Saturday 30 November 2019

तो बहिन - बेटी का दिन में निकलना भी मुश्किल हो जायेगा



हैदराबाद में एक महिला पशु चिकित्सक के साथ चार लोगों द्वारा दुराचार करने के बाद उसकी हत्या का मामला राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा का विषय बन गया। सोशल मीडिया पर इसे लेकर टिप्पणियों की बाढ़ आ गयी। घटना का विवरण प्रसारित हो चुका है। राजनीति भी अपने ढंग से चल रही है। मृतका और जघन्य कृत्य के कर्ताधर्ताओं के धर्म को लेकर भी तीखी बातें हो रही हैं। महिला संगठन सक्रिय होने की तैयारी में हैं जबकि राष्ट्रीय महिला आयोग ने भी मामले का संज्ञान लेने के बाद दोषियों पर कड़ी कार्रवाई करने का दबाव बना दिया है। केंद्र सरकार ने सभी राज्यों को महिलाओं के विरुद्ध इस तरह के अपराध रोकने की सलाह भी जारी कर दी है। अपराधियों की गिरफ्तारी हो चुकी है। वे सब पेशे से ट्रक के धंधे से जुड़े बताये गये हैं। पीडि़ता की हत्या कैसे की गयी ये तो जांच से स्पष्ट होगा लेकिन जिस तरह से उसके शरीर को आग लगाकर सबूत नष्ट करने का प्रयास किया गया उससे लगता है कि चारों आरोपी बहुत ही निर्दयी स्वभाव के हैं। महिलाओं से दुष्कर्म करने की घटनाएं तो देश में कहीं न कहीं रोजाना होने के बावजूद ह्त्या जैसी वारदात कम होने से उनको लेकर उग्र प्रतिक्रिया सुनाई देती है। हैदराबाद की घटना समाज में विकृत मानसिकता वाले लोगों की मौजूदगी का ताजा प्रमाण है। बलात्कार अचानक जन्मा कोई आधुनिक अपराध नहीं है। पौराणिक काल में भी इसके अनेक प्रसंग हैं लेकिन आज के भारत में ये प्रवृत्ति जिस तेजी से बढ़ती दिखाई दे रही है उसके बाद ये सोचने को बाध्य होना पड़ता है कि क्या समाज में संस्कारों के सृजन की प्रक्रिया का अंतिम संस्कार हो चुका है? संदर्भित घटना को अंजाम देने वाले भले ही अत्यंत साधारण पृष्ठभूमि के क्यों न रहे हों लेकिन किसी अकेली महिला को देखकर उसके साथ दरिंदगी करने जैसा कृत्य पारिवारिक या व्यवसायिक पृष्ठभूमि से ज्यादा संबंधित व्यक्ति की मानसिकता पर निर्भर करता है जो उसके इर्द-गिर्द के वातावरण से प्रेरित और प्रभावित होती है। इस तरह की घटनाओं का केवल कानूनी नहीं वरन मनोवैज्ञानिक आधार पर भी विश्लेषण करते हुए उन्हें रोकने के उपाय तलाशे जाने चाहिए। कुछ दिन तक आक्रोशित होने और मोमबत्तियां जलाने जैसे आयोजन समाज की संवेदनशीलता को अभिव्यक्त तो करते हैं किन्तु मानसिकता को बदल नहीं सकते। जहां तक बात दोषियों को दंडित करने की है तो निर्भया कांड के उपरान्त दुराचारियों को कठोर से कठोर दंड देने का प्रावधान कर दिया गया। आये दिन अदालतों द्वारा महिलाओं की अस्मत से खिलवाड़ करने वालों को दी जाने वाली सजा की खबरें भी आती रहती हैं लेकिन बजाय रुकने के ऐसी वारदातों का लगातार बढ़ता जाना ये साबित करता है कि केवल कानून का डर अपेक्षित परिणाम नहीं दे सकता। कट्टर इस्लामी देशों में बलात्कार करने वाले की सजा मौत है। लेकिन दंड प्रक्रिया 24 घंटे से लेकर एक सप्ताह में पूरी करने की व्यवस्था होने से आरोपी ज्यादा समय तक जीवित नहीं रह पाते। पोलेंड में तो दुराचारी को सुअरों के बीच छोड़ दिया जाता था जो उसे काट-काटकर मार डालते थे। वहीं ईरान में बलात्कारी को पत्थर मार-मारकर मौत के घाट उतारा जाता है। लेकिन भारत में न्याय प्रक्रिया पूरी तरह से लोकतान्त्रिक होने से आरोपी को सफाई और बचाव का समुचित अवसर मिलता है। मृत्यदंड मिलने के बाद भी दया याचिका के चलते वह लम्बे समय तक जीवित बना रहता है। ताजा घटना के आरोपी पकड़ तो लिये गए लेकिन उनके अपराध को सबित करते हुए उन्हें उनके किये की सजा मिलने में काफी समय लगेगा। ऐसे में देखने वाली बात ये है कि क्या हम ऐसी घटनाओं को भी नियति मानकर शांत बैठ जाएँ या फिर ऐसा कुछ किया जाए जिससे बलात्कार की घटनाएं कम की जा सकें। लेकिन यक्ष प्रश्न ये है कि ऐसा करेगा कौन? और इस प्रश्न का उत्तर तलाशने के लिए हमें भारत की उस परम्परागत सामाजिक सोच को पुनर्जीवित करना होगा जिसमें महिलाओं के प्रति श्रद्धा और सम्मान का जन्मजात संस्कार था। आज जिस पश्चिमी समाज और सभ्यता का अन्धानुकरण करने की होड़ मची है वहां खुलेपन के बावजूद महिलाओं के प्रति जो सम्मान और सौजन्यता का भाव दिखाई देता है वह हमारे यहाँ के कथित आधुनिकतावादी भुला देते हैं। और फिर जिन नायकनुमा हस्तियों का समाज अनुसरण करता है उनका आचरण भी जनसामान्य की मानसिकता पर असर डालता है। दुर्भाग्य से आजादी के बाद के बीते सात दशकों में जो चेहरे बतौर आदर्श स्थापित हुए उनमें से अधिकतर दोहरे चरित्र वाले होने से परिणाम उलटे निकले। बीते कुछ वर्षों में लिव इन रिलेशनशिप, समलैंगिक यौन सम्बन्ध और इन जैसे अन्य विषयों पर जिस तरह के कानूनी और राजनीतिक फैसले हुए उनके बाद से समाज में एक अधकचरी सोच का विस्तार होता गया जिसमें भोग विलास और सम्बन्धों के प्रति लापरवाही भरे रवैये को प्रोत्साहन मिला। कहने का आशय ये है कि सरकार और कानून के भरोसे सब कुछ छोड़कर बैठ जाना समाज के सामूहिक दायित्वबोध की इतिश्री होगी। माना कि ऐसे कार्यों में समय लगता है लेकिन संस्कारों का प्रवाह यदि पुन: शुरू नहीं किया गया तब कितने भी कड़े कानून बना लिए जावें किन्तु कभी निर्भया तो कभी हैदराबाद जैसी वारदातें दोहराई जाती रहेंगी। नारी को पूज्या की बजाय भोग्या मानने वाली संस्कृति और संस्कार का जो स्रोत है उसे बंद करना समय की मानसिकता है। यदि ऐसा नहीं किया जाता तब रात में तो क्या दिन में भी किसी बहिन-बेटी का घर से निकलना मुश्किल हो जाएगा। क्या हम इसके लिए तैयार हैं?

-रवीन्द्र वाजपेयी

Friday 29 November 2019

कर्जमाफी दर्द निवारक गोली है इलाज नहीं



महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे के नेतृत्व में शिवसेना , एनसीपी और कांग्रेस की गठबन्धन सरकार सत्तारूढ़ हो गयी। हालाँकि पूर्व में भी मनोहर जोशी और नारायण राणे के रूप में शिवसेना के मुख्यमंत्री रह चुके हैं लेकिन उद्धव की ताजपोशी इस कारण उल्लेखनीय है क्योंकि वे ठाकरे परिवार के ऐसे पहले व्यक्ति हैं जो न सिर्फ सरकार के हिस्से अपितु सीधे मुखिया बन बैठे और वह भी बिना चुनाव लड़े ही। यद्यपि उनके बेटे आदित्य को पार्टी ने बतौर मुख्यमंत्री पेश किया था और वे चुनाव लडऩे वाले परिवार के पहले सदस्य बने भी किन्तु राजनीतिक घटनाचक्र कुछ इस तरह घूमा कि आदित्य विधायक तक सीमित रह गये और उद्धव का राजयोग जोर मार गया। ये सरकार जिन हालातों में बनी उन्हें दोहराना व्यर्थ है क्योंकि सभी उनसे वाकिफ  हैं किन्तु आज आई खबर के मुताबिक साझा न्यूनतम कार्यक्रम के तहत जो प्राथमिकताएं तय हुईं हैं उनमें किसानों के कर्जे माफ करने की बात सबसे अव्वल है। श्री ठाकरे ने शपथ लेने के बाद सचिवालय से किसानों के कर्जे संबंधी जानकारी माँगी है जिससे कि उनकी समस्याओं का एकमुश्त समाधान किया जा सके। किसानों के प्रति उनकी संवेदनशीलता स्वागतयोग्य है। यूँ भी महाराष्ट्र के किसान काफी परेशानी में बताये जाते हैं। अतिवृष्टि ने उन्हें भारी नुकसान पहुँचाया है। महाराष्ट्र में किसानों की आत्महत्या भी बड़ा मुद्दा रहा है। वहां परम्परागत अनाज की खेती के अलावा भी फलों की खेती होती है। प्याज उत्पादन के मामले में तो ये राज्य अग्रणी है। गन्ना भी बहुत बड़े क्षेत्र में पैदा होता है जिसकी वजह से शक्कर के कारखाने बड़ी संख्या में वहां हैं जो महाराष्ट्र की राजनीति को जड़ों तक जाकर प्रभावित करते हैं। शरद पवार को तो पूरी की पूरी ताकत इन्हीं चीनी मिलों से प्राप्त हुई। उद्धव ठाकरे सत्ता की राजनीति में लम्बे समय से रहे किन्तु सत्ता की देहलीज पर चढऩे का ये उनका पहला अवसर है इसलिए उन्हें ऐसा कुछ करना जरूरी लगा जिससे वे अपना असर छोड़ सकें और भविष्य में आने वाले किसी राजनीतिक संकट का सामना करने के लिए तैयार रहें। उस दृष्टि से किसान लॉबी को खुश करना ही सबसे आसान उपाय उन्हें लगा और संभवत: एक दो दिनों में किसानों की कर्ज माफी की घोषणा हो सकती है। उनके साथ सत्ता में भागीदार बनी कांग्रेस चूंकि इसी फार्मूले को अपनाकर पंजाब, मप्र, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में चुनावी सफलता हासिल कर चुकी है इसलिए वह भी चाहेगी कि महाराष्ट्र में भी किसानों की कर्ज माफी का फैसला करवाकर वह देश भर में किसानों की हिमायती बनने का ठप्पा अपनी पीठ पर लगा ले। किसान देश के अन्नदाता हैं और कृषि राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ मानी जाती है। उस दृष्टि से इस क्षेत्र के लिए कुछ भी करना सरकार का कर्तव्य है लेकिन कर्जमाफी रूपी इस उपाय से सत्ता तो हासिल की जा सकती है लेकिन न तो खेती को लाभ का व्यवसाय बनाने की योजना सफल होगी और न ही किसानों की दशा सुधरेगी। बीते वर्षों में अनेक राज्यों में किसानों के कर्जे माफ किये गये। 2009 में मनमोहन सरकार ने तो राष्ट्रीय स्तर पर ऐसा किया था किन्तु न तो किसानों की आत्महत्याएं रुकीं और न ही कृषि क्षेत्र अपेक्षित प्रगति कर सका। खेती को आयकर से मुक्ति दी गयी है। रोजगार प्रदान करने में भी इस क्षेत्र की महती भूमिका है। बीते कुछ सालों में कृषि क्षेत्र की प्रगति अपेक्षा और आवश्यकता से काफी कम हो गयी है जबकि केंद्र और राज्य सरकारें सर्वाधिक ध्यान इसी पर देती हैं। ग्रामीण विकास का बजट भी अच्छा ख़ासा है। मनरेगा नामक योजना के जरिये ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार गारंटी की व्यवस्था की गई। बिजली की दरें भी शहरी उपभोक्ताओं की तुलना में कम ही हैं किन्तु सब कुछ करने के बाद भी ग्रामीण क्षेत्रों से पलायन और किसानों की आत्महत्या रोकने, खेती को लाभ का व्यवसाय बनाने और ग्रामीण क्षेत्रों में विकास की रोशनी पहुँचाने जैसे मकसद पूरे नहीं हो सके तब इस बात पर विचार करना जरूरी लगता है कि क्या कर्ज माफी किसानों की समस्या का स्थायी हल है या नहीं? ये मुद्दा इसलिए उठा क्योंकि जिन राज्यों में इसे लागू किया गया वहां इसका समुचित लाभ किसानों तक नहीं पहुंचा। एक तो सरकारी नौकरशाही की भ्रष्ट और लचर कार्यशैली और उपर से खजाना खाली होने की वजह से उत्पन्न संकट की वजह से जैसा सोचा जाता है वैसा होता नहीं है। मप्र इसका ताजा उदाहरण है जहां बीते साल कांग्रेस ने भाजपा को 15 वर्ष बाद सत्ता से बाहर करने में जो सफलता प्राप्त की उसमें किसानों की कर्ज माफी का वायदा तुरुप का पत्ता साबित हुआ। तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी चुनावी सभाओं में 10 दिन के भीतर किसानों को दो लाख तक की कर्ज माफी का आश्वासन दिया करते थे लेकिन एक वर्ष बीत जाने के बाद भी वह वायदा पूरा नहीं हो सका। चुनाव परिणाम आने के पहले ही किसानों ने कर्ज चुकाना बंद कर दिया जिससे उन्हें ऋण देने वाले बैंकों की वसूली रुक गयी। इधर राज्य सरकार की आर्थिक हालत खस्ता होने से वह समय पर किसानों के कर्ज खाते में पैसे जमा नहीं करवा सकी। ये स्थिति केवल मप्र की नहीं बल्कि तकरीबन हर राज्य की है। ये देखते हुए उद्धव ठाकरे की नई नवेली सरकार यदि किसानों के कर्ज माफ करने की दरियादिली दिखाती है तब उसके सामने भी ऐसी ही कठिनाई आना तय है। इस बारे में गम्भीरता से सोचकर ऐसी किसी वैकल्पिक योजना को लागू किया जाए जो न सिर्फ  व्यवहारिक हो बल्कि उसके कारण किसानों की बदहाली दूर हो सके। इस बारे में ध्यान रखने वाली बात ये है कि दर्द की गोली जिस तरह बीमारी को जड़ से दूर नहीं कर सकती उसी तरह कर्जामाफी से अस्थायी राहत भले मिल जाए किन्तु किसान दोबारा कर्जदार नहीं बनेगा इसकी गारंटी नहीं है। देश की व्यवसायिक राजधानी में बैठी सरकार को इस बारे में आर्थिक परिणामों के बारे में भी विचार कर आगे बढऩा चाहिये। विडम्बना ये भी है कि फार्म हाउसों के मालिक बनकर किसान होने का स्वांग रचने वाले मंत्रालयों के वातानुकूलित कमरों में बैठकर किसान की दुर्दशा पर घडिय़ाली आंसू बहाते हैं।

- रवीन्द्र वाजपेयी

Thursday 28 November 2019

ताकि 5 ट्रिलियन मुंगेरीलाल का सपना न बन जाए



केंद्र सरकार की आलोचना करने वालों के पास सबसे अच्छा मुद्दा अर्थव्यवस्था है। तीन वर्ष पूर्व की गयी नोट बंदी और उसके बाद जीएसटी लागू किये जाने के फैसले को अर्थव्यवस्था के लिए विध्वंसकारी मानने वाले भी बढ़ते जा रहे हैं। भले ही वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण इसे आर्थिक मंदी न कहते हुए किसी और नाम से संबोधित करें लेकिन ये तो वे भी मानती हैं कि आर्थिक जगत अभूतपूर्व सुस्ती से गुजर रहा है। हालाँकि उनके बचाव में खड़े होने वाले लोगों का कहना है कि वैश्विक आर्थिक परिस्थितियाँ भी इसके लिए काफी हद तक जिम्मेदार हैं। अपने दावे के पक्ष में उनका तर्क है कि विश्व की आर्थिक महाशक्ति के तौर पर धूमकेतु की तरह उभरे चीन की रफ्तार भी धीमी पड़ी है। विकास दर का आंकड़ा जिस तरह नीचे आता जा रहा है उसके कारण भी चिंता का माहौल है। अंतर्राष्ट्रीय संस्थानों के अनुमानों को भले ही न मानें लेकिन रिजर्व बैंक सहित बाकी भारतीय वित्तीय संस्थाओं का भी कहना है कि अर्थव्यवस्था में उठाव की उम्मीद तो दूर, यदि गिरावट को ही थाम लिया जाए तो बड़ी बात होगी। गत दिवस संसद में वित्तमंत्री ने एक बार फिर मंदी से इनकार कर दिया। उनका दावा इस तकनीकी आधार पर है कि जब लगातार दो तिमाही में विकास दर शून्य से नीचे रहती है तब मंदी की पुष्टि होती है जबकि भारत में अभी भी विकास दर पांच प्रतिशत के इर्द-गिर्द मंडरा रही है। वित्तमंत्री के समर्थन में एक तथ्य ये भी सहायक है कि इस वर्ष दुनिया की विकास दर भी ढलान पर है और 2018 की तुलना में घटकर 2.9 प्रतिशत रहेगी। सरकार के पास अपने बचाव के और भी तर्क हैं लेकिन जमीनी वास्तविकता ये है कि बजार में रौनक नहीं है जिससे औद्योगिक इकाइयाँ मांग में कमी के संकट से जूझ रही हैं। लोगों की जेब में नगदी की किल्लत भी आम चर्चा का विषय है। अधिकांश बैंक कर्ज की अदायगी नहीं होने से डगमगा रहे हैं। जमाकर्ताओं में घबराहट की वजह से बैंकों के सामने भी नगदी की समस्या बढ़ी है। ये कहने में कुछ भी गलत नहीं होगा कि राजनीतिक क्षेत्र की तरह आर्थिक जगत में भी जबरर्दस्त अविश्वास का माहौल है। लेकिन इसके विपरीत तस्वीर का दूसरा पहलू भी है जिसके आधार पर ये माना जा रहा है कि अर्थव्यवस्था में सुस्ती का ये अस्थायी दौर है। इसके पक्ष में शेयर बाजार में निवेशकों के बढ़ते विश्वास को बतौर प्रमाण प्रस्तुत किया जा रहा है। गत दिवस शेयर बाजार 41 हजार के रिकार्ड स्तर पर बंद हुआ। विदेशी निवेशकों की भारतीय पूंजी बाजार में रूचि बनी रहना उन अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों के अनुमानों को विरोधाभासी साबित कर रहा है जो विकास दर को लेकर निराशजनक तस्वीर पेश करते आ रहे हैं। देश में ऑटोमोबाइल, कपड़ा, निर्माण और अब तो टेलीकाम क्षेत्र तक में कारोबारी सुस्ती आई है। इलेक्ट्रानिक्स उत्पादों की बिक्री भी घटी है। बेरोजगारी के आँकड़े सर्वकालिक उच्चतम स्तर पर हैं। इस सबके बावजूद यदि पूंजी बाजार में विदेशी धन धड़ल्ले से आ रहा है तब ये मानकर चला जा सकता है कि मंदी या आर्थिक सुस्ती के ये काले बादल जल्द छंट जायेंगे। उम्मीद की किरण के पीछे रिजर्व बैंक द्वारा ब्याज दर में और कटौती की उम्मीदें भी हैं जिससे कर्ज सस्ता होगा। हालाँकि पिछली  अनेक तिमाहियों में रिजर्व बैंक द्वारा दी गयी राहतों का कितना असर हुआ ये अभी तक सतह पर नजर नहीं आ रहा लेकिन ऑटोमोबाइल और जमीन-जायजाद व्यवसाय की स्थिति सुधरने के संकेतों से उम्मीदों को बल मिल रहा है। हालांकि ये भी सही है कि शेयर बाजार की हलचलों को पुख्ता आधार मानकर आश्वस्त नहीं हुआ जा सकता। विशेष तौर पर विदेशी पूंजी के दीर्घकालीन टिके रहने की कोई गारंटी नहीं होती। उनका निवेश विशुद्ध मुनाफा कमाने के लिये होता है और जहां उन्हें ज्यादा लाभ मिलेगा वे यहाँ से धन निकालकर वहां लगा देंगे। ऐसे में भारत सरकार को चाहिए कि वह आर्थिक मोर्चे पर छाई अनिश्चितता और निराशा को दूर करने के लिए इस तरह के उपाय करे जिनसे आम जनता में विश्वास कायम हो। जहां तक बात विकास दर की है तो उसकी गति से उतनी चिंता नहीं जितनी अर्थव्यवस्था में लोगों का भरोसा बनाये रखना है। प्रधानमंत्री ने आने वाले चार-पांच सालों में भारतीय अर्थव्यस्था को पांच ट्रिलियन डालर अर्थात 5 हजार अरब डालर के बराबर पहुंचाने का जो लक्ष्य रखा है वह मुंगेरीलाल के हसीन सपने में तब्दील न हो जाये इसके लिए जरूरी है कि बजाय तदर्थ उपायों के ठोस और स्थायी तरीके अपनाए जाएं। एक बात जो अभी तक देखने मिली है वह ये कि मोदी सरकार कड़े फैसले लेने में हिचकिचाती नहीं है। इसलिए बेहतर होगा यदि वह सरकारी खजाने पर बोझ बन रही खैराती योजनाओं को कुछ समय के लिए ठंडे बस्ते में रखकर उत्पादकता आधारित योजनाओं और कार्यक्रमों पर सरकारी धन खर्च करे। वरना वोटबैंक की राजनीति से उत्पन्न मुफ्तखोरी की संस्कृति इस देश को निकम्मों की आश्रयस्थली में बदल देगी। याद रहे चीन ने अफीमचियों की छवि से बाहर आकर ही आज की स्थिति हासिल की है। भारत में बिना कुछ किये मुफ्त की रोटी खाने की प्रवृत्ति पर लगाम लगाया जाना जरूरी है।

- रवीन्द्र वाजपेयी

Wednesday 27 November 2019

महाराष्ट्र के महानाट्य से उपजे महा मुद्दे



महाराष्ट्र में राजनीतिक अनिश्चितता दूर होते ही अब उस घटनाक्रम की समीक्षा होने लगी है जिसमें भाजपा ने एनसीपी में सेंध लगाकर सरकार बनाने का दांव चला जो न केवल बुरी तरह फ्लाप हो गया अपितु सबसे अलग दिखने वाली पार्टी के साथ ही देवेन्द्र फणनवीस की एक ईमानदार नेता की छवि पर भी बुरा असर पड़ा। बात यहीं तक नहीं रुकी और आलोचना के घेरे में राज्यपाल के अलावा केंद्र सरकार और कुछ हद तक राष्ट्रपति भी आ गए। विधानसभा चुनाव परिणाम आने के साथ ही शिवसेना ने मुख्यमंत्री पद की जिद पकड़कर जो गतिरोध उत्पन्न कर दिया उसके अंतिम परिणाम को समझने में भाजपा नेतृत्व असफल साबित हुआ। उसे ये खुशफहमी थी कि शिवसेना का उसके साथ गठबंधन में रहना मजबूरी है। लेकिन शिवसेना ने बिना लागलपेट के कह दिया कि वह किसी भी पार्टी से हाथ मिलाने में संकोच नहीं करेगी। शरद पवार के तो खैर स्व. बाल ठाकरे से निजी सम्बन्ध बहुत अच्छे थे लेकिन जब शिवसेना ने ये कह दिया कि कांग्रेस भी महाराष्ट्र की दुश्मन नहीं है तब तक ये साफ हो चुका था कि वह सत्ता हासिल करने के लिए किसी भी हद तक जा सकती और उसने ये कर दिखाया। दूसरी तरफ  भाजपा को ये उम्मीद रही कि हिन्दुत्ववादी छवि की वजह से शिवसेना को कांग्रेस का समर्थन नहीं मिलेगा। उसकी सोच सही भी थी क्योंकि सोनिया गांधी काफी हिचक रही थीं लेकिन शरद पवार ने उन्हें इसके लिए राजी किया। शिवसेना को भाजपा के खेमे से निकलने के लिए एनसीपी द्वारा शुरुवात में रखी गई ढाई-ढाई साल के मुख्यमंत्री वाली शर्त भी वापिस ले ली गई। इसी वजह से अजीत पवार नाराज हुए क्योंकि उनके मन में मुख्यमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा लम्बे समय से जोर मार रही थी। जैसी जानकारी मिली है उसके मुताबिक अजीत लगातार फणनवीस के संपर्क में थे। लेकिन यहीं भाजपा से चूक हो गई। दरअसल न सिर्फ  देवेन्द्र बल्कि पार्टी का हाईकमान भी शिवसेना की भड़काऊ और काफी हद तक अपमानित करने वाली बयानबाजी की वजह से उसे सबक सिखाने के बारे में सोचने लग गए थे। आज की भारतीय राजनीति में चूंकि सत्ता हासिल करना ही सफलता के साथ नेतृत्व क्षमता और कौशल का मापदंड बन गया है इसलिए हर पार्टी और नेता किसी भी कीमत पर सरकार बनाने में जुटे रहते हैं। 1989 से शुरू हुआ गठबंधन युग अब एक वास्तविकता बन चुकी है। एक ज़माने में कांग्रेस किसी पार्टी का सहयोग लेना अपनी तौहीन समझती थी लेकिन धीरे-धीरे वह भी क्षेत्रीय दलों के साथ कनिष्ट भागीदार बनने लगी। शिवसेना को न सिर्फ  समर्थन देना अपितु उद्धव ठाकरे के मंत्रीमंडल में शामिल होने का उसका फैसला इस बात का ताजा प्रमाण है। हालाँकि इसके पीछे उसकी मजबूरी भी है क्योंकि उसकी राष्ट्रीय पार्टी की हैसियत लगातार कमजोर होती जा रही है। लेकिन आज की भाजपा के सामने ये बाध्यता नहीं है। केंद्र में उसकी मजबूत सरकार है। प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी के सामने कोई बड़ी चुनौती भी निकट भविष्य में नहीं है। बावजूद इसके भाजपा ने महाराष्ट्र में सम्मानजनक विपक्ष के रूप में बैठकर अनुकूल समय का इंतजार करने के बजाय जो प्रपंच रचा उससे हासिल तो कुछ हुआ नहीं उलटे पाप की गठरी सिर पर लद गयी। पार्टी विथ डिफरेंस का उसका दावा तो कभी का हवा-हवाई हो चुका है लेकिन जिन बातों का विपक्ष में रहते हुए वह विरोध करती थी उनसे उसे लेशमात्र भी परहेज नहीं रहा। अजीत पवार की ताकत को परखने में गलती तो एक बार नजरअंदाज भी की जा सकती थी। लेकिन जिस रहस्यमय तरीके से राष्ट्रपति शासन हटाकर सुबह-सुबह राजभवन में गिनती के लोगों के सामने शपथ ग्रहण करवाया गया उसकी वजह से भाजपा मुम्बई से लेकर दिल्ली तक शर्मसार हो गयी। शरद पवार ने जिस तरह से शांत रहते हुए अपनी पार्टी और परिवार पर आये संकट को टालकर पांसे पलट दिए उसकी वजह से वे नई सरकार के रिंग मास्टर बनकर उभरे। महाराष्ट्र के इस महानाट्य में श्री पवार ने निर्माता, निर्देशक, पटकथा लेखक, चरित्र अभिनेता जैसी सभी भूमिकाएं सफलतापूर्वक निभाईं। उद्धव ठाकरे मुख्यमंत्री भले बनने जा रहे हों लेकिन उनका भविष्य पूरी तरह से श्री पवार की मर्जी पर टिका होगा। भाजपा के लिए ये बहुत बड़ा धक्का है। यदि वह अजीत पवार के साथ सरकार बनाने में सफल हो जाती तब आज उसकी सफलता के नगाड़े बज रहे होते लेकिन शिवसेना द्वारा एनसीपी और कांग्रेस के साथ गठबंधन करने के प्रयास को जनादेश का अपमान बताने वाली भाजपा के सामने इस बात का कोई समुचित उत्तर नहीं है कि शरद पवार को अँधेरे में रखकर अजीत पवार के साथ गुपचुप सरकार बनाने की स्टंटबाजी किस जनादेश पर आधारित थी? सवाल और भी हैं। गत दिवस सर्वोच्च न्यायालय ने महाराष्ट्र के राजनीतिक विवाद पर जो फैसला दिया वह दरअसल एक तरह की तदर्थ व्यवस्था ही है क्योंकि उसने राज्यपाल के अधिकार और विवेक के अलावा ऐसी स्थितियों में सदन के संचालन आदि के बारे में कोई निर्देश या सुझाव नहीं दिया। खंडित जनादेश की स्थिति में इस तरह के हालात पहले भी उत्पन्न हुए हैं। जिनमें केंद्र में बैठी सत्ता के इशारे पर राज्यपाल ऐसी कार्रवाई करते आये हैं जो भले ही संवैधानिक प्रावधानों के अंतर्गत गलत न लगे लेकिन नैतिकता की कसौटी पर खरी नहीं उतरती। अनेक संविधान विशेषज्ञों ने कल संविधान में ऐसे संशोधन की जरुरत पर बल दिया जिससे कि ऐसी स्थिति होने पर संवैधानिक प्रावधानों की मनमाफिक व्याख्या न की जा सके और गलत होते हुए भी किसी कृत्य को गलत न ठहराया जा सके। बहरहाल महाराष्ट्र में जो होना था वह हो चुका। उद्धव ठाकरे और शिवसेना की जिद या महत्वाकांक्षा जो भी कहें वह पूरी हो चुकी है। एनसीपी और कांग्रेस ने भी अपनी चुनावी हार को जीत में बदलकर भाजपा को सत्ता से वंचित करने का लक्ष्य कर्नाटक शैली में हासिल कर लिया। शरद पवार ने ये साबित कर दिया कि वे भले ही राष्ट्रीय नेता न बन पाए हों किन्तु महाराष्ट्र में अभी भी उनकी पकड़ और प्रभाव कायम है। राजनीतिक जोड़तोड़ में उनका अनुभव उनकी सबसे बड़ी ताकत साबित हुई जिसके बल पर वे अतीत में सोनिया गांधी तक को गच्चा दे चुके थे। जहां तक बात भाजपा की है तो वह अजीत पवार को ब्लैंक चैक समझकर दीवाली मना बैठी लेकिन बैक में पर्याप्त बैलेंस न होने से चैक वापिस आ जाने पर सारी खुशी काफूर हो गई, जगहंसाई उपर से हुई सो अलग। लेकिन इसके लिए केवल देवेन्द्र फणनवीस को ही कसूरवार नहीं माना जा सकता क्योंकि बिना नरेंद्र मोदी और अमित शाह की अनुमति वे इतना बड़ा जोखिम नहीं उठा सकते थे। जहां तक बात इस सरकार के स्थायित्व की है तो वह कल के बाद दिखाई देगा क्योंकि सुविधा के समझौते और स्वार्थों की पूर्ति पर आधारित होने से इस सरकार का रास्ता निष्कंटक नहीं रहेगा। उद्धव ठाकरे और शिवसेना अभी तक तो सबको जो चाहे सुनाते आये हैं लेकिन अब उन्हें सबकी सुननी होगी। सबसे बड़ी बात उनकी हिन्दुत्ववादी छवि आये दिन कसौटी पर रहेगी। एनसीपी और कांग्रेस श्री ठाकरे को वैसी स्वछंदता नहीं देंगे जैसी उन्हें भाजपा के साथ हासिल थी। और फिर ये सरकार ठाकरे से ज्यादा पवार की कहलायेगी। एक बात और जो फिलहाल दबकर रह गई वह है अजीत पवार का राजनीतिक भविष्य क्योंकि घायल शेर ज्यादा खतरनाक होता है।

- रवीन्द्र वाजपेयी

Tuesday 26 November 2019

प्रदूषण रोकने की जिम्मेदारी हमारी भी है



हमारे देश में राजनीति ने देश के मानस पर इतना ज्यादा अतिक्रमण कर लिया है कि जनहित के अनेक विषयों का अपेक्षित संज्ञान नहीं लिया जाता। दिल्ली में बीते कुछ दिनों से वायु प्रदूषण जिस खतरनाक स्थिति में जा पहुंचा है उसको लेकर संसद में भी एक दो दिन होहल्ला मचा किन्तु उसके बाद सांसद और सरकार दूसरे कामों में उलझ गए। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय जरूर इस विषय पर काफी गंभीरता से विचार करते हुए सरकार पर दबाव बनाये हुए है। पराली से उत्पन्न प्रदूषण रोक पाने में असफलता के लिए पड़ोसी राज्यों के मुख्य सचिवों को बुलाकर भरी आदालत में उनकी खिंचाई करने के बाद गत दिवस न्यायाधीशों का गुस्सा बुरी तरह फट पड़ा। गुस्से में वे यहाँ तक बोल गए कि प्रदूषण के कारण कैंसर जैसी बीमारी से मरने की बजाय बेहतर हो लोगों को बम से उड़ा दिया जाए। सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता से तो अदालत ने यहाँ तक पूछा कि क्या ये गृहयुद्ध जैसे हालात नहीं हैं ? इसके अलावा न्यायालय ने पड़ोसी राज्यों के अधिकारियों को भी समुचित कदम उठाने के कड़े निर्देश दिए। राजधानी दिल्ली की कोई भी खबर चूंकि राष्ट्रीय स्तर पर चर्चित हो जाती है इसलिए दिल्ली के प्रदूषण पर भी खूब हल्ला मचता है लेकिन देश के अंदरूनी हिस्सों में कहीं-कहीं हालात दिल्ली जैसे ही नहीं बल्कि उससे भी बदतर हैं। भले ही वायु प्रदूषण उतना न हो लेकिन कहीं कचरे के ढेर हैं तो कहीं जल निकासी न होने से लोगों का चलना फिरना दूभर है। मच्छर और सुअरों के कारण होने वाली बीमारियों पर हर साल हल्ला मचता है लेकिन उनकी रोकथाम के लिए समुचित प्रबंध नहीं होने से हालात सुधरने का नाम ही नहीं ले रहे। सर्वोच्च न्यायालय ने लोगों को बम से उड़ाने जैसी जो तल्ख टिप्पणी की वह भले ही गुस्से में की गयी हो लेकिन देश की राजधानी में रहने वालों की जब ये दुर्दशा हो तब बाकी जगहों की कल्पना आसानी से की जा सकती है। देश के अनेक औद्योगिक नगर ऐसे हैं जिनमें प्रदूषण का स्तर खतरनाक से भी ऊपर बना रहता है लेकिन कोई रोकने-टोकने वाला नहीं है। कहने को प्रदूषण नियंत्रण मंडल जैसा संस्थान देश भर में कार्यरत है किन्तु वह भी बाकी सरकारी विभागों की तरह भ्रष्टाचार में फंसा हुआ है। हालाँकि ये भी सही है कि प्रदूषण को रोकने के लिए उठाये जाने वाले कड़े क़दमों का राजनीतिक और जनता दोनों के स्तर पर विरोध होने लगता है। पर्यावरण को नुकसान पहुँचाने वाले उद्योगों को बंद करने के फैसले की रोजगार छिनने की नाम पर मुखालफत होने लगती है। पहले केवल महानगरों में प्रदूषण और पर्यावरण की समस्या थी लेकिन बढ़ते शहरीकरण के कारण अब मझोले किस्म के शहरों में भी वैसी ही समस्याएँ जन्म लेने लगी हैं। औद्योगिक प्रदूषण और पराली जैसी अस्थायी समस्याओं के अलावा आम नागरिक की उपेक्षावृत्ति भी इसके लिए कम जिम्मेदार नहीं है। अपने घर का कूड़ा-कचरा सड़क या किसी और खाली जगह पर फेंक देना हमारा राष्ट्रीय स्वभाव बन गया है। कचरा संग्रहण भी एक बड़ा प्रकल्प बनता जा रहा है। दिल्ली में करनाल की तरफ  जाने वाले रास्ते पर कचरे का जो ढेर है उसकी दुर्गन्ध दूर तक फैलती है लेकिन उसका कोई इलाज नहीं हो पा रहा। जीवनशैली में हुए परिवर्तन की वजह से अब केवल शहरों में ही नहीं बल्कि ग्रामीण क्षेत्रों में भी कचरे के ढेर नजर आने लगे हैं। पॉलीथिन भी राष्ट्रव्यापी समस्या बन चुकी है। तमाम प्रतिबंधों के बावजूद उसका उपयोग धड़ल्ले से जारी है। प्रधानमन्त्री ने लालकिले की प्राचीर से सिंगल यूज प्लास्टिक के उपयोग को रोकने का जो आह्वान किया उसका असर होना शुरू तो हुआ है लेकिन वह जन अभियान नहीं बन सका। कपड़े का थैला लेकर चलने की अपील से प्रेरित होने वाले भी बढ़े हैं लेकिन अभी बहुत कुछ करना बाकी है। राष्ट्रीय स्वच्छता मिशन के बाद लोगों में जागरूकता आई है लेकिन समाज का काफी बड़ा वर्ग इसे लेकर उदासीन है। ये सब देखते हुए सर्वोच्च न्यायालय की चिंता और गुस्सा दोनों जायज हैं। लेकिन ये तभी फलीभूत हो सकेंगे जब पर्यावरण संरक्षण एक जनांदोलन बने। दुनिया के अनेक देशों में आम जनता इस दिशा में बेहद संवेदनशील होने से वहां हर तरह के प्रदूषण पर नियंत्रण पा लिया गया है। विकसित देशों में इसके लिए काफी प्रबंध भी किये जाते हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने दिल्ली में स्मॉग टावर लगाने का जो निर्देश दिया वह धीरे-धीरे और भी शहरों में लगाये जाने की जरुरत है। एयर फे्रशनर बनाने वाली कम्पनियों ने तो मौके का लाभ लेते हुए अपना धंधा शुरु भी कर दिया है परन्तु वह संपन्न वर्ग के लिए ही संभव है। बेहतर हो सर्वोच्च न्यायालय उनसे गत दिवस जिस तरह के कड़े शब्दों का इस्तेमाल किया उन्हें केवल सम्बन्धित सरकारी अधिकारी ही नहीं आम जनता भी गंभीरता से ले क्योंकि प्रदूषण फैलाने में प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से हम भी कम जिम्मेदार नहीं हैं।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Monday 25 November 2019

महाराष्ट्र के महानाटक में कई मोड़ बाकी हैं



महाराष्ट्र का सियासी घटनाक्रम लगातार रोचक होता जा रहा है। बीते शनिवार की सुबह - सुबह देवेन्द्र फडऩवीस सरकार को शपथ दिलवाकर राज्यपाल भगतसिंह कोश्यारी भी विवादों के घेरे में आ गए। शुक्रवार की शाम तक जहाँ उद्धव ठाकरे की ताजपोशी की पूरी तैयारी हो चुकी थी वहीं शनिवार की सुबह विशुद्ध छापामार शैली में भाजपा ने बाजी पलटने का कारनामा कर दिखाया। शरद पवार के भतीजे अजीत पवार की बगावत ने भाजपा की सत्ता तो बनवा दी किन्तु बात उतनी सीधी और सरल नहीं रही जितना भाजपा के रणनीतिकार सोचते थे। शाम होते - होते शरद पवार ने साबित कर दिया कि उस्ताद क्या होता है ? एनसीपी के 50 विधायकों को बटोरकर उन्होंने अजीत को एक तरह से अकेला कर दिया। ऐसा लगा कि भाजपा ने सत्ता की लालच में अपनी भद्द पिटवा ली। राष्ट्रपति शासन हटवाने के तरीके और शपथ ग्रहण के लिए बरती गयी गोपनीयता पर भी सवाल उठने लगे। अजीत पवार पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों को लेकर श्री फडऩवीस का भी खूब मजाक उड़ा। इसी बीच मामला जा पहुंचा सर्वोच्च न्यायालय जिसने रविवार को अवकाश के दिन भी सुनवाई की किन्तु कोई निर्देश देने की बजाय नोटिस जारी करते हुए बात आज पर टाल दी। लेकिन दूसरी तरफ एनसीपी द्वारा अजीत पवार को विधायक दल के नेता पद से हटाये जाने के बाद राजनीतिक से ज्यादा तकनीकी पेंच फंस गया है। अजीत को पार्टी ने निकाला नहीं और न ही उन्होंने पार्टी छोड़ी। शरद पवार ने गत दिवस राज्यपाल को जो समर्थन की नई चि_ी सौंपी उसमें भी अजीत का नाम है। दूसरी तरफ  वे भी चाचा को अपना नेता मानते हुए एनसीपी- भाजपा सरकार के बहुमत का भरोसा दिखा रहे हैं। अभी तक की खबरों के मुताबिक तो अजीत पवार के पास एनसीपी के इक्का-दुक्का विधायक ही बचे हैं और इस आधार पर देवेन्द्र फडऩवीस सरकार का बचना नामुमकिन लगता है। जानकार सूत्रों के अनुसार भाजपा की रणनीति अजीत के नेता पद को विधानसभा अध्यक्ष से मान्यता दिलवाकर व्हिप जारी करने का अधिकार उनके पास बनाये रखने की है। यदि ये दांव सफल हो गया तो विचित्र स्थिति उत्पन्न हो जायेगी। लेकिन ऐसा होना आसान नहीं लगता। हो सकता है ये मामला भी अदालत में चला जाए। बहरहाल मौजूदा सूरतेहाल में लोकतान्त्रिक और संसदीय प्रणाली का जिस तरह से मखौल उड़ रहा है वह चिंता का विषय है। राजनीतिक सौदेबाजी का स्तर भी बाजारू हो गया है। शिवसेना द्वारा एनसीपी और कांग्रेस से गठबंधन को अपवित्र बताने वाली भाजपा को उन अजीत पवार से हाथ मिलाकर सत्ता हासिल करने में तनिक भी संकोच नहीं हो रहा जिन्हें भ्रष्टाचार की प्रतिमूर्ति मानकर वह जेल में चक्की पिसवाने की डींग हांका करती थी। जनादेश की व्याख्या सब अपनी सुविधा से कर रहे हैं। बीते शुक्रवार की रात से लेकर शनिवार की सुबह तक के समूचे घटनाक्रम में राज्यपाल से लेकर राष्ट्रपति तक की भूमिका सवालों के घेरे में आ गई है। सरकार का शपथ ग्रहण जिस ताबड़तोड़ तरीके से हुआ उसमें संवैधानिकता का कितना पालन और कितना उल्लंघन हुआ उस पर अभी तक पर्दा पड़ा हुआ है। हालाँकि ये नई बात नहीं है। सर्वोच्च न्यायालय ने आज दोनों पक्षों की दलीलें सुनने के बाद फैसला कल सुबह तक टाल दिया है। वह क्या फैसला देता है ये तो वही जाने किन्तु अभी तक के जो समीकरण सामने आये हैं उनके मुताबिक भाजपा एक हारी हुई लड़ाई लड़ रही है। उसकी उम्मीदें केवल अजीत पवार के व्हिप जारी करने के अधिकार के सुरक्षित रहने पर टिकी हुईं हैं। यदि विधानसभा में मतदान के दौरान कोई बड़ा उलटफेर नहीं हुआ तो फडऩवीस सरकार का बचना असंभव है। यदि एनसीपी को तोड़ फोड़कर वह बच गई तब भी अजीत पवार उसके दामन पर एक दाग की तरह बने रहेंगे। वैसे आज की भाजपा को इन बातों से कुछ फर्क नहीं पड़ता क्योंकि वह पहले भी सुखराम जैसों से गठबंधन कर सत्ता में बने रहने का उदाहरण पेश कर चुकी है। देवेन्द्र फडऩवीस की छवि एक बेदाग़ मुख्यमंत्री की रही है। उनमें अपर संभावनाएं भी हैं। लेकिन मौजूदा हालातों में अजीत पवार के साथ हाथ मिलाने से उनकी प्रतिष्ठा को नुकसान हुआ है। आपरेशन लोटस के जरिये दूसरे दलों में सेंध लगाने की भाजपाई कोशिशें यदि सफल हो गईं तब तो ठीक वरना सारी उठापठक उसके लिए बदनामी का सबब बने बिना नहीं रहेगी। देवेन्द्र और अजीत की जोड़ी ने अभी तक हार नहीं मानी तो हो सकता है उसके पास कोई जादुई फार्मूला हो लेकिन एनसीपी, शिवसेना और कांग्रेस भी पूरी तरह मुस्तैद हैं। इस समूची खींचतान में विधायकों को होटलों में रखना और बार-बार होटल बदलना भी जनप्रतिनिधियों की वफादारी और ईमानदारी पर सवाल लगा रहा है। महाराष्ट्र के महानाटक में अभी अनेक मोड़ आयेंगे क्योंकि दोनों ही पक्षों में एक से एक बढ़कर कलाकार मौजूद हैं। रही बात नैतिकता की तो वह आज की राजनीति में अप्रासंगिक ही नहीं अनावाश्यक बनकर रह गई है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

कैलाश जोशी : शून्य से शिखर तक की निष्कलंक यात्रा



मप्र के पूर्व मुख्यमंत्री कैलाश जोशी नहीं रहे। 91 वर्ष की आयु में गत दिवस उन्होंने यह संसार छोड़ दिया। जोशी जी को राजनीति का संत कहा जाता था , जो पूरी तरह से सही है। लगातार 8 बार विधायक रहकर उन्होंने अपनी लोकप्रियता साबित की थी। विधानसभा में वे नेता प्रतिपक्ष भी रहे और भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष का दायित्व भी उन्होंने बखूबी निभाया। 1977 में बनी जनता पार्टी की सरकार का मुख्यमंत्री बनकर उन्होंने पहले गैर कांग्रेसी मुख्यमंत्री बनने का गौरव हासिल किया। यद्यपि अस्वस्थतावश वे ज्यादा समय पद पर नहीं रहे और बाद में मंत्री भी बने। 1990 में बनी सुन्दरलाल पटवा सरकार में भी वे मंत्री रहे। लेकिन मुख्यमंत्री या मंत्री पद जोशी जी की पहिचान नहीं बना। वे पार्टी के एक ईमानदार और निष्ठावान कार्यकत्र्ता और बेदाग जननेता के रूप में ज्यादा जाने जाते थे। रास्वसंघ के माध्यम से उन्होंने सामजिक कार्यकर्ता के तौर पर सार्वजनिक जीवन में प्रवेश किया और बाद में भारतीय जनसंघ में शामिल होकर राजनीति में कदम रखा। कांग्रेस के एकाधिकार वाले उस दौर में जोशी जी ने गाँव - गाँव घूमकर पार्टी का जनाधार बढ़ाने का काम किया। युवावस्था में ही वे विधायक बने और जल्द ही अपनी क्षमता से विधानसभा में अपनी छाप छोड़ दी। उनकी सैद्धांतिक प्रतिबद्धता के कारण विरोधी भी उनका सम्मान करते थे। सत्ता और संगठन दोनों में उच्च पदों पर रहते हुए जोशी जी ने सदैव ईमानदारी का परिचय दिया। हालाँकि उनका यह गुण उनके लिए नुकसानदेह भी रहा लेकिन उनका स्वभाव और कार्यशैली नहीं बदली। जोशी जी उस दौर में राजनेता बने जब राजनीति सिद्धांतो के प्रसार के लिए होती थी, सत्ता की बंदरबांट के लिए नहीं। कालान्तर में वे राज्यसभा और लोकसभा में भी रहे। विगत काफी समय से अस्वस्थतावश वे सार्वजनिक जीवन से दूर रहे लेकिन उनके प्रति सम्मान में कोई कमी नहीं आई। उनके नहीं रहने से प्रदेश की राजनीति के स्वर्णिम युग का एक स्तम्भ ढह गया। आज की राजनीति में जोशी जी जैसे नेता भले ही अप्रासंगिक और उपेक्षित मान लिए गये हों लेकिन उनका व्यक्तित्व और कृतित्व कभी भुलाया नहीं जा सकेगा। शून्य से शिखर तक की उनकी यात्रा निष्कलंक थी। राजनीति के इस संत की तपस्या निष्फल नहीं रही। जिस मिशन को लेकर वे सार्वजनिक जीवन में आये उसे न केवल उन्होंने हासिल किया अपितु एक पूरी पीढ़ी को दीक्षित भी किया। जोशी जी मप्र के राजनीतिक इतिहास में सदैव एक सम्माननीय राजनेता के तौर पर अंकित रहेंगे। विनम्र श्रद्धांजलि।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Saturday 23 November 2019

महाराष्ट्र का महानाटक : जैसा चाचा वैसा भतीजा



क्या हुआ और कैसे हुआ ये फिलहाल कोई नहीं बता पा रहा । लेकिन महाराष्ट्र में आज सुबह जो राजनीतिक घटनाक्रम देखने मिला वह भारतीय राजनीति में एक नए उदाहरण के तौर पर सामने आया है । कल रात तक उद्धव ठाकरे को मुख्यमंत्री बनाने पर एनसीपी और कांग्रेस की सहमति के बाद आज राज्यपाल से मिलकर सरकार बनाने का दावा करने का कार्यक्रम था। मंत्रियों के विभागों पर भी अंतिम फैसला होना था। उद्धव को पूरे पांच साल तक ढोने के लिए भी रजामंदी हो गई थी। विधानसभा अध्यक्ष पद को लेकर जरूर पेंच फंसा था । भाजपा की तरफ  से केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी ने इस गठबंधन को अवसरवदी बताकर सरकार के स्थायित्व पर भी प्रश्नचिन्ह लगा दिया जिससे ये लगा कि भाजपा ने विपक्ष में बैठकर सही अवसर का इंतजार करने का मन बना लिया है । शिवसेना को एनसीपी और कांग्रेस का समर्थन पक्का होने के बाद इसे अमित शाह की विफलता और शरद पवार का नए चाणक्य के रूप में उभरना माना जाने लगा था । संजय राउत की धुआंधार बयानबाजी के सामने भाजपा हर तरह से रक्षात्मक प्रतीत हो रही थी। भाजपा के कट्टर समर्थक भी कहने लगे कि पार्टी ने शिवसेना को मनाने की अपेक्षित कोशिश नहीं की। यदि अमित शाह या नितिन गडकरी खुद होकर उद्धव ठाकरे से बात कर लेते तो वह इतनी दूर नहीं जाती जहां से लौटना मुश्किल हो गया । बहरहाल आज सुबह सारे कयास और समीकरण उलट गए । देश के अधिकतर लोग सुबह के अखबारों में उद्धव ठाकरे की ताजपोशी से जुड़े घटनाक्रम का विवरण पढ़ रहे थे तभी टीवी चैनलों में देवेंद्र फडऩवीस द्वारा मुख्यमंत्री और अजीत पवार द्वारा उपमुख्यमंत्री पद की शपथ लिए जाने की खबरें प्रसारित होने लगीं। सुबह 5.45 बजे राष्ट्रपति शासन हटा लिया गया । मतलब शपथग्रहण की तैयारी देर रात हो चुकी होगी जिसे गोपनीय रखा गया । अब पता चला है श्री फडऩवीस ने रात 9.30 बजे राज्यपाल को अपने पास बहुमत होने की जानकारी दे दी थी। महामहिम ने इसकी पुष्टि किस आधार पर की ये सवाल उठते रहेंगे। राष्ट्रपति शासन हटाने जैसी कार्रवाई सुबह पौने छह बजे होना दर्शाता है कि दिल्ली में भी रात भर उठापटक चलती रही। इस अचानक हुए धमाके पर आम प्रतिक्रिया ये रही कि शरद पवार ने एक बार फिर वही किया जिसके लिए वे जाने जाते हैं । वरना कल तक उनके भतीजे अजीत पवार का उपमुख्यमंत्री बनना निश्चित होने के बाद भी वे इस तरह कूदकर भाजपा की गोद में क्यों जा बैठे ? लेकिन बाद में श्री पवार ने स्पष्ट किया कि यह एनसीपी का नहीं अजीत का फैसला है । इस बयान से रहस्य और गहराया और बात भतीजे द्वारा अपने राजनीतिक गुरु और अभिभावक के विरुद्ध बगावत की चलने लगी। अजीत के साथ कितने विधायक टूटकर आये ये अभी साफ  नहीं हुआ । कोई 22 तो कोई 50 से ज्यादा कह रहा है । भाजपा ने चुपचाप बाजी तो पलट दी लेकिन अभी विश्वास मत जीतना बाकी है । ये ठीक है कि भाजपा के पास शिवसेना से लगभग दोगुने विधायक होने से स्थायी सरकार देने का उसका दावा मजबूत था लेकिन अल्पमत सरकार के लिए एक विधायक की कमी भी खतरे का कारण बन जाती है । वैसे श्री फडऩवीस बीते 5 वर्ष तक शिवसेना की हरकतों को झेलने के बाद काफी अनुभवी हो चुके हैं । और फिर अजीत  सियासत के मंजे हुए खिलाड़ी होने से शिवसेना से बेहतर साबित हो सकते हैं । लेकिन उनका दागदार अतीत और खुद देवेंद्र द्वारा विपक्ष में रहते हुए उनके विरुद्ध सिंचाई घोटाले के लगाये आरोपों के मद्देनजर ये गठबंधन भी राजनीतिक अवसरवाद और सौदेबाजी की तोहमत से नहीं बच सकेगा। यदि शरद पवार भी पर्दे के पीछे से इस खेल के रिंग मास्टर हैं तब ये माना जायेगा कि विधानसभा चुनाव के पहले ईडी की कार्रवाई के कारण ये सब हुआ। श्री पवार के खासमखास प्रफुल्ल पटेल भी उसके घेरे में हैं । सच्चाई धीरे-धीरे सामने आएगी। शाम तक ये साबित हो जाएगा कि अजीत के साथ पर्याप्त विधायक आए या नहीं ? खबर तो शिवसेना में सेंध लगने की भी है । पूर्व मुख्यमंत्री नारायण राणे शिवसेना और कांग्रेस से होते हुए आजकल भाजपा में हैं । सुना है वे अपने पुराने संपर्कों के बल पर शिवसेना विधायकों को फोडऩे में जुटे हैं । फिलहाल तो अनिश्चितता का आलम है । शरद पवार की सफाई के बाद भी शक की सुई उन पर मंडरा रही है। बीते दिनों प्रधानमंत्री से उनकी मुलाकात के बाद से ही कुछ अप्रत्याशित होने की आशंका बढ़ गई थी। आज सुबह कांग्रेस प्रवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी ने ट्वीट करते हुए श्री पवार पर तंज भी कसा जिसे बाद में वापिस ले लिया गया । अभी तक जो जानकारी आई उसके अनुसार अजीत ने चाचा की चौधराहट से मुक्त होकर खुद मुख्त्यारी का ऐलान कर दिया है । उनकी बगावत कितनी असरकारक है ये तो सरकार के बहुमत साबित करने पर स्पष्ट होगा लेकिन बीते काफी समय से वे इस बात से नाराज थे कि चाचाजी अपनी बेटी सुप्रिया सुले को उत्तराधिकारी बनाना चाह रहे हैं । राष्ट्रीय राजनीति में सुप्रिया ही श्री पवार की विरासत की अधिकृत दावेदार बन गई हैं। उद्धव के साथ उपमुख्यमंत्री बनने की बात तय होने के बाद अजीत ने विद्रोह इसलिए भी किया क्योंकि शुरूवात में शिवसेना और एनसीपी में ढाई - ढाई साल के मुख्यमंत्री का समझौता हुआ था जो आखिर में फुस्स हो गया । शरद पवार ने इस हेतु कोई दबाव नहीं बनाया और संजय राउत ने चिल्लाना शुरू कर दिया कि शिवसेना का मुख्यमंत्री पूरे 5 साल रहेगा। और भी वजहें हो सकती हैं लेकिन महाराष्ट्र की सियासत में अचानक आए इस भूचाल में ठाकरे परिवार को जबरदस्त नुकसान हो गया। यदि देवेंद्र सरकार चल गई तो शिवसेना का हाल तेलुगु देशम जैसा होना निश्चित है । पवार साहब भी लंबे समय तक राजनीति नहीं कर सकेंगे । ऐसे में एनसीपी का कमजोर होना भी पक्का है । रही बात इस गठबंधन पर उठ रहे नैतिकता के सवालों की तो ईसा मसीह के इस कथन का उल्लेख यहां प्रासंगिक होगा कि पहला पत्थर वह मारे जिसने कभी कोई पाप न किया हो । भाजपा के पास खोने को कुछ था नहीं लेकिन अजीत ने बहुत बड़ा जुआ खेला है । कुछ दशक पहले उनके चाचा ने अपने गुरु बसंत दादा पाटिल को भी इसी शैली में धोखा देकर सत्ता हथियाई थी। संविधान और लोकतंत्र की हत्या जैसे आरोप ऐसे हर वाकये के बाद उछलते हैं । लेकिन भारतीय राजनीति का चारित्रिक पतन जिस स्तर तक हो चुका है उसके बाद उनका कोई महत्व नहीं रह जाता। संजय राउत ने अजीत पर पाप करने का आरोप लगाया। लेकिन इस महाभारत में उनकी भूमिका शकुनी जैसी रही । कुल मिलाकर रात भर में बाजी पलटकर भाजपा ने ये दिख दिया कि सत्ता की राजनीति के सारे हुनर उसने सीख लिए हैं। आगे कुछ उलटफेर नहीं हुआ तो अमित शाह का चाणक्य पद सुरक्षित रहेगा।

-रवीन्द्र वाजपेयी


Friday 22 November 2019

महाराष्ट्र में दोहराया जा सकता है कर्नाटक



आखिऱी वक्त पर कोई उलटफेर नहीं हुआ तो आज महाराष्ट्र में गैर भाजपा गठबंधन की सरकार बनने का रास्ता साफ़  हो जायेगा। गत दिवस दिल्ली में कांग्रेस और एनसीपी की बैठक में शिवसेना को समर्थन देने का फैसला हो गया। आज मुम्बई में मंत्रियों की संख्या और विभागों के बंटवारे संबंधी चर्चा के बाद सरकार बनाने का दावा राज्यपाल के सामने किया जा सकता है। अभी तक के संकेतों के अनुसार कांग्रेस और एनसीपी दोनों ने शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे को ही मुख्यमंत्री बनाने का निर्णय किया है जिसके लिए शिवसेना भी तैयार है। हालाँकि उनके बेटे आदित्य पिता के साथ हर समय दिखाई देते हैं किन्तु जितनी भी महात्वपूर्ण बैठकें हुई उनमें उद्धव ही शामिल हुए। जिससे ये माना जा सकता है कि फिलहाल आदित्य को मुख्यमंत्री बनाने का इरादा पार्टी ने ताक पर रख दिया है।  सरकार बनाने पर सैद्धांतिक सहमति के साथ ये बात भी सुनाई दे रही है कि एनसीपी ने ढाई साल अपना मुख्यमंत्री बनाने का  दावा फिलहाल ठंडा कर दिया है। इसका कारण कांग्रेस भी हो सकती है जिसे एनसीपी का ताकतवर होना हजम नहीं हो रहा। जैसी खबरें हैं उनके मुताबिक अब एनसीपी और कांग्रेस दोनों का उपमुख्यमंत्री होगा। लेकिन विधानसभा का अध्यक्ष पद और उसके साथ ही महत्वपूर्ण विभागों को हथियाने के लिए तीनों पार्टियों के बीच खींचातानी अभी चल रही है। जैसी जानकारी मिली उसके मुताबिक कांग्रेस और एनसीपी दोनों को अच्छी तरह से पता है कि सरकार स्थायी नहीं होगी और इसीलिये दोनों ऐसे विभागों के लिए जोर मार रहे हैं जिनके जरिये कमाई के साथ - साथ जनाधार भी बढ़ाया जा सके। शिवसेना की मजबूरी ये है कि वह मुख्यमंत्री की जिद में उलझकर सौदेबाजी की हैसियत खो बैठी है। कांग्रेस और एनसीपी ने मंत्रियों की संख्या को बराबर बाँट लेने का जो फार्मूला रखा है उसे स्वीकार करने के अलावा उसके पास दूसरा कोई  रास्ता नहीं है। और यही उसके लिए चिंता का कारण है। उपमुख्यमंत्री के अलावा विधानसभा अध्यक्ष का पद उसके पास नहीं रहेगा। वित्त सहित अनेक महत्वपूर्ण मंत्रालय भी कांग्रेस  और एनसीपी झटक लेंगे। ऐसे में शासन - प्रशासन पर मुख्यमंत्री बनने के बाद भी श्री ठाकरे अपेक्षित प्रभाव कायम नहीं कर सकेंगे। सबसे बड़ी बात ये होगी कि उन्हें सरकार का अनुभव नहीं है जबकि दूसरी तरफ  कांग्रेस और एनसीपी के घाघ नेता सत्ता में बराबर की भागीदारी करेंगे। मुम्बई के राजनीतिक गलियारों में चल रही चर्चाओं के मुताबिक शिवसेना को सत्ता में लाने में मदद करने के बाद दोनों पार्टियाँ नगरीय निकायों के चुनावों में भी बराबरी की हिस्सेदारी मांगेंगी और तब शिवसेना के लिए शोचनीय हालात बन जाएंगे। सबसे बड़ी समस्या आयेगी  बीएमसी  (मुम्बई महानगरपालिका) को लेकर जिसका कब्जा ठाकरे परिवार नहीं  छोडऩा चाहेगा क्योंकि ये उसके लिए कुबेर का खजाने  जैसा है। अभी वह  भाजपा के सहारे वहां काबिज है। जहां तक बात कांग्रेस और एनसीपी की है तो वे भाजपा को सत्ता से बाहर करने के बाद शिवसेना को घुटनों के बल खड़ा करने का खेल खेलेंगे। वैसे ठाकरे परिवार इस सम्भावना से पूरी तरह अनभिज्ञ नहीं है लेकिन वर्तमान स्थितियों में उद्धव के सामने कांग्रेस और एमसीपी की  शर्तों को मान लेने  के सिवाय दूसरा विकल्प नहीं है। उद्धव् द्वारा अयोध्या यात्रा रद्द करने के अलावा कांग्रेस के दबाव में  साझा न्यूनतम कार्यक्रम में धर्मनिरपेक्ष शब्द रखे जाने की जिद को स्वीकार करने से शिवसेना की मजबूरी सामने आ गई है। चूंकि ये गठबंधन दुश्मन का दुश्मन अपना दोस्त की नीति  के आधार पर हो रहा है इसलिए सैद्धांतिक पलायन तो तीनों प्रमुख घटकों ने किया। कांग्रेस और एनसीपी  का शिवसेना के करीब आना उनकी छवि को भी नुकसान  पहुंचाए बिना नहीं रहेगा लेकिन शिवसेना ने तो पूरी तरह से ही अपनी पहिचान को खतरे में डाल दिया है। तीन दशक तक उसकी साथी रही भाजपा भी हिंदुत्व की प्रखर प्रवक्ता है लेकिन शिवसेना का हिंदुत्व प्रेम उग्रता की हद तक रहा है। उस दृष्टि से कांग्रेस और एनसीपी के साथ हम प्याला-हम निवाला वाला रिश्ता जोडऩे के बाद शिवसेना अपने मूल स्वरूप को कहाँ  तक बचाकर रख सकेगी ये बड़ा सवाल है। पीडीपी के साथ जम्मू कश्मीर में गठबंधन करने से भाजपा की साख को भी जबर्दस्त धक्का पहुंचा था लेकिन अनुच्छेद 370 को समाप्त करने से वह दाग धुल गया। शिवसेना के पास महाराष्ट्र में ऐसा कारनामा करने का कोई  मौका नहीं होगा। कांग्रेस और एनसीपी तो भविष्य में मतदाताओं के सामने ये कहते हुए सफाई देंगे कि उन्होंने महाराष्ट्र में हिंदूवादी गठबंधन में सेंध लगाकर भाजपा के विजय रथ को रोक दिया लेकिन शिवसेना अपने इस कृत्य को किस आधार पर सही ठहरा सकेगी ये उसके लिए गहन चिन्तन का विषय है। भाजपा को सत्ता में आने से रोकने के लिए कांग्रेस ने कर्नाटक में एचडी देवगौड़ा के बेटे कुमार स्वामी को मुख्यमंत्री पद पर बिठाया था। लेकिन उसका परिणाम कांग्रेस में हुई टूटन के तौर पर सामने आया। अंतत: उस सरकार को गिराकर भाजपा सत्ता में लौट आई और अब कुमार स्वामी और कांग्रेस एक दूसरे के विरुद्ध तलवारें घुमा रहे हैं। महाराष्ट्र में दलबदल से सबसे ज्यादा शिवसेना आशंकित है। तभी गत दिवस उसने अपने विधायक जयपुर भेजने का निर्णय किया। वैसे भाजपा भी फिलहाल तो दूर बैठकर खेल देखने की भूमिका में ही रहेगी किन्तु उसकी यह आशा  निराधार नहीं है  कि देर सवेर शिवसेना में सेंध लगाने में वह सफल हो जायेगी। दरअसल महाराष्ट्र का जनादेश इतना खंडित है कि उसमें कुछ भी हो सकता है। कांग्रेस नेता संजय निरुपम द्वारा शिवसेना के साथ गठबंधन को आत्मघाती बताने वाला बयान अप्रत्याशित समीकरणों की जमीन बन सकता है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Thursday 21 November 2019

जेएनयू : सभी विश्वविद्यालयों को एक नजर से देखा जावे



देश में सरकारी और निजी मिलाकर सैकड़ों विश्वविद्यालय हैं। इनमें कुछ अपनी गुणवत्ता के लिए विख्यात हैं तो कुछ अपनी अराजक व्यवस्था के लिए। लेकिन देश की राजधानी दिल्ली में स्थित जेएनयू (जवाहरलाल नेहरु यूनीवर्सिटी) उक्त दोनों मापदंडों पर खरी उतरती है। देश के अलावा विदेशों के छात्र भी वहां पढ़ते हैं। जेएनयू में अनेक ऐसे विषयों का अध्ययन और शोध होता है जो अपने आप में विशिष्ट हैं। इस संस्थान से निकले विद्यार्थी विभिन्न क्षेत्रों में अपनी प्रतिभा से प्रभावित कर रहे हैं। अभी हाल ही में अर्थशास्त्र में नोबेल पुरस्कार प्राप्त अभिजीत बैनर्जी भी इसी विश्वविद्यालय की उपज हैं। सीपीएम नेता सीताराम येचुरी के अलावा वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण और विदेश मंत्री एस. जयशंकर भी यहां के छात्र रहे हैं। इनके अलावा देश के तमाम नामी पत्रकार , लेखक और दूसरी हस्तियां भी जेएनयू से पढ़कर निकलीं। यह एक केन्द्रीय विश्वविद्यालय है। लेकिन इसकी चर्चा केवल उक्त कारणों से न होकर उसकी वामपंथी वैचारिक पहिचान के साथ ही परिसर के भीतर की जीवनशैली और सार्वजानिक आचरण को लेकर ज्यादा है। लम्बे समय तक इसमें वामपंथी रुझान वाले छात्र संगठनों का आधिपत्य रहा। शिक्षकों में भी अधिकतर वामपंथी सोच से प्रेरित रहे। लेकिन बीते कुछ सालों से भाजपा की छात्र इकाई कही  जाने वाली अभाविप ने भी अपने पांव जमाये जिसके बाद परिसर के भीतर न केवल छात्र राजनीति बल्कि दूसरी बातों पर भी असर पड़ा। सबसे बड़ी चीज ये हुई कि वामपंथी विचारधारा का एकाधिकार  खत्म हो गया और उनकी गतिविधियों का विरोध होने लगा। यहीं से बात बिगड़ी और जेएनयू एक राष्ट्रीय मुद्दा बनने लगा। बात केवल वामपंथ के प्रचार- प्रसार की रहती तब भी ठीक था किंतु जब अफजल गुरु की फांसी का विरोध होने के साथ कश्मीर की आजादी और भारत तेरे टुकड़े होंगे जैसे नारे गूंजने  लगे तब जेएनयू को लेकर चिंता का माहौल देश भर में बना। कन्हैया कुमार को लेकर हुआ विवाद सर्वविदित है। संस्थान के छात्रावास के भीतर उन्मुक्त और वर्जनाहीन व्यवहार की खबरें भी आया करती थीं । पास की पहाड़ी पर शराब की बोतलें तथा  दूसरी ऐसी वस्तुएं मिलने से भी यह संस्थान बदनामी के कगार पर जा पहुंचा जो भारतीय परिवेश में अनपेक्षित होने के साथ ही आपत्तिजनक भी मानी जाती हैं। बहरहाल जेएनयू को लेकर चल रहे  मौजूदा विवाद का कारण छात्रावास की  फीस के साथ दूसरे शुल्क बढ़ाये जाने के अलावा कुछ प्रतिबंध लगाया जाना है। जिनकी वजह से छात्र-छात्राओं की उन्मुक्तता पर रोक लगने का रास्ता खुल जाता। छात्रों ने शुल्क में भारी-भरकम वृद्धि को लेकर हंगामा मचाया। कुलपति और कुछ शिक्षकों को कमरों में बंद करने जैसी बातें भी हुईं। जुलूस आदि भी निकले। पुलिस द्वारा पिटाई किये जाने की घटनाएं भी हुईं। समाचार माध्यमों से लेकर सड़क और संसद सभी जगह जेएनयू की  चर्चा चल रही है। सोशल मीडिया तो यूँ भी ऐसे मुद्दों पर फ्रीस्टाइल कुश्ती का अखाड़ा बन जाता है। छात्रावास की फीस में अनाप-शनाप बढ़ोतरी को लेकर सभी की सहानुभूति छात्रों के साथ हुई लेकिन जब पता चला कि एक सीट वाले छात्रावास कमरे का शुल्क 20 रु. और दो सीट वाले का मात्र 10 रु. प्रतिमाह था  और बाकी शुल्क भी नाममात्र के थे तब लोग चौंके। ये बात सही है कि 10 रु. को बढ़ाकर  300 रु. कर देना सर्वथा अनुचित था जिसे दबाव में आने के बाद कम भी किया गया लेकिन छात्र किसी भी तरह की वृद्धि का विरोध कर रहे हैं। उनके जुलूस पर हुए लाठीचार्ज के कारण उनके वैचारिक विरोधियों का  एक वर्ग भी उनके प्रति हमदर्दी जता रहा है। ये तर्क भी दिया जा रहा है कि संस्थान में  पढऩे वाले तकरीबन 40 फीसदी विद्यार्थी  बेहद गरीब परिवारों के  हैं जो अपनी बौद्धिक प्रतिभा के बल पर इस विश्वविद्यालय में प्रवेश पा सके। शुल्क में वृद्धि के कारण वे खर्च नहीं उठा सकेंगे जिससे उनका भविष्य अंधकारमय हो जाएगा। इसके बाद बात देश भर में शिक्षा को सस्ती किये जाने की उठ खड़ी हुई। बाकी शिक्षण  संस्थानों में भी शुल्क का ढांचा जेएनयू जैसा किये जाने की मांग  भी उठने लगी। लेकिन पता चला है कि सस्ती शिक्षा का लाभ लेते हुए अनेक ऐसे छात्र भी इस संस्थान में मौजूद  हैं जिनकी आयु 35 और 40 वर्ष से भी ज्यादा हो चुकी है। शोधार्थी के रूप में वे वहां समय बिता रहे हैं।  दिल्ली  जैसे शहर में 10 या 20 रूपये में रहने   की जगह कल्पना में  भी सम्भव नहीं है । जेएनयू में पुस्तकालय को रात भर खोले जाने , पुरुष छात्रावास में छात्राओं के प्रवेश और ऐसी ही बाकी बातों पर जब कुछ बंदिशें लगाई गईं तब छात्र आक्रोशित हो उठे। सबसे बड़ी बात ये है कि जेएनयू में चली आ रही किसी भी व्यवस्था में बदलाव को दक्षिणपंथ विरुद्ध वामपंथ बनाकर राजनीतिक स्वरूप दे दिया जाता है। वहां की स्वछंदता को आजादी के नाम पर संरक्षण देने का प्रयास भी चला करता है। एक शैक्षणिक  संस्थान में हिन्दुओं के आराध्य  देवी-देवताओं का अपमान खुले आम होता रहे और विरोध करने पर बवाल हो तो उसे वैचारिक स्वतंत्रता के नाम पर उचित कहना भी अनुचित है। सरे आम छात्र -  छात्राएं चुम्बन करते हुए अपनी आजादी का प्रदर्शन करें ये किसी शैक्षणिक संस्थान में किस तरह सही है ये एक बड़ा सवाल है। जेएनयू में पढऩे वालों के लिए कोई समय-सीमा क्यों नहीं है ये भी बड़ा सवाल है। जो लोग छात्रों के आन्दोलन का समर्थन कर रहे हैं उन्हें उनकी उद्दंडता की निंदा भी करनी चाहिए। इस परिसर  में वामपंथी सोच का प्रभाव भले रहे लेकिन स्वामी विवेकानंद की मूर्ति का अपमान किये जाने का दुस्साहस करने वालों को भी उनके किये का दंड मिलना चाहिए। एक महिला शिक्षक को कमरे में बंधक बनाकर रखना किस तरह का  वामपंथ है  ये समझ से परे है। जेएनयू के छात्र संगठन यदि शिक्षा को सस्ती किये जाने को लेकर देशव्यापी मुहिम छेड़ते तब शायद उन्हें सभी का समर्थन मिल सकता था। लेकिन अब तक के अनुभव ये बताते हैं अपनी गौरवशाली पृष्ठभूमि का बेजा फायदा उठाते हुए यहां के छात्र एक विशिष्ट तरह की श्रेष्ठता के भाव से पीडि़त हैं। विश्वविद्यालय स्तर के छात्र को राजनीति से सर्वथा दूर रखने वाली सोच तो ठीक नहीं लेकिन सरकारी खर्च से संचालित इस संस्थान को केवल एक विचारधारा विशेष के आधिपत्य में बनाये रखने की जिद भी एक तरह का सामन्तवाद ही है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Wednesday 20 November 2019

श्रीलंका : स्वागत योग्य कूटनीतिक पहल



कूटनीति में सही समय पर कदम उठाने का बड़ा महत्व होता है। उस दृष्टि से विदेश मंत्री एस. जयशंकर का कोलम्बो पहुंचकर श्रीलंका के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति गोताबाया राजपक्षे से मुलाक़ात करना मायने रखता है। उल्लेखनीय है श्री राजपक्षे ने सोमवार को ही अपने पद की शपथ ली थी। श्रीलंका की राजनीति में उनका नाम जाना -पहिचाना है। अव्वल तो वे पूर्व राष्ट्रपति महिंद्रा राजपक्षे के भाई हैं और उससे भी महत्वपूर्ण ये है कि श्रीलंका में तमिल उग्रवादी संगठन लिट्टे को जड़ से उखाड़ फेंकने वाली सैन्य कार्रवाई का निर्देशन उन्हीं ने किया था जिसमें संख्या में नरसंहार की वजह से वे पूरी दुनिया में मानवाधिकार हनन के लिए आलोचना के शिकार भी हुए। उस समय महिन्द्रा श्रीलंका के राजप्रमुख थे। लेकिन उसके बाद हुए चुनाव में वे हार गए। बीते कुछ वर्षों में श्रीलंका ने राजनीतिक अस्थिरता भी देखी। शीर्ष संवैधानिक पदों को लेकर कानूनी लड़ाई भी हुई। लेकिन सबसे अच्छी बात ये रही कि पूर्व राष्ट्रपति सिरिसेना भारत के काफी करीब थे। यहाँ ये भी जानना जरूरी है कि लिट्टे के सफाए के बाद जब महिंद्रा राजपक्षे चुनाव हारे तब उनने भारत पर ये आरोप लगाया तथा कि उसने रॉ के जरिये उनकी पराजय का तानाबाना बुना था। दरअसल राजपक्षे का झुकाव चीन की तरफ  होने से वे भारत को वैसे भी रास नहीं आते थे। हालाँकि राष्ट्रपति सिरिसेना के कार्यकाल में भी महिंद्रा को प्रधानमंत्री नियुक्त किया गया था किन्तु विवाद के बाद उन्हें हटना पड़ा। इस बार उनके भाई मैदान में उतरे और राष्ट्रपति बनने में सफल रहे। भले ही श्रीलंका भारत के मुकाबले बहुत छोटा देश हो लेकिन उसकी भौगोलिक स्थिति बेहद संवेदनशील और सामरिक दृष्टि से भी भारतीय हितों को प्रभावित करने वाली है। सबसे ज्यादा ध्यान देने वाली बात ये है कि बीते काफी समय से चीन ने इस टापूनुमा देश के साथ अपने व्यापारिक रिश्ते बेहद मजबूत करते हुए हंबनटोटा बंदरगाह को 99 वर्ष के लिए पट्टे पर ले लिया। इसके पीछे कारण बना चीन से लिए गये कर्ज की अदायगी। श्रीलंका में अधोसंरचना के कामों में भी उसने काफी निवेश कर रखा है। चीन के लिए नेपाल के बाद श्रीलंका भारत की घेराबंदी करने के लिए सबसे ज्यादा अनुकूल देश है। सिरिसेना के रहते भारत की चिंता कुछ कम हुईं थीं लेकिन गोताबाया के राष्ट्रपति बनने से पलड़ा फिर चीन के पक्ष में जाने की आशंका बढ़ गई। हालाँकि उन्होंने अपनी शुरुवाती टिप्पणी में भारत के साथ ऐतिहासिक रिश्तों का हवाला दिया किन्तु श्रीलंका के साथ हमारे सम्बन्धों में स्थायित्व कभी नहीं रहा। लिट्टे के उदय से लेकर उसके खात्मे तक की स्थितियों में कभी खटास तो कभी मिठास बनी रही। महिंद्रा राजपक्षे के काल में अविश्वास चरम पर जा पहुंचा था जो बीते चार वर्ष में घटा जरुर लेकिन चीन के साथ इस देश के रिश्तों की शुरुवात तो सिरीमावो भंडारनायके के प्रधानमन्त्री रहते हुए ही पड़ी जो निरंतर मजबूत होती चली गयी। वे तीन बार इस पद पर रहीं और बाद में उनकी बेटी चंद्रिका कुमारातुंगा भी प्रधानमंत्री बनीं। ये कहना गलत नहीं होगा कि स्व.राजीव गांधी के कार्यकाल में श्रीलंका के साथ भारत के रिश्ते बेहद खराब हो गए थे। लिट्टे को समर्थन देने के नाम पर भारत के प्रति श्रीलंका के मन में जो सन्देह पनपा वह अभी तक कायम है। जबकि चीन ने व्यापारिक रिश्तों की आड़ में वहां अपना प्रभावक्षेत्र काफी विस्तृत कर लिया। मोदी सरकार ने पड़ोसी देशों के साथ बहुमुखी सबंध बनाकर भारत को चीन के समकक्ष खड़ा करने की जो कार्ययोजना बनाई उसके तहत श्रीलंका से रिश्ते प्रगाढ़ करना जरूरी है। एशिया के बाकी देशों के साथ नरेंद्र मोदी ने जिस तरह के व्यापारिक सम्बन्ध कायम किये उससे भी चीन काफी चौकन्ना है और श्रीलंका में अपनी मौजूदगी से भारत के लिए चिंता उत्पन्न करता रहता है। शायद यही वजह रही कि गोताबाया के राष्ट्रपति बनते ही भारत ने अपने विदेश मंत्री को कोलम्बो भेजकर कूटनीतिक पहल की। नवनिर्वाचित राष्ट्रपति को भारत आने का निमंत्रण भी दे दिया गया और 29 तारीख को उनके नई दिल्ली आने का कार्यक्रम भी बन गया। श्री जयशंकर चूँकि कई दशक तक विदेश सेवा में रहे इसलिए उनका कूटनीतिक अनुभव बेहद व्यापक है। विदेश सचिव बनने के पूर्व वे अमेरिका और चीन में बतौर राजदूत भी सेवाएं दे चुके हैं। विश्व के साथ ही एशिया की कूटनीतिक स्थितियों के बारे में भी उनको गहरी जानकारी है। श्री जयशंकर को भारतीय विदेश सेवा के बेहतरीन अधिकारियों में माना जाता था। जब श्री मोदी ने उन्हें विदेश सचिव बनाया था तब विपक्ष ने भी उनके चयन की सराहना की। यूँ भी राजनेताओं की अपेक्षा राजनयिक सेवा से जुड़े अधिकारी कूटनीतिक संवाद में ज्यादा निपुण माने जाते हैं। उस लिहाज से श्रीलंका के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति से दूसरे दिन ही जाकर मिलना और उन्हें भारत आने के लिए तैयार कर लेना अच्छी शुरुवात कही जायेगी। श्रीलंका के साथ भारत का सांस्कृतिक रिश्ता काफी पुराना है। बौद्ध धर्मावलम्बी होने के कारण वहां से बड़ी संख्या में लोग भारत में स्थित बौद्ध केंद्रों पर आते हैं। लिट्टे की समाप्ति के बाद भारत से भी श्रीलंका जाने वाले पर्यटकों की संख्या में जबर्दस्त वृद्धि हुई है। विशेष रूप से अशोक वाटिका के दर्शन करने। आपसी व्यापार में भी काफी बढ़ा है। चूँकि दोनों के बीच दूरी कम है इसलिए माल की आवाजाही का खर्च भी कम पड़ता है। ऐसे में यदि थोड़ी सी चतुराई दिखाई जावे तो इस देश के साथ भारत के रिश्तों में समाया अविश्वास दूर हो सकता है। वैसे श्री मोदी भी संवाद कला में काफी पारंगत हैं और इसीलिये आशा की जा सकती है कि श्रीलंका के नये राष्ट्राध्यक्ष के कार्यकाल में दोनों देशों में आपसी सहयोग का नया अध्याय शुरू हो सकेगा।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Tuesday 19 November 2019

सत्ता तो मिली नहीं साख भी चली गयी



जैसी उम्मीद थे वैसा ही हो रहा है। मुख्यमंत्री की जिद में भाजपा के साथ अपना तीस साल पुराना गठबंधन तोडऩे वाली शिवसेना त्रिशंकु बनी हुई है। भाजपा से संवाद के रास्ते उसने खुद होकर बंद कर दिए। उसे लग रहा था कि दुश्मन का दुश्मन अपना दोस्त की नीति पर अमल करते हुए एनसीपी और कांग्रेस तश्तरी में रखकर सत्ता उसके पास लेकर आयेंगी। शुरुवात में ऐसा लगा भी लेकिन शरद पवार की पहेलीनुमा सियासत की वजह से पार्टी की स्थिति न इधर के रहे न उधर के रहे वाली होकर रह गयी है। एनसीपी और कांग्रेस ने पहले तो शिवसेना को एनडीए से बाहर आने के लिए मजबूर करते हुए केंद्र से उसका इकलौता मंत्री हटवा दिया। यही नहीं मुख्यमंत्री पद के लिए पार्टी के चेहरे बनाये गये आदित्य ठाकरे को अनुभवहीन बताकर उद्धव को आगे आने के लिए बाध्य किया। बैठकों का दौर चला। भाजपा को बाहर रखने पर सैद्धांतिक सहमति भी बन गई। लेकिन शिवसेना के पक्ष में राज्यपाल को समर्थन का पत्र न तो एनसीपी ने दिया और न ही कांग्रेस ने। जिसके बाद राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया। हालाँकि उसका तीनों ने विरोध भी किया लेकिन सरकार बनाने के बारे में बात आगे नहीं बढ़ सकी। इस दौरान मुंबई में तीनों दलों की बैठकें होती रहीं जिनमें साझा न्यूनतम कार्यक्रम को लेकर भी रजामंदी होने का प्रचार किया गया परन्तु श्री पवार ने बजाय बात आगे बढ़ाने के धीमे चलो की नीति अपनाई। वे बार - बार ये कहते रहे कि कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी से मिलकर ही पक्के तौर पर कुछ कह सकेंगे। इधर भाजपा भी बीच - बीच में सरकार बनाने के दावे करते हुए शिवसेना को डराती रही। बहरहाल गत दिवस श्री पवार और श्रीमती गांधी की बहुप्रतीक्षित भेंट हुई जिस पर सभी की निगाहें लगी थीं किन्तु बैठक के बाद एनसीपी नेता ने जिस तरह की बातें कीं उससे शिवसेना में निराशा बढ़ गयी। शरद पवार ने ऐसी द्विअर्थी बातें कहीं जिनसे कुछ भी स्पष्ट नहीं हो सका। 17 नवम्बर को स्व. बाल ठाकरे की पुण्य तिथि पर शिवसेना के नेतृत्व में सरकार गठन की उम्मीद की जा रही थी लेकिन न एनसीपी ने कोई संकेत दिया और न ही कांग्रेस ने। इधर उद्धव ठाकरे ने 24 तारीख को अयोध्या की अपनी प्रस्तवित यात्रा भी रद्द कर दी जिससे श्री पवार और श्रीमती गांधी के बीच होने वाली बैठक से खुशखबरी निकल सके। लेकिन पहले राज्यसभा में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा एनसीपी के संसदीय व्यवहार की प्रशंसा और बाद में श्री पवार द्वारा कांग्रेस अध्यक्ष से महाराष्ट्र में सरकार बनाने के बारे में किसी भी प्रकार की बातचीत न होने के खुलासे से समीकरण दूसरी दिशा में घूमते दिखाई देने लगे। एनसीपी प्रमुख के ये कहने से रहस्य और गहरा गया कि जनादेश भाजपा - शिवसेना को मिला था और अभी तो छह महीने का समय है। इसके बाद शिवसेना भी तनाव में आ गई और उसके बड़बोले प्रवक्ता संजय राउत ने भी कटाक्ष कर दिया कि सरकार बनाने का दायित्व केवल शिवसेना का नहीं है। हालाँकि बाद में वे श्री पवार से भी मिले। गौरतलब है अभी तक कांग्रेस के प्रादेशिक नेता चाहे जो कुछ कहते रहे हों लेकिन केन्द्रीय नेतृत्व ने शिवसेना को समर्थन के बारे में खुलकर कुछ भी नहीं कहा। राजनीति के जानकार मान रहे हैं कि श्रीमती गांधी शिवसेना को समर्थन देने को लेकर पसोपेश में हैं। उन्हें लगता है कट्टर हिंदूवादी छवि की वजह से शिवसेना की संगत कांग्रेस की साख के लिए खतरा साबित होगी। दूसरी बात कांग्रेस को ये भी महसूस होती है कि देर सबेर ठाकरे परिवार वापिस भाजपा के साथ जा मिलेगा। हो सकता है उसे रामदास आठवले द्वारा भाजपा और शिवसेना के बीच मध्यस्थता प्रयासों से अंदेशा हो गया हो। इस अनिश्चितता से शिवसेना की अकड़ कमजोर हो गयी। जैसी कि खबर है श्री राउत ने श्री आठवले के उस सुझाव पर सकारात्मक प्रतिक्रया दी जिसके अनुसार पहले तीन साल भाजपा और शेष दो वर्ष में शिवसेना का मुख्यमंत्री रहेगा। महाराष्ट्र की राजनीति का ऊँट किस करवट बैठगा ये कोई नहीं बता पा रहा। हाथ से आती सत्ता झमेले में पड़ जाने से भाजपा की वजनदारी को झटका जरुर लगा लेकिन उससे ज्यादा फजीहत शिवसेना की हो गई। चुनावी नतीजे आते ही उसने और भी विकल्प खुले होने की जो धौंस दी थी वह अब तक असर नहीं दिखा सकी। भाजपा के सामने गुर्राने वाली पार्टी एनसीपी और कांग्रेस के आगे-पीछे जिस तरह घूमती फिर रही है उससे उसके अपने समर्थक हैरान हैं। इधर भाजपा ने एनसीपी के साथ नजदीकी बढ़ाने के संकेत देकर कांग्रेस और शिवसेना दोनों को असमंजस में डाल दिया है। पूरे घटनाक्रम में शरद पवार ने पहले तो रिंग मास्टर की भूमिका हथिया ली किन्तु बाद में वे अपनी रहस्यमय कार्यप्रणाली से सभी को हलाकान करते आ रहे हैं। कुल मिलाकर शिवसेना को ये समझ में आ गया कि सत्ता की राह उतनी सरल नहीं थी जितनी ठाकरे परिवार और उनके सलाहकार बन बैठे संजय राउत समझ बैठे थे। आज की स्थिति में उसकी हालत सौ जूते या सौ प्याज में से कोई एक चुनने वाली दुविधा में फंसकर रह गयी है। एक तरफ  सत्ता है तो दूसरी तरफ  साख। मौजूदा हालात में सत्ता उसके हाथ आ नहीं रही और उसकी मृगमरीचिका में साख से भी वह हाथ धोती जा रही है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Monday 18 November 2019

अयोध्या : राख में चिंगारी तलाशने की कोशिश



अयोध्या पर सर्वोच्च न्यायालय के बहुप्रतीक्षित फैसले के बाद पूरे देश ने राहत महसूस करते हुए उसका स्वागत किया । तमाम आशंकाओं को झुठलाते हुए सर्वत्र साम्प्रदायिक सद्भाव कायम रहा। अयोध्या तक में अभूतपूर्व शांति देखी गई। राजनीतिक दलों ने भी परिपक्वता का प्रदर्शन किया । कुछ विघ्नसंतोषियों को छोड़कर लगभग सभी ने बीती ताहि बिसर दे आगे की सुधि लेय का महत्व समझकर सैकड़ों वर्ष पुराने विवाद की इतिश्री का इरादा व्यक्त करते हुए ये ज़ाहिर कर दिया कि 21 वीं सदी का भारत संवेदनशील ही नहीं, जिम्मेदार भी हो गया है । फैसले के बाद हालांकि कुछ लोगों ने विरोध का इरादा जताया किन्तु उसे खास तवज्जो नहीं मिली। लेकिन दो-चार दिन बाद ही इस बात के संकेत आने लगे कि कुछ लोगों को अमन-चैन अच्छा नहीं लगता । सर्वोच्च न्यायालय ने मस्जिद हेतु 5 एकड़ भूमि देने के साथ ही एक न्यास बनाकर मंदिर निर्माण किये जाने के निर्देश केंद्र सरकार को दिए । कई पीढिय़ों से चले आ रहे इस विवाद को हल करने के इस फार्मूले को भी व्यापक समर्थन मिला। लेकिन सप्ताह बीतते-बीतते ऐसे संकेत मिले जिनसे विवाद को आगे घसीटने के कुत्सित इरादे सामने आ गए। अव्वल तो अयोध्या में बैठे संतों के कुछ गुट आपस में टकराए । इसके पीछे मंदिर निर्माण के लिए बनने वाले ट्रस्ट में घुसने का उद्देश्य था। कुछ संतों के बीच तो बाकायदा मारपीट होने तक की खबरें आ गई। सब अपने आपको मंदिर निर्माण का अधिकृत दावेदार बताने लगे। एक शंकराचार्य भी अपने न्यास को सबसे पुराना बताकर दावा ठोकते सुनाई दिए। राजनीतिक दलों ने अभी तक तो काफी समझदारी दिखाई दिग्विजय सिंह ने जरूर जगद्गुरु स्वामी स्वरूपानन्द जी के रामालय ट्रस्ट की तरफदारी की । लेकिन बाकी नेतागण आमतौर पर मौन ही रहे। इस कारण हिंदू साधू-संतों के विवाद को विशेष समर्थन नहीं मिल सका । सरकार की तरफ  से रक्षा सलाहकार अजीत डोभाल ने फैसले के बाद सभी धर्मों के प्रतिनिधि धमाचार्यों की बैठक बुलाई थी जिसमें सभी ने सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय को मानने पर रजामंदी व्यक्त कर दी । पता चला कि सरकार भी न्यास के गठन के बारे में सक्रिय है और जल्द उसका ऐलान हो जाएगा । लेकिन गत दिवस मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की बैठक में फैसले के विरुद्ध पुनर्विचार याचिका पेश करने का फैसला किया गया। यद्यपि इसे एकमतेन नहीं कहा जा सकता क्योंकि कुछ सदस्यों ने विरोधस्वरूप बैठक का बहिष्कार कर दिया जबकि कुछ नाराज होकर बीच में ही चले गए । बैठक में पुनर्विचार याचिका के अलावा मस्जिद के लिए अन्यत्र भूमि न लेने का फैसला भी हुआ। बाबरी मस्जि़द एक्शन कमेटी के जफरयाब जिलानी और हैदराबाद के सांसद असदुद्दीन ओवैसी तो सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के तत्काल बाद से ही उसे नकारने लग गए थे। अन्य मुस्लिम नेताओं ने भी असहमति के बावजूद मामले को खत्म करने जैसी समझदारी भरी बातें कहीं किन्तु पर्सनल लॉ बोर्ड के ताजा फैसले के बाद लगता है राख में चिंगारी तलाशने का प्रयास जारी रहेगा । एक तरफ  हिन्दू धर्माचार्यों में प्रभुत्व कायम करने की चिर-परिचित खींचातानी चल रही है तो दूसरी ओर मुस्लिम समुदाय का एक गुट ठंडी होती आग को हवा देकर भड़काने के प्रयास में जुटा हुआ है । इस मामले में संतोष और सौभाग्य का विषय ये है कि दोनों ही धर्मों के समझदार और बहुसंख्यक लोग विवाद को आगे खींचने की बजाय सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय को शिरोधार्य करने के इच्छुक हैं । प्रमुख राजनीतिक दल भी इसी के पक्ष में होने से इतने बड़े विवाद के अदालती हल की स्थिति आसानी से उत्पन्न हो सकी। इस सबके बीच कतिपय टीवी चैनलों की भूमिका भी शरारतपूर्ण रही जो हिन्दू और मुस्लिम पक्ष के लोगों को बिठाकर तीतर-बटेर की तरह लड़वा टीआरपी बढ़ाने में जुटे रहे। बहरहाल केंद्र सरकार को चाहिए वह सर्वोच्च न्यायालय की मंशा के अनुरूप फैसले को लागू करवाने की दिशा में आगे बढ़े। प्रस्तावित न्यास में भी ऐसे लोगों को ही रखा जावे जो अपने मान -सम्मान से ज्यादा मंदिर निर्माण के लिए ईमानदारी से संकल्पित हों । इसी तरह मुस्लिम समुदाय के शरारती तत्वों को महत्व दिए जाने की बजाय उन लोगों को आगे लाया जाए जो मुसलमानों को मुख्य धारा में लाकर उनके विकास के लिए प्रयासरत हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने दोनों समुदायों को एक स्वर्णिम अवसर दिया है शांति और सद्भाव के साथ मिलकर अपना और देश दोनों का विकास करने का। दूध में नींबू निचोडऩे के अभ्यस्त लोग इस स्थिति को हजम नहीं कर पा रहे। ऐसे लोगों को चाहे वे कोई भी हों न केवल उपेक्षित अपितु बहिष्कृत भी किया जाना चाहिए । सन्तोष का विषय है कि आम हिन्दू और मुसलमान इस विवाद को सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के परिप्रेक्ष्य में हल करने की मानसिकता बना चुके हैं । न्यायालयीन निर्णय के बाद से पूरे देश में जिस प्रकार शान्ति-व्यवस्था कायम रही वह एक तरह का संदेश है उन तत्वों को जो इस विवाद को जिंदा रखते हुए अपनी रोटी सेंकने के लिए प्रयासरत हैं। केंद्र सरकार को बिना देर किए आगे कदम बढ़ाने चाहिए क्योंकि न्यायपालिका ने जो अनमोल अवसर दिया है उसका पूरा-पूरा लाभ उठाना जरूरी है । वरना एक ऐतिहासिक मौका हाथ से निकल जायेगा । मंदिर निर्माण जितनी जल्दी शुरू होगा उतनी जल्दी शरारती तबके के हौसले ठंडे पड़ जाएंगे।

- रवीन्द्र वाजपेयी

Saturday 16 November 2019

दिल्ली के साथ - साथ पूरे देश की चिंता की जाए



दिल्ली में वायु प्रदूषण को रोकने के सभी प्रयास अब तक सफल नहीं हुए। सर्वोच्च न्यायालय पड़ोसी राज्यों के वरिष्ठ अधिकारियों को बुलाकर फटकार लगा चुका है। राज्य सरकारें किसानों को पराली जलाने से रोकने का प्रयास भी कर रही हैं। लेकिन उसका भी असर नहीं दिखाई दे रहा। चौतरफा हो रही आलोचना के बाद किसानों ने भी ये सवाल उठाना शुरू कर दिया है कि पराली बरसों से जलाई जाती रही लेकिन दिल्ली में वायु प्रदूषण का हल्ला कुछ सालों से ही मचने लगा है। पराली को दूसरे तरीके से नष्ट करने या उपयोग करने पर भी सुझाव आना शुरू हो गये हैं। ये भी कहा जा रहा है कि दो-चार दिन में मौसम सही होते ही दिल्ली और निकटवर्ती गुरुग्राम, नोएडा और गाजिय़ाबाद के लोगों की सांस के साथ जाने वाला जहर कुछ कम हो जाएगा। बीते अनेक वर्षों से ये हालात हर साल बनते आ रहे हैं। उस दौरान खूब हल्ला मचता है लेकिन थोड़ा सा सुधार होते ही दिल्ली और उसके हिस्से बन चुके आसपास के शहरों को उनके हाल पर छोड़ दिया जाता है। दिल्ली सरकार ने ऑड और ईवन (विषम और सम) नम्बर वाले वाहनों को एक-एक दिन चलाने की जो व्यवस्था की वह भी अपेक्षित परिणाम नहीं दे रही। सर्वोच्च न्यायालय तक उस पर टिप्पणी कर चुका है। दिल्ली पर छाए धुंध का मुख्य कारण पड़ोसी राज्यों में पराली जलाए जाने को बताए जाने के बाद से देश भर में इस बात का संज्ञान लिया जाने लगा है। दिल्ली में तो लोगों में घबराहट और भय का माहौल है। राष्ट्रीय राजधानी में प्रदूषण की ये स्थिति शर्मनाक है। देश भर से आकर वहां बसने वाले बहुत से लोगों के मन में दिल्ली छोडऩे का भाव जन्म लेने लगा है। एक समय था जब दिल्ली के बाहरी इलाकों में खेती होती थी। उस कारण खुली आबो-हवा उपलब्ध थी। लेकिन समय के साथ दिल्ली फैलती गई। खुली जमीन में बहुमंजिला इमारतें तन गईं। वाहनों की बेतहाशा संख्या ने आसमान को धुएं से भर दिया जो पूरे साल भर लोगों के फेफड़ों को नुकसान पहुंचाता है। बीते कुछ समय से शालाएं बन्द पड़ी हैं। छोटे बच्चों के लिए तो ये खतरनाक स्थिति है ही बुजुर्गों और मरीजों के लिए भी प्राणलेवा है। सुबह की सैर करने वाले घरों में बैठे रहने को बाध्य हैं। दिल्ली को गैस चेम्बर कहा जाने लगा है। अचानक बाजार की ताकतें सक्रिय हो उठीं और एयर प्यूरीफायर के नाम पर नया धंधा शुरू हो गया। टीवी पर उसके विज्ञापन आने लग गए। शुद्ध पेयजल का अरबों-खरबों का कारोबार पहले से ही चला आ रहा था, अब शुद्ध हवा के लिए भी लोगों की जेब काटने का तानाबाना बुना जाने लगा है। सर्वोच्च न्यायालय ने दिल्ली में चीन की तरह ही एयर प्यूरीफायर के टॉवर लगाने के बारे में भी कहा है। दिल्ली चूंकि देश की राजधानी है इसलिए सर्वोच्च न्यायालय से लेकर संसद और समाचार माध्यम तक उस पर ध्यान देते हैं लेकिन छोटे -छोटे शहरों तक में वायु प्रदूषण की जो स्थिति खतरनाक स्तर को छूने लपक रही है उन पर किसी का ध्यान नहीं जाता। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राष्ट्रीय स्वच्छता मिशन के जरिये देश में प्रदूषण को दूर करने का जो अभियान छेड़ा उसके कारण लोगों की मानसिकता में सकारात्मक बदलाव आया है किंतु आबादी का बड़ा हिस्सा अभी भी पर्यावरण संरक्षण के प्रति लापरवाह है। कुछ लोग तो अपनी हैसियत की ठसक में किसी भी सुधार में सहयोग करने राजी नहीं होते। उदाहरणस्वरूप दिल्ली में अनेक सम्पन्न लोगों ने ऑड और ईवन दोनों नंबरों के वाहन खरीद लिए हैं। वायु प्रदूषण केवल दिल्ली या भारत की समस्या नहीं है। पूरा विश्व इससे त्रस्त है। बढ़ते तापमान की वजह से उत्तरी और दक्षिणी धु्रवों के ग्लेशियर तक पिघलने लगे हैं जिसके कारण पृथ्वी का अस्तित्व खत्म होने की भविष्यवाणी भी की जाने लगी है। मुंबई सहित समुद्र के तट पर बसे दुनिया के अनेक महानगरों के जलमग्न होने की आशंका भी व्यक्त की जाने लगी है। विश्व में आतंकवाद के समानांतर पर्यावरण संरक्षण भी चिंता का बड़ा कारण बना हुआ है। आये दिन इसे लेकर ताकतवर देशों के राष्ट्रप्रमुख सम्मेलन करते हुए समझौते भी करते हैं। बड़े देशों द्वारा छोटे देशों पर दबाव भी डाला जाता है। इस सबकी वजह से कुछ अच्छे कदम उठाए भी जा रहे हैं लेकिन भारत सरीखे देश में आबादी बहुत बड़ी समस्या बन चुकी है। करोड़ों लोग गरीबी रेखा से नीचे रहने मजबूर हैं। शहरों में झुग्गी-झोपड़ी बढ़ती जा रही हो तब प्रदूषण को रोक पाना असम्भव लगने लगा है। दिल्ली की वर्तमान स्थिति से उत्पन्न समस्या से देर-सवेर पूरे देश को निपटना पड़ेगा। बेतरतीब विकास एवं अनियोजित शहरीकरण के कारण छोटे-छोटे शहर भी प्रदूषण की गिरफ्त में आते जा रहे हैं। ऐसे में अभी से इस तरफ  ध्यान नहीं दिया गया तो वह समय दूर नहीं जब पूरे देश की सांसों में ज़हर घुला होगा। इस समस्या का तदर्थ हल तलाशने के बजाय दूरगामी और स्थायी समाधान करना जरूरी हो गया है। हालात जिस तरह से बिगड़ रहे हैं उन्हें देखते हुए पूरे देश को ध्यान में रख कार्ययोजना बनाई जानी चाहिए।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Friday 15 November 2019

राफेल सौदा : जनता और अदालत दोनों ने नकारे आरोप



सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई सेवानिवृत्ति के पूर्व महत्वपूर्ण लंबित मामलों को निबटाने में जुटे हैं। उसी क्रम में उनकी अगुआई में न्यायाधीश द्वय संजय किशन कौल और केएम जोसेफ  की पीठ ने राफेल युद्धक विमान सौदे में हुई कथित गड़बड़ी की जांच करवाने विषयक पुनर्विचार याचिका खारिज कर दी। इसी के साथ कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी द्वारा सर्वोच्च न्यायालय के हवाले से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को निशाना बनाकर चौकीदार चोर जैसी टिप्पणी पर मानहानि प्रकरण का निराकरण करते हुए श्री गांधी को भविष्य में सोच - समझकर बोलने की नसीहत देकर उनका माफीनामा स्वीकार कर लिया। उल्लेखनीय है पिछले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस का प्रचार अभियान मुख्य रूप से राफेल सौदे पर ही केंद्रित रहा। राहुल तो हर सभा में चौकीदार चोर है का नारा लगवाया करते थे। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा पहले भी राफेल सौदे की जांच से मना किया जा चुका था। उस निर्णय पर पुनर्विचार हेतु भाजपा के वरिष्ठ नेता रहे पूर्व केंद्रीय मंत्री द्वय यशवंत सिन्हा और अरुण शौरी के अलावा कांग्रेस प्रवक्ता तथा वरिष्ठ अधिवक्ता प्रशांत भूषण एवं आम आदमी पार्टी सांसद संजय सिंह ने याचिका पेश करते हुए मोदी सरकार को घेरने की भरसक कोशिश की। लेकिन गत दिवस तीन सदस्यीय पीठ ने याचिका खारिज करते हुए सौदे में किसी भी तरह की गड़बड़ी से इंकार करते हुए जांच करवाए जाने से मना कर दिया। विमान की अधिक कीमत के आरोप को भी सही नहीं माना गया। यद्यपि न्यायमूर्ति श्री जोसेफ  ने सीबीआई द्वारा अनुमति लेकर जांच किये जाने की बात कही किन्तु श्री गोगोई और श्री कौल ने उस सम्बन्ध में कोई भी आदेश देने से इंकार कर दिया। इस फैसले से प्रधानमंत्री को काफी राहत मिली होगी क्योंकि श्री गांधी ने राफेल सौदे में भ्रष्टाचार के लिए सीधे उन पर आरोप लगाते हुए ज्यादा कीमत दिए जाने के अलावा उद्योगपति अनिल अम्बानी को 30 हजार करोड़ गलत तरीके से दिलवाने का हल्ला मचाया था। लोकसभा चुनाव में कांग्रेस का पूरा प्रचार राफेल के पंखों में ही फंसा रहा। ऐसा लगा मानो राहुल 1989 के लोकसभा चुनाव में उनके पिता स्व.राजीव गांधी पर बोफोर्स तोप खरीदी में हए कथित घोटाले के आरोपों का ब्याज सहित बदला लेना चाह रहे थे। लेकिन मतदाताओं को उनकी बातों पर भरोसा नहीं हुआ और श्री मोदी पहले से भी ज्यादा सीटें लेकर सत्ता में लौटे। उसके बाद यद्यपि राजनीतिक तौर पर तो राफेल खरीदी सम्बन्धी विवाद ठंडा पड़ गया किन्तु सर्वोच्च न्यायालय में लंबित पुनर्विचार याचिका के निर्णय पर सबकी नजरें लगी रहीं। अंतत: न्यायपालिका में भी इस मामले का पटाक्षेप हो गया। भाजपा ने बिना देर किए राहुल पर हमला बोलते हए देश से माफी मांगने की मांग कर डाली। निश्चित तौर पर भाजपा के लिए ये खुशखबरी है। लेकिन श्री गांधी हार मानने के मूड में नहीं लगते। सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय आते ही उन्होंने तुरंत जेपीसी (संयुक्त संसदीय समिति) से जांच करवाए जाने की मांग उछाल दी। इसका उद्देश्य वैसे तो चौकीदार चोर है वाले मामले में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दी गई झिड़की से पैदा हुई शर्मिंदगी से बचने की कोशिश था लेकिन ऐसा लगता है लगभग मुद्दाविहीन हो चुकी कांग्रेस संसद के शीतकालीन सत्र में जेपीसी जांच को लेकर हंगामा करने का प्रयास करेगी। बहरहाल अब इस विवाद में कोई दम नहीं बचा है। पुनर्विचार याचिका लगाने वाले सभी लोग जाने - माने थे। न्यायालय ने राफेल की कीमत के अलावा ऑफसेट पार्टनर वाले आरोप का भी कोई संज्ञान नहीं लिया। ये भी कहा जा सकता है कि एक तरह से सौदे को पूरी तरह पाक - साफ  होने का प्रमाणपत्र दे दिया। यूं भी आम जनता ने इस विवाद को खास तवज्जो नहीं दी। इसकी एक वजह कांग्रेस का अतीत ही कहा जायेगा। भ्रष्टाचार को लेकर उसका अपना दामन भी उजला नहीं रहा। डॉ. मनमोहन सिंह की सरकार पर जितने आरोप लगे वह एक रिकॉर्ड था। उस दौरान रक्षा सौदों में बरती गई उदासीनता के कारण भारतीय सेना की मारक क्षमता पर बुरा असर पड़ा। सत्ता प्राप्त करते ही श्री मोदी ने इस दिशा में तेज कदम बढ़ाए। इनमें राफेल को लेकर जबरदस्त बवाल मचाया गया। कीमत और तकनीकी बदलाव की वजह से मोदी सरकार पर खूब आरोप लगे। सम्बंधित जानकारी संसद से छिपाए जाने की मांग अस्वीकार किये जाने से संदेह और गहराता गया। कीमत को गोपनीय रखने के सरकार द्वारा दिए गए तर्कों पर विपक्ष के साथ ही समाचार माध्यमों में भी खूब विवाद हुआ। लेकिन कल आए फैसले के बाद केंद्र सरकार और भाजपा दोनों को आक्रामक होने का मौका मिल गया है। चूंकि सर्वोच्च न्यायालय दो बार सौदे में गड़बड़ी के आरोपों को निराधार बता चुका है इसलिए अब विपक्ष के पास कोई हथियार नहीं बचा। जहां तक बात जेपीसी से जांच की है तो सर्वोच्च न्यायालय के दो टूक निर्णय के बाद उसका औचित्य भी नहीं रहा। राहुल गांधी खिसियाहट दूर करने के लिए भले कुछ भी मांग करते रहें किन्तु संसद में सरकार के पास सुविधाजनक बहुमत होने से वे दबाव बनाने में शायद ही कामयाब हो सकें। जनता और कानून दोनों अदालतों में राफेल सौदे को लेकर लगाए आरोप बेअसर साबित हो चुके हैं। यद्यपि श्री गांधी अपनी बात कहने स्वतंत्र हैं लेकिन तथ्यहीन आरोपों के कारण उनको अहमियत नहीं मिल सकी। सर्वोच्च न्यायालय ने विमान की कीमतों में वृद्धि सम्बन्धी गोपनीय जानकारी देखने के बाद ही पूरी प्रक्रिया को विधि सम्मत माना। श्री गांधी को चाहिए वे सरकार को अन्य मुद्दों पर जरूर घेरें। लेकिन जब चौकीदार चोर के अपने आरोप पर उन्होंने माफी मांग ली तब राफेल को लेकर आगे किसी भी विवाद की गुंजाइश ही नहीं बची। यदि इसके बाद भी वे जिद पकड़े रहे तो उनकी राजनीतिक अपरिपक्वता को लेकर कही जाने वाली बातें सत्य साबित हो जाएंगी।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Thursday 14 November 2019

कॉलेजियम में पूर्ण पारदर्शिता होनी चाहिए



सर्वोच्च न्यायालय ने गत दिवस एक महत्वपूर्ण फैसले में देश के प्रधान न्यायाधीश के दफ्तर को भी  सूचना के अधिकार के अंतर्गत लाने के दिल्ली उच्च न्यायालय के निर्णय पर मोहर लगा दी । यद्यपि अभी भी न्यायपालिका से जुड़ी बहुत सी बातें ऐसी हैं जिनमें सूचना का अधिकार लागू नहीं होगा किन्तु सेवानिवृत्ति के चंद रोज पहले प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई का ये कहना मायने रखता है कि सूचना का अधिकार न्यायिक स्वतंत्रता को कम नहीं करता। सबसे रोचक बात ये है कि दिल्ली उच्च न्यायालय के संदर्भित निर्णय को सर्वोच्च न्ययालय के सेकेट्ररी जनरल और केंद्रीय लोक सूचना अधिकारी द्वारा ही सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी गई थी। अब उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए बनने वाले कॉलेजियम में शामिल नामों का खुलासा तो करना होगा लेकिन उसका कारण बताना जरूरी नहीं होगा । श्री गोगोई सहित वरिष्ठ न्यायाधीशों की पीठ के इस फैसले के बाद हालांकि सूचना के अधिकार का दायरा बढ़ा है और देश के प्रधान न्यायाधीश के कार्यालय में भी पारदर्शिता बढ़ेगी लेकिन कॉलेजियम में शामिल नामों का कारण नहीं बताए जाने के कारण बहुत सी चीजें अभी भी पर्दे के पीछे रहेगीं। पीठ ने साफ  तौर पर कहा भी है कि सूचना के अधिकार का उपयोग सर्वोच्च न्यायालय की निगरानी के लिए नहीं किया जा सकता । निश्चित तौर पर ये एक अच्छा फैसला है जिसका दूरगामी असर होगा । देश की सबसे बड़ी न्यायिक पीठ पर आसीन मुखिया के क्रियाकलापों को पूरी तरह से छिपाकर रखना तमाम संदेहों को जन्म देता रहा है । वैसे भी न्यायपालिका की कार्यप्रणाली में ताक झांक करने की हिम्मत अच्छे-अच्छों की नहीं होती। यहां तक कि समाचार माध्यम भी उसे लेकर बेहद सतर्क रहते हैं । न्यायपालिका के प्रति सम्मान और विश्वास में कमी के बावजूद अदालत की अवमानना का भय बदस्तूर कायम है । यद्यपि अदालती फैसलों पर आलोचनात्मक टिप्पणियां सुनने और समीक्षात्मक लेख पढऩे मिलने लगे हैं । मुस्लिम नेता सांसद असदुद्दीन ओवैसी ने अयोध्या विवाद पर सर्वोच्च न्यायालय के फैसले की आलोचना करते हुए कहा था कि वह सर्वोच्च होने से आदरणीय है लेकिन अचूक नहीं है । श्री ओवैसी स्वयं बैरिस्टर हैं। इसलिए उनके विधिक ज्ञान पर भी अंगुली उठाने का औचित्य नहीं  है किंतु सीधे न कहते हुए भी उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय में चूक की आशंका व्यक्त कर दी। इसी तरह सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश एके गांगुली ने भी इस फैसले की जमकर आलोचना की । टीवी चैनलों पर होने वाली चर्चाओं में भी उक्त फैसले के पक्ष और विपक्ष में कहा -सुना गया। ये एक शुभ संकेत है क्योंकि इससे न्यायपालिका  अपनी जवाबदेही और निष्पक्षता के प्रति सजग और सतर्क रहती है लेकिन उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति हेतु बनने वाले कॉलेजियम सम्बन्धी पारदर्शिता को लेकर सर्वोच्च न्यायालय ने अधूरापन बरकरार रखा । जिन लोगों के नाम उसमें शामिल होते हैं उनको सूचना के अधिकार के अंतर्गत उजागर करने पर सहमत होने के बावजूद सर्वोच्च न्यायालय ने उनके चयन का कारण बताने से इंकार कर दिया। बाकी बातों को छोड़ दें तो कॉलेजियम में नाम शामिल करने के आधार को गोपनीय रखने से उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति को लेकर होने वाली टीका-टिप्पणियों को रोकना मुश्किल होगा । इसे लेकर न्यायपालिका के भीतर भी तरह - तरह की चर्चाएं चला करती हैं । बेहतर होता सर्वोच्च न्यायालय अपने निर्णय में इस पहलू पर भी विचार कर लेता । न्यायाधीशों की नियुक्ति में योग्यता को पूरी तरह उपेक्षित किया जाता हो ये कहना तो गलत होगा किन्तु  न्यायाधीशों के परिवारों से ही नियुक्तियां होने से अंकल जज जैसी फब्तियां कसी जाने लगीं । सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश मार्कण्डेय काटजू तो इस विषय में सार्वजनिक तौर पर भी तीखी टिप्पणियां करते रहे हैं । न्यायिक क्षेत्र को लेकर होने वाली हर चर्चा में कॉलेजियम में नाम शामिल करने के आधार पर खूब बातें होती हैं । यद्यपि देश के प्रधान न्यायाधीश के दफ्तर को सूचना के अधिकार के दायरे में लाना एक सकारात्मक फैसला है लेकिन न्यायपालिका के प्रति विश्वास को अखंड बनाये रखने के लिए जरूरी है कि उच्च न्यायालय में न्यायाधीशों की नियुक्ति की समूची प्रक्रिया पूरी तरह निर्दोष और पारदर्शी हो । न्यायिक नियुक्ति आयोग को अस्वीकार करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने न्यायपालिका की स्वतंत्रता और स्वायत्तता का हवाला दिया था । जिन 4 न्यायाधीशों ने इस मुद्दे पर पत्रकार वार्ता की थी उसकी अगुआई श्री गोगोई ने ही की थी । लेकिन न्यायपालिका का स्वछंद होना भी ठीक नहीं होगा। उम्मीद की जानी चाहिए कि सर्वोच्च न्यायालय स्वप्रेरणा से कॉलेजियम को लेकर की जाने वाली अपेक्षाओं को पूरा करने के लिए जरूरी कदम उठाएगा । गत दिवस जो फैसला हुआ उसे शुरूवात माना जा सकता है ।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Wednesday 13 November 2019

शिवसेना : तमाशा बन गये खुद ही तमाशा देखने वाले



महाराष्ट्र में राष्ट्रपति शासन लगाने के निर्णय की आलोचना करने वाले दलों के अपने तर्क हो सकते हैं लेकिन शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस ने सरकार बनाने के मामले में जो अनिर्णय की स्थिति बनाकर रखी उसकी वजह से राज्यपाल के पास और कोई विकल्प नहीं बचा था। शिवसेना जब बहुमत का प्रमाण देने में विफल रही तब राजभवन द्वारा एनसीपी को कल रात 8.30 बजे तक का समय दिया गया लेकिन पार्टी ने कल सुबह 11.30 बजे ही और समय दिए जाने की अर्जी भेज दी। राज्यपाल ने चूंकि शिवसेना को और समय देने से इनकार कर दिया था इसलिए एनसीपी को और मोहलत देना संभव नहीं था। कांग्रेस ने अभी तक अपने विधायक दल का नेता ही नहीं चुना इसलिए उसे निमंत्रण नहीं दिया गया। उधर कांग्रेस और एनसीपी मिलकर भी ये तय नहीं कर पाए कि शिवसेना को समर्थन दिया जावे या नहीं। एनसीपी ने भी शिवसेना को किसी भी तरह का आश्वासन नहीं दिया। वहीं कांग्रेस ने ये कहकर अनिश्चितता बनाये रखी कि न्यूनतम साझा कार्यक्रम को अंतिम रूप दिए बिना वह किसी नतीजे पर नहीं पहुंचेगी। राज्यपाल को जब लगा कि शिवसेना और एनसीपी दोनों बहुमत का इंतजाम करने में विफल रहीं तब उन्होंने राष्ट्रपति शासन की सिफारिश भेज दी जिसे केंद्र सरकार ने मंजूर करते हुए राष्ट्रपति को भेजा जिन्होंने बिना देर लगाये उस पर मोहर लगा दी। शिवसेना ने तत्काल सर्वोच्च न्यायालय में याचिका लगा दी जिस पर आज सुनवाई होगी। उधर एनसीपी और कांग्रेस ने संयुक्त पत्रकार वार्ता में राष्ट्रपति शासन लगाने की तो आलोचना की लेकिन ये भी स्वीकार किया कि अभी तक सरकार बनाने के मामले में वे किसी भी निष्कर्ष पर नहीं पहुंचे हैं। शरद पवार ने तो मजाक में ये तक कह दिया कि राज्यपाल ने उन्हें सरकार बनाने के लिए छह महीने का समय दे दिया है। ज्योंही राष्ट्रपति शासन लगा त्योंही भाजपा ने भी अपनी कोशिशों को नए सिरे से शुरू कर दिया। वहीं शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे अपने बेटे के साथ उतरा हुआ चेहरा लेकर पत्रकारों से मिले और अपने हिंदुत्ववादी होने का हवाला देते हुए भाजपा पर वायदा खिलाफी का आरोप लगाया लेकिन वे एनसीपी और कांग्रेस की चालबाजी से खुद को ठगा सा महसूस करते दिखे। इस समूचे मामले में एक बात साबित हो गयी कि कांग्रेस भाजपा की सरकार को रोकने की इच्छा के बावजूद एनसीपी को खुला हाथ देने के मूड में नहीं है। वहीं एनसीपी भी उद्धव ठाकरे को तश्तरी में रखकर महाराष्ट्र की सत्ता सौंपने के लिए तैयार नहीं है। इधर शिवसेना की परेशानी ये हो गयी कि जल्दबाजी और अति उत्साह में वह इतना आगे बढ़ गयी कि अब उसके लिए पीछे लौटना नामुमकिन हो गया है। शुरू में शिवसेना के रणनीतिकार मानकर चल रहे थे कि भाजपा से नाता तोड़ते ही एनसीपी और कांग्रेस उसे कंधों पर बिठाकर घुमाएंगे। लेकिन उन्होंने दाना फेंककर पहले तो आदित्य ठाकरे को अनुभवहीन बताते हुए उद्धव को मुख्यमंत्री बनने के लिए राजी किया और उसके बाद उन पर एनडीए से बाहर निकलने का दबाव बनाते हुए केन्द्रीय मंत्रीमंडल में शिवसेना के मंत्री के इस्तीफे की शर्त भी रख दी। शिवसेना ने भीगी बिल्ली की तरह सारी बातें मान भी लीं किन्तु एन वक्त पर एनसीपी और कांग्रेस ने उसे ठेंगा दिखा दिया। भाजपा के साथ रहते हुए भी उसे गरियाने वाली शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस के विरुद्ध जुबान खोलने की हिम्मत नहीं कर पा रही जो उसकी दयनीयता को दर्शाता है। राष्ट्रपति शासन लगते ही भाजपा ने जिस तरह शिवसेना छोड़कर आये नारायण राणे को सरकार बनाने की कोशिशों के साथ आगे किया उसकी वजह से शिवसेना ही नहीं एनसीपी भी चिंतित हो गयी है क्योंकि श्री राणे एनसीपी में भी रहे हैं। यद्यपि भाजपा को सरकार बनाने के लिए जितने विधायकों का समर्थन चाहिए उतने जुटाना कठिन लगता है लेकिन ये भी सही है कि मौजूदा स्थिति में स्थिर सरकार केवल भाजपा के नेतृत्व में ही बन और चल सकती है। ये भी कहा जा सकता है कि दूसरे दलों में सेंध लगाने की क्षमता भी भाजपा में सबसे अधिक है। कर्नाटक में कुमारस्वामी को मुख्यमंत्री बनने हेतु समर्थन देकर कांग्रेस ने भले ही भाजपा को रोक दिया था लेकिन बाद में जो हुआ उसे देखते हुए शिवसेना और एनसीपी के अनेक विधायक यदि भाजपा की गोद में आ बैठें तो आश्चर्य नहीं होगा। इस दौरान तो कई बार लगा कि खुद शरद पवार नहीं चाहते कि शिवसेना का मुख्यमंत्री बने। कांग्रेस के लिए तो शिवसेना का समर्थन करना सौ जूते या सौ प्याज खाने जैसी दुविधा से गुजरने जैसा है। इसीलिये सोनिया गांधी किसी न किसी बहाने समर्थन की चि_ी देने से बचती रहीं। शरद पवार ने कल शाम जिस बेफिक्र अंदाज में राष्ट्रपति शासन पर अपनी प्रतिक्रिया दी उससे लगा कि वे भी शिवसेना को ज्यादा भाव देने के मूड में नहीं हैं। खैर, आगे जो भी हो लेकिन फिलहाल तो उद्धव ठाकरे दो पाटों के बीच में फंस गए हैं। भाजपा से उनका दोबारा गठबंधन फिलहाल तो नामुमकिन लगता है और एनसीपी तथा कांग्रेस जी भरकर उनका मजाक बनाने पर तुले हैं। आने वाले दिनों में भले शिवसेना अपनी सरकार बना ले जाए लेकिन उसकी ठसक पूरी तरह उतर चुकी है। पार्टी अपने मुखपत्र सामना में हर किसी की हंसी उड़ाने पर आमादा रहा करती थी लेकिन बीते दो सप्ताह में उद्धव ठाकरे को खुद सियासत के भद्दे मजाकों का सामना करना पड़ा है।

- रवीन्द्र वाजपेयी

Tuesday 12 November 2019

कांग्रेस को पवार का रिंग मास्टर बनना रास नहीं आ रहा



महाराष्ट्र में नई सरकार के गठन का मामला जिस तरह से उलझता जा रहा है उससे शिवसेना को ये समझ में आ गया होगा कि अपना मुख्यमंत्री बनाने का सपना साकार करना उतना आसान नहीं जितना वह समझ रही थी। भाजपा द्वारा पांव पीछे खींच लेने के बाद राज्यपाल ने उसको सरकार बनाने का न्यौता देते हुए कल शाम तक का समय दिया था। आदित्य ठाकरे राजभवन जाकर बैठे भी रहे लेकिन न उनके पास एनसीपी के समर्थन की चि_ी थी और न ही कांग्रेस के। लिहाजा राज्यपाल ने और समय देने से इंकार करते हुए एनसीपी को निमंत्रण देकर  आज रात 8.30 बजे तक का समय दे दिया। सबसे रोचक बात ये है कि एनसीपी की शर्त मानकर शिवसेना ने एनडीए से नाता तोड़ते हुए केंद्र सरकार से अपना मंत्री भी हटा लिया लेकिन उसके बावजूद शरद पवार उद्धव ठाकरे को बातों में उलझाये हुए हैं। राज्यपाल द्वारा सरकार बनाने का निमंत्रण मिलने पर एनसीपी द्वारा इंकार नहीं किये जाने और दिल्ली में कांग्रेस की उच्चस्तरीय बैठक के बाद जारी बयान में शिवसेना को समर्थन देने के बारे में निर्णय आज पर टाल देने की बाद से उद्धव ठाकरे की घबराहट बढऩा स्वाभाविक है। अंदरखाने की खबर के अनुसार एनसीपी शिवसेना को झूला झुलाने की रणनीति पर चलते हुए अकेला करने की कोशिश में है। भाजपा के विरुद्ध वह इतना जहर उगल चुकी है कि फिलहाल उसके साथ दोबारा दोस्ती मुश्किल है और इधर शरद पवार के अलावा जब तक कांग्रेस का साथ नहीं मिलेगा तब तक सत्ता हाथ आना नामुमकिन है। कांग्रेस की दुविधा ये है कि वह शिवसेना को समर्थन देकर मुस्लिम मतों को खोने का खतरा मोल लेने से बचना चाहती है। मुम्बई कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष और पुराने शिवसैनिक संजय निरुपम ने तो पार्टी को उसके बारे में आगाह भी कर दिया है। प्राप्त संकेतों के मुताबिक सोनिया गांधी महाराष्ट्र में भाजपा की सरकार नहीं बनने से तो खुश हैं लेकिन वे ये भी नहीं चाह रहीं कि शिवसेना का साथ लेकर शरद पवार दोबारा राज्य की राजनीति में शक्तिशाली बन जाएं। कांग्रेस की एक परेशानी ये है कि उसके पास महाराष्ट्र में नेता तो कई हैं लेकिन उनमें सर्वमान्य कोई नहीं होने से हाईकमान को अलग-अलग सलाह मिल रही हैं। कुछ किसी भी कीमत में सत्ता के साथ जुडऩे के लिए लालायित हैं तो कुछ को पार्टी की धर्मनिरपेक्ष छवि के खंडित होने का खतरा नजर आ रहा है। इसीलिये ये संकेत भी मिले हैं कि श्रीमती गांधी शिवसेना को समर्थन देने का निर्णय एनसीपी के कंधों पर डालकर कांग्रेस को सांप्रदायिक होने के आरोप से बचाए रखना चाह रही हैं। इसके अलावा बिना सरकार में शामिल हुए दबाव बनाने का अधिकार रख मौका मिलते ही झटका देने की अपनी चिर-परिचित नीति पर चलने से भी उसे परहेज नहीं होगा। कांग्रेस द्वारा किये जा रहे विलम्ब का कारण दरअसल एनसीपी की पिछलग्गू होने के आरोप से बचना भी है। उसे ये डर सताने लगा है कि कहीं भविष्य में श्री पावर शिवसेना से गठजोड़ करते हुए महाराष्ट्र की राजनीति में एक बड़ी ताकत न बन जाएं। कुल मिलाकर अब तक के संकेतों से पता चलता है कि कांग्रेस भले ही श्री पवार के जरिये गैर भाजपा सरकार को समर्थन दे दे लेकिन अपना मुख्यमंत्री बनाने की शिवसेना की जिद को अस्वीकार करने का दांव भी चल सकती है। कांग्रेस में एक खेमा ये सोच रहा है कि एनसीपी के कहने मात्र से शिवसेना को समर्थन देने की बजाय अपना महत्व साबित किया जावे। अभी तक उद्धव ठाकरे को लग रहा था कि श्री पवार को राजी कर लेने मात्र से उनका काम बन जायेगा। लेकिन श्रीमती गांधी ने निर्णय को लटकाकर श्री ठाकरे के साथ श्री पवार को भी झटका दे दिया। विधानसभा चुनाव में कांग्रेस से ज्यादा सीटें जीतने के बाद से एनसीपी खुद को महाराष्ट्र में वैकल्पिक राजनीतिक ताकत के रूप में प्रस्तुत करने लगी थी। शिवसेना ने भी सरकार बनाने के बारे में श्री पवार से ही सम्पर्क साधा। श्रीमती गांधी से तो उद्धव ने कल फोन पर बात की। निश्चित रूप से कांग्रेस को ये अपनी उपेक्षा लगी होगी। हो सकता है आज की बैठक के बाद वह अपना समर्थन दे भी दे। लेकिन वह उद्धव के लिए होगा या एनसीपी के लिए ये देखने वाली बात होगी। क्या होगा क्या नहीं ये तो कांग्रेस की आज की बैठक के बाद पता चल पायेगा परन्तु पार्टी चाहे तो पिक्चर अभी बाकी है वाली स्थिति उत्पन्न कर सकती है। यदि आज शाम तक उसने किसी को समर्थन की चि_ी नहीं दी तब राज्यपाल एनसीपी को दिया न्यौता वापिस लेकर कांग्रेस के पाले में गेंद सरका देंगे। और उस स्थिति में शिवसेना और एनसीपी दोनों के लिए उगलत-निगलत पीर घनेरी के हालात बन जायेंगे। रही भाजपा तो उसके पास फिलहाल न पाने को कुछ है और न ही खोने को। हां, एनसीपी ने भी मना कर दिया और राज्यपाल के पास किसी के भी समर्थन का पत्र नहीं पहुंचा तब वे कांग्रेस को आमंत्रण दिए बिना राष्ट्रपति शासन की सिफारिश भेजने का कदम उठा सकते हैं। वर्तमान स्थिति में सबसे ज्यादा हास्यास्पद और दयनीय स्थिति शिवसेना और उसकी नेता उद्धव ठाकरे की हो गई है। वे मुख्यमंत्री बनने के बाद भी शिवसेना की चिर परिचित शैली की सियासत नहीं कर सकेंगे। जो उत्पात बीते पांच साल में शिवसेना ने राज्य सरकार में रहते हुए भाजपा को सताने के लिए किया, वैसा ही कांग्रेस भी कर सकती है। आखिरकार उसके पास भी तो संजय राउत जैसा संजय निरुपम जो है।

- रवीन्द्र वाजपेयी


Monday 11 November 2019

लेकिन क्या हिंदुत्व छोड़ सकेगी शिवसेना



यदि शिवसैनिकों ने बाबरी मस्जिद तोड़ी तो मुझे उन पर गर्व है कहने वाले स्व. बाल ठाकरे के बेटे और पोते यदि कांग्रेस और एनसीपी से समझौता करते हुए महाराष्ट्र की सत्ता हासिल करने जा रहे हैं तो किसी को कोई  आश्चर्य नहीं होना चाहिए। क्योंकि जब भाजपा ने जम्मू-कश्मीर में पीडीपी के साथ सरकार बना ली तब राजनीति में छुआछूत और सैद्धांतिक भेद का कोई अर्थ नहीं रह गया। लेकिन इसे विचित्र संयोग ही कहा जा सकता है कि जिस दिन अयोध्या में राममंदिर के निर्माण का फैसला आया लगभग उसी के साथ मंदिर निर्माण की पक्षधर शिवसेना उन दलों के साथ गठबंधन को तैयार हो गयी जिन्होंने कभी बाबरी ढांचे को दोबारा खड़ा करने का वायदा किया था और जिनकी निगाह में स्व. ठाकरे सबसे बड़े साम्प्रदायिक व्यक्ति थे। खैर, राजनीति में अब ये सब बातें मायने खो चुकी हैं। महाराष्ट्र में शिवसेना और भाजपा का गठबंधन भले औपचारिक तरीके से अब जाकर टूटा हो लेकिन बीते पांच साल में साथ रहने के बावजूद दोनों के रिश्ते कभी सौहाद्र्रपूर्ण नहीं रहे। 2014 का लोकसभा चुनाव दोनों ने मिलकर लड़ा और शिवसेना का एक मंत्री भी मोदी सरकार में शामिल हुआ लेकिन राज्य विधानसभा चुनाव आते तक अलगाव हो गया और दोनों अलग-अलग मैदान में उतरे। पहली बार भाजपा ने शिवसेना को पीछे छोड़ा और 122 सीटें लेकर सरकार बनाने की दावेदार बन बैठी। शुरुवाती खींचतान के बाद दोनों फिर एकजुट हुए और देवेन्द्र फडनवीस के नेतृत्व वाली सरकार में शिवसेना शरीक हो गई। लेकिन पूरे पांच साल वह भाजपा पर तीखे हमले करती रही। यहां तक कि केंद्र सरकार की नीतिगत आलोचना से भी उसने परहेज नहीं किया। बावजूद उसके गठबन्धन चलता रहा। लोकसभा चुनाव में दोनों मिलकर उतरे और अच्छी खासी सफलता हासिल की। शिवसेना का एक मंत्री दोबारा मोदी मंत्रीमंडल का सदस्य भी बना लेकिन विधानसभा चुनाव में सीटों का बंटवारा होने के बाद चुनाव परिणाम आते ही शिवसेना ने मुख्यमंत्री पद को लेकर जिद पकड़ ली। भाजपा चूंकि 105 पर आकर अटक गई इसलिए उसके पास सौदेबाजी करने की  ताकत नहीं बची। एनसीपी और कांग्रेस की सदस्य संख्या काफी निर्णायक हो गई। भाजपा को ये मुगालता रहा कि अंतत: शिवसेना की हिन्दुत्ववादी नीतियां उसे अलग नहीं होने देगी किन्तु उसकी सोच को धता बताते हुए उसने इस बार किसी भी कीमत पर वाली जिद पकड़ी और कल रात तक जो कुछ भी सामने आया उसके अनुसार अब आदित्य ठाकरे की बजाय उद्धव ठाकरे खुद मुख्यमंत्री बनने जा रहे हैं। इस बारे में जो पता लगा उसके अनुसार पार्टी के अनेक वरिष्ठ विधायकों और कुछ नेताओं ने आदित्य के मातहत काम करने में संकोच दिखाया। एनसीपी सुप्रीमो शरद पवार ने भी उद्धव ठाकरे को आदित्य की अनुभवहीनता का हवाला देते हुए खुद मुख्यमंत्री बनने की सलाह दी लेकिन एनडीए छोडऩे तथा केंद्र से अपने मंत्री का स्तीफा दिलाने की शर्त रख दी। कांग्रेस इस सरकार को बाहर से समर्थन करेगी या शामिल होगी ये साफ  नहीं है लेकिन श्री पवार के भतीजे अजीत उपमुख्यमंत्री बनेंगे और कांग्रेस विधानसभा अध्यक्ष अपना बनायेगी ये चर्चा है। आज शिवसेना प्रवक्ता संजय राउत कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी से मिलने वाले हैं। यदि बड़ा उलटफेर नहीं हुआ तब शाम तक शिवसेना की अगुआई में एनसीपी और कांग्रेस के समर्थन से सरकार का गठन हो जाएगा। इसके स्थायित्व को लेकर भले ही अभी से शंका व्यक्त की जाने लगी हो किन्तु शिवसेना को उसकी चिंता नहीं है। वह इस पूरे खेल में भाजपा को नीचा दिखाने के उद्देश्य से कुछ भी करने को तैयार है। इसकी एक वजह उसे अपने अस्तित्व के लिए निरंतर बढ़ता जा रहा खतरा भी है। उद्धव ठाकरे को ये लगने लगा था कि यदि दोबारा श्री फडनवीस को मुख्यमंत्री बनने दिया तो अगले पांच साल बाद शिवसेना राज्य की राजनीति में पूरी तरह से हाशिये पर चली जायेगी। उस दृष्टि से उनका दांव मरता क्या न करता वाली स्थिति की तरफ  इशारा कर रहा है। सवाल ये है कि ढाई-ढाई साल मुख्यमंत्री वाले जिस वायदे की बात शिवसेना लगातार उछालती रही उसके बारे में श्री फडनवीस तो इनकार करते रहे लेकिन आज तक भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने उस विषय पर एक शब्द भी नहीं कहा जबकि बकौल शिवसेना लोकसभा चुनाव की सीटों के बंटवारे के समय उद्धव के साथ हुई बैठक में श्री शाह ने ही वह वायदा किया था। भाजपा के केन्द्रीय नेतृत्व का इस बारे में मौन वाकई चौंकाने वाला रहा। इसी तरह ये बात भी काबिले गौर है कि शिवसेना की नाराजगी दूर करने के लिए भी भाजपा के किसी वरिष्ठ नेता की तरफ  से कोशिश होती नहीं दिखी। यहां तक कि स्व. प्रमोद महाजन के बाद महाराष्ट्र की राजनीति में भाजपा के सबसे बड़े चेहरे नितिन गडकरी तक को उपेक्षित रखा गया। कुछ लोगों का मानना रहा है कि ठाकरे परिवार की खुन्नस दरअसल श्री फडनवीस से ज्यादा थी। यदि भाजपा श्री गडकरी को आगे कर देती तब विवाद सुलझ सकता था। बहरहाल अब शिवसेना इतने आगे बढ़ चली है कि उसका लौटना फिलहाल सम्भव नहीं रहा। एनसीपी और कांग्रेस के साथ उसका याराना कितने दिन चलेगा ये कहना कठिन है क्योंकि ये गठबंधन राज्य में मध्यावधि चुनाव रोकने के लिए हो रहा है। लेकिन उसे लम्बे समय तक टालना संभव नहीं होगा। देखने वाली बात ये होगी कि शिवसेना एनडीए छोडऩे के बाद भी क्या हिंदुत्व की नीति छोड़ सकेगी क्योंकि वैसा करने के बाद तो उसकी पहिचान ही नहीं बचेगी। राजनीतिक लिहाज से तो शिवसेना ने भाजपा को फिलहाल झटका दे दिया लेकिन इस चाल से उसने अपने भविष्य को भी खतरे में डाल दिया है। एनसीपी और कांग्रेस के पास तो खोने के लिए कुछ था ही नहीं लेकिन शेर बनकर दहाडऩे वाली शिवसेना को अब इन दोनों पार्टियों के सामने भीगी बिल्ली बनकर रहना पड़ेगा।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Sunday 10 November 2019

केवल राजनीति से ही देश नहीं चलता



राम को इमाम ए हिन्द कहने वाले अल्लामा इकबाल की भवना को यदि समझ लिया जाता तो अयोध्या विवाद कभी का सुलझ गया होता। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा गत दिवस दिए अपने ऐतिहासिक फैसले में इस बात को  स्वीकार किया गया कि 6 दिसम्बर 1992 को ढहाए गये विवादित ढांचे के नीचे ही भगवान राम की जन्मभूमि रही और मीर  बाकी ने जिस कथित बाबरी मस्जिद का निर्माण किया था वह पहले से ही विद्यमान मंदिर पर बनी थी। हालांकि न्यायालय ने ये मानने से इंकार कर दिया कि मीर  बाकी ने मंदिर को तोड़कर मस्जिद बनाई थी लेकिन भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा अतीत में की गई खुदाई के काफी पहले ही इस बात की पुष्टि कर दी गयी थी कि मस्जिद के भीतर  हिन्दू स्थापत्य कला के साक्षात प्रमाण मौजूद थे। यद्यपि न्यायालय के फैसले का आधार आस्था, इतिहास और पुरातात्विक प्रमाणों का मिश्रण है लेकिन उसके बाद भी उसने मस्जिद के लिए 5 एकड़ जमीन देने का आदेश देते हुए अपने फैसले को एकपक्षीय होने के आरोप से बचाने की कोशिश की। बावजूद इसके ओवैसी ब्रांड मुस्लिमों को छोडकर अधिकांश ने फैसले को विवाद की समाप्ति मानकर स्वीकार करने की समझदारी दिखाते हुए  उन लोगों की दुकान बंद करवा दी जो मुस्लिम समुदाय को  मुख्यधारा से दूर करने का षड्यंत्र रचते रहे। फैसले के पहले ही मुसलमानों के बीच से ये चर्चा सुनाई देने लगी थी कि विवादित भूमि हिन्दुओं को सौंप दी जाये ताकि हम  शांति के साथ रह सकें। इस विवाद का यही हल होना था लेकिन एक सुनियोजित योजना के तहत अदालती विवाद को टाला जाता रहा। गत वर्ष जब सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले की जल्द सुनवाई करते हुए फैसला करने की पहल की तब कपिल सिब्बल ने उसे लोकसभा चुनाव के बाद तक टालने की दलील ये कहते हुए रखी कि उसका राजनीतिक फायदा उठाया जायेगा। वरिष्ठ अधिवक्ता होने के कारण श्री सिब्बल भी जानते थे कि विवादित ढांचा मूलत: मन्दिर ही था। स्व. राजीव गांधी के कार्यकाल में जब ढांचे में रखी मूर्तियों का ताला खुलवाया गया उस समय भी यदि मुस्लिम पक्ष को विश्वास में लेकर आगे बढऩे का प्रयास किया जाता तो तीस साल तक देश ने जो सहा उससे बचा जा सकता था। उस दृष्टि से सर्वोच्च न्यायालय द्वारा मामले को  अंजाम तक पहुँचाने के  लिए दिखाई गयी इच्छा शक्ति की प्रशंसा के साथ केंद्र सरकार को भी धन्यवाद देना चाहिए जिसने बिना लागलपेट के पूरे देश को इस बात के लिये प्रेरित किया कि अदालत का जो भी निर्णय आयेगा उसे जस का  तस स्वीकार किया जाये और उसमें किसी की जीत या हार जैसी सोच न रखी जाए। यही कारण रहा कि दशकों से चला आ रहा विवाद इतनी सहजता से निपट गया। इतने बड़े अदालती फैसले पर जिस तरह की सधी और सुलझी हुई प्रतिक्रियाएं आईं वे इस बात का प्रमाण हैं कि भारत वाकई बदल रहा है और उसमें परिपक्वता आई है। इसके पहले भी तीन तलाक और अनुच्छेद 370 को लेकर बड़े फैसले किये गये जिनका देश के सामान्य जनमानस ने आमतौर पर स्वागत और समर्थन किया। भले ही दूध में नीबू निचोडऩे वाले तबके ने उन निर्णयों को गलत साबित करने की पुरजोर कोशिशें कीं  लेकिन अधिकतर लोगों ने व्यापक राष्ट्रीय हितों को महत्व देते हुए किसी भी संकुचित सोच से परहेज किया। अयोध्या विवाद सुलझने के बाद वैश्विक स्तर पर भी भारत  की प्रतिष्ठा में अकल्पनीय वृद्धि हुई है। दुनिया को ये समझ में आने लगा है कि भारत में  अपनी समस्याओं का हल करने की क्षमता के साथ कड़े और बड़े फैसले लेने की इच्छा शक्ति भी है। इस फैसले को राजनीतिक नफे-नुकसान के लिहाज से देखने वालों की तुलना उस भक्त से की जा सकती है जिसकी पूजा में भक्ति कम स्वार्थसाधना अधिक होती है। मौजूदा केंद्र सरकार पर तरह-तरह के आरोप लगाने वालों को ये समझ लेना चाहिए कि उसने लम्बित मामलों का हल करने का जो  साहस दिखाया वह देश के दूरगामी हितों के मद्देनजर है। अयोध्या विवाद केवल हिन्दू-मुस्लिम समुदायों के बीच का झगड़ा न होकर तुष्टीकरण और छद्म धर्मनिरपेक्षतावाद का पोषक बनकर रह गया था। भगवान राम की जन्मभूमि में उनके जन्म को साबित करने के लिए देश की आजादी के पहले से चला रहा विवाद केवल मतदाताओं के धु्रवीकरण तक सीमित नहीं रहा। दुर्भाग्य से स्वाधीनता मिलने के बाद भी ऐसे अनेक मामलों को निपटाने के प्रति दुर्लक्ष्य किया गया जो उस समय आसानी से हल हो सकते थे। खैर, जो हो गया सो हो गया। नये संदर्भों में अब देश को नए दृष्टिकोण सोच के साथ आगे बढऩे  पर विचार करना  चाहिए और उसके लिए जरूरी है सोच को बदलना। ये बात सही है कि राजनीति के बिना देश नहीं चलता किन्तु इसी के साथ ये भी मानना होगा कि केवल राजनीति से ही देश नहीं चलता। अनुच्छेद 370 को हटाने के बाद अयोध्या को लेकर चले लम्बे विवाद का अदालती हल हो जाना बहुत  बड़ी सफलता है। इसके लिए किसी एक या कुछ लोगों को श्रेय देने की बजाय हर उस व्यक्ति, संस्था और राजनीतिक दल की प्रशंसा करनी चाहिए जिन्होंने अपने क्षणिक लाभ को दरकिनार रखते हुई देश के बारे में सोचा। सर्वोच्च न्यायालय के पाँचों माननीय न्यायाधीश अभिनंदन के पात्र हैं जिन्होंने बिना भय और पक्षपात  के एक बड़ी समस्या का सर्वमान्य समाधान देश को दे दिया। लेकिन इसके बाद संतुष्ट होकर बैठ जाना भी ठीक नहीं होगा क्योंकि अभी छोटे- छोटे अनेक ऐसे मामले हैं जिनकी वजह से देश आये दिन मुसीबत झेलता रहता है। परिपक्व सोच और विशाल ह्रदय का परिचय देते  हुए इसी तरह एक के बाद एक फैसले करने का ये सबसे सही समय है क्योंकि केंद्र में एक निर्णय लेने वाली सरकार  के साथ ही जनमत भी पूरी तरह से रचनात्मक सोच से प्रेरित है। किसी देश के जीवन में ऐसे अवसर सौभाग्य से ही आते हैं। इन्हें गंवाने पर इतिहास हमें माफ़  नहीं करेगा।
-रवीन्द्र वाजपेयी

Saturday 9 November 2019

आँधियों में भी जो जलता हुआ मिल जाएगा



ठीक तीस साल पहले जब मध्यप्रदेश हिन्दी एक्सप्रेस का पहला अंक पाठकों तक पहुंचा तब देश में जबर्दस्त उथल पुथल मची थी। समूची राजनीति जिस एक मुद्दे पर आकर टिकी हुई थी वह था अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण। तब से वह मुद्दा न जाने कितने पड़ाव पार करता हुआ आज ही अंजाम तक पहुँचने की स्थिति में आ गया। सर्वोच्च न्यायालय ने इस पर अपना फैसला सुना दिया। निश्चित रूप से ये एक संयोग ही है कि मध्यप्रदेश हिन्दी एक्सप्रेस की शुरुवात जिस चर्चित मामले के जोर पकड़ते समय हुई , आज जब उसकी तीन दशक की यात्रा पूरी  हो रही है तब राम मंदिर को लेकर चला आ रहा कानूनी विवाद भी अंतत: हल हो गया। किसी भी समाचार पत्र के लिए एक ऐतिहासिक घटनाचक्र का साक्षी बनना सौभाग्य की बात होती है और उस लिहाज से मध्यप्रदेश हिन्दी एक्सप्रेस ने आजाद हिन्दुस्तान के उस दौर को देखा जिसने न सिर्फ  समूचे राजनीतिक विमर्श को उलट-पुलट किया वरन अर्थव्यवस्था के साथ समाज की सोच में भी आमूल परिवर्तन की स्थितियां बना दीं। मंडल और कमंडल के रूप में हुए समुद्र मंथन से जो निकला वही आज भी  भारतीय राजनीति को तरह - तरह से प्रभावित कर रहा है। बीते तीन दशकों में देश ने भांति - भांति के प्रयोग राष्ट्रीय राजनीति में देखे। नए सिद्धांतों का प्रतिपादन और पुरानों को तिलांजलि देने का काम भी जमकर हुआ। राजनीतिक छुआछूत का अंत और  अवसरवाद के उदय ने सियासत को तिजारत बनाकर रख दिया। आर्थिक उदारवाद के आकर्षण  में गांधी , लोहिया और दीनदयाल की स्वदेशी विचारधारा को उनके अनुयायियों ने ही तीन तलाक दे दिया। देश ने इस दौरान राजनीतिक अस्थिरता का भी खूब स्वाद चखा। मजबूत और मजबूर दोनों तरह की सरकारें आईं और गईं। आर्थिक क्षेत्र में भी खूब प्रयोग हुए , जिनके अच्छे और बुरे दोनों परिणाम आये। 2014 में लम्बे समय बाद देश ने पहली बार एक विशुद्ध गैर कांग्रेसी सरकार का चुनाव किया और इसी वर्ष मई में उसी निर्णय को दोहराया भी। इसका परिणाम कांग्रेस के बेहद कमजोर होने के रूप में सामने आया। लोकतंत्र के प्रति चिंतित रहने वालों को विपक्ष का कमजोर होना अशुभ संकेत लग रहा है।  लेकिन ये भी सत्य है कि विपक्ष भी पूरी तरह दिशाहीनता का शिकार होकर रह गया है। भारत ने बीते तीन दशकों में मंगल और चन्द्रमा तक पहुँचने  की महत्वाकांक्षा को पंख देकर अपना सफर सफलतापूर्वक तय किया जिससे पूरी दुनिया में उसका कद बढ़ा। आज का भारत दुनिया के मंचों पर एक सशक्त देश के रूप में अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहा है तो इसके लिए बीते तीन दशक सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण रहे जब नई पीढी ने ''हम होंगे कामयाब एक दिन"  का सपना संजोया और उसे साकार कर दिखाया। बीते तीन दशकों में भारतीय मूल के लाखों लोग पूरी दुनिया में फैल गए और अपने ज्ञान और कार्यकुशलता का  लोहा मनवा दिया। आज की दुनिया में  यदि भारतीयों को एक वैश्विक समुदाय के तौर पर पहिचान और प्रतिष्ठा मिली तो ये सब बीते  तीन दशक में ही हो सका। उस दृष्टि से मध्यप्रदेश हिन्दी एक्सप्रेस बदलते भारत के हर पल का गवाह बना। इस दौर में पत्रकारिता भी खूब बदली और विकसित भी हुई। अखबार से टेलीविजन और फिर इन्टरनेट  से होते हुए मोबाईल के जरिये आये सोशल मीडिया के आगमन ने पत्रकारिता की सीमाओं , स्वरूप और छवि तीनों को बदलकर रख दिया। लेकिन सबसे अधिक चिंता की बात ये है कि व्यवसायिकता के फेर में उलझकर पत्रकारिता ने विश्वसनीयता  नामक अपनी सबसे बड़ी पूंजी सस्ते में गंवा दी। नौबत यहाँ तक आ पहुँची है कि सत्ता के सिंहासन को हिलाने की ताकत रखने वाले समाचार माध्यम आज अपनी प्रतिष्ठा को बचाने की असफल कोशिश करते दिखाई देते हैं।  ऐसे माहौल में भी एक हिन्दी अखबार तमाम चकाचौंध से दूर रहते हुए ब्लैक एंड व्हाईट में छपकर अपने अस्तित्व को ही नहीं अपितु विश्वसनीयता को सुरक्षित रखते हुए तीन दशक की संघर्षमय यात्रा पूरी कर सका तो इसका श्रेय मध्यप्रदेश हिन्दी एक्सप्रेस के उन अनगिनत पाठकों और शुभचिंतकों को है जिन्होंने सदैव इस पर अपना भरोसा बनाये रखा। तीस सालों के इस सफर में न जाने कितने बहाव , दबाव और प्रभाव आये किन्तु मध्यप्रदेश हिन्दी एक्सप्रेस ने निर्भीक पत्रकारिता की गौरवशाली परम्परा को ईमानदारी से जीवित रखा। इस अवसर पर हमें ये स्वीकार करने में कोई संकोच या शर्म नहीं है कि हमारा आर्थिक प्रबन्धन आशानुरूप नहीं रहा। लेकिन उसे सुधारने के लिए अपना स्वाभिमान गिरवी रखने की जो कीमत चुकानी पड़ती, वह हमें मंजूर नहीं थी। अभाव और परेशानियां जैसी तब थीं वैसी ही आज भी हमारी हमराह बनी हुईं हैं। सरकार की उपेक्षापूर्ण नीतियां और बढ़ती व्यवसायिक प्रतिस्पर्धा के इस युग में इस तरह के अखबारों के दम तोडऩे की आशंका दिन ब दिन प्रबल होती जा रही है। लेकिन मध्यप्रदेश  हिन्दी एक्सप्रेस सदैव धारा के विपरीत तैरा है , और वही दुस्साहस हमारे उत्साह और ऊर्जा का आधार है। तीस साल के इस सफर के पूर्ण होने पर हम उन सभी के प्रति दिल की गहराइयों से कृतज्ञता व्यक्त करते हैं जिन्होंने हमारी ईमानदारी का मजाक उड़ाने की बजाय हमें प्रोत्साहित किया। हम आश्वस्त करते हैं कि ऊंची आवाज में सच बोलने का यह दुस्साहस आगे भी ऐसे ही जारी रहेगा। हालात बदलें या न बदलें लेकिन हमारी तासीर नहीं बदलेगी , ये वचन हम जरुर देते हैं। किसी कवि की ये पंक्तियाँ सदैव हमें प्रेरित करती हैं कि :-
'आँधियों में भी जो जलता हुआ मिल जाएगा , उस दिये से पूछना मेरा पता मिल जाएगा'
विनम्र आभार और अनंत शुभकामनाओं सहित ,

-रवीन्द्र वाजपेयी

Friday 8 November 2019

बूढ़े माता-पिता बोझ नहीं वरदान हैं




खत्म होती संयुक्त परिवार प्रथा , हम दो हमारे दो से प्रेरित एकाकी परिवार और बच्चों के बाहर चले जाने के कारण अकेले बुजुर्ग माता-पिता आधुनिक भारतीय समाज की पहिचान बनते जा रहे हैं। पहले केवल ये सब शहरों तक सीमित था लेकिन अब तो कस्बों और गाँवों में भी अकेलेपन के शिकार बुजुर्ग नजर आने लगे हैं। इसी के साथ ही एक और नई समस्या उत्पन्न हो गई है जिसको बूढ़े माता-पिता की उपेक्षा के तौर पर जाना जाता है। आये दिन बुजुर्ग अभिभावकों के साथ दुव्र्यवहार की खबरें आया करती हैं। जिन औलादों को वे बड़े ही अरमानों से पाल पोसकर बड़ा करते हैं वे ही बोझ मानकर उनको प्रताडि़त करने से बाज नहीं आते। उनके साथ अमानुषिक व्यवहार की जानकारी आने पर और भी दु:ख होता है। इस बारे में सर्वोच्च न्यायालय ने भी समय-समय पर कड़े निर्देश देते हुए नालायक औलादों को दण्डित करने के लिए समुचित व्यवस्था करने कहा। इस बारे में आज एक नई खबर आई। केंद्र सरकार जल्द ही एक कानून बनाने जा रही है जिसमें माता-पिता की उचित देखभाल नहीं करने वाली संतानों के विरुद्ध दंडनीय कार्रवाई की जायेगी। इसमें तीन माह की सजा के मौजूदा प्रावधान को बढ़ाकर छह माह किया जावेगा। नये प्रावधानों के अंतर्गत पुलिस थानों में बुजुर्गों की खोजखबर रखने एवं उनकी शिकायतों पर प्राथमिकता के आधार पर कार्रवाई करने की व्यवस्था भी होगी। सरकार की सोच अपनी जगह बिलकुल सही है लेकिन केवल कानून बना देने से ही यदि समस्या हल होती तब तीन महीने की सजा भी कम नहीं थी। भारतीय समाज का आधार परिवार नामक इकाई को ही माना जाता है। सैकड़ों सालों की विदेशी सत्ता के बाद भी यदि हमारी संस्कृति सुरक्षित रह सकी तो उसका मुख्य कारण परिवार ही थे जिनकी वजह से संस्कार एक से दूसरी पीढ़ी को हस्तांतरित होते गए। केवल माता-पिता ही नहीं उनके समकक्ष माने जाने वाले अन्य रिश्तों को उतना ही सम्मान देने की परम्परा भी रही है। ये सब पूरी तरह समाप्त हो गया हो ऐसा नहीं है लेकिन ये भी कड़वा सच है कि वृद्ध माँ-बाप के प्रति दुव्र्यवहार की घटनाओं में निरंतर वृद्धि हो रही है। उनकी संपत्ति हड़पकर उन्हें बेसहारा छोड़ देने की शिकायत भी आम हो चली है। बढ़ती उम्र और शारीरिक अशक्तता के कारण ऐसे अधिकांश बुजुर्ग चाहकर भी पुलिस या कानून की सहायता नहीं ले पाते। बहुत से तो चुपचाप अपनी औलाद का अत्याचार सहते हैं क्योंकि बोलने से परिवार की बदनामी होगी। नाते-रिश्तेदारों में भी अब पहले जैसी सम्वेदनशीलता नहीं रही जिस वजह से सब कुछ पता होते हुए भी लोग किसी के मामले में दखल नहीं देते। पश्चिमी सभ्यता के अन्धानुकरण की वजह से भी परिवारों के टूटने का सिलसिला बेरोकटोक जारी है। युवा होते बच्चे अपने माता-पिता द्वारा दादा-दादी के साथ किया जाने वाला व्यवहार देखकर ही संस्कारित होते हैं। यही वजह है कि अपनी बारी आने पर वे भी ऐसा ही करने में नहीं झिझकते। अनेक बुजुर्गों ने तो इसलिए अपनी देहदान करने का फैसला लिया क्योंकि उन्हें इस बात का भरोसा नहीं था कि संतान द्वारा उनका अंतिम संस्कार भी ढंग से किया जावेगा या नहीं। सरकार चूंकि कानून बना सकती है लेकिन उसका कितना असर होगा ये कहना मुश्किल है। बेहतर हो समाज इस बारे में अपनी भूमिका के निर्वहन के लिए आगे आये। हमारे देश में आज भी जातीय संगठन सक्रिय हैं। एक समय ऐसा था जब ये संगठन ऐसे मामलों में दबाव समूह का काम करते थे और उनके द्वारा किये गए फैसले बंधनकारी होते थे। आदिवासी समुदाय सहित समाज के निचले वर्ग में तो अभी भी सामाजिक व्यवस्था का लिहाज कायम है लेकिन शहरों और ग्रामों में जातीय संगठन अब केवल वोट बैंक बनकर रह गये हैं। उन पर राजनीतिक नेताओं के अलावा संपन्न वर्ग का आधिपत्य होने लगा है। सबसे बड़ी बात ये है कि शिक्षित होने के बाद युवा पीढ़ी ऐसे संगठनों से दूर होती जा रही है। इसका दुष्परिणाम बुजर्ग अभिभावकों की उपेक्षा के तौर पर सामने आने लगा है। दरअसल उनके प्रति किया जाने वाला अत्याचार विकृत मानसिकता का परिचायक है। किसी भी सभ्य समाज के लिए ये स्थिति कलंक से कम नहीं है। जहां तक बात पश्चिमी समाज की है तो वहां सामजिक विघटन के चलते परिवार नामक इकाई का अस्तित्व खतरे में है। किशोरावस्था में ही लड़के-लड़कियां आत्मनिर्भर होकर परिवार से दूर होने में नहीं हिचकते। लेकिन हमारे देश में संतानों को जिम्मेदारी मानकर उनका भविष्य संवारने के लिए माँ-बाप हरसंभव कष्ट उठाते हैं। संपत्ति का उत्तराधिकारी भी औलाद ही होती है। इसीलिए उससे अपेक्षा की जाती है कि वह वृद्धावस्था में अपने जन्मदाताओं का ख्याल रखे जिससे वे खुद को बेसहारा या कमजोर न मानकर प्रसन्नचित्त रहते हुए जीवनयापन कर सकें। निराश्रित वृद्धों के लिए शासन और निजी स्वयंसेवी संगठनों द्वारा वृद्धाश्रमों का संचालन किया जाता है जिनमें आने वालों की संख्या में वृद्धि परिवार नामक संस्था में आ रही टूटन का प्रमाण है। ताजा जानकारी के अनुसार बड़े औद्योगिक घराने अब पश्चिमी देशों की तर्ज पर सर्वसुविधायुक्त वृद्धाश्रम खोलने की दिशा में बढ़ रहे हैं। जिनमें एक निश्चित्त धनराशि जमा करवाकर बुजुर्ग लोग आजीवन आराम से रह सकेंगे। वहां उन्हें अपने हमउम्रों का सान्निध्य भी सहज उपलब्ध होगा। लेकिन क्या ये भारतीय समाज के लिए चिन्तन का विषय नहीं है कि किसी बूढ़े माँ-बाप को वृद्धाश्रम में महज इसलिए रहना पड़े क्योंकि उसकी अपनी संतानें उन्हें बर्दाश्त करने तैयार नहीं। और तो और तो उनके साथ अमानुषिक बर्ताव करती हैं। सरकार कानून जरुर बनाये लेकिन समाजिक स्तर पर इस तरह की मुहिम चलाई जानी जरूरी है जिसके जरिये वृद्ध माँ-बाप के प्रति नई पीढ़ी के बेटे-बेटियों के मन में भी वैसी ही सेवा और श्रद्धा का भाव उत्पन्न हो जो हमारे देश का संस्कार है। बूढ़े माता-पिता को बोझ मानने की बजाय वरदान मानने की मानसिकता सरकार नहीं समाज ही विकसित कर सकता है।

-रवीन्द्र वाजपेयी