Monday 11 November 2019

लेकिन क्या हिंदुत्व छोड़ सकेगी शिवसेना



यदि शिवसैनिकों ने बाबरी मस्जिद तोड़ी तो मुझे उन पर गर्व है कहने वाले स्व. बाल ठाकरे के बेटे और पोते यदि कांग्रेस और एनसीपी से समझौता करते हुए महाराष्ट्र की सत्ता हासिल करने जा रहे हैं तो किसी को कोई  आश्चर्य नहीं होना चाहिए। क्योंकि जब भाजपा ने जम्मू-कश्मीर में पीडीपी के साथ सरकार बना ली तब राजनीति में छुआछूत और सैद्धांतिक भेद का कोई अर्थ नहीं रह गया। लेकिन इसे विचित्र संयोग ही कहा जा सकता है कि जिस दिन अयोध्या में राममंदिर के निर्माण का फैसला आया लगभग उसी के साथ मंदिर निर्माण की पक्षधर शिवसेना उन दलों के साथ गठबंधन को तैयार हो गयी जिन्होंने कभी बाबरी ढांचे को दोबारा खड़ा करने का वायदा किया था और जिनकी निगाह में स्व. ठाकरे सबसे बड़े साम्प्रदायिक व्यक्ति थे। खैर, राजनीति में अब ये सब बातें मायने खो चुकी हैं। महाराष्ट्र में शिवसेना और भाजपा का गठबंधन भले औपचारिक तरीके से अब जाकर टूटा हो लेकिन बीते पांच साल में साथ रहने के बावजूद दोनों के रिश्ते कभी सौहाद्र्रपूर्ण नहीं रहे। 2014 का लोकसभा चुनाव दोनों ने मिलकर लड़ा और शिवसेना का एक मंत्री भी मोदी सरकार में शामिल हुआ लेकिन राज्य विधानसभा चुनाव आते तक अलगाव हो गया और दोनों अलग-अलग मैदान में उतरे। पहली बार भाजपा ने शिवसेना को पीछे छोड़ा और 122 सीटें लेकर सरकार बनाने की दावेदार बन बैठी। शुरुवाती खींचतान के बाद दोनों फिर एकजुट हुए और देवेन्द्र फडनवीस के नेतृत्व वाली सरकार में शिवसेना शरीक हो गई। लेकिन पूरे पांच साल वह भाजपा पर तीखे हमले करती रही। यहां तक कि केंद्र सरकार की नीतिगत आलोचना से भी उसने परहेज नहीं किया। बावजूद उसके गठबन्धन चलता रहा। लोकसभा चुनाव में दोनों मिलकर उतरे और अच्छी खासी सफलता हासिल की। शिवसेना का एक मंत्री दोबारा मोदी मंत्रीमंडल का सदस्य भी बना लेकिन विधानसभा चुनाव में सीटों का बंटवारा होने के बाद चुनाव परिणाम आते ही शिवसेना ने मुख्यमंत्री पद को लेकर जिद पकड़ ली। भाजपा चूंकि 105 पर आकर अटक गई इसलिए उसके पास सौदेबाजी करने की  ताकत नहीं बची। एनसीपी और कांग्रेस की सदस्य संख्या काफी निर्णायक हो गई। भाजपा को ये मुगालता रहा कि अंतत: शिवसेना की हिन्दुत्ववादी नीतियां उसे अलग नहीं होने देगी किन्तु उसकी सोच को धता बताते हुए उसने इस बार किसी भी कीमत पर वाली जिद पकड़ी और कल रात तक जो कुछ भी सामने आया उसके अनुसार अब आदित्य ठाकरे की बजाय उद्धव ठाकरे खुद मुख्यमंत्री बनने जा रहे हैं। इस बारे में जो पता लगा उसके अनुसार पार्टी के अनेक वरिष्ठ विधायकों और कुछ नेताओं ने आदित्य के मातहत काम करने में संकोच दिखाया। एनसीपी सुप्रीमो शरद पवार ने भी उद्धव ठाकरे को आदित्य की अनुभवहीनता का हवाला देते हुए खुद मुख्यमंत्री बनने की सलाह दी लेकिन एनडीए छोडऩे तथा केंद्र से अपने मंत्री का स्तीफा दिलाने की शर्त रख दी। कांग्रेस इस सरकार को बाहर से समर्थन करेगी या शामिल होगी ये साफ  नहीं है लेकिन श्री पवार के भतीजे अजीत उपमुख्यमंत्री बनेंगे और कांग्रेस विधानसभा अध्यक्ष अपना बनायेगी ये चर्चा है। आज शिवसेना प्रवक्ता संजय राउत कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी से मिलने वाले हैं। यदि बड़ा उलटफेर नहीं हुआ तब शाम तक शिवसेना की अगुआई में एनसीपी और कांग्रेस के समर्थन से सरकार का गठन हो जाएगा। इसके स्थायित्व को लेकर भले ही अभी से शंका व्यक्त की जाने लगी हो किन्तु शिवसेना को उसकी चिंता नहीं है। वह इस पूरे खेल में भाजपा को नीचा दिखाने के उद्देश्य से कुछ भी करने को तैयार है। इसकी एक वजह उसे अपने अस्तित्व के लिए निरंतर बढ़ता जा रहा खतरा भी है। उद्धव ठाकरे को ये लगने लगा था कि यदि दोबारा श्री फडनवीस को मुख्यमंत्री बनने दिया तो अगले पांच साल बाद शिवसेना राज्य की राजनीति में पूरी तरह से हाशिये पर चली जायेगी। उस दृष्टि से उनका दांव मरता क्या न करता वाली स्थिति की तरफ  इशारा कर रहा है। सवाल ये है कि ढाई-ढाई साल मुख्यमंत्री वाले जिस वायदे की बात शिवसेना लगातार उछालती रही उसके बारे में श्री फडनवीस तो इनकार करते रहे लेकिन आज तक भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने उस विषय पर एक शब्द भी नहीं कहा जबकि बकौल शिवसेना लोकसभा चुनाव की सीटों के बंटवारे के समय उद्धव के साथ हुई बैठक में श्री शाह ने ही वह वायदा किया था। भाजपा के केन्द्रीय नेतृत्व का इस बारे में मौन वाकई चौंकाने वाला रहा। इसी तरह ये बात भी काबिले गौर है कि शिवसेना की नाराजगी दूर करने के लिए भी भाजपा के किसी वरिष्ठ नेता की तरफ  से कोशिश होती नहीं दिखी। यहां तक कि स्व. प्रमोद महाजन के बाद महाराष्ट्र की राजनीति में भाजपा के सबसे बड़े चेहरे नितिन गडकरी तक को उपेक्षित रखा गया। कुछ लोगों का मानना रहा है कि ठाकरे परिवार की खुन्नस दरअसल श्री फडनवीस से ज्यादा थी। यदि भाजपा श्री गडकरी को आगे कर देती तब विवाद सुलझ सकता था। बहरहाल अब शिवसेना इतने आगे बढ़ चली है कि उसका लौटना फिलहाल सम्भव नहीं रहा। एनसीपी और कांग्रेस के साथ उसका याराना कितने दिन चलेगा ये कहना कठिन है क्योंकि ये गठबंधन राज्य में मध्यावधि चुनाव रोकने के लिए हो रहा है। लेकिन उसे लम्बे समय तक टालना संभव नहीं होगा। देखने वाली बात ये होगी कि शिवसेना एनडीए छोडऩे के बाद भी क्या हिंदुत्व की नीति छोड़ सकेगी क्योंकि वैसा करने के बाद तो उसकी पहिचान ही नहीं बचेगी। राजनीतिक लिहाज से तो शिवसेना ने भाजपा को फिलहाल झटका दे दिया लेकिन इस चाल से उसने अपने भविष्य को भी खतरे में डाल दिया है। एनसीपी और कांग्रेस के पास तो खोने के लिए कुछ था ही नहीं लेकिन शेर बनकर दहाडऩे वाली शिवसेना को अब इन दोनों पार्टियों के सामने भीगी बिल्ली बनकर रहना पड़ेगा।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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