलगाम के साथ ही उन 800 ग्रामों पर अपना हक जताने विषयक प्रस्ताव स्वीकृत कर दिया जहां मराठी भाषी लोगों का बाहुल्य है | गौरतलब है केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने दोनों को इस बात के लिए राजी कर लिया था कि वे सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय  की प्रतीक्षा करेंगे किन्तु चुनाव करीब होने के कारण कर्नाटक सरकार ने जनता की नाराजगी से बचने विधानसभा में प्रस्ताव पारित करवा लिया | दूसरी तरफ महाराष्ट्र में शिवसेना इस मुद्दे पर राज्य सरकार को घेरने में लग गयी | संयोगवश कर्नाटक और महाराष्ट्र दोनों राज्यों  में भाजपा सत्तासीन है और केन्द्र में भी उसकी सरकार है | 1956 में भाषावार प्रान्तों की रचना करते समय बेलगाम के साथ ही कुछ मराठी भाषी इलाके कर्नाटक में क्यों और कैसे  चले गए ये वाकई विश्लेषण का  विषय है | लेकिन ऐसा और भी राज्यों में हुआ जिनकी सीमा वाले जिलों में मिश्रित आबादी रहती है | उदाहरण के लिए म.प्र के अनेक इलाके ऐसे हैं जहाँ महाराष्ट्र की झलक मिलती है | हालाँकि वे मराठीभाषी नहीं हैं | इसी तरह मालवा और मध्यभारत के अनेक जिलों में क्रमशः गुजरात और राजस्थान का प्रभाव साफ़ झलकता है |  लगभग सात दशक में बेलगाम की  कम से कम दो पीढ़िया तो बदल ही गईं हैं | दरअसल मुद्दा ये बनाया जाता है कि दूसरी भाषा बोलने वालों के साथ अन्याय होता है जो  कुछ हद तक ये सही भी  है किन्तु  इस तरह के विवाद राजनीतिक कारणों से ही उत्पन्न किये जाते हैं जिनका उद्देश्य अपनी रोटी सेकना ही है | देश की राजधानी दिल्ली में सुदूर दक्षिण से नौकरी करने आये लाखों लोग वहीं के होकर रह गए जिन्हें लेकर कोई विवाद सामने नहीं आया | एक समय था जब शिवसेना उत्तर भारतीयों के विरुद्ध बेहद आक्रामक रहती थी | छठ पूजा तक का विरोध किया जाता था | लेकिन अब उसे भी समझ में आ चुका है कि उ.प्र और बिहार से आये लोगों के साथ आत्मीयता कायम करना ही बुद्धिमत्ता है | महाराष्ट्र और कर्नाटक दोनों राज्यों के नेताओं को ये बात समझनी चाहिए कि जब मामला सर्वोच्च न्यायालय में विचाराधीन है तब बेकार की रस्साकशी से कुछ  हासिल होने वाला नहीं है | अभी तक इस विवाद में अनेक  लोग हिंसा का शिकार हो चुके हैं वहीं  करोड़ों की संपत्ति नष्ट की जा चुकी है | समय - समय  पर हुए आंदोलनों में काम धंधे बंद रहने से हुआ  नुकसान अलग है | ये सब अनिर्णय की प्रवृत्ति से बंधे रहने का ही  दुष्परिणाम है | अव्वल तो भाषावार प्रान्तों की रचना ही ऐतिहासिक भूल थी जिसने देश को बेकार के विवाद में फंसा दिया | तमिलनाडु में भाषा के नाम पर ही  अलगाववाद को बढ़ावा मिला | हाल ही में पूर्व केन्द्रीय मंत्री और द्रमुक नेता डी . राजा ने यहाँ तक धमकी दे डाली कि हिंदी लादने की कोशिश होने पर तमिलनाडु देश से अलग हो सकता है | आजादी के  75 साल बाद देश जब विश्वशक्ति बनने की राह पर तेजी से कदम बढ़ा रहा हो तब दो राज्यों के बीच भाषा के नाम पर कुछ इलाकों को लेकर शत्रुता का भाव बना रहे इससे बड़ी विडंबना और क्या होगी ?  बेलगाम को लेकर लड़ रहे दोनों राज्यों में एक ही दल के आधिपत्य वाली सरकार होने के बाद भी इस तरह की बचकानी राजनीति से क्षणिक राजनीतिक स्वार्थ भले ही सिद्ध हो जाएँ लेकिन देश कमजोर होता है | इसी तरह का विवाद चंडीगढ़ को लेकर है | पंजाब को विभाजित कर हरियाणा और हिमाचल प्रदेश बने तब चंडीगढ़ को दोनों की राजधानी बनाकर केंद्र शासित  बना दिया गया | दशकों बाद भी वे  इसके लिए लड़ने मरने तैयार रहते हैं | जबकि इतने लम्बे समय में वे  चाहते तो चंडीगढ़ से बेहतर राजधानी बना सकते थे |  उल्लेखनीय है आंध्र प्रदेश से तेलंगाना को अलग करते समय ही तय कर लिया गया कि हैदराबाद निश्चित समय तक दोनों की राजधानी रहेगी | आंध्र प्रदेश अमरावती नामक अपनी राजधानी विकसित कर रहा है | बेलगाम को लेकर सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय आने तक महाराष्ट्र और कर्नाटक दोनों को संयम रखना चाहिए | दुर्भाग्यवश कश्मीर से कन्याकुमारी तक भारत एक है का नारा केवल दीवारों तक ही सिमटकर रह गया है नेताओं  के दिल पर अंकित नहीं हो सका |

रवीन्द्र वाजपेयी 


Tuesday 27 December 2022

हर साल होने वाले चुनाव निर्णय प्रक्रिया में बाधक



वर्ष 2023 में देश की अर्थव्यवस्था क्या रूप लेगी, विकास दर का आंकड़ा किस ऊंचाई को छुएगा, बेरोजगारी की मौजूदा स्थिति में सुधार होगा अथवा नहीं, कच्चे तेल के आयात पर निर्भरता कितनी घटेगी, चीन में कोरोना की वापसी से हमारे विदेशी व्यापार को कितना लाभ होगा और सीमा पर चीन तथा पाकिस्तान द्वारा पैदा किए जाने संकट का मुकाबला हम किस तरह करेंगे, जैसे अनेक मुद्दों पर राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में व्यापक विचार विमर्श की जरूरत है। आखिरकार इन सबका असर प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से आम जनता के जीवन पर पड़ता है। लेकिन इन सबसे हटकर जहां देखो इस बात की चर्चा है कि 2023 में जिन 10 राज्यों में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं वहां की राजनीति किस करवट बैठेगी ? इन राज्यों में देश के उत्तर, दक्षिणी, पूर्वोत्तर, मध्य और पश्चिम के राज्य हैं। इस प्रकार ये एक तरह के लघु आम चुनाव जैसा होगा। हालांकि विभिन्न राज्यों के चुनाव अलग अलग महीनों में होंगे किंतु लगभग पूरे साल न सिर्फ  चुनाव आयोग और राजनीतिक दल वरन समाचार माध्यम, विश्लेषक एवं संबंधित राज्यों के प्रशासन सहित केंद्रीय सुरक्षा एजेंसियां सब छोड़कर चुनाव के इर्द गिर्द केंद्रित हो जायेंगी। जाहिर है आम जनता के लिए भी चुनाव चौराहे से लेकर काफी हाउस तक की चर्चा का विषय बन जाते हैं। और बनें भी तो क्यों नहीं आखिर जनतंत्र है ही जनता से जुड़ा तंत्र जिसे चलाते रहने के लिए चुनाव नामक प्रणाली का सृजन किया गया किंतु भारत जैसे विकासशील देश में हर समय चुनाव का माहौल बना रहने से एक तो राजनीति का अतिरेक हो गया है दूसरा इसका दुष्प्रभाव हमारी विकास योजनाओं पर भी पड़ता है। चुनाव जीतने के लिए सभी राजनीतिक दल तात्कालिक लाभ देने वाले जो वायदे करते हैं उनका अर्थव्यवस्था पर बुरा प्रभाव पड़ता है। विभिन्न राज्यों के खाली खजाने इसका प्रमाण हैं। चुनाव जीतने के लिए क्षेत्रीय दल जो वायदे करते हैं वे अक्सर राष्ट्रीय हितों से मेल नहीं खाते। और फिर अलग-अलग राज्यों के चुनाव की समय सारिणी अलग-अलग होने से क्षेत्रीय भावनाएं भड़काकर वोट बटोरने का दांव चला जाता है। कर्नाटक और महाराष्ट्र के बीच बेलगाम का विवाद दशकों से चला आ रहा है। हाल ही में इसे लेकर दोनों राज्यों के बीच हिंसक संघर्ष हुआ। एक दूसरे के वाहनों की आवाजाही रोक दी गई। तोडफ़ोड़ और आगजनी भी देखने मिली। दोनों तरफ के नेताओं के बयानों से लगा जैसे दो शत्रु राष्ट्र आमने सामने हों। इस विवाद के भड़कने के पीछे कुछ महीने बाद होने वाले कर्नाटक विधानसभा के चुनाव ही हैं। जम्मू कश्मीर के अलावा त्रिपुरा, मेघालय, मिजोरम और नागालैंड जैसे राज्यों में भी चुनाव की रणभेरी सुनाई दे रही है। ये राज्य सीमावर्ती होने से विशेष प्रकार की समस्याओं से जूझ रहे हैं। तेलंगाना, छत्तीसगढ़, राजस्थान और म. प्र में भी 2023 में विधानसभा चुनाव होने हैं। वहां की मौजूदा सरकार और विपक्षी दल सब काम छोड़ चुनाव की तैयारियों में जुट गए हैं । भले ही चुनाव राज्यों की सत्ता के लिए हो रहे हों लेकिन केंद्र सरकार भी उसमें पूरी ताकत से कूदेगी। इसकी वजह 2024 में होने वाला लोकसभा चुनाव है जिसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा की प्रतिष्ठा दांव पर होगी। चूंकि भाजपा राज्यों के चुनाव में भी श्री मोदी को ही चेहरा बनाती है इसलिए वह विधानसभा चुनाव में भी उनको अग्रिम मोर्चे पर रखती है। 2022 में हुए 7 विधानसभा चुनावों में भाजपा ने 5 जीतकर अपना विजय अभियान जारी रखा है । हारे हुए राज्य में पंजाब तो खैर, कांग्रेस के पास था जिसमें आम आदमी पार्टी ने फतह हासिल की किंतु हिमाचल प्रदेश में जरूर उसे झटका लगा क्योंकि ये उसके राष्ट्रीय अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा का गृह राज्य है किंतु गुजरात में धमाकेदार जीत ने प्रधानमंत्री का रुतबा बरकरार रखा। लेकिन दिल्ली नगर निगम के चुनाव में भाजपा की हार उसके लिए विचारणीय है। इसीलिए 2023 में होने वाले 10 विधानसभा चुनावों में भाजपा पूरी ताकत लगायेगी। जाहिर है केंद्र सरकार की भी इन राज्यों में अप्रत्यक्ष रूप से मौजूदगी नजऱ आयेगी। आशय ये है कि इन चुनावों के कारण एक तो केंद्रीय स्तर पर नीतिगत ठहराव बना रहेगा वहीं दूसरी तरफ  राज्यों में काबिज सरकारें खजाना खाली करने में जुटेंगी। राजनीतिक दल भी बिना सोचे समझे अव्यवहारिक वायदों के साथ मतदाताओं को लुभाने की कोशिश करेंगे। ये लघु आम चुनाव आगामी लोकसभा चुनाव का पूर्वाभ्यास होने से केंद्र सरकार नीतिगत निर्णय लेने से बचेगी जिनसे राज्यों के चुनाव में भाजपा को नुकसान न पहुंचे। लेकिन इस सबसे ऊपर विचारणीय मुद्दा ये है कि लोकसभा चुनाव के पूर्व ही देश में इतनी बड़ी चुनावी हलचल से केन्द्र सहित राज्यों का प्रशासनिक कार्य प्रभावित होगा। बजट जैसे महत्वपूर्ण कार्यों पर भी राजनीति हावी रहेगी। हर वर्ष कहीं न कहीं चुनाव होते रहने से अनेक समस्याओं को हल करने का साहस केन्द्र और राज्य सरकारें नहीं कर पा रहीं। सत्ता और विपक्ष कुछ विषयों पर सहमत होने के बाद भी एक साथ नहीं खड़े हो पाता क्योंकि चुनाव आड़े आ जाते हैं। बेहतर हो सर्वोच्च न्यायालय और चुनाव आयोग इस बारे में अपने प्रभाव का उपयोग करते हुए आम चुनाव की पुरानी परंपरा वापस लाने हेतु राजनीतिक दलों को इस हेतु प्रेरित करें। चुनाव लोकतंत्र के लिये प्राणवायु हैं किन्तु देश के हितों का ध्यान में रखकर व्यवस्था में समयानुकूल परिवर्तन भी जरूरी है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Monday 26 December 2022

नेपाल में माओवादी गठबंधन की सरकार भारत के लिए सिरदर्द बनेगी



नेपाल एक स्वतंत्र देश है | इसलिये वहां कौन  प्रधानमंत्री बने ये उसका आंतरिक मामला है | लेकिन  निकटस्थ पड़ोसी होने के साथ ही ये पहाड़ी देश भावनात्मक तौर पर भारत के बेहद करीब  है | हिन्दू बहुल होने से दोनों में  सांस्कृतिक रिश्ते सदियों से कायम  हैं | कुछ दशक पहले तक नेपाल विश्व का एकमात्र हिन्दू देश था किन्तु चीन की कुटिल रणनीति के प्रभावस्वरूप वहां राजतन्त्र समाप्त होकर  लोकतंत्र तो आया लेकिन उस पर चीन की छाया होने से भारत विरोधी भावना बलवती होने लगी | यद्यपि  बीच  – बीच में ऐसी सरकारें भी आईं जिन्होंने अच्छे रिश्ते बनाये परन्तु  घूम फिरकर चीन समर्थक माओवादी ही सत्ता में आते रहे जिससे  भारत के साथ तल्खी बढ़ते – बढ़ते सीमा विवाद तक आ पहुँची | 2021 में जब चीन के साथ भारत गलवान में उलझा हुआ था तभी नेपाल की  के.पी शर्मा ओली की सरकार ने हमारे कुछ हिस्सों पर दावा ठोककर युद्ध के हालात बना दिए | उस समय वहां  पूरी तरह से चीन के निर्देशों पर काम हो  रहा था | यहाँ तक कि प्रधानमंत्री कार्यालय तक में चीन  की राजदूत  दखल देने लेगी थीं | हालाँकि चीनी हस्तक्षेप के विरुद्ध जनता सडकों पर भी उतरी | बाद में वह सरकार चलती बनी और भारत से  रिश्तों में कुछ सुधार हुआ लेकिन 2022 के आखिर में  सम्पन्न चुनाव हमारे लिए चिंता का नया नया कारण हैं  | चुनाव में माओवादी नेता पुष्प कमल दहल प्रचंड और भारत समर्थक शेर बहादुर देउबा के बीच गठबंधन था | लेकिन परिणाम के बाद उनके बीच विवाद होने से प्रचंड ने चीन के पिट्ठू  पूर्व प्रधानमंत्री के.पी शर्मा ओली से हाथ मिलाकर  पहले ढाई साल तक प्रधानमंत्री बनने का समझौता कर लिया | वे पहले भी प्रधानमंत्री रह चुके हैं और चीन समर्थक भी  किन्तु बाद के वर्षों में उनका वामपंथियों से मतभेद हो गया | ये भी कहा जाने लगा कि वे माओवादी विचारधारा से दूर जा चुके हैं | चुनाव में भारत समर्थक देउबा के साथ गठबंधन से इस अवधारणा की पुष्टि भी हुई किन्तु नतीजे आने के  बाद प्रचंड ने चीन समर्थक ओली के साथ ढाई  – ढ़ाई साल तक प्रधानमंत्री बनने का जो समझौता किया वह भारत के लिए शुभ संकेत नहीं है | भले ही प्रचंड का माओवाद पहले जैसा न रहा हो और ओली के साथ जुगलबंदी महज अवसरवाद  हो लेकिन भारत के लिए ये  गठजोड़ करेला और नीम चढ़ा वाली कहावत  जैसा है | दरअसल  प्रचंड प्रधानमंत्री बनने के बावजूद रहेंगे ओली के नियन्त्रण में ही जिससे सरकार पर  चीन का शिकंजा सुनिश्चित है | बीते दो साल में चीन ने भारतीय सीमा पर  सैन्य तनाव उत्पन्न करते रहने की जो नीति अपनाई है वह  किसी दूरगामी योजना का हिस्सा है | नेपाल ने भी उसी के बहकावे में आकर भारत के साथ विवाद को सेना की तैनाती तक बढ़ा दिया था | इसी तरह सीमावर्ती तराई क्षेत्र में बसे भारतीय मूल के मधेसियों के प्रति भेदभाव और दमनकारी रवैये के अलावा  नेपाल में कार्यरत भारतीय व्यापारियों पर हमले की  वारदातों में वृद्धि के पीछे  चीन का हाथ सर्वविदित है | इस सबके बीच उम्मीद की एक किरण ये है कि नेपाल में  जनता के बीच से चीन का विरोध उभर रहा है | एक बड़ा वर्ग जिसमें युवा भी  हैं उसके बढ़ते दखल से चिंतित है | उन्हें  आशंका  है कि देर सवेर उनके देश का हश्र भी तिब्बत जैसा हो सकता है  | सबसे बड़ी बात ये है कि प्रचंड  सहित अनेक माओवादी नेता  राजतन्त्र के विरुद्ध संघर्ष के दौरान निर्वासन के दौरान भारत में रहे थे | हमारे देश के वामपंथी उनकी मिजाजपुर्सी करते रहे  | कुछ साल पहले जब प्रचंड का अन्य माओवादियों के साथ विवाद बढ़ा था तब भारत से सीपीएम नेता सीताराम येचुरी बीच बचाव करने भी गये थे | लेकिन भारत  के मार्क्सवादी नेताओं ने  नेपाल के माओवादी नेताओं को भारत का विरोध करने से रोका हो ऐसा देखने और सुनने में नहीं आया | बहरहाल नेपाल में हुए   ताजा सत्ता परिवर्तन पर भारत को पैनी निगाह रखनी होगी | अरुणाचल में चीन के  साथ हुई हालिया झड़प  के बाद ही काठमांडू में माओवादियों का सत्ता पर कब्ज़ा कर लेना भारत के लिए परेशानी का बड़ा कारण हो सकता  है | चीन जिस तरह की  आंतरिक उथलपुथल से जूझ रहा है उसके चलते वह भारत से  सीधे न टकराते हुए नेपाल के कंधे पर रखकर बन्दूक चला सकता है | इसलिए  अतिरिक्त सतर्कता की जरूरत है | कूटनीतिक सूत्रों के जरिये नेपाल की जनता के मन में भरी गई भारत विरोधी भावनाओं को दूर करना भी जरूरी  है | ऐसा करना बहुत कठिन भी नहीं है क्योंकि वहां ऐसे लोगों की बड़ी संख्या है जो भारत के साथ सांस्कृतिक ,  सामाजिक , आर्थिक और पारिवारिक तौर पर जुड़े हैं | भारत में लाखों नेपाली कार्यरत हैं | भारतीय सेना में नेपाली जवानों की भर्ती होती है | मधेसी लोग तो शादी तक बिहार और पूर्वी उ.प्र में करते हैं | नेपाल के प्रमुख परिवारों के भारत में रोटी - बेटी के रिश्ते हैं | ऐसे में वहां चीन के प्रभाव को  कम किया जा सकता है | लेकिन इसके लिए एक ठोस और दूरगामी नीति बनाकर  नेपाली जनता को ये समझाये जाने की जरूरत है कि चीन की  उस पर  गिद्ध दृष्टि है और उसकी ओर से आने वाले किसी भी संकट के समय भारत ही उसका मददगार साबित होगा | भूटान इसका जीवंत प्रमाण है जो भारतीय सेना की मुस्तैदी के कारण ही अब तक सुरक्षित है वरना उसका अस्तित्व काफी पहले खत्म हो चुका होता | 

: रवीन्द्र वाजपेयी 

Saturday 24 December 2022

मुफ्त अनाज योजना से होने वाले नुकसान का आकलन भी जरूरी



केंद्र सरकार ने राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम के अंतर्गत मुफ्त अनाज योजना 31 दिसम्बर 2023 तक बढ़ा दी है जिससे 81 करोड़ से भी अधिक लोग लाभान्वित होंगे | राशन दुकान से सस्ती दर पर मिलने वाले अनाज की व्यवस्था समाप्त कर दी गई है और अब पूरा अनाज निःशुल्क प्राप्त होगा | हमारा देश दुनिया में खाद्यान्न पैदा करने वाले प्रमुख देशों में है | वह दौर चला गया जब हमें अनाज आयात करना पड़ता था | उसके ठीक उलट अब भारत खाद्यान्न के निर्यात की स्थिति में आ गया है | कोरोना और उसके बाद यूकेन संकट के दौरान खाद्यान्न उत्पादक क्षमता हमारे बचाव का बड़ा कारण बनी | लेकिन  ये दुर्भाग्यपूर्ण है कि 140 करोड़ में से 80 मुफ्त अनाज योजना से होने वाले नुकसान का आकलन भी जरूरी

केंद्र सरकार ने राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम के अंतर्गत मुफ्त अनाज योजना 31 दिसम्बर 2023 तक बढ़ा दी है जिससे 81 करोड़ से भी अधिक लोग लाभान्वित होंगे | राशन दुकान से सस्ती दर पर मिलने वाले अनाज की व्यवस्था समाप्त कर दी गई है और अब पूरा अनाज निःशुल्क प्राप्त होगा | | हमारा देश दुनिया में खाद्यान्न पैदा करने वाले प्रमुख देशों में है | वह दौर चला गया जब हमें अनाज आयात करना पड़ता था | उसके ठीक उलट अब भारत खाद्यान्न के निर्यात की स्थिति में आ गया है।  कोरोना और उसके बाद यूकेन संकट के दौरान खाद्यान्न उत्पादक क्षमता हमारे बचाव का बड़ा कारण बनी | लेकिन  ये दुर्भाग्यपूर्ण है कि140 करोड़ में से 80करोड़ लोगों के सामने पेट भरने का संकट है | इसी के मद्देनजर खाद्य सुरक्षा के अंतर्गत  व्यवस्था की गयी कि कोई भूखा न सोये | कहना गलत नहीं होगा कि कोरोना के कारण जब लॉक डाउन लगा और सारे काम धंधे बंद होने से मजदूरों की रोजी – रोटी पर संकट आ गया तब इस  योजना ने देश को अराजकता से  बचा लिया | मोदी सरकार के इस कार्यक्रम को पूरी दुनिया में सराहना मिली | ये बात भी सही है कि कोरोना काल के दौरान  अर्थव्यवस्था को लगे झटके की वजह से कम पूंजी से स्वरोजगार करने वाले तबके की आय पर भी बुरा असर पड़ा और इसीलिये मुफ्त खाद्यान्न योजना ऐसे लोगों के लिए संजीवनी साबित हुई | जहां तक बात  राजनीतिक लाभ की है तो यदि भाजपा उसे भुनाने में सफल हो सकी तो उसका कारण सार्वजनिक वितरण प्रणाली में होने वाले भ्रष्टाचार को काफी हद तक रोकना है | जिस तरह जन धन योजना के बैंक खातों की वजह से सब्सिडी प्राप्त करने वालों को बिचौलियों से मुक्त रखने में सफलता मिली ठीक वैसे ही मुफ्त खाद्यान्न योजना को आधार से जोड़ने का लाभ हुआ | हाल ही में लाखों फर्जी राशन कार्ड निरस्त भी किये गए | इस बारे में ये ध्यान देने योग्य है कि वर्ष 2023 में  अनेक प्रान्तों में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं | वहीं 2024 में लोकसभा का महासमर होगा | ऐसे में  केंद्र सरकार इस योजना को बंद करने का जोखिम नहीं उठा सकती थी | ये अनुमान भी लगाया जा सकता है कि लोकसभा चुनाव तक तो कम से कम इसे जारी रखा ही जाएगा | लेकिन आगे भी किसी  सरकार के लिए इसे बंद करना राजनीतिक आत्महत्या करने जैसा होगा क्योंकि हमारे देश में चुनाव का माहौल कभी खत्म ही नहीं होता | इसलिए आरक्षण की तरह अब मुफ्त खाद्यान्न योजना भी एक स्थायी व्यवस्था बनने जा रही  है | सरकार के प्राथमिक दायित्वों में है कि कोई भी व्यक्ति भूखा न रहे | उस दृष्टि से इसके औचित्य से किसी को ऐतराज नहीं होगा |लेकिन दूसरी तरफ देखने वाली बात ये भी है कि घर बैठे खाने को मिल जाने की सुविधा से समाज में कामचोरी में वृद्धि हो रही है | इसका सबसे ज्यादा असर ग्रामीण इलाकों में देखने मिल रहा है | कृषि प्रधान देश होने से भारतीय अर्थव्यवस्था में खेती का बहुत बड़ा योगदान है | कोरोना के दौरान जब पूरे औद्योगिक जगत में लॉक डाउन के कारण मुर्दानगी थी तब भी कृषि क्षेत्र ने शानदार प्रदर्शन से देश का आत्मविश्वास बढ़ाया | रोजगार के मामले में भी खेती की महत्वपूर्ण भूमिका  है | लेकिन बीते कुछ सालों से स्थिति में बड़ा बदलाव आया है | बड़ी संख्या में श्रमिकों , विशेष रूप से युवाओं के शहरों की ओर रुख करने से खेती करने वालों के सामने समस्या उत्पन्न हो रही है | इसके लिए मुफ्त खाद्यान्न योजना को भी जिम्मेदार माना जाने लगा है | जिस तरह से मनरेगा के कारण ग्रामीण क्षेत्रों में शराबखोरी बढ़ी  उसी तरह मुफ्त खाद्य योजना की वजह से निठल्लेपन की प्रवृत्ति में वृद्धि देखने मिली है | अनेक किसान श्रमिकों की किल्लत के कारण खेती से विमुख होने लगे हैं | ऐसे में  सरकार को व्यवहारिक पहलू की चिंता भी करनी चाहिए | हर हाथ को काम देने की प्रतिबद्धता सभी सरकारें दोहराती आई हैं | लेकिन काम से दूर भागने वाले युवाओं को  काम में लगाना भी सरकार की कार्ययोजना का हिस्सा बनना चहिये | अर्थशास्त्र और समाज शास्त्र के विशेषज्ञ भी इस बात से सहमत हैं कि सरकारी नौकरी को रोजगार का पर्याय मानने की अवधारणा बदलनी होगी  क्योंकि सरकारी क्षेत्र अब प्रमुख रोजगार प्रदाता नहीं रहा | निजी क्षेत्र के साथ ही स्वरोजगार के जरिये रोजगार का सृजन बड़े विकल्प के रूप में सामने आया है |  खेती आज भी बेरोजगारी की समस्या को काफी हद तक दूर करने में सक्षम है लेकिन उसके लिए ग्रामीण क्षेत्रों में कार्य संस्कृति पैदा करना जरूरी है | सरकार को चाहिए वह इस दिशा में गंभीरता के साथ विचार करे | भूखे लोगों के उदर पोषण  की व्यवस्था किसी भी लोक  कल्याणकारी राज्य में सरकार की जिम्मेदारी है परन्तु उसे ये भी देखना चाहिए कि उसकी सदाशयता समाज में , अजगर करे न चाकरी पंछी करें न काम , दास मलूका कह गए सबके दाता राम , वाली मानसिकता का कारण न बन जाए | प्रधानमंत्री  नरेंद्र मोदी विदेशों में निवेशकों को आमंत्रित करते हुए भारत की युवा शक्ति का हवाला जरूर देते हैं | लेकिन बेरोजगारी के सर्वकालीन सर्वोच्च  आंकड़ों के बावजूद यदि कृषि , निर्माण और उद्योगों को  कामगारों की कमी से जूझना पड़ रहा है तब मुफ्त खाद्यान्न योजना जैसे कार्यक्रमों की उपादेयता पर सवाल उठना स्वाभाविक है | राजनीति और अर्थशास्त्र में विरोधाभास के परिणाम हानिकारक होते हैं | 

रवीन्द्र वाजपेयी 


Friday 23 December 2022

म.प्र में बूढ़े नेताओं के भरोसे कांग्रेस की नैया पार होना मुश्किल



म.प्र विधानसभा में कांग्रेस का  अविश्वास प्रस्ताव  गिरने पर आश्चर्य नहीं हुआ क्योंकि शिवराज सिंह चौहान की सरकार के पास सुविधाजनक बहुमत है  | यद्यपि कांग्रेस के अनेक नेता ये कहते रहते हैं कि कुछ  भाजपा विधायक उनके संपर्क में हैं | जवाब में भाजपा ने  कांग्रेस को याद दिलाया कि कुछ साल पहले अविश्वास प्रस्ताव के दौरान ही उसके उपनेता ने पार्टी छोड़ दी थी  | और  2020 में हुआ दलबदल वह चाहकर भी नहीं भूल पाती जिसकी वजह से उसकी सरकार चली गई | यद्यपि म.प्र में ही राजनीति करने का फैसला करते हुए कमलनाथ ने नेता प्रतिपक्ष का पद तो  छोड़ दिया लेकिन प्रदेश कांग्रेस  अध्यक्ष  बने रहकर ये प्रयास कर रहे हैं कि आगामी  चुनाव में वे ही पार्टी के चेहरे बनें | उल्लेखनीय है 2018 में वे प्रदेश अध्यक्ष तो थे लेकिन शिवराज सिंह के मुकाबले कांग्रेस ने ज्योतिरादित्य सिंधिया को चुनाव संचालक बनाकर उतारा जिससे जनता को   लगा कि पार्टी   सत्ता में आई तो वे  ही मुख्यमंत्री बनेंगे और इसीलिए भाजपा का पूरा प्रचार माफ़ करो महाराज , हमारा नेता शिवराज के नारे पर केंद्रित रहा | दिग्विजय सिंह के कुशासन से त्रस्त जनता उनकी वापसी नहीं चाहती थी और कमलनाथ  दशकों से छिंदवाड़ा के सांसद रहने के बाद भी बाहरी की छवि से नहीं उबर पाए | ऐसे में श्री सिंधिया अच्छा विकल्प थे और इसीलिये जनता ने कांग्रेस को बहुमत के कगार पर लाकर खड़ा कर दिया | राहुल गांधी और ज्योदिरादित्य की निकटता से उम्मीद और बढ़ी  परन्तु दिग्विजय सिंह और कमलनाथ ने  भांजी मार दी | श्री नाथ की ताजपोशी तो हो गयी किन्तु उन्होंने पार्टी अध्यक्ष का पद भी अपने पास रखा | यदि वह पद श्री सिंधिया को मिल जाता तो वे संतुष्ट हो भी जाते | लेकिन दिग्विजय सिंह और कमलनाथ ने उन्हें दूर रखने की पक्की व्यूह रचना तैयार कर डाली | दिग्विजय तो समानांतर मुख्यमंत्री के तौर पर  सक्रिय हो उठे | 70 वर्ष से ज्यादा हो चुके इन नेताओं की  मिलीभगत के कारण युवा नेताओं की की बेचैनी बढ़ने लगी | 2019 में गुना लोकसभा सीट से हार जाने के बाद श्री सिंधिया को अपना राजनीतिक भविष्य खतरे में नजर आने लगा | और फिर उन्होंने वही कदम उठाया जो उनकी दादी विजयाराजे सिंधिया ने 1968 में उठाकर पं. द्वारिका प्रसाद मिश्रा की सरकार गिरवा दी थी | दो दर्जन विधायकों की बगावत से कमलनाथ सरकार का पतन होने से  शिवराज की सत्ता  वापस लौट आई | भाजपा ने भी ज्यादातर बागियों  को मंत्री पद से उपकृत करने के बाद   उपचुनाव रूपी मुकाबला जीतकर  सरकार का बहुमत पक्का कर लिया | हालाँकि एक दो झटके भाजपा को भी लगे लेकिन मजबूत संगठन के बलबूते वह कांग्रेस पर भारी पड़ती रही | इस बीच कांग्रेस में युवा नेताओं की ओर से कमलनाथ पर  एक पद छोड़ने का दबाव पड़ा जिस पर उन्होंने नेता प्रतिपक्ष की कुर्सी त्याग दी किन्तु बजाय किसी युवा के वरिष्ट विधायक गोविन्द सिंह को बिठा दिया | इस प्रकार प्रदेश में कांग्रेस के तीनों बड़े चेहरे 70 वर्ष से ज्यादा आयु वर्ग के हो गये |  युवा नेताओं को ये तिकड़ी रास नहीं आने से भीतर – भीतर असंतोष बढ़ रहा है |  नगर निगम चुनाव में कांग्रेस के कुछ महापौर जीत तो गये किन्तु उसकी वजह  भाजपा की अंतर्कलह रही वरना पार्षदों का बहुमत भाजपा के पास न जाता | अविश्वास प्रस्ताव पर बहस के बीच कमलनाथ का भोपाल से बाहर चला जाना भी चर्चा का विषय रहा | म.प्र विधानसभा में अविश्वास प्रस्ताव पहली भी  गिरते रहे हैं परन्तु उस बहाने विपक्ष अपनी जुझारू छवि बनाने में सफल रहा  | लेकिन कमलनाथ की अगुआई में कांग्रेस  शिवराज सरकार को घेरने में पूरी तरह विफल रही | मुख्यमंत्री श्री चौहान ने जिस आत्मविश्वास के साथ विपक्ष के आरोपों का जवाब दिया उसके बाद कांग्रेस के पास कहने को कुछ बचा ही नहीं था | सही बात ये है कि म.प्र में कांग्रेस बूढ़े नेताओं के भरोसे भाजपा को परास्त करने का  सपना देख रही है  | उसे ध्यान रखना होगा कि 1998 में जब दिग्विजय सिंह का उदय हुआ तब     भाजपा वयोवृद्ध सुन्दरलाल पटवा और कैलाश जोशी के अधीन थी | इसलिये युवा चेहरे के रूप में दिग्विजय सिंह जनता की पसंद बन गये | 10 साल बाद भाजपा ने युवा उमाश्री भारती को उतारकर उनका तिलिस्म तोड़ दिया | हालाँकि नाटकीय घटनाक्रम के बाद वयोवृद्ध बाबूलाल गौर सत्ता में आये किन्तु जल्द ही उस निर्णय को बदलकर भाजपा ने शिवराज सिंह के रूप में युवा पीढ़ी को आगे किया जिसका सुपरिणाम उसे मिला | 2018 में श्री सिंधिया के रूप में कांग्रेस ने सशक्त चुनौती पेश की थी किन्तु कमलनाथ की ताजपोशी ने युवा वर्ग को निराश कर दिया | दूसरी तरफ भाजपा ने विष्णुदत्त शर्मा को संगठन की बागडोर सौंपकर युवा नेतृत्व को  आगे बढ़ाया | इसके बाद भी  कांग्रेस युवाओं  की बजाय कमलनाथ , दिग्विजय सिंह और गोविन्द सिंह के दम पर वैतरणी पार करने की सोच रही है | हालाँकि व्यवस्था विरोधी रुझान से भाजपा को भी जूझना पड़ सकता है किन्तु गुजरात के परिणाम ने उसका हौसला बुलंद कर दिया है |  म.प्र में संगठन मजबूत होने के साथ  ज्योतिरादित्य के  आने से  भी उसकी ताकत पूर्वापेक्षा बढ़ी है | बड़ी बात नहीं चुनाव आते – आते कुछ और कांग्रेसजन पार्टी छोड़ दें क्योंकि  कमलनाथ के प्रति पार्टी की युवा लाबी में बढ़ रहा असंतोष नए विस्फोट का कारण बन सकता है | और कहीं  आम आदमी पार्टी ने गुजरात की तर्ज पर म.प्र में भी हाथ  आजमाया तब कांग्रेस की मुश्किलें और बढ़ सकती हैं | 

रवीन्द्र वाजपेयी 


Thursday 22 December 2022

कोरोना के खतरे के बीच सांसदों को जश्न की चिंता



संसद का शीतकालीन सत्र  29 दिसम्बर तक चलना तय हुआ था | लेकिन अब ये खबर आ रही है कि 23 तारीख को ही सत्रावसान कर दिया जावेगा | ऐसा न तो विपक्ष के हंगामे की वजह से  किया जाएगा और न ही सरकार के सामने किसी भी प्रकार का संकट ही है | बल्कि सदन में एक दूसरे पर क्रोधित होने  वाले माननीय सांसदों ने एक स्वर से मांग की है कि क्रिसमस और नए साल के मद्देनजर संसद का सत्र इसी सप्ताह खत्म कर दिया जावे | लोकसभाध्यक्ष ओम बिरला की अध्यक्षता में संपन्न कार्य मंत्रणा समिति की  बैठक में सभी दलों के सांसदों ने हफ्ते भर पहले ही शीतकालीन सत्र  की समाप्ति पर सहमति प्रदान कर दी | इस समिति में सभी दलों का प्रतिनिधित्व रहता है | लेकिन अभी  तक ऐसी कोई भी जानकारी नहीं मिली कि किसी भी दल के सदस्य ने  समय से पूर्व सत्रावसान का विरोध किया हो | यदि कोई गंभीर कारण होता तब तो इस  निर्णय का औचित्य  था लेकिन महज इसलिए कि सांसद गण क्रिसमस  और नए साल का जश्न मनांना चाहते हैं  संसद का सत्र जल्दी खत्म कर  दिया जावे , सांसदों द्वारा अपने दायित्व के प्रति लापरवाही बरतना है | जन सेवा की कसमें खाने वाले सम्माननीय  जनप्रतिनिधि ये क्यों भूल रहे हैं कि वे विद्यालय में पढ़ने वाले बच्चे नहीं हैं | उनके कन्धों पर 140 करोड़ लोगों के कुशल क्षेम की जिम्मेदारी है | कोरोना के कारण देश के सामने जो समस्याएं आईं उनमें से अनेक का समाधान अभी तक नहीं हो पाया है | अर्थव्यवस्था भले ही पटरी पर लौट  रही है लेकिन बीते दो वर्ष में हुए नुकसान की भरपाई होना शेष है | वर्ष 2023 – 24 का बजट भी सामने है  दूसरी तरफ कोरोना के पुनरागमन की आशंका से पूरा देश चिंता में डूब गया है | आम जनता के साथ ही उद्योग – व्यापार जगत भी आशंकित हो उठा  है | केंद्र सरकार द्वारा राज्यों को सतर्कता बरतने संबंधी दिशा निर्देश भी जारी कर दिए गए हैं | प्रधानमंत्री आज उच्चस्तरीय बैठक ले रहे हैं | इसके अलावा भी अनेक ऐसे विषय हैं जिन पर संसद में विचार – विमर्श होना चाहिए | वैसे भी  सदन का बहुत सा वक्त होहल्ले में व्यर्थ जा चुका है  | यदि सत्र के पूरे समय का सदुपयोग होता तब कम अवधि में भी विषयसूची के सारे काम संपन्न हो जाते  किन्तु अपने देश में कार्य संस्कृति का अभाव सरकारी कार्यालय से संसद तक एक जैसा है | वैसे भी पांच दिन के सप्ताह में संसद में सरकारी  कामकाज और महत्वपूर्ण चर्चा केवल चार दिन हो पाती है क्योंकि शुक्रवार का दिन सांसदों के निजी प्रस्तावों के लिए आरक्षित होता है | इसीलिये अधिकतर सदस्य शुक्रवार को हाजिरी लगाकर अपने निर्वाचन क्षेत्र या अन्यत्र चले जाते हैं | सबसे दुखद पहलू ये है कि लोकतंत्र का मंदिर कहलाने वाली इस संस्था में आस्था रखने वाली जनता जिन पुजारियों को चुनकर भेजती है वे इसकी गरिमा और पवित्रता को बनाये रखने के प्रति बेहद लापरवाह हैं | यही वजह है कि करोड़ों रूपये खर्च होने के बाद भी सदन के समय का समुचित उपयोग नहीं हो पाता | जहाँ तक बात क्रिसमस की है तो सरकारी कार्यालयों में भी इस त्यौहार पर महज एक दिन का अवकाश रहता है | ईसाई धर्मावलम्बी शासकीय कर्मी  एक दो दिन का अतिरिक्त अवकाश ले लेते हैं | शिक्षण संस्थानों में अवश्य ज्यादा अवकाश रहता है और न्यायालय भी लगभग दो सप्ताह बंद रहते हैं | लेकिन संसद की तुलना इन सबसे करना बेमानी है | वर्तमान सत्र को तय अवधि के पूर्व समाप्त करने का अनुरोध सत्तारूढ़ और विपक्षी  दोनों खेमों के सांसदों ने अध्यक्ष से किया | इससे ये स्पष्ट है सदन में एक दूसरे को देखकर बाहें चढ़ाने वाले सांसद सत्र को जल्दी खत्म करने के मामले में एकजुट हैं | इस बारे में गौरतलब  है कि सत्र की अवधि कार्य मंत्रणा समिति से सलाह लेकर तय की जाती है | उसी हिसाब से सरकार और विपक्ष सदन के विचारार्थ रखे जाने वाले विषय कार्यसूची में शामिल करते  हैं | सदन  के व्यवस्थित रूप से संचालन के लिए सत्र से पूर्व अध्यक्ष सर्वदलीय बैठक भी बुलाते हैं जिसमें सभी दल अपनी - अपनी बात रखते हैं | इसके अतिरिक्त सत्र के दौरान संसदीय कार्य मंत्री भी विभिन्न दलों के साथ सम्पर्क और समन्वय बनाए रखते हैं | ऐसे में  ये विचार उठना स्वाभाविक है कि सांसदों को अचानक क्रिसमस और नए साल के जश्न की याद कहाँ से आ गयी ? मजदूरों , किसानों और जवानों से  देश के विकास और सुरक्षा के लिये हमेशा मुस्तैद रहने की उम्मीद करने वाले देश के भाग्य विधाताओं द्वारा क्रिसमस और नए साल के जश्न हेतु संसद का सत्र जल्दी खत्म करने की मांग से उनके दयित्वबोध पर सवाल उठना स्वाभाविक है | शायद इन्हीं सब कारणों से माननीय कहे जाने वाले जनप्रतिनिधियों के प्रति जनता के मन में पहले जैसा सम्मान नजर नहीं आता |   


रवीन्द्र वाजपेयी 
 

 

Wednesday 21 December 2022

चीन में कोरोना का तांडव भारत के लिए भी चिंता का विषय



चीन से आ रही खबरें खतरे का संकेत हैं | कोरोना वहां जबरदस्त कहर ढा रहा है | ताजा जानकारी के अनुसार आधी से ज्यादा आबादी इसकी चपेट में हैं | जिनपिंग सरकार अपने देश में जीरो कोविड की नीति लागू कर महामारी के फैलाव को छिपाना चाहती थी | उसके तहत करोड़ों लोगों को घर , दफ्तर या कारखाने में ही अवरुद्ध कर दिया गया | लेकिन उसके विरुद्ध जब जनता सड़कों पर उतरने लगी तो राष्ट्रपति जिनपिंग को झुकना पड़ गया | परिणामस्वरूप प्रतिबंधों में ढील दी जाने लगी | लोगों का मेल - मिलाप भी शुरू हो गया और  बाजारों में चहल पहल लौटने  लगी | लेकिन एक महीने से भी कम समय में कोरोना का प्रकोप तेजी से फैला और अब ऐसा अलग रहा है कि चीन का समूचा शासन तंत्र असहाय होने लगा है | हालाँकि टीकाकरण के मामले में जिनपिंग सरकार ने विश्व स्वास्थ्य संगठन को जो आंकड़े दिए उनके मुताबिक चीन में अब तक कोरोना संबंधी वैसी  ही प्रतिरोधक क्षमता ( हर्ड इम्युनिटी ) विकसित  हो जानी चाहिए थी जिसका अनुभव भारत में किया गया | सही बात ये है कि कोरोना का जो टीका चीन द्वारा विकसित किया गया वह घटिया किस्म का होने से कारगर साबित नहीं हुआ | उससे भी बड़ी बात ये रही कि जिनपिंग विश्व बिरादरी में अपनी छवि ख़राब होने के भय से महामारी  संबंधी जानकारियाँ शुरु से ही छिपाते आये | दुनिया के अनेक विकसित देशों ने अपनी कोरोना वैक्सीन का उत्पादन भारत में करवाया , क्योंकि वह  पहले से ही इस क्षेत्र  में अग्रणी था | यही नहीं तो हमारे वैज्ञानिकों द्वारा तैयार वैक्सीन खरीदने में भी झिझक नहीं दिखाई परन्तु चीन इस मामले में अलग – थलग बना रहा | कोरोना पीड़ितों की संख्या  छिपाने के साथ ही उसने विश्व स्वास्थ्य संगठन को अपनी उन प्रयोगशालाओं का ठीक से निरीक्षण नहीं करने दिया जिनके बारे में ये संदेह था कि उनमें कोरोना का वायरस तैयार कर दुनिया भर में फैलाया गया | संक्रमित लोगों की सही संख्या पर पर्दा डालकर रखने के कारण जिनपिंग सरकार भारत या अन्य किसी देश से वैक्सीन खरीदने का साहस नहीं दिखा सकी | ये भी पता चला है कि चीन में वैक्सीन लगाये जाने की व्यवस्था आज तक कायम नहीं हो पाई | वरना ढाई साल बाद भी स्थिति इस हद तक न बिगड़ती | बहरहाल अब जो हालत सामने आ रही है वह इसलिए और चिंताजनक है क्योंकि चीन ने अपने यहाँ आवाजाही पर किसी भी प्रकार की रोक लगाने की बजाय अंतर्राष्ट्रीय उड़ानों की संख्या में वृद्धि कर दी है | ऐसा किये जाने से ये संदेह पुख्ता हो रहा है कि वह  जान बूझकर ऐसा कर रहा है | 2020 में जब कोरोना की पहली लहर आई थी तब भी सुनने में आया था कि चीन ने जान बूझकर कोरोना संक्रमित कुछ  लोगों को इटली के उन पर्यटन  स्थलों पर भेजा जहाँ यूरोप के सैलानी बड़ी संख्या में आते हैं | उसके बाद इटली में कोरोना के कारण बड़े पैमाने पर मौतें हुईं | यहाँ तक कि ताबूत कम पड़ गए | उल्लेखनीय है इटली की चिकित्सा सेवा विश्व भर में श्रेष्ठ मानी जाती है | चीन के वुहान शहर से निकला कोरोना पूरी दुनिया में फैला तब शायद जिनपिंग और उनके सलाहकार ये सोचकर खुश थे कि  मानवता को खतरे में डालकर उनका देश विश्व का सरताज बन जाएगा | लेकिन दूसरों के लिए खोदे गए गड्ढों में जब खुद गिरने लगा तब उसे होश आया लेकिन  बहुत देर हो चुकी थी | चीन की गिनती विश्व के विकसित देशों में होती है | आर्थिक , सामरिक और वैज्ञानिक दृष्टि से वह अमेरिका को टक्कर देने की स्थिति में आ गया था | लेकिन बीते  दो ढाई साल में उसकी प्रगति का चक्र उल्टा घूमने लगा जिसका बड़ा कारण कोरोना की रोकथाम करने में उसकी विफलता ही है | कहते हैं जिन प्रयोगशालाओं में कोरोना का वायरस तैयार करवाया गया वहां आज भी उसके अंश विद्यमान हैं जिन्हें चीन के वैज्ञानिक लाख कोशिशों के बावजूद भी नष्ट नहीं कर पा रहे | और उन्हीं की वजह से कोरोना वहां स्थायी तौर पर जम गया है | मौजूदा हालात में तो कोरोना चीन के लिए जानलेवा बन रहा  है | ये आशंका भी है कि  तत्काल बचाव के अचूक उपाय न किये गए तो आने वाले कुछ महीनों में देश में लाशों के अम्बार लग सकते हैं | हालाँकि जिनपिंग सरकार की कोशिश है कि कोरोना के बढ़ते प्रकोप की जानकारी वैश्विक स्तर पर न फैले लेकिन विभिन्न सूत्रों से आ रही खबरें हालत बिगड़ने की पुष्टि कर रही हैं | भारत के लिए भी ये चिंता का कारण है क्योंकि व्यापार के कारण दोनों देशों के भीतर आवाजाही होती है | यदि एक भी संक्रमित देश में आ गया तब कोरोना की नई लहर को रोकना मुश्किल होगा | बेहतर रहेगा यदि केंद्र सरकार राज्यों  को विश्वास में लेकर अभी से एहतियाती इंतजाम करे क्योंकि टीकाकरण हो जाने के बाद लोगों में कोरोना से बचाव करने के बारे में लापरवाही देखी जाने लगी  हैं | मास्क और शारीरिक दूरी का पालन पूरी तरह लुप्त हो चुका है | ये देखते हुए सतर्कता बरतने के लिए लोगों को प्रेरित करने का अभियान शुरू हो जाना चाहिए | टीकाकरण की सफलता निश्चित रूप से उत्साहवर्धक है लेकिन पड़ोस में फूटे ज्वालामुखी का लावा हमें भी झुलसा सकता है | पिछली गलतियाँ दोहराने से बचते हुए समय रहते तैयारी जरूरी  है | वैसे भी कोरोना दुनिया के अनेक हिस्सों में बना हुआ है | विदेशी सैलानियों के जरिये इसकी वापसी हो सकती है | इसलिए चीन के समस्याग्रस्त होने पर खुश होने से ज्यादा जरूरी समय रहते अपना बचाव कर लेना है |

रवीन्द्र वाजपेयी 

Tuesday 20 December 2022

भृत्य के लिए न्यूनतम शिक्षा जरूरी है तो जनप्रतिनिधियों के लिए क्यों नहीं



म.प्र विधानसभा के प्रमुख सचिव अवधेश प्रताप सिंह द्वारा लिखी गयी पुस्तक विधानमंडल पद्धति एवं प्रक्रिया के विमोचन के अवसर पर विधानसभा अध्यक्ष गिरीश गौतम ने कहा कि यह पुस्तक वर्तमान विधायकों के साथ ही भविष्य में चुनकर आने वाले सदस्यों को संसदीय प्रक्रिया की जानकारी उपलब्ध कराने के लिए बेहद उपयोगी साबित होगी | लेकिन इसके बाद अध्यक्ष महोदय ने कहा कि ये देखने में अक्सर आता है कि आजकल सदस्यों ने पढ़ना बंद कर दिया जबकि पहले के विधायक गण सदन में अध्ययन करके आते थे और फिर अपनी बात रखते थे परन्तु अब इसका अभाव महसूस होता है | चूंकि उक्त पुस्तक विधानसभा के प्रमुख सचिव द्वरा रचित है इसलिए उसकी प्रामाणिकता और तथ्यात्मकता पर विश्वास किया जा सकता है | हालाँकि म.प्र की विधानसभा देश के अनेक राज्यों की अपेक्षा शालीन और शांत मानी जाती है किन्तु समय के साथ या यूं कहें कि राजनीतिक वातावरण में आ रहे वैचारिक प्रदूषण के कारण सदन के भीतर का  माहौल अब पुराने ज़माने के सर्वथा विपरीत है | भले ही सत्ता और विपक्ष के बीच हाथापाई , माइक तोड़ने या आसंदी पर जाकर अभद्रता के नज़ारे न दिखाई देते हों लेकिन ये सच है कि अब सत्ता और विपक्ष के बीच सार्थक  बहस और सदस्यों द्वारा विद्वतापूर्ण भाषणों का दौर समाप्त हो चला है | इसका सबसे बड़ा कारण वही है जो श्री गौतम ने बताया कि विधायकों ने पढ़ना बंद कर दिया है | हालाँकि कुछ सदस्य ऐसे हैं जिनका बौद्धिक स्तर और संसदीय ज्ञान निश्चित रूप से काफ़ी अच्छा है और वे पूरी तैयारी के साथ सदन में आते हैं | लेकिन विधानसभा की बैठकों का ज्यादातर समय हंगामे में व्यतीत होने से ऐसे सदस्यों की प्रतिभा का समुचित प्रदर्शन नहीं हो पाता | सदन में बोलने के प्रति विधायकों की अरुचि का इससे बड़ा प्रमाण क्या होगा कि बीते  अनेक सालों से ये देखने में आ रहा है कि विधानसभा के  सत्र का समय से पहले ही अवसान हो  जाता है क्योंकि जो भी विधायी कार्य उस दौरान तय किये जाते हैं वे फटाफट पूरे हो जाते हैं | या तो होहल्ले के बीच उन्हें पारित कर दिया जाता है या फिर विपक्ष के बहिर्गमन के कारण सत्ता पक्ष को मैदान खाली  मिल जाता है | सही बात ये है कि सदन की कार्यवाही को स्तरीय और आकर्षक बनाने का काम सत्ता और विपक्ष के कुछ ऐसे सदस्यों का होता है जो संसदीय प्रक्रिया के साथ सदन के समक्ष विचाराधीन विषय पर समुचित अध्ययन करने के बाद पूरी तैयारी के साथ आते हैं | लेकिन सदन के भीतर होने वाले शोर शराबे के कारण उन्हें अवसर नहीं मिलता | ये कहना भी गलत नहीं होगा कि अयोग्य या अपेक्षाकृत कम योग्य सदस्य हीन भावना  के वशीभूत सदन के व्यवस्थित सञ्चालन में बाधक बन जाते हैं | इस बारे में श्री गौतम ने समाचार माध्यमों पर भी कटाक्ष किया कि वे होहल्ला करने वाले सदस्यों को  ज्यादा  स्थान देते हैं और अध्ययन करके आने वालों को कम | अब चूंकि विधानसभा अध्यक्ष ने ही कह दिया कि पहले के विधायक पढ़कर आने के बाद आते थे और  अब सदस्यों ने पढ़ना बंद कर दिया है इसलिए जनमानस में विधायकों की छवि लगातार खराब हो रही है तो उसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं होनी चाहिए | ये एक तरह से किसी अभिभावक द्वारा सार्वजानिक तौर पर ये स्वीकार करने जैसा है कि उसके बच्चे ठीक से पढ़ाई नहीं करते | हालाँकि श्री गौतम की टिप्पणी को केवल म.प्र के संदर्भ में देखना उसके दायरे को सीमित करना होगा क्योंकि जनप्रतिनिधियों में  विधायी कार्यों के प्रति लापरवाही पूरे देश में देखी जा सकती है | संसद भी अब इससे अछूती नहीं रही | इसलिये इस बात को राष्ट्रीय स्तर पर प्रचारित किया जाना चाहिए | 21 वीं सदी की जरूरतों के मद्देनजर  लोकतंत्र का मंदिर कहे जाने वाले विधानमंडल और संसद के सदनों में सार्थक बहस और विमर्श तब तक नहीं हो सकता जब तक चुने हुए जनप्रतिनिधियों की न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता तय नहीं की जाती | जिस पुस्तक का श्री गौतम ने विमोचन किया उसे कितने विधायक पढ़कर समझ सकेंगे ये बड़ा सवाल है | सांसदों और विधायकों को विभिन्न मंत्रालयों से सम्बंधित जो रिपोर्टें मिलती हैं वे अधिकतर के निवास पर धूल खाया करती हैं | सदस्यों को तो छोड़ दें कितने मंत्री श्री गौतम की अपेक्षानुसार अध्ययन करते होंगे ये किसी से छिपा नहीं है | जब तक जनप्रतिनिधि शिक्षित नहीं होंगे उनसे पढने की अपेक्षा करना व्यर्थ है | सदन में बहस का स्तर  गिरते जाने के लिए किसे दोषी ठहराया जावे ये विवाद का विषय हो सकता है लेकिन जब संसद और विधानसभा में कार्यरत भृत्य तक के लिए न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता का पैमाना है तब सांसद और विधायक के लिए वह योग्यता जरूरी क्यों नहीं है इसका जवाब भी मिलना चाहिए | संसद और विधानसभा की कैंटीन में सदस्यों की कितनी मौजूदगी रहती है और पुस्तकालय में कितनी , इसका अवलोकन करने से ही श्री गौतम की पीड़ा का कारण समझ में आ जाता है | पढ़ोगे तभी तो आगे बढ़ोगे वाले नारे को बनाने वाले जनप्रतिनिधि उसे खुद पर लागू क्यों नहीं करते , ये बहुत बड़ा सवाल है |

रवीन्द्र वाजपेयी 


Monday 19 December 2022

सरकार को घेरो पर सेना की वीरता पर सवाल उठाना गलत



अरुणाचल में बीते दिनों भारत और चीन  के सैनिकों में  झड़प को लेकर संसद में रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह बयान दे चुके हैं | लेकिन विपक्ष इस पर चर्चा चाहता है जबकि  सरकार का कहना है इसकी  जरूरत नहीं है | इससे बीते सप्ताह जो टकराव पैदा हुआ वह आगे भी जारी रहेगा | कांग्रेस को लगता है वह इस मुद्दे पर सरकार को घेरने में कामयाब  हो जायेगी जबकि सत्ता पक्ष का मानना है कि ऐसे मामलों में राजनीतिक बहस से सेना का  मनोबल गिरता है | जब कांग्रेस  की ओर से सरकार पर  आरोप लगा कि वह चीन से डरती है तब गृह मंत्री ने राजीव गांधी के नाम पर बने ट्रस्ट को  चीन से मिले चंदे  का सवाल उठाकर पलटवार किया | चीन द्वारा की जाने वाली आक्रामक गतिविधियों पर कांग्रेस नेता राहुल गांधी लम्बे समय से प्रधानमंत्री पर तीखे हमले करते आ रहे हैं | डोकलाम , गलवान और अब अरुणाचल में  हुई झड़प को लेकर उनकी प्रतिक्रिया का सार यही  है कि चीन हमारी  जमीन दबाता जा रहा है और मोदी सरकार उसको रोकने में विफल है | लेकिन वे इस बात का कोई जवाब नहीं देते कि 1962 में  चीन द्वारा दबाई गई हजारों  वर्ग किमी जमीन वापस लेने के लिए बाद की  कांग्रेस सरकारों ने क्या  किया ? यहीं नहीं तो पाक अधिकृत कश्मीर का जो क्षेत्र पाकिस्तान ने चीन के हवाले कर दिया उसे रोकने के लिए  क्या प्रयास किये ? ये बात किसी से छिपी नहीं है कि अरुणाचल को चीन  छोटा तिब्बत कहते हुए अपने नक्शे में ही दर्शाता है | यहाँ तक कि हमारे राष्ट्रपति – प्रधानमंत्री के वहां जाने पर भी उसे ऐतराज होता है | लेकिन भारत  उससे विचलित हुए बिना अपनी सैन्य तैयारियां काफी मज़बूत कर ली हैं | चीन समय – समय पर जो हरकतें करता है उनका उद्देश्य हमारी ताकत को तौलना  है | लेकिन डोकलाम और गलवान की तरह अरुणाचल में भी उसके सैनिकों को हमारे जवानों  ने भागने बाध्य कर दिया | वैसे रक्षा मामलों में सरकार पर नीतिगत हमले करने के लिए विपक्ष पूरी तरह स्वतंत्र है परन्तु  उसे सेना के मनोबल का ध्यान रखना चाहिए | राहुल गांधी का हर  मौके पर  ये कहना कि हमारे जवान पीटे जा रहे हैं , सैनिकों की वीरता और क्षमता पर शंका करने जैसा है | विपक्षी नेताओं को ये नहीं भूलना चाहिए कि 1962 के चीनी आक्रमण में हमारी सेना बुरी तरह पराजित हुई थी | बड़ी संख्या में हमारे जवान  और अधिकारी शहीद भी हुए | चीन के भारी सैन्यबल के सामने हमारी सेना पूरी तरह असहाय साबित हुई | उसके बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरु की  जबरदस्त आलोचना हुई | तिब्बत पर चीन के कब्जे को मान्यता देने के बाद हिंदी चीनी भाई – भाई का नारा बुलंद करते हुए उसकी दोस्ती पर विश्वास करने की  नीति का दुष्परिणाम ये हुआ कि उसने हमारी 43 हजार वर्ग किमी भूमि पर कब्ज़ा कर लिया  | उस हमले के बाद नेहरू जी मानसिक तौर पर भी काफी आहत हुए और कहा जाता है उसी की वजह से उनका स्वास्थ्य खराब रहने लगा और महज दो साल के भीतर वे चल बसे | दशकों बाद भी कश्मीर और चीन संबंधी उनकी नीति पर सवाल उठाये जाते हैं | लेकिन किसी ने भी सेना के शौर्य और दक्षता पर संदेह  नहीं किया | ऐसे में जब श्री गांधी ये कहते हैं कि  चीनी सेना के हाथों  हमारे जवान पिट रहे हैं तो निश्चित तौर पर ये सरकार से ज्यादा उस सेना की आलोचना होती है जो अपनी वीरता और पेशवर दक्षता के लिए  विश्व भर में सम्मानित है | 1962 की जंग में उसके पास न तो पर्याप्त हथियार थे और न ही अन्य जरूरी साधन | बावजूद उसके एक – एक चौकी के लिये दो – चार जवानों ने आधुनिक हथियारों से लैस दर्जनों चीनी सैनकों की टुकड़ियों का  बलिदानी भावना से मुकाबला किया  | उसके बाद भारत को पकिस्तान से अनेक युद्ध लड़ना पड़े जिनमें हम जीते | वहीं चीन के साथ भी कभी छोटी और कभी बड़ी मुठभेड़ होती रही जिनमें हमारे सैनिक कभी उन्नीस साबित नहीं हुए | इसका कारण सैन्य तैयारियों में हुआ सुधार और सेना का आधुनिकीकरण है | जिसकी प्रक्रिया 1962 के  बाद से ही प्रारंभ हो गई थी |  हर लड़ाई के बाद जो कमी रह गई उसे दूर करने का प्रयास निरंतर जारी है | भारतीय सेना के  तीनों अंग आज पूरी तरह सुसज्जित और किसी भी स्थिति से निपटने में सक्षम हैं | ये देखते हुए विपक्ष से ये अपेक्षा करना गलत नहीं होगा कि सुरक्षा संबंधी किसी भी घटना या नीतिगत मुद्दे पर  सरकार को चाहे जितना घेरे किन्त्तु जवानों के बारे में ऐसा कुछ न कहे जिससे उनका उत्साह ठंडा हो | चीन के साथ लद्दाख से अरुणाचल तक आँख मिचौली का खेल चलता आ रहा है | ये बात पूरी तरह सच है कि वह हमारे इलाके में घुसपैठ का कोई अवसर नहीं चूकता किन्तु हमारे सैनिक उसे सफल नहीं होने देते | अरुणाचल की ताजा झड़प के बाद भी दोनों पक्षों के वरिष्ठ सैन्य अधिकारियों ने साथ बैठकर मामला सुलझा लिया | ऐसे में ये समझ से परे है कि संसद में विपक्ष क्या चर्चा करना चाहता है ? बिना किसी पुख्ता सबूत के ये कह देना कि चीन ने हमारी इतनी जमीन दबा ली , पूरी तरह गैर जिम्मेदाराना है | संसद में सरकार पर हमले करने के लिए विपक्ष के पास महंगाई , बेरोजगारी , अर्थव्यवस्था , किसानों की समस्याएँ और  पंजाब में आतंकवाद की आहट जैसे अनेक मुद्दे हैं | शीतकालीन सत्र के बाद अब सीधे बजट सत्र होगा | इसलिए बेहतर होगा कि विपक्ष आगामी बजट को लेकर सरकार के समक्ष जनता की परेशानियाँ रखते हुए राहत के लिए दबाव बनाये | लेकिन लगता है वह पुरानी गलतियाँ दोहरा रहा है | उसके इस रवैये से जनता के धन की बर्बादी हो रही है | संसद में बहस के दौरान विवाद  होते रहते  हैं किन्तु आजकल बहस लुप्त हो चुकी है और केवल  विवाद उसकी पहिचान बन गए हैं | ऐसा लगता है कांग्रेस का पूरा ध्यान श्री गांधी की भारत जोड़ो यात्रा पर होने की वजह से वह  इस सत्र हेतु अपनी नीति नहीं बना सकी | जहाँ तक बात सरकार की है तो वह विपक्ष के बिखराव और भटकाव का लाभ पहले भी लेती थी और इस सत्र में भी उसकी वही कोशिश है | 


रवीन्द्र वाजपेयी 

Saturday 17 December 2022

बिलावल का बिलबिलाना खानदानी आदत है : हश्र भी वैसा ही होगा



पाकिस्तान के विदेश मंत्री बिलावल भुट्टो ज़रदारी  ने  भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर टिप्पणी करते हुए यहाँ तक कह दिया कि ओसामा बिन लादेन तो मर चुका है लेकिन गुजरात का बुचर ( कसाई ) जिंदा है , और वो भारत का प्रधानमंत्री है | जब तक वो प्रधानमंत्री नहीं बना था तब तक उसके अमेरिका आने पर पाबंदी थी | दरअसल संरासंघ की सुरक्षा परिषद में भारत की स्थायी सदस्यता के विरोध के साथ ही कश्मीर विवाद को लेकर बिलावल की बकवास के जवाब में हमारे विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने ये कहा था कि ओसामा बिन लादेन को शरण देने वाला देश हमें नसीहत न दे | आतंकवाद को प्रश्रय देने के बारे में भी उन्होंने संरासंघ में पाकिस्तान को जमकर धोया था | उस समय बिलावल भी वहीं बैठे थे | उल्लेखनीय है अमेरिका सहित अन्य बड़े देश पाकिस्तान को खैरात  देने से पीछे हटने लगे हैं | भारत की कूटनीतिक मोर्चेबंदी का ही परिणाम है कि पश्चिम के जो देश उसके सरपरस्त थे वे  आतंकवाद की नर्सरी मानकर उसकी उपेक्षा करने लगे हैं | अफगानिस्तान में  तालिबान का समर्थन कर उसने अमेरिका को जिस तरह धोखा दिया उससे वह बहुत नाराज है | कोरोना के बाद वैश्विक अर्थव्यवस्था में जो उथलपुथल मची उसका दुष्प्रभाव पाकिस्तान पर भी  है | राजनीतिक अस्थिरता के साथ ही वहां आर्थिक बदहाली चरम पर है | चीनं को भी धीरे – धीरे पाकिस्तान बोझ लगने लगा है | ऐसे में विश्व बिरादरी के सामने साख ज़माने के लिए छटपटा रहे बिलावल को जब कुछ नहीं सूझा तो  भारत के बारे में अनर्गल प्रलाप शुरू कर दिया | यद्यपि  वे भले ही अपने नाना जुल्फिकार अली भुट्टो की नकल करते हुए खुद को भारत का कट्टर विरोधी साबित करते हुए पाकिस्तानी जनता के सामने शेर बनने की कोशिश कर रहे हों लेकिन उन्हें मालूम होना चाहिए कि बीते  75 सालों में पाकिस्तान के जिस भी नेता ने भारत से सीधे  टकराने की जुर्रत की उसका हश्र बुरा ही हुआ | वैसे भी उनके देश की वर्तमान दशा बहुत ही खराब चल रही है | राजनीतिक अस्थिरता के अलावा पश्चिमी सीमान्त पर अफगानिस्तानी सेना से  रोजाना संघर्ष हो रहा है | जिन अफगानी सैन्य लड़ाकों को उसने अमेरिका से लड़ने के लिए अपनी जमीन का उपयोग करने की अनुमति दी थी वे अब लौटने राजी नहीं हैं | इसके साथ ही बलूचिस्तान के अंदरूनी हालात भी संगीन हैं | पाक अधिकृत कश्मीर के बड़े इलाके इस्लामाबाद के शिकंजे से आजाद होने को बेचैन हैं | भारत द्वारा जम्मू कश्मीर से धारा 370 हटाने के बाद अलगाववादी ताकतों की जिस तरह कमर तोड़ी गई उसकी वजह से सीमा पार से आने वाले आतंकवादियों की संख्या में कमी आई है | हालाँकि घाटी  पूरी तरह से उनसे मुक्त हो गई हो ऐसा कहना गलत होगा लेकिन आये दिन उनका सफाया किया जा रहा है | ऐसे में पाकिस्तान में मौजूद आतंकवादी सरगनाओं की अहमियत कम होने से वे आन्तरिक राजनीति में दखल देने लगे हैं | दूसरी तरफ भारत की आर्थिक , सामरिक और कूटनीतिक स्थिति निरंतर मजबूत होती जा रही है | जी 20 की अध्यक्षता मिलने से  महाशक्तियों के साथ संवाद और सम्बन्ध पहले से काफी सुधरे हैं | पाकिस्तान इस सबसे काफी परेशान है | हालाँकि वहां जो भी नया सत्ताधीश आता है वह भारत से अच्छे रिश्ते रखने की बात  कहता है | इमरान खान जब प्रधानमंत्री बने तब उन्होंने शुरुआत में तो अच्छी पहल की लेकिन धीरे – धीरे वे भी अपने पूर्ववर्ती सत्ताधीशों की तर्ज पर भारत विरोध को ही हर मर्ज की दवा समझ बैठे , जिसका नतीजा सामने है | पाकिस्तान के लिए  वर्तमान स्थिति में बेहतर तो यही है कि वह भारत के साथ राजनयिक और व्यापारिक रिश्ते  मजबूत करे | इससे उसकी आर्थिक स्थिति  सुधरने के साथं ही अंतर्राष्ट्रीय बिरादरी में मिट्टी में मिल चुकी साख भी कुछ हद तक तो कायम हो ही जायेगी | लेकिन बिलावल ने जिस तरह की भद्दी भाषा भारत के प्रधानमंत्री के प्रति इस्तेमाल की उससे साबित हो गया कि उनकी बुद्धि कुंद हो गयी है | संरासंघ जैसे  वैश्विक मंच का उपयोग यदि वे दोनों देशों के बीच  सम्बन्ध सुधारने के किसी प्रस्ताव के साथ करते तो उनकी परिपक्वता प्रमाणित होती | लेकिन श्री मोदी जैसे वैश्विक नेता के बारे में इस तरह की टिप्पणी करने से  स्पष्ट हो गया कि बिलावल भले ही विदेश मंत्री बन गये परन्तु  न तो उन्हें राजनयिक शिष्टाचार की समझ है और न ही कूटनीति की | यदि वे सोचते हैं कि भारत  के प्रधानमंत्री के प्रति अपशब्द कहकर पाकिस्तान में अपनी राजनीतिक जमीन मजबूत कर लेंगे तो उनसे बड़ा मूर्ख नहीं मिलेगा | उनके नाना जुल्फिकार अली भुट्टो ने भी संरासंघ में भारतीय कुत्ते शब्द का उपयोग कर खुद को तुर्र्म खां दिखाने की कोशिश की किन्तु उन्हीं के विदेश मंत्री रहते हुए पाकिस्तान  1965 और 1971 की जंग हारा | उन दोनों लड़ाइयों के दौरान पाकिस्तान की विदेश नीति बुरी तरह विफल रही थी | यद्यपि बाद में वे प्रधानमंत्री भी बने लेकिन अंततः उन्हें फांसी पर चढ़ा दिया गया | उनकी बेटी और बिलावल की माँ बेनजीर को भी सत्ता में आने का अवसर मिला किन्तु वे भी भारत विरोध की राह पर चल पडीं और सत्ता गंवाने के बाद अंततः लम्बे समय तक देश से बाहर रहने मजबूर हुईं | किसी तरह उनकी वापसी हुई तो बम विस्फोट में मार दी गईं | यदि बिलावल में रत्ती भर भी साहस होता तो अपने नाना और माँ को मारने वाली जल्लादी मानसिकता की मुखालफत करते |  विदेश मंत्री की कुर्सी उन्हें नवाज शरीफ परिवार के साथ सौदेबाजे में मिली है और  उनके मन में प्रधानमंत्री बनने की चाहत भी जरूर होगी | उनके पिता आसिफ जरदारी भी राष्ट्रपति  रहे हैं | लेकिन बिलावल को ये बात समझ लेना चाहिए कि भारत विरोध की राजनीति के करने से अब न तो उनका भला होने वाला है और न ही उनके मुल्क का | और ये भी कि यदि वहां का माहौल ऐसा ही रहा तो बड़ी बात नहीं उनका हश्र भी नाना भुट्टो और माँ बेनजीर जैसा हो जाए |   

रवीन्द्र वाजपेयी 

Friday 16 December 2022

गालियों , गोलियों और नग्नता के बिना भी सफल फ़िल्में बनी हैं




शाहरुख खान की आने वाली फिल्म पठान को लेकर विवाद उत्पन्न हो गया है | उसका जो एक गीत  जारी हुआ उसमें  नायिका को  भगवा रंग के कम वस्त्रों और  उत्तेजक मुद्राओं  में नायक के साथ दिखाया गया जिसके प्रति नाराजगी जताते हिन्दू संगठन खुलकर सामने आ रहे हैं | अनेक राजनेताओं और धर्मगुरुओं  ने भी विरोध करते हुए सिनेमा गृह जला देने तक की बात  कही है | जहाँ  भाजपा की सरकारें हैं वहां फिल्म  पर रोक लगाने की मांग भी उठ  रही है | नायिका दीपिका पादुकोण द्वारा दिल्ली की जे.एन.यू में हुए  भारत विरोधी आन्दोलन को दिए समर्थन  का हवाला देते हुए उन्हें टुकड़े – टुकड़े गैंग से जुड़ा बताया जा रहा है | विरोध करने वालों का आरोप है कि बेशर्म रंग नामक गीत में  दीपिका को भगवा वस्त्र पहनाकर  अश्लील दृश्य फिल्माने का मकसद   हिन्दुओं की भावनाओं को ठेस पहुँचाना है और  भगवा रंग को सनातन धर्मियों के लिए पवित्र होने से  बेशर्म रंग कहना आपत्तिजनक है | दूसरी तरफ फिल्म के बचाव में भी एक वर्ग मुखर है | भगवा कपड़े  पहने अन्य नायिकाओं के चित्र दिखाकर  कहा  जा रहा है कि ऐसा पूर्व में भी होता रहा है किन्तु तब विरोध नहीं हुआ | भाजपा समर्थक कही  जाने वाली नायिका  कंगना रनौत के बदन उघाड़ू चित्रों के जरिये पठान के विरोधियों पर दोहरे मापदंड अपनाने का आरोप भी लगाया जा रहा है | सबसे बड़ी  बात ये उठ रही है कि फिल्म सेंसर बोर्ड ने इस तरह के दृश्यों और गाने को अनुमति कैसे दे दी जिससे हिन्दुओं की धार्मिक भावनाएं आहत हो रही हैं | पठान समर्थकों का कहना है  कि  फिल्म का विरोध कर रहे व्यक्तियों और संगठनों को  सेंसर बोर्ड के उन लोगों को हटाने की माँग करनी चाहिए  जिन्होंने उसको प्रदर्शन हेतु प्रमाणपत्र प्रदान किया | ये पहला अवसर नहीं है जब किसी फिल्म का  प्रदर्शित होने के पूर्व ही विरोध शुरू हो गया | ऐतिहासिक कथानक पर बनी फिल्मों में तथ्यों को गलत तरीके से पेश करने पर बवाल मचता रहा है | कुछ फ़िल्में इसलिए विरोध का शिकार हुईं क्योंकि उनकी कहानी सामाजिक मान्यताओं के विरुद्ध थी  | अश्लीलता का अतिरेक भी लोगों को नागवार गुजरा है | इसमें दो मत नहीं है कि फ़िल्म उद्योग के कुछ पटकथा लेखक , निर्देशक और अभिनेता जान  बूझकर ऐसी फ़िल्में लेकर आते हैं जिन पर विवाद पैदा होता है |  पठान का जो गीत और  दृश्य प्रसारित किये गये उनसे इस बात का संदेह होता है कि  सोच - समझकर ऐसा किया गया  | अनेक निर्माता उन दृश्यों  और संवादों को हटा देते हैं जिन पर ऐतराज किया जाता है | जोधा – अकबर फिल्म के निर्माताओं ने करणी सेना वालों को फिल्म दिखाकर उनके सुझाये फेरबदल कर दिए | हालांकि विवादित हुई कुछ फ़िल्में जब बिना बदलाव किये ही प्रदर्शित हुईं तब उन्हें दर्शक  नहीं मिले जबकि कुछ अपेक्षा से ज्यादा सफल रहीं | कुल मिलाकर  मामला बड़ा पेचीदा है | पठान फिल्म को भाजपा शासित राज्यों में भले ही विरोध झेलना पड़े लेकिन जिन राज्यों में गैर भाजपा सरकारें हैं वे उसे पूरा समर्थन और संरक्षण प्रदान करेंगीं ये भी तय है | इस प्रकार विरोध और समर्थन का ये मुकाबला हमारे समाज की पहिचान बनता जा रहा है जिसका लाभ फिल्म निर्माता उठा लेते हैं  | उदाहरण के लिए बाबा रामदेव को समाज  के बड़े वर्ग का समर्थन मिलने से उनके व्यावसायिक कारोबार को भी जबर्दस्त सहारा मिला | लेकिन इसी कारण वे दूसरे तबके के लिए उपहास और नफरत का पात्र बने  | ये कहने में कुछ भी गलत नहीं है कि फ़िल्मी दुनिया में लम्बे समय तक एक विचारधारा विशेष का आधिपत्य रहा | विशेष तौर पर पटकथा , गीत और संवाद  लेखन में कथित प्रगतिशील लोग हावी थे  | कुछ अभिनेताओं , निर्माताओं और निर्देशकों के राजनीतिक प्रतिबद्धता के प्रति समर्पित होने से फिल्मों पर उनका असर साफ़ नजर आता रहा | अस्सी के दशक के साथ ही फिल्मों में माफिया का प्रवेश हुआ जिससे फिल्म निर्माण का स्वरूप और संस्कृति पूरी तरह बदल गई | समानांतर  सिनेमा के नाम पर होने वाले प्रयोग नग्नता को कला का पर्याय बताने में जुट गए | सेंसर नामक केंची की धार दिन ब दिन भोंथरी होती जाने से उसका रहना न रहना बराबर हो गया | कुल मिलाकर सारा खेल येन केन प्रकारेण पैसा बटोरना रह गया है | रही – सही  कसर पूरी कर दी छोटे परदे पर ओ.टी.टी के पदार्पण ने ,  जिसमें वास्तविकता के नाम पर अश्लीलता परोसने का अभियान चल पड़ा है | गालियों और गोलियों की बौछारों से भरी ये  श्रृंखलाएं  मनोरंजन के नाम पर कौन सा  सन्देश दे रही हैं ये  फिल्म समीक्षकों के ही नहीं अपितु समाजशास्त्रियों के लिए भी चिंतन – मनन का विषय है | टीवी पर मनोरंजन का दौर जिन धरावाहिकों से शुरू हुआ वे पारिवारिक माहौल को पेश करने के कारण लोकप्रिय हुए  जिन्हें तीन पीढ़ियों के लोग एक साथ देखते थे | लेकिन आज छोटा पर्दा जो परोस रहा है उसमें अधिकतर की विषय वस्तु वयस्कों के लिए ही है | लेकिन सभी वयस्क  गंदी गालियों को सुनना पसंद करते हैं ,ये पूरी तरह गलत है | सबसे  बड़ी बात ये है कि समाज की सोच को विकृत करने की साजिश  पर विराम कैसे लगाया जाए ? फिल्म उद्योग में  बॉक्स आफिस फार्मूला बहुत महत्वपूर्ण होता है | निर्माता को अपने निवेश की चिंता रहती है तो कलाकारों को छवि की | लेकिन अनेक निर्माता – निर्देशक और अभिनेता ऐसे भी हुए जिन्होंने बिना बॉक्स आफिस की फ़िक्र किये साधारण बजट से ऐसी असाधारण फ़िल्में बनाईं जिन्होंने लोकप्रियता के कीर्तिमान स्थापित कर डाले | शाहरुख खान को फिल्म उद्योग में आये चौथाई सदी से ज्यादा बीत चुका है | लेकिन आज  तक वे एक भी ऐसी भूमिका में नहीं दिखे जो उन्हें कालजयी बना सके | ऐसा नहीं है कि प्रयोगधर्मी फ़िल्में पहली नहीं बनीं किन्तु उनमें सामाजिक मर्यादाओं का ध्यान रखा गया | वयस्क कथानक पर भी अनेक फ़िल्में आईं किन्त्तु उनमें से एक भी बिमल रॉय , गुरुदत्त ,   हृषिकेश मुखर्जी और वासु भट्टाचार्य की फिल्मों के सामने नहीं ठहरीं | गुलज़ार ने भी फिल्म रूपी माध्यम का बहुत ही करीने से उपयोग किया और सितारा अभिनेताओं के साथ कम बजट में बेहतरीन और सफल फ़िल्में बनाईं  | आशय मात्र इतना है कि फ़िल्में केवल मनोरंजन और पैसा कमाने का जरिया न होकर समाज को संदेश देने का माध्यम भी है | अभिनेताओं और अभिनेत्रियों को भी ये सोचना चाहिए कि उनके भी कुछ सामाजिक सरोकार हैं | ध्यान रहे दादा कोडके जैसे फिल्मकारों पर विस्मृति की धूल जम चुकी है जबकि व्ही. शांताराम का नाम उनके अवसान के दशकों बाद भी आदर के साथ लिया जाता है | 

: रवीन्द्र वाजपेयी



Thursday 15 December 2022

फुटबाल विश्व कप में भारत की गैर मौजूदगी शर्मनाक



 
खेल प्रेमियों के सिर पर इन दिनों फुटबाल  का जादू सवार है | कतर में हो रहे विश्व कप का फायनल मुकाबला अर्जेंटीना और फ़्रांस के बीच होना है | संभवतः ये दुनिया में सबसे ज्यादा देखा जाना वाला  मैच होगा | वैसे भी फुटबाल विश्व का सबसे लोकप्रिय खेल है जो  दुनिया के छोटे बड़े सभी देशों में  खेला जाता है | इसके सितारा खिलाड़ियों को पेशेवर क्लबों से करोड़ों रु. मिलते हैं | विश्व कप तो खैर चार बरस बाद होता है लेकिन यूरोप और दक्षिण अमेरिका के क्लबों के बीच चलने वाले मुकाबलों  के प्रति भी जबरदस्त दीवानगी देखने मिलती है | ब्राजील और अर्जेंटीना जैसे देशों में तो फ़ुटबाल के सितारा खिलाड़ी वहां के राष्ट्रीय महानायक माने जाते हैं | केवल संपन्न देश ही नहीं वरन आर्थिक दृष्टि से कमजोर छोटे – छोटे देश तक फुटबाल विश्व कप में अपने प्रदर्शन से खेल प्रेमियों का दिल जीत लेते हैं | कतर विश्व कप में भी अनेक छोटे देशों ने महारथियों को धूल चटाते हुए बड़े उलटफेर कर डाले | भारत में  विश्व कप के मैच देखने वालों की संख्या करोड़ों में होगी | देश के पूर्वी इलाके में फ़ुटबाल का काफी जोर है | यहाँ से अनेक अंतर्राष्ट्रीय ख़िलाड़ी निकले जिन्हें यूरोप के क्लबों में खेलने का अवसर भी मिला | एक ज़माने में कोलकाता में फ़ुटबाल की  दीवानगी क्रिकेट से ज्यादा  होती थी | मोहन बगान और मोहम्मडन स्पोर्टिंग के नाम पूरे देश में जाने जाते थे | गोवा भी फ़ुटबाल का बड़ा केंद्र है | लेकिन भारतीय खेल प्रेमी ये देखकर निराश होते हैं कि फ़ुटबाल के विश्व कप में भारत का नाम कहीं नहीं है | उपलब्ध जानकारी के अनुसार 1950 के विश्व कप में भारतीय टीम को खेलने की पात्रता मिल गयी थी | लेकिन उस समय तक भारतीय खिलाड़ी नंगे पाँव खेलते थे जिसकी अनुमति  आयोजकों ने नहीं दी | दूसरा कारण ये बताया जाता है कि फुटबाल संघ के पास आर्थिक संसाधन नहीं थे | लेकिन अब वह बात नहीं है | बावजूद उसके विश्व कप जैसे प्रतिष्ठित आयोजन में हमारी टीम  का न खेलना शर्मनाक है | इस बार के क्वालीफाइंग मैचों के दूसरे राउंड में ही हमारी टीम बाहर हो गई थी | हालाँकि पहले की अपेक्षा स्थिति में काफी सुधार हुआ है | खिलाड़ियों का मनोबल और आर्थिक स्थिति भी पूर्वापेक्षा सुधरी है | ओलम्पिक खेलों के मद्देनजर जैसी तैयारी बीते कुछ सालों में की गयी उसके अच्छे परिणाम निकले और पदक तालिका में भारत नजर आने लगा | इसी तरह बैडमिन्टन के खेल में भारत ने वैश्विक स्तर पर अपनी स्थिति में सुधार किया है | हॉकी में  लंबे समय तक चले  निराशाजनक प्रदर्शन के बाद स्थिति बेहतर हुई  है  | वहीं  निशानेबाजी और मुक्केबाजी के अलावा भी कुछ मैदानी खेल हैं जिनमें भारत की मौजूदगी महसूस की जा सकती है | क्रिकेट का तो भारत सबसे बड़ा केंद्र बन चुका है | आईपीएल के सफल आयोजन से इस खेल में भारत का डंका दुनिया भर में बज रहा है | लेकिन फ़ुटबाल में आज तक अपेक्षित परिणाम नहीं आना , सोचने को बाध्य करता है क्योंकि  सवाल विश्व कप में खेलने का न होकर देश की छवि से जुड़ा हुआ है | किसी भी देश की प्रतिष्ठा में खेलों में उसका प्रदर्शन काफी सहायक बनता है | एक जमाना था जब चीन वैश्विक बिरादरी से कटा  हुआ था | लेकिन जबसे उसे ओलम्पिक में भाग लेने का अवसर मिला उसने अपने को अमेरिका और रूस के मुकाबले खड़ा  करने पर ध्यान दिया जिसका अनुकूल परिणाम भी उसे मिला | दुर्भाग्य से हमारे देश में खेल संगठनों में राजनीति का अतिक्रमण जिस तरह हुआ उसने खेल और खिलाड़ियों को बहुत नुकसान पहुँचाया | फुटबाल भी उससे अछूती नहीं रही | यही वजह है कि इतने बड़े देश की टीम विश्व कप खेलने की पात्रता हासिल नहीं कर पाती | भारत सरकार का खेल मंत्रालय इस दिशा में काफी सक्रिय हुआ है | ये देखते हुए यह अपेक्षा करना गलत नहीं होगा कि 2026 में होने वाले अगले फुटबाल विश्व कप में हमारी टीम को हिस्सा लेने का अवसर मिलेगा | लेकिन ये तभी संभव है जब अभी से इस बारे में युद्धस्तर पर तैयारी शुरू की जावे | संभावित युवा खिलाड़ियों को देश – विदेश जहाँ भी जरूरी हो समुचित प्रशिक्षण दिलवाने का प्रबंध किये जाने के साथ ही किसी विश्व स्तरीय कोच से अनुबंध कर उसकी सेवाएँ ली जावें | यदि सरकार और फुटबाल के पुराने खिलाड़ी तथा प्रशासक ठान लें तो अगले विश्व कप में भारतीय टीम बड़े उलटफेर करने लायक बन सकती है | एक समय था जब हमारे क्रिकेटर  तेज गेंदबाजों के सामने बचते फिरते थे |  नारी कांट्रेक्टर का तो कैरियर ही सिर में गेंद लग जाने के कारण खत्म हो गया | सत्तर  के दशक तक भारत के पास एकाध अपवाद छोडकर कोई ढंग  का तेज गेंदबाज नहीं था | उस वजह से हमारे बल्लेबाजों को भी तेज गेंदों का सामना करने  का अभ्यास न था | लेकिन आज हमारे पास विश्व स्तरीय तेज गेंदबाज भी हैं और बल्लेबाज भी | इसका कारण क्रिकेट पर दिया गया ध्यान है | हॉकी भी बीच में पतन के कगार पर पहुंच गई थी लेकिन उसके पुनरुत्थान  की कोशिशों का लाभ हुआ | ओलम्पिक की समयबद्ध तैयारी भी रंग लाने लगी है | इससे साबित होता है कि योजना  बनाकर खेलों का विकास किया जाना  संभव है | भारत सरकार को चाहिए वह अगले फ़ुटबाल विश्व कप के लिए अभी से तैयारी शुरू करे और  इसके लिए प्रायोजक और प्रशिक्षक भी तलाशे जावें | लेकिन इसे  जूनून की शक्ल देनी होगी | दुनिया के सबसे लोकप्रिय खेल में 140 करोड़ की आबादी वाले देश का सम्मानजनक स्थान नहीं होना विचारणीय  है |


रवीन्द्र वाजपेयी 

Wednesday 14 December 2022

जिनपिंग अपने बचाव में भारत पर हमले की रणनीति पर चल रहे



अरुणाचल के तवांग क्षेत्र में चीनी सैनिकों की घुसपैठ को भरतीय सेना ने जिस तरह विफल किया उससे  साबित हो गया कि गलवान घाटी की घटना के बाद सीमा पर हमारी चौकसी काफी अच्छी है | जिस प्रकार की जानकारी अधिकृत रूप से आई  उसके अनुसार चीनी सैनिकों ने पूरी तैयारी के बाद भारतीय सीमा में घुसने की कोशिश की किन्तु बिना देर  लगाये हमारे सैनिकों ने उन्हें न सिर्फ पीछे धकेला अपितु अच्छी – खासी पिटाई भी की | हालांकि कुछ जवानों को चोटें आईं किन्तु इस मुठभेड़ में भी चीनी सैनिक ज्यादा संख्या में घायल हुए | स्मरणीय है गलवान में भी हमले की शुरुआत चीनी सेना की तरफ से हुई थी जिसमें एक भारतीय कर्नल मारे गये किन्तु  हमारे जवानों के पलटवार में चीनी  सेना को जबरदस्त नुकसान हुआ | उस घटना के बाद से लद्दाख से भूटान तक चीन की किसी भी सैन्य कार्रवाई से निपटने के लिए हमारी तैयारियां काफी पुख्ता हुई हैं | थलसेना तो थी ही किन्तु अब अग्रिम मोर्चे पर वायुसेना भी मुस्तैद है | मिसाइलें वगैरह भी लगाई गई हैं | ऐसा नहीं है कि चीन इन सबसे बेखबर हो किन्तु उसकी नीति यही है कि अपने पड़ोसियों को चैन से बैठने न दिया जाए | बीते कुछ समय से वह वन चाइना योजना के अंतर्गत ताइवान पर चढ़ाई  की रिहर्सल करता रहता है | यद्यपि अमेरिका के भय से  वह सीधा हमला करने से बच रहा है और फिर यूक्रेन में रूस के राष्ट्रपति पुतिन जिस तरह उलझ गये हैं उससे भी चीनी राष्ट्रपति जिनपिंग सतर्क हैं | लेकिन देश के  अंदरूनी हालात उनकी परेशानी का कारण बने हुए हैं | भले ही चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के हाल ही में संपन्न सम्मलेन में उन्होंने अपनी सत्ता कायम रखने पर मुहर लगवा ली किन्तु कोरोना का प्रकोप बढ़ते जाने से करोड़ों लोग घरों में कैद  हैं | लॉक डाउन लगाकर  कारखानों में कार्यरत लोगों को घर नहीं आने दिया जा रहा | जरूरी चीजों की आपूर्ति गड़बड़ा चुकी है जिसकी वजह से आम जनता में रोष है | बीते अनेक दशकों में ये पहला अवसर है जब चीन में नाराज लोग सड़कों पर उतरकर सरकार के विरोध में प्रदर्शन और नारेबाजी करने का साहस दिखा रहे हैं  | ये चीन के भीतरी माहौल में बड़े  बदलाव का इशारा है | इसीलिये अब ये कहा जाने लगा है कि वहां सोवियत संघ जैसे बिखराव की शुरुआत होने लगी है | कोरोना के बाद वैश्विक परिदृश्य में हुए बदलाव से चीन के प्रति नफरत में वृद्धि का दुष्प्रभाव उसकी आर्थिक स्थिति पर भी दिखाई दे रहा है | निर्यात और विदेशी निवेश में तो कमी आई ही अनेक बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने भी अपना कारोबार वहां से समेटना शुरू कर दिया है | इन सबसे परेशान जिनपिंग युद्ध का माहौल बनाकर जनता का ध्यान घरेलू मोर्चे से हटाने की नीति पर चल रहे हैं | उन्हें अच्छी तरह से मालूम है कि ताइवान को हड़पना आसान नहीं होगा | इसीलिये उन्होंने भारत में घुसपैठ की योजना पर काम शुरू कर दिया है | ऐसा करना उसके लिए इसलिए भी आसान है क्योंकि दोनों देशों की सीमा पर शांति के समय भी फ़ौजी तैनाती रहती है | हालाँकि हर मुठभेड़ के बाद दोनों देशों के  सैन्य कमांडरों की  मेल - मुलाकात में  मामला सुलझाकर दोबारा वैसा न होने की प्रतिबद्धता भी दोहराई जाती है किन्तु चीन अपनी आदत से बाज न आते हुए तनाव के हालात पैदा करता रहता है | अरुणाचल की सीमा पर उसकी  हरकतें लगातार जारी रहती हैं | हमारी सीमा से सटे अपने इलाके में गाँव बसाने की उसकी योजना जारी है | यद्यपि दोनों देशों के बीच इस बात पर सहमति कायम है कि गोली नहीं चलाई जावेगी | यही वजह है कि पहले डोकलाम और उसके बाद गलवान में हुई झड़पों के दौरान हाथापाई और डंडों का इस्तेमाल ही हुआ | तवांग की ताजा झड़प में भी कंटीले तार लगे डंडों जैसी चीजें  ही उपयोग की गईं | ज्यादातर मामलों में धक्का - मुक्की और हाथापाई ही देखने मिली है | ये कहना गलत न होगा कि चीन इन हरकतों के जरिये भारतीय सेना की ताकत और मुस्तैदी का परीक्षण करता रहता है | ये संतोष का विषय है कि 1962 में मिली हार के बाद से ही चीन के साथ निपटने की तैयारी लगातार होती रही किन्तु बीते आठ साल में जिस पैमाने पर अपनी सैन्य शक्ति बढ़ाने के साथ ही सीमावर्ती इलाकों में सडक , पुल , हवाई पट्टी आदि का विकास किया गया उससे सेना के साथ – साथ  सीमावर्ती क्षेत्रों में रहने वालों का आत्मविश्वास भी बढ़ा है | इसका अनुभव गलवान हादसे के समय हुआ जब लद्दाख की जनता किसी भी आपातकालीन स्थिति से निपटने तैयार नजर आई | कुछ – कुछ वैसा ही तवांग से आ रही प्रतिक्रिया से भी ज़ाहिर हो रहा है | सरकार और सेना के बीच बेहतर समन्वय बने रहने से किसी भी हमले के समय तेजी से पलटवार करना संभव हो जाता है | तवांग में हमारे जवान जिस तत्परता से सक्रिय हुए और चीनी टुकड़ियों को पीटकर खदेड़ दिया उससे देश का मनोबल बढ़ा है | लेकिन ऐसे मामलों में राजनीति से बचना चाहिए क्योंकि जान हथेली पर रखकर  सीमाओं की सुरक्षा के लिये तैनात फ़ौजी जवान और अधिकारी जब सुनते हैं कि उनकी क्षमता और वीरता पर सवाल खड़े किये जा रहे हैं तो उनका मन खिन्न हो जाता है | चीन इस घटना के बाद शांत बैठ जाएगा ये मान लेना मूर्खता होगी | हो सकता है उसकी अगली हरकत किसी दूसरे इलाके में देखने मिले क्योंकि  उसके अंदरूनी हालात जैसे – जैसे खराब  होंगे वैसे – वैसे वह भारतीय सीमा पर अशांति पैदा करने की कोशिश करेगा |                                     
रवीन्द्र वाजपेयी 


Tuesday 13 December 2022

मोदी की हत्या की बात कहने वाले को कड़ा दंड मिले वरना ये प्रवृत्ति और बढ़ेगी



म.प्र में भारत यात्रा के दौरान एक सभा में राहुल गांधी ने कहा था कि वे नरेंद्र मोदी और आरएसएस से लड़ते हैं लेकिन उनके मन में इनके प्रति नफरत नहीं है | एक लोकतांत्रिक देश में किसी  राजनीतिक नेता द्वारा अपने विरोधी व्यक्ति अथवा संगठन के विरुद्ध इस तरह की बात कहना स्वाभाविक ही है | हालाँकि उसके बाद गुजरात में चुनाव प्रचार करते हुए कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड्गे ने श्री मोदी को रावण कहकर श्री गांधी की भावना के विरुद्ध आचरण किया जिस पर भाजपा ने कांग्रेस को घेरा | चुनाव परिणाम से ये स्पष्ट हुआ कि कांग्रेस की शर्मनाक हार में श्री खड़गे का बयान भी सहायक साबित हुआ | अतीत में भी प्रधानमंत्री के विरुद्ध ऐसी ही टिप्पणियाँ होती रही हैं जिनका भाजपा ने जमकर लाभ  उठाया | देश की मौजूदा राजनीति जिस मुकाम पर आकर खड़ी है उसमें शालीनता और सौजन्यता तेजी से लुप्त हो रही हैं | वैचारिक विरोध  व्यक्तिगत वैमनस्यता में बदलने लगा  है | लेकिन हद तो तब हो गई जब गत दिवस म.प्र में कांग्रेस के वरिष्ट नेता और पूर्व मंत्री राजा पटेरिया ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की हत्या के लिए तैयार रहने जैसी बात पार्टी कार्यकर्ताओं से कह डाली | उन्होने ये भी कहा कि संविधान और लोकतंत्र को बचाने के लिये श्री मोदी को हराना जरूरी है | जब हत्या जैसी बात पर बवाल होने लगा तब जाकर उनको होश आया और फिर गांधी के अनुयायी होने का ढोंग रचते हुए उन्होंने स्पष्टीकरण दिया कि उनके बयान को गलत तरीके से प्रसारित किया गया है और हत्या से उनका आशय पराजित करना रहा | भाजपा ने बिना देर लगाए उक्त नेता के साथ ही कांग्रेस को भी घेरना शुरू कर दिया  | मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और गृहमंत्री नरोत्तम मिश्रा खुद मोर्चे पर आ गये और श्री पटेरिया  के विरुद्ध थाने में प्रकरण भी दर्ज कर लिया गया | चूंकि उक्त बयान के वीडियो उपलब्ध हैं इसलिए वे ये कहने की चालाकी नहीं दिखा सके कि उन्होंने श्री मोदी की हत्या जैसी बात कही ही नहीं | उनके स्पष्टीकरण में भी किसी तरह का अफसोस नजर नहीं आया | भाजपा ने जब दबाव बढ़ाया तब कांग्रेस के प्रदेश प्रवक्ता के.के.मिश्रा ने बजाय श्री पटेरिया की निंदा करने के ये कहकर पिंड छुडा लिया कि उस बयान से पार्टी का कोई संबंध नहीं है | पार्टी के राष्ट्रीय नेताओं की टिप्पणियाँ भी अब तक नहीं सुनाई दीं  | प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कमलनाथ ने कांग्रेस के अहिंसावादी होने का हवाला देते हुए श्री पटेरिया के बयान की निंदा तो की किन्तु इसके साथ ही ये भी जोड़ दिया कि यदि वीडियो में कही बात सही है तो | राहुल गांधी ने भी इसका संज्ञान नहीं लिया जबकि कुछ दिन पहले ही उन्होंने श्री मोदी से लड़ाई के बाद भी नफरत न होने  जैसी बात कही थी | होना तो ये चाहिए था कि कांग्रेस उक्त नेता को निलम्बित कर फिर उनसे सफाई मांगती | लेकिन उसने बयान से दूरी बनाने की बात कहकर अपना दामन बचाने का दांव चला  | वैसे तो   श्री पटेरिया लम्बे समय से प्रदेश की राजनीति में हाशिये पर पड़े हैं लेकिन पूर्व में वे सत्ता और संगठन दोनों में महत्वपूर्ण जिम्मेदारी निभा चुके हैं | भले ही वे राजनीतिक तौर पर सड़क पर आ गये हों किन्तु उनको सड़क छाप नेता नहीं माना जा सकता | और इस आधार पर श्री मोदी की हत्या के लिए तैयार रहने जैसी बात को न ही जुबान का फिसलना कह सकते हैं और न ही उनके भाषाई ज्ञान में कमी को इसका कारण माना जा सकता है | इसीलिये उक्त बयान बहुत ही आपत्तिजनक और अपराध की श्रेणी में रखे जाने योग्य है | श्री मोदी तो खैर ,देश के प्रधानमंत्री हैं किन्तु किसी साधारण व्यक्ति की हत्या की बात कहना किसी भी ऐसे समाज में स्वीकार्य नहीं हो सकता जहां संविधान के अनुसार समूची व्यवस्था संचालित होती है | प्रधानमंत्री की हत्या की बात कहना तो क्या सोचना भी गंभीर अपराध है और इसलिए श्री पटेरिया को कानून के अनुसार   समुचित सजा मिलना जरूरी है  | यदि ऐसा नहीं होता तब राजनीतिक बिरादरी और आतंकवादियों में कोई फर्क नहीं बचेगा | ऐसा लगता है उक्त कांग्रेसी नेता सिर तन से जुदा वाली मनसिकता से प्रेरित हैं , अन्यथा लम्बे राजनीतिक अनुभव के बाद इस तरह की निम्नस्तरीय बात कहने का और दूसरा कारण नहीं हो सकता | गांधी के अनुयायी होने का दावा करने वाले श्री पटेरिया ने श्री मोदी के विरूद्ध अपनी भड़ास जिस भी वजह से निकाली हो किन्तु उनकी टिप्पणी बापू का भी अपमान है | होना तो ये चाहिए था कि भाजपा से पहले कांग्रेसजन अपना गुस्सा व्यक्त करते हुए उनको पार्टी से बाहर करने की मांग उठाते  किन्तु  अनेक नेता और समर्थक सोशल मीडिया पर उन्हें साहसी बता रहे हैं | इस मामले का अंत कहाँ और कैसे होगा ये फ़िलहाल तो कहना मुश्किल है लेकिन देश के प्रधानमंत्री की हत्या जैसी बात खुले आम कहने वाले व्यक्ति का अब तक पार्टी में बना रहना कांग्रेस के लिए भी शर्मनाक है | यदि प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कमलनाथ की बुद्धि और विवेक अब तक जीवित है तब उन्हें  श्री पटेरिया को निकाल बाहर करते हुए खुद आगे आकर माफी मांगना चाहिए | अन्यथा इस गंभीर अपराध की पुनरावृत्ति बढ़ सकती है | और उस दौर की कल्पना से भी पांव कांपने लगते हैं |   


रवीन्द्र वाजपेयी

Monday 12 December 2022

म.प्र में गुजरात फॉर्मूले की सफलता को लेकर भाजपा असमंजस में



गुजरात में ऐतिहासिक जीत के बाद भाजपा के राष्ट्रीय संगठन ने निकट भविष्य में होने वाले विधानसभा चुनावों के लिए रणनीति तैयार करने का काम शुरू कर दिया है | उसी सिलसिले में ये खबर बड़ी तेजी से उभर रही है कि म.प्र में भी गुजरात फार्मूले को दोहराते हुए सरकार और संगठन में बड़े  पैमाने पर परिवर्तन किया जायेगा जिससे मौजूदा चेहरों के प्रति जनता और कार्यकर्ताओं की  नाराजगी चुनाव में सामने न आये | गुजरात में मुख्यमंत्री सहित सभी मंत्रियों को बदलने का दांव जिस तरह कारगर हुआ उससे केन्द्रीय नेतृत्व काफी प्रसन्न है | वैसे तो आगामी वर्ष राजस्थान  और छत्तीसगढ़ में भी चुनाव होना हैं जहां विपक्ष में होने से भाजपा को  सरकार विरोधी भावना का भय नहीं है | लेकिन म.प्र उसकी चिंता का विषय बना हुआ है | नगर निगम चुनाव में ग्वालियर , जबलपुर , रीवा जैसे बड़े शहरों के साथ मुरैना और कटनी में  महापौर प्रत्याशी हारने को पार्टी आलाकमान खतरे का संकेत मान रही है |  हालाँकि पार्टी के पार्षद  ज्यादा जीते जिससे ये संकेत मिला कि प्रत्याशी चयन में ज़रा सी भी लापरवाही या मनमानी जनता और पार्टी के परम्परागत समर्थकों को भी बर्दाश्त नहीं होती | शहरी मतदाताओं ने 2018 में भी पार्टी को झटका दिया था | भोपाल , जबलपुर , इंदौर , ग्वालियर आदि में कांग्रेस ने सेंध लगाते हुए भाजपा से प्रदेश की सत्ता छीन ली  | भले ही कांग्रेस के दो दर्जन विधायकों के दलबदल से शिवराज सिंह चौहान का राजयोग लौट आया लेकिन उन विधायकों को पार्टी संगठन सहज भाव से स्वीकार नहीं कर पा रहा | पिछला चुनाव हारे अनेक भाजपा प्रत्याशियों को कांग्रेस से आये विधायकों  की वजह से अपना भविष्य अंधकारमय नजर आ रहा है | ग्वालियर में सिधिया समर्थक को महापौर  की टिकिट न देने का प्रतिकूल परिणाम  निकलने के बाद उच्च नेतृत्व इस बात से चिंतित है कि विधानसभा चुनाव में कांग्रेस से आये नेताओं के साथ पार्टी के कार्यकर्ताओं का सामंजस्य नहीं बैठा तो 2018 वाली गफलत दोहराई जा  सकती है | यही वजह है कि गुजरात जैसे प्रयोग की बात उठने पर सिंधिया समर्थकों के रुख का आकलन करना जरूरी होगा क्योंकि उनमें से अनेक  भाजपाई संस्कृति में ढल नहीं पा रहे  | ये सब देखते हुए म.प्र में  गुजरात जैसा बदलाव आसान  नहीं होगा | इसका कारण ये है कि यहाँ नरेंद्र मोदी और अमित शाह का वैसा दबाव नहीं है जैसा गुजरात में था | हिमाचल प्रदेश में भी भाजपा ने बड़े पैमाने पर विधायकों की टिकिट काटने का प्रयोग किया था | लेकिन राष्ट्रीय अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा का गृह प्रदेश होने के बावजूद भी खुलकर बगावत हुई जिसका खामियाजा सरकार हाथ से निकलने के रूप में सामने है | और फिर ये भी कि गुजरात में विधानसभा चुनाव से काफी पहले सरकार का चेहरा बदलने का दांव चला गया था जिससे मुख्यमंत्री और मंत्रियों को पैर ज़माने का पर्याप्त समय मिल गया | उस दृष्टि से म.प्र में  सरकार का ढांचा बदलने पर  नए लोगों  को ज्यादा समय नहीं मिल सकेगा |  सबसे बड़ी बात ये है कि मुख्यमंत्री पद के लिए श्री चौहान की टक्कर का ऐसा कोई सर्वसम्मत नेता नजर नहीं आ रहा जो पार्टी कार्यकर्ताओं के साथ ही रास्वसंघ को भी स्वीकार्य हो और आम जनता में जिसकी छवि साफ सुथरी हो | और फिर  सिंधिया गुट से तालमेल बिठाने की समझ भी उसमें होना जरूरी है क्योंकि ग्वालियर के पूर्व  महाराज कम से कम अपनी रियासत के अंतर्गत आने वाली सीटों पर तो  वर्चस्व चाहेंगे | इन सबके परिप्रेक्ष्य में भाजपा आलाकमान के समक्ष म.प्र को लेकर तरह – तरह की दुविधाएं हैं | मुख्यमंत्री ने बहुत ही चतुराई के साथ प्रदेश में ओबीसी आबादी का बहुमत प्रचारित कर राष्ट्रीय नेतृत्व को अपनी उपयोगिता जता दी है | हालाँकि आदिवासी सीटों पर भाजपा और संघ दोनों का काफी ध्यान है किन्तु चुनाव जिताने के लिए जो सक्रियता और दांव पेच आवश्यक माने जाते हैं उनमें श्री  चौहान का अनुभव सर्वाधिक है | यद्यपि लंबे समय से सत्ता में रहने के कारण जनमानस में सहज  रूप से उत्पन्न होने वाला विरोध भी शीर्ष नेतृत्व को आशंकित किये हुए है | 2018 में तमाम अनुकूलताओं के बाद भी जीत जिस तरह आते - आते चली गई उसके कारण दूध का जला छाछ भी फूंक फूंककर पीता है वाली मनःस्थिति पार्टी में है | उल्लेखनीय है म.प्र  भाजपा का सबसे  पुराना गढ़ रहा है | यहाँ तक कि जब पूरे देश में जनसंघ पैर ज़माने की कोशिश में था तब भी प्रदेश के मध्यभारत और मालवा अंचल में उसके सांसद जीतते थे | अटल जी और आडवाणी जी ही नहीं अपितु जगन्नाथ राव जोशी , डा.वसंत कुमार पंडित , भैरोसिंह शेखावत, सुषमा स्वराज , ओ. राज गोपाल और प्रकाश जावडेकर  जैसे नेता म.प्र से लोकसभा और  राज्यसभा के लिए चुने जाते रहे हैं | तमिलनाडु के भी एक  नेता यहाँ से राज्यसभा भेजे गये थे जिनका नाम भाजपाई तक न जानते होंगे | उस दृष्टि से ये कहना गलत न होगा कि ये राज्य पार्टी के लिए हिन्दुत्व की सबसे पुरानी प्रयोगशाला रहा है | इसीलिये जब वह पिछले चुनाव में विजय  की देहलीज पर आकर रुक गयी तब उसे बड़ा झटका माना गया | ऐसे में पार्टी के सामने म.प्र पर कब्जा बनाये रखना रणनीतिक और वैचारिक तौर पर  आवश्यक है | फिलहाल चल रही चर्चाओं के अनुसार जिन विधायकों और मंत्रियों की रिपोर्ट ठीक नहीं है उनका टिकिट काटे जाने पर संभावित नुकसान  के बारे में पार्टी नेतृत्व विमर्श कर रहा है | चर्चा तो संगठन में भी बड़े बदलाव की है | लेकिन ऐसा करने के लिए अब ज्यादा समय नहीं बचा है | आखिरी  वक्त पर किया बदलाव किस तरह घातक होता है ये भाजपा दिल्ली में देख चुकी है जहां मदनलाल खुराना और साहेब सिंह वर्मा की लड़ाई के बीच 1998 में सुषमा स्वराज को मुख्यमंत्री बनाया गया था | लेकिन वह दांव इस कदर उल्टा पड़ा कि बीते लगभग 25 साल से भाजपा दिल्ली विधानसभा में बहुमत हासिल करने के लिए तरस रही है | उस दृष्टि से म.प्र की सत्ता में गुजरात जैसा  बड़ा बदलाव करना आसान नहीं लगता | विधायकों के टिकिट काटना जरूर संभव है क्योंकि अनेक विधायक और मंत्री ऐसे हैं जिनकी छवि बेहद खराब है | जहाँ तक बात संगठन की है तो उससे विशेष फर्क नहीं पड़ता क्योंकि प्रदेश अध्यक्ष कोई भी रहे , चलती मुख्यमंत्री की ही है |  


:रवीन्द्र वाजपेयी 

Saturday 10 December 2022

गुजरात और हिमाचल से आये सन्देश : मुफ्त उपहार की राजनीति ढलान पर



मुफ्त उपहारों की राजनीति किसने शुरू की ये शोध का विषय हो सकता है | लेकिन गुजरात और हिमाचल प्रदेश के ताजा  चुनाव परिणाम इशारा करते हैं कि खैरातों के वायदे पर चुनाव जीतने का फार्मूला हर जगह कारगर नहीं होता | यद्यपि दिल्ली  नगर निगम में आम आदमी पार्टी ने भाजपा को हरा दिया लेकिन पंजाब में विशाल बहुमत के साथ सरकार बना चुकी इस पार्टी को पड़ोसी हिमाचल में एक भी सीट नहीं मिली | वहीं गुजरात में भी अरविन्द केजरीवाल के दावों के बावजूद वह दहाई तक पहुँचने में विफल रही | हिमाचल में तो 68 में से  67 उम्मीदवार जमानत गँवा बैठे | गुजरात में यद्यपि उसे 12 फीसदी मत प्राप्त हुए लेकिन मुख्य विपक्षी दल बनने की योजना फुस्स होकर रह गई और  मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार भी हार गया | दरअसल  दिल्ली के  फॉर्मूले को अपनाकर पंजाब में सरकार बना लेने के बाद श्री केजरीवाल को ये मुगालता हो गया कि मुफ्त बिजली – पानी का वायदा हर राज्य में कामयाब हो जाएगा | गुजरात और हिमाचल तो खैर आम आदमी पार्टी के लिए नए मैदान थे लेकिन दिल्ली के स्थानीय निकाय चुनाव में भी उसे विधानसभा जैसा  भारी बहुमत नहीं मिला | और तो और  मतों का प्रतिशत भी काफी कम हो गया | यदि कांग्रेस वहां ज़रा सा भी जोर मारती तो आम आदमी पार्टी बहुमत से वंचित रह सकती थी | अनेक राजनीतिक विश्लेषकों ने   दिल्ली में आम आदमी पार्टी के प्रदर्शन पर श्री  केजरीवाल को आगाह किया कि उनका जादू ढलान पर है | इस चुनाव में भाजपा और आम आदमी पार्टी के बीच मतों का अंतर  भी बेहद कम हो गया और भाजपा ने तो अपने मत पिछले चुनाव की तुलना में बढ़ा लिए | दिल्ली की जनता का एक बड़ा वर्ग मुफ्त सुविधाओं  से प्रभावित नहीं हो रहा वरना भाजपा को जैसा श्री केजरीवाल दावा। करते रहे , 20 सीटें ही मिलतीं | इसी तरह के ऊंचे  दावे उन्होंने गुजरात में भी किये परन्तु  मुफ्त बिजली और दिल्ली के शिक्षा मॉडल का आकर्षण काम न आया |  मोदी विरोधी अभियान चलाने वाले जो पत्रकार दिल्ली नगर निगम में आम आदमी पार्टी की जीत पर श्री केजरीवाल को प्रधानमंत्री पद का चेहरा बताने में जुटे थे वे ही गुजरात के नतीजे आने के बाद उन्हें खलनायक बताते हुए ये कहते सुने जाने लगे कि राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा  हासिल करने के फेर में वे भाजपा को मजबूत कर रहे हैं और उनकी महत्वाकांक्षा  आगे पाट पीछे  सपाट साबित होगी | ऐसा सोचना गलत भी नहीं है क्योंकि राष्ट्रीय पार्टी के पास चूंकि उसका संगठन होता है इसलिए वह किसी प्रादेशिक नेता को भी राष्ट्रीय स्तर पर स्थापित कर सकती है | उस दृष्टि से आम आदमी पार्टी अभी बहुत पीछे है | उसे ये सोचना चाहिए कि मुफ्त बिजली और पानी जैसी सुविधाएँ निश्चित तौर पर काम करती हैं लेकिन उन्हें हर मर्ज की दवा मान लेना नासमझी है | दिल्ली में दो बार  विधानसभा चुनाव जीतने के बावजूद आम आदमी पार्टी पिछला  नगर निगम और लोकसभा चुनाव  हार गयी थी | जहां तक बात पंजाब की थी तो वहां अकाली भाजपा – गठबंधन टूटने के साथ ही कांग्रेस का अंदरूनी झगड़ा बढ़ने से मतदाता भ्रमित  थे | भाजपा का संगठन भी कमजोर था जिससे  आम आदमी पार्टी को मैदान साफ़ मिल गया | लेकिन  आतंकवाद के बीज दोबारा अंकुरित होने के साथ ही वहां कानून व्यवस्था की स्थित लगातार बिगड़ने के साथ ही  बिजली का संकट भी दिखने लगा है | इसी तरह दिल्ली में मध्यमवर्गीय बिजली उपभोक्ता इस बात से परेशान हैं कि मुफ्त की सीमा  से एक यूनिट ज्यादा बिजली जलते ही उनका बिल छलांगे मारने लगता है | हिमाचल में आम आदमी पार्टी के साथ ही कांग्रेस ने मुफ्त बिजली के साथ पुरानी पेंशन योजना बहाल करने का आश्वासन दे डाला | ऐसे में वहां के मतदाताओं ने क्षेत्रीय की बजाय राष्ट्रीय पार्टी को प्राथमिकता दी | भाजपा ने चूंकि इससे परहेज किया इसलिये  कांग्रेस से महज एक फीसदी मत कम पाने से वह लगभग 20 सीटें हार गई ।हालांकि  उसकी अपनी गलतियाँ ज्यादा जिम्मेदार रहीं | जहाँ तक बात गुजरात की है तो श्री केजरीवाल ने यहाँ जमकर मेहनत की | गली – गली घूमकर वचन पत्र बांटे | दिल्ली और पंजाब के उदाहरण भी पेश किये | पंजाब सरकार के पूर्ण पृष्ठ वाले विज्ञापन भी मतदाताओं को प्रभावित्त करने के उद्देश्य से प्रकाशित कराए गए परन्तु इसका असर नहीं पड़ा | निश्चित रूप से वह भाजपा का मजबूत किला है और प्रधानमंत्री और गृहमंत्री का घरेलू मैदान भी किन्तु दिल्ली में भाजपा के सातों सांसद होने के बाद भी आम आदमी पार्टी कामयाब हो गई | जिसका सबसे बड़ा कारण कांग्रेस का कमजोर हो जाना है | यही स्थिति गुजरात में भी साफ़ नजर  आ रही थी जहाँ कांग्रेस पूरी तरह भगवान भरोसे रही | उसके प्रभारी बने राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत अपने राज्य में पार्टी के भीतर चल रहे शीतयुद्ध में उलझे थे | दूसरी तरफ कांग्रेस के तमाम बड़े नेता राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा में चेहरा दिखाने में लगे रहे | जिसका लाभ आम आदमी पार्टी को मिला | लेकिन इसके पीछे मुफ्त बिजली के वायदे की कोई भूमिका नहीं है | कुल मिलाकर मुफ्त उपहारों की राजनीति के लिए ये चुनाव बड़ा झटका रहे  | सर्वोच्च न्यायालय और चुनाव आयोग भी समय – समय पर इस बारे में अपना ऐतराज जता चुके हैं | लेकिन राजनीतिक दलों के बीच मतैक्य न होने से बात आगे नहीं बढ़ पा रही | उ.प्र के पिछले चुनाव में भी सपा द्वारा भी मुफ्त बिजली का दांव चला गया था जिसे मतदाताओं ने नकार दिया | गुजरात और हिमाचल के चुनाव परिणाम आम आदमी पार्टी को ये नसीहत देने के लिए पर्याप्त हैं कि अव्वल तो राष्ट्रीय विकल्प बनने का उसका सपना जल्दबाजी है और दूसरा ये भी कि मुफ्त उपहार वाला तरीका लंबे सफर में काम नहीं आने वाला | दिल्ली के  राष्ट्रीय राजधानी होने से वहां विकास की समस्या नहीं रहती किन्तु बड़े राज्यों में मुफ्त सुविधाएँ सरकारी खजाना करने का कारण बन जाती हैं | एक वर्ग को खुश करने वाली योजना दूसरे वर्ग को नाराज करती है | उस दृष्टि से गुजरात में आम आदमी पार्टी के मंसूबे पूरे न होने के साथ ही हिमाचल में उसका सफाया मुफ्त उपहारों की राजनीति के दिन लदने का इशारा है | श्री केजरीवाल के लिए भी इन दोनों राज्यों के मतदाताओं ने ये संदेश छोड़ा है कि राष्ट्रीय पार्टी बनने के लिए केवल मतों का प्रतिशत नहीं अपितु व्यापक दृष्टिकोण और दूरगामी सोच चाहिए | साथ ही  बिना  संगठनात्मक ढांचे के पार्टी का फैलाव करना समय , शक्ति और संसाधनों की बर्बादी है | अतीत में ऐसा करने वाले अनेक क्षेत्रीय नेता इतिहास के पन्नों में गुम होकर रह गये | स्व. चौ. चरण सिंह और एच.डी देवगौड़ा भले ही प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंच गये लेकिन राष्ट्रीय नेता न बन सके |


:रवीन्द्र वाजपेयी

Friday 9 December 2022

उपराष्ट्रपति और सर्वोच्च न्यायालय के बीच टकराव अच्छा संकेत नहीं



 
राज्यसभा के सभापति की आसंदी पर विराजमान होते ही उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने  न्यायाधीशों की  नियुक्ति  संबंधी कालेजियम  व्यवस्था पर  टिप्पणी करते हुए कहा कि संसद सर्वोच्च है और उसके अधिकारों में न्यायपालिका  तभी  हस्तक्षेप कर सकती है जब संविधान की व्याख्या करने का कोई बड़ा मामला हो  | उच्च सदन में पहले ही दिन वे बोले कि न्यायिक नियुक्ति आयोग संबंधी संविधान संशोधन को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा रद्द करने  के बाद संसद की चुप्पी खेदजनक है | उन्होंने याद  दिलाया कि 2014 में दोनों सदनों ने उक्त संशोधन एकमत से पारित किया था जिसका  अधिकतर राज्यों ने भी  अनुमोदन किया | ऐसे में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा उसे संविधान के मूल ढांचे के विरुद्ध बताकर निरस्त कर देना दुर्भाग्यपूर्ण था | उनकी टिप्पणी पर सर्वोच्च न्यायालय ने गत दिवस जिस तरह की प्रतिक्रिया दी उससे लगता है ये विषय अहं की लड़ाई में बदल रहा है | न्यायाधीश संजय किशन कौल की अध्यक्षता वाली पीठ ने उपराष्ट्रपति की बात  पर ऐतराज जताते हुए कहा कि संसद को कानून बनाने का अधिकार है तो सर्वोच्च न्यायालय को उसकी समीक्षा का | ऐसे में उच्च संवैधानिक पदों पर बैठे लोगों द्वारा कालेजियम  की आलोचना किया जाना गलत है | पीठ ने अटॉर्नी जनरल से कहा  कि वे सरकार को बता दें कि कालेजियम देश का कानून होने से उसका पालन अपेक्षित है | श्री धनखड़ ने  राज्यसभा में पहले दिन  ही कालेजियम का विवाद छेड़कर संसद की सर्वोच्चता का जो मुद्दा उठाया  वह दरअसल केंद्र सरकार के रुख का ही समर्थन है |  कुछ दिन पहले उनके द्वारा एक समारोह में मुख्य न्यायाधीश श्री चंद्रचूड़ के समक्ष भी ये विषय  उठाया गया था | उपराष्ट्रपति खुद भी सर्वोच्च न्यायालय में बतौर अधिवक्ता कार्य कर चुके हैं | देखना ये है कि उसकी पीठ द्वारा उनको भेजे गये सन्देश पर उनकी क्या प्रतिक्रिया होती है ? स्मरणीय है श्री धनखड़ बतौर अधिवक्ता , सांसद , मंत्री और राज्यपाल अपनी बात दबंगी से कहने के लिए जाने जाते रहे हैं | ऐसे में माना जा सकता है कि वे श्री कौल की टिप्पणी पर चुप नहीं बैठेंगे | और तब  दूसरे सबसे बड़े संवैधानिक पद पर आसीन व्यक्ति का सर्वोच्च न्याय पीठ से सीधा टकराव अभूतपूर्व रहेगा | लेकिन ये संविधान में वर्णित नियंत्रण और संतुलन के सिद्धांत की भावना के विरुद्ध होगा | संसद द्वारा पारित और विधानसभाओं द्वारा अनुमोदित होने के  बाद किसी संविधान संशोधन को संविधान विरोधी बताकर खारिज किये जाने की आलोचना पर न्यायपालिका की ओर से अक्सर ये सुनाई देता है कि शाह बानो को गुजारा भत्ता दिए जाने के फैसले  को संसद ने  जब उलट दिया था तब वह क्या न्यायापलिका के कार्यक्षेत्र में हस्तक्षेप न था ? ऐसे में  ये प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि लोकतंत्र के तीन अंगों के बीच का ये टकराव किस सीमा तक जाएगा ? सबसे बड़ी बात है कि अब उपराष्ट्रपति भी इसमें शामिल हो गए हैं | सही बात ये है कि उपराष्ट्रपति ने न्यायिक नियुक्ति आयोग संशोधन को रद्द किये जाने पर संसद द्वारा साधी गयी चुप्पी को खेदजनक बताकर ठहरे हुए पानी में पत्थर फेक दिया है | ये  विचारणीय है कि सर्वसम्मति से पारित  संशोधन को न्यायपालिका द्वारा संविधान विरुद्ध मानने के बाद संसद  मुंह में दही जमाकर बैठ गयी | इसी तरह   कालेजियम  पर विपक्षी दलों का रवैया भी समझ से परे है | जब इसे लेकर चल रही बहस सार्वजनिक होती जा रही है और न्यायपालिका तथा  सरकार के साथ ही अब संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्ति द्वारा भी  अपना विचार रख दिया गया तब विधायिका से जुड़े लोग इस पर मौन रहें ये अटपटा लगता है | ये बात भी मायने रखती है कि श्री धनखड़  उच्च सदन के पीठासीन अधिकारी होने से  संसदीय प्रक्रिया के महत्वपूर्ण हिस्से भी हैं | उनका ये उलाहना विचारणीय है कि विधायी प्रक्रिया पूरी होने के बाद जो संविधान संशोधन अस्तित्व में आया उसे यदि सर्वोच्च न्यायालय ने असंवैधानिक कहते हुए रद्द कर दिया तब इतने सालों तक संसद ने उस बारे में कोई विचार क्यों नहीं किया ? यदि संसद अपने फैसले को सही मानती है  तब उसे न्यायपालिका से इस बारे में मंत्रणा करते हुए पूछना चाहिए कि संशोधन के किस हिस्से से उसे आपत्ति है और क्या उसे दूर करते हुए नया संशोधन लाया जा सकता है ? दूसरी तरफ न्यायपालिका का भी ये कहना श्रेष्ठता की भावना से प्रेरित है कालेजियम अमरत्व प्राप्त व्यवस्था है | इसे कानून बताना भी भ्रम पैदा करता है क्योंकि  इसका संविधान में कोई उल्लेख नहीं है | उस दृष्टि से सर्वोच्च न्यायालय की  पीठ ने अटॉर्नी जनरल के जरिये समझाइश की शक्ल में जो सन्देश  भेजा है वह नये ढंग के टकराव की वजह बन सकता है |  पीठ ने  स्पष्ट  कहा है कि जब तक कालेजियम है , उसे मानना होगा | साथ ही उसने संसद द्वारा बनाये गए कानून की समीक्षा करने की जो बात कही उसकी सीमाएं भी विचारणीय हैं | स्मरण रहे कालेजियम द्वारा भेजी गई सिफारिश को केंद्र सरकार द्वारा लौटाए जाने के बाद अगर वह दोबारा भेजी जाती है तब वह  उसे मानने बाध्य होती है | इसी तरह  संसद द्वारा पारित किसी विधेयक पर असहमत होकर राष्ट्रपति  उसे लौटा सकते हैं परंतु  दोबारा पारित होने पर वे उसे अनुमोदित करने बाध्य हैं | ऐसे में न्यायपालिका द्वारा रद्द किसी भी कानून को संसद दोबारा पारित कर देती है तब उसके बारे में सर्वोच्च न्यायालय क्या करेगा , ये भी स्पष्ट होना जरूरी है | हमारे संविधान में कार्यपालिका , विधायिका और न्यायपालिका सभी के अधिकार वर्णित हैं | ये भी  अपेक्षा है कि तीनों समन्वय बनाकर चलेंगे | अतीत में भी अनेक अवसरों पर टकराव के हालात बने किन्तु समाधान निकल आया | ये देखते हुए न्यायपालिका और कार्यपालिका को बैठकर कालेजियम व्यवस्था को लेकर उत्पन्न विवाद का हल भी तलाशना होगा अन्यथा दोनों की साख और नीयत पर सवाल उठेंगे | ये चिंता का विषय है कि न्यायपालिका के प्रति आम जनमानस में सम्मान और विश्वास दोनों घटा है | स्मरण रहे पूर्व लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी ने सर्वोच्च न्यायालय के सम्मन पर जाने से इंकार कर  दिया था |

: रवीन्द्र वाजपेयी 

Thursday 8 December 2022

गुजरात में इतिहास रचा पर हिमाचल की सर्दी में भी पसीना निकला भाजपा का



 
दिल्ली नगर निगम के चुनाव में सत्ता खोने  के बाद आज गुजरात विधानसभा के जो नतीजे आये उन्होंने भाजपा को सीना फुलाने का अवसर दे दिया | उसने न सिर्फ अपना , अपितु दशकों पहले कांग्रेस को मिली 149 सीटों का रिकॉर्ड तोड़ दिया  है | उसका आंकड़ा 158 हो गया है | वहीं कांग्रेस अपने इतिहास का सबसे खराब प्रदर्शन करते हुए 16 सीटों पर सिमट गई है | सरकार बनाने का दावा लिखकर देने  वाले अरविन्द केजरीवाल की आम आदमी पार्टी आधा दर्जन विधायक जितवाने में ही सफल हो सकी | लेकिन वह कांग्रेस  की जड़ों में  मठा डालने में कामयाबी जरूर हो गई  है | अनेक सीटों पर उसको 30 से 40 फीसदी मत मिलना धमाकेदार शुरुआत कही जा सकती है किन्तु इस दावे का सही विश्लेषण सभी नतीजे आने के बाद करना बेहतर होगा | लेकिन एक बात पूरी तरह साफ है कि आम आदमी पार्टी उन सभी राज्यों में कांग्रेस का सूपड़ा साफ़ करने की रणनीति पर चल रही है जहां उसका भाजपा से सीधा मुकाबला है | गुजरात में चूंकि कांग्रेस नेतृत्व विहीन थी इसलिए उसके द्वारा उत्पन्न शून्य को भरना इस पार्टी के लिए आसान था | राहुल गांधी चुनाव के पहले 10 दिन पड़ोसी म.प्र में यात्रा करते रहे लेकिन उन्होंने गुजरात में केवल एक दिन प्रचार कर कांग्रेस के आत्मसमर्पण की पुष्टि कर दी थी | भाजपा इसीलिये इस बार आसान जीत के प्रति आश्वस्त तो थी लेकिन 2017 की  यादें उसे आशंकित करती रहीं जिसकी वजह से प्रधानमंत्री ने पूरा जोर लगा दिया | भाजपा को ये चिंता भी थी कि आम आदमी पार्टी विकल्प के तौर पर न उभरे | बीते 27 साल से लगातार जीतने के बाद सत्ता में लौटने का कारनामा वाकई काबिले तारीफ है । खास तौर पर इसलिए क्योंकि गुजरात के मुख्यमंत्री का नाम  राज्य के बाहर भाजपाई तक नहीं जानते | ऐसे में ये सफलता श्री मोदी और अमित शाह की मेहनत का फल है | वैसे भी इस बात के लिए भाजपा की प्रशंसा करनी होगी कि पांच साल पहले लगे झटके के बाद उसने भविष्य की तैयारी शुरू कर दी | वहीं कांग्रेस जिन हार्दिक पटेल और अल्पेश ठाकोर के सहारे  आगे बढना चाहती थी वे ही उसे बीच रास्ते  छोडकर चले गये | उस लिहाज से भाजपा के पास तो इस शानदार  जीत का जश्न मनाने के तमाम कारण हैं किन्तु कांग्रेस चूंकि लड़ी ही नहीं इसलिए उसके लिए हार की समीक्षा भी समय की बर्बादी होगी | आम आदमी पार्टी को  वह सब तो हासिल नहीं हुआ जो वह सोच रही थी परंतु एकदम नई जमीन पर आकर उसने अपनी मौजूदगी दर्ज करवाते हुए ये सन्देश दे दिया है कि भाजपा विरोधी गठबंधन उसके बिना बनाना कठिन होगा | बहरहाल गुजरात में भाजपा की ऐतिहासिक जीत और कांग्रेस की शर्मनाक पराजय से किसी को आश्चर्य नहीं हुआ | आम आदमी पार्टी पर ये आरोप लगाना कि उसने कांग्रेस को हरवाया विश्लेषण का विषय तो है किन्तु उसका ये कहना वाजिब है कि वह अपना फैलाव इस कारण तो नहीं रोक सकती क्योंकि इससे किसी और को नुकसान होगा | लेकिन गुजरात से दूर हिमाचल प्रदेश के जो परिणाम आ रहे हैं उन्होंने आम आदमी पार्टी को इस आरोप से काफी हद तक बरी कर दिया क्योंकि वहां सुबह से  उतार चढाव के बाद अंततः कांग्रेस ने मैदान मार लिया  है | इस प्रकार इस राज्य की जनता ने हर चुनाव में सत्ता बदलने की परम्परा को बनाये रखा | हालाँकि हिमाचल का देश की राजनीति में खास दबदबा नहीं है लेकिन भाजपा के लिए ये हार इसलिए शर्मनाक है क्योंकि यह उसके राष्ट्रीय अध्यक्ष जगतप्रकाश नड्डा का गृह राज्य है | याद रहे पंजाब में सरकार बनाने  के फौरन बाद आम आदमी पार्टी ने हिमाचल में पाँव फैलाने का प्रयास किया था | लेकिन जल्द  ही उसे लग गया कि पहाड़ की जनता को आकर्षित करने में वह सफल नहीं होगी | इसी बीच दिल्ली नगर निगम के चुनाव आ गये | इस कारण पार्टी नेतृत्व  ने चतुराई दिखाते हुए यहाँ अपनी ताकत खर्च न करते हुए दिल्ली का गढ़ बचाने और राष्ट्रीय पार्टी बनने की गरज से गुजरात में ताल ठोकना  बेहतर समझा | तीनों नतीजे देखने के बाद ये कहा  जा सकता है कि फिलहाल तो उसकी सोच सही निकली | भाजपा ने दिल्ली  नगर निगम खोने के बाद गुजरात तो मोदी – शाह की साख और धाक पर न सिर्फ जीता अपितु इतिहास भी रच डाला परन्तु हिमाचल में वह इतिहास को दोहराने से रोकने में विफल रही | दोपहर दो बजे तक जो आंकड़े आये थे उनके अनुसार हिमाचल में कांग्रेस को बहुमत से चार – पांच सीटें  ज्यादा मिल गई हैं | वहीं भाजपा  तीस से भी नीचे चली गयी और निर्दलीय मिलाकर भी बहुमत से दूर है | इसलिए जोड़तोड़ के जरिये सरकार बना लेने की सम्भावना भी उसके हाथ से खिसक गई है | दरअसल इस छोटे से राज्य में भाजपा के कुछ बड़े नेता लम्बे समय से आपसी लड़ाई में उलझे हुए हैं | केन्द्रीय नेतृत्व भी स्थायी इलाज की बजाय  प्राथमिक चिकित्सा कर शांत बैठ जाता है | इस बार बड़ी संख्या में विधायकों की टिकिटों को काटने के कारण अनेक बागी खड़े हो गये जिन्हें मनाने की बजाय उन्हें हल्के में लिया गया जिसका नुकसान  सामने है | वैसे भी हिमाचल में सरकारी कर्मचारी चुनाव को काफी प्रभावित करते हैं |  जिनका सरकार से नाराज होना परम्परा है | इस बार उनकी  नाराजगी भाजपा को भारी पड़ी | आपसी झगड़े कांग्रेस में भी कम नहीं हैं किन्तु प्रियंका वाड्रा ने इस राज्य की कमान संभालकर स्थानीय छत्रपों को जिस तरह शांत किया उसकी वजह से वह एकजुट होकर लड़ी | उस दृष्टि से हिमाचल की जीत का श्रेय काफी कुछ श्रीमती वाड्रा को भी मिलना चाहिए | पार्टी के भीतर इस जीत से उनकी  स्वीकार्यता निश्चित रूप से बढ़ेगी जो उ.प्र में बेहद बुरे प्रदर्शन के बाद सवालों के घेरे में थी | इस प्रकार कल से आज तक जो तीन बड़े नतीजे देखने मिले उनमें  भाजपा , आम आदमी पार्टी और कांग्रेस तीनों  को कहीं खुशी , कहीं गम का एहसास हो गया | हालाँकि इससे कांग्रेस का मौजूदा संकट दूर हो जाएगा और आम आदमी पार्टी राष्ट्रीय विकल्प बन जायेगी ये खुशफहमी पालना जल्दबाजी होगी | लेकिन भाजपा के लिए ये नतीजे चेतावनी हैं | उसे ये बात समझ लेनी चाहिए कि प्रधानमंत्री देश के सबसे लोकप्रिय नेता हैं और आगामी  लोकसभा चुनाव में भी पार्टी की नैया पार लगाने में सक्षम हैं ,लेकिन जहां प्रादेशिक स्तर के भाजपा नेता कमजोर हैं वहां वह जीत को जेब में मानकर नहीं चल सकती | गुजरात इसलिए अपवाद है क्योंकि वहां भाजपा औए मोदी समानार्थी हैं | ये देखते हुए कर्नाटक , राजस्थान , छत्तीसगढ़ और म.प्र के आगामी चुनाव भाजपा के लिए आसान नहीं रहेंगे | आज ही कुछ उपचुनावों के जो नतीजे आ रहे हैं वे भी भाजपा के लिए बुरी खबर हैं |

:रवीन्द्र वाजपेयी