कूटनीति में सही समय पर कदम उठाने का बड़ा महत्व होता है। उस दृष्टि से विदेश मंत्री एस. जयशंकर का कोलम्बो पहुंचकर श्रीलंका के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति गोताबाया राजपक्षे से मुलाक़ात करना मायने रखता है। उल्लेखनीय है श्री राजपक्षे ने सोमवार को ही अपने पद की शपथ ली थी। श्रीलंका की राजनीति में उनका नाम जाना -पहिचाना है। अव्वल तो वे पूर्व राष्ट्रपति महिंद्रा राजपक्षे के भाई हैं और उससे भी महत्वपूर्ण ये है कि श्रीलंका में तमिल उग्रवादी संगठन लिट्टे को जड़ से उखाड़ फेंकने वाली सैन्य कार्रवाई का निर्देशन उन्हीं ने किया था जिसमें संख्या में नरसंहार की वजह से वे पूरी दुनिया में मानवाधिकार हनन के लिए आलोचना के शिकार भी हुए। उस समय महिन्द्रा श्रीलंका के राजप्रमुख थे। लेकिन उसके बाद हुए चुनाव में वे हार गए। बीते कुछ वर्षों में श्रीलंका ने राजनीतिक अस्थिरता भी देखी। शीर्ष संवैधानिक पदों को लेकर कानूनी लड़ाई भी हुई। लेकिन सबसे अच्छी बात ये रही कि पूर्व राष्ट्रपति सिरिसेना भारत के काफी करीब थे। यहाँ ये भी जानना जरूरी है कि लिट्टे के सफाए के बाद जब महिंद्रा राजपक्षे चुनाव हारे तब उनने भारत पर ये आरोप लगाया तथा कि उसने रॉ के जरिये उनकी पराजय का तानाबाना बुना था। दरअसल राजपक्षे का झुकाव चीन की तरफ होने से वे भारत को वैसे भी रास नहीं आते थे। हालाँकि राष्ट्रपति सिरिसेना के कार्यकाल में भी महिंद्रा को प्रधानमंत्री नियुक्त किया गया था किन्तु विवाद के बाद उन्हें हटना पड़ा। इस बार उनके भाई मैदान में उतरे और राष्ट्रपति बनने में सफल रहे। भले ही श्रीलंका भारत के मुकाबले बहुत छोटा देश हो लेकिन उसकी भौगोलिक स्थिति बेहद संवेदनशील और सामरिक दृष्टि से भी भारतीय हितों को प्रभावित करने वाली है। सबसे ज्यादा ध्यान देने वाली बात ये है कि बीते काफी समय से चीन ने इस टापूनुमा देश के साथ अपने व्यापारिक रिश्ते बेहद मजबूत करते हुए हंबनटोटा बंदरगाह को 99 वर्ष के लिए पट्टे पर ले लिया। इसके पीछे कारण बना चीन से लिए गये कर्ज की अदायगी। श्रीलंका में अधोसंरचना के कामों में भी उसने काफी निवेश कर रखा है। चीन के लिए नेपाल के बाद श्रीलंका भारत की घेराबंदी करने के लिए सबसे ज्यादा अनुकूल देश है। सिरिसेना के रहते भारत की चिंता कुछ कम हुईं थीं लेकिन गोताबाया के राष्ट्रपति बनने से पलड़ा फिर चीन के पक्ष में जाने की आशंका बढ़ गई। हालाँकि उन्होंने अपनी शुरुवाती टिप्पणी में भारत के साथ ऐतिहासिक रिश्तों का हवाला दिया किन्तु श्रीलंका के साथ हमारे सम्बन्धों में स्थायित्व कभी नहीं रहा। लिट्टे के उदय से लेकर उसके खात्मे तक की स्थितियों में कभी खटास तो कभी मिठास बनी रही। महिंद्रा राजपक्षे के काल में अविश्वास चरम पर जा पहुंचा था जो बीते चार वर्ष में घटा जरुर लेकिन चीन के साथ इस देश के रिश्तों की शुरुवात तो सिरीमावो भंडारनायके के प्रधानमन्त्री रहते हुए ही पड़ी जो निरंतर मजबूत होती चली गयी। वे तीन बार इस पद पर रहीं और बाद में उनकी बेटी चंद्रिका कुमारातुंगा भी प्रधानमंत्री बनीं। ये कहना गलत नहीं होगा कि स्व.राजीव गांधी के कार्यकाल में श्रीलंका के साथ भारत के रिश्ते बेहद खराब हो गए थे। लिट्टे को समर्थन देने के नाम पर भारत के प्रति श्रीलंका के मन में जो सन्देह पनपा वह अभी तक कायम है। जबकि चीन ने व्यापारिक रिश्तों की आड़ में वहां अपना प्रभावक्षेत्र काफी विस्तृत कर लिया। मोदी सरकार ने पड़ोसी देशों के साथ बहुमुखी सबंध बनाकर भारत को चीन के समकक्ष खड़ा करने की जो कार्ययोजना बनाई उसके तहत श्रीलंका से रिश्ते प्रगाढ़ करना जरूरी है। एशिया के बाकी देशों के साथ नरेंद्र मोदी ने जिस तरह के व्यापारिक सम्बन्ध कायम किये उससे भी चीन काफी चौकन्ना है और श्रीलंका में अपनी मौजूदगी से भारत के लिए चिंता उत्पन्न करता रहता है। शायद यही वजह रही कि गोताबाया के राष्ट्रपति बनते ही भारत ने अपने विदेश मंत्री को कोलम्बो भेजकर कूटनीतिक पहल की। नवनिर्वाचित राष्ट्रपति को भारत आने का निमंत्रण भी दे दिया गया और 29 तारीख को उनके नई दिल्ली आने का कार्यक्रम भी बन गया। श्री जयशंकर चूँकि कई दशक तक विदेश सेवा में रहे इसलिए उनका कूटनीतिक अनुभव बेहद व्यापक है। विदेश सचिव बनने के पूर्व वे अमेरिका और चीन में बतौर राजदूत भी सेवाएं दे चुके हैं। विश्व के साथ ही एशिया की कूटनीतिक स्थितियों के बारे में भी उनको गहरी जानकारी है। श्री जयशंकर को भारतीय विदेश सेवा के बेहतरीन अधिकारियों में माना जाता था। जब श्री मोदी ने उन्हें विदेश सचिव बनाया था तब विपक्ष ने भी उनके चयन की सराहना की। यूँ भी राजनेताओं की अपेक्षा राजनयिक सेवा से जुड़े अधिकारी कूटनीतिक संवाद में ज्यादा निपुण माने जाते हैं। उस लिहाज से श्रीलंका के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति से दूसरे दिन ही जाकर मिलना और उन्हें भारत आने के लिए तैयार कर लेना अच्छी शुरुवात कही जायेगी। श्रीलंका के साथ भारत का सांस्कृतिक रिश्ता काफी पुराना है। बौद्ध धर्मावलम्बी होने के कारण वहां से बड़ी संख्या में लोग भारत में स्थित बौद्ध केंद्रों पर आते हैं। लिट्टे की समाप्ति के बाद भारत से भी श्रीलंका जाने वाले पर्यटकों की संख्या में जबर्दस्त वृद्धि हुई है। विशेष रूप से अशोक वाटिका के दर्शन करने। आपसी व्यापार में भी काफी बढ़ा है। चूँकि दोनों के बीच दूरी कम है इसलिए माल की आवाजाही का खर्च भी कम पड़ता है। ऐसे में यदि थोड़ी सी चतुराई दिखाई जावे तो इस देश के साथ भारत के रिश्तों में समाया अविश्वास दूर हो सकता है। वैसे श्री मोदी भी संवाद कला में काफी पारंगत हैं और इसीलिये आशा की जा सकती है कि श्रीलंका के नये राष्ट्राध्यक्ष के कार्यकाल में दोनों देशों में आपसी सहयोग का नया अध्याय शुरू हो सकेगा।
-रवीन्द्र वाजपेयी
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