Wednesday 31 March 2021

धार्मिक ध्रुवीकरण : पहला पत्थर वो मारे जिसने कभी अपराध न किया हो



बंगाल के चुनाव में इस बात की चर्चा जोरों पर है कि भाजपा  हिन्दुओं का ध्रुवीकरण करते हुए चुनावी वैतरणी पार करना चाह रही है | वहां जय श्री राम का नारा भाजपा की पहिचान बन गया है | चुनाव सर्वेक्षण करने वाले भी  जब किसी  भाजपा समर्थक से परिणामों के बारे में पूछते हैं  तो वह कहता है इस बार जय श्री राम जीतेगा | ममता बैनर्जी के सामने इस नारे को लगाने वाले उनकी नाराजगी का शिकार हुए तो ये उन्हें चिढ़ाने का जरिया बन गया | ये कहने वाले भी कम नहीं हैं कि बंगाल में धार्मिक आधार पर मतदाताओं को गोलबंद करने का ये प्रथम  प्रयास है | चूँकि भाजपा पहली बार बंगाल के राजनीतिक नक़्शे में अपनी जगह बनाती दिख रही है इसलिए चुनावी लड़ाई का पूरा फोकस   तृणमूल कांग्रेस  और भाजपा पर  है | ममता ने भी ये मान लिया है कि उनका मुकाबला भाजपा से है | ये चौंकाने वाली बात है कि बंगाल पर  तीन दशक से ज्यादा राज करने वाली वामपंथी पार्टियों में अपने बल पर चुनाव लड़ने की ताकत नहीं बची और वे कांग्रेस  के अलावा भडकाऊ भाषणों की लिए कुख्यात  फुरफुरा शरीफ नामक मुस्लिम धार्मिक केन्द्र के पीरजादा अब्बास सिद्दीकी के साथ गठबंधन करने बाध्य हो गये |  इस चुनाव में तृणमूल सरकार की वापिसी के पक्ष में सबसे बड़ा आधार  30 फीसदी मुस्लिम मतदाताओं का एकमुश्त समर्थन माना जा रहा है | राज्य की सबसे चर्चित सीट नंदीग्राम में ममता की विजय की सम्भावना का प्रमुख कारण वहां के लगभग 65 हजार मुस्लिम मतदाता हैं जिनका 80 फीसदी हिस्सा  तृणमूल को मिलने  के दावे किये जा रहे हैं | ममता समर्थक ये मानते हैं कि भाजपा द्वारा हिंदू मतों के ध्रुवीकरण  की जोरदार कोशिशों के बावजूद ममता को उनका 40  प्रतिशत तो मिलेगा ही और इस आधार पर उनकी जीत सुनिश्चित है | ये बात भी तेजी से प्रचारित की जा रही है कि फुरफुरा शरीफ के अनुयायी भी संयुक्त मोर्चे की बजाय तृणमूल को मत देंगे ताकि   मुस्लिम मतों का बंटवारा रोका जा सके | उल्लेखनीय है बिहार  में असदुद्दीन ओवैसी द्वारा मुस्लिम मतदाताओं में बंटवारा किये जाने पर  तेजस्वी यादव के हाथ आते - आते सत्ता खिसक गई थी | उसके बाद ओवैसी ने बंगाल में भी आमद दर्ज कराई लेकिन अब्बास सिद्दीकी के कारण वे ठन्डे हो गये | हालाँकि कॉंग्रेस और वामपंथियों को फुरफुरा शरीफ के पीरजादा से हाथ मिलाने पर काफ़ी आलोचना झेलनी पड़ी | जैसा कहा जा रहा है कि संयुक्त मोर्चे की रणनीति मुस्लिम मतों में विभाजन करवाकर त्रिशंकु विधानसभा बनवाने की है ताकि ममता से सौदेबाजी की जा सके | ये कितनी कामयाब होती है ये तो 2 मई को ज्ञात होगा परन्तु  हिन्दू ध्रुवीकरण पर चिंता जताने वाले मुस्लिम मतों को ममता के पक्ष में गोलबंद होने की संभावना से खुश हैं | हालांकि  इस बात का जवाब कोई नहीं दे रहा कि आखिर  बंगाल की राजनीति में हिन्दू कार्ड खेलने की गुंजाईश किसने पैदा की ? इस बारे में एक वामपंथी ने खुलकर ये कहा कि  वाममोर्चे ने दशकों तक बंगाल पर राज किया लेकिन हिन्दुओं को ये महसूस नहीं होने दिया कि उनकी उपेक्षा करते हुए मुस्लिम तुष्टीकरण किया जा रहा हैं | जबकि ममता ने महज दस साल में हिन्दुओं के बीच नाराजगी बढ़ा दी | ऐसे में हिन्दू मतों को गोलबंद करते हुए बंगाल में कमल खिलाने की कोशिश क्रिया की प्रतिक्रया ही है | जो तबका मुस्लिमों के थोक में भाजपा के विरुद्ध मत करने की संभावना को धर्मनिरपेक्षता मान रहा है उसे हिन्दुओं के भाजपा के पक्ष में लामबंद होने के दावों में साम्प्रदायिकता नजर आना दोहरा मापदंड है | इस बारे में अब ये बात  तेजी से चल रही है कि  देश में धार्मिक आधार पर पहले मुस्लिमों का  ध्रुवीकरण हुआ | इसकी शुरुवात कांग्रेस ने की लेकिन बाद में लालू - मुलायम सरीखे क्षेत्रीय नेता इस वोट बैंक को ले उड़े जो उप्र और बिहार में कांग्रेस की दयनीय स्थिति का कारण बना | भाजपा ने तो 1989 से खुलकर हिन्दू कार्ड खेलना  शुरू किया जिसका उसे लाभ हुआ और 25 साल के भीतर देश की सत्ता पर काबिज हो गई और वह भी अपने दम पर | उसके इस पैंतरे के बाद बाकी पार्टियां किसी तरह मुस्लिम मतों का अपने पक्ष में ध्रुवीकरण करने में जुट गई जिनमें तृणमूल भी अग्रणी कही जायेगी | अब जबकि जवाब में हिन्दू मतों को एकजुट करने की कोशिश भाजपा ने शुरू  की तो धर्मनिरपेक्षता के लिए खतरे का ढोल पीटा जाने लगा | मुस्लिम मतों का पूरा हिस्सा  साथ होने का दावा करने वाले किस मुंह से ये कहते हैं कि हिन्दू धार्मिक आधार पर थोक के भाव किसी पार्टी के साथ नहीं जायेंगे | चुनावी पंडित भी जब किसी पार्टी या उम्मीदवार के जीतने का अनुमान लगते समय मुस्लिम  मतों के  सामूहिक समर्थन की बात करते है तब क्या वे हिन्दू मतदाताओं को एकजुट होने के लिए प्रेरित नहीं करते ? सांप्रदायिक आधार पर मतदाताओं को गोलबंद करना आदर्श स्थिति नहीं है लेकिन मुस्लिम मतदाताओं को ऐलानिया किसी पार्टी का पक्षधर बताये जाने वाले दूसरे धर्म के मतदाताओं से धार्मिक आधार पर मतदान न  किये जाने की अपेक्षा करें तो ये सिवाय पाखंड के और क्या है ? ईसा मसीह का एक प्रसिद्ध कथन  है कि किसी अपराधी को पहला पत्थर वो मारे जिसने कभी  अपराध न किया हो | मुस्लिम ध्रुवीकरण के जन्मदाताओं को हिन्दू ध्रुवीकरण पर उँगलियाँ उठाने से पहले अपने गिरेबान में झांकना चाहिए | वैसे हिन्दू मतों का महत्व ममता को भी समझ आ चुका है | चंडीपाठ और मंदिर दर्शन के बाद गत दिवस उन्होंने अपना गोत्र भी सार्वजनिक कर दिया | चुनाव जो न करवाए थोड़ा है |

- रवीन्द्र वाजपेयी

Saturday 27 March 2021

ढाका यात्रा में निहित हैं चीन और पाकिस्तान के लिए संदेश



प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लम्बे अंतराल के बाद विदेश यात्रा पर गत दिवस बांग्लादेश पहुंचे | कोरोना के कारण  बीते एक साल से भी ज्यादा से वे देश से बाहर नहीं गए थे | इस यात्रा के लिए बांग्लादेश का चयन बेहद महत्वपूर्ण है क्योंकि इस वर्ष वह अपनी स्थापना की आधी सदी पूरी कर रहा है | ये भी सुखद संयोग है कि वहां प्रधानमंत्री पद पर बांग्लादेश के राष्ट्रपिता शेख मुजीबुर्रहमान की बेटी शेख हसीना विराजमान हैं जिनके शासनकाल में दोनों देशों के रिश्ते काफी मधुर हुए | अन्यथा 1975 में  शेख साहब की हत्या के बाद वहां जिस तरह का फ़ौजी शासन आया उसके कार्यकाल में दोनों देशों के बीच  सम्बन्ध  काफी तनावपूर्ण हो गये | एक समय ऐसा भी आया जब पाकिस्तान प्रवर्तित आतंकवादी संगठन बांग्लादेश की धरती से भारत विरोधी षडयन्त्र रचने लगे | लेकिन जबसे शेख हसीना का राज आया और भारत में  श्री मोदी सत्ता में आये तबसे न सिर्फ कूटनीतिक वरन व्यापारिक और सांस्कृतिक रिश्तों में  काफी सुधार आया है | हालाँकि आज भी इस्लामिक कट्टरपंथ इस देश में जड़ें जमाये हुए है जिसके चलते वहां रहने वाले हिन्दुओं और उनके धार्मिक स्थलों पर हमले होते रहते हैं | बीच - बीच  में सीमा विवाद  और शरणार्थी समस्या को लेकर बांग्लादेश नाराज भी हुआ जिसका लाभ लेकर चीन ने वहां अपना प्रभाव बढ़ाने की काफी कोशिश की परन्तु  मौजूदा स्थिति में ढाका और नई दिल्ली के बीच संवाद और संपर्क पूरी तरह से सौजन्यतापूर्ण बना हुआ है | रोहिंग्या मुस्लिमों की वापिसी  के  अलावा नागरिकता संशोधन कानून को लेकर बांग्लादेश में कुछ नाराजगी देखी गई किन्तु कोरोना काल  में भारत  ने जिस दरियादिली से अपने इस पड़ोसी की चिंता की उससे छोटे - छोटे विवाद गौण होकर रह गए | वैसे भी  बांग्लादेश के निर्माण में भारत की ऐतिहसिक भूमिका को देखते हुए अन्य किसी देश के राजप्रमुख का वहां जाना उतना प्रासंगिक नहीं होता | अपनी स्थापना  के समय दुनिया के सबसे गरीब देश के तौर पर जाना जाने वाला ये देश आज विकास की तेज रफ्तार के लिए प्रसिद्ध  हो रहा है | उसकी सीमा का बड़ा हिस्सा भारत से मिलता है जिससे होते हुए घुसपैठिये आते रहे हैं जिनके कारण असम , बंगाल और बिहार के बड़े हिस्सों में जनसंख्या का संतुलन बिगड़ चुका है | असम में तो घुसपैठियों की वापिसी बड़ा राजनीतिक मुद्दा है | पिछली सरकारों ने चुनावी फायदे के मद्देनजर इन घुसपैठियों को मतदाता बनाकर अपना उल्लू तो सीधा कर लिया किन्तु देश के सामने बड़ी समस्या पैदा कर दी | इन घुसपैठियों की पहिचान और उसके बाद वापिसी ऐसा मुद्दा है जिसका कोई हल दूरदराज तक नजर नहीं आता | यद्यपि सीमा पर तार लगाने से घुसपैठ काफी कम हुई है लेकिन आज भी बड़ी संख्या में पशुधन की तस्करी होती है | सीमावर्ती कुछ इलाकों का विनिमय कर विवादों को हल करने की समझदारी भी दोनों देश दिखा चुके हैं | लेकिन साझा  भाषायी और सांस्कृतिक विरासत के बावजूद बीत पांच दशक में भारत और बांग्लादेश उतने करीब नहीं आ सके जितनी प्रारंभ में अपेक्षा थी |  इसका बड़ा कारण हमारी विदेश नीति में कमी रही जिसके कारण नेपाल की तरह से बांग्लादेश में भी  भारत को लेकर ये संदेह बना रहा कि वह  उस पर काबिज हो जाएगा | नेपाल के साथ तो  रिश्तों में सरकारी  न सही लेकिन  जनता के स्तर  पर फिर भी  काफी सहजता बनी रही जिसका कारण उसका हिन्दू राष्ट्र  होना था किन्तु शेख  मुजीब के मारे जाते ही बांग्लादेश भी  पाकिस्तान की तरह इस्लामिक कट्टरपंथ की ओर अग्रसर होता गया | हालांकि 1971 में स्व. इंदिरा गांधी  चाहतीं तो बांग्लादेश से वैसी ही सैन्य सुरक्षा संधि कर सकती थीं जैसी दूसरे महायुद्ध के बाद अमेरिका ने प. जर्मनी , जापान और द. कोरिया के साथ की थी | यदि वह हो जाती  तब शायद शेख मुजीब की हत्या और तख्ता पलट न हो पाता और लम्बे समय तक भारत के साथ उसके रिश्तों में शत्रुता का भाव न बना रहता | बांग्लादेश के बंदरगाह भारत के लिए दक्षिण एशिया में व्यापार बढाने के लिए उपयोगी हो सकते हैं |  इसके अलावा उसकी सैन्य जरूरतों को भारत पूरा कर सकता है | सॉफ्टवेयर और अन्तरिक्ष कार्यक्रमों में भी बांग्लादेश भारत की मदद ले सकता है | दोनों देशों का रहन - सहन  , खान - पान , पहिनावा और सांस्कृतिक समानताएं भी  रिश्तों में मजबूती ला सकती हैं | लेकिन इसके लिए विश्वास पैदा करना जरूरी है | बांग्लादेश को इस्लामी कट्टरवाद से दूर रखना भारत के लिए जरूरी है जिसके लिए उसके मन में समाई इस धारणा को दूर करना जरूरी है कि भारत उसको हड़पना चाहता है | श्री मोदी ने इसके पहले भी इस देश की यात्रा की थी जिसके काफ़ी सकारात्मक परिणाम आये | कोरोना काल के बाद से चीन की साख और धाक दोनों में जबरदस्त कमी आने से पड़ोसी देश भारत की तरफ देखने लगे हैं | श्री लंका इसके संकेत दे ही चुका है और अब नेपाल भी चीन की चाल में फंसने से बचने के फिराक में है | श्री  मोदी की ये यात्रा ऐसे समय में हो रही है जब पाकिस्तान भी भारत से रिश्ते सुधारने की इच्छा जता रहा है | पिछली गर्मियों में चीन के साथ हुए सीमा विवाद के दौरान  भारत ने जिस साहस और कूटनीतिक दृढ़ता का परिचय दिया उससे न सिर्फ पड़ोसी अपितु दुनिया की बड़ी शक्तियां तक उसके प्रभाव को स्वीकार कर रही हैं | पाकिस्तान की तरफ से बढ़ाए गये दोस्ती के हाथ को थामने के पहले श्री मोदी की ढाका यात्रा में बिना कहे ही चीन और पाकिस्तान के लिए अनेक सन्देश निहित हैं | बांग्लादेश की प्रधानमन्त्री शेख हसीना व्यक्तिगत तौर पर चूँकि भारत के प्रति बहुत ही संवेदनशील हैं इसलिए ये उम्मीद की जा सकती है कि ये यात्रा रिश्तों को और मजबूत बनायेगी | 

- रवीन्द्र वाजपेयी


Friday 26 March 2021

बंगाल के परिणाम राष्ट्रीय राजनीति की दिशा तय करने वाले होंगे



पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव की धूम है | 27 मार्च को असम और बंगाल में पहले चरण का मतदान होगा | केरल , तमिलनाडु , पुडुचेरी भी चुनाव प्रक्रिया से गुजर रहे हैं लेकिन सबसे ज्यादा चर्चा बंगाल को लेकर है जहां 294 विधानसभा सीटें हैं | हालाँकि तमिलनाडु में  भी  234 सीटें हैं लेकिन वहां की राजनीति  दो  क्षेत्रीय दलों के बीच ही मुख्यतः सीमित है इसलिए राष्ट्रीय परिदृश्य पर वह उतना चर्चित नहीं हो पाता | पुडुचेरी केंद्र शासित छोटा सा राज्य है जबकि  केरल की विधानसभा में 140 और  असम में 126 सीटें ही हैं | लेकिन बंगाल इस समय सबसे ज्यादा चर्चा में है क्योंकि वहां  तृणमूल कांग्रेस नामक क्षेत्रीय दल के 10 वर्षीय शासन के विरुद्ध  भाजपा ने जोरदार मुकाबले की स्थिति पेश कर दी है | तीन दशक से ज्यादा तक यहाँ वाममोर्चे की सरकार रही जिसे 2011 में ममता बैनर्जी के उखाड़ फेंका | वाममोर्चे के पहले बंगाल में  भी कांग्रेस का शासन था किन्तु केंद्र में सत्तारूढ़ रहने के बाद भी वह वाममोर्चे के किले में सेंध नहीं लगा सकी | ममता बैनर्जी ने कांग्रेस पर सीपीएम की बी टीम होने का आरोप लगाते हुए तृणमूल कांग्रेस बनाई और कुछ सालों तक संघर्ष करने के बाद् अंततः वाममोर्चे को सत्ता से बाहर कर दिया | भारतीय राजनीति में वह बहुत बड़ा बदलाव था क्योंकि बंगाल साम्यवाद के अभेद्य दुर्ग में तब्दील हो चुका था और यहीं  नक्सलवाद का जन्म हुआ | एक समय वह भी था जब कोलकाता की दीवारों पर चेयरमैन माओ जिंदाबाद के नारे दिखाई देते थे | बंगाल की तर्ज पर त्रिपुरा पर  भी वाममोर्चे की जबर्दस्त पकड़ हो गई | लेकिन बीते 10 सालों के भीतर इन दोनों राज्यों में बड़ा  राजनीतिक परिवर्तन हुआ | बंगाल में  ममता और त्रिपुरा में भाजपा ने वामपंथी आधिपत्य समाप्त कर दिया |  इस समूची प्रक्रिया में कांग्रेस पूरी तरह हाशिये पर सरकती गई |  हालांकि  ममता  ने वामपंथियों  के शासन को तो उखाड़ फेंका लेकिन वे उनकी शासन करने की संस्कृति को नहीं मिटा पाईं जिसके कारण राजनीतिक हत्याएं और  गुंडागर्दी का आलम जस का तस बना रहा | कांग्रेस चाहती तो वह अपने लिए फिर  जगह बना सकती थी लेकिन  राहल गांधी के उदय के बाद वह  अपनी संघर्ष क्षमता खोती जा रही है जिसका लाभ उठाते हुए भाजपा ने पहले पूर्वोत्तर राज्यों में  पैर जमाये और इस चुनाव में वह तृणमूल के विकल्प के तौर पर मैदान में है | हालाँकि 2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव में भी  मोदी लहर ने बंगाल में भी  अपना असर दिखाया किन्तु 2016 के विधानसभा चुनाव में उसे महज 3 सीटें मिलने से ये अवधारणा बन गई कि बंगाल की जनता नरेंद्र मोदी से तो प्रभावित है किन्तु राज्य में भाजपा के पास कोई दमदार नेता नहीं होने से प्रदेश की सत्ता उसे सौंपने में वह हिचकती है | भाजपा के राष्ट्रीय नेतृत्व ने इस कमी को समझकर तृणमूल सहित अन्य पार्टियों में तोड़फोड़ मचाते हुए जबरदस्त भर्ती  अभियान चलाया और पार्टी में नये - नये आये नेताओं को उम्मीदवार बनाकर स्थानीयता के अभाव को दूर कर दिया | हालाँकि उसका ये दाँव कितना कारगर होगा और वह लोकसभा चुनाव के परिणामों से बेहतर प्रदर्शन करते हुए ममता के किले को ध्वस्त कर सकेगी , इस बात की   पूरे देश में चर्चा है | राजनीतिक पंडित , टीवी चैनलों के रिपोर्टेर और तमाम सर्वेक्षण एजेंसियां बंगाल चुनाव के परिणामों का आकलन करने में जुटी हुई हैं | यद्यपि अभी तक आये अधिकाँश सर्वे  ममता की वापिसी को लेकर आश्वस्त हैं वहीं उनका ये भी  कहना है कि इस बार तृणमूल को चुनौती कांग्रेस और वामपंथियों का मोर्चा नहीं वरन भाजपा दे रही है जिसे 100 से ज्यादा सीटें मिलने की उम्मीद लगाई  जा रही है | लेकिन प्रथम चरण के मतदान के तीन दिन पहले आये कुछ सर्वेक्षणों में भाजपा के बहुमत का अनुमान लगाये जाने से बाजी उलटने की उम्मीद बढ़ गई है | और यदि ऐसा होता है तब ये राष्ट्रीय राजनीति में बहुत बड़ी घटना होगी | 2024 के लोकसभा चुनाव के पहले अगर भाजपा ने बंगाल फतह कर लिया तो ये विपक्ष खास तौर पर कांग्रेस के लिए चिंता  का बड़ा कारण होगा और वह विपक्षी एकता की सूत्रधार बनने की हैसियत भी  खो बैठेगी | इस प्रकार जिन  पाँच राज्यों में विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं उनमें बंगाल के नतीजे भावी राष्ट्रीय राजनीति को सर्वाधिक प्रभावित करने वाले होंगे | यदि भाजपा वहां सरकार नहीं  बना सकी किन्तु उसकी सीटें 125 के आसपास रहीं तब भी ये बड़ी बात होगी क्योंकि वामपंथ के गढ़ रहे  इस राज्य में उसका वैकल्पिक ताकत बन जाना मामूली बात नहीं होगी   | उसे ये  पता है कि पूर्वोत्तर के छोटे  - छोटे राज्यों में उसकी  जीत बिना बंगाल हासिल किये अधूरी रहेगी |   लेकिन ममता बैनर्जी अपनी सरकार बचाने  में सफल हो गईं तब  वे विपक्षी राजनीति की धुरी बन सकती हैं जो  राहुल गांधी के लिए बड़ा धक्का होगा | 

- रवीन्द्र वाजपेयी

Thursday 25 March 2021

एक साल पहले तो अनजान थे लेकिन अब तो पूरी जानकारी है



एक साल आज ही के दिन देश में लॉक डाउन लागू हुआ था | शुरुवात में 21 दिन की अवधि के लिए समूचे देश में लोगों को घरों में रहने की बंदिश लगाई गयी | ऐसी  उम्मीद की जा रही थी कि तीन सप्ताह में संक्रमण की  श्रृंखला को तोड़ दिया जाएगा | लेकिन जैसे - जैसे समय बढ़ता गया वैसे - वैसे लॉक डाउन  में  वृद्धि की जाती रही | जून के पहले हफ्ते से कुछ  ढील देने की शुरुवात हुई लेकिन पूरी तरह से सामान्य स्थिति आते - आते पूरा साल बीत गया | और तब तक संक्रमण में कमी के साथ ही देश में निर्मित टीके की आपूर्ति भी सुनिश्चित हो गई | ऐसा लगने लगा कि भारत ने कोरोना के विरुद्ध जंग जीत ली है और तो और  टीके का निर्यात  दुनिया के अनेक देशों  को करते हुए वैश्विक स्तर पर अपनी साख और धाक दोनों जमाई | प्रथम पंक्ति में रहकर कोरोना के विरुद्ध लड़ रहे वर्ग को सबसे पहले टीका लगाने के अभियान के बाद 1 मार्च से वरिष्ठ नागरिकों का टीकाकरण प्रारम्भ किया गया |  आगामी  1 अप्रैल से 45 वर्ष से ऊपर की आयु वालों के  भी  टीकाकरण की शुरुवात होने जा रही है |  भारत का कोरोना टीकाकरण अभियान विश्व में  सबसे बड़ा है  | सरकारी अस्पतालों में निःशुल्क और निजी अस्पतालों में 250 रु. में टीकाकरण हो रहा है | जिसमें  अस्पताल का 100 रु. शुल्क भी शामिल है | वैसे  कुछ निजी चिकित्सालय टीके की मूल कीमत 150 रु. ही ले रहे हैं | इस प्रकार लाखों लोगों को प्रतिदिन टीका लगाया जा रहा है | अभी तक कुछ अपवाद छोड़कर  टीकाकरण को  लेकर सकारात्मक खबरें ही आ रही हैं जिससे लोगों   के मन में  व्याप्त शंकाएँ भी दूर होने लगी हैं |  लेकिन जैसे ही टीका लगना  शुरू हुआ  वैसे ही कोरोना की वापिसी की खबरें भी आने लगीं | बीते कुछ सप्ताह में ऐसा लगने लगा कि घूम - फिरकर हालात पिछले साल जैसे ही बनने लगे हैं | प्रति दिन का आंकड़ा 50 हजार को पार कर चुका  है | अनेक शहरों में रात्रिकालीन कर्फ्यू लागू  के बाद साप्ताहिक लॉक डाउन करना पडा और जब उससे भी बात नहीं  बनी तब लम्बे लॉक डाउन का निर्णय लिया गया  | नागपुर , पुणे , नासिक, मुम्बई , अहमदाबाद , इंदौर और भोपाल के अलावा अनेक शहर हैं जहां कोरोना ने पूरी ताकत से पलटवार किया है | ये स्थिति चिंता में डालने वाली है |  बड़ी मुश्किल से अर्थव्यवस्था के साथ ही जन  जीवन भी तेजी से सामान्य  होने लगा था लेकिन बीत कुछ सप्ताहों ने  मानों घड़ी की सुइयों को पीछे घुमा दिया |  सवाल ये है कि कोरोना पर विजय हासिल करने के करीब पहुचंने के बाद आखिरकार ये हालात क्यों और कैसे बन गये ? इसके यूँ तो अनेक जवाब हो सकते हैं किन्तु सीधा और सपाट उत्तर है लोगों की  लापरवाही | केवल मास्क का ही उपयोग किया जाता रहे तो भी कोरोना से काफी हद तक बचा जा सकता है | इस बारे में ये कहना पूरी तरह सही होगा कि न केवल  अशिक्षित और अल्प शिक्षित वरन पूरी तरह से शिक्षित वर्ग में भी कोरोना संबंधी अनुशासन तोड़ने की होड़ सी  लग गई |  ये बात काफी पहले ही   साफ हो चुकी थी  कि ब्रिटेन और अमेरिका जैसे विकसित देशों तक में कोरोना की दूसरी और तीसरी लहर आ चुकी है जिसके लक्षण तो अलग हैं ही , ये पहले से ज्यादा खतरनाक है | बावजूद इसके  जैसा एक साल पहले सोचा जा रहा था कि भारत का मौसम और लोगों की रोग प्रतिरोधक् क्षमता के कारण  कोरोना यहाँ पांव नहीं जमा सकेगा ठीक  उसी तर्ज पर दूसरी लहर को लेकर बेफिक्री का परिचय दिया गया जिसके परिणामस्वरूप संक्रमण पूरी ताकत से आ धमका और एक साल पहले  जैसी स्थिति उत्पन्न होने लगी |  शिक्षण संस्थान , होटल , रेस्टारेंट , क्लब , धार्मिक स्थल , आदि में आवाजाही पर फिर से रोक लगाने की जरूरत आ गयी | त्यौहारों के आयोजन में भी इस कारण से प्रतिबन्ध लगाये जा रहे हैं | साप्ताहिक के साथ ही लम्बे लॉक डाउन की नौबत भी आ गई | टीकाकरण के समानांतर कोरोना का फैलाव वाकई विचित्र स्थिति का परिचायक है | लेकिन उसी के साथ ये परीक्षा की घड़ी भी है क्योंकि बीते एक साल में हुए  नुकसान की भरपाई होने के पहले ही एक बार फिर अर्थव्यवस्था पर  अनिश्चितता  के बादल मंडराने लगे हैं | ये देखते हुए अब ये नागरिकों का कर्तव्य है कि वे कोरोना से जुड़े अनुशासन का कडाई से पालन करें | मास्क न पहिनने पर पुलिस को लोगों का चालान करना पड़े ये बहुत ही शोचनीय स्थिति है | 135 करोड़ की आबादी वाले देश में टीकाकरण अभियान सम्पन्न करवाना वाकई कठिन कार्य है | और फिर टीका लगने के बाद भी मास्क जैसे बचाव के साधन का उपयोग जरुरी होगा | इसलिए ये मान लेना ही बुद्धिमत्ता होगी कि आने वाले एक से दो साल तक कोरोना हमारे  इर्द - गिर्द मंडराता रहेगा और ज़रा सी असावधानी में हम उसके शिकार  हो जायेंगे | लॉक डाउन की पहली सालगिरह दरअसल इस बात के चिन्तन का अवसर है कि कोरोना के दूसरे हमले को कैसे बेअसर किया जाए | एक साल पहले तो हम ही नहीं लगभग पूरी दुनिया इस अदृश्य शत्रु से अनजान थी लेकिन अब तो उसकी चाल और चरित्र दोनों पता चल चुके हैं | ऐसे में अब उसके शिकंजे में फंसना हमारी अपनी गलती होगी | सावधानी हटी और दुर्घटना घटी जैसे नारे सिर्फ पढने की ही नहीं समझने की भी चीज है | 

- रवीन्द्र वाजपेयी


Wednesday 24 March 2021

पेट्रोल - डीजल को जीएसटी के दायरे में लाने में ज्यादा देर न की जाए



 केन्द्रीय वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने गत दिवस कहा कि यदि राज्य जीएसटी  काउंसिल की अगली बैठक में पेट्रोल - डीजल को जीएसटी के दायरे में लाने को राजी हो तो केंद्र भी  उस पर विचार को तैयार है | उनका कहना था कि चूंकि इन चीजों पर केंद्र के साथ ही राज्य भी कर लगाते हैं लिहाजा उनको भी रियायत के लिए आगे आना चाहिए | वित्त मंत्री ने लगे हाथ ये भी बता दिया कि केंद्र को मिलने वाले प्रति 100 रु. के कर में राज्यों को 41 रु. मिलते हैं | ऐसा लगता है पांच राज्यों में  होने जा रहे विधानसभा चुनावों में पेट्रोल - डीजल की कीमतों के आसमान छूने पर केंद्र सरकार की  जो आलोचना हो रही है  उसके मद्देनजर श्रीमती सीतारमण ने उक्त  बयान दिया | वरना कुछ दिन पहले ही उन्हें कहते सुना गया था कि इन चीजों को जीएसटी के दायरे में लाने का कोई इरादा केंद्र सरकार का नहीं है | ये बात भी सही है कि केंद्र सरकार जीएसटी काउंसिल  पर दबाव नहीं डाल सकती और उसके सभी फैसले  सर्वसम्मति से होते आये हैं | अब तक किसी भी राज्य ने पेट्रोल - डीजल को जीएसटी के अंतर्गत लाने की पहल नहीं की क्योंकि ये उनके लिए दुधारू गाय जैसे  हैं |  जिस दिन पेट्रोल - डीजल भी जीएसटी के दायरे में आ जायेंगे उस दिन से राज्यों को होने वाली नगद आमदनी में व्यवधान आ जायेगा क्योंकि तब उन्हें अपने हिस्से के कर के लिए केंद्र की मर्जी पर निर्भर रहना होगा | कोरोना काल में अर्थाभाव की वजह से केंद्र सरकार राज्यों को उनके हिस्से के जीएसटी का भुगतान करने में विफल रही जिससे वे इन चीजों से होने वाली नियमित आय केंद्र के  जरिये हासिल करने से कतराने लगे | लेकिन ये बात भी सही है कि बीते कुछ महीनों से जिस तरह से पेट्रोल  - डीजल के दाम बढ़ते गए उससे केंन्द्र  के साथ ही राज्यों की बदनीयती भी उजागर हो गयी | मूल्य वृद्धि होने पर राज्य के टैक्स बजाय  निश्चित करने के  आनुपातिक आधार पर लगाये जाने से  जनता पर दोहरी मार पड़ती है जबकि राज्यों को बैठे बिठाये अतिरिक्त आय प्राप्त हो जाती है | पहले ये होता था कि कीमतें बढ़ने पर राज्य अपने करों में  कमी कर  उपभोक्ताओं को  राहत प्रदान करते थे लेकिन अब वैसा नहीं हो रहा | ये बात भी पुख्ता  तौर पर सामने आ चुकी है कि यदि केंद्र और राज्य पेट्रोल - डीजल पर लगाये  जाने वाले करों का सही तरीके से नियोजन करें तो वे आराम से 50 से 60 रु. प्रति लीटर की दर पर बिक सकते हैं और तब भी सरकारी खजाने में भरपूर  राजस्व जमा हो सकेगा | बीते कुछ महीनों में खुदरा और थोक दोनों स्तर पर मंहगाई बढ़ने के पीछे के कारणों में पेट्रोल -  डीजल के दामों का सर्वोच्च स्तर पर जा पहुंचना है | सरकार का ये तर्क अपनी जगह ठीक है कि इनकी कीमतों  पर उसका नियन्त्रण नहीं है लेकिन करों का आरोपण तो उसके अधिकार की विषय वस्तु है | जब जीएसटी लागू  किया गया तब ये आश्वासन मिला था कि जल्द ही पेट्रोल - डीजल भी उसके दायरे में लाये जायेंगे किन्तु साल दर साल बीतने के बावजूद इस दिशा में  एक कदम भी आगे नहीं बढ़ाया  जा सका | इसकी वजह केंद्र और राज्यों की तरफ से जान बूझकर  दिखाई गई उदासीनता ही है | हो सकता है कीमतों के असीमित ऊंचाई तक जा पहुंचने के कारण केन्द्रीय वित्त मंत्री को अपने हालिया बयान से हटकर राज्यों की मर्जी होने पर इन चीजों को जीएसटी के दायरे में लाने पर सहमति देने की बात कहनी पड़ी हो किन्तु जब तक ऐसा नहीं  होता तब तक केंद्र और राज्य पेट्रोल - डीजल पर आम जनता को कुछ राहत तो दे ही सकते हैं | उनको ये समझना चाहिए कि उपभोक्ता की जेब हल्की होने पर वह बाजार का रुख करेगा जिससे सरकार को घूम फिरकर उतना ही टैक्स मिल जाएगा तथा अर्थव्यवस्था भी चलायमान बनी रहेगी | ये बात सर्वविदित है कि अब पेट्रोल - डीजल विलासिता की वस्तु नहीं रह गए अपितु मोबाईल फोन की तरह आम जनता के दैनिक जीवन से अभिन्न रूप से जुड़ चुके हैं | जिस तरह बिजली के बिना जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती ठीक उसी तरह अब पेट्रोल - डीजल भी अनिवार्यता बन चुके हैं | ऐसे में उनके दामों को लेकर केवल आर्थिक  नहीं वरन व्यवहारिक और संवेदनशील रवैया अपनाया जाना चाहिये | श्रीमती सीतारमण का ताजा बयान यदि सही भावना से दिया गया तब केंद्र सरकार को चाहिए वह राज्यों के साथ अलग से बात करते हुए उन्हें इस बात के प्रति आश्वस्त करे कि इन चीजों को जीएसटी के दायरे में लाने के बाद उनका हिस्सा उन्हें समय पर मिलता रहेगा | संघीय ढांचे के अंतर्गत राज्यों को भी करारोपण का अधिकार है किन्तु जब आम जनता का व्यापक हित मुद्दा बन रहा हो तब पूरे देश की राय एक जैसी होनी चाहिए | जीएसटी काउंसिल भले ही स्वायत्त हो लेकिन उसे  जनहित को नजरअंदाज करने की खुली छूट नहीं दी जा सकती | एक तरफ केंद्र  और राज्य सरकारें जनहित के लिए दोनों हाथों से खजाना लुटाती हैं वहीं दूसरी  तरफ पेट्रोल और डीजल की कीमतों पर अनाप - शनाप टैक्स लगाकर जबरिया वसूली कर लेती हैं | केन्द्रीय वित्त मंत्री द्वारा दिए गये बयान के संदर्भ में जन अपेक्षा है कि पेट्रोल - डीजल की कीमतों को भी जल्द से जल्द जीएसटी की दायरे में लाया जाएगा | 

- रवीन्द्र वाजपेयी


Tuesday 23 March 2021

चौथी पारी : आम जनता को भ्रष्टाचार से मुक्ति दिलाना असली चुनौती



 मप्र के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान देश के उन वरिष्ठ जननेताओं में हैं जिन्हें चौथी बार प्रदेश की सत्ता संभालने का अवसर मिला  | 2018 के चुनाव में भाजपा थोड़े से अंतर से सरकार बनाने से चूक गई किन्तु महज सवा साल के भीतर शिवराज का राजयोग फिर प्रबल हुआ और गत वर्ष आज ही के दिन एक बार फिर उनकी ताजपोशी हो गयी | आज वे उसका जश्न मना रहे हैं | अख़बारों में बड़े - बड़े इश्तहारों के जरिये सरकार की उपलब्धियों से लोगों को  परिचित कराया गया | सत्ता  गँवा चुके पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ को ये सब अच्छा नहीं लग रहा जो स्वाभाविक है |  लेकिन यदि शिवराज की जगह होते तब शायद आज के दिन वे भी यही करते |  गत वर्ष जब प्रदेश में सत्ता बदलने की मुहिम चल रही थी तब कोरोना की आहट भी सुनाई देने लगी थी | श्री चौहान के शपथ लेने के बाद लॉक डाउन का लम्बा दौर शुरू हुआ जिसकी वजह से उन्हें असहज और अत्यंत विपरीत परिस्थितियों में शासन चलाना पड़ा | लम्बे समय तक तो वे अकेले ही चले  | बाद में कुछ मंत्री और बनाए किन्तु सरकार पूरा आकार नहीं ले सकी | कोरोना से निपटना वाकई बड़ा काम था | लॉक डाउन की वजह से सरकारी राजस्व की आवक रुक गई | ऊपर से राहत कार्यों को चलाने की भी जिम्मेदारी किन्तु तमाम विषमताओं के बाद भी मुख्यमंत्री ने उस दौर में बेहतर कार्य किया | सबसे बड़ा दबाव था कांग्रेस छोड़कर आये दो दर्जन विधायकों को उपचुनाव में जितवाना जिसके बिना उनकी सरकार का अस्तित्व खतरे में पड़ जाता | एक और मानसिक बोझ  था ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ सामंजस्य का | लेकिन श्री चौहान ने उक्त दोनों मोर्चों पर बड़ी ही कुशलता के साथ काम करते हुए ये साबित कर दिया कि वे  शासन चलाने के लिए जरूरी परिपक्वता से संपन्न हैं | यही वजह है जिसके आधार पर उन्होंने बीते एक साल में चुनावी मोर्चे पर सफलता  के साथ ही राजनीतिक सामंजस्य और प्रशासनिक क्षमता का परिचय दिया | इस दौरान उन्होंने अपने स्वभाव और प्रचलित छवि से अलग जिस तरह माफिया के विरुद्ध आक्रामक रुख दिखाया उसका  सकारात्मक असर भी जनमानस पर  दिखाई दे रहा है | सरकारी जमीन को रसूखदारों के अवैध कब्जे से मुक्त करवाने की उनकी मुहिम से भूमाफिया और अपराधी तत्वों में घबराहट है | लेकिन कुछ बातें ऐसी हैं जिन पर श्री चौहान को बारीकी से ध्यान देना चाहिए | आज भी पूरे प्रदेश में खनन और शराब  माफिया  बेख़ौफ़ है | ये कहना भी गलत न होगा कि श्री चौहान की अपनी पार्टी के प्रभावशाली नेता भी इन धंधों को संरक्षण दे रहे हैं | ट्रांसफर में होने वाली सौदेबाजी भी राज्य सरकार की छवि को धूमिल करती है और सबसे मूलभूत बात जो मुख्यमंत्री से अपेक्षित है वह है निचले स्तर पर व्याप्त भ्रष्टाचार  | हालाँकि लोकायुक्त और आर्थिक अपराध शाखा की कार्र्वाई में बड़ी संख्या में भ्रष्ट अधिकारी और कर्मचारी लपेटे में आये हैं लेकिन जांच और दंड प्रक्रिया इतनी धीमी है कि  अपेक्षित परिणाम नहीं आ पाते | सरकारी नियुक्तियों की प्रक्रिया में भी  पारदर्शिता के दावे गलत साबित होते रहे हैं | पिछले कार्यकाल में व्यापमं नामक घोटाले ने मप्र की राष्ट्रव्यापी बदनामी करवाई थी | ये भी कहा जा सकता है कि 2018 के विधानसभा चुनाव में भाजपा की  सत्ता चली जाने के पीछे उस घोटाले का बड़ा हाथ था |  हालाँकि श्री चौहान  उससे उबर चुके हैं और बहुत कुछ सबक भी लिया होगा  जिसकी बानगी चौथी पारी में ताबड़तोड़ बल्लेबाजी से मिल रहा है लेकिन उन्हें ये  स्वीकार करना चाहिए कि कृषि , उद्योग , पर्यटन , शिक्षा , चिकित्सा जैसे क्षेत्रों में मप्र भले ही कितना आगे बढ़ गया हो लेकिन सरकारी महकमों के भ्रष्टाचार में अभी तक कोई सुधार नहीं हुआ है | नौकरशाही की निरंकुशता भी बदस्तूर जारी है जिसके कारण आम जनता के मन में गुस्सा   है | ये कहने वाले भी कम नहीं हैं कि मप्र के सरकारी दफ्तरों में घूसखोरी चरमोत्कर्ष पर है | ग्रांम  पंचायत से लेकर सचिवालय तक यही आलम है | यदि शिवराज मप्र को भ्रष्टाचार से मुक्त करना चाहते हैं तो इसकी शुरुवात उन्हें भोपाल स्थित राज्य सचिवालय से करनी होगी जहां से चलकर  उसका विस्तार निचले स्तर तक होता है | ये बात भी बिलकुल सही है कि बड़े भ्रष्टाचार से आम जनता भले अप्रभावित रहती हो लेकिन छोटे स्तर पर होने वाले भ्रष्टाचार से उसका  विश्वास व्यवस्था में खंडित होता है | चौथी पारी की पहली वर्षगाँठ पर मुख्यमंत्री से अपेक्षा है कि वे अपने सिंघम अवतार से आम जनता को भ्रष्टाचार से  राहत दिलाने  वाले काम  करें | गोवा के मुख्यमंत्री रहे स्व. मनोहर पार्रिकर को आदर्श बनाकर यदि वे  आगे बढ़ें तो उनकी गिनती देश के सर्वश्रेष्ठ मुख्यमंत्री  के तौर पर हो सकती है | उल्लेखनीय है गत वर्ष सत्ता सँभालते ही  कोरोना नामक जिस संकट से उनका सामना हुआ वह फिर लौट आया  है | मुख्यमंत्री और उनकी पूरी सरकार को इस मुसीबत से प्रदेश को बचाने  के लिए पूरी ताकत झोंकनी होगी | टीकाकरण अभियान चलाने के साथ ही कोरोना का संक्रमण फैलने से रोकना बहुत ही बड़ा काम है | उम्मीद की जा सकती है कि पिछले अनुभवों के आधार पर वे कोरोना के दूसरे हमले का सामना भी सफलतापूर्वक कर लेंगे |

- रवीन्द्र वाजपेयी

Monday 22 March 2021

दागदारों की भीड़ में कौन बेदाग़ है कह पाना कठिन




मुकेश अम्बानी के घर के सामने मिली एक कार में विस्फोटक सामग्री पाए जाने के बाद हुए घटनाक्रम में नाटकीय मोड़ आ रहे हैं | इसी क्रम में मुम्बई के पुलिस कमिश्नर परमबीर सिंह को हटाकर महत्वहीन कहे  जाने वाले पद पर भेज दिया गया | जिसके बाद उनका मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे को लिखा  वह पत्र सार्वजानिक हो गया जिसमें उन्होंने  आरोप लगाया कि गृह मंत्री  अनिल देशमुख ने  संदर्भित प्रकरण में गिरफ्तार किये गए चर्चित पुलिस अधिकारी सचिन वाजे   को प्रतिमाह डांस बार , रेस्टारेंट , होटल और ऐसे ही अन्य व्यवसायों से 100 करोड़ रु.  वसूली का लक्ष्य  दिया था |  ईमेल से भेजे उक्त पत्र की वास्तविकता को लेकर संदेह था किन्तु श्री सिंह ने स्पष्ट कर दिया कि वह उन्होंने ही भेजा था | जिस कार को लेकर सारा बवाल शुरू हुआ उसके मालिक की रहस्यमय मौत के बाद उसकी पत्नी ने  वाजे पर आरोप लगा दिए इसलिए बात आगे बढ़ गई वरना लीपापोती हो जाती | और फिर विस्फोटक मिलने से जांच में एनआईए कूट पड़ी जिसके बाद ये साफ होने लगा कि सचिन  के बारे में जो सुना जा रहा था वह उससे भी बहुत आगे है | सबसे बड़ी बात ये देखने में आई कि पूरी शिवसेना उसके बचाव में खड़ी थी | यहाँ तक कि श्री ठाकरे भी तरफदारी करते दिखे | इस पर राकांपा प्रमुख शरद पवार  ने उनसे मिलकर नाराजगी भी जताई जिसके बाद परमबीर का तबादला किया गया परन्तु  उन्होंने जो धमाका किया उससे श्री पवार के लिए शर्मनाक हालात बन गये | विपक्ष ने स्वाभाविक तौर पर गृहमंत्री को  तत्काल हटाये जाने की मांग उठा दी वहीं कांग्रेस ने भी उसके सुर में सुर मिला दिया | ऐसे में जो दबाव श्री ठाकरे पर था वह घूमकर श्री पवार पर आ गया क्योंकि उनकी कृपा से गृहमंत्री बने श्री देशमुख पर लगे  आरोप  से पूरी पार्टी निशाने पर आ गई | ये कहना भी गलत नहीं होगा कि श्री पवार द्वारा बनवाये गये किसी मंत्री की इतनी हिम्मत नहीं हो सकती कि वह उनको नजरअंदाज करते हुए इतनी बड़ी रकम अकेले हजम कर जाए | बहरहाल अभी तक की खबरों के अनुसार श्री पवार ने मामला मुख्यमंत्री पर ढाल दिया और ये भी कह  दिया कि सचिन को निलम्बन के बाद नौकरी पर बहाल करने में परमबीर का ही हाथ था | ऐसा कहकर शायद वे श्री ठाकरे पर निशाना साधना चाहते हैं जिनका वरदहस्त वाजे  की ताकत माना  जाता रहा | उल्लेखनीय है लम्बे समय  तक निलम्बित रहने  के दौरान वह शिवसेना में बतौर प्रवक्ता कार्यरत था और नौकरी में लौटते ही उसे एक के बाद एक महत्वपूर्ण दायित्व सौंप दिये गये जिनकी तरफ श्री पवार ने भी  इशारा किया | इस घटनाचक्र ने महाराष्ट्र सरकार के अस्तित्व पर भी  सवाल उठा दिए हैं क्योंकि वाजे के बुरी  तरह फंस जाने के बाद श्री पवार ने शिवसेना पर दबाव बनाने की जो कोशिश की थी वह परमबीर के आरोप के बाद उल्टी पड़ गई  और  छींटे  उनके दामन पर भी पड़ने लगे  | परमबीर से भी ये पूछा जा रहा है कि उन्होंने अपने तबादले के बाद ही इतने बड़े खुलासे का सहस क्यों दिखाया ? सवाल और भी हैं जिनका जवाब जांच से मिल सकता है और शायद  न भी मिले क्योंकि मुकेश अम्बानी के घर के बाहर मिली कार के मालिक की हत्या के बाद सारा ध्यान आकर  वाजे पर केन्द्रित हो गया | जाहिर है शिवसेना का वह प्रिय पात्र रहा है वरना परमबीर की क्या औकात थी जो  अचानक उसे बेहद ताकतवर बना दिया गया | जो कुछ भी  सामने आया है उसके बाद सचिन के भ्रष्ट और शातिर दिमाग  होने के साथ ही ये भी साफ़ हो चुका  है कि वह राज्य की  वर्तमान  सत्ता का खासमखास था और पुलिस की नौकरी उसके लिए महज दिखावा थी |  श्री ठाकरे की मुसीबत ये है कि गृहमंत्री को हटाये जाने से  पूर्व पुलिस कमिश्नर की चिट्ठी में लगाये गये आरोपों की प्रथम दृष्टया पुष्टि मान ली जायेगी जो श्री पवार को शायद ही पसंद आये  | यही वजह है कि न तो श्री देशमुख ने नैतिकता के आधार पर कुर्सी छोड़ने का बड़प्पन दिखाया और न ही उनके राजनीतिक आका श्री पवार ने उन्हें ऐसा करने का निर्देश दिया | गृहमंत्री को हटाये जाने का फैसला मुख्यमंत्री पर छोड़ने की उनकी टिप्पणी के पीछे भी राजनीति है जबकि उन जैसे वरिष्ठ और अनुभवी नेता से अपेक्षा थी कि वे श्री देशमुख को निर्दोष  साबित होने तक सरकार से बाहर रहने का निर्देश देते | और ऐसे में विपक्ष का ये आरोप अपने आप में संज्ञान योग्य हो जाता है कि गृह मंत्री द्वारा की जा रही  कथित वसूली में उनकी पार्टी के उच्च नेतृत्व की भी भूमिका है | आश्चर्य इस बात का है कि महाराष्ट्र की इस संयुक्त सरकार के पालक - पोषक श्री पवार ही हैं | ऐसे में उनके द्वारा गृह मंत्री को हटाये जाने का मामला श्री ठाकरे पर छोड़ा जाना एक तरह से उन  पर  दबाव बनाने का तरीका है | सबसे बड़ी बात ये है कि एक कार को रहस्यमय तरीके से श्री अम्बानी के घर के सामने विस्फोटक सामग्री के साथ छोड़ जाने के मामले में वाजे की संलिप्तता का खुलासा होने के साथ ही उसके पास मिली महंगी गाड़ियां , सबूत नष्ट किये जाने का दुस्साहस और उसके बाद मिले राजनीतिक संरक्षण से जो बातें निकलकर सामने आईं वे सब गृहमंत्री पर लगाये गये आरोप से उड़ी धूल में दबाये जाने का चिर परिचित षड्यंत्र शुरू हो चुका है | परमबीर ने श्री देशमुख को घेरकर बर्र के छत्ते में पत्थर मार दिया है | जिसके बाद उद्धव पर हावी हो रहे श्री पवार सकपकाहट में हैं | इस आरोप के बाद परमबीर खुद को दूध का धुला साबित करने के अलावा वाजे को भी निरीह बताकर उसके गुनाहों पर पर्दा डालने का दांव चल रहे हैं , जिसके पीछे शिवसेना  की रणनीति हो तो अचंभा नहीं होगा |  लेकिन एक बात  आईने की तरह साफ है कि सचिन वाजे ने जो किया वह  अकेले उसके  बूते की बात नहीं थी | जाहिर है उसे ऊपरी  संरक्षण प्राप्त था अन्यथा वह इतना बड़ा अधिकारी नहीं था जो इतनी बड़ी घटना को इस आत्मविश्वास के साथ अंजाम देता कि उसको पकड़ने वाला कौन है ? परमबीर खुद को बचाने के  लिये हरिश्चंद्र बन रहे हैं या वे भी  सचिन वाजे की तरह किसी के मोहरे  हैं और  उद्धव सरकार रहेगी या जायेगी ये उतना महत्वपूर्ण नहीं रहा जितना ये कि परमबीर द्वारा लगाये आरोप पर अभी तक गृहमंत्री श्री देशमुख ने  कोई अनुशासनात्मक  या कानूनी कार्रवाई करने की  हिम्मत नहीं दिखाई | जहां तक जनता का सवाल है तो उसे पूरा विश्वास है कि इस मामले से जुड़े जितने भी पात्र सामने आये हैं उनमें से किसी का भी दामन बेदाग नहीं है | 

- रवीन्द्र वाजपेयी


Saturday 20 March 2021

बंगाल में कांग्रेसी और वामपंथी चाहते हैं सत्ता का रिमोट



बंगाल में जहां तृणमूल और भाजपा अपने दम पर बहुमत लाने के लिए हाथ - पांव मार रहे हैं , वहीं कांग्रेस, वामपंथी ,   फुरफुरा शरीफ के पीरजादा और अब्बासी के इंडियन सेकुलर फ्रंट के साथ मिलकर बना तीसरा मोर्चा मुस्लिम बहुल सीटों पर ध्यान केंद्रित कर दोनों का खेल बिगाड़ने के फेर में है। उसे पता है कि वह खुद  बहुमत लाने  में असमर्थ है इसलिए उसकी इच्छा  है त्रिशंकु विधानसभा बने  ताकि सत्ता का रिमोट उसके हाथ आ सके। भाजपा द्वारा जय श्री राम के जरिये ममता बैनर्जी को घेरने के बाद वे भी चंडीपाठ करते हुए खुद को हिन्दू साबित करने लगीं । लेकिन तीसरा मोर्चा इसे लेकर मुस्लिमों को फुसलाने  में जुट गया है। उल्लेखनीय है राज्य की 294 में लगभग 100 सीटें ऐसी हैं जिनमें मुस्लिम मत  थोक में जिसके साथ  जाएंगे उसकी जीत सुनिश्चित है। 46 सीटों पर तो उनकी संख्या 50 फीसदी से ज्यादा है वहीं 16 पर 40 , 33 पर 30 और 50 सीटों पर वे 25 फीसदी से ज्यादा बताये जा रहे हैं | कुल मतदाताओं के हिसाब से देखने पर राज्य में 30 प्रतिशत मुसलमान मतदाता हैं जिनके हाथ में चुनावी बाजी पलटने की ताकत बताई जा रही  है | एक ज़माने में ये वाम मोर्चे के साथ थे और बीते 10 सालों से ममता के | भाजपा ने सुश्री बैनर्जी द्वारा किये गये  तुष्टीकरण को जिस तरह मुद्दा बनाया उससे ये सम्भावना थी कि मुस्लिम गोलबंद  होकर तृणमूल सरकार की वापिसी का रास्ता साफ़ कर देंगे | लेकिन पहले फुरफुरा शरीफ के पीरजादा ने चुनाव मैदान में उतरने की पहल की और बाद में मुस्लिम धार्मिक नेता अब्बास सिद्दीकी द्वारा बनाया  इन्डियन सेकुलर फ्रंट भी  कूद पडा | हालाँकि बिहार में सफलता के बाद असदुद्दीन ओवैसी ने बंगाल में भी घुसने की कोशिश की किन्तु पीरजादा और सिद्दीकी को अपने पाले में खींचकर कांग्रेस  और वामपंथियों ने उनकी उम्मीदों को ठंडा कर दिया | हालांकि वे अभी भी प्रयासरत हैं लेकिन  बंगाल के मुस्लिम मतदाता  ममता से छिटके तो जाहिर है वे  पीरजादा और सेकुलर फ्रंट की तरफ झुकना पसंद करेंगे | यद्यपि वाममोर्चे और कांग्रेस दोनों में  इसे लेकर  गुस्सा है | जी 23 से जुड़े  कांग्रेस के अनेक नेताओं ने भी मुस्लिम कट्टरपंथियों के साथ गठबंधन की खुलकर मुखालफत की वहीं साम्यवादियों के  खेमे में भी इसे नापसंद किया जा रहा है | लेकिन इस गठबंधन के कारण मुस्लिम मतदाताओं द्वारा प्रभावित तकरीबन 100  सीटों पर संघर्ष तिकोना हो गया है | भले ही ममता अभी भी भाजपा की प्रमुख प्रतिद्वंदी होने के कारण मुसलमान मतदादातों की पहली पसन्द बनी हुई हैं लेकिन उनका अचानक सामने आया हिन्दू स्वरूप मुसलमानों में  इस धारणा को बढ़ावा दे रहा है कि दीदी भी यदि हिन्दू कार्ड खेलने लगीं तब वे   न घर के रहेंगे न घाट के | ऐसे  में उनका एक धडा यदि तीसरे मोर्चे की तरफ झुक जाए तो ममता के समीकरण बिगड़ सकते हैं | अब तक आये लगभग सभी चुनाव पूर्व सर्वेक्षण भाजपा की सीटों में जबर्दस्त वृद्धि के बावजूद उसे बहुमत से दूर मान रहे हैं | साथ ही तृणमूल की संख्या में भी भारी गिरावट के आसार हैं | बहुमत के लिए आवश्यक  148 से कुछ ही ज्यादा सीटें ममता को मिलने के  अनुमान में यदि 5 से 10 प्रतिशत की कमी आई तब तीसरे मोर्चे की लाटरी  खुल जायेगी | ये बात तो पूरी तरह स्पष्ट है कि भाजपा  किसी भी स्थिति में तृणमूल के साथ नहीं जायेगी और ममता के लिए भी ऐसा करना आत्म्घाती होगा | महबूबा मुफ्ती का हश्र वे भूली नहीं हैं | ऐसे में कांग्रेस और वामपंथी ही ममता के खेवनहार बन सकते हैं | ये भी संभव है कि त्रिशंकु की स्थिति में  यदि अकेले उसके समर्थन से ममता सरकार की संभावना बनी तब कांग्रेस वामपंथियों से भी अलग हो जाये | हालाँकि ये सब राजनीतिक कयास हैं लेकिन इतना तय है कि यदि भाजपा बहुमत से वंचित होने पर भी 125 सीटों के करीब जा पहुँची तब तृणमूल 148 के जादुई आंकड़े से नीचे आ जाए तो आश्चर्य नहीं होगा |  यही कांग्रेस  और वामपंथी चाह रहे हैं | विभिन्न एजेंसियों  द्वारा किये जा रहे मैदानी सर्वे में भी कांग्रेस और साम्यवादियों के समर्थक खुलकर ये कहते सुने जा सकते हैं कि इस बार त्रिशंकु  विधानसभा बनेगी | हालाँकि मुस्लिम मतदाताओं में से अधिकतर ममता का यशोगान करते हैं लेकिन एक तबका  खामोशी ओढ़े बैठा है जिसमें वे लोग हैं जो ममता के चंडी पाठ को उनका अवसरवाद मानकर मुस्लिम मतों के स्वतंत्र अस्तित्व की बात सोचने लगे हैं  | इस  वर्ग को  पीरजादा और अब्बास में अपना भविष्य नजर आ रहा है | दरअसल मुसलमानों  को  ये लग रहा है कि सभी पार्टियां भाजपा को रोकने के  लिए हिन्दू हितैषी होने की होड़ में शामिल हो रही हैं | ऐसे में इसके पहले कि वे पूरी तरह किनारे धकेल दिये जाएँ उन्हें अपना खुद का नेतृत्व विकसित करना चाहिए | ओवैसी को बाहरी मानकर भले ही वैसा भाव न दिया गया किन्तु फुरफुरा शरीफ से जुड़े  लाखों परिवारों के साथ ही अब्बास सिद्दीकी भी  मुस्लिम युवाओं में पैठ बना चुके हैं | यदि यह मतों में  तब्दील हुई तब   नतीजे अप्रत्याशित हो सकते हैं | बिहार इसका ताजा उदाहरण है | वैसे भी कांग्रेस  और वामपंथियों के लिए  बंगाल मे अपना अस्तित्व बनाये रखने का ये  आख़िरी अवसर है | यदि तृणमूल और भाजपा में  किसी को भी पूर्ण बहुमत मिल गया तो इनकी बची - खुची उम्मीदें भी बंगाल की खाड़ी में डूबकर रह जायेंगी |


-रवीन्द्र वाजपेयी
 

Friday 19 March 2021

टोल नाकों का खात्मा एक क्रांतिकारी कदम होगा



परिवहन मंत्री नितिन गडकरी उन मंत्रियों में से हैं जो सदैव अपने काम में तल्लीन रहते हुए भविष्य के मद्देनजर योजनाएं बनाते ही नहीं अपितु उनको क्रियान्वित करने के लिए भी ईमानदारी से प्रयास करते हैं | राजमार्गों सहित अधो संरचना के अनेक प्रकल्पों पर चल रहे कार्य उनकी प्रशासनिक क्षमता का जीवंत  उदहारण हैं | देश में सड़क परिवहन के साथ ही जलमार्गों के विकास में भी उनकी रूचि उल्लेखनीय है | पिछले कुछ समय  से वे पुराने वाहनों के पंजीयन का नवीनीकरण कराये जाने संबंधी  बयान दे रहे हैं | तत्संबंधी कानून भी बन गया है | इसके अनुसार निजी और व्यवसायिक वाहनों को  निर्धारित कालावधि के उपरान्त फिटनेस परीक्षण करवाना  होगा जिसमें सफल होने के बाद ही उनका नए सिरे से पंजीयन हो सकेगा  | अन्यथा पुराने वाहन को स्क्रैप ( कबाड़ ) में  बेचने के बाद  नया वाहन  खरीदने वालों को  कीमत के साथ ही करों में छूट दी जावेगी | श्री गडकरी का मानना है कि पुराने वाहन को स्क्रैप किये जाने से ऑटोमोबाइल उद्योग द्वारा किये जाने वाले आयात में कमी आयेगी जिससे भारत में उत्पादित वाहन सस्ते होने  से वैश्विक प्रतिस्पर्धा में टिक सकेंगे | पुराने वाहनों के सड़कों से बाहर होने पर वायु प्रदूषण में भी कमी आयेगी | उनकी ताजा घोषणा और भी महत्वपूर्ण है जिसके अनुसार एक साल के भीतर देश भर में टोल नाके खत्म कर  दिये  जायेंगे तथा टोल टैक्स की वसूली वाहनों  में लगी  जीपीएस प्रणाली के जरिये वाहन  स्वामी के बैंक खाते से अपने आप होती रहेगी | यही नहीं तो वह राजमार्ग का उपयोग  जितनी दूरी के लिए करेगा उसे उतने के लिए ही टोल टैक्स देना पड़ेगा | ये बात किसी से छिपी नहीं है कि हमारे देश में टोल नाके भ्रष्टाचार और गुंडागर्दी के जीते - जागते अड्डे हैं | व्यवसायिक वाहनों के लिए  तो ये किसी मुसीबत से कम नहीं हैं | इनके ठेके अधिकतर नेताओं और नौकरशाहों के नजदीकी लोगों के पास होने से इनकी ज्यादतियों को सरकारी संरक्षण भी मिलता है | इसके अलावा उन पर समय भी बहुत नष्ट होता था | इसको हल करने के लिए शुरू की गई फ़ास्ट टैग प्रणाली बीती 15 फरवरी से लागू हो गई जिसके कारण टोल नाकों पर होने वाली दादागिरी और समय की बर्बादी तो रुकी ही सरकार को मिलने वाले राजस्व में भी अच्छी - खासी वृद्धि हुई |  फ़ास्ट टैग एक पूर्व भुगतान प्रणाली है जिसमें टोल टैक्स का अग्रिम भुगतान सरकार के ख़जाने में आ जाता है | मात्र एक महीने के भीतर ये साबित हो गया कि यह बहुत ही प्रगतिशील और पारदर्शी व्यवस्था है | लेकिन इसके कारण उन लोगों को परेशानी होने लगी जिनका निवास राजमार्ग के करीब है | ऐसे लोगों को रोजमर्रे के काम से अपने आसपास के क्षेत्र तक आने - जाने के लिए भी लम्बी दूरी के लिए निर्धारित टोल टैक्स चुकाना पड़ रहा है जिसकी वजह से जन असंतोष बढ़ा है | इस समस्या का हल टोल टैक्स की वसूली जीपीएस प्रणाली से किये जाने से हो जायेगी क्योंकि तब वाहन चालक को उतनी ही दूरी का टैक्स देना पड़ेगा जितनी की उसने यात्रा की | स्मरणीय है कि देश के ट्रक चालकों के संगठन लम्बे अरसे से मांग करते आ रहे थे कि टोल नाके खत्म कर दिए जाएँ तो वे टोल टैक्स से होने वाली आय के बराबर राशि सरकार को एकमुश्त देने को राजी हैं | नाकों पर होने वाली जबरिया वसूली और समय की बर्बादी को देखते हुए उनकी वह मांग सरकार को जमी किन्तु अब जाकर उसे अमल में लाये जाने की शुरुवात हुई है | इसमें दो राय नहीं है कि राजमार्गों के उन्नयन और विकास ने भारत में परिवहन क्रांति का सूत्रपात किया | स्व. अटलबिहारी वाजपेयी की दूरदर्शिता और श्री गडकरी की अद्भुत कार्यशैली ने जो चमत्कार किया उसकी वजह से देश में सडक परिवहन में तेजी से वृद्धि हुई है | कोरोना काल में लगे लॉक डाउन के दौरान लाखों लोग निजी वाहनों से अपने गंतव्य तक पहुँच सके | विश्वस्तरीय राजमार्ग पर चलते हुए टोल टैक्स देना वाहन स्वामी को अखरता नहीं  है  क्योंकि  समय बचने के साथ ही वाहन के रखरखाव पर होने वाला खर्च भी बचता है | अमेरिका में ये उक्ति बड़ी प्रचलित है कि आर्थिक विकास राजमार्गों से होकर ही  आता है | आजाद भारत में इसे समझने में आधी सदी खर्च कर दी गई | अटल जी ने जब स्वर्णिम चतुर्भुज परियोजना प्रारम्भ की तब मुलायम सिंह यादव ने तंज कसा था कि राजमार्गों का विकास भारत में  विदेशी कार निर्माताओं के  पैर ज़माने के लिए किया जा रहा है | श्री गडकरी पुराने वाहनों को स्क्रैप करने पर जिस तरह जोर दे रहे हैं  उसे लेकर भी ये आरोप लग रहे हैं कि भारत में बैटरी चलित वाहनों का बाजार विकसित करने के लिए ऐसा किया जा रहा है | टोल नाकों को खत्म किये जाने से भी राजनेताओं और उनके चहेते नौकरशाहों को भारी तकलीफ होगी | लेकिन देश को आगे बढ़ाना है तो क्षणिक राजनीतिक लाभ से ऊपर उठकर सोचने की प्रवृत्ति विकसित करनी होगी | सौभाग्य से श्री गडकरी उन नेताओं में से हैं जो अगले चुनाव की नहीं अपितु अगली पीढ़ी की चिंता कर रहे हैं | टोल नाकों पर पहले फास्ट टैग और एक साल के भीतर उनको पूरी तरह खत्म करते हुए जीपीएस प्रणाली से टोल टैक्स की वसूली एक बड़ा सुधार होगा जिससे देश में सड़क परिवहन और सुविधाजनक बनेगा | प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी घरेलू पर्यटन  को विकसित करने पर लगातार जोर देते हैं | कोरोना के कारण बीते एक वर्ष में पर्यटन उद्योग को भारी  क्षति हुई है | लेकिन राजमार्गों पर  यात्रा जितनी आसान होती जायेगी , घरेलू पर्यटन का विकास उतनी ही तेजी से होगा क्योंकि भारत का विशाल मध्यम वर्ग भी अब चौपहिया वाहन पर चलने को लेकर बहुत ही उत्साहित   है | 

-रवीन्द्र वाजपेयी

Thursday 18 March 2021

कोरोना की दूसरी लहर हमारी लापरवाही का नतीजा



गत वर्ष  इन्हीं दिनों भारत में कोरोना का आगमन हो चुका था | देश के अनेक हिस्सों में संक्रमण के प्रमाण मिलने लगे | उसका वायरस  चीन से निकलकर  अन्य देशों में  होता हुआ भारत आ धमका | विदेशों से आये भारतीय और विदेशी दोनों इसको आयात  में सहायक बने | शुरुवात में ये अवधारणा थी कि भारत के मौसम  और स्वास्थ्य के लिए प्रतिकूल परिस्थितियों के बावजूद लोगों की रोग प्रतिरोधक क्षमता इतनी ज्यादा है कि उन्हें  कोरोना शायद ही  दबोच सकेगा | लेकिन मार्च के अंतिम सप्ताह तक ये तय हो गया  कि  संक्रमण भारत में भी पाँव पसार चुका था  और जल्द नियंत्रण न किया गया तो इसके महामारी का रूप लेने में देर नहीं लगेगी | अंततः देशव्यापी  लॉक डाउन की घोषणा  प्रधानमंत्री ने स्वयं टीवी पर आकर की जिसके बाद का घटनाक्रम सर्वविदित है | भारत सरीखी घनी आबादी  वाले देश में जहां 80 फीसदी आबादी गरीब हो , वहां सब कुछ रुक जाना अप्रत्याशित ही नहीं अकल्पनीय भी था | इसका अर्थव्यवस्था पर  हुआ  असर  भी किसी से छिपा नहीं है | लॉक डाउन का उद्देश्य लोगों के मेलजोल को रोककर संक्रमण के फैलाव पर काबू पाना था जो तमाम अड़चनों के बाद भी पूरा हुआ । वरना भारत में भी इटली , ईरान , स्पेन और अमेरिका की तरह मौत का तांडव दिखाई देता | जिस देश में प्राथमिक चिकित्सा तक सभी नागरिकों तक नहीं पहुँच सकी हो उसमें एक अनजान वायरस के हमले का सामना करने की व्यवस्था करना कल्पनातीत था किन्तु संकट के समय भारत एक नया रूप ले लेता है और वही कोरोना से की गई जंग में देखने मिला  | सरकार और समाज के समन्वित प्रयासों और 135 करोड़ देशवसियों द्वारा  अनुशासन का पालन किये जाने का सुपरिणाम ये हुआ कि लगभग छह माह बाद सितम्बर से कोरोना के संक्रमण में कमी आने लगी और साल खत्म होते तक हम  स्वदेश में निर्मित टीका बनाने में भी कामयाब हो गए | ऐसे समय जब अमेरिका , ब्रिटेन सहित अनेक देशों  में कोरोना की दूसरी  और कहीं - कहीं तो तीसरी लहर से एक वर्ष पहले के हालात फिर लौट आये तब  भारत में कुछ को छोड़कर अधिकतर राज्यों में  कोरोना दम तोड़ने लगा था  | लॉक डाउन समाप्त किये जाने के बाद से क्रमशः व्यापारिक और सामाजिक गतिविधियाँ भी शुरू हो गईं | होटल , रेस्टारेंट , सिनेमा , सांस्कृतिक - साहित्यिक समारोह आदि की भी अनुमति दी जाने लगी | हवाई और रेल यातायात को  शुरू किये जाने से आवागमन ने जोर पकड़ा | सुस्त पड़े पर्यटन उद्योग को भी प्राणवायु मिलने लगी | शादी - विवाह पर लगे प्रतिबंध शिथिल कर दिए गए | धार्मिक स्थल  भी खोल दिए गए  | हाल ही में हरिद्वार में तो कुम्भ मेला प्रारंभ हो गया |  गत वर्ष  बिहार में विधानसभा चुनाव के बाद  अनेक राज्यों में उपचुनाव और स्थानीय  निकायों के  चुनाव सफलता पूर्वक संपन्न हुए | संसद और विधानसभा के सत्र भी इस बीच हुए | कुल मिलाकर देश सामान्य स्थिति में लौट चला था | यद्यपि शारीरिक दूरी , मास्क और सैनिटाईजर जैसी सावधानियों की आवश्यकता पर जोर दिया जाता रहा | लेकिन यहीं लापरवाही हो गयी | लोगों ने संक्रमण में आई कमी को उसकी विदाई मान लिया | बाजारों में भीड़ बढ़ने लगी | किसान आन्दोलन जैसे छोटे - बड़े आयोजन भी सर्वत्र दिखाई देने लगे | राजनीतिक रैलियों में  कोरोना संबंधी शिष्टाचार की  धज्जियां खुलकर उडाई जाती रहीं | इन सबका परिणाम ये हुआ कि  बीते कुछ दिनों से संक्रमण की संख्या में तेजी से वृद्धि होने लगी जिससे  अनेक शहरों में रात्रिकालीन कर्फ्यू और लॉक डाउन की नौबत आ गई | कल का आंकड़ा 35 हजार के पार चले   जाने के बाद ये कहना कतई गलत न होगा कि कोरोना की  वापिसी हो गई है | असम , बंगाल , तमिलनाडु , पुडुचेरी और केरल में विधानसभा  चुनाव की  प्रक्रिया चल ही रही है | मार्च के अंत में होली का उत्सव होगा | ऐसे में शारीरिक दूरी के साथ ही कोरोना संबंधी अन्य सावधानियों के प्रति लापरवाही पूरी तरह संभावित है | दीपावली के समय से ही लोग ये मान बैठे थे कि कोरोना की वापिसी हो चली है और  टीका आते ही वह अंतिम सांसें लेने लगेगा | लेकिन इस आशावाद पर बीते कुछ दिनों में पानी फिर गया  | अब जबकि उसके दूसरे हमले की पुष्टि हो चुकी है  तब ये मानकर चलना निरी मूर्खता होगी कि अधिकतर नए मामले महाराष्ट्र या दूसरे किसी राज्य में हैं | संयोगवश भारत में सामुदायिक संक्रमण के हालात नहीं आये लेकिन उसकी वापिसी पहले से ज्यादा खतरनाक हो सकती है | और इसके लिए न चीन पर  दोषारोपण किया जा सकता है और न ही सरकार पर  | बीते एक साल में सरकार ने जो कुछ किया वह उम्मीद से ज्यादा था | भारत में टीके का विकास निश्चित रूप से बड़ी उपलब्धि कही  जायेगी |  उसका निर्यात किये जाने से भारत की प्रतिष्ठा में भी वृद्धि हुई है लेकिन कोरोना की वापिसी सारे  किये - धरे पर पानी फेर रही है | प्रधानमन्त्री ने इस बारे में जो कटाक्ष किया वह कुछ लोगों को भले बुरा लगे लेकिन ये बात बिलकुल सही है कि दूसरी लहर का कारण आम जनता द्वारा दिखाई गई लापरवाही है | इस बारे में एक बात अच्छी तरह समझ लेनी  चाहिए कि कोरोना भी  मलेरिया , डेंगू , पीलिया , टाइफ़ाइड की तरह हमारे साथ रहने आ चुका है | उसका इलाज भले ही खोज लिया गया है और सरकार मुफ्त में टीका भी लगवा रही है लेकिन जरा सी असावधानी प्राणलेवा हो सकती है | ये देखते हुए शारीरिक दूरी , भीड़भाड़ से बचाव , मास्क और हाथ धोने जैसी बातों को अपने दैनिक आचरण में शुमार  करना होगा | कोरोना के खतरे के बारे में किसी को कुछ बताने की  जरूरत नहीं बची है | गत दिवस प्रधानमंत्री ने  ग्रामीण इलाकों में कोरोना के फैलाव को रोकने संबंधी जो समझाइश दी वह बेहद महतवपूर्ण है | पिछले दौर में भारत के ग्रामीण और  आदिवासी बहुल इलाके कोरोना की मार से काफी हद तक अछूते रहे लेकिन आगे भी  ऐसा होता रहेगा ये मानकर बैठे रहना आत्मघाती होगा |  लॉक डाउन हटने के बाद अर्थव्यवस्था किसी तरह पटरी  पर लौटती दिख रही थी लेकिन कोरोना की दूसरी लहर के कारण चिंता के काले बादल फिर आसमान पर मंडराते दिख रहे हैं |  गत वर्ष कोरोना से  हम अनजान थे लेकिन आज के हालात में उसके खतरे और बचाव के प्रति सब जानते हुए भी  लापरवाही की गई तो फिर कहने को और कुछ बचता ही नहीं है | 

- रवीन्द्र वाजपेयी

Wednesday 17 March 2021

गोविन्द सिंह किसी और के पति होते तो .......



 मप्र पुलिस के तमाम अधिकारी हत्या के एक आरोपी की तलाश में जुटे हैं  | उस पर ईनाम भी रखा गया है | जगह - जगह दबिश देने पर भी  उसका पता नहीं चल रहा | वैसे अन्य कोई आरोपी इस तरह पुलिस के साथ  आँख - मिचौली करता होता तो अभी तक उसके पूरे कुनबे को थाने में बिठाकर आवभगत शुरू हो जाती | लेकिन फरार बन्दा कोई मामूली इंसान नहीं मप्र विधानसभा की माननीय सदस्या  का परम सम्मानीय पति है | इसलिए खाकी वर्दी वाले पूरी सौजन्यता बरत  रहे हैं | 2018 के चुनाव में दमोह के पास पथरिया सीट से बसपा की टिकिट पर जीतकर आईं रामबाई के पति गोविन्द सिंह कुछ महीनों बाद ही क़त्ल के एक मामले में फंस गये | चूंकि उस समय बनी कमलनाथ सरकार के पास पूर्ण बहुमत नहीं था इसलिए  रामबाई महत्वपूर्ण बन गईं | बाद में उनके पति का नाम प्राथमिकी से हटा दिया गया |  लेकिन पीड़ित परिवार की याचिका  पर अंततः सर्वोच्च न्यायालय ने हाल ही में गोविन्द सिंह की गिरफ्तारी का फरमान सुना   दिया | जिसके बाद उनकी खोज शुरू हुई जो इन पंक्तियों के लिखे जाने तक पूरी नहीं हो सकी | सुना है राजधानी भोपाल से दिग्गज पुलिस अधिकारी इस काम में लगाये गये हैं | कमलनाथ सरकार गिरने के बाद रामबाई भी  जहां बम वहां हम की नीति पर चलते हुए सत्ता प्रतिष्ठान की  प्रिय बन गईं | हालांकि पति के अपराधिक कृत्य के लिए विधायक महोदया को दोषी ठहराना अनुचित होगा किन्तु लाख टके का सवाल ये है कि गोविन्द सिंह किसी और का पति रहा होता तब भी क्या मप्र की पुलिस इतनी आराम तलबी दिखाती | वैसे भी जो मुस्तैदी दिखाई जा रही है उसका कारण सर्वोच्च न्यायालय का डंडा है , वरना तो न जाने कितने हत्या के आरोपी पुलिस की आँखों के सामने बिना डरे  घूमा करते हैं | आम तौर पर संगीन मामलों में  पुलिस आरोपी के फरार होने पर उसके परिवारजनों को थाने में  बुलाकर बिठा लेती है जिससे उस पर आत्मसमर्पण का दबाव बनाया जा सके | ये फार्मूला अक्सर कारगर होता है | फरार व्यक्ति की संपत्ति जप्त करने जैसे कदम भी उठाए जाते हैं | लेकिन ये तौर - तरीके आम जनता के लिए हैं | देशभक्ति - जनसेवा के ध्येय वाक्य से प्रेरित हमारे देश की पुलिस आम और ख़ास में फर्क करने के लिये मजबूर है जो लोकतंत्र की मूल  भावना के विरुद्ध होने से  कानून के समक्ष समानता के सिद्धांत की धज्जियां उड़ाकर रख देता है | गोविन्द सिंह की गिरफ्तारी इतनी बड़ी  समस्या नहीं थी जिसके लिए पुलिस को यह  सब करना पड़ता किन्तु जनता द्वारा चुने जाने के बाद किसी जनप्रतिनिधि को जो विशिष्ट स्थिति हासिल हो जाती है उसका लाभ विधायक पति को मिलता रहा  है | प्रकरण की सुनवाई जिस स्थानीय अदालत में चल रही है उसके माननीय न्यायाधीश   महोदय को भी सुरक्षा दे दी गई है | कुल मिलाकर मामला इसलिए सुर्ख़ियों में है क्योंकि गिरफ्तारी से बचने वाला व्यक्ति विधायक  का पति है और वह भी उस बसपा से जो दलित वर्ग की पार्टी कहलाती है | पुलिस की हालिया  दबिश पर घर में न रामबाई मिलीं न गोविन्द सिंह | पिछली सरकार द्वारा जांच में गोविन्द सिंह को निर्दोष ठहराए जाने का मसला भी राजनीतिक सौजन्यता का ही परिणाम कहा जाएगा  | मप्र में शिवराज सरकार ने हालांकि स्पष्ट बहुमत हासिल कर लिया है लेकिन वह उतना ज्यादा नहीं कि वह  निश्चिन्त होकर बैठी रहे | इसीलिये निर्दलीय और बसपा - सपा सहित  फुटकर विधायकों की पूछ - परख कुछ ज्यादा ही होती है और उस दृष्टि से रामबाई भी सरकार की जरूरत बनी हुई हैं | कहे कोई कुछ भी लेकिन गोविन्द सिंह की फरारी और उसे पकड़  पाने में पुलिस की लाचारी व्यवस्था की फटेहाली को उजागर करने के लिए पर्याप्त है | यद्यपि ये कोई पहला और  अंतिम मामला नहीं है जिसमें पुलिस की प्रतिष्ठा तार - तार हो रही हो | पहले भी ऐसे मामले उजागर होते रहे  हैं जिनमें राजनीतिक रसूख के चलते कोई आरोपी या अपराधी कानून के शिकंजे से बचा रहा | उसे लेकर होहल्ला भी मचा |  चूँकि सत्ता और विपक्ष ऐसे मामलों में सिकंदर और पोरस के बीच हुए संवाद के अनुसार एक दूसरे का सम्मान करते हैं  इसलिए अंततः निहित स्वार्थों के सामने  समूची  व्यवस्था  बौनी  साबित हो जाती है  | गोविन्द सिंह भी आज - कल में पकड़ा ही जायेगा लेकिन सम्भावना यही है कि गिरफ्तारी उसकी सुविधा के अनुसार ही होगी |   न्यायमूर्ति चंद्रशेखर धर्माधिकारी का ये कथन ऐसे सभी मामलों में बेहद प्रासंगिक है कि हमारे देश में किसी व्यक्ति की सामाजिक प्रतिष्ठा इस बात पर निर्भर है कि कानून तोड़ने और उससे बचने  की उसकी क्षमता कितनी अधिक है |

-रवीन्द्र वाजपेयी



Tuesday 16 March 2021

किसानों के हाथ से निकलकर राजनीति के शिकंजे में फंसा आन्दोलन



किसान आन्दोलन के 100 दिन पूरे होने के बाद किसान नेताओं का एक प्रतिनिधिमंडल प.बंगाल गया और  भाजपा के अलावा किसी को भी मत देने की अपील कर आया | इसी तरह राकेश टिकैत विभिन्न राज्यों में जाकर किसानों को लामबंद करते हुए केंद्र सरकार के विरुद्ध माहौल बनाने में जुटे हुए हैं | किसान नेताओं द्वारा  उठाये जा रहे मुद्दे और मागें  वही हैं  जो दिल्ली की सीमा पर  दिए जा रहे धरने में उठाई गई थीं |  केंद्र सरकार लगातर कह  रही है कि वह किसानों द्वारा सुझाये  संशोधनों पर विचार करने के लिए तैयार  है किन्तु किसान नेताओं की जिद है कि सभी कानून वापिस लिए जाएं और न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानूनी रूप दिया जाए | चूंकि दोनों पीछे हटने राजी नहीं हैं इसलिए गतिरोध दूर होने की सम्भावना नजर नहीं आ रही | श्री टिकैत सरकार द्वारा समर्थन  मूल्य को जारी रखने के आश्वासन का मजाक उड़ाते हुए लगातार कह रहे हैं कि अब किसान जिलाध्यक्ष कार्यालय जाकर  अपना अनाज बेचने और समर्थन मूल्य हासिल करने का दबाव बनाएंगे | ये   बहुत ही बचकानी बात है क्योंकि सरकारी खरीद या तो कृषि उपजमंडी में होती है या प्रशासन द्वारा निर्धारित केन्द्रों में | जिन राज्यों में आन्दोलन का असर है वहां  के किसान भी श्री टिकैत के सुझाव को कितना स्वीकार करेंगे ये कहना कठिन है | आज  प्राप्त समाचार के अनुसार मक्का को  छोड़कर न्यूनतम समर्थन मूल्य के दायरे में आने वाले अनेक खाद्यान्नों एवं अन्य चीजों की कीमतें फ़िलहाल समर्थन मूल्य से ज्यादा चल रही हैं | कपास के दाम तो काफी ऊपर चल रहे हैं  | इसी तरह भारतीय गेंहू और चावल की मांग  भी विदेशों में बढ़ी है | यद्यपि ये अस्थायी दौर हो सकता है क्योंकि  अनेक दक्षिण एशियाई देशों में  उत्पादन गिरा है जबकि भारत में सौभाग्यवश अच्छी फसल आने से हम निर्यात करने में सक्षम हुए हैं | जैसे संकेत मिल रहे हैं उनके अनुसार आने वाले कुछ वर्षों में भारत खाद्यान्न के बड़े निर्यातक के रूप में अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य पर उभरेगा | किसान आन्दोलन के संचालकों को अपनी मांगों के लिए संघर्ष करने का पूरा अधिकार है लेकिन जिलाध्यक्ष कार्यालय जाकर अनाज बेचने की बात गले नहीं उतरती | उल्लेखनीय है वे संसद जाकर अनाज के न्यूनतम  समर्थन मूल्य वसूलने जैसी घोषणा भी कर चुके हैं | उनसे ये पूछा जा सकता है कि जिन जिंसों के दाम समर्थन मूल्य से ज्यादा हो गए हैं क्या  उन्हें भी जिला मुख्यालय अथवा संसद ले जाकर न्यूनतम मूल्य पर बेचा जाएगा ? वैसे भी  किसान आन्दोलन से इतर सोचने वाली बात ये है कि कृषि प्रधान देश होने के बाद भी भारत खाद्यान्न के निर्यात में वैश्विक स्तर पर अपनी जगह क्यों नहीं  बना सका ? | किसान आन्दोलन के बाद खेती और उससे उत्पादित  चीजों के दाम और उत्पादक को होने वाले लाभ का मुद्दा राष्ट्रीय विमर्श बन चुका है | राजनीति  से अलग हटकर देखें तो ये शुभ संकेत है किन्तु साथ ही ये याद रखना जरूरी होगा कि जिस तरह वामपंथी सोच पर आधारित श्रमिक आन्दोलनों ने  श्रमिकों की संघर्ष क्षमता खत्म कर दी  ठीक उसी तरह किसान आन्दोलन को लेकर भी  आशंका  है कि उसकी हालत भी वैसी ही न  हो जाए | किसानों की जायज मांगों से किसी को ऐतराज नहीं  है लेकिन श्री टिकैत और बाकी  किसान नेता जिस तरह से बातें कर रहे हैं वे इस बात का संकेत हैं कि उनका उद्देश्य आन्दोलन को टाँगे रखना है न कि किसानों की भलाई | 100 दिन बीत जाने के बाद भी आन्दोलन को वैसा अखिल भारतीय स्वरूप नहीं  मिल सका जैसा किसान संगठन सोच रहे थे | दिल्ली की सीमा पर चल रहे धरने भी अब रौनक खोते जा रहे हैं | जिस तरह किसान नेता ,  केंद्र सरकार को व्यापारियों द्वारा संचालित बताने में जुटे हुए हैं ठीक वैसे ही इस आन्दोलन के साथ भी  ये बात जुड़ चुकी है कि अव्वल तो ये पंजाब - हरियाणा के सम्पन्न  किसानों और उनके साथ जुड़े ढ़तियों द्वारा प्रायोजित  है और दूसरा ये  भाजपा विरोधी शक्ल अख्तियार कर चुका है | वैसे अब तक किसान नेता इतना आगे बढ़ चुके हैं कि पीछे लौटना उनके लिए बेहद कठिन हो गया है | रही बात केंद्र सरकार की तो प्रधानमन्त्री द्वारा स्पष्ट कर  दिए जाने के बाद कृषि कानून वापिस होने की सम्भावना तो बची नहीं है और रही बात न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानूनी जामा पहिनाने की तो वह सुधारों की पूरी प्रक्रिया को ही पटरी से उतार देगा | ऐसे में बीच का रास्ता ही इस विवाद को ठंडा कर सकेगा लेकिन वह  निकालेगा कौन ये यक्ष प्रश्न है | जानकारों का कहना है कि  यदि बाजार के भाव सरकारी कीमत से ज्यादा चले तब तो  आन्दोलन अपना बचा - खुचा दबाव भी खो बैठेगा | 2 मई को पांच राज्यों के  चुनाव नतीजे  आने के बाद दोनों पक्ष अपनी रणनीति नये सिरे से बनायेंगे  | श्री टिकैत भी अक्टूबर - नवम्बर तक विवाद  सुलझ जाने की बात लगातार दोहरा रहे हैं | गत दिवस मेघालय के राज्यपाल सत्यपाल मलिक द्वारा बागपत में दिए भाषण की भी काफी चर्चा रही जिससे लगा कि कोई राजनीतिक प्रक्रिया पर्दे  के पीछे चल रही है | आने वाले दिनों में क्या होगा ये अनिश्चित है किन्तु इतना तो कहा ही जा सकता है यह  आन्दोलन किसानों के हाथ से निकलकर राजनेताओं के कब्जे में आता जा रहा है और श्री टिकैत सहित बाकी नेता सियासत के औजार बनकर रह गये हैं |

- रवीन्द्र वाजपेयी

Monday 15 March 2021

तबादला उद्योग के चलते भ्रष्टाचार रोकना असम्भव



मप्र सरकार ने अपनी नई तबादला नीति के तहत  फैसला किया है कि प्रभारी  मंत्री  अधिकारियों , शिक्षकों या कर्मचारियों का तबादला साल में दो बार नहीं कर सकेंगे और विशेष परिस्थिति में ऐसा करने के लिए मुख्यमंत्री स्तर तक स्वीकृति लेनी होगी | हालाँकि अखिल भारतीय सेवा के अधिकारी इस नीति से बाहर होंगे | राज्य सरकार शीघ्र ही  तबादलों से प्रतिबंध हटाने जा रही है | पहले परीक्षाओं का मौसम खत्म होने के बाद सरकारी अमले के स्थानान्तरण की परम्परा थी | इसका उद्देश्य बच्चों की पढाई बीच सत्र में बाधित होने से रोकना था | लेकिन धीरे - धीरे तबादले की प्रक्रिया में भी अस्थिरता आ गई और फिर इसने एक उद्योग का रूप ले लिया | ज्योंही प्रतिबन्ध हटता है राजधानी में मंडी सज जाया करती है | मंत्रियों के बंगलों पर सौजन्य ( ? ) भेंट करने वाले सरकारी सेवकों की भीड़ इसका प्रमाण है | इसी के साथ ही बीच शैक्षणिक सत्र में स्थानान्तरण का सिलसिला भी अनवरत चला करता है | कमलनाथ सरकार बनी तो उसने पूरी नौकरशाही को अपनी अनुकूलता के अनुसार उलट - पुलट  किया | ये भी कहा जाता है कि नई सरकार बनने पर चुने हुए जनप्रतिनिधि चुनाव में हुए खर्च की भरपाई तबादलों से कर लेते हैं | कमलनाथ सरकार के 15 महीने के कार्यकाल में तबादले बिना रुके जारी रहे | संयोग से उसकी विदाई हो गयी और शिवराज सिंह चौहान फिर मुख्यमंत्री बन गये | उसके बाद फिर वही प्रक्रिया शुरू हुई | जबसे प्रभारी मंत्री नामक व्यवस्था शुरू हुई तबसे सम्बन्धित  जिले का सरकारी अमला उनकी पसंद का होने का चलन चल पडा | उसकी वजह से प्रभारी मंत्री की खुशी और नाराजगी किसी भी सरकारी कर्मचारी या अधिकारी के तबादले का कारण बनने लगी है | हाल ही में ऐसे अनेक वाकये हुए जिनमें किसी कर्मचारी या अधिकारी को महज इसलिए तबादले का शिकार होना पडा क्योंकि मंत्री जी अपने स्वागत - सत्कार में कमी से नाराज हो उठे | वैसे सत्ता के विकेंद्रीकरण के लिहाज से प्रभारी मंत्री रूपी  व्यवस्था गलत नहीं है किन्तु कतिपय  मंत्रियों का जो शैक्षणिक और मानसिक स्तर होता  है उसे देखते हुए उन्हें तबादलों का अधिकार देना  बंदर के हाथ में उस्तरा पकडाने जैसा है | ये देखते हुए शिवराज सरकार ने एक साल में दो तबादले करने के अधिकार से प्रभारी मंत्रियों को वंचित करने की जो नीति बनाई है वह व्यवहारिक है | लेकिन ये भी  देखना   होगा कि विशेष मामलों में मुख्यमंत्री स्तर पर तबादले की प्रक्रिया भी पारदर्शी हो और उसमें राजनीतिक भेदभाव नजर न आये | किसी भी शासकीय कर्मी को अपने कर्तव्य के निर्वहन में कमी या गलती पर दंडित किये जाने के प्रावधान सेवा शर्तों में  हैं | निलम्बन और बर्खास्तगी के अलावा भी अनेक ऐसे तरीके हैं जिनसे उसे दंडित किया जाता है जिससे उसकी पदोन्नति पर असर पड़ता है | वरिष्ठ अधिकारी द्वारा  अपने अधीनस्थ की गोपनीय वार्षिक रिपोर्ट लिखने का जो प्रावधान है उसका उद्देश्य भी प्रशासनिक कसावट बनाये रखना ही है | हालाँकि इस कार्य में  कितनी ढील - पोल है ये किसी से छिपा नहीं है | सरकारी अमले के तबादले के पीछे मकसद ये होता है कि किसी एक जगह रहते हुए उसके निहित स्वार्थ जड़ें न जमा लें | लेकिन दंडस्वरूप किये जाने वाले स्थानांतरण का विशेष लाभ  इसलिए नहीं होता क्योंकि जो कर्मचारी या अधिकारी  स्वभावतः भ्रष्ट अथवा अकर्मण्य है उसे कहीं भी पदस्थ किया जावे वह कुत्ते की पूंछ की तरह ही बना रहेगा | कहने का आशय ये है कि शासकीय सेवा में स्थानान्तरण सामान्य और काफी हद तक आवश्यक  प्रक्रिया  है किन्तु उसका औचित्य साबित करना भी जरूरी है | प्रभारी मंत्री या दूसरे किसी भी जनप्रतिनिधि की व्यक्तिगत नाराजगी या प्रसन्नता के कारण होने वाले स्थानान्तरण से किसी भी तरह के सुधार की उम्मीद करना व्यर्थ है | कमलनाथ और शिवराज सिंह दोनों  के समय ये देखने में आया कि पहले तो लम्बी चौड़ी तबादला  सूची जारी हुई और अगले ही दिन उसमें से बड़ी संख्या में तबादले रद्द कर दिए गए | इसी तरह एक जगह हुए तबादले को बदलकर आनन - फानन में दूसरी जगह भेजने का आदेश जारी हो गया | जाहिर है ये सब राजनीतिक कारणों के साथ ही पैसे के लेनदेन से संभव होता है |  सबसे बड़ी बात ये है कि तबादला उद्योग के कारण ही प्रतिबद्ध नौकरशाही नामक विसंगति ने जन्म लिया | आज के दौर में किसी अधिकारी की निष्ठा किस नेता के प्रति है ये आसानी से उजागर हो जाता है | धीरे - धीरे ये प्रवृत्ति दलीय प्रतिबद्धता में बदलती गई | इसका नुकसान यह हुआ कि राजनीतिक विद्वेष का शिकार कर्मचारी या अधिकारी निठल्ला  बैठकर अपनी अनुकूल सरकार  आने की प्रतीक्षा करता है | भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी राज्य में मनमाफिक सरकार नहीं होने पर केंद्र में प्रतिनियुक्ति पर खिसक लेते हैं | शिवराज सरकार ने एक साल में दो तबादले करने के  प्रभारी मंत्री के अधिकार को भले ही खत्म किया हो लेकिन तबादले को उद्योग बनने से रोकने की इच्छा  शक्ति के बिना व्यवस्था में सुधार की अपेक्षा करना व्यर्थ है | प्रशासनिक ढांचा एक स्थायी व्यवस्था है जिसे सत्ता  परिवर्तन से अछूता रखा जाना ही सही मायनों में प्रशासनिक सुधार होगा | दुर्भाग्य से नेता और नौकरशाही के बीच होने वाले अपवित्र गठजोड़ ने जिस भ्रष्ट संस्कृति को जन्म दिया वह सारी समस्याओं की जड़ बन गई है | शिव्र्राज सरकार यदि  तबादला उद्योग रूपी भ्रष्टाचार के स्रोत को बंद करना चाहती है तो उसे ईमानदार और निष्पक्ष  होकर काम करना होगा | राजनीतिक तौर पर भले ही उनकी नीतियां कांग्रेस से भिन्न हों लेकिन प्रशासनिक अमले के भ्रष्टाचार को रोकने के मामले में मौजूदा सरकार भी  पूरी तरह विफल रही है | और इसके  प्रमुख कारणों में तबादला सबसे ऊपर है | प्रभारी मंत्रियों को ये  नई व्यवस्था कितनी रास आयेगी , कहना कठिन है क्योंकि मलाई का स्वाद चखने के बाद रूखी - सूखी खाने के लिए शायद ही  कोई तैयार होगा | वैसे भी गांधी , लोहिया और दीनदयाल केवल  जयन्ती मनाने तक ही प्रासंगिक रह गए हैं | 

- रवीन्द्र वाजपेयी


Saturday 13 March 2021

क्यों न कर्ज का नाम बदलकर मुफ्त उपहार कर दिया जावे



 तमिलनाडु से आ रही खबरों के अनुसार आगामी विधानसभा चुनाव में सत्तारूढ़ अन्नाद्रमुक सत्ता से बाहर होने जा रही है और द्रमुक भारी बहुमत के साथ दस साल बाद सरकार बना लेगी | करूणानिधि और जयललिता के निधन के बाद इस राज्य की राजनीति में दिग्गजों का अभाव साफ़ दिख रहा है | हालाँकि करूणानिधि के बेटे और चेन्नई के पूर्व महापौर स्टालिन प्रदेश की राजनीति में जाने पहिचाने चेहरे हैं जिसके जवाब में अन्नाद्रमुक के पास कोई  दमदार नेता नहीं है | वर्तमान मुख्यमंत्री  पलानि स्वामी की छवि अभी भी स्टेपनी की ही है | इनके अलावा फ़िल्मी सितारे रजनीकांत और कमल हासन ने भी अपनी - अपनी  पार्टी बनाकर राजनीति में उतरने का प्रयास किया  लेकिन वे आधे - अधूरे मन से आगे बढ़ने के बाद ठहरे हुए हैं | ऐसे में मुकाबला तो द्रमुक और अन्नाद्रमुक के बीच ही होगा | कांग्रेस का  द्रमुक और भाजपा का  अद्रमुक के साथ गठबंधन  है | दक्षिण का ये राज्य , हिन्दी और उत्तर भारत के विरोध के लिए जाना जाता है | एक समय था जब यहाँ अलग तमिल राष्ट्र जैसी मांग भी उठी किन्तु श्री लंका में लिट्टे के खात्मे के बाद उसकी हवा निकल गई | बीती आधी शताब्दी से यहाँ की सियासत पर फ़िल्मी हस्तियों का कब्जा रहा | करूणानिधि , एमजी रामचंद्रन और जयललिता तमिल  फिल्म उद्योग से जुड़े हुए  थे | बीते कुछ सालों में जरूर ये सिलसिला टूटा लेकिन अभी भी वहां दोनों प्रमुख क्षेत्रीय दलों का ही आधिपत्य है और कांग्रेस तथा भाजपा जैसे राष्ट्रीय दल इनका दामन पकड़कर चलने को मजबूर हैं | फ़िल्मी हस्तियों के वर्चस्व के कारण राजनीति भी लटकों - झटकों से भरपूर रही है | इसका प्रमाण चुनाव में किये जाने वाले वायदों से मिलता रहा | मिक्सर - ग्राइंडर , टीवी , मंगलसूत्र जैसे उपहार घोषणापत्र के वायदों में प्रमुखता से छाये रहते हैं | इनकी देखासीखी बाकी राज्यों में भी इसका अनुसरण किया जाने लगा | हालाँकि जयललिता द्वारा 2 रूपये में इडली का नाश्ता शुरू किये जाने जैसी योजना जनहित में मील का पत्थर साबित हुई जिसकी नकल करते हुए ममता बैनर्जी ने भी बंगाल की जनता से वैसा ही वायदा किया है | लेकिन जो नई बात सुनाई दे रही है उसके अनुसार अपनी जमीन खिसकते देख अन्नाद्रमुक ने स्वर्ण लोन  माफी जैसा वायदा उछालकर सत्ता में वापिसी का दांव चल दिया है | राजनीतिक  विश्लेषकों के अनुसार इस वायदे की वजह से मैदान  से बाहर हो रही सत्तारूढ़ पार्टी वापिस मुकाबले  में उतरने लायक हो गई है | कुछ लोग तो इसे चुनाव  की दिशा बदलने वाला पैंतरा बता रहे हैं | इसका कारण ये है कि स्वर्ण आभूषणों के प्रति तमिलनाडु में जबर्दस्त आकर्षण है | देश भर के हालमार्क केन्द्रों में से 30 फीसदी इसी राज्य में हैं | सहकारी  संस्थाओं द्वारा वितरित 20 हजार करोड़ रु.  के  ऋणों में लगभग 7 हजार करोड़ सोना गिरवी रखकर लिए गये ऋण ही हैं | प्राप्त जानकारी के अनुसार लगभग 15.5 लाख महिलाओं को इस प्रस्तावित ऋण माफी का  लाभ मिलेगा | अन्नाद्रमुक के इस चुनावी बाउंसर से द्रमुक चिंतित  हो उठी है | 48 ग्राम तक के स्वर्ण  ऋण माफ़ करने का वायदा किसानों के कर्जे माफ़ किये जाने जैसा करिश्माई साबित होने की अटकलें लगाई  जाने लगी हैं | सुना है द्रमुक के चुनाव सलाहकार प्रशांत किशोर इस दांव का जवाब तलाशने में जुट गये हैं  | लेकिन इससे इतर देखें तो क्या इस तरह के वायदे मतदाताओं को घूस देने की श्रेणी में नहीं  आते ? चुनावों के दौरान सख्ती का प्रतीक बन जाने वाला चुनाव आयोग इस मुफ्तखोरी पर अंकुश लगाने के मामले में क्यों उदासीन बना रहता है , ये बड़ा सवाल है | लोकतंत्र में जनहित की नीतियों को लागू किया जाना हर दृष्टि से वांछनीय है  किन्तु ये भी देखा जाना जरूरी है कि समाज के एक वर्ग को दिए जाने वाली मुफ्त सुविधा का भार दूसरे वर्ग पर पड़ता है | जिन सहकारी संस्थाओं द्वारा दिये गये स्वर्ण ऋण माफ़ किये जाने का वायदा अन्नाद्रमुक ने किया है उनकी भरपाई करने में राज्य सरकार द्वारा की जाने वाली देरी से उनका आर्थिक आधार डगमगाना तय है | किसानों के  कर्जे माफ़ किये जाने वाले राज्यों में ऋण देने वाले बैंकों और सहकारी संस्थाओं के सामने भारी संकट उत्पन्न हो गया क्योंकि  चुनावी वायदा सुनते ही कर्जदारों ने अदायगी बंद कर दी वहीं सत्ता में आने के बाद सरकार उनकी भरपाई में टरकाऊ रवैया दिखाती रही | मप्र , राजस्थान , छतीसगढ़ , पंजाब जैसे राज्यों में  किसानों के कर्ज माफ़ करने की घोषणा ने सरकार और वित्तीय संस्थानों के लिए मुसीबत पैदा कर दी | सबसे बड़ी बात ये है कि राजनीतिक दलों द्वारा इस तरह के वायदों से सत्ता हथियाए जाने के कारण जनता की मानसिकता में  भी  मुफ्तखोरी बढ़ रही है | पहले के जमाने में कर्ज को बुरा माना जाता था लेकिन राजनीति के चलते  लोग  कर्ज लेने और फिर अदा न करने के लिए प्रेरित हो रहे हैं  | उस  दृष्टि से      तमिलनाडु में अन्नाद्रमुक द्वारा स्वर्ण ऋण माफ़ किये जाने का चुनावी वायदा बहुत ही खतरनाक संकेत है | भाजपा का उसके साथ गठबंधन है लेकिन वह राष्ट्रीय पार्टी होने के बावजूद उस पर हावी होने की स्थिति में नहीं है | लेकिन उसे चाहिए वह इस तरह के वायदों से खुद को दूर रखे क्योंकि चुनाव दर चुनाव ये बढ़ता  ही जा रहा है | ये सिलसिला कहाँ जाकर रुकेगा कहना कठिन है | चुनाव आयोग को भी इस बारे में कड़ाई दिखानी चाहिए | यदि मुफ्त खैरात बांटने पर रोक नहीं  लगाई जाती तब बड़ी बात नहीं आने वाले समय में कर्ज का  नाम बदलकर मुफ्त उपहार करना पड़ेगा | गरीबों की मदद करना बुरा नहीं है लेकिन उन्हें मुफ्तखोर बनाना देश के दूरगामी हितों के विरुद्ध होगा |  

- रवीन्द्र वाजपेयी



Friday 12 March 2021

प्रधानमन्त्री के सन्देश की प्रतीक्षा में न बैठे रहें



महाशिवरात्रि पर गत दिवस  हरिद्वार में कुम्भ का शुभारम्भ हुआ | एक माह तक चलने वाले इस आयोजन में करोड़ों लोगों की आवक होगी | शाही स्नान और विभिन्न पर्वों के दिन श्रद्धालुओं की भीड़ हरिद्वार में उमड़ेगी | कुम्भ मेला भारत के सबसे बड़े आयोजनों में से है | लेकिन ये आयोजन ऐसे समय में हो रहा है जब देश में कोरोना की दूसरी लहर ने जोरदार दस्तक दे दी है | गत दिवस 22 हजार से ज्यादा नए मामले आये जबकि स्वस्थ होकर अस्पतालों से लौटने वालों की संख्या काफ़ी कम रही | महाराष्ट्र , केरल और गुजरात से आ रही खबरें  भी चिंता में डालने वाली हैं | पूरे देश से लोग कुम्भ में आयेंगे । वहीं असम , प.बंगाल , तमिलनाडु , पुडुचेरी और केरल में विधानसभा चुनाव की सरगर्मी के कारण कोरोना से बचाव के प्रति वैसे भी लापरवाही देखी जा रही है | मास्क और शारीरिक दूरी की सलाह पूरी तरह उपेक्षित कर दी गई है  | द्देश के बाकी हिस्सों में भी कोरोना को लेकर पैदा हुआ खौफ पूरी तरह खत्म सा लगने लगा है | सरकार द्वारा लगाई गयी बंदिशें लगातार शिथिल किये जाने से भी संक्रमण के लौटने की स्थितियां बनने लगी हैं | रेलगाड़ियों का परिचालन बढ़ने से आवागमन बढ़ने लगा है | घरेलू उड़ानों को भी भरपूर यात्री मिल रहे हैं | सिनेमा घर खुल गए हैं और होटल रेस्टारेंट भी गुलजार नजर आ रहे हैं | इस महीने के अंत में होली का उत्सव होगा और फिर आ जाएगा शादियों का मौसम | कहने का आशय ये है कि लॉक डाउन हटने के बाद कोरोना में क्रमशः आई गिरावट ने जो उम्मीदें जगाई थीं वे उसका टीकाकरण शुरू होने से और बलवती होने लगीं | इसका असर ये हुआ कि लोगो में बेफिक्री आने लगी जो लापरवाही की हद तक जा पहुँची | उसी का परिणाम ये हुआ कि जिस कोरोना की विदाई मानकर राहत की सांस की जा रही थी वह लौट आया है | एक तरफ तो देश भर में चल  रहे  टीकाकारण के आंकड़े प्रसारित हो रहे हैं वहीं दूसरी तरफ कोरोना के नये मामलों में वृद्धि की खबरें भी बराबरी से सुनाई दे रही हैं | गत दिवस नए संक्रमितों की संख्या न केवल चौंकाने बल्कि उससे ज्यादा डराने वाली है | यदि इस पर नियन्त्रण नहीं हुआ तब टीकाकरण आगे पाट पीछे सपाट की कहावत चरितार्थ करने वाला होगा | सरकार का पूरा ध्यान मौजूदा समय में टीकाकरण पर है | ऐसे में यदि कोरोना पहले की तरह फैला तब हालात बेकाबू हो जायेंगे | कहा जा रहा है कि मुम्बई में लोकल ट्रेन शुरू होते ही कोरोना के नए मामले बढ़ने लगे | पुणे , नासिक , नागपुर से आ रही खबरें भयभीत कर रही हैं | जहां रात्रिकालीन कर्फ्यू के बाद अब लॉक डाउन की नौबत आ गई है | ऐसी सूरत में अब जनता विशेष रूप से पढ़े - लिखे लोगों की जिम्मेदारी है कि वे खुद तो कोरोना से बचाव के तौर - तरीकों का पालन करें ही , साथ में अपने सम्पर्क में आने वाले हर व्यक्ति को उसके लिए प्रेरित करें | कोरोना को लेकर जिस तरह की लापरवाही देखी जा रही है  वह गंभीर संकट को आमंत्रित करने वाली है | बीते एक साल में देश का हर व्यक्ति इस बीमारी और उससे बचने के तरीकों से दीक्षित हो चुका है | हमारे इर्द - गिर्द हुईं  मौतों से हमें जो सबक मिला उसे इतनी जल्दी भुला देना मूर्खता होगी | इसलिए व्यर्थ की बहादुरी दिखाने  की बजाय बुद्धिमत्ता का प्रदर्शन करना समयोचित होगा | कोरोना को आपकी सामाजिक या आर्थिक हैसियत से कुछ लेना - देना नहीं है | वह सावधानी हटी - दुर्घटना घटी वाली उक्ति को सही साबित करने वाला है | ऐसे में जरूरी है कि देश के प्रत्येक नागरिक को कोरोना के प्रति पहले जैसी सतर्कता रखनी होगी | हर बात के लिए प्रधानमन्त्री के सन्देश की प्रतीक्षा करने के बजाय एक जिम्मेदार नागरिक होने का परिचय देना हमारा दायित्व है जिससे मुंह मोड़ना जानलेवा हो सकता है | भारत ने इस बीमारी पर विजय पाने के लिए जो कुछ किया उसकी पूरी दुनिया में प्रशंसा हो रही है | हमारे यहाँ  तैयार हुए टीके भी विदेशों में जा रहे हैं | ऐसी स्थिति में कोरोना का पुनरागमन हमारी जगहंसाई करवा देगा | बेहतर हो कोरोना के प्रति पूर्ववत सावधानी  की प्रतिबध्दता का पालन किया जाए | दुनिया को ये संदेश देने की जरूरत है कि भारत अब एक  जिम्मेदार देश बन चुका  है | 

- रवीन्द्र वाजपेयी


Wednesday 10 March 2021

रोहिंग्या भारत में भी फ़्रांस जैसे हालात बना देंगें



म्यांमार में राष्ट्रविरोधी गतिविधयों के कारण भगाये गये रोहिंग्या मुस्लिम मूलतः बांग्ला देश के हैं लेकिन बजाय वहां जाने के  बजाय वे अवैध रूप से भारत में घुस आये और बँगला देशी शरणार्थियों की तरह से ही देश के विभिन्न हिस्सों में डेरा जमाकर बैठ गये | हाल ही में जम्मू के सीमावर्ती क्षेत्रों में बने शिविरों से हटाकर उन्हें वापिस  भेजने की कार्रवाई शुरू किये जाने पर उनकी तरफ से उत्पात मचाया जाने लगा | इसी के साथ ये सवाल भी उठ खड़ा हुआ कि म्यांमार से चलकर ये जम्मू कैसे जा पहुंचे और पिछली केंद्र सरकार ने आतंकवादी छवि वाले इन विदेशी  मुस्लिमों को पाकिस्तान की सीमा के नजदीक बसाने की गलती क्या सोचकर की थी ? रोहिंग्या के विरुद्ध वर्तमान केंद्र सरकार द्वारा दिखाई गई सख्ती का भी उन लोगों  ने विरोध किया जो नागरिकता कानून के विरुद्ध  आसमान सिर पर उठाये घूमते रहे | कांग्रेस सांसद शशि थरूर ने तो अख़बारों में लेख लिखकर रोहिंग्या के पक्ष में ये दलील दे डाली कि शरणार्थी को पनाह देना प्राचीन भारतीय परम्परा रही है | 1971 में बांग्ला देश से आये शरणार्थियों के पास तो वहां छिड़े गृह युद्ध का बहाना था लेकिन रोहिंग्या मुसलमानों को म्यांमार ने जिस कारण से निकाल बाहर किया था उस पर ध्यान दिए बिना ही भारत में उन्हें मानवीयता के आधार  पर क्यों  स्वीकार किया गया ये बड़ा सवाल है | जम्मू से उनके निकाले जाने के दौरान  ये खबर भी आ गयी कि उप्र के अनेक इलाकों में  रोहिंग्या मुसलमान फ़ैल गए हैं और भ्रष्ट शासन तंत्र का लाभ उठाते हुए आधार कार्ड जैसे दस्तावेज हासिल करने में सफल हो गए | यही नहीं बांगला देश से अपने बाकी परिजनोँ को बुलाने की व्यवस्था भी  वे कर रहे हैं | कुछ तो भारतीय  पासपोर्ट बनवाकर खाड़ी देशों में नौकरी हसिल करने में भी  सफल हो गए | हवाला कारोबार के अलावा अन्य अपराधिक गतिविधियों से उनका सम्बन्ध भी उजागर हो रहा है | धीरे - धीरे ये बात भी सामने आ रही है कि पाकिस्तान प्रवर्तित आतंकवादी गतिविधियों से भी ये जुड़ते जा रहे हैं | सबसे बड़ी बात ये है कि म्यांमार में देश विरोधी गतिविधियों के कारण भगाए गए रोहिंग्या को भारत में पनाह देने के मामले में इतनी उदारता क्यों बरती गई और उन्हें जम्मू जैसे सीमावर्ती क्षेत्र में बसाये जाने की मूर्खता के पीछे क्या सोच रही ? बांग्ला देशी शरणार्थियों के रूप में पैदा हुई समस्या  नासूर बन चुकी है | वोट बैंक की राजनीति ने पूर्वी और पूर्वोत्तर भारत की जनसंख्या में बड़ा असंतुलन पैदा कर  दिया है | बंगाल और असम में होने जा रहे विधानसभा  चुनाव में मतदाता बन चुके  बांगला देशी घुसपैठिये बड़ी भूमिका निभाएंगे जिनकी मिजाजपुर्सी में धर्म निरपेक्षता के झंडाबरदार जुटे हुए हैं | इन्हें वापिस भेजे जाने की चर्चा मात्र से ममता बैनर्जी भड़क उठती हैं | ऐसे में अब रोहिंग्या मुस्लिमों को भी बर्दाश्त किया जाना समझ से परे है और जो पार्टियां और नेता मानवीयता का हवाला देकर इनको शरण देने की वकालत कर रहे हैं वे राष्ट्रीय सुरक्षा के प्रति पूरी तरह से लापरवाह हैं | भारत में करोड़ों बँगला देशी पहले ही नागरिकता ले चुके हैं | बंगाल की वामपंथी सरकार ने भी उनको मतदाता बनाने में मदद की जिसके कारण असम , बंगाल , बिहार , उड़ीसा जैसे राज्यों के अनेक इलाकों में ये चुनाव को प्रभावित  करने की हैसियत हासिल कर चुके हैं | रोहिंग्या को लेकर भी वही गलती दोहराने  से बचना चाहिए क्योंकि  उनका अभी तक का आचरण  दर्शाता है कि वे पूरी तरह से विघटनकारी  और मानवीय संवेदनाओं से  परे हैं | कुछ लोगों का ये भी कहना है कि जम्मू और उप्र में रोहिंग्या के विरुद्ध की जा रही कार्रवाई के पीछे बंगाल और असम के विधानसभा चुनाव हैं लेकिन इस तरह के कदम को राजनीति से ऊपर उठकर राष्ट्रीय सुरक्षा के संदर्भ में देखा जाना ज्यादा सही होगा | रोहिंग्या मुस्लिमों के हमदर्दों से भी  अपेक्षा है कि वे भारत को धर्मशाला बनने से रोकने में सहायक बनें न कि क्षणिक स्वार्थ के लिए राष्ट्रीय हितों की अनदेखी करें | बांगला देशी शरणार्थी जिस तरह देश भर में फैलकर लाइलाज समस्या बन गये उसकी पुनरावृत्ति न हो ये ध्यान रखना नितांत जरूरी है वरना फ्रांस जैसे हालात अपने देश में कभी  भी बन सकते हैं | 

- रवीन्द्र वाजपेयी



Tuesday 9 March 2021

आरक्षण : आखिर 70 साल कम नहीं होते



आरक्षण एक ऐसा  मुद्दा है जिस पर लोगों  के सार्वजनिक विचार कुछ होते हैं और निजी कुछ और | इसकी वजह है उससे होने वाले   फायदे और नुकसान | सीधे - सीधे वोट बैंक से जुड़ा होने की वजह से राजनीतिक क्षेत्र के लोग इसके बारे में कुछ भी कहने से सौ बार सोचते हैं | बीते कुछ दशकों से देश में धार्मिक आधार पर राजनीतिक चर्चाएँ खुलकर होने लगी हैं लेकिन जातिगत आरक्षण को लेकर पक्ष - विपक्ष के आमने - सामने होने की नौबत नहीं आती क्योंकि ये विषय इतना  संवेदनशील है जिस पर लीक से हटकर की  गई  किसी भी तरह की टिप्पणी बवाल मचा देती है | आरक्षण का प्रावधान संविधान में सीमित समय के लिए किया गया था किन्तु कालान्तर में ये महसूस किया गया कि जिस उद्देश्य से इसे लागू किया गया था वह चूँकि हासिल नहीं हो सका इसलिए उसे आगे बढ़ाया जावे और ये सिलसिला स्थायी हो गया | पहले केवल अनु. जाति और जनजाति ही इससे लाभान्वित होती थीं  किन्तु वीपी सिंह की सरकार के समय ओबीसी ( अन्य पिछड़ी जातियों ) को भी  आरक्षण की परिधि में ले लिया गया | उसके बाद जब ये लगा कि आरक्षण का दायरा बढ़ने से गैर आरक्षित वर्ग में असंतोष बढ़ रहा है तब उसकी सीमा तय करने का विचार सामने आया और सर्वोच्च  न्यायालय ने 50 फीसदी की बंदिश लगा दी | हालाँकि अनेक राज्यों ने उसकी परवाह नहीं करते हुए आरक्षण का प्रतिशत 75 और 85 तक बढ़ा दिया | मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू किये जाने के बाद जबसे ओबीसी आरक्षण शुरू हुआ तबसे इसे लेकर बहस और विवादों का दौर  शुरू हो गया | पदोन्नति में आरक्षण को लेकर भी विभिन्न राज्यों में विवाद बना हुआ है | गैर आरक्षित पद पर  आरक्षित्त वर्ग के लोगों की नियुक्ति से भी  ऐतराज होने लगे | क्रीमी लेयर का सवाल भी गाहे - बगाहे उठता रहता है | जिस जाति प्रथा को मिटाकर सामाजिक समरसता का सपना देखा गया था वह आरक्षण के कारण और मजबूत होने लगी जिसका प्रमाण जातियों के भीतर से निकल  आई उप जातियां हैं |  राजनीतिक पार्टियां उम्मीदवारी देते समय जातिगत समीकरणों का पूरी तरह ध्यान रखती हैं | चुनाव सर्वेक्षण करने वाली संस्थाए भी जाति  को आधार बनाकर ही अपने निष्कर्ष निकालती हैं | ये कहना अभी काफी हद तक सही है कि जातिगत समीकरण भारतीय राजनीति को गहराई तक प्रभावित करते हैं | शासन - प्रशासन सभी पर इसकी छाया देखी जा सकती है | आरक्षित वर्ग के अलग कर्मचारी संगठन भी बड़ी संख्या में बन गये हैं | यहाँ तक कि आरक्षित जातियों के उद्योग - व्यापार संगठन भी जन्म लेते जा रहे हैं | इस तरह आरक्षण का प्रभाव केवल सरकारी नौकरियों तक ही सीमित न रहकर सामाजिक और राजनीतिक सभी स्तरों पर साफ़ दिखाई देने लगा है | गत दिवस सर्वोच्च न्यायालय ने आरक्षण की सीमा तय करने संबंधी मामले में लगातार सुनवाई करते हुए उसकी स्थायी व्यवस्था करने की दिशा में कदम उठाया | विभिन्न राज्यों द्वारा चुनावी लाभ हेतु आरक्षण की सीमा को लांघने का जो फैसला किया गया उसके कारण लम्बे समय से ये अपेक्षा की जा रही थी कि न्याय पालिका  ऐसा कुछ करे जिसका पालन करने सभी राज्य बाध्य हों और उससे जुड़े विवाद भी खत्म हो सकें | सही बात तो ये हैं कि आरक्षण का आकर्षण केवल सरकारी सेवाओं  तक सीमित होकर रह गया है | लेकिन बीते कुछ वर्षों से शासकीय नौकरियों में निरंतर कमी आने से उससे जुड़ा ये लाभ भी संकुचित हो रहा है | बढ़ते निजीकरण के कारण सरकारी नौकरियों के अवसर लगातार घटते जाने से बेरोजगारी में भी वृद्धि हुई है | प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी ने हाल ही में साफ़ कर दिया कि निजीकरण एक अनिवार्यता बन गई है | उन्होंने सरकार द्वारा व्यवसायिक गतिविधियों से पिंड छुडाने का साफ संकेत दे दिया | विभिन्न सेवाओं से सरकार ने अपना हाथ खींच लिया  है | विनिवेश के जरिये सरकारी उपक्रमों में से अपनी हिस्सेदारी वह कम करती जा रही है | बावजूद इसके राजनीतिक लाभ के लिए राज्य सरकारों द्वारा चुनाव के पहले आरक्षण की खैरात बाँटने का क्रम अनवरत जारी है | इसीलिये सर्वोच्च न्यायालय द्वारा शुरू की जा रही सुनवाई से ये अपेक्षा उत्पन्न हुई है कि आरक्षण के बारे में न्यायपालिका जो सीमा रेखा  तय करेगी उसे लांघने का साहस करना गैर कानूनी होगा | हालांकि राजनीतिक दल इसे लेकर कितने गंभीर रहेंगे ये कह पाना कठिन है लेकिन आरक्षण का लाभ लेकर आर्थिक , शैक्षणिक और सामाजिक दृष्टि से लाभान्वित वर्ग को  अब उस लाभ से वंचित करने पर ठोस निर्णय करना भी  समय की मांग है | जिस तरह सरकार ने रसोई गैस और रेल टिकिट पर मिलने वाली  सब्सिडी छोड़ने का आह्वान किया  उसी तरह उसे  क्रीमी लेयर की  श्रेणी में आ चुके आरक्षित वर्ग के लोगों से उसका  लाभ छोड़ने की अपील करनी चाहिए | ऐसा होने से नए लोगों को अवसर मिलेंगे और आरक्षित  वर्ग के भीतर बढ़ रहा वर्ग भेद भी कम किया जा सकेगा | वैसे ये कहना भी  गलत न होगा कि आरक्षण अब सामाजिक भेदभाव दूर करने से ज्यादा वोटों की दुकानदारी पर आकर केन्द्रित हो गया है | उसका लाभ लेकर नौकरी और नेतागिरी में ऊपर उठ चुके लोग अपने समाज के उन्नयन की बजाय अपने परिवारों के कल्याण में लगे रहते हैं | सर्वोच्च न्यायालय की ताजा पहल का क्या अंजाम होता है ये तो वही जाने लेकिन आरक्षण के जरिये समाज के दलित और वंचित वर्ग के उत्थान की प्रक्रिया का समुचित  लाभ नहीं हो सका तो इसके कारणों पर विचार होना चाहिए  | आखिर 70 साल कम नहीं होते |


-रवीन्द्र वाजपेयी

Saturday 6 March 2021

मनोरंजन की आड़ में नग्नता के फैलाव पर रोक जरूरी



एक समय था जब भारत में माँ - बाप बच्चों को सिनेमा देखने तक से  रोकते थे | लेकिन पहले टेलीविजन और उसके बाद इंटरनेट के उदय ने मनोरंजन को सर्वसुलभ कर दिया | जिन बच्चों को रेडियो पर गाने सुनने से भी  रोका जाता था उनके हाथ में मोबाइल फोन आते ही वे अपनी उम्र से ज्यादा  बड़े होने लगे | इन दिनों जिस ओटीटी की सर्वत्र चर्चा हो रही है वह  सिनेमा के नये विकल्प के तौर  पर आ धमका है | बीते दो दशक में परम्परागत सिनेमाघरों की जगह तेजी से मल्टीप्लेक्स खुले लेकिन ओटीटी ने उस व्यवसाय को भी खतरे में  डाल दिया है | वेब सीरीज नामक नई विधा आजकल सामान्य चर्चाओं का विषय बनने लगी है | इसके कारण मनोरंजन उद्योग में जबरदस्त बदलाव आने लगा है | लेकिन इसके जरिये  भारतीय दर्शकों के समक्ष जो कुछ परोसा जा रहा है उससे समाज में एक हलचल भी है | भारतीय संदर्भों में खुलेपन को लेकर एक विशिष्ट सोच है जिसमें अश्लील दृश्यों और संवादों के बारे में मर्यादाओं की  रेखा  भले ही सदियों पुरानी है किन्तु औसत भारतीय परिवारों में आज भी  न सिर्फ बच्चों अपितु वयस्क सदस्यों के बीच भी खुलेपन के बारे में संकोच देखा जा सकता है | यही वजह है कि जिस ओटीटी का सस्ते और सहज मनोरंजन के रूप  में स्वागत किया गया अब उसके सामने लक्ष्मण रेखाएं खींचने का प्रयास हो रहा है | गत दिवस सर्वोच्च न्यायालय ने इस सम्बन्ध में केंद्र सरकार को लताड़ते हुए कहा कि केवल नियम बनने से काम नहीं  बनने वाला | न्यायालय ने इंटरनेट , ओटीटी  के साथ डिजिटल मीडिया पर परोसी जा रही अश्लीलता को रोकने के लिए सख्त कानून बनाने के निर्देश भी दिए जिसके लिए सरकार ने समय मांग लिया | बीते एक वर्ष में कोरोना की वजह से फिल्मों के निर्माण में बहुत बाधा आई | सिनेमाघरों के बंद हो जाने से मनोरंजन उद्योग का कारोबार ठप्प हो गया | लेकिन इसी दौरान लघु फिल्मों ओर वेब सीरीज ने जोर पकड़ा और देखते - देखते  ये नया तरीका जनता को रास आने लगा | टीवी धारावाहिकों की जगह वेब सीरीज चर्चा में शुमार होने लगी | लेकिन मनोरंजन के नाम पर ठेठ पश्चिमी शैली में जिस तरह से नंगापन मनोरंजन की आड़ में पेश किया जाने लगा  और उसे नियंत्रित करने में सरकार की असमर्थता  सामने आई इसके बाद से ही मामला अदालत की देहलीज पर जा पहुंचा | हिंसा और अन्तरंग दृश्यों के अलावा गालियों से भरे संवादों की वजह से ओटीटी प्लेटफार्म नामक मनोरंजन का ये साधन समाज के एक बड़े वर्ग विशेष रूप से युवा पीढी को अपने मोहपाश में जकड़ता जा रहा है | सर्वोच्च न्यायालय में एक कम्पनी का बचाव करते हुए एक वरिष्ठ अधिवक्ता ने कहा  कि मेरे घर चलिए , ऐसी सैकड़ों फ़िल्में हैं जिनमें नग्नता ( पोर्न ) नहीं है | उनकी बात पूरी तरह गलत नहीं है लेकिन ये भी सच है कि ओटीटी के रूप में जो नया छोटा पर्दा मनोरंजन का नया जरिया बन गया उस पर नियन्त्रण कर पाने में मौजूदा नियम कानून पूरी तरह असहाय साबित हुए हैं | इसीलिये न्यायालय को ये कहना पडा कि अश्लील सामग्री रोकने के लिए सरकार कानून बनाये | लेकिन सवाल ये है कि सरकार इस बारे में अभी तक इतनी उदासीन क्यों रही ? अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर मनोरंजन उद्योग के माध्यम से  भारतीय समाज में मानसिक विकृति को जन्म देने का जो घिनौना कार्य किया गया  उसकी वजह से यौन अपराधों में अकल्पनीय वृद्धि हुई | सबसे चौंकाने वाली बात ये है कि किशोरावस्था में प्रविष्ट बच्चे तक ऐसी वारदातों में शामिल देखे जा रहे हैं | पारिवारिक रिश्तों की पवित्रता नष्ट किये जाने की घटनाओं में अप्रत्याशित वृद्धि के पीछे भी मनोरंजन की शक्ल में फ़ैल रही अश्लीलता ही है | अभी तक तो केवल इन्टरनेट के जरिये फैले पोर्नोग्राफी के कारोबार को लेकर ही चिंता व्यक्त की जाती थी किन्तु अब ओटीटी रूपी इस माध्यम ने डरावनी स्थित उत्पन्न कर दी है | इसके पहले कि अश्लीलता के  कारोबारी समाज की सोच को पूरी तरह विकृत करने में सफल हो जाएँ , सरकार और समाज के जिम्मेदार लोगों को आगे बढकर उसे रोकने की दृढ़ता दिखानी चाहिए | भारत भले ही  कितना भी आधुनिक और  पश्चिमपरस्त हो जाए लेकिन वह नग्नता को संस्कृति मानने के लिए कभी तैयार नहीं होगा | 

-रवीन्द्र वाजपेयी

Thursday 4 March 2021

सरकार के विरोध की छूट लेकिन देश विरोध असहनीय



सर्वोच्च न्यायालय की इस टिप्पणी  में कुछ भी  गलत नहीं है कि सरकार से असहमति को  देशद्रोह नहीं माना जा सकता  | जम्मू कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री एवं वर्तमान में  लोकसभा  सदस्य डा. फारुख अब्दुल्ला द्वारा दिये  गये किसी बयान पर दायर एक याचिका को गत दिवस न्यायालय ने ख़ारिज करते हुए याचिकाकर्ता पर 50 हजार का अर्थदंड भी लगाया | याचिका में डा. अब्दुल्ला द्वारा अनुच्छेद 370 हटाये जाने के विरोध में दिए बयान के आधार पर उन पर देशद्रोह का प्रकरण दर्ज करने के साथ ही उनकी संसद सदस्यता खत्म करने की मांग की गई थी | इस फैसले के पहले भी हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय सहित कुछ और अदालतों ने भी इसी आशय की राय व्यक्त करते हुए कहा कि सरकार की  आलोचना अभिव्यक्ति के अधिकार के अंतर्गत आती है  जिसे आपत्तिजनक नहीं माना  जाना चाहिये | लोकतंत्र में आलोचना और असहमति का सम्मान किया जाना जरूरी है | आज जो लोग सत्ता में हैं उन्होंने भी आधी  सदी तक सरकार की जमकर आलोचना की | उस आधार पर ये अपेक्षा किया जाना पूरी तरह सही है कि जनादेश की ताकत पर सरकार में आने के बाद उन्हें भी  अपनी आलोचना सुनते समय उदार रहना चाहिए | दरअसल बीते सात सालों में ये वातावरण बनाया जा रहा है कि नरेंद्र मोदी के प्रधानमन्त्री बन जाने के बाद अभिव्यक्ति की आजादी खतरे में है और विरोध करने वालों का दमन किया जा रहा है | असहिष्णुता का भी खूब ढोल पीटा गया जिसके अंतर्गत अनेक लोगों ने अपने अवार्ड और पुरस्कार भी लौटा दिए | ये अवधारणा भी मजबूत की जा रही है कि विरोध करने वाले को देशद्रोही करार दिया जाता है और सरकारी एजेंसियों का सहारा लेकर उन्हें परेशान  करने का खेल चल रहा है | गत दिवस फिल्म उद्योग के कुछ लोगों के यहाँ आयकर छापे के बाद भी ये प्रतिक्रया सुनने मिल रही हैं कि विभिन्न मुद्दों पर  उनके द्वारा सरकार के विरोध में दिए गये बयानों से नाराज होकर ये छापेमारी की जा रही है | सीबीआई , ईडी और आयकर विभाग का  राजनीतिक प्रतिशोध के लिए दुरूपयोग किये जाने का आरोप भी केंद्र  सरकार पर लगाया जाता है | विभिन्न अदालतों द्वारा की गईं  तदाशय की टिप्पणियों में भी उक्त एजेंसियीं की कार्रवाई पर ऐतराज जताया गया | चूँकि अतीत में भी उक्त संस्थाओं का राजनीतिक लाभ के लिए उपयोग होता रहा इसलिए मौजूदा केंद्र सरकार के बारे में भी ऐसा कहा जाने पर सहसा विश्वास  हो जाता है | लेकिन राजनीति से परे हटकर देखें तो देशद्रोह संबंधी मामलों में तो बहुत ही संजीदगी होनी चाहिए | डा. अब्दुल्ला ने 370 संबंधी जो बयान दिए वे भले ही अदालत को देशद्रोह न लगे हों जिसकी कानूनी परिभाषा निश्चित रूप से व्यापक होगी किन्त्तु अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर हाल के वर्षों में जिस तरह की उच्छश्रंखलता देखने मिली उस पर अंकुश लगाना जरूरी है | बात दिल्ली  स्थित  जेएनयू में भारत तेरे टुकड़े होंगे जैसे नारों के साथ आजादी - आजादी के  शोर से शुरू हुई जिसका फैलाव बाद में जामिया मिलिया , जादवपुर , उस्मानिया और अलीगढ़ मुस्लिम विवि तक जा पहुंचा | कश्मीर घाटी में तो देशविरोधी नारे नई बात नहीं रही | डा. अब्दुल्ला भी श्रीनगर में बैठकर भारत विरोधी बयान देने में तनिक भी संकोच नहीं करते लेकिन दिल्ली में भारत माता के भक्त होने का स्वांग रचते रहे हैं | इसी तरह का रवैया महबूबा मुफ्ती का है जिन्होंने 370 हटाये जाने को लेकर जिस तरह का  धमकी भरा बयान दिया था वह देशद्रोह नहीं तो और क्या था ? अब्दुल्ला परिवार के अन्य सदस्य भी समय - समय पर पाकिस्तान के पक्ष में बोलते रहे हैं | चीन के साथ सैन्य मुठभेड़ के बाद फारुख ने चीन को लाभ पहुँचाने वाला बयान दे डाला | बेहतर हो सर्वोच्च न्यायालय ऐसे बयानों पर स्वतः संज्ञान लेकर प्रकरण दर्ज करते हुए दोषियों को दण्डित करे | असहिष्णुता का हौआ खड़ा  किये जाने के बाद कुछ फिल्म अभिनेताओं को ये देश रहने लायक नहीं लगा था | क्या ऐसे लोगों की देशभक्ति पर सवाल उठाना भी  अभिव्यक्ति की आजादी पर आघात माना जाना चाहिए | किसान आन्दोलन के परिप्रेक्ष्य में कतिपय विदेशी हस्तियों द्वारा भारत के घरेलू हालातों पर की गई टिप्पणियों को जिस तरह महिमामंडित किया गया वह अभिव्यक्ति के नाम पर देश की छवि खराब करने का प्रयास नहीं तो और क्या था ? गत दिवस राहुल गांधी ने अपनी दादी द्वारा  लगाये गए आपातकाल को तो गलत ठहराया लेकिन मौजूदा हालात की आलोचना  करने में भी नहीं चूके  किन्तु श्री गांधी जिस तरह की निजी और नीतिगत आलोचना प्रधानमन्त्री और भाजपा की करते हैं क्या ऐसी कल्पना इन्दिरा जी द्वारा लगाये गए आपातकाल में सम्भव थी ? आज सोशल मीडिया का दौर है जिसकी मदद से देश के बाहर बैठकर भी भारत और सरकार विरोधी बात कही जा सकती है | किसान आन्दोलन की आड़  में कैंनेडा और ब्रिटेन में खलिस्तान समर्थक अनेक संगठनों की गतिविधियाँ इसका प्रमाण हैं | सर्वोच्च न्यायालय देशहित के अनेक मुद्दों पर खुद होकर पहल करता आया है लेकिन शाहीन बाग़ जैसे प्रकरण पर उसका फैसला जब तक आया तब तक वह मुद्दा ही खत्म हो चुका था | फारुख अब्दुल्ला के संदर्भित बयान में भले ही अदालत को कुछ भी ऐतराज करने लायक न लगा हो परन्तु बीते कुछ सालों में उनकी जिस तरह बाढ़ आई वह किसी सुनियोजित कार्ययोजना का हिस्सा लगता है | अभिव्यक्ति की आजादी को हर हाल में अक्षुण्ण रखना होगा लेकिन उसका दुरूपयोग करने वालों के प्रति न्यायपालिका को भी कठोर होना पड़ेगा क्योंकि देश के विरोध में सोचने और बोलने वाले किसी रहम या रियायत के हकदार नहीं हो सकते |   

- रवीन्द्र वाजपेयी


Wednesday 3 March 2021

मप्र का बजट : कर्जे के बोझ के साथ ऊंची उड़ान का सपना




मप्र सरकार के बजट में  शिवराज सिंह चौहान  सरकार ने समाज के हर वर्ग को संतुष्ट करने का दावा किया है। चौतरफा विकास की गंगा बहाने के  आश्वासन के साथ  शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि, व्यापार-उद्योग, अधोसंरचना, कर्मचारियों के वेतन-भत्ते जैसी मदों में भारी-भरकम आवंटन किये जाने की घोषणा भी  की गई है। प्रदेश के वर्तमान मेडिकल कालेजों की बदहाली के बावजूद  नए मेडिकल कालेज खोलने जैसा दुस्साहस भी बजट  घोषणाओं में है। वेतन बाँटने के लाले के बीच पुराने एरियर्स बाँटने का ऐलान कर्मचारी वर्ग के तुष्टीकरण का परम्परागत प्रयास है। शिक्षकों और पुलिस की  नयी भर्ती की घोषणा से बेरोजगारों में उम्मीद जगाने का प्रयास भी वित्तमंत्री ने  किया है। आंकड़ों की फसल इतनी  जबरदस्त है कि अच्छे - अच्छे अर्थशास्त्री भी भ्रमित  हो जाएँ। भाजपा के लिए ये सपने साकार करने वाला बजट है जो आत्मनिर्भर मप्र की राह प्रशस्त करेगा। उसे जनहितकारी भी  बताया जा रहा है क्योंकि उसमें  नया कर लगाने से परहेज किया गया  है। लेकिन  पेट्रोल-डीजल पर लगाये गये करों में राहत देने से भी सरकार ने कन्नी काट ली । उल्लेखनीय है मप्र देश के उन राज्यों में से है जहां  पेट्रोल - डीजल सबसे महंगा है। सत्ता  पक्ष ये  दावा भी कर रहा है कि कोरोना के कारण उत्पन्न परिस्थितियों के मद्देनजर इससे बढ़िया बजट बन ही नहीं सकता था। अपनी विफलताओं के लिए पिछली सरकार को कठघरे में खड़ा करने के रिवाज  को  दोहराने से भी परहेज नहीं किया जा रहा। दूसरी तरफ विपक्ष के लिए ये निराशा पैदा करने वाला जनविरोधी बजट है। पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ से लेकर छोटे-छोटे विपक्षी नेता तक इसकी आलोचना  करते हुए कह रहे हैं कि इसमें  बेरोजगारों , किसानों , कर्मचारियों के अलावा व्यापारियों और उद्योगपतियों के लिए राहत की कोई बात  नहीं है। समाज के विभिन्न  वर्गों से  बजट को लेकर मिश्रित प्रतिक्रियाएं सामने आई हैं। उद्योग - व्यापार जगत नए कर नहीं लगने पर तो राहत का अनुभव कर रहा है परन्तु पुराने बोझ में कमी नहीं किये जाने को लेकर नाराजगी भरी निराशा भी है। अर्थशास्त्र के जानकारों की राय भी अलग-अलग है। इस सबसे हटकर देखें तो बजट में आत्मनिर्भर प्रदेश का जो संकल्प प्रदर्शित किया गया है वह तब तक पूरा नहीं हो सकता जब तक  कर्जे लेकर लोक-लुभावन घोषणाएं करने की नीति  बंद नहीं की जाती। महज चुनाव जीतने के लिए कांग्रेस ने 2018 में सत्ता सँभालने के दस दिन के भीतर किसानों के  2 लाख तक के कर्जे माफ करने का वायदा किया था। लेकिन  कमलनाथ सरकार  उसे पूरा नहीं कर पाई। उसके बाद आई  शिवराज सरकार के लिये तो सिर मुड़ाते ही ओले गिरने जैसी  स्थिति बन गयी क्योंकि सत्ता संभालते ही लॉक डाउन आ टपका जिससे जूझने में शासन - प्रशासन की समूची शक्ति और संसाधन झोंकने पड़े। करों की उगाही ठप्प पड़ जाने से राज्य सरकार द्वारा रिजर्व बैंक से कर्ज पर कर्ज लिया जाना मजबूरी बन गई जो बढ़ते - बढ़ते प्रदेश के बजट से ज्यादा हो गया। इसके बाद बजट में किये गये वायदे और विकास के  काम किस तरह पूरे होंगे ये यक्ष प्रश्न है जो आत्मनिर्भर मप्र के लक्ष्य को ऐसे सुंदर सपने में तब्दील कर देगा जिसे  साकार करना असंम्भव है। हालांकि  इसे निराशावाद कहने वाले भी बहुत मिल जायेंगे लेकिन कटु बात यही है कि पैसे का व्यवहार पैसे से ही होता है नमस्कार से नहीं। शिवराज सिंह ने मप्र के विकास  के लिए काफी कुछ किया है। 2003  में दिग्विजय सिंह की सरकार जिस बिजली , पानी और सड़क के मुद्दे पर जनता द्वारा परास्त की गई थी उनमें  काफी सुधार हुआ है। बिजली ग्रामीण क्षेत्रों तक पहुंच चुकी है। किसानों को सिचाई के लिए अब उसके इन्तजार में बैठे नहीं  रहना पड़ता। इसी तरह जल की व्यवस्था में भी  उल्लेखनीय  सुधार हुआ है और सड़कों की दशा तो चमत्कारिक रूप से सुधरी है। लेकिन बिजली की दरें  जिस तरह बढ़ती जा रही हैं वह जनता के लिए बोझ है। पेट्रोल - डीजल पर प्रदेश सरकार ने जितना करारोपण कर रखा है वह उसकी तमाम उपलब्धियों पर पानी फेरने के लिये काफी है। नए मेडिकल कालेज खोलने के इरादों पर भी तब सवाल खड़े हो जाते हैं जब मौजूदा में ही पढ़ाने वाले कम पड़ रहे हों। हालाँकि सीटें बढ़ाने का निर्णय स्वागतयोग्य है। वैसे बजट किसी  भी सरकार का हो वह देखने में तो आकर्षक ही  लगता है। लेकिन वास्तविकता ये है कि उसमें की गयी घोषणाओं को अमल में लाने के लिए संसाधनों का प्रबंध करने के लिए न तो कोई  ठोस कार्ययोजना होती है और न ही दूरदृष्टि। मप्र को वाकई आत्मनिर्भर बनाना है तो कर्ज के बोझ को कम करते हुए राहत और विकास के काम कैसे होंगे ये स्पष्ट होना चाहिए। कर्ज लेकर घी पीने की पुरानी कहावत की तर्ज पर  सरकार चलाने की नीति भारतीय  शासन प्रणाली का प्रतीक बनकर रह गया है। जबरदस्त घाटे के बोझ  के साथ  आकाश को छू लेने का प्रयास करना कितना व्यवहारिक होगा, ये विश्लेषण का विषय है। विपक्ष बजट की आलोचना करते हुए अपने धर्म का निर्वहन कर रहा है लेकिन सरकार उसकी होती तब वह भी ऐसे ही  सपने दिखाता जो कभी पूरे नहीं  होते।

- रवीन्द्र वाजपेयी

Tuesday 2 March 2021

भाजपा शासित राज्य सस्ता कर दें तो बाकी भी मजबूर होंगे



 लगातार तीसरे महीने जीएसटी संग्रह एक लाख करोड़ से अधिक होना इस बात का सूचक है कि कारोबारी जगत कोरोना संकटकाल से बाहर निकल आया है | हालाँकि अभी भी अनेक क्षेत्र ऐसे हैं जिनकी पुरानी रफ्तार अभी तक नहीं लौटी किन्तु ये बात बिलकुल सही है कि लॉकडाउन हटने के बाद से उद्योग - व्यापार  ने तेजी से गति पकड़ी |  चूँकि लॉक डाउन के दौरान रबी और उसके बाद खरीफ फसल में भी कृषि क्षेत्र  ने अच्छा प्रदर्शन  किया इसलिए ग्रामीण इलाकों से भी बाजार में मांग आने लगी  जिसका सबसे बड़ा सबूत था रिकॉर्ड संख्या  में ट्रैक्टर की बिक्री | इसी के साथ ही  ऑटोमोबाइल उद्योग को भी उपभोक्ताओं का आशातीत  प्रतिसाद मिला | सूचना तकनीक का  व्यवसाय तो लॉक डाउन के दौरान भी अपनी रफ़्तार से चलता रहा | घर में  बैठे - बैठे  काम करने की जो नई कार्य संस्कृति इस दौरान प्रचलित हुई उसने इस उद्योग में एक नए युग का सूत्रपात कर दिया जिससे स्थापना व्यय घटाने में मदद मिली | मनोरंजन और पर्यटन उद्योग भी धीरे - धीरे ही सही किन्तु पटरी पर लौटता नजर आ रहां  है | रेलगाड़ियों का परिचालन निरंतर बढ़ने की तरफ है | सड़क मार्ग से यात्रा भी अब पहले जैसी हो चली है | ताजा  आंकड़ों के अनुसार हवाई जहाज से यात्रा करने वालों का दैनिक आंकड़ा तीन लाख से ऊपर चला गया है | इस प्रकार ये कहा जा सकता है कि अर्थव्यवस्था बीमारी के बाद अब चलने - फिरने की  स्थिति में आने लगी है और उस आधार पर ये सोचना  गलत न होगा कि नये  वित्तीय वर्ष में वह ऊंची छलांग लगाने में कामयाब  हो सकेगी | इसका संकेत पूंजी बाजार में आ रही उछाल है जिसका कारण बड़ी संख्या में विदेशी निवेशकों का भारत के प्रति बढ़ता हुआ भरोसा है | ये बात भी इस बारे में जोड़ी जा सकती है  कि गत वर्ष की गर्मियों में  लद्दाख सेक्टर में चीन द्वारा उत्पन्न युद्द की स्थिति का भारत ने जिस दृढ़ता से सामना किया उससे वैश्विक स्तर पर ये अवधारणा मजबूत हुई कि वह चीन को चुनौती देने में सक्षम है | उसी के बाद से विदेशी पूंजी का प्रवाह हमारे शेयर बाजार में बढ़ने लगा | यद्यपि लॉक डाउन हटने के बाद किसान आन्दोलन के रूप में उत्पन्न गतिरोध ने अर्थव्यवस्था को क्षति पहुँचाने का काम किया | चूँकि वह राष्ट्रव्यापी रूप नहीं ले पाया इसलिए धीरे - धीरे उस झटके से भी  कारोबारी जगत उबर रहा है | उम्मीद है उत्तर भारत में रबी फसल की सरकारी खरीद शुरू होते ही ग्रामीण अर्थव्यवस्था में पैसे का आगमन बढ़ेगा जिससे उपभोक्ता बाजार को संबल मिलना तय है | हालाँकि कोरोना के दूसरे हमले ने महाराष्ट्र और केरल में चिंता के कारण पैदा कर दिए  हैं लेकिन गत दिवस आम जनता के लिए टीकाकरण प्रारम्भ हो जाने के बाद जिस तरह का आत्मविश्वास देखा जा रहा है उसके कारण ये उम्मीद हो चली है कि आगामी गर्मियीं में आने वाला शादी सीजन बीते साल की मुर्दानगी को दूर करते हुए बाजारों को गुलजार कर देगा | निश्चित रूप से अर्थव्यवस्था को लेकर चारों तरफ से शुभ संकेत मिल रहे हैं | लेकिन पेट्रोल और डीजल के दामों में लगी आग से  आम उपभोक्ता का बजट गड़बड़ा गया है | इसकी वजह से निजी और सार्वजानिक परिवहन खर्च बढ़ जाने से चीजे महंगी होने लगी हैं | हालाँकि केंद्र सरकार लगातार ये संकेत दे रही है कि वह इनके दाम घटाने के प्रयास कर रही है | राज्यों से भी ये कहा जा रहा है कि वे अपने कर घटाने के साथ ही  पेट्रोलियम उत्पादों को जीएसटी के दायरे में लाकर उनकी कीमतों पर अंकुश लगाये जाने में मददगार बनें | केंद्र  सरकार ने गत दिवस जो संकेत दिये उनके अनुसार जल्द ही वह पेट्रोल- डीजल पर केन्द्रीय कर घटाने जा रही है | हालांकि इसके पीछे पांच राज्यों के आगामी विधानसभा चुनाव भी हैं लेकिन  पेट्रोल और डीजल सहित रसोई गैस जैसी आम उपभोक्ता की जरूरत वाली चीजों पर जिस तरह का जजिया कर केंद्र और राज्यों की सरकारें थोप रही हैं वह संवेदनशीलता के अभाव को दर्शाता है | यदि केंद्र सरकार वास्तव में चाहती है कि पेट्रोल - डीजल सस्ते हों तो उसे कम से भाजपा शासित राज्य सरकारों पर दबाव डालकर वहां इन पर करों में कमी करवाना चाहिए जिसके बाद बाकी राज्य भी वैसा करने बाध्य होंगे और तभी पेट्रोल - डीजल को जीएसटी के अंतर्गत लाने की परिस्थिति बन सकेगी | ये बात भी सौ फीसदी सच है कि पेट्रोल - डीजल सस्ते होने से महंगाई कम होने के बाद उपभोक्ता बाजार में कारोबार बढ़ेगा जिसके फलस्वरूप सरकार के पास घूम फिरकर उतना ही राजस्व आ जाएगा |  कम कराधान से आधिक आय का ये सूत्र पूरे विश्व में मान्य और सफल है | 

-रवीन्द्र वाजपेयी


Monday 1 March 2021

वरना कोरोना का दूसरा हमला अर्थव्यवस्था को चौपट कर देगा




भले ही हमारे देश में कोरोना को लेकर भी खूब राजनीति हुई हो और आगे भी होती रहेगी लेकिन उसका जो टीकाकरण अभियान शुरू हुआ है वह देश के लिए बड़ी उपलब्धि है | भारत सरीखे देश में जहाँ स्वास्थ्य सेवाएँ बेहद सामान्य स्तर की समझी जाती हैं वहां करोड़ों लोगों को कोरोना जैसी बीमारी का टीका रिकॉर्ड समय में बनाकर उपलब्ध करवाना मामूली बात नहीं थी | सबसे बड़ी बात ये हुई कि दुनिया के विकसित देशों के साथ प्रतिस्पर्धा करते हुए भारत ने करोड़ों टीके न सिर्फ घरेलू उपयोग के लिए बना लिए अपितु उनके निर्यात की गुंजाईश भी निकाल ली | पहले चरण में स्वास्थ्य कर्मियों से टीकाकरण शुरू हुआ जो आज से आम जनता के लिए भी उपलब्ध करवाया जा रहा है | शासकीय केन्द्रों  में निःशुल्क और निजी में सशुल्क टीकाकरण की व्यवस्था संतुलित सोच का अच्छा  उदाहरण है | समाज का एक वर्ग ऐसा है जिसके लिये मात्र 250 रु. देकर कोरोना का टीका लगवाना बेहद सहज है लेकिन शासकीय स्तर पर उसका निःशुल्क होना जनकल्याणकारी है | लेकिन जैसा अभी तक का अनुभव आया है उसके अनुसार टीकाकरण को लेकर भी उदासीनता या लापरवाही दिखाई दे रही है | कोरोना का ये टीका दो चरणों में लगता है | पहले टीकाकरण के बाद एक निश्चित अवधि में उसकी दूसरी खुराक लेना अनिवार्य है अन्यथा वह असरहीन होकर रह जाएगा | इस बारे में जो जानकारी मिल रही है वह चौंकाने वाली होने के साथ ही चिंता का कारण भी है | फ्रंट लाइन कोरोना कार्यकर्ताओं की सूची में जिन लोगों को शामिल किया गया था उनमें से बड़ी संख्या में ऐसे निकले जो तय तिथि पर टीका लगवाने आये ही नहीं | इनमें चिकित्सा क्षेत्र के भी काफी लोग थे | इसी तरह के उदाहरण अन्य वर्गों में भी देखने मिले | उसके बाद ये सुनने में आ रहा है कि पहली खुराक लेने के बाद बड़ी संख्या में लोग दूसरी खुराक हेतु  नहीं लौटे जिसकी वजह से उनका टीकाकरण बेकार साबित हुआ | इन लोगों की गैर जिम्मेदारी समाज के लिए कितनी खतरनाक साबित हो सकती है इसका अंदाज लगाना कठिन नहीं है | विशेष रूप से जब कोरोना का संक्रमण तेजी से वापिस लौट रहा है तब टीकाकरण को लेकर बरती जाने वाली लापरवाही न सिर्फ सम्बन्धित व्यक्ति वरन  उसके परिवार और सम्पर्क में आने वाले बाकी लोगों को भी संकट में डालने वाली हो सकती है | इस बारे में रोचक बात ये है कि जब तक टीका नहीं आया था तब तक तो जिसे देखो वह उसके आने का बेसब्री से  इंतजार करता दिखता था | टीके के आम जनता को उपलब्ध होने के बारे में भी खूब विमर्श होता था | जिन्हें इस बारे में लेशमात्र भी ज्ञान नहीं है वे भी बढ़ - चढ़कर जानकारी प्रसारित करते हुए खुद को विशेषज्ञ साबित करने में जुटे रहते थे |  लेकिन  टीका आ जाने के बाद उसके प्रति अपेक्षित उत्साह नहीं  दिखाई देना ये साबित  करता है कि वह सब बुद्धि विलास था | अब जबकि आज से आम जनता के लिए टीकाकरण शासकीय और निजी दोनों केन्द्रों पर उपलब्ध होने लगा है तब हर किसी से ये अपेक्षा है कि इस सुविधा का समय पर प्राथमिकता के साथ उपयोग करे | जिन्हें सरकारी चिकित्सा केंद्र जाने में समय और सुविधा की समस्या हो वे निजी केन्द्रों में जाकर टीका लगवा सकते हैं  जिसका शुल्क बहुत ही कम है | उसी के साथ ये भी जरूरी है कि टीके की अगली खुराक लेने के प्रति पूरी गम्भीरता एवं जिम्मेदारी रखी जाए क्योंकि उसके बिना पहली खुराक तो बेकार जायेगी ही कोई जरूरतमंद  उससे वंचित रह जाएगा | राजनीतिक दलों का भी ये फर्ज है कि वे जिस तरह अपने अभियानों के लिए जनता के बीच  जाते हैं उसी तरह कोरोना टीकाकरण को लेकर जनता को जागरूक करते हुए  टीका लगवाने  प्रेरित करें | कोरोना ने बीते कुछ दिनों में जिस तरह से दोबारा दस्तक दी है उसे देखते हुए  जरूरी है कि ज्यादा से ज्यादा लोग जल्दी से जल्दी टीका लगवाकर खुद भी सुरक्षित हों और दूसरों के लिए भी खतरा पैदा न करें | ये टीका कितने समय तक प्रभावशाली रहेगा इसे लेकर भले ही पक्के तौर पर कुछ नहीं कहा कहा जा रहा लेकिन ये कारगर और नुकसान रहित है ये बात तमाम परीक्षणों में साबित हो चुकी है | देश की अनेक जानी - मानी  हस्तियों के अलावा  चिकित्सकों और अधिकारियों ने टीका लगवाकर उसके प्रति उत्पन्न शंका को भी को दूर किया है | अभी तक जितने लोगों को टीका लगवाया गया उनमें बहुत ही कम ऐसे रहे जिन्हें किसी तरह की समस्या हुई हो ,  जो चिकित्सा विज्ञान  के मानदंडों के लिहाज से बहुत ही मामूली कही  जाएगी | कोरोना की भयावहता को भारत की  जनता ने अपने अनुशासन और धैर्य से जिस तरह सीमित किया उसे पूरे विश्व में सराहा गया | अब टीकाकरण में भी वैसी ही आवश्यकता है | ये अभियान देश के भविष्य के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण है | कोरोना के दूसरे हमले को किसी भी हाल में रोकना होगा क्योंकि उसकी पुनरावृत्ति समूची अर्थव्यवस्था को चौपट कर देगी | समाज के सुशिक्षित और   संपन्न वर्ग को भी चाहिये कि वह अपने से जुड़े प्रत्येक व्यक्ति को टीकाकरण के लिए तैयार करते हुए इस कार्य में उसकी हरसंभव सहायता करे क्योंकि ऐसा करना हर किसी का नैतिक और मानवीय दायित्व है | 

-रवीन्द्र वाजपेयी