महाराष्ट्र में चुनाव नतीजे आये दस दिन बीत गये लेकिन अभी तक नई सरकार का गठन नहीं हो सका। यद्यपि मतदाताओं ने भाजपा - शिवसेना गठबंधन को सुविधाजनक बहुमत दे दिया लेकिन पूरे परिणाम आने के पहले ही शिवसेना ने 50 - 50 का वायदा याद दिलाते हुए भाजपा पर इस बात का दबाव बना दिया कि मुख्यमंत्री पद ढाई - ढाई साल तक दोनों पार्टियों के पास रहे। वैसे मुम्बई में दशहरा रैली के दौरान ही उद्धव ठाकरे ने अगला मुख्यमंत्री शिवसेना का होने की बात उछाली थी लेकिन उस समय किसी ने उसे गम्भीरता से नहीं लिया। चुनाव परिणामों में भाजपा की सीटें घटने से शिवसेना को हावी होने का अवसर मिल गया और मुम्बई में उद्धव के बेटे आदित्य को मुख्यमंत्री बनाये जाने वाले पोस्टर भी चस्पा हो गए। उधर मुख्यमंत्री पद अपनी जेब में मानकर चल रहे देवेन्द्र फडनवीस ने भी कड़ा रुख अख्तियार करते हुए दो टूक कह दिया कि मुख्यमंत्री पद को लेकर कोई वायदा नहीं किया गया था और वह भाजपा के पास ही रहेगा। नतीजे आने के बाद माना जा रहा था कि शिवसेना उपमुख्यमंत्री सहित कुछ प्रमुख विभागों से मान जायेगी लेकिन नई विधानसभा का गणित कुछ इस तरह का है जिसमें बिना उसके किसी की सरकार नहीं बन सकती। यह देखते हुए ही उसकी तरफ से ये बयान आ गया कि दूसरे विकल्प भी खुले हुए हैं। जिसका आशय शरद पवार की एनसीपी और कांग्रेस से मिलकर सत्ता हासिल करने से है। भाजपा का सोचना ये था कि 2014 की तरह इस बार भी ना , ना करते प्यार तुम्हीं से कर बैठे वाली स्थिति बन जायेगी। स्मरणीय है पिछला चुनाव दोनों अलग - अलग लडऩे के बाद भी आखिर एक हो गये थे। यही स्थिति मुम्बई महानगर पालिका में भी बनी लेकिन शिवसेना की संख्या ज्यादा होने से भाजपा ने बाहर से समर्थन देकर गठबंधन बनाये रखा। बीते पांच साल में महाराष्ट्र सरकार में हिस्सेदार रहने के बावजूद शिवसेना ने न सिर्फ प्रदेश अपितु केंद्र सरकार की आलोचना में कोई कसर नहीं छोड़ी। पार्टी के मुखपत्र सामना में प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी तक की तीखी आलोचना की जाती रही। लेकिन लोकसभा चुनाव के दौरान भाजपा-शिवसेना ने फिर गठबंधन किया। शिवसेना की मानें तो उसी दौरान भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने उद्धव ठाकरे से 50-50 संबंधी वायदा किया था तथा श्री फडनवीस भी उस वक्त उपस्थित थे किन्तु मुख्यमंत्री ने ऐसे किसी वायदे से जब साफ़ इनकार कर दिया तब शिवसेना के तेवर और तीखे होते गए और तभी से उसके प्रवक्ता संजय राउत बिना नाम लिए तंज कसे जा रहे हैं। यद्यपि नतीजों के बाद एनसीपी ने विपक्ष में बैठने की बात कहकर भाजपा को राहत दी थी लेकिन शिवसेना के जिद पकड़ लेने के बाद न सिर्फ एनसीपी बल्कि कांग्रेस में भी इस बात पर विचार हो रहा है कि भाजपा को रोकने के लिए क्यों न कर्नाटक में किये गये प्रयोग को दोहराते हुए शिवसेना की सरकार बनवा दी जाए। शरद पवार इसी सिलसिले में आज दिल्ली आकर सोनिया गांधी से मिलने वाले हैं। उधर मुख्यमंत्री भी दिल्ली में अमित शाह से चर्चा करेंगे। यद्यपि राजनीति के जानकार मान रहे हैं कि अंतत: भाजपा -शिवसेना ही सरकार बनायेंगे। शिवसेना की नाराजगी बीते पांच साल में भाजपा द्वारा किये गए कथित रूखे व्यवहार के प्रति है। केंद्र में केवल एक ही मंत्री पद उसे दिया गया जबकि अकाली दल को बेहद कम सांसदों के बाद भी एक मंत्री मिला। एक मंत्री से नाराज जनता दल (यू) ने तो सरकार में शामिल होने से मना ही कर दिया। कहा जा रहा है महाराष्ट्र में कुछ महत्वपूर्ण मंत्रालय लेने के साथ ही श्री ठाकरे केंद्र में भी एक दो और मंत्री बनवाने के लिए दबाव बना रहे हैं। शिवसेना भी ये बात जानती है कि एनसीपी और कांग्रेस के समर्थन से भले ही वह मुख्यमंत्री पद प्राप्त कर भाजपा को ठेंगा दिखा दे लेकिन वह व्यवस्था टिकाऊ नहीं होगी। कर्नाटक में कुमारस्वामी का उदाहरण ताजा -ताजा है। और फिर कांग्रेस के साथ जाकर आंध्र के ताकतवर नेता रहे चन्द्रबाबू नायडू की क्या दुर्दशा हुई ये भी शिवसेना समझती है। सही बात ये है कि जब तक बाल ठाकरे रहे तब तक भाजपा शिवसेना के पीछे चलती थी लेकिन उनके बाद से ही पार्टी ने अपना स्वतंत्र अस्तित्व कायम करने की रणनीति बनाई जिसे देवेन्द्र फडनवीस ने बखूबी अंजाम तक पहुंचाया। बीते पांच साल में बतौर मुख्यमंत्री वे महाराष्ट्र के सबसे ताकतवर नेता के तौर पर उभरे जो शिवसेना को हजम नहीं होता। इसीलिए उसने विधानसभा की टिकिटों के लिए सौदेबाजी के बाद 126 सीटें हासिल करते हुए भाजपा की अपने दम पर बहुमत हासिल करने की महत्वाकांक्षा को विफल कर दिया। बीते चुनाव की तुलना में भाजपा की सीटें घटने से शिवसेना को अकडऩे का मौका मिल गया। पहले उम्मीद थी कि अमित शाह और उद्धव ठाकरे की मुलाकात के बाद मामला सुलट जाएगा लेकिन दोनों तरफ से चल रही ज़ुबानी जंग के कारण वह मुलाकात अभी तक तो नहीं हो सकी। मौजूदा विधानसभा की अवधि 9 नवम्बर तक है। यदि तब तक गतिरोध दूर नहीं हुआ तो राष्ट्रपति शासन की नौबत आ जायेगी। जहां तक बात भाजपा की है तो वह न ही शिवसेना के दबाव में आना चाहती है और न ही सत्ता से दूर बैठने की हिम्मत जुटा पा रही है। वैसे बेहतर यही होगा कि पार्टी शिवसेना को बता दे कि वह उसकी शर्त मानने तैयार नहीं है और उसे एनसीपी और कांग्रेस के साथ जाना हो तो वह शौक से चली जाए। शिवसेना कहे कितना भी लेकिन एनसीपी और कांग्रेस के साथ जाने के बाद उसकी हिन्दुत्ववादी छवि खंडित हुए बिना नहीं रहेगी। श्री पवार और श्रीमती गांधी के लिये भी शिवसेना को समर्थन दिए जाने के बाद अपनी सेकुलर छवि बनाये रखना मुश्किल होगा। ये देखते हुए शिवसेना दूसरे विकल्पों की जो धौंस भाजपा को दिखा रही है उसमें उतना दम नहीं है। लेकिन सच्चाई ये है कि भाजपा खुद सत्ता के लिए इतनी ज्यादा लालायित है कि उसे सहयोगियों के सामने झुकना पड़ता है। वरना बीते पांच सालों में शिवसेना ने उसकी जिस बुरी तरह से फजीहत की उसके बाद तो उससे किसी भी तरह का गठबंधन सम्मानजनक नहीं कहा जा सकता। उद्धव और उनके पुत्र आदित्य तो उतना नहीं बोलते लेकिन संजय राउत जिस तरह की बातें बोलते और लिखते हैं उसे देखते हुए भाजपा को चाहिए कि शिवसेना से दूरी बनाकर चले। बिना भाजपा के जो भी सरकार राज्य में बनेगी वह स्थायी नहीं होने से मध्यावधि चुनाव की नौबत आयेगी जिसमें शिवसेना को भारी नुकसान हुए बिना नहीं रहेगा। भाजपा किसी भी कीमत पर सत्ता में आने की मानसिकता की वजह से अपने आत्मसम्मान से जो समझौता करती है उसके कारण उसके प्रतिबद्ध मतदाता भी छिटकने लगे हैं। दो राज्यों के ताजा परिणाम इसके प्रमाण हैं।
-रवीन्द्र वाजपेयी
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