Tuesday 5 November 2019

व्यापार समझौते से दूरी : सही निर्णय



थाईलैंड की राजधानी बैंकाक में आसियान देशों के सम्मलेन में हुए क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक भागीदारी (आरसीईपी) नामक व्यापार समझौते से भारत द्वारा हाथ खींचे जाने की पूरे देश में अनुकूल प्रतिक्रिया हुई है। विपक्ष इसे अपनी जीत बता रहा है जबकि किसान संगठन अपनी। उद्योग जगत ने भी राहत की साँस ली है। इस सम्मलेन में एशिया और पैसिफिक क्षेत्र के देशों के बीच जो व्यापार समझौता हुआ उसके मुताबिक भारत को आयात शुल्क में कटौती करना पड़ती जिससे समझौते में शामिल देशों का सामान यहाँ आसानी से आ सके। इस सम्मलेन में चीन, जापान, दक्षिण कोरिया, आस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड शामिल हैं जिन्हें विकसित देश माना जाता है। इस समझौते से इन देशों को तो जबर्दस्त लाभ होता लेकिन भारत के घरेलू उद्योगों और कृषि उत्पादकों को भारी नुकसान होने की आशंका बढ़ जाती। उल्लेखनीय है चीन से आयातित वस्तुओं के कारण भारत का घरेलू उद्योग पहले से ही बर्बादी के कगार पर है। यद्यपि ये स्थिति विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) में भारत के शामिल होने के बाद से ही बनने लगी थी लेकिन बीते एक दशक में वह बद से बदतर होती गयी। बैंकाक सम्मेलन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की उपस्थिति कूटनीतिक दृष्टि से तो महत्वपूर्ण थी ही लेकिन इस व्यापार समझौते के लिहाज से मौके पर ही निर्णय करने के लिए भी उनका वहां होना जरूरी था। समझौते का प्रारूप तैयार होते समय जो खबरें छन-छनकर आईं उनके मद्देनजर भारत में कांग्रेस के साथ ही दूसरे विपक्षी दलों सहित किसान संगठनों और उद्योग जगत से भी विरोध की आवाजें आने लगीं। राहुल गांधी ने तो ऐसा प्रचारित किया मानों श्री मोदी ने समझौते  पर दस्तखत कर ही दिए हों। गत दिवस जब प्रधानमंत्री ने समझौते को भारत के हितों के विरुद्ध बताते हुए उसमें शामिल नहीं होने की घोषणा की तो श्री गांधी ने उसका श्रेय खुद को दिया। राजनीतिक दांवपेंच के मुताबिक उनका बयान स्वाभाविक ही है। अनेक किसान संगठनों ने भी ये कहा  कि श्री मोदी को उनके विरोध के सामने झुकना पड़ा। वास्तविकता जो भी हो लेकिन श्री मोदी द्वारा दो टूक शब्दों में उक्त समझौते से भारत को दूर रखने की घोषणा किये जाने से भारत की बढ़ती ताकत और आत्मविश्वास दुनिया के सामने प्रगट हुए हैं। सबसे ज्यादा झटका चीन को लगा जो अमेरिका द्वारा प्रारम्भ ट्रेड वार से त्रस्त होकर भारत के बाजारों में अपना माल झोंकने के मंसूबे पाल रहा था। जापान, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड और दक्षिण कोरिया को एक बारगी छोड़ भी दें लेकिन मलेशिया, वियतनाम, थाईलैंड और तो और बांग्लादेश सरीखे छोटे-छोटे देशों  तक से  भारत में जबर्दस्त आयात होता है। उसकी तुलना में हमारा निर्यात बेहद कम है जिसकी वजह से व्यापार घाटा बढऩे के अलावा घरेलू उद्योगों की भी कमर टूट गयी। ये देखते हुए कहा जा सकता है कि और कोई समय होता तब शायद भारत समझौते का हिस्सा बन भी जाता लेकिन मौजूदा स्थितियों में जब देश की अर्थव्यवस्था पटरी से उतरी हुई दिखाई देती है और कारोबारी जगत पूरी तरह हताश है तब आयात बढ़ाने वाला कोई भी निर्णय आत्मघाती ही होगा और उस दृष्टि से प्रधानमंत्री ने जो निर्णय लिया वह वर्तमान परिस्थितियों में तो पूरी तरह से अनुकूल है ही देश के दूरगामी आर्थिक हितों के लिहाज से भी बेहद उपयोगी है। इस बारे में ध्यान देने वाली बात ये है कि दुनिया के सभी देश इस समय कमोबेश आर्थिक मंदी के शिकार होने से अपने लिए नये बाजार तलाश रहे हैं। चीन ही नहीं अपितु अमेरिका जैसी आर्थिक महाशक्ति भी इस समस्या से जूझ रही है। चीन के साथ चल रहा व्यापार युद्ध भी मंदी की ही उपज है। भारत में हालात अपेक्षाकृत ज्यादा खराब हैं क्योंकि व्यापार घाटा हमारी अर्थव्यवस्था का स्थायी हिस्सा बना हुआ है। लेकिन बीते कुछ सालों में स्थिति और खराब हो गई। मोदी सरकार की तमाम राजनीतिक, कूटनीतिक और सैन्य उपलब्धियां आर्थिक मोर्चे पर उत्पन्न चिंताजनक परिस्थितियों की वजह से चमक खोती हुई दिख रही हैं। भले ही सरकार उपरी तौर पर उसे स्वीकार नहीं कर रही किन्तु उद्योग-व्यापार जगत के साथ ही आम जनता में भी घबराहट का जो माहौल है उसे दूर करने का कोई उपाय नजर नहीं आ रहा। ऐसे में श्री मोदी ने थाईलैंड में हुए व्यापार समझौते से हाथ खींचकर समझदारी ही दिखाई। कश्मीर मुद्दे पर पकिस्तान का साथ देने के कारण सरकार ने तुर्की और मलेशिया के प्रति कड़ा रुख अपनाकर ये संकेत दे दिया था कि भारत अपने फैसले अपनी दम पर लेने की हैसियत हासिल कर चुका है। इस बारे में महत्वपूर्ण बात ये है कि थाईलैंड में मौजूद देशों में से कुछ के भारत के साथ बेहद दोस्ताना रिश्ते हैं। बावजूद उसके श्री मोदी ने देश के आर्थिक हितों का हवाला देते हुए जिस साफगोई का परिचय दिया उसके कारण भारत की वजनदारी में भी वृद्धि हुई है। चीन, जापान, दक्षिण कोरिया, आस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड जैसे देशों के सामने भारत का ऊंची आवाज में बात करना दूसरे अर्थों में भी महत्वपूर्ण है।

- रवीन्द्र वाजपेयी

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