नेपाल एक स्वतंत्र देश है | इसलिये वहां कौन प्रधानमंत्री बने ये उसका आंतरिक मामला है | लेकिन निकटस्थ पड़ोसी होने के साथ ही ये पहाड़ी देश भावनात्मक तौर पर भारत के बेहद करीब है | हिन्दू बहुल होने से दोनों में सांस्कृतिक रिश्ते सदियों से कायम हैं | कुछ दशक पहले तक नेपाल विश्व का एकमात्र हिन्दू देश था किन्तु चीन की कुटिल रणनीति के प्रभावस्वरूप वहां राजतन्त्र समाप्त होकर लोकतंत्र तो आया लेकिन उस पर चीन की छाया होने से भारत विरोधी भावना बलवती होने लगी | यद्यपि बीच – बीच में ऐसी सरकारें भी आईं जिन्होंने अच्छे रिश्ते बनाये परन्तु घूम फिरकर चीन समर्थक माओवादी ही सत्ता में आते रहे जिससे भारत के साथ तल्खी बढ़ते – बढ़ते सीमा विवाद तक आ पहुँची | 2021 में जब चीन के साथ भारत गलवान में उलझा हुआ था तभी नेपाल की के.पी शर्मा ओली की सरकार ने हमारे कुछ हिस्सों पर दावा ठोककर युद्ध के हालात बना दिए | उस समय वहां पूरी तरह से चीन के निर्देशों पर काम हो रहा था | यहाँ तक कि प्रधानमंत्री कार्यालय तक में चीन की राजदूत दखल देने लेगी थीं | हालाँकि चीनी हस्तक्षेप के विरुद्ध जनता सडकों पर भी उतरी | बाद में वह सरकार चलती बनी और भारत से रिश्तों में कुछ सुधार हुआ लेकिन 2022 के आखिर में सम्पन्न चुनाव हमारे लिए चिंता का नया नया कारण हैं | चुनाव में माओवादी नेता पुष्प कमल दहल प्रचंड और भारत समर्थक शेर बहादुर देउबा के बीच गठबंधन था | लेकिन परिणाम के बाद उनके बीच विवाद होने से प्रचंड ने चीन के पिट्ठू पूर्व प्रधानमंत्री के.पी शर्मा ओली से हाथ मिलाकर पहले ढाई साल तक प्रधानमंत्री बनने का समझौता कर लिया | वे पहले भी प्रधानमंत्री रह चुके हैं और चीन समर्थक भी किन्तु बाद के वर्षों में उनका वामपंथियों से मतभेद हो गया | ये भी कहा जाने लगा कि वे माओवादी विचारधारा से दूर जा चुके हैं | चुनाव में भारत समर्थक देउबा के साथ गठबंधन से इस अवधारणा की पुष्टि भी हुई किन्तु नतीजे आने के बाद प्रचंड ने चीन समर्थक ओली के साथ ढाई – ढ़ाई साल तक प्रधानमंत्री बनने का जो समझौता किया वह भारत के लिए शुभ संकेत नहीं है | भले ही प्रचंड का माओवाद पहले जैसा न रहा हो और ओली के साथ जुगलबंदी महज अवसरवाद हो लेकिन भारत के लिए ये गठजोड़ करेला और नीम चढ़ा वाली कहावत जैसा है | दरअसल प्रचंड प्रधानमंत्री बनने के बावजूद रहेंगे ओली के नियन्त्रण में ही जिससे सरकार पर चीन का शिकंजा सुनिश्चित है | बीते दो साल में चीन ने भारतीय सीमा पर सैन्य तनाव उत्पन्न करते रहने की जो नीति अपनाई है वह किसी दूरगामी योजना का हिस्सा है | नेपाल ने भी उसी के बहकावे में आकर भारत के साथ विवाद को सेना की तैनाती तक बढ़ा दिया था | इसी तरह सीमावर्ती तराई क्षेत्र में बसे भारतीय मूल के मधेसियों के प्रति भेदभाव और दमनकारी रवैये के अलावा नेपाल में कार्यरत भारतीय व्यापारियों पर हमले की वारदातों में वृद्धि के पीछे चीन का हाथ सर्वविदित है | इस सबके बीच उम्मीद की एक किरण ये है कि नेपाल में जनता के बीच से चीन का विरोध उभर रहा है | एक बड़ा वर्ग जिसमें युवा भी हैं उसके बढ़ते दखल से चिंतित है | उन्हें आशंका है कि देर सवेर उनके देश का हश्र भी तिब्बत जैसा हो सकता है | सबसे बड़ी बात ये है कि प्रचंड सहित अनेक माओवादी नेता राजतन्त्र के विरुद्ध संघर्ष के दौरान निर्वासन के दौरान भारत में रहे थे | हमारे देश के वामपंथी उनकी मिजाजपुर्सी करते रहे | कुछ साल पहले जब प्रचंड का अन्य माओवादियों के साथ विवाद बढ़ा था तब भारत से सीपीएम नेता सीताराम येचुरी बीच बचाव करने भी गये थे | लेकिन भारत के मार्क्सवादी नेताओं ने नेपाल के माओवादी नेताओं को भारत का विरोध करने से रोका हो ऐसा देखने और सुनने में नहीं आया | बहरहाल नेपाल में हुए ताजा सत्ता परिवर्तन पर भारत को पैनी निगाह रखनी होगी | अरुणाचल में चीन के साथ हुई हालिया झड़प के बाद ही काठमांडू में माओवादियों का सत्ता पर कब्ज़ा कर लेना भारत के लिए परेशानी का बड़ा कारण हो सकता है | चीन जिस तरह की आंतरिक उथलपुथल से जूझ रहा है उसके चलते वह भारत से सीधे न टकराते हुए नेपाल के कंधे पर रखकर बन्दूक चला सकता है | इसलिए अतिरिक्त सतर्कता की जरूरत है | कूटनीतिक सूत्रों के जरिये नेपाल की जनता के मन में भरी गई भारत विरोधी भावनाओं को दूर करना भी जरूरी है | ऐसा करना बहुत कठिन भी नहीं है क्योंकि वहां ऐसे लोगों की बड़ी संख्या है जो भारत के साथ सांस्कृतिक , सामाजिक , आर्थिक और पारिवारिक तौर पर जुड़े हैं | भारत में लाखों नेपाली कार्यरत हैं | भारतीय सेना में नेपाली जवानों की भर्ती होती है | मधेसी लोग तो शादी तक बिहार और पूर्वी उ.प्र में करते हैं | नेपाल के प्रमुख परिवारों के भारत में रोटी - बेटी के रिश्ते हैं | ऐसे में वहां चीन के प्रभाव को कम किया जा सकता है | लेकिन इसके लिए एक ठोस और दूरगामी नीति बनाकर नेपाली जनता को ये समझाये जाने की जरूरत है कि चीन की उस पर गिद्ध दृष्टि है और उसकी ओर से आने वाले किसी भी संकट के समय भारत ही उसका मददगार साबित होगा | भूटान इसका जीवंत प्रमाण है जो भारतीय सेना की मुस्तैदी के कारण ही अब तक सुरक्षित है वरना उसका अस्तित्व काफी पहले खत्म हो चुका होता |
: रवीन्द्र वाजपेयी
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