Tuesday 19 November 2019

सत्ता तो मिली नहीं साख भी चली गयी



जैसी उम्मीद थे वैसा ही हो रहा है। मुख्यमंत्री की जिद में भाजपा के साथ अपना तीस साल पुराना गठबंधन तोडऩे वाली शिवसेना त्रिशंकु बनी हुई है। भाजपा से संवाद के रास्ते उसने खुद होकर बंद कर दिए। उसे लग रहा था कि दुश्मन का दुश्मन अपना दोस्त की नीति पर अमल करते हुए एनसीपी और कांग्रेस तश्तरी में रखकर सत्ता उसके पास लेकर आयेंगी। शुरुवात में ऐसा लगा भी लेकिन शरद पवार की पहेलीनुमा सियासत की वजह से पार्टी की स्थिति न इधर के रहे न उधर के रहे वाली होकर रह गयी है। एनसीपी और कांग्रेस ने पहले तो शिवसेना को एनडीए से बाहर आने के लिए मजबूर करते हुए केंद्र से उसका इकलौता मंत्री हटवा दिया। यही नहीं मुख्यमंत्री पद के लिए पार्टी के चेहरे बनाये गये आदित्य ठाकरे को अनुभवहीन बताकर उद्धव को आगे आने के लिए बाध्य किया। बैठकों का दौर चला। भाजपा को बाहर रखने पर सैद्धांतिक सहमति भी बन गई। लेकिन शिवसेना के पक्ष में राज्यपाल को समर्थन का पत्र न तो एनसीपी ने दिया और न ही कांग्रेस ने। जिसके बाद राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया। हालाँकि उसका तीनों ने विरोध भी किया लेकिन सरकार बनाने के बारे में बात आगे नहीं बढ़ सकी। इस दौरान मुंबई में तीनों दलों की बैठकें होती रहीं जिनमें साझा न्यूनतम कार्यक्रम को लेकर भी रजामंदी होने का प्रचार किया गया परन्तु श्री पवार ने बजाय बात आगे बढ़ाने के धीमे चलो की नीति अपनाई। वे बार - बार ये कहते रहे कि कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी से मिलकर ही पक्के तौर पर कुछ कह सकेंगे। इधर भाजपा भी बीच - बीच में सरकार बनाने के दावे करते हुए शिवसेना को डराती रही। बहरहाल गत दिवस श्री पवार और श्रीमती गांधी की बहुप्रतीक्षित भेंट हुई जिस पर सभी की निगाहें लगी थीं किन्तु बैठक के बाद एनसीपी नेता ने जिस तरह की बातें कीं उससे शिवसेना में निराशा बढ़ गयी। शरद पवार ने ऐसी द्विअर्थी बातें कहीं जिनसे कुछ भी स्पष्ट नहीं हो सका। 17 नवम्बर को स्व. बाल ठाकरे की पुण्य तिथि पर शिवसेना के नेतृत्व में सरकार गठन की उम्मीद की जा रही थी लेकिन न एनसीपी ने कोई संकेत दिया और न ही कांग्रेस ने। इधर उद्धव ठाकरे ने 24 तारीख को अयोध्या की अपनी प्रस्तवित यात्रा भी रद्द कर दी जिससे श्री पवार और श्रीमती गांधी के बीच होने वाली बैठक से खुशखबरी निकल सके। लेकिन पहले राज्यसभा में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा एनसीपी के संसदीय व्यवहार की प्रशंसा और बाद में श्री पवार द्वारा कांग्रेस अध्यक्ष से महाराष्ट्र में सरकार बनाने के बारे में किसी भी प्रकार की बातचीत न होने के खुलासे से समीकरण दूसरी दिशा में घूमते दिखाई देने लगे। एनसीपी प्रमुख के ये कहने से रहस्य और गहरा गया कि जनादेश भाजपा - शिवसेना को मिला था और अभी तो छह महीने का समय है। इसके बाद शिवसेना भी तनाव में आ गई और उसके बड़बोले प्रवक्ता संजय राउत ने भी कटाक्ष कर दिया कि सरकार बनाने का दायित्व केवल शिवसेना का नहीं है। हालाँकि बाद में वे श्री पवार से भी मिले। गौरतलब है अभी तक कांग्रेस के प्रादेशिक नेता चाहे जो कुछ कहते रहे हों लेकिन केन्द्रीय नेतृत्व ने शिवसेना को समर्थन के बारे में खुलकर कुछ भी नहीं कहा। राजनीति के जानकार मान रहे हैं कि श्रीमती गांधी शिवसेना को समर्थन देने को लेकर पसोपेश में हैं। उन्हें लगता है कट्टर हिंदूवादी छवि की वजह से शिवसेना की संगत कांग्रेस की साख के लिए खतरा साबित होगी। दूसरी बात कांग्रेस को ये भी महसूस होती है कि देर सबेर ठाकरे परिवार वापिस भाजपा के साथ जा मिलेगा। हो सकता है उसे रामदास आठवले द्वारा भाजपा और शिवसेना के बीच मध्यस्थता प्रयासों से अंदेशा हो गया हो। इस अनिश्चितता से शिवसेना की अकड़ कमजोर हो गयी। जैसी कि खबर है श्री राउत ने श्री आठवले के उस सुझाव पर सकारात्मक प्रतिक्रया दी जिसके अनुसार पहले तीन साल भाजपा और शेष दो वर्ष में शिवसेना का मुख्यमंत्री रहेगा। महाराष्ट्र की राजनीति का ऊँट किस करवट बैठगा ये कोई नहीं बता पा रहा। हाथ से आती सत्ता झमेले में पड़ जाने से भाजपा की वजनदारी को झटका जरुर लगा लेकिन उससे ज्यादा फजीहत शिवसेना की हो गई। चुनावी नतीजे आते ही उसने और भी विकल्प खुले होने की जो धौंस दी थी वह अब तक असर नहीं दिखा सकी। भाजपा के सामने गुर्राने वाली पार्टी एनसीपी और कांग्रेस के आगे-पीछे जिस तरह घूमती फिर रही है उससे उसके अपने समर्थक हैरान हैं। इधर भाजपा ने एनसीपी के साथ नजदीकी बढ़ाने के संकेत देकर कांग्रेस और शिवसेना दोनों को असमंजस में डाल दिया है। पूरे घटनाक्रम में शरद पवार ने पहले तो रिंग मास्टर की भूमिका हथिया ली किन्तु बाद में वे अपनी रहस्यमय कार्यप्रणाली से सभी को हलाकान करते आ रहे हैं। कुल मिलाकर शिवसेना को ये समझ में आ गया कि सत्ता की राह उतनी सरल नहीं थी जितनी ठाकरे परिवार और उनके सलाहकार बन बैठे संजय राउत समझ बैठे थे। आज की स्थिति में उसकी हालत सौ जूते या सौ प्याज में से कोई एक चुनने वाली दुविधा में फंसकर रह गयी है। एक तरफ  सत्ता है तो दूसरी तरफ  साख। मौजूदा हालात में सत्ता उसके हाथ आ नहीं रही और उसकी मृगमरीचिका में साख से भी वह हाथ धोती जा रही है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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