Tuesday 27 December 2022

हर साल होने वाले चुनाव निर्णय प्रक्रिया में बाधक



वर्ष 2023 में देश की अर्थव्यवस्था क्या रूप लेगी, विकास दर का आंकड़ा किस ऊंचाई को छुएगा, बेरोजगारी की मौजूदा स्थिति में सुधार होगा अथवा नहीं, कच्चे तेल के आयात पर निर्भरता कितनी घटेगी, चीन में कोरोना की वापसी से हमारे विदेशी व्यापार को कितना लाभ होगा और सीमा पर चीन तथा पाकिस्तान द्वारा पैदा किए जाने संकट का मुकाबला हम किस तरह करेंगे, जैसे अनेक मुद्दों पर राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में व्यापक विचार विमर्श की जरूरत है। आखिरकार इन सबका असर प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से आम जनता के जीवन पर पड़ता है। लेकिन इन सबसे हटकर जहां देखो इस बात की चर्चा है कि 2023 में जिन 10 राज्यों में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं वहां की राजनीति किस करवट बैठेगी ? इन राज्यों में देश के उत्तर, दक्षिणी, पूर्वोत्तर, मध्य और पश्चिम के राज्य हैं। इस प्रकार ये एक तरह के लघु आम चुनाव जैसा होगा। हालांकि विभिन्न राज्यों के चुनाव अलग अलग महीनों में होंगे किंतु लगभग पूरे साल न सिर्फ  चुनाव आयोग और राजनीतिक दल वरन समाचार माध्यम, विश्लेषक एवं संबंधित राज्यों के प्रशासन सहित केंद्रीय सुरक्षा एजेंसियां सब छोड़कर चुनाव के इर्द गिर्द केंद्रित हो जायेंगी। जाहिर है आम जनता के लिए भी चुनाव चौराहे से लेकर काफी हाउस तक की चर्चा का विषय बन जाते हैं। और बनें भी तो क्यों नहीं आखिर जनतंत्र है ही जनता से जुड़ा तंत्र जिसे चलाते रहने के लिए चुनाव नामक प्रणाली का सृजन किया गया किंतु भारत जैसे विकासशील देश में हर समय चुनाव का माहौल बना रहने से एक तो राजनीति का अतिरेक हो गया है दूसरा इसका दुष्प्रभाव हमारी विकास योजनाओं पर भी पड़ता है। चुनाव जीतने के लिए सभी राजनीतिक दल तात्कालिक लाभ देने वाले जो वायदे करते हैं उनका अर्थव्यवस्था पर बुरा प्रभाव पड़ता है। विभिन्न राज्यों के खाली खजाने इसका प्रमाण हैं। चुनाव जीतने के लिए क्षेत्रीय दल जो वायदे करते हैं वे अक्सर राष्ट्रीय हितों से मेल नहीं खाते। और फिर अलग-अलग राज्यों के चुनाव की समय सारिणी अलग-अलग होने से क्षेत्रीय भावनाएं भड़काकर वोट बटोरने का दांव चला जाता है। कर्नाटक और महाराष्ट्र के बीच बेलगाम का विवाद दशकों से चला आ रहा है। हाल ही में इसे लेकर दोनों राज्यों के बीच हिंसक संघर्ष हुआ। एक दूसरे के वाहनों की आवाजाही रोक दी गई। तोडफ़ोड़ और आगजनी भी देखने मिली। दोनों तरफ के नेताओं के बयानों से लगा जैसे दो शत्रु राष्ट्र आमने सामने हों। इस विवाद के भड़कने के पीछे कुछ महीने बाद होने वाले कर्नाटक विधानसभा के चुनाव ही हैं। जम्मू कश्मीर के अलावा त्रिपुरा, मेघालय, मिजोरम और नागालैंड जैसे राज्यों में भी चुनाव की रणभेरी सुनाई दे रही है। ये राज्य सीमावर्ती होने से विशेष प्रकार की समस्याओं से जूझ रहे हैं। तेलंगाना, छत्तीसगढ़, राजस्थान और म. प्र में भी 2023 में विधानसभा चुनाव होने हैं। वहां की मौजूदा सरकार और विपक्षी दल सब काम छोड़ चुनाव की तैयारियों में जुट गए हैं । भले ही चुनाव राज्यों की सत्ता के लिए हो रहे हों लेकिन केंद्र सरकार भी उसमें पूरी ताकत से कूदेगी। इसकी वजह 2024 में होने वाला लोकसभा चुनाव है जिसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा की प्रतिष्ठा दांव पर होगी। चूंकि भाजपा राज्यों के चुनाव में भी श्री मोदी को ही चेहरा बनाती है इसलिए वह विधानसभा चुनाव में भी उनको अग्रिम मोर्चे पर रखती है। 2022 में हुए 7 विधानसभा चुनावों में भाजपा ने 5 जीतकर अपना विजय अभियान जारी रखा है । हारे हुए राज्य में पंजाब तो खैर, कांग्रेस के पास था जिसमें आम आदमी पार्टी ने फतह हासिल की किंतु हिमाचल प्रदेश में जरूर उसे झटका लगा क्योंकि ये उसके राष्ट्रीय अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा का गृह राज्य है किंतु गुजरात में धमाकेदार जीत ने प्रधानमंत्री का रुतबा बरकरार रखा। लेकिन दिल्ली नगर निगम के चुनाव में भाजपा की हार उसके लिए विचारणीय है। इसीलिए 2023 में होने वाले 10 विधानसभा चुनावों में भाजपा पूरी ताकत लगायेगी। जाहिर है केंद्र सरकार की भी इन राज्यों में अप्रत्यक्ष रूप से मौजूदगी नजऱ आयेगी। आशय ये है कि इन चुनावों के कारण एक तो केंद्रीय स्तर पर नीतिगत ठहराव बना रहेगा वहीं दूसरी तरफ  राज्यों में काबिज सरकारें खजाना खाली करने में जुटेंगी। राजनीतिक दल भी बिना सोचे समझे अव्यवहारिक वायदों के साथ मतदाताओं को लुभाने की कोशिश करेंगे। ये लघु आम चुनाव आगामी लोकसभा चुनाव का पूर्वाभ्यास होने से केंद्र सरकार नीतिगत निर्णय लेने से बचेगी जिनसे राज्यों के चुनाव में भाजपा को नुकसान न पहुंचे। लेकिन इस सबसे ऊपर विचारणीय मुद्दा ये है कि लोकसभा चुनाव के पूर्व ही देश में इतनी बड़ी चुनावी हलचल से केन्द्र सहित राज्यों का प्रशासनिक कार्य प्रभावित होगा। बजट जैसे महत्वपूर्ण कार्यों पर भी राजनीति हावी रहेगी। हर वर्ष कहीं न कहीं चुनाव होते रहने से अनेक समस्याओं को हल करने का साहस केन्द्र और राज्य सरकारें नहीं कर पा रहीं। सत्ता और विपक्ष कुछ विषयों पर सहमत होने के बाद भी एक साथ नहीं खड़े हो पाता क्योंकि चुनाव आड़े आ जाते हैं। बेहतर हो सर्वोच्च न्यायालय और चुनाव आयोग इस बारे में अपने प्रभाव का उपयोग करते हुए आम चुनाव की पुरानी परंपरा वापस लाने हेतु राजनीतिक दलों को इस हेतु प्रेरित करें। चुनाव लोकतंत्र के लिये प्राणवायु हैं किन्तु देश के हितों का ध्यान में रखकर व्यवस्था में समयानुकूल परिवर्तन भी जरूरी है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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