Thursday 4 March 2021

सरकार के विरोध की छूट लेकिन देश विरोध असहनीय



सर्वोच्च न्यायालय की इस टिप्पणी  में कुछ भी  गलत नहीं है कि सरकार से असहमति को  देशद्रोह नहीं माना जा सकता  | जम्मू कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री एवं वर्तमान में  लोकसभा  सदस्य डा. फारुख अब्दुल्ला द्वारा दिये  गये किसी बयान पर दायर एक याचिका को गत दिवस न्यायालय ने ख़ारिज करते हुए याचिकाकर्ता पर 50 हजार का अर्थदंड भी लगाया | याचिका में डा. अब्दुल्ला द्वारा अनुच्छेद 370 हटाये जाने के विरोध में दिए बयान के आधार पर उन पर देशद्रोह का प्रकरण दर्ज करने के साथ ही उनकी संसद सदस्यता खत्म करने की मांग की गई थी | इस फैसले के पहले भी हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय सहित कुछ और अदालतों ने भी इसी आशय की राय व्यक्त करते हुए कहा कि सरकार की  आलोचना अभिव्यक्ति के अधिकार के अंतर्गत आती है  जिसे आपत्तिजनक नहीं माना  जाना चाहिये | लोकतंत्र में आलोचना और असहमति का सम्मान किया जाना जरूरी है | आज जो लोग सत्ता में हैं उन्होंने भी आधी  सदी तक सरकार की जमकर आलोचना की | उस आधार पर ये अपेक्षा किया जाना पूरी तरह सही है कि जनादेश की ताकत पर सरकार में आने के बाद उन्हें भी  अपनी आलोचना सुनते समय उदार रहना चाहिए | दरअसल बीते सात सालों में ये वातावरण बनाया जा रहा है कि नरेंद्र मोदी के प्रधानमन्त्री बन जाने के बाद अभिव्यक्ति की आजादी खतरे में है और विरोध करने वालों का दमन किया जा रहा है | असहिष्णुता का भी खूब ढोल पीटा गया जिसके अंतर्गत अनेक लोगों ने अपने अवार्ड और पुरस्कार भी लौटा दिए | ये अवधारणा भी मजबूत की जा रही है कि विरोध करने वाले को देशद्रोही करार दिया जाता है और सरकारी एजेंसियों का सहारा लेकर उन्हें परेशान  करने का खेल चल रहा है | गत दिवस फिल्म उद्योग के कुछ लोगों के यहाँ आयकर छापे के बाद भी ये प्रतिक्रया सुनने मिल रही हैं कि विभिन्न मुद्दों पर  उनके द्वारा सरकार के विरोध में दिए गये बयानों से नाराज होकर ये छापेमारी की जा रही है | सीबीआई , ईडी और आयकर विभाग का  राजनीतिक प्रतिशोध के लिए दुरूपयोग किये जाने का आरोप भी केंद्र  सरकार पर लगाया जाता है | विभिन्न अदालतों द्वारा की गईं  तदाशय की टिप्पणियों में भी उक्त एजेंसियीं की कार्रवाई पर ऐतराज जताया गया | चूँकि अतीत में भी उक्त संस्थाओं का राजनीतिक लाभ के लिए उपयोग होता रहा इसलिए मौजूदा केंद्र सरकार के बारे में भी ऐसा कहा जाने पर सहसा विश्वास  हो जाता है | लेकिन राजनीति से परे हटकर देखें तो देशद्रोह संबंधी मामलों में तो बहुत ही संजीदगी होनी चाहिए | डा. अब्दुल्ला ने 370 संबंधी जो बयान दिए वे भले ही अदालत को देशद्रोह न लगे हों जिसकी कानूनी परिभाषा निश्चित रूप से व्यापक होगी किन्त्तु अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर हाल के वर्षों में जिस तरह की उच्छश्रंखलता देखने मिली उस पर अंकुश लगाना जरूरी है | बात दिल्ली  स्थित  जेएनयू में भारत तेरे टुकड़े होंगे जैसे नारों के साथ आजादी - आजादी के  शोर से शुरू हुई जिसका फैलाव बाद में जामिया मिलिया , जादवपुर , उस्मानिया और अलीगढ़ मुस्लिम विवि तक जा पहुंचा | कश्मीर घाटी में तो देशविरोधी नारे नई बात नहीं रही | डा. अब्दुल्ला भी श्रीनगर में बैठकर भारत विरोधी बयान देने में तनिक भी संकोच नहीं करते लेकिन दिल्ली में भारत माता के भक्त होने का स्वांग रचते रहे हैं | इसी तरह का रवैया महबूबा मुफ्ती का है जिन्होंने 370 हटाये जाने को लेकर जिस तरह का  धमकी भरा बयान दिया था वह देशद्रोह नहीं तो और क्या था ? अब्दुल्ला परिवार के अन्य सदस्य भी समय - समय पर पाकिस्तान के पक्ष में बोलते रहे हैं | चीन के साथ सैन्य मुठभेड़ के बाद फारुख ने चीन को लाभ पहुँचाने वाला बयान दे डाला | बेहतर हो सर्वोच्च न्यायालय ऐसे बयानों पर स्वतः संज्ञान लेकर प्रकरण दर्ज करते हुए दोषियों को दण्डित करे | असहिष्णुता का हौआ खड़ा  किये जाने के बाद कुछ फिल्म अभिनेताओं को ये देश रहने लायक नहीं लगा था | क्या ऐसे लोगों की देशभक्ति पर सवाल उठाना भी  अभिव्यक्ति की आजादी पर आघात माना जाना चाहिए | किसान आन्दोलन के परिप्रेक्ष्य में कतिपय विदेशी हस्तियों द्वारा भारत के घरेलू हालातों पर की गई टिप्पणियों को जिस तरह महिमामंडित किया गया वह अभिव्यक्ति के नाम पर देश की छवि खराब करने का प्रयास नहीं तो और क्या था ? गत दिवस राहुल गांधी ने अपनी दादी द्वारा  लगाये गए आपातकाल को तो गलत ठहराया लेकिन मौजूदा हालात की आलोचना  करने में भी नहीं चूके  किन्तु श्री गांधी जिस तरह की निजी और नीतिगत आलोचना प्रधानमन्त्री और भाजपा की करते हैं क्या ऐसी कल्पना इन्दिरा जी द्वारा लगाये गए आपातकाल में सम्भव थी ? आज सोशल मीडिया का दौर है जिसकी मदद से देश के बाहर बैठकर भी भारत और सरकार विरोधी बात कही जा सकती है | किसान आन्दोलन की आड़  में कैंनेडा और ब्रिटेन में खलिस्तान समर्थक अनेक संगठनों की गतिविधियाँ इसका प्रमाण हैं | सर्वोच्च न्यायालय देशहित के अनेक मुद्दों पर खुद होकर पहल करता आया है लेकिन शाहीन बाग़ जैसे प्रकरण पर उसका फैसला जब तक आया तब तक वह मुद्दा ही खत्म हो चुका था | फारुख अब्दुल्ला के संदर्भित बयान में भले ही अदालत को कुछ भी ऐतराज करने लायक न लगा हो परन्तु बीते कुछ सालों में उनकी जिस तरह बाढ़ आई वह किसी सुनियोजित कार्ययोजना का हिस्सा लगता है | अभिव्यक्ति की आजादी को हर हाल में अक्षुण्ण रखना होगा लेकिन उसका दुरूपयोग करने वालों के प्रति न्यायपालिका को भी कठोर होना पड़ेगा क्योंकि देश के विरोध में सोचने और बोलने वाले किसी रहम या रियायत के हकदार नहीं हो सकते |   

- रवीन्द्र वाजपेयी


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