Friday 1 November 2019

सरदार को इससे अच्छी श्रद्धांजलि नहीं हो सकती



31 अक्टूबर 2019 का दिन स्वाधीन भारत के इतिहास में यादगार बन गया। हालाँकि देश के एकीकरण में ऐतिहासिक योगदान देने सरदार पटेल की जयंती और बांग्लादेश के निर्माण में साहसिक भूमिका का निर्वहन करने वाली पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की पुण्य तिथि की वजह से ये तारीख पहले से ही महत्वपूर्ण रही लेकिन गत दिवस जम्मू-कश्मीर राज्य के पुनर्गठन के कारण 31 अक्टूबर नए संदर्भ में भी सदैव याद किया जायेगा। आजादी के बाद से विभिन्न समस्याओं से घिरे इस सीमावर्ती राज्य के भौगोलिक स्वरूप के साथ ही उसकी संवैधानिक और प्रशासनिक स्थिति में बड़ा बदलाव बीते दिन हो गया। विगत 5 और 6 अगस्त को देश की संसद ने जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा देने वाले अनुच्छेद 370 और 35 ए को समाप्त कर दिया था। इसी के साथ ही जम्मू और कश्मीर को मिलाकर एक केंद्र शासित राज्य बना दिया गया जिसमें दिल्ली और पुडुचेरी की तरह से विधानसभा तो रहेगी पर इसे पूर्ण राज्य का दर्जा नहीं दिया गया। राज्यपाल की जगह वहां उपराज्यपाल (लेफ्टीनेंट गवर्नर) की नियुक्ति कर दी गयी। लद्दाख को भी अलग केंद्र शासित राज्य बना दिया गया लेकिन वहां विधानसभा नहीं होगी। इस प्रकार अब जम्मू-कश्मीर की विशेष संवैधानिक हैसियत अतीत बनकर रह गई। उसका अलग संविधान और अलग ध्वज भी इतिहास की विषय वस्तु होकर रह गये। देश के बाकी राज्यों की तरह से जम्मू-कश्मीर और लद्दाख में भी भारतीय कानून और व्यवस्था समान रूप से लागू हो गयी। देश का कोई भी नागरिक अब वहां जाकर न केवल बस सकता है वरन भूमि खरीदकर उसका मालिकाना हक भी प्राप्त कर सकेगा। और भी अनेक ऐसी बातें हैं जो इस समूचे क्षेत्र को भारत के साथ पूरी तरह से जोडऩे में सहायक होंगी। सबसे बड़ी चीज ये होगी कि जम्मू-कश्मीर और लद्दाख में रहने वालों को इस बात का एहसास हो जायेगा कि वे भी भारत के किसी दूसरे राज्य जैसे ही हैं। प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी ने ठीक ही कहा कि 370 के रूप में जो दीवार खड़ी थी वह गिरा दी गई। हालांकि जम्मू और लद्दाख ने तो नई व्यवस्था को पहले दिन ही स्वीकार कर लिया था लेकिन कश्मीर घाटी के भीतर एक बड़ा तबका है जिसे मोदी सरकार का ये कदम सहन नहीं हो रहा। भले ही केन्द्र सरकार और सुरक्षा बलों की सख्ती के कारण ज्यादा चूं-चपाट नहीं हो सकी लेकिन अलगाववादी भावनाएं अभी भी घाटी में हैं। बीते कुछ दिनों में सेब लादने गए गए ट्रक ड्राइवरों के अलावा कुछ मजदूरों की हत्या से ये भी साबित हो गया कि आतंकवादियों की जड़ें वहां हैं। यद्यपि घाटी में मोबाईल सेवा बहाल होने के बाद जैसी आशंका थी उस अनुपात में विरोध सामने नहीं आया जिससे लगता है कि आम कश्मीरी में समूचे बदलाव से विशेष नाराजगी नहीं है। लेकिन राजनीतिक बिरादरी में अपनी दुकानदारी चौपट होने का गुस्सा जरुर है। तमाम बड़े नेता और अलगाववादी सरगना अभी भी बंद हैं। उस वजह से विरोध संगठित नहीं हो पा रहा। शिक्षण संस्थानों में उपस्थिति बढ़ती जा रही है। सरकारी कार्यालयों में भी कर्मचारी और अधिकारी काम कर रहे हैं। उन्हें भी बदले हुए हालातों का एहसास हो चुका है। दरअसल केंद्र के इस कदम ने अलगाववादी ताकतों को संभलने का अवसर ही नहीं दिया। राजनीतिक नेता भी कुछ समझ पाते उसके पहले ही उन्हें घेर लिया गया। शीघ्र ही केंद्र की पहल पर राज्य में बड़ा निवेशक सम्मलेन होने वाला है। उसमें बड़े पैमाने पर निवेश लाने की कोशिश की जायेगी ताकि औद्योगिक पिछड़ापन तथा बेरोजगारी दूर हो सके। आतंकवाद के कारण इस राज्य के पर्यटन उद्योग को जो नुकसान हुआ वह भी सामान्य हालात बनते ही फिर से विकसित हो सकेगा। इस पूरे मामले में सबसे ज्यादा ध्यान देने वाली बात ये है कि जिस कश्मीर घाटी में अलगाववाद को संरक्षण मिलता रहा उसकी राजनीतिक वजनदारी को कम करने की कार्ययोजना पर भी काम चल रहा है। आगामी विधानसभा चुनाव के पहले नए सिरे से परिसीमन किया जाएगा। जम्मू और कश्मीर घाटी के बीच सीटों को लेकर जो असंतुलन था उसे दूर करने के प्रयास भी जारी हैं। सभी जानते हैं कि इस राज्य की राजनीतिक ताकत कश्मीर घाटी के पास होने से जम्मू और लद्दाख हर तरह से उपेक्षित रहे। लद्दाख तो खैर, अब अलग हो गया लेकिन जम्मू आगे भी कश्मीर घाटी के साथ ही रहेगा। ये देखते हुए राजनीतिक असंतुलन दूर करना निहायत जरूरी है। गत दिवस घाटी में किसी भी तरह का विरोध प्रदर्शन नहीं हुआ। न सिर्फ  श्रीनगर बल्कि घाटी के अंदरूनी इलाकों तक में शांति बनी रही। इससे साबित होता है कि आम कश्मीरी को ये बात समझ में आ गयी है कि चाहे नेता जितनी भी कोशिश कर लें लेकिन अनुच्छेद 370 और 35 ए की वापिसी असम्भव है। इसलिए उसके सामने नई परिस्थितियों को स्वीकार करते हुए उनके साथ सामंजस्य बिठाने के सिवाय दूसरा रास्ता नहीं है। नई प्रशासनिक व्यवस्था को पूरी तरह से प्रभावशील होने में अभी कुछ समय लगेगा। शासकीय कर्मचारी भी केंद्र के अधीन आने के बाद कुछ समय तक तो असहज महसूस करेंगे लेकिन शुरुवाती परेशानियों के बाद घाटी को राष्ट्रीय मुख्यधारा में लाने का उद्देश्य जरुर पूरा होगा ये विश्वास बीते तीन महीनों में दिन ब दिन मजबूत होता गया। भाजपा समर्थक तो अपने आदि पुरुष डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी के सपने के पूरा होने से प्रसन्न हैं ही लेकिन सरदार पटैल को भी इससे अच्छी श्रद्धांजलि दूसरी नहीं हो सकती थी। उनके जन्मदिन पर कश्मीर में एक नए सूर्य का उदय एक सुखद संयोग ही है।

- रवीन्द्र वाजपेयी

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