Sunday 10 November 2019

केवल राजनीति से ही देश नहीं चलता



राम को इमाम ए हिन्द कहने वाले अल्लामा इकबाल की भवना को यदि समझ लिया जाता तो अयोध्या विवाद कभी का सुलझ गया होता। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा गत दिवस दिए अपने ऐतिहासिक फैसले में इस बात को  स्वीकार किया गया कि 6 दिसम्बर 1992 को ढहाए गये विवादित ढांचे के नीचे ही भगवान राम की जन्मभूमि रही और मीर  बाकी ने जिस कथित बाबरी मस्जिद का निर्माण किया था वह पहले से ही विद्यमान मंदिर पर बनी थी। हालांकि न्यायालय ने ये मानने से इंकार कर दिया कि मीर  बाकी ने मंदिर को तोड़कर मस्जिद बनाई थी लेकिन भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा अतीत में की गई खुदाई के काफी पहले ही इस बात की पुष्टि कर दी गयी थी कि मस्जिद के भीतर  हिन्दू स्थापत्य कला के साक्षात प्रमाण मौजूद थे। यद्यपि न्यायालय के फैसले का आधार आस्था, इतिहास और पुरातात्विक प्रमाणों का मिश्रण है लेकिन उसके बाद भी उसने मस्जिद के लिए 5 एकड़ जमीन देने का आदेश देते हुए अपने फैसले को एकपक्षीय होने के आरोप से बचाने की कोशिश की। बावजूद इसके ओवैसी ब्रांड मुस्लिमों को छोडकर अधिकांश ने फैसले को विवाद की समाप्ति मानकर स्वीकार करने की समझदारी दिखाते हुए  उन लोगों की दुकान बंद करवा दी जो मुस्लिम समुदाय को  मुख्यधारा से दूर करने का षड्यंत्र रचते रहे। फैसले के पहले ही मुसलमानों के बीच से ये चर्चा सुनाई देने लगी थी कि विवादित भूमि हिन्दुओं को सौंप दी जाये ताकि हम  शांति के साथ रह सकें। इस विवाद का यही हल होना था लेकिन एक सुनियोजित योजना के तहत अदालती विवाद को टाला जाता रहा। गत वर्ष जब सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले की जल्द सुनवाई करते हुए फैसला करने की पहल की तब कपिल सिब्बल ने उसे लोकसभा चुनाव के बाद तक टालने की दलील ये कहते हुए रखी कि उसका राजनीतिक फायदा उठाया जायेगा। वरिष्ठ अधिवक्ता होने के कारण श्री सिब्बल भी जानते थे कि विवादित ढांचा मूलत: मन्दिर ही था। स्व. राजीव गांधी के कार्यकाल में जब ढांचे में रखी मूर्तियों का ताला खुलवाया गया उस समय भी यदि मुस्लिम पक्ष को विश्वास में लेकर आगे बढऩे का प्रयास किया जाता तो तीस साल तक देश ने जो सहा उससे बचा जा सकता था। उस दृष्टि से सर्वोच्च न्यायालय द्वारा मामले को  अंजाम तक पहुँचाने के  लिए दिखाई गयी इच्छा शक्ति की प्रशंसा के साथ केंद्र सरकार को भी धन्यवाद देना चाहिए जिसने बिना लागलपेट के पूरे देश को इस बात के लिये प्रेरित किया कि अदालत का जो भी निर्णय आयेगा उसे जस का  तस स्वीकार किया जाये और उसमें किसी की जीत या हार जैसी सोच न रखी जाए। यही कारण रहा कि दशकों से चला आ रहा विवाद इतनी सहजता से निपट गया। इतने बड़े अदालती फैसले पर जिस तरह की सधी और सुलझी हुई प्रतिक्रियाएं आईं वे इस बात का प्रमाण हैं कि भारत वाकई बदल रहा है और उसमें परिपक्वता आई है। इसके पहले भी तीन तलाक और अनुच्छेद 370 को लेकर बड़े फैसले किये गये जिनका देश के सामान्य जनमानस ने आमतौर पर स्वागत और समर्थन किया। भले ही दूध में नीबू निचोडऩे वाले तबके ने उन निर्णयों को गलत साबित करने की पुरजोर कोशिशें कीं  लेकिन अधिकतर लोगों ने व्यापक राष्ट्रीय हितों को महत्व देते हुए किसी भी संकुचित सोच से परहेज किया। अयोध्या विवाद सुलझने के बाद वैश्विक स्तर पर भी भारत  की प्रतिष्ठा में अकल्पनीय वृद्धि हुई है। दुनिया को ये समझ में आने लगा है कि भारत में  अपनी समस्याओं का हल करने की क्षमता के साथ कड़े और बड़े फैसले लेने की इच्छा शक्ति भी है। इस फैसले को राजनीतिक नफे-नुकसान के लिहाज से देखने वालों की तुलना उस भक्त से की जा सकती है जिसकी पूजा में भक्ति कम स्वार्थसाधना अधिक होती है। मौजूदा केंद्र सरकार पर तरह-तरह के आरोप लगाने वालों को ये समझ लेना चाहिए कि उसने लम्बित मामलों का हल करने का जो  साहस दिखाया वह देश के दूरगामी हितों के मद्देनजर है। अयोध्या विवाद केवल हिन्दू-मुस्लिम समुदायों के बीच का झगड़ा न होकर तुष्टीकरण और छद्म धर्मनिरपेक्षतावाद का पोषक बनकर रह गया था। भगवान राम की जन्मभूमि में उनके जन्म को साबित करने के लिए देश की आजादी के पहले से चला रहा विवाद केवल मतदाताओं के धु्रवीकरण तक सीमित नहीं रहा। दुर्भाग्य से स्वाधीनता मिलने के बाद भी ऐसे अनेक मामलों को निपटाने के प्रति दुर्लक्ष्य किया गया जो उस समय आसानी से हल हो सकते थे। खैर, जो हो गया सो हो गया। नये संदर्भों में अब देश को नए दृष्टिकोण सोच के साथ आगे बढऩे  पर विचार करना  चाहिए और उसके लिए जरूरी है सोच को बदलना। ये बात सही है कि राजनीति के बिना देश नहीं चलता किन्तु इसी के साथ ये भी मानना होगा कि केवल राजनीति से ही देश नहीं चलता। अनुच्छेद 370 को हटाने के बाद अयोध्या को लेकर चले लम्बे विवाद का अदालती हल हो जाना बहुत  बड़ी सफलता है। इसके लिए किसी एक या कुछ लोगों को श्रेय देने की बजाय हर उस व्यक्ति, संस्था और राजनीतिक दल की प्रशंसा करनी चाहिए जिन्होंने अपने क्षणिक लाभ को दरकिनार रखते हुई देश के बारे में सोचा। सर्वोच्च न्यायालय के पाँचों माननीय न्यायाधीश अभिनंदन के पात्र हैं जिन्होंने बिना भय और पक्षपात  के एक बड़ी समस्या का सर्वमान्य समाधान देश को दे दिया। लेकिन इसके बाद संतुष्ट होकर बैठ जाना भी ठीक नहीं होगा क्योंकि अभी छोटे- छोटे अनेक ऐसे मामले हैं जिनकी वजह से देश आये दिन मुसीबत झेलता रहता है। परिपक्व सोच और विशाल ह्रदय का परिचय देते  हुए इसी तरह एक के बाद एक फैसले करने का ये सबसे सही समय है क्योंकि केंद्र में एक निर्णय लेने वाली सरकार  के साथ ही जनमत भी पूरी तरह से रचनात्मक सोच से प्रेरित है। किसी देश के जीवन में ऐसे अवसर सौभाग्य से ही आते हैं। इन्हें गंवाने पर इतिहास हमें माफ़  नहीं करेगा।
-रवीन्द्र वाजपेयी

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