राज्यसभा के सभापति की आसंदी पर विराजमान होते ही उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने न्यायाधीशों की नियुक्ति संबंधी कालेजियम व्यवस्था पर टिप्पणी करते हुए कहा कि संसद सर्वोच्च है और उसके अधिकारों में न्यायपालिका तभी हस्तक्षेप कर सकती है जब संविधान की व्याख्या करने का कोई बड़ा मामला हो | उच्च सदन में पहले ही दिन वे बोले कि न्यायिक नियुक्ति आयोग संबंधी संविधान संशोधन को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा रद्द करने के बाद संसद की चुप्पी खेदजनक है | उन्होंने याद दिलाया कि 2014 में दोनों सदनों ने उक्त संशोधन एकमत से पारित किया था जिसका अधिकतर राज्यों ने भी अनुमोदन किया | ऐसे में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा उसे संविधान के मूल ढांचे के विरुद्ध बताकर निरस्त कर देना दुर्भाग्यपूर्ण था | उनकी टिप्पणी पर सर्वोच्च न्यायालय ने गत दिवस जिस तरह की प्रतिक्रिया दी उससे लगता है ये विषय अहं की लड़ाई में बदल रहा है | न्यायाधीश संजय किशन कौल की अध्यक्षता वाली पीठ ने उपराष्ट्रपति की बात पर ऐतराज जताते हुए कहा कि संसद को कानून बनाने का अधिकार है तो सर्वोच्च न्यायालय को उसकी समीक्षा का | ऐसे में उच्च संवैधानिक पदों पर बैठे लोगों द्वारा कालेजियम की आलोचना किया जाना गलत है | पीठ ने अटॉर्नी जनरल से कहा कि वे सरकार को बता दें कि कालेजियम देश का कानून होने से उसका पालन अपेक्षित है | श्री धनखड़ ने राज्यसभा में पहले दिन ही कालेजियम का विवाद छेड़कर संसद की सर्वोच्चता का जो मुद्दा उठाया वह दरअसल केंद्र सरकार के रुख का ही समर्थन है | कुछ दिन पहले उनके द्वारा एक समारोह में मुख्य न्यायाधीश श्री चंद्रचूड़ के समक्ष भी ये विषय उठाया गया था | उपराष्ट्रपति खुद भी सर्वोच्च न्यायालय में बतौर अधिवक्ता कार्य कर चुके हैं | देखना ये है कि उसकी पीठ द्वारा उनको भेजे गये सन्देश पर उनकी क्या प्रतिक्रिया होती है ? स्मरणीय है श्री धनखड़ बतौर अधिवक्ता , सांसद , मंत्री और राज्यपाल अपनी बात दबंगी से कहने के लिए जाने जाते रहे हैं | ऐसे में माना जा सकता है कि वे श्री कौल की टिप्पणी पर चुप नहीं बैठेंगे | और तब दूसरे सबसे बड़े संवैधानिक पद पर आसीन व्यक्ति का सर्वोच्च न्याय पीठ से सीधा टकराव अभूतपूर्व रहेगा | लेकिन ये संविधान में वर्णित नियंत्रण और संतुलन के सिद्धांत की भावना के विरुद्ध होगा | संसद द्वारा पारित और विधानसभाओं द्वारा अनुमोदित होने के बाद किसी संविधान संशोधन को संविधान विरोधी बताकर खारिज किये जाने की आलोचना पर न्यायपालिका की ओर से अक्सर ये सुनाई देता है कि शाह बानो को गुजारा भत्ता दिए जाने के फैसले को संसद ने जब उलट दिया था तब वह क्या न्यायापलिका के कार्यक्षेत्र में हस्तक्षेप न था ? ऐसे में ये प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि लोकतंत्र के तीन अंगों के बीच का ये टकराव किस सीमा तक जाएगा ? सबसे बड़ी बात है कि अब उपराष्ट्रपति भी इसमें शामिल हो गए हैं | सही बात ये है कि उपराष्ट्रपति ने न्यायिक नियुक्ति आयोग संशोधन को रद्द किये जाने पर संसद द्वारा साधी गयी चुप्पी को खेदजनक बताकर ठहरे हुए पानी में पत्थर फेक दिया है | ये विचारणीय है कि सर्वसम्मति से पारित संशोधन को न्यायपालिका द्वारा संविधान विरुद्ध मानने के बाद संसद मुंह में दही जमाकर बैठ गयी | इसी तरह कालेजियम पर विपक्षी दलों का रवैया भी समझ से परे है | जब इसे लेकर चल रही बहस सार्वजनिक होती जा रही है और न्यायपालिका तथा सरकार के साथ ही अब संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्ति द्वारा भी अपना विचार रख दिया गया तब विधायिका से जुड़े लोग इस पर मौन रहें ये अटपटा लगता है | ये बात भी मायने रखती है कि श्री धनखड़ उच्च सदन के पीठासीन अधिकारी होने से संसदीय प्रक्रिया के महत्वपूर्ण हिस्से भी हैं | उनका ये उलाहना विचारणीय है कि विधायी प्रक्रिया पूरी होने के बाद जो संविधान संशोधन अस्तित्व में आया उसे यदि सर्वोच्च न्यायालय ने असंवैधानिक कहते हुए रद्द कर दिया तब इतने सालों तक संसद ने उस बारे में कोई विचार क्यों नहीं किया ? यदि संसद अपने फैसले को सही मानती है तब उसे न्यायपालिका से इस बारे में मंत्रणा करते हुए पूछना चाहिए कि संशोधन के किस हिस्से से उसे आपत्ति है और क्या उसे दूर करते हुए नया संशोधन लाया जा सकता है ? दूसरी तरफ न्यायपालिका का भी ये कहना श्रेष्ठता की भावना से प्रेरित है कालेजियम अमरत्व प्राप्त व्यवस्था है | इसे कानून बताना भी भ्रम पैदा करता है क्योंकि इसका संविधान में कोई उल्लेख नहीं है | उस दृष्टि से सर्वोच्च न्यायालय की पीठ ने अटॉर्नी जनरल के जरिये समझाइश की शक्ल में जो सन्देश भेजा है वह नये ढंग के टकराव की वजह बन सकता है | पीठ ने स्पष्ट कहा है कि जब तक कालेजियम है , उसे मानना होगा | साथ ही उसने संसद द्वारा बनाये गए कानून की समीक्षा करने की जो बात कही उसकी सीमाएं भी विचारणीय हैं | स्मरण रहे कालेजियम द्वारा भेजी गई सिफारिश को केंद्र सरकार द्वारा लौटाए जाने के बाद अगर वह दोबारा भेजी जाती है तब वह उसे मानने बाध्य होती है | इसी तरह संसद द्वारा पारित किसी विधेयक पर असहमत होकर राष्ट्रपति उसे लौटा सकते हैं परंतु दोबारा पारित होने पर वे उसे अनुमोदित करने बाध्य हैं | ऐसे में न्यायपालिका द्वारा रद्द किसी भी कानून को संसद दोबारा पारित कर देती है तब उसके बारे में सर्वोच्च न्यायालय क्या करेगा , ये भी स्पष्ट होना जरूरी है | हमारे संविधान में कार्यपालिका , विधायिका और न्यायपालिका सभी के अधिकार वर्णित हैं | ये भी अपेक्षा है कि तीनों समन्वय बनाकर चलेंगे | अतीत में भी अनेक अवसरों पर टकराव के हालात बने किन्तु समाधान निकल आया | ये देखते हुए न्यायपालिका और कार्यपालिका को बैठकर कालेजियम व्यवस्था को लेकर उत्पन्न विवाद का हल भी तलाशना होगा अन्यथा दोनों की साख और नीयत पर सवाल उठेंगे | ये चिंता का विषय है कि न्यायपालिका के प्रति आम जनमानस में सम्मान और विश्वास दोनों घटा है | स्मरण रहे पूर्व लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी ने सर्वोच्च न्यायालय के सम्मन पर जाने से इंकार कर दिया था |
: रवीन्द्र वाजपेयी
No comments:
Post a Comment