Friday 29 July 2022

पायलटों की मौत परिवार के साथ देश का भी नुकसान : वायुसेना से पुराने विमानों की छुट्टी जरूरी


 
वायुसेना का एक मिग 21 प्रशिक्षक विमान गत दिवस राजस्थान के बाड़मेर में दुर्घटनाग्रस्त हो गया जिसमें सवार दोनों पायलट मारे गए | रूस में निर्मित यह लड़ाकू विमान एक ज़माने में भारतीय वायुसेना की असली ताकत हुआ करता था | बाद में इसकी असेम्बलिंग भारत में भी होने लगी | 1985 से इसका निर्माण बंद कर दिया गया | हालाँकि रूस की मदद से इन विमानों का  तकनीकी उन्नयन किये जाने से ये उपयोग लायक बने रहे | उनका उपयोग ज्यादातर प्रशिक्षण के तौर पर ही किया जा रहा है | गत दिवस दुर्घटनाग्रस्त हुआ विमान भी उसी कार्य हेतु था | मार्च 2019  में विंग कमांडर अभिनंदन के जिस विमान को पाकिस्तान ने  मार गिराया था वह भी मिग 21 ही था | इस श्रृंखला के विमानों में मिग 27 भी थे | लेकिन इनके बाद सुखोई जैसे उन्नत लड़ाकू विमान आ आने से मिग पुराने समझे जाने लगे | बावजूद इसके वायुसेना में इसकी मौजूदगी बनी रही | चूंकि सेना संबंधी मामले सार्वजनिक विमर्श में कम ही आते हैं इसलिए इन पर लोगों का ध्यान नहीं जाता | सेना का काम देश की सुरक्षा करना होता है इसलिए उसकी जरूरतें पूरी करना आवश्यक होता है | लेकिन ये दुर्भाग्य है कि इस बारे में राजनीतिक नेतृत्व लम्बे समय तक उदासीन बना रहा जिसके कारण सेना के तीनों अंगों के पास साजो – सामान की कमी होने लगी | विशेष रूप से डा. मानमोहन सिंह की सरकार के दौरान सैन्य खरीदी काफी कम हुई जिसे लेकर तत्कालीन थल सेनाध्यक्ष द्वारा प्रधानमन्त्री को लिखा गया पत्र काफी चर्चित हुआ था | हालाँकि बीते आठ साल में सेना को हर दृष्टि से सुसज्जित बनाने का प्रयास हुआ लेकिन उसके बाद भी ये विचारणीय है कि आखिरकार क्या कारण है कि मिग 21 जैसे विमान जो आधुनिक सैन्य मापदंडों  के लिहाज से बाबा आदम के ज़माने के माने  जाते हैं , आज भी वायुसेना में बने हुए हैं | उनकी तकनीकी उत्कृष्टता और मारक क्षमता निश्चित रूप से अच्छी रही होगी लेकिन जिस तरह से लगातार ये विमान दुर्घटनाग्रस्त होते रहते हैं उसे देखते हुए इनका उपयोग सवाल खड़े करता है | इस बारे में जो जानकारी आती है उसके मुताबिक विदेशों से जिन अत्याधुनिक लड़ाकू विमानों के सौदे हाल के वर्षों में किये गये उनकी  आपूर्ति में अभी समय लगेगा | कोरोना के कारण भी इसमें व्यवधान आया है | इसी तरह रूस और यूक्रेन के बीच युद्ध शुरू हो जाने से भी भारत को होने वाली  सैन्य सामग्री की आपूर्ति पर असर पड़ा है |  तकरीबन हर साल वायुसेना के अनेक मिग 21 विमान प्रशिक्षण या अन्य उद्देश्यों से की  जाने वाली उड़ानों के दौरान दुर्घटना का शिकार होते हैं | उससे होने वाला आर्थिक नुकसान तो अपनी जगह है लेकिन उसकी वजह से जो पायलट मारे जाते हैं वह कहीं ज्यादा बड़ा नुकसान  हैं | ये देखते हुए केंद्र सरकार को इस बारे में गंभीरता से विचार करते हुए बूढ़े हो चुके  विमानों को वायुसेना  से अलग करने का फैसला कर लेना चाहिए | हालाँकि इस बारे में वायुसेना की आवश्यकताओं के अलावा मारक क्षमता का ध्यान  भी रखना होगा लेकिन मिग 21 श्रृंखला के लड़ाकू विमानों का दौर खत्म हो चुका है | जब हमारे देश के सत्ताधारी नेताओं के लिये नए – नए अत्याधुनिक विमान , हेलीकाप्टर और शानदार कारें खरीदने में विलम्ब नहीं किया जाता तब सेना से सम्बन्धित खरीद में देर क्यों होती है , ये सवाल बेहद महत्वपूर्ण है | इस बारे में उल्लेखनीय है कि वाजपेयी सरकार के समय रक्षा मंत्री रहे जार्ज फर्नांडीज जब सियाचिन दर्रे के दौरे पर गए तब उन्हें बताया गया कि बर्फ पर चलने वाले स्कूटरों की आपूर्ति लंबे समय से रक्षा मंत्रालय के दफ्तर में अटकी पडी है | तब उन्होंने दिल्ली आकर अधिकारियों को फटकार लगते हुए अविलम्ब खरीदी करने का  आदेश देने के साथ ही जिम्मेदार अधिकारियों को दो सप्ताह तक सियाचिन में तैनात करने का फरमान भी जारी किया जिससे उनको एहसास  हो सके कि  विषम परिस्थितियों में हमारे जवान किस तरह रहते हैं ? मिग 21 विमानों को वायुसेना से मुक्त करने के बारे में काफी पहले निर्णय हो जाता तो अनेक होनहार पायलटों की ज़िन्दगी बच जाती | इस बारे में सोचने लायक बात ये है कि विमान तो पैसों से खरीदा जा सकता है किन्तु वायुसेना को एक पायलट तैयार करने में बरसों लग जाते है | और फिर यात्री उड़ानों के लिए तो विदेशी व्यवसायिक पायलटों की सेवाएं भी ली जाती हैं किन्तु वायुसेना में ऐसा संभव नहीं होने से एक – एक पायलट अमूल्य है | ये भी शोचनीय है कि बीते 75 साल के  दौरान भले ही हमारी सेना ने अनेक युद्धों में शत्रु को परास्त किया हो लेकिन सैन्य सामग्री के उत्पादन और उसमें होने वाले तकनीकी उन्नयन के मामले में हमारी प्रगति संतोषजनक नहीं है | बताया जा रहा है कि मिग 21 की पहली खरीद 1961 में की गई थी जबकि दिसम्बर 2019 में मिग 27 को भी वायुसेना से छुट्टी दे दी गई किन्तु उसके बाद भी मिग 21 विमान का उपयोग चौंकाने वाला है | जिस विमान के साथ गत दिवस हादसा हुआ हालाँकि वह प्रशिक्षण हेतु उपयोग होता था लेकिन इस बात की जाँच गहराई से होनी चाहिए कि  वह तकनीकी तौर पर उपयोग करने लायक था भी या नहीं ? मोदी सरकार  आने के बाद रक्षा खरीदी का काम काफी तेजी से चल रहा है और यही वजह है कि हम चीन से निपटने में  डरते नहीं हैं लेकिन थोड़े – थोड़े अन्तराल से वायुसेना के विमानों के दुर्घटनाग्रस्त होने की घटनाओं से सेना का मनोबल गिरता है | भले ही उनमें मारे जाने वाले सैनिकों या पायलटों के परिवारों को सरकार हर तरह की मदद देती हो लेकिन राजनेताओं को ये बात समझनी चाहिए कि एक सैनिक की मौत  केवल उसके परिवार नहीं वरन पूरे देश का नुकसान  होती है |

- रवीन्द्र वाजपेयी

Thursday 28 July 2022

पार्थ : भ्रष्टाचार हुआ तभी तो करोड़ों निकल रहे हैं



प. बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी ने अपने  राजनीतिक जीवन में तरह – तरह के संकट झेले हैं | वाममोर्चे की सरकार के दौर में उन्होंने न जाने कितने अत्याचार सहे | लेकिन अपनी सादगी और संघर्षशीलता की वजह से वे जनता का समर्थन और सहानुभूति अर्जित करते – करते  सत्ता के शिखर पर आ पहुंची | वामपंथी दुर्ग को ध्वस्त करने का जो कारनामा स्व. इंदिरा गांधी और स्व. अटल बिहारी वाजपेयी जैसे दिग्गज तक न कर सके वह उन्होंने कर दिखाया | यद्यपि उनकी तुनकमिजाजी और अनिश्चित स्वभाव उनके राष्ट्रीय परिदृश्य पर स्थापित होने में सबसे बड़ा बाधक है | बावजूद उसके जिस तरह नरेंद्र मोदी ने गुजराती अस्मिता की भावना बुलंद करते हुए उस राज्य में लगातार 12 साल तक ठस्से के साथ राज किया ठीक वही तरीका अपनाते हुए ममता ने माँ , माटी और मानुष रूपी नारा देकर बंगाली जनमानस की भावनाओं को मतदान में तब्दील कर दिया | हालांकि वे अपने राज्य में भाजपा के उभार को नहीं रोक पा रहीं किन्तु  कांग्रेस और वाम मोर्चे को चारों खाने चित्त करने का करतब जरूर दिखा दिया  | प. बंगाल में लगातार तीन विधानसभा चुनाव जीतने का उनका करिश्मा वाकई काबिले गौर है | लेकिन दूसरी तरफ 2014 और 2019 के लोकसभा और 2021 के विधानसभा चुनाव में भाजपा का प्रदर्शन भी किसी चमत्कार से कम नहीं कहा जा सकता | यद्यपि तीसरी बार मुख्यमंत्री बनने के बाद ममता ने जिस आक्रामक शैली में भाजपा में तोड़फोड़ कर डाली उससे लगने लगा था कि भाजपा को जो कुछ करना था कर चुकी और अब ढलान पर आती जायेगी | लेकिन बीते कुछ दिनों के भीतर ही ममता के तेवर ढीले पड़ने लगे हैं | शारदा घोटाले का शोर विधानसभा चुनाव में उनकी शानदार जीत के बाद थम सा गया था परन्तु  पिछले कुछ दिनों  में ही ऐसा कुछ घट गया जिसने ममता को रक्षात्मक होने के लिए बाध्य कर दिया | उनके मंत्रीमंडल के वरिष्ट मंत्री पार्थ चटर्जी के विरूद्ध शिक्षा मंत्री रहते हुए शिक्षकों की भर्ती में घोटाले का आरोप लंबे समय से लगता आ रहा था | बीते सप्ताह ईडी ने उनकी बेहद करीबी अर्पिता मुखर्जी के घर पर छापा मारा तो 21 करोड़ की नगद राशि बरामद हुई | परिस्थितिजन्य साक्ष्य के आधार पर ईडी ने पार्थ और नगदी बरामद होने के कारण अर्पिता को  गिरफ्तार कर लिया | इसके बाद हमेशा ईडी पर दाना - पानी लेकर चढ़ाई करने वाली ममता बैनर्जी को ये कहना पड़ा  कि भ्रष्ट व्यक्ति का बचाव नहीं करेंगी और भ्रष्टाचार करने वाले को दंड मिलना ही चाहिए | कहा जा रहा  हैं उन्होंने पार्थ के फोन भी नहीं सुने | हालाँकि वे ईडी और सीबीआई सहित केंद्र सरकार पर हमलावर भी रहीं लेकिन उपराष्ट्रपति के चुनाव से दूरी बनाने का जो  निर्णय तृणमूल कांग्रेस पार्टी द्वारा लिया गया उससे पहली बार लगा कि ममता दबाव में हैं | हालाँकि इन पंक्तियों के लिखे जाने तक उन्होंने पार्थ को मंत्रीमंडल से हटाया नहीं था | कहा जा रहा है विपक्ष के साथ ही तृणमूल के भीतर भी पार्थ से मंत्री पद छीनने का दबाव  पड़ने की वजह से आज हो रही मंत्रीमंडल की बैठक में शायद वे हटा दिए जावेंगे लेकिन इस देरी से ममता की काफ़ी किरकिरी हो गयी | दरअसल  अपने सबसे ताकतवर और नजदीकी मंत्री को गिरफ्तार होने के बाद तत्काल मंत्री पद से हटाने से वे क्यों कतराती रहीं इसका जवाब उन्हें देना चाहिए |  इस बीच गत दिवस ईडी ने फिर अर्पिता को घेरा और इस बार भी उसे उनके घर से लगभग 28 करोड़ नगद और बड़ी मात्रा में जेवरात मिले | इस स्थिति में ममता और तृणमूल कांग्रेस दोनों के लिए मुंह छिपाने लायक जगह नहीं बची |  जानकारी मिली है कि अर्पिता ने गत दिवस ईडी को बताया  कि पार्थ उनके निवास को मिनी बैंक की तरह इस्तेमाल करते थे और उनके आदमी पैसा लाकर रखते थे | अर्पिता यदि उक्त कथन पर कायम रहीं तब पत्रकारों के सामने स्तीफा क्यों दूं जैसी अकड़ दिखाने वाले पार्थ का घिरना तय है | लेकिन इस बात पर आश्चर्य होता  है कि ममता जैसी अनुभवी और  तेजतर्रार मुख्यमंत्री का दाहिना हाथ  कहा जाने वाला मंत्री इतना बड़ा घोटाला करता रहा और वे बेखबर बने रहीं | इस घोटाले की जानकारी उन्हें थी या नहीं और क्या इस काण्ड में  उनकी लिप्तता है अथवा नहीं , इस प्रश्न का उत्तर भी देर - सवेर मिल ही जावेगा | लेकिन इन छापों में मिली अकूत नगदी के बाद  सुश्री बैनर्जी को ये तो स्वीकार करना ही पड़ेगा कि उनके राज में शिक्षकों की भर्ती  में जबरदस्त भ्रष्टाचार किया गया और अर्पिता के घर से बरामद राशि पार्थ की ही है | जिस दिन राष्ट्रपति चुनाव के नतीजे आ रहे थे उसी दिन ममता ने कोलकाता में एक बड़ी रैली में आरोप लगाया कि केंद्र सरकार अपनी जांच एजेंसियों के जरिये विपक्ष की आवाज दबा रही है | लेकिन जब उन्हें ज्ञात हुआ कि अर्पिता के यहाँ मिला नोटों का जखीरा इतना बड़ा है तब उन्होंने केंद्र सरकार के  अलावा समाचार माध्यमों के बारे में वैसी ही टिप्पणी करनी शुरू कर दी जो जल्द सेवा निवृत्त होने जा रहे देश के प्रधान न्यायाधीश आजकल कह रहे हैं | कुल मिलाकर ममता के सियासी जीवन का ये दौर बेहद मुश्किलों से भरा हुआ है | वे समझ चुकी हैं कि अर्पिता के घर से मिले नोटों के बण्डल दरअसल पार्थ द्वारा की गई काली कमाई ही है | और इसीलिये वे ईडी पर दबाव बनाने की रणनीति पर चलते हुए पार्थ के बारे में ज्यादा बोलने से बच रही हैं  | हालाँकि आज उनसे मंत्री पद छीने जाने की सम्भावना है लेकिन मंत्री की कुर्सी जाते ही अर्पिता की तरह अगर पार्थ ने इस कांड में ममता को भी घसीटने का साहस किया तब तृणमूल के भीतर  भूचाल आ सकता है  |  ममता के भतीजे अभिषेक और उनकी पत्नी भी कोयला घोटाले में फंसी हैं | अपने विरोधी पर हावी हो जाना ममता का ब्रह्मास्त्र है लेकिन शिक्षक भर्ती घोटाले  पर पड़ा पर्दा हट जाने के कारण उनकी छवि तार – तार हुई है | इसे संयोग ही कहेंगे कि जिस तरह महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री रहते हुए उद्धव ठाकरे प्रधानमंत्री और केंद्र सरकर पर ज़हर बुझे तीर छोड़ा करते थे वैसी ही हेकड़ी ममता बैनर्जी भी दिखाती रहीं  | पिछले विधानसभा चुनाव की जीत के बाद तो उन्हें जागते हुए भी प्रधानमंत्री बनने के सपने आने लगे थे किन्तु पार्थ और अर्पिता पर ईडी का कहर जिस तरह टूटा उसके बाद से ममता की राह में नए – नए कांटे बिछते जायेंगे | सबसे बड़ी बात ये हो रही है कि भ्रष्टाचार के मुद्दे पर जनमानस में ममता की  छवि को बहुत बट्टा लगा है | सबसे बड़ी बात ये होगी कि  मोदी विरोधी विपक्ष का  संभावित गठबंधन जन्म लेने के पहले ही दम तोड़ बैठेगा | ताजा खबर के नुसार 2024 के लोकसभा चुनाव हेतु विपक्ष का गठबंधन बनाने की जो कोशिशें हो रही हैं उसका नेतृत्व बजाय उनके तेलंगाना के मुख्यमंत्री के.सी. राव को सौंपा जाएगा |

- रवीन्द्र वाजपेयी


Wednesday 27 July 2022

ईडी जाँच पर कांग्रेस का दोहरा रवैया



लोकसभा में कांग्रेस दल के नेता अधीर रंजन चौधरी ने  ईडी द्वारा की गई  छापेमारी के बाद गिरफ्तार हुए प. बंगाल के मंत्री पार्थ चटर्जी को तत्काल मंत्री पद से हटाने की मांग की है | राज्य की मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी को भेजे एक पत्र में उन्होंने लिखा है कि शिक्षक भर्ती घोटाले के समय चूंकि श्री चटर्जी ही शिक्षा मंत्री थे इसलिए जाँच पूरी होने तक उनका मंत्री रहना गलत होगा | इस संदर्भ में उल्लेखनीय है बीते सप्ताह ईडी ने श्री  चटर्जी  की करीबी कही जा रही अर्पिता मुख़र्जी के यहाँ से 20 करोड़  रूपये की नगदी बरामद करने के बाद दोनों को गिरफ्तार किया तो प.बंगाल की राजनीति में उबाल आ गया | इस मामले का सबसे रोचक पक्ष ये है कि  शिक्षक भर्ती घोटाला लम्बे समय से चर्चाओं में होने के बावजूद  कांग्रेस अब तक  इसे लेकर खामोश रही | इसके पीछे की कहानी ये है कि 2021 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस और वामपंथी एक साथ मिलकर ममता के विरुद्ध मैदान में उतरे लेकिन जनता ने उन्हें विपक्ष के लायक भी नहीं समझा जिसके कारण  आजादी के बाद पहली मर्तबा प.बंगाल की विधानसभा में कांग्रेस और वामपंथी दलों का एक भी विधायक नहीं है | उसके बाद कुछ समय तक तो   कांग्रेस ममता सरकार पर आक्रामक रही किन्तु  पार्टी हाईकमान ने 2024 के लोकसभा चुनाव और उसके पहले होने वाले राष्ट्रपति तथा उपराष्ट्रपति के चुनाव के मद्देनजर तृणमूल कांग्रेस पर हमले न करने के निर्देश राज्य इकाई को दिये | जिसके बाद ममता सरकार के खिलाफ कांग्रेसी मुंह बंद किये बैठे थे | हालाँकि सुश्री बैनर्जी ने तीसरी बार सत्ता में आने के बाद खुद को आगामी लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी का मुकाबला करने में सक्षम बताकर विपक्षी एकता की  मुहिम चलाते हुए कांग्रेस और गांधी परिवार को उपेक्षित किया लेकिन इसके बाद भी उनके विरुद्ध बोलने से कांग्रेस परहेज करती रही | राष्ट्रपति के चुनाव  तक तो ये चुप्पी बनी रही | यहाँ तक कि ममता की पार्टी तृणमूल कांग्रेस के उपाध्यक्ष यशवंत सिन्हा को विपक्ष के साझा उम्मीदवार के तौर पर भी कांग्रेस ने स्वीकार किया | लेकिन जब उपराष्ट्रपति पद के लिए कांग्रेस की वरिष्ट नेत्री मारग्रेट अल्वा को  एनडीए उम्मीदवार जगदीप धनखड़ के मुकाबाले संयुक्त विपक्ष का प्रत्याशी बनाकर उतारा गया तब बड़े ही रहस्यमय तरीके से ममता ने इस चुनाव से दूर रहने का ऐलान करते हुए ये बहाना बना दिया कि कांग्रेस ने इस बारे में उनसे सलाह नहीं की थी | उनके इस  फैसले पर इसलिए आश्चर्य हुआ क्योंकि प. बंगाल के राज्यपाल रहते हुए श्री धनखड़ के साथ ममता की जरा सी भी नहीं बनी | इस अप्रत्याशित फैसले ने कांग्रेस को रुष्ट कर दिया और उसी के बाद प. बंगाल में  ममता के विरुद्ध आलोचनात्मक बयानबाजी पर लगाई गयी रोक वापिस ले ली गयी जिसका तात्कालिक असर श्री चौध्ररी द्वारा मुख्यमंत्री को पत्र लिखकर पार्थ चटर्जी को मंत्रीपद से हटाने की मांग के रूप में सामने आया | लेकिन इस कदम से कांग्रेस का दोहरा रवैया भी उजागर हो गया क्योंकि एक तरफ तो दिल्ली में वह ईडी द्वारा पार्टी की कार्यकारी अध्यक्ष सोनिया गांधी से नेशनल हेराल्ड मामले में की जा रही पूछताछ पर धरना – प्रदर्शन कर  रही है वहीं  दूसरी तरफ कोलकाता में ममता सरकार के एक मंत्री के ईडी के शिकंजे में फंस जाने पर उन्हें मंत्री पद से हटाने का दबाव मुख्यमंत्री पर बना रही है | और वह भी इसलिए क्योंकि तृणमूल  ने उपराष्ट्रपति के चुनाव में श्रीमती अल्वा का समर्थन करने से मना कर दिया | इससे ये साफ़ हो गया है कि ममता सरकार के एक मंत्री का भ्रष्टाचार उजागर होने पर कांग्रेस का उसके विरोध में खड़ा हो जाना राजनीतिक सौदेबाजी का नतीजा है न कि ईमानदारी का | कांग्रेस के इस रवैये से ईडी द्वारा श्रीमती गांधी और राहुल से की जा रही पूछताछ के विरोध का औचित्य ही समाप्त हो जाता है | वैसे भी उन दोनों से केवल पूछताछ ही तो हो रही है जो जांच एजेंसियां किसी से भी कर सकती हैं | बेहतर होता दिल्ली में सड़कों पर हंगामा करने के बजाय कांग्रेस जांच पूरी होने की प्रतीक्षा करती | आखिरकार गांधी परिवार भी तो इस देश के नागरिकों में से ही है | यदि वह खुद को निर्दोष मानता है तब किसी भी जांच एजेंसी द्वारा तलब किये जाने पर उसे और कांग्रेस पार्टी को इतनी तकलीफ क्यों हो रही है ये समझ  से परे है | उसकी ये दोहरी सोच अधीर रंजन द्वारा ममता को लिखे पत्र के साथ ही दिल्ली में श्रीमती गांधी से ईडी की पूछताछ के विरोध में किये जा रहे प्रदर्शन से उजागर हो रही है | राजनीतिक उद्देश्यों से तृणमूल के गलत कार्यों पर चुप्पी साध लेना और पटरी न बैठने की  स्थिति में विरोध का झंडा उठा लेना कांग्रेस नेतृत्व की निर्णय क्षमता और नीतिगत भटकाव  का उदाहरण है | कांग्रेस के पास इस बात का कोई जवाब नहीं है कि यदि  ममता उपराष्ट्रपति चुनाव में श्रीमती अल्वा का समर्थन कर देतीं तब भी क्या वह पार्थ चटर्जी को मंत्री पद से हटाने की मांग करती ? दरअसल उसका यही विरोधाभासी रवैया उसकी वर्तमान दुरावस्था का कारण है | 

- रवीन्द्र वाजपेयी


Tuesday 26 July 2022

गडकरी के काम की तरह ही उनकी स्पष्टवादिता भी प्रशंसनीय है



केंद्र सरकार में राजनीतिक तौर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अलावा गृहमंत्री अमित शाह को सबसे ताकतवर माना जाता है किन्तु जनमानस पर केन्द्रीय मंत्रीमंडल के सदस्यों के प्रभाव की बात करें तो भूतल परिवहन एवं राजमार्ग मंत्री नितिन गडकरी सर्वाधिक लोकप्रिय और प्रशंसित हैं | 2014 से ही वे इस विभाग का कार्य देख रहे हैं और उनके विरोधी भी इस बात को बेझिझक स्वीकार करते हैं कि देश में ग्रामीण सड़कें , राजमार्ग और  एक्सप्रेस हाइवे जैसे  वैश्विक स्तर के जो विकास कार्य तेजी से चलते हुए समय सीमा से भी पहले पूरे हो रहे हैं उनका श्रेय श्री गडकरी को ही है | महाराष्ट्र में लोकनिर्माण विभाग के मंत्री रहते हुए उन्होंने मुम्बई – पुणे एक्सप्रेस वे का काम जिस गुणवत्ता से समयसीमा के भीतर और वह भी अनुमानित लागत से कम पर पूरा करवाया उसकी राष्ट्रीय स्तर पर प्रशंसा हुई | मुम्बई में अनेक फ्लाय ओवर , वरली सी लिंक और ऐसे ही अनेक कार्य उनके द्वारा जिस तेजी  से करवाए गये उसके कारण अति भ्रष्ट समझे जाने लोकनिर्माण विभाग को एक नई छवि मिली | उनके उस करतब से प्रभावित होकर  तत्कालीन प्रधानमंत्री स्व. अटलबिहारी वाजपेयी ने उन्हें राष्ट्रीय राजमार्गों के साथ ही ग्रामीण सड़क परियोजना का काम सौंपा | श्री गडकरी ने बड़ी लगन से अटल जी के उस क्रांतिकारी सुझाव पर काम भी शुरू कर दिया | देखते ही देखते स्वर्णिम चतुर्भुज नामक राष्ट्रीय राजमार्ग परियोजना शुरू हुई और उसी के साथ ही प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क योजना के काम को भी गति प्रदान की गई | 2004 में वाजपेयी सरकार चली जाने के बाद उन कार्यों की गति मंद पड़ गई और तब लोगों  को सरकार में श्री गडकरी का अभाव महसूस हुआ | ये कहने वाले अनगिनत मिल जायंगे कि यदि अटल जी पांच साल और सत्ता में रहते तो सड़कों के विकास का महायज्ञ अब तक पूरा हो चुका होता | 2014 में मोदी सरकार बनी तो उम्मीद के अनुसार गडकरी जी को ही उनका अधूरा काम पूरा करने का जिम्मा सौंपा गया और बीते आठ सालों के भीतर उन्होंने  जो कर दिखाया वह उनकी कार्यकुशलता का साक्षात प्रमाण है | अपने लक्ष्य पर सदैव नजर रखना उनकी विशेषता है और सबसे बड़ी बात जो श्री गडकरी की पसंद की जाती है वह हैं उनकी स्पष्टवादिता | न सिर्फ अपने विभाग अपितु राष्ट्रीय और राजनीतिक विषयों पर भी वे जिस साफगोई से अपने विचार रखते हैं वह गुण आज के अधिकतर राजनेताओं में देखने नहीं मिलता | कुछ समय पहले जयपुर की विधानसभा में आयोजित एक कार्यक्रम में उनका ये कहना काफी चर्चा में आया था कि राजनीति में कार्यरत सभी लोग असंतुष्ट हैं | जिसे मंत्री पद नहीं मिलता वह उसकी वजह से दुखी है और मंत्री बन जाने के बाद  मनमाफिक विभाग न मिलने पर असंतुष्ट बना घूमता है | अच्छा विभाग वाला मुख्यमंत्री न बन पाने से दुखी रहता है और मुख्यमंत्री को इस बात की चिंता खाये जाती है कि न जाने कब कुर्सी छिन जाये | ऐसा कहते हुए उन्होंने भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष रहने के दौरान पार्टी के नेताओं और कार्यकर्ताओं से मिले अनुभव साझा करने में भी संकोच नहीं किया | बीते रविवार एक निजी कार्यक्रम में बोलते  हुए उनका ये कहना राजनीतिक जगत में चर्चा का विषय बन गया है कि कई बार उनको लगता है कि मैं राजनीति कब छोड़ दूं , कब नहीं | अपनी बात स्पष्ट करते हुए वे बोले कि जीवन में राजनीति के अलावा भी करने वाली कई चीजें हैं | उन्होंने कहा कि राजनीति समाज और उसके विकास के लिए है लेकिन आज यह 100 फीसदी सत्ता के लिए होकर रह गयी है | हो सकता है उनके इस भाषण का राजनीतिक अर्थ सरकार के साथ तालमेल न होने के रूप में निकाला जाए | उद्धव ठाकरे की शिवसेना के मुखपत्र सामना ने तो  इस बयान के पीछे  महाराष्ट्र की सरकार को गिराये जाने के भाजपाई तौर – तरीकों के प्रति श्री गडकरी की नाराजगी बताई है | सामना में ये भी लिखा गया कि उनको दोबारा  राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने से रोकने के लिए उनके यहाँ छापे डलवाए गए थे | यदि वे दूसरी बार  भाजपा अध्यक्ष बने होते तो पार्टी कहीं बेहतर रहती | कुछ समय पहले  श्री गडकरी का ये बयान भी सुर्ख़ियों में आया था कि कांग्रेस को मजबूत होना चाहिए क्योंकि उसके कमजोर होने से क्षेत्रीय दलों का ताकतवर होना देश के लिये नुकसानदेह है | उनका ऐसा कहना प्रधानमंत्री के कांग्रेस मुक्त भारत के नारे के सर्वथा विपरीत है | राजनीति छोड़ने संबंधी उनके ताजा भाषण पर सोशल मीडिया में भी खूब टिप्पणियाँ की जा रही हैं | लेकिन उन्होंने जो कहा उसके सकारात्मक पहलू को देखा जाना चाहिए | राजनीति के सौ फीसदी सत्ता केन्द्रित होने की बात यदि केंद्र सरकार का ऐसा मंत्री कहे जिसकी पूरे  देश तो क्या दुनिया भर में  तारीफ होती हो तो ये वाकई साहस का काम है | ये बात भी जगजाहिर है कि वे रास्वसंघ के भी बेहद निकट हैं | खुद को पार्टी का पोस्टर बॉय कहने वाले गडकरी जी पहले भी ये कहते आये हैं कि राजनीति में पैसा कमाने के लिए आने की सोच गलत है और  व्यक्ति को अपनी रोजी - रोटी की व्यवस्था करने के बाद ही राजनीति का रास्ता चुनना चाहिए अन्यथा वह पथभ्रष्ट हो जाएगा | ऐसे में उनका संदर्भित हालिया भाषण उनकी स्पष्टवादिता का एक और उदाहरण लगता है | उन्होंने कभी भी अपने काम के प्रति अरुचि या असंतोष व्यक्त नहीं किया | सही बात तो ये है कि सत्ता के उच्च आसन पर बैठकर भी वे खुलकर बोलने का साहस रखते हैं | जयपुर वाले कार्यक्रम में उनका ये कहना राजनीति में दिन रात परेशान रहने वालों के लिए मार्गदर्शक था कि जो नहीं मिला उसका रोना रोने के बजाय जो मिल गया उसका आनंद लेने का प्रयास करें तो तनावमुक्त जीवन जिया जा सकता है | उनके बयानों का  राजनीतिक गुणा भाग लगाने की बजाय उनमें समाहित ज्ञान को ग्रहण किया जाए तो ज्यादा अच्छा होगा | सत्ता में  बैठा मंत्री यदि राजनीति को शत प्रतिशत  सत्ता केन्द्रित  बता रहा है तो उसकी स्पष्टवादिता की प्रशंसा होनी चाहिए |

-रवीन्द्र वाजपेयी

Monday 25 July 2022

द्रौपदी मुर्मू : सेवा और समर्पण की राह पर चलकर शून्य से शिखर तक का सफर



राष्ट्रपति के पद को किसी दल ,  जाति , समुदाय और धर्म के दायरे में कैद किया जाना उसकी हैसियत को कमतर करना है किन्तु आज देश की 15 वीं राष्ट्रपति श्रीमती द्रौपदी मुर्मू के  सर्वोच्च संवैधानिक पद पर आसीन होने से आजादी के अमृत महोत्सव की सार्थकता और बढ़ गयी है | हमारे संविधान की सबसे बड़ी विशेषता ये है कि उसे हम भारत के लोग जैसी विराट स्वीकृति प्राप्त हुई | अन्यथा अनेक लोकतान्त्रिक देशों में संविधान भी जनता पर जबरिया लाद दिया जाता है | 75 साल पूर्व हमारे ही साथ आजाद हुए पाकिस्तान में सत्ता पलट के बाद संविधान के मूल स्वरूप को पूरी तरह नष्ट – भ्रष्ट कर दिया गया जबकि हमारे देश में विभिन्न विचारधाराओं की सरकारें बनने के बावजूद संविधान की आत्मा अक्षुण्ण बनी हुई है  | ऐसा नहीं है कि सत्ता में आये सभी लोगों ने आम जनता को चरम संतुष्टि दी हो | समस्याओं का सैलाब भी आता – जाता रहा | पराजय और विजय दोनों देश ने देखी  और  खाद्यान्न संकट  भी भोगा | आर्थिक संकट का वह दौर  भी आया जब देश का  स्वर्ण भंडार गिरवी रखने की नौबत तक आ गई | लोकतान्त्रिक ढांचे को नष्ट करने का पाप भी 1975 में लगाये गए आपातकाल के रूप में देखने मिला | लेकिन जैसा नजारा हाल ही में पड़ोसी श्रीलंका में दिखाई दिया वैसा भारत में नहीं हुआ तो उसका सबसे बड़ा कारण लोकतान्त्रिक संस्कार ही हैं जो हमारी उस सनातन परम्परा का प्रतीक हैं जिसमें भगवान स्वरूप राजा पर एक साधारण नागरिक भी उंगली उठा सकता था | बीते 75 सालों के दौरान पाकिस्तान , अफगानिस्तान , नेपाल , म्यांमार ( बर्मा ) , श्रीलंका और 1971 में जन्मे बांग्ला देश में राजसत्ता बदलने के लिए हिंसात्मक विद्रोह और गृहयुद्ध जैसी परिस्थितियां देखने मिलीं | लेकिन भारत में सत्ता जब भी बदली तो जनता ने क्योंकि हमारी शास्त्र परम्परा में जनता को जनार्दन कहा गया है | उस दृष्टि से श्रीमती मुर्मू का  देश का प्रथम नागरिक बनना उन पश्चिमी देशों के लिए एक सन्देश है जो खुद को प्रगतिशील और आधुनिक मानते हुए हमें हेय दृष्टि से देखते हैं | स्वाधीनता का अमृत महोत्सव कहने को तो एक सरकारी आयोजन है लेकिन इसका महत्व इस मायने में भी है कि आजादी की लड़ाई में शामिल हमारे पूर्वजों और उनकी गौरवगाथा सुनकर बड़ी हुई पीढी धीरे –  धीरे लुप्त होने के कगार पर है | श्रीमती मुर्मू के अलावा प्रधानमंत्री  नरेंद्र मोदी सहित देश और प्रदेश की सत्ता में बैठे ज्यादातर चेहरे स्वाधीन भारत में जन्मे हैं | उस दृष्टि से यह अमृत महोत्सव पीढ़ीगत परिवर्तन का प्रतीक बन गया है | दुर्भाग्य से राजनीतिक स्वार्थवश कुछ लोगों ने समाज को उस जाति प्रथा के जाल में फंसाने का षडयंत्र रचा जिसकी वजह से सामाजिक एकता के  लिए खतरा उत्पन्न होने लगा |  बीते तीन दशक की राजनीति जाति के नाम पर समाज को बांटने पर केन्द्रित रही | जाति मिटाने का नारा लगाने वालों ने अपनी जाति को ताकतवर बनाने के लिए समाज का मसीहा बनने का स्वांग रचते हुए सामाजिक समरसता को विद्वेष में बदलकर रख दिया | हालाँकि ऐसा करने वाले इस बात को जानते – समझते थे कि इन्हीं कारणों से देश को सैकड़ों वर्ष तक गुलाम रहना पड़ा किन्तु निजी स्वार्थवश उन गलतियों को दोहराने की मूर्खता की जाती रही जिसकी वजह से पंक्ति के अंतिम छोर पर खड़े लोग तो वहीं खड़े रह गये और उनके रहनुमा बने शातिर दिमाग वाले राजमहल में जा बैठे | लेकिन इसे शुभ संकेत कहना गलत न होगा कि देश की राजनीति जाति की संकीर्ण सोच से ऊपर उठकर अब समाज के उस वर्ग को प्रतिष्ठित करने की दिशा में आगे बढ़ रही है जिसे आश्वासनों के झुनझुने पकड़ाकर बहलाया तो बहुत गया लेकिन अधिकारों में हिस्सेदारी देते समय बेईमानी की गई | इसका लाभ उठाकर राष्ट्रविरोधी ताकतें उनके मन में भारत की संस्कृति और सामाजिक व्यवस्था के प्रति घृणा के बीज बोने में काफी हद तक कामयाब हो गईं | देश के जनजाति बहुल क्षेत्रों के निवासियों में व्यवस्था के प्रति विद्रोह की भावना प्रसारित करते हुए उन्हें अलगाववाद के रास्ते  पर जाने के लिए प्रेरित और प्रोत्साहित करने का षडयंत्र अंतर्राष्ट्रीय सहयोग से चलाया जाता रहा है | उसका ही परिणाम लोभ – लालचवश धर्मांतरण और डरा – धमकाकर नक्सलवाद के फैलाव के रूप में सामने आया  | उस दृष्टि से श्रीमती मुर्मू के राष्ट्रपति बनने से समाज के उस वर्ग में एक विश्वास जागा है कि बिना किसी हिंसा और संघर्ष के उन्हें मुख्यधारा में सर्वोच्च पद और सम्मान प्राप्त हो सकता  है | सबसे बड़ी बात ये है राष्ट्रपति बनने से पहले भी वे शासन और प्रशासन का हिस्सा रहने के अलावा सामाजिक सरोकारों से जुडी रहीं | यद्यपि इसमें दो राय नहीं हैं कि वे भाजपा के माध्यम से राजनीति करते हुए देश के सर्वोच्च संवैधानिक पद तक पहुँची हैं जिसमें पार्टी के वर्तमान नेतृत्व की भूमिका है लेकिन ये मानना होगा कि श्रीमती मुर्मू को जिस प्रकार राजनीतिक मतभेदों से ऊपर उठकर समर्थन प्राप्त हुआ उससे उनके चयन  का औचित्य साबित हो गया | यहाँ तक कि उनके प्रतिद्वंदी रहे यशवंत सिन्हा को राष्ट्रपति पद हेतु विपक्ष का  उम्मेदवार बनवाने वाली ममता बैनर्जी तक ने माना कि भाजपा नेतृत्व यदि पहले बता देता तब वे भी श्रीमती मुर्मू का समर्थन करतीं | ये बात भी देखने में आई कि उनका विरोध करने वाली पार्टियों के अनेक सांसदों और विधायकों ने भी उन्हें मत देकर उनकी विजय में योगदान  दिया | हिन्दुओं और सवर्ण जातियों की राजनीति करने के आरोप से घिरी रहने वाली भाजपा ने जहां  स्व. अटल बिहारी वाजपेयी के शासनकाल में प्रो. एपीजे कलाम को राष्ट्रपति बनवाकर एक  मुसलमान को संवैधानिक प्रमुख बनवाया जिसका चयन  योग्यता के आधार पर किया गया न कि अल्पसंख्यक तुष्टीकरण के लिए | इसी तरह नरेंद्र मोदी के रूप में जब भाजपा का दूसरा प्रधानमंत्री बना तो उस दौरान पहले दलित वर्ग के एक सुशिक्षित , सुशील और सुलझे हुए रामनाथ कोविंद को राष्ट्रपति भवन में प्रतिष्ठित  किया गया और उनके बाद द्रौपदी मुर्मू के रूप में अनु. जनजाति  की ऐसी महिला को  संवैधानिक प्रमुख बनवाया गया जिसका उत्थान उसके अपने पुरुषार्थ से हुआ और जिसने सार्वजनिक जीवन में शून्य से शिखर तक का सफर सेवा और समर्पण से तय किया | आज जिस शालीनता और गरिमामय तरीके से श्रीमती मुर्मू ने पदभार ग्रहण किया उससे भारतीय लोकतंत्र की छवि और उज्ज्वल हुई है | सबसे बड़ी बात ये है कि उनके निर्वाचन से देश के उन हिस्सों में  लोकतंत्र रूपी  अमृत की बूँदें बिखरी हैं जो आश्वासनों के भ्रमजाल में अब तक छले जाते रहे |

- रवीन्द्र वाजपेयी 

Saturday 23 July 2022

बजाय भाजपा को घेरने के भ्रष्टाचार के चक्रव्यूह में फंस गया विपक्ष



 राष्ट्रपति चुनाव में विपक्षी एकता का छिन्न – भिन्न होना चर्चा का विषय बन गया है | उसके  संयुक्त प्रत्याशी यशवंत सिन्हा के नामांकन में साथ रहने वाले अनेक दलों ने बीच रास्ते उनका साथ छोड़कर एनडीए उम्मीदवार द्रौपदी मुर्मू के समर्थन का ऐलान कर दिया | लेकिन हद तो तब हो गयी जब श्री  सिन्हा का समर्थन कर  रही पार्टियों में भी फूट पड़ गयी जिसके फलस्वरूप उनके अनेक विधायकों और सांसदों ने  श्रीमती मुर्मू को मत दिया | इस चुनाव में पार्टी का व्हिप नहीं जारी नहीं होने से  दलबदल कानून लागू नहीं होता | लेकिन इससे एक बात तो साबित हो गयी कि विपक्षी पार्टियों में आपसी तालमेल के अभाव के साथ ही उनकी अपनी एकजुटता भी संदेहास्पद है | खैर , राष्ट्रपति चुनाव का अध्याय तो खत्म हो गया लेकिन उपराष्ट्रपति के चुनाव में एनडीए की तरफ से मैदान में उतरे जगदीप धनखड़ का मुकाबला करने विपक्ष द्वारा खड़ी की गईं मार्गरेट अल्वा को भी पूरे विपक्ष का समर्थन मिलना  मुश्किल है | इसका पहला संकेत तृणमूल कांग्रेस ने इस चुनाव का बहिष्कार करने के नाम पर दिया | पार्टी के संसदीय दल की बैठक के बाद ये बताया गया कि चूंकि श्रीमती अल्वा  के नाम पर  तृणमूल से सलाह नहीं ले गयी इसलिए वह  इस चुनाव से खुद को दूर रखेगी | हालाँकि प. बंगाल के राज्यपाल रहते हुए श्री धनखड़ और ममता बैनर्जी के सम्बन्ध बेहद खराब रहे और ऐसे में ये माना जा रहा था कि वे श्रीमती अल्वा  को खुला समर्थन देंगी । लेकिन उन्होंने बहिष्कार का रास्ता चुना | इस पर कांग्रेस और वामपंथी दलों ने ममता पर तीखे हमले भी किये | गत दिवस तृणमूल सरकार के एक मंत्री की करीबी कही जाने वाले महिला के यहाँ ईडी के छापे में 20 करोड़ की नगदी पाए जाने के बाद ममता सरकार पर उंगलियाँ उठने लगी हैं | महाराष्ट्र में पिछली उद्धव ठाकरे  सरकार के दो वरिष्ट मंत्री अभी तक जेल में हैं | कांग्रेस की कार्यकारी  अध्यक्ष सोनिया गांधी से भी नेशनल हेराल्ड मामले में ईडी पूछ्ताछ कर रही है | दिल्ली सरकार के एक मंत्री जेल में हैं , वहीं आम आदमी पार्टी की पंजाब सरकार के भी एक मंत्री को जेल जाना पड़ा | दिल्ली में नई आबकारी नीति लागू किये जाने के मामले में नियमों का उल्लंघन किये जाने का मामला सीबीआई को सौंपा जा रहा है जो इस विभाग के मंत्री मनीष सिसौदिया से पूछ्ताछ करेगी | इन सब प्रकरणों की वजह से भी विपक्षी एकता प्रभावित हो रही हो | मसलन तृणमूल कांग्रेस  सरकार पर कांग्रेस और वामपंथी दल हमलावर हैं | वहीं आम आदमी पार्टी और कांग्रेस में छत्तीस का आंकड़ा होने से दोनों एक दूसरे का बचाव करने के बजाय हमला करने का एक भी अवसर नहीं छोड़ते | दिल्ली में जहाँ कांग्रेस श्रीमती गांधी की ईडी में हो रही पेशी के विरुद्ध आंदोलनरत है वहीं आम आदमी पार्टी अपने नेताओं की जांच के खिलाफ मोदी सरकार के विरुद्ध हल्ला मचा रही है | हालांकि सारे विपक्षी दल इस बात को लेकर तो एकमत हैं कि मोदी सरकार ईडी और सीबीआई को हथियार बनाकर विपक्ष को डराने के साथ ही उसकी प्रदेश सरकारों को अस्थिर करने पर आमादा है | लेकिन उसके विरोध में संयुक्त मुहिम चलाने पर विपक्षी दलों में आम सहमति नहीं है | जबकि कांग्रेस , एनसीपी , तृणमूल और आम आदमी पार्टी सभी पर एक जैसा संकट है | तीन दिन पहले कोलकाता में आयोजित विशाल रैली में ममता ने केंद्र सरकार पर आरोप लगाया था कि वह महाराष्ट्र के बाद उनकी सरकार गिराने की योजना बना रही है |  अगले दिन ही तृणमूल ने उपराष्ट्रपति चुनाव से दूर रहने का ऐलान किया तो सियासत के जानकार बोलने लगे कि परदे के पीछे तृणमूल और भाजपा के बीच सुलह हो गई है । परन्तु गत दिवस ममता सरकार के मंत्री पार्थ चटर्जी और उनकी करीबी बताई जा रही अर्पिता मुखर्जी नामक महिला के यहाँ डाले गए छापे में 20 करोड़ रु. के नोट पकड़े गये  | जिनके बारे में कहा जा रहा है कि ये शिक्षक भर्ती घोटाले में मंत्री श्री चटर्जी द्वारा किये गए भ्रष्टाचार से अर्जित धन है | नोटों के बण्डल शिक्षा विभाग के सरकारी लिफाफों में मिले | आज श्री चटर्जी गिरफ्तार कर लिए गए वहीं अर्पिता भी हिरासत में हैं | एक और मंत्री सहित अनेक अधिकारियों के यहाँ छापे की कार्रवाई अभी तक चल रही है | इसके बाद भाजपा ने ममता पर जोरदार हमला बोल दिया है | जाहिर है कांग्रेस और वामपंथी भी चुप नहीं रहेंगे | इस प्रकार भ्रष्टाचार के चक्रव्यूह में फंसी विपक्षी पार्टियाँ चूंकि एक दूसरे का बचाव करने में असमर्थ हैं इसलिए उनकी एकता भी अधर में हैं | दिल्ली में आम आदमी पार्टी और कांग्रेस एक दूसरे पर हमलावर हैं , वहीं महाराष्ट्र में शरद पवार समर्थक मंत्रियों को उद्धव ठाकरे जेल जाने से  बचा नहीं सके | विपक्षी दलों का मोदी सरकार पर ईडी के दुरूपयोग संबंधी आरोप भी धीरे - धीरे अपनी धार खोता जा रहा है क्योंकि  श्रीमती गांधी और उनके बेटे राहुल पर नेशनल हेराल्ड संबंधी पूछताछ अदालत के कहने पर ही हो रही है | वहीं उद्धव सरकार में मंत्री रहते हुए जेल गए अनिल देशमुख और नवाब मलिक की जमानत अर्जी न्यायालय द्वारा रद्द की जा रही है | ऐसा ही दिल्ली सरकार के मंत्री सत्येन्द्र जैन के साथ है जिन्हें अदालत द्वारा राहत न दिए जाने की वजह से जेल में  रहना पड़ रहा है | पंजाब में आम आदमी पार्टी के एक मंत्री को खुद मुख्यमंत्री ने जेल भिजवाया | और आज प. बंगाल में ममता बैनर्जी के खासमखास मंत्री जी और उनकी करीबी कही जा रही अर्पिता को ईडी की छापेमारी के बाद गिरफ्तार होना पड़ा | दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल भले ही  उपमुख्यमंत्री मनीष सिसौदिया के बचाव में कुछ भी कहें लेकिन शराब के कारोबार को लेकर किये गए फैसलों में भ्रष्टाचार की बू आ रही है | कुल मिलाकर देश भर में विपक्षी पार्टियाँ अव्वल तो राजनीतिक कारणों से एकजुट नहीं हो पा रहीं वहीं ईडी द्वारा फैलाये जाल में फंसने वाले नेता और उनके दल अपने बचाव में व्यस्त होने से इस बारे में सोचने का समय ही नहीं निकाल पा रहे | निश्चित रूप से मोदी सरकार ने ईडी के जरिये विपक्ष की जबर्दस्त घेराबंदी कर दी है जिसे राजनीतिक वैमनस्य और  प्रतिद्वन्दिता भी कहा जा रहा है किन्तु जिस तरह से विपक्षी नेता  भ्रष्टाचार में फंसते जा रहे हैं उनकी वजह से उनको एक – दूसरे के साथ खड़े होने में भी  बदनामी का डर सताने लगा है | कोलकाता में तृणमूल सरकार के मंत्री के फंस जाने के बाद अब विपक्षी एकता की राह में एक रूकावट और बन गई क्योंकि कांग्रेस और वामपंथी तृणमूल कांग्रेस को नहीं बख्शेंगे } यही स्थिति दिल्ली में गांधी  परिवार और आम आदमी पार्टी के बीच है | उपराष्ट्रपति के चुनाव को भूलकर विपक्ष अपनी गर्दन बचाने में जुटा हुआ है | शायद ये पहला अवसर होगा जब विपक्ष के सिर पर अपराधबोध का बोझ इतना ज्यादा हो गया कि  वह सत्ता पक्ष पर हमले करने की बजाय अपना  बचाव करने के लिये मजबूर है |

- रवीन्द्र वाजपेयी



 

Friday 22 July 2022

भीख मांगकर पेट भरने की प्रवृत्ति को निरुत्साहित करना जरूरी


सर्वोच्च न्यायालय का ये कहना निश्चित रूप से उसकी सम्वेदनशीलता का परिचायक है कि कोई भी  नागरिक भूख से न मरे और देश के हर व्यक्ति को राशन  कार्ड दिया जावे जिससे वह मुफ्त अथवा रियायती दर  पर खाद्यान्न प्राप्त कर सके | कोरोना के कारण लगाये गए लॉक डाउन के दौरान विभिन्न नगरों और महानगरों से पलायन कर अपने गाँव के लिए चल पड़े लाखों प्रवासियों की दर्दनाक हालत पर सर्वोच्च न्यायालय ने स्वतः संज्ञान लेते हुए सरकार से सवाल पूछे थे | सरकार की ओर  से ये कहे जाने पर कि केंद्र और राज्य सरकारें हरसंभव मदद कर रही हैं , अदालत ने कहा कि यदि जरूरतमंद सरकार तक नहीं आ पा रहे तब सरकार  को उसके पास जाना चाहिए | उसने खेद व्यक्त करते हुए कहा कि खाद्य सुरक्षा अधिनियम लागू होने के बावजूद किसी का भूख से मरना चिंताजनक है तथा अभी भी लोग पेट पर कपड़ा बांधकर एवं पानी पीकर  भूख मिटाने मजबूर हैं | जिस किसी के मन में लेशमात्र भी करुणा है  उसकी आँखें न्यायालय की उक्त बातें सुनकर छलछला उठेगीं | भारतीय संस्कृति में भूखे को भोजन और प्यासे को पानी देने का संस्कार घुटी में पिला दिया जाता है | आधुनिकता के बावजूद भोजन के साथ गाय की रोटी बनाने की परम्परा आज भी लाखों परिवारों में जारी है | साईं इतना दीजिये जा मे कुटुम समाय , मैं भी भूखा न रहूँ साधु न भूखा जाय , जैसा दर्शन भारत के आम आदमी के मन में गहराई तक समाया हुआ है | सुप्रसिद्ध विचारक के . एन. गोविन्दाचार्य ने एक बार कहा था कि समृद्ध कहे जाने यूरोप के अनेक देशों की आबादी से  ज्यादा लोग हमारे  देश में प्रतिदिन भंडारों में निःशुल्क भोजन करते हैं | गुरुद्वारों में तो बिना भेदभाव के लंगर की सुविधा हर किसी के लिए सुलभ है | कहने का आशय ये है कि हमारे देश में कुपोषण की समस्या तो है लेकिन भूख से मर जाने जैसी स्थिति और पानी पीकर पेट भरने सदृश बात पर आश्चर्य और अविश्वास होता है | सर्वोच्च न्यायालय का आकलन और अवलोकन पूरी तरह गलत है ये कहना तो अनुचित होगा क्योंकि इतने बड़े देश में अपवादस्वरूप इस तरह की घटना हो जाना असंभव नहीं है | लेकिन भूख से होने वाली मौत विशेष परिस्थितियों में ही होती होगी | इस बारे में उड़ीसा का  कालाहांडी क्षेत्र काफी चर्चाओं में आया था लेकिन बीते कुछ सालों में कोरोना काल  को छोड़ दें तब इस तरह की बात किसी की जानकारी में शायद ही आई होगी | यहाँ तक कि प्रवासी  श्रमिकों के पलायन के दौरान भी समाज ने अपनी उदारता का परिचय देने में देर नहीं की | शहरों में रहने वाले बेघरबार श्रमिकों और  रिक्शा चालकों जैसे लोगों को भोजन उपलब्ध करवाने का काम  बड़े पैमाने पर हुआ | इसमें कोई दो मत नहीं है कि देश में गरीबी है जिसके कारण लाखों परिवारों के सामने दोनों  समय पेट भर 🚔ने की समस्या है , पौष्टिक आहार तो बड़ी बात है | समुचित इलाज के अभाव की वजह से भी लोग जान से हाथ धो बैठते हैं | बच्चों और गर्भवती महिलाओं को पर्याप्त दूध नहीं मिल पाता | चिकित्सा सुविधा से वंचित लोग भी बहुत बड़ी संख्या में हैं | लेकिन इस सबके बाद भी यदि किसी की मौत भोजन के अभाव में होती है तो ये राष्ट्रीय शर्म का विषय है | यहाँ सवाल ये भी है कि जब 80 करोड़ लोगों को निःशुल्क और रियायती दरों पर अनाज मिल रहा है तब भुखमरी जैसे मामले सामने आना रहस्यमय है | यद्यपि ये भी सच है कि मुफ्तखोरी के साथ ही समाज की दयाशीलता ने ऐसे लोगों की भी एक जमात खड़ी कर दी है जिसमें   अजगर करे न चाकरी पंछी करने न काम , दास मलूका कह गए सबके दाता राम वाली  स्थिति में रहने की आदत पड़ जाने से बिना उद्यम किये खाने की प्रवृत्ति गहराई तक समा चुकी है | ये देखते हुए जरूरत इस बात की है कि भूखों की चिंता के साथ ही इस तरफ भी ध्यान दिया जाए कि लोगों में मेहनत करके पेट भरने का संस्कार पैदा हो | धार्मिक स्थलों पर भिक्षावृत्ति करते किसी वृद्ध , अशक्त अथवा दिव्यांग को देखकर हर किसी के मन में दयाभाव  जागता है | लेकिन  किसी हट्टे – कट्टे व्यक्ति को भोजन हेतु  पैसा मांगते देख ज्यादातर लोगों को स्वाभाविक रूप से गुस्सा आता है | विशेष  रूप से तब जब उससे कुछ काम करने के लिए कहने पर वह क्रोधित हो उठता है | ये स्थिति देश के बड़े हिस्से में दिखाई देती है | हालाँकि प्राकृतिक आपदा और सूखे के समय  पलायन करने वालों के सामने पेट भरने की समस्या आती है लेकिन जो भी व्यक्ति सामान्यतः स्वस्थ है ,  वह भूखा मर जाये ये अविश्वसनीय लगता है | एक जमाना था जब गाँव से लोग रोजगार हेतु शहर का रुख करते थे | लेकिन अब तो औसत गांवों में भी श्रमिकों की जबरदस्त मांग है | खेती करने वाले ज्यादातर लोगों की शिकायत है कि उन्हें मजदूर नहीं मिलते | कोरोना काल में जब उद्योग – व्यापार ठप पड़े हुए थे तब लाखों लोगों ने आजीविका के वैकल्पिक साधन तलाशकर उदाहरण पेश किये | सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सरकार को दिए गए निर्देश पूरी तरह जायज हैं और निश्चित रूप से सरकार को इस बारे में समुचित कदम उठाना चाहिए परन्तु ये देखना भी उतना ही जरूरी है कि बिना कुछ किये पेट भरने वाली प्रवृत्ति पर भी विराम लगे | दुनिया की सबसे बड़ी आबादी वाला देश बनने की तरफ बढ़ रहे भारत में भीख मांगकर पेट भरने की सोच को खत्म करना होगा वरना खाद्य सुरक्षा योजना के ही असुरक्षित होने का खतरा है | गरीबी को परिस्थिति मान लेना तो ठीक भी है लेकिन उसे भाग्य मानकर निठल्ले बैठ जाने वालों को प्रोत्साहित और प्रेरित करने की बहुत आवश्यकता है | 


- रवीन्द्र वाजपेयी

Thursday 21 July 2022

जीएसटी की दरों और दायरे को लेकर अनिश्चितता खत्म होनी चाहिए



बीते दिनों जीएसटी काउंसिल की  बैठक में लिए गए कुछ फैसलों की जमकर आलोचना हो रही है | आटा , दाल , चावल , बेसन , दही , लस्सी जैसे अनेक खाद्य पदार्थों पर 5 फीसदी जीएसटी लगाये जाने के फैसले को जनविरोधी माना जा रहा है | इस पर वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने स्पष्टीकरण दिया कि खुले में बेचे जाने पर उक्त चीजें कर मुक्त रहेंगीं | साथ ही ये भी बताया कि पहले से ही अनेक राज्य खाद्यान्न पर कर वसूलते आ रहे हैं | वित्त मंत्री द्वारा दी गयी सफाई के बाद भले ही विरोध के स्वर कुछ धीमे पड़े हों लेकिन सरकार की जितनी फजीहत होनी थी वह हो ही गयी | वित्त मंत्री ने ये भी कहा कि सभी फैसले राज्यों के वित्त मंत्रियों को मिलाकर बनाई गई जीएसटी काउन्सिल द्वारा सर्वसम्मति से लिये जाते हैं जिसकी वे अध्यक्ष हैं | ऐसा कहकर उन्होंने अपने साथ – साथ केंद्र सरकार का बचाव करने की कोशिश भी की जो काफी हद तक सही भी है | ये बात पूरी तरह सही है कि जीएसटी काउंसिल में शामिल  राज्यों के वित्त मंत्री जब उसकी बैठक में होते हैं तब उनका  ध्यान  जनता की जेब काटकर सरकार का खजाना भरने पर केन्द्रित रहता है | और इसीलिये किसी राज्य के वित्त मंत्री ने बैठक में लिए गए फैसलों पर नाराजगी नहीं व्यक्त की | हालाँकि उनकी पार्टी राजनीतिक नफे -  नुकसान के लिहाज से आलोचना करने से बाज नहीं आती | जीएसटी काउन्सिल के जिन ताजा फैसलों पर बवाल मचा हुआ है उन पर श्रीमती सीतारमण के स्पष्टीकरण से भले ही लोगों को संतोष  मिला हो लेकिन ये बात पूरी तरह सही है कि पांच साल से ज्यादा बीत जाने के बाद भी जीएसटी की दरें  और दायरा तय न हो पाना सही नहीं है  | बच्चों द्वारा उपयोग की जाने वाली पेन्सिल के शार्पनर पर जीएसटी लगाया जाना जहां हास्यास्पद है वहीं विद्युत शवदाह गृह के संचालन हेतु होने वाले अनुबंध को भी उसके अंतर्गत लाया जाना शर्मनाक कहा जाएगा | इसी तरह की और भी बेवकूफियां जीएसटी काउंसिल द्वारा की जा चुकी हैं जिनके लिये राज्य और केंद्र दोनों एक दूसरे पर दोषारोपण किया करते हैं किन्तु असलियत ये है कि इस मामले में दोनों बराबर के दोषी हैं | जीएसटी नामक कर प्रणाली लागू करने  का उद्देश्य बहुत ही  नेक था | इसके कारण एक तरफ तो कर चोरी पूरी तरह न सही किन्तु काफी हद  थमी है जिससे सरकार को मिलने वाले राजस्व में अच्छी – खासी वृद्धि भी हुई | हर माह की आख़िरी तारीख तक सरकार के खजाने में आये जीएसटी  संग्रह से राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की सेहत का जायजा मिल जाता है | लेकिन  सबसे बड़ी विसंगति ये है कि पांच  साल बीत जाने के बावजूद आज तक जीएसटी काउंसिल ये तय नहीं कर सकी कि किन चीजों अथवा सेवाओं पर किस दर से कर लगेगा ? हर माह होने वाली उसकी बैठक में नयी चीजें जीएसटी के दायरे में आ जाती हैं और कुछ पर दरें घटाई – बढ़ाई जाती हैं | आज तक न तो उद्योग – व्यापार जगत और न ही देश का आम उपभोक्ता ये नहीं जान सका कि जीएसटी काउंसिल चाहती क्या है , क्योंकि हर बैठक कुछ बदलाव लेकर खत्म होती है | जीएसटी की दरें और उसके अंतर्गत आने वाली वस्तुएं तथा सेवाओं पर लगाये जाने वाले करों को लेकर व्याप्त अनिश्चितता के अलावा सबसे बड़ी समस्या है इसके रिटर्न संबंधी कायदे – कानून | शुरुवाती एक - दो साल तक तो इनमें  किये  गये परिवर्तन समझ में आने वाले थे क्योंकि व्यवहारिक तौर पर आई परेशानियों के मद्देनजर व्यापार और उद्योग जगत के संगठनों से मिले सुझावों के अनुसार करों की दर और  दायरे के साथ ही रिटर्न भरने के तौर – तरीकों में संशोधन या परिवर्तन लाजमी थे | लेकिन पांच साल बाद भी जीएसटी , टेलीविजन पर प्रसारित होने वाले उन  धारावाहिकों जैसा बनकर रह गया जिसका कथानक चाहे जब बदल जाता है  | कहने का आशय ये है कि जिस कर प्रणाली को उद्योग – व्यपार के साथ ही जनता की सुविधा और सरकार के लाभ के लिए जोर - शोर से लागू किया गया था वह भूलभुलैयाँ  जैसी होकर रह गई है | यद्यपि  उसका सकारात्मक पक्ष भी काफी है | मसलन जीएसटी के लागू होने के बाद कर चोरी रुकी है | राज्यों की सीमा पर लगे नाकों में होने वाले भ्रष्टाचार पर भी लगाम लगी है | व्यापारियों को परेशान करने वाला इंस्पेक्टर राज भी दम तोड़ रहा है किन्तु जीएसटी की दरों और दायरे संबंधी अनिश्चितता और रिटर्न दाखिल करने के तरीकों में  आकस्मिक बदलाव से होने वाली परेशानी कम होने के बजाय बढ़ रही है और यही जीएसटी का नकारात्मक  पहलू  है | अब जबकि पांच वर्ष का लम्बा समय बीत चुका है तब ये मान लेना गलत नहीं है कि केंद्र और राज्य सरकारें इस कर प्रणाली की खूबियों और कमियों को अच्छी तरह समझ चुकी होंगी | ऐसे में बेहतर तो यही होगा कि जिन वस्तुओं और सेवाओं को जीएसटी के अंतर्गत लाया गया है उनकी सार्थकता की समीक्षा की जाये | लेकिन सबसे ज्यादा  आवश्यकता है जीएसटी की विभिन्न दरों को खत्म करते हुए  मात्र दो दरें 12 और 18 फीसदी रखी  जावें | ऐसा करने से आम उपभोक्ता को भी पता रहेगा कि किस वस्तु अथवा सेवा पर वह कितना जीएसटी भुगतान कर रहा है | विलासिता की परिधि वाली चीजों पर बेशक 18 फीसदी कर वसूला जा सकता है | इसी तरह छोटे बच्चों के काम आने वाली चीजों पर कर लगाने जैसी मूर्खता बंद होनी चाहिए | करों की कम दरें व्यापार और उद्योग जगत को भी रास आयेंगीं | कुल मिलाकर जीएसटी का सरलीकरण करने के साथ ही उससे जुडी प्रक्रिया को व्यवहारिक बनाये जाने की जरूरत है | केंद्र  और  राज्यों के वित्त मंत्रियों द्वारा  एक दूसरे  पर दोष मढ़ने वाली  नूरा कुश्ती बंद होनी चाहिए |  आखिर पांच साल कम नहीं होते  |

- रवीन्द्र वाजपेयी


Wednesday 20 July 2022

रुपया भले टूटे लेकिन हौसला और उम्मीद नहीं टूटना चाहिए



यूक्रेन संकट से अप्रभावित लग रहे भारत पर उसका सीधा प्रभाव रूपये की कीमत में हो रही गिरावट  के तौर पर सामने आ रहा है | डा. मनमोहन सिंह की  सरकार के समय भी जब ऐसी स्थिति बनी तब मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कटाक्ष करते हुए उसे उनकी उम्र से जोड़ा था | लेकिन फिलहाल न वे  कुछ कह रहे हैं और न ही उनकी पार्टी , सिवाय इसके कि दुनिया भर  की मुद्राएँ गिर रही हैं और उनकी तुलना में भारतीय रूपये की गिरावट अपेक्षाकृत कम है | दूसरी तरफ ये खबर भी आ रही  है कि हमारा विदेशी मुद्रा भंडार तेजी से कम हो रहा है जिसका कारण विदेशी निवेशकों द्वारा अपना पैसा भारत से निकालकर अमेरिका में रखना है। हालांकि यूरोप से भी विदेशी निवेश निकलकर अमेरिका में  केन्द्रित हो रहा है | यही वजह है कि यूरो और पाउंड जैसी ताकतवर मुद्राओं की विनिमय दर  भी अमेरिकी डालर के मुकाबले काफी गिरी है | जिसका कारण वहां ब्याज दर में की गई वृद्धि है | लेकिन भारतीय मुद्रा में गिरावट का सीधा कारण आयात और निर्यात का असंतुलन ही है | कोरोना के बाद की आर्थिक परिस्थितियों में हालाँकि पूरे विश्व की अर्थव्यवस्था गड़बड़ाई है | यद्यपि अनेक  मामलों में भारत को लाभ भी हुआ है क्योंकि कुछ चीजों के निर्यात में वृद्धि देखने मिली। लेकिन दूसरी तरफ आयात होने वाली चीजों के दाम बढ़ने से विदेशी मुद्रा भंडार पर दबाव बढ़ा | हालांकि उपभोक्ताओं की मांग बढ़ने से घरेलू औद्योगिक उत्पादन बढ़ा है | अर्थव्यवस्था को मजबूती देने वाले निर्माण व्यवसाय में तेजी आने से सीमेंट , इस्पात जैसी  चीजों की खपत संतोषजनक स्तर को छूने लगी है  जिसका प्रभाव अन्य चीजों की मांग के साथ ही श्रमिकों को मिलने वाले रोजगार के तौर पर देखने मिल रहा है | राजमार्ग , फ्लाय ओवर , पुल आदि के काम भी तेजी  से चल रहे हैं जिनसे  अर्थव्यवस्था  को गति मिल रही है | पर्यटन का क्षेत्र  भी कोरोना की दहशत से मुक्त हो चुका है | तीर्थस्थलों पर उमड़ रही भीड़ इसका  प्रमाण है | रेल गाड़ियों में प्रतीक्षा सूची की नौबत आना  दर्शाता है कि यात्रा करने वालों की संख्या बढ़ रही है | हवाई सेवा का भी  जबरदस्त विस्तार हो रहा है | ये सारे लक्षण अर्थव्यवस्था में चैतन्यता के संकेत हैं लेकिन रूपये की कीमत लगातार नीचे आते जाने से उद्योग – व्यापार जगत के साथ सरकार और रिजर्व बैंक की चिंता बढना  स्वाभाविक  है | जो खबरें आ रही हैं उनके अनुसार केन्द्रीय बैंक रूपये की गिरती कीमत से ज्यादा विदेशी मुद्रा के भण्डार में आ रही कमी से परेशान है क्योंकि हमारे देश पर भी काफी विदेशी कर्ज है जिसका भुगतान समय पर न करने से वह बढ़ता जाता है जिसके  दुष्परिणाम की कल्पना श्रीलंका की मौजूदा स्थिति देखकर की जा सकती है | चूँकि भारत का आर्थिक  ढांचा आज भी आयात आधारित है इसलिए विदेशी मुद्रा भंडार की  अहमियत बहुत ज्यादा है | भले ही बीते अनेक सालों से रूपये में विदेशी व्यापार किये जाने के दावे हो रहे हैं लेकिन भारतीय अर्थव्यवस्था के विस्तार के बावजूद रुपया आज तक वैश्विक मुद्रा बनने की स्थिति को नहीं छू सका | दूसरी तरफ उदारीकरण के कारण उपजी उपभोक्तावादी जीवनशैली की वजह से भारत विकसित देशों के लिए एक बाजार बन गया है जहाँ वे अपनी बढ़िया और घटिया सभी चीजें आसानी से बेच सकते हैं | इसका सबसे बड़ा उदाहरण चीन है | गलवान घाटी में हुए तनाव के बाद प्रधानमंत्री ने आत्मनिर्भर भारत और वोकल फॉर लोकल जैसे नारे दिए थे | उसके प्रभावस्वरुप कुछ समय तक तो चीन के सामान का आयात  कुछ कम हुआ और केंन्द्र सरकार ने  भी करारोपण के जरिये उसे घटाने के उपाय किये लेकिन तनाव कम होने के साथ ही स्थिति पूर्ववत हो गई | यही नहीं तो आयात और बढ़ गया | इसी तरह दवाइयों सहित अनेक वस्तुओं के निर्यात में वृद्धि की वजह से व्यापार में कुछ सुधार देखा  जा रहा था | लेकिन यूक्रेन और रूस  के बीच लडाई शुरू होते ही सब उलट – पुलट हो गया | शुरुवात में भारत से खाद्यान्न के निर्यात  ने जोर पकड़ा किन्तु जब ये देखने में आया कि उसका असर घरेलू बाजार में कीमतें बढ़ने के अलावा सार्वजनिक वितरण प्रणाली हेतु की जाने वाली सरकारी खरीद पर पड़ने लगा तो उसे रोक दिया गया | कच्चे तेल के साथ ही खाद्य तेल में उपयोग होने वाली चीजों मसलन सूरजमुखी के आयात में आई रुकावट ने भी भारतीय मुद्रा पर दबाव बढ़ा दिया | इस स्थिति से बचने का एकमात्र तरीका आयात में कमी और निर्यात में वृद्धि ही माना जाता है | लेकिन भारत  में पेट्रोल – डीजल की  लागातार बढ़ती खपत की वजह  से कच्चे तेल का आयात करना ही पड़ता है | हालाँकि रूस ने इस दौरान सस्ती दरों पर कच्चा तेल देकर काफी कुछ राहत दी लेकिन हमारी जरूरत कहीं ज्यादा होने से अन्य तेल उत्पादक देशों से आयात की बाध्यता बनी रही | कुल मिलाकर रूपये की विनिमय दर गिरने का एकमात्र कारण आयात और निर्यात के बीच का असंतुलन है और जब तक इसे ठीक नही किया जाता तब तक रुपये की स्थिति इसी तरह नीचे – ऊपर होती रहेगी | वैसे सस्ता रुपया निर्यातकों को रास आता है लेकिन जो लोग आयात करने बाध्य हैं उनके लिये वर्तमान स्थिति कमर तोड़ने वाली है | बेहतर हो केंद्र सरकार संसद के माध्यम से  देश के सामने वास्तविक स्थिति प्रस्तुत करे | प्रधानमंत्री चाहें तो टीवी प्रसारण के माध्यम से भी देशवासियों से मुखातिब हो सकते हैं | ऐसा करना इसलिए आवश्यक है क्योंकि श्रीलंका के घटनाक्रम के बाद भारत में भी अर्थव्यवस्था को लेकर चिंता है | बेलगाम होती महंगाई , रोजगार का संकट , खाद्यान्न भण्डार में कमी आदि के कारण आम जनता  फिक्रमंद  है | हालाँकि हमारे देश में श्रीलंका जैसे हालात बनना असम्भव है लेकिन इतना तो कहा ही जा सकता है कि विदेशी मुद्रा के भंडार में हमारी कमाई  नहीं वरन निवेशकों का धन भरा था जिसके निकलते ही रुपया गिरने लगा  | ये देखते हुए अब आत्मनिर्भर भारत के साथ स्वदेशी की भावना को तेजी से प्रसारित करने की जरूरत है | देश की जनता संकट के समय सदैव अनुशासन और त्याग के लिए तैयार रही है | यदि मौजूदा हालात में आयात कम करने की दिशा में उसका सहयोग माँगा जावे तो वह निराश नहीं करेगी | लेकिन इसके लिए उसके सामने सही स्थिति पेश की जानी चाहिए | इस बारे में सबसे बड़ी बात है उम्मीद का बना रहना | सरकार को चाहिए वह देश को इस बारे में आश्वस्त करे कि रुपया भले टूट रहा हो लेकिन हौसला और उम्मीद नहीं |

-रवीन्द्र वाजपेयी


Tuesday 19 July 2022

बूथ और यूथ की भाजपाई रणनीति कामयाब रही म.प्र में



म.प्र में त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव संपन्न होने के बाद भाजपा खेमे में काफी प्रसन्नता है | पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष विष्णु दत्त शर्मा का दावा है कि इस बार उसको अभूतपूर्व सफलता मिली | ग्राम  , जिला और जनपद पंचायत में भाजपा के सदस्य बड़ी संख्या में जीतने के कारण ज्यादातर अध्यक्ष पद भी उसके कब्जे में होंगे  |  पार्टी को उम्मीद है कि जीते हुए निर्दलीय सदस्य भी बड़ी संख्या में उसके पाले में आ जायेंगे क्योंकि कांग्रेस के साथ जाने से उनका राजनीतिक भविष्य चौपट हो जाएगा | पंचायत के बाद नगर निगम , पालिका और परिषद के जो परिणाम आये उनको भी श्री शर्मा ने बहुत ही उत्साहवर्धक बताया | हालाँकि ग्वालियर ,जबलपुर और सिंगरौली में स्थानीय कारणों से महापौर पद पार्टी के हाथ से निकल गया  लेकिन एक – दो को छोड़कर अधिकतर जगहों  पर  सदन में पार्षदों का बहुमत भाजपा के पास होने से कांग्रेस या अन्य किसी पार्टी का महापौर  पंगु होकर रह जाएगा | म.प्र में भाजपा 2003 से मात्र 15 माह छोड़कर सत्ता में है | 2018 में हालाँकि सत्ता उसके हाथ से खिसक गई थी जो ज्योतिरादित्य सिन्धिया गुट के साथ आने से दोबारा लौट आई | विधानसभा चुनाव की हार के दंडस्वरूप प्रदेश भाजपा अध्यक्ष पद से जबलपुर के सांसद राकेश सिंह को हटाकर  अभाविप से भाजपा संगठन में आये विष्णुदत्त शर्मा को कमान सौंपी गई जो खजुराहो से लोकसभा सदस्य भी हैं | श्री शर्मा ने प्रदेश भर में युवा कार्यकर्ताओं पर ध्यान केन्द्रित किया जिसके कारण पार्टी संगठन में ताजगी आई और नई पीढ़ी  को ये लगने लगा कि उनके लिए अच्छी संभावनाएं  हैं | पंचायत और नगरीय निकायों के चुनाव में श्री  शर्मा ने मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के साथ तालमेल बिठाते हुए युवाओं को मैदान में उतारा जिसका सकारात्मक परिणाम निकला | चुनाव के पहले ये अटकलें लगाई जा रही थीं कि आरक्षण संबंधी मामला अदालत में फंसा होने से भाजपा अपने परम्परागत ओबीसी मत खो देगी लेकिन चुनाव परिणामों ने  दिखा दिया कि भाजपा के संगठन ने विपरीत हालातों में भी अनुकूल परिणामों की जमीन तैयार कर दी | पंचायत और नगरीय निकाय के चुनाव सर्वोच्च न्यायालय के आदेश पर जिस ताबड़तोड़ तरीके से कराये गये उनकी वजह से सत्तारूढ़ पार्टी को नुकसान होना तय था | लेकिन प्रदेश  भाजपा अध्यक्ष के मेहनत ने अगले विधानसभा चुनाव का सेमी फायनल कहे जा रहे  इन चुनावों में भाजपा की मजबूत स्थिति को प्रमाणित कर दिया है | इसके लिए युवाओं पर ध्यान केन्द्रित कर उनको बूथ की जिम्मेदारी देने का प्रयोग बेहद सफल रहा | अनेक जगहों पर पूरी तरह युवा चेहरे उतारकर भाजपा ने जो खतरा लिया उसके नतीजे उत्साहवर्धक निकलने से आगामी विधानसभा चुनाव में युवा चेहरे उतारने की श्री शर्मा की सोच कारगर साबित हो सकती है | उनके प्रदेश अध्यक्ष बनने  के बाद कमलनाथ सरकार गिरी और श्री चौहान वापिस लौटे किन्तु कोरोना की वजह से संगठन संबंधी कार्य भी प्रभावित हुआ | लेकिन स्थितियां सामान्य होते ही श्री शर्मा ने बूथ विस्तारक और त्रिदेव योजना के साथ ही  यूथ सक्रियता दोनों पर ध्यान केन्द्रित किया जिससे ये लगने लगा कि पार्टी में केवल नेताओं की नहीं अपितु छोटे कार्यकर्ता की भी पूछ - परख है | मुख्यमंत्री की लोकप्रियता और सक्रियता के साथ ही प्रदेश अध्यक्ष के तौर पर श्री शर्मा ने युवा शक्ति को जिस चतुराई के साथ चुनावी मशीनरी में तब्दील किया उसका ही असर है  कि सत्ता विरोधी रुझान के खतरे को दरकिनार रखते हुए भाजपा ने पंचायत और नगरीय निकाय के चुनाव में जोरदार  सफलता हासिल की | हालाँकि अभी पांच नगर निगमों के नतीजे 20 तारीख को आयेंगे जिनमें एक – दो जगह भाजपा की जीत पर संदेह जताया जा रहा है लेकिन अब तक जो परिणाम आये उनके आधार पर कहना गलत न होगा कि भाजपा ने सत्ता और संगठन के अच्छे तालमेल से जल्दबाजी में करवाने पड़े इन चुनावों में उल्लेखनीय सफलता हासिल की | कांग्रेस के प्रदेश  अध्यक्ष कमलनाथ और पार्टी के दूसरे सबसे बड़े चेहरे दिग्विजय सिंह दोनों 75 वर्ष के हो चुके हैं जबकि शिवराज सिंह 63 और विष्णु दत्त 51  वर्ष के होने से युवाओं को आकर्षित कर पाने में ज्यादा सफल साबित हुए हैं | सबसे खास बात ये है कि श्री शर्मा के प्रदेश अध्यक्ष बनने के बाद 2018 के विधानसभा चुनाव में तत्कालीन अध्यक्ष श्री सिंह द्वारा की गईं गलतियों को सुधारकर युवाओं को जिम्मेदारी देने की नीति अपनाई  गई जिसका परिणाम काफी अच्छा निकला और इसके आधार पर 2023 के विधानसभा चुनाव में भाजपा अपनी विजय यात्रा को जारी  रख सकेगी |

- रवीन्द्र वाजपेयी

 

Monday 18 July 2022

प्रधानमंत्री द्वारा मुफ्त रेवड़ी बांटने पर रोक लगाने के संकेत



पहले झारखंड के देवघर और उसके बाद उ.प्र में बुंदेलखंड एक्सप्रेस हाइवे का उद्घाटन करते हुए प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी ने शॉर्ट कट राजनीति को नुकसानदेह बताते हुए कहा कि इसके कारण विकास कार्य प्रभावित होते हैं | उन्होंने कहा कि  मुफ्त बिजली जैसे वायदों के आधार पर चुनाव जीतना तो आसान हो जाता है लेकिन ऐसे आश्वासन बाँटने वालों की  नए बिजलीघर बनवाने में कोई रूचि नहीं होती | प्रधानमंत्री ने राष्ट्रीय राजमार्गों का उदाहरण देते हुए कहा कि देश की तरक्की के लिए इस तरह के कामों का तेजी से होना जरूरी है क्योंकि जिस शहरों के पास से एक्सप्रेस हाइवे निकले हैं वहां आर्थिक विकास भी अपने आप होने लगा है | लेकिन ये तभी संभव है जब ऐसे कार्यों के लिये सरकार के पास पर्याप्त आर्थिक साधन भी हों | दरअसल श्रीलंका में उत्पन्न अभूतपूर्व आर्थिक संकट के बाद से राजनीतिक दलों द्वारा चुनाव जीतने के लिये बांटी जाने वाली खैरातों के विरोध में अनेक आर्थिक विशेषज्ञों द्वारा चेतावनी दी जा चुकी है | हालांकि अब तक किसी भी राजनीतिक दल ने इस बारे में अपना नजरिया स्पष्ट नहीं किया किन्तु पंजाब में आम आदमी पार्टी की सरकार द्वारा एक जुलाई से 300 यूनिट बिजली मुफ्त देने संबंधी चुनावी वायदे को पूरा करते हुए देश के अनेक राज्यों में पूरे पृष्ठ का विज्ञापन देकर वाहवाही बटोरी गई | वस्तुतः म.प्र , छत्तीसगढ़ और राजस्थान  में आगामी वर्ष होने वाले विधानसभा चुनाव पर आम आदमी पार्टी की नजर है | गुजरात , कर्नाटक और हिमाचल में भी निकट भविष्य में चुनाव होंगे | चूंकि पार्टी इन राज्यों में अपने पाँव ज़माने का प्रयास कर रही है इसलिए  दिल्ली और पंजाब सरकार की मुफ्त योजनाओं का प्रचार करते हुए वह मतदाताओं को लुभाने का दांव चल रही है | वैसे अपने राज्य से बाहर समाचार पत्रों में सरकारी खर्च पर  सत्तारूढ़ दल का प्रचार करने का कार्य भाजपा और बाकी राज्य सरकारें  भी करती हैं लेकिन आम  आदमी पार्टी द्वारा मुफ्त बिजली जैसे वायदे का सीधा असर जनमानस पर पड़ता है | यद्यपि इसकी शुरुवात काफी पहले स्व. अर्जुन सिंह ने म.प्र और बाद में कैप्टन अमरिंदर सिंह द्वारा पंजाब में की गई थी | किसानों को सस्ती बिजली देने का चलन भी अनेक राज्यों में है | लेकिन इस कारण उनका खजाना खाली होता चला गया | पंजाब और म.प्र पर अरबों रूपये का कर्ज है जिसे चुकाने के लिए उन्हें नया कर्ज  लेना पड़ता है | श्री मोदी ने इसे शॉर्ट कट राजनीति बताते हुए चेतावनी दी कि इससे शॉर्ट सर्किट हो सकता है | मुफ्त रेवड़ी बांटने पर कटाक्ष करते हुए उन्होंने  कर दाताओं में बढ़ रही नाराजगी का भी संकेत दिया |  प्रधानमंत्री चूंकि दूरगामी सोच रखने वाले राजनेता हैं इसलिए ये मानकर चला जा सकता है कि दो – तीन दिन के भीतर दो बार मुफ्त उपहारों को रेवड़ी बताने संबंधी उनका भाषण किसी कार्ययोजना का हिस्सा है | संसद भवन की कैंटीन में सस्ते भोजन पर रोक लगाने जैसा साहसिक कदम उठाकर श्री मोदी ने अपने इरादे ज़ाहिर कर दिए  थे | इसी तरह दिल्ली में चुनाव हारे हुए सांसदों से निश्चित समय – सीमा के भीतर सरकारी आवास खाली कराने संबंधी व्यवस्था भी उनकी सरकार की मंशा स्पष्ट करती है | खबर ये भी है कि पूर्व सांसदों को मिलने वाली पेंशन भी उनके निशाने पर है | हालांकि करोड़ों लोगों को मुफ्त अनाज और आयुष्मान भारत योजना के अंतर्गत पांच लाख तक के इलाज की सुविधा भी मुफ्तखोरी ही है और उसके पीछे भी कहीं न कहीं चुनाव जीतने का मकसद छुपा हुआ है और  किसी भी राजनीतिक दल में ये साहस नहीं है कि इनका विरोध करे | वैसे   सस्ते अनाज की सार्वजनिक वितरण प्रणाली तो दशकों पुरानी हो चुकी है | लेकिन मुफ्त बिजली जैसे चुनावी वायदे देश को बहुत महंगे पड़ रहे हैं | कुछ समय पहले पत्रकारों ने जब परिवहन मंत्री नितिन गाड़करी से उनको टोल टैक्स में छूट दिलवाने की मांग की तो उन्होंने तो टूक मना करते हुए कहा कि वे इस मुफ्त संस्कृति के सख्त  खिलाफ हैं | मंत्री महोदय ने बिना संकोच किये ये भी कहा कि अच्छी सड़कों पर चलना है तो टैक्स तो देना ही पड़ेगा | उस दृष्टि से प्रधानमंत्री द्वारा दियें जा रहे संकेत इस दिशा में उठाए जाने क़दमों की आहट लगती  है | श्रीलंका में जो स्थितियां बनीं वे रातों - रात बन गई हों ऐसा नहीं है | लेकिन विदेशों से कर्ज लेकर उसे अनुत्पादक कार्यों में लुटाने का  दुष्परिणाम ही है कि कहाँ तो उसकी अर्थव्यवस्था तेजी से उछाल मारने की स्थिति में आ रही थी और कहाँ एक ही झटके में वह औंधे मुंह गिर पड़ीं | श्रीलंका तो खैर, छोटा सा देश है जिसकी आबादी हमारे देश के अनेक राज्यों से भी कम है | ऐसे में 135 करोड़ की आबादी वाले भारत को बहुत ही सावधानी के साथ उसकी गलतियों का विश्लेषण करते हुए इस बात की सावधानी रखनी होगी कि हमारे देश में वैसा न हो जाए | हालाँकि मुफ्तखोरी या रेवड़ी संस्कृति पर प्रहार करना खतरे से खाली नहीं होगा लेकिन इस बारे में ये उक्ति ध्यान में रखनी होगी कि राजनीतिक नेता जहां अगले  चुनाव  के बारे में  सोचते हैं वहीं राजनेता अगली पीढ़ी की भलाई को ध्यान में रखते हुए नीतिगत निर्णय करते हैं | उस दृष्टि से श्री मोदी ने बीते आठ साल में अनेक जोखिम उठाये जिनके कारण कुछ समय तक तो ये  लगा कि उन्हें बड़ा  नुकसान हो सकता है लेकिन हुआ उसका उलटा | ऐसा लगता है उस सबसे प्रधानमंत्री का हौसला बुलंद हुआ है और सांकेतिक शैली में ही सही उनकी तरफ से रेवड़ी संस्कृति की विरुद्ध आवाज उठाये जाने की शुरुवात की जा चुकी है | चुनाव आयोग और सर्वोच्च न्यायालय ने अनेक अवसरों पर मुफ्त उपहार वाले चुनावी वायदों पर ऐतराज जताते हुए ये कहा कि इस तरह के वायदों के लिए संसाधन कहाँ से आएंगे ये भी चुनाव घोषणापत्र में स्पष्ट किया जाना चाहिए | इस बारे में पंजाब का उदाहरण उल्लेखनीय है | वहां के मुख्यमंत्री भगवंत सिंह मान ने प्रधानमंत्री से मिलकर राज्य के लिए एक लाख करोड़ रु. के पैकेज की मांग की | इस पर जब ये सवाल उठा कि पंजाब पहले से ही जब तीन लाख करोड़ के कर्ज में डूबा हुआ है तब उसे मुफ्त – बिजली और पानी जैसे क़दमों से बचना चाहिए | इस बारे में जब दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द   केजरीवाल से पूछा गया कि राज्य द्वारा मुफ्त योजनाओं के जरिये खजाना उलीच दिया जावे तो उसका हर्जाना केंद्र क्यों भरे तब उन्होंने व्यंग्य किया कि केंद्र के  पैसे पर भी तो राज्यों का अधिकार है | संघीय व्यवस्था के लिहाज से उनका कथन सही है लेकिन ये बात भी उतनी सच  है कि मुफ्त के वायदों के लिए धन की व्यवस्था के बारे में राजनीतिक दलों को बताना चाहिए | प्रधानमंत्री ने छोटे से  अंतराल में दो बार शॉर्ट कट और रेवड़ी जैसे शब्दों का इस्तेमाल करते हुए मुफ्तखोरी को प्रोत्साहित करने वाली राजनीति पर विराम लगाने की तैयारी का इशारा तो कर दिया है |  इस बारे में उनके अगले कदम का इन्तजार है |

- रवीन्द्र वाजपेयी

Saturday 16 July 2022

आजादी के 75 साल बाद तो संसद और सड़क में फर्क करना सीखें सांसद



सोमवार से प्रारंभ होने जा रहे मानसून सत्र के सिलसिले में लोकसभा अध्यक्ष और राज्यसभा के सभापति द्वारा  सर्वदलीय बैठक बुलाई गयी है | हर सत्र के पूर्व पीठासीन अधिकारी इसी तरह की बैठकें बुलाते हैं जिसमें सत्र को सुचारू रूप से चलाने के लिए सभी दलों से सहयोग मांगा जाता है | इस दौरान सत्ता और विपक्ष अच्छी – अच्छी बातें करते हैं | चाय – नाश्ते के साथ बैठक खत्म हो जाती है | लेकिन उसके बाद जब सत्र शुरू होता है तब इस बैठक में दिए गये आश्वासन भुलाकर क्या सत्ता और क्या विपक्ष सब उसी ढर्रे पर लौट आते हैं जिसके कारण संसद की प्रतिष्ठा जनमानस में लगातार गिरती चली जा रही है | दो दिन पूर्व असंसदीय शब्दावली का खुलासा होने पर विपक्ष ने हल्ला मचाया था | उस पर लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला ने स्पष्टीकरण देते हुए कहा कि किसी भी शब्द के इस्तेमाल पर रोक नहीं लगाई गयी है लेकिन सदन की गरिमा बनाये रखने के लिए 2010 से हर साल विलोपन योग्य समझे जाने वाले शब्दों की सूची जारी की जाती है और ये परंपरा पहले से चली आ रही है | ये विवाद शांत हो पाता उसके पहले ही गत दिवस राज्यसभा महासचिव द्वारा जारी परिपत्र के जरिये संसद के परिसर में धरना , प्रदर्शन , अनशन या धर्मिक कार्यक्रम के आयोजन पर रोक लगाए जाने पर विपक्ष एक बार फिर भड़क गया | इसके बाद महासचिव ने सफाई दी कि इस प्रकार का परिपत्र  हर सत्र के पहले जारी किया जाता रहा है | जहाँ तक बात असंसदीय अथवा विलोपन योग्य शब्दों की है तो  इस बारे में संसदीय मंत्रालय की समिति निर्णय लेती है जिसमें विपक्ष के सदस्य भी रहते हैं | और जब राज्यसभा के महासचिव ने साफ़ कर दिया कि संसद परिसर के भीतर धरना , प्रदर्शन जैसे आयोजन पर रोक लगाने का परिपत्र हर सत्र के पहले जारी किया जाता है तब विपक्ष द्वारा  संसदीय विमर्श पर बुलडोज़र चलाये जाने जैसा आरोप बेमानी हो जाता है और फिर  इससे एक बात स्पष्ट हो गई कि इस तरह के परिपत्र को हमारे माननीय सांसद रद्दी कागज समझकर उपेक्षित कर देते हैं | वैसे इस तरह के अनुशासन को तोड़ने के मामले में भाजपा और कांग्रेस सहित सभी दल बराबर के कसूरवार हैं क्योंकि संसद परिसर के भीतर स्थित महात्मा गांधी की प्रतिमा के समक्ष लगभग प्रत्येक सत्र में कोई न कोई ऐसा आयोजन होता रहा है जिस पर संदर्भित परिपत्र में रोक लगाई गई है | राज्यसभा महासचिव द्वारा का ये स्पष्टीकरण कि परिपत्र जारी करने संबंधी औपचारिकता हर सत्र के पहले निभाई जाती है संसदीय प्रशासन की मजबूरी का प्रमाण है | इसका अर्थ ये है कि सांसदों से जो काम न किये जाने की अपील की जाती है वे उसे करने में न डरते हैं और न ही संकोच करते हैं | यही वजह है कि लोकसभा अध्यक्ष और राज्यसभा के सभापति द्वारा सत्र के पूर्व सर्वदलीय बैठक बुलाकर सत्र के निर्विघ्न चलने की जो अपील और अपेक्षा की जाती है वह पहले दिन ही दम  तोड़ देती है | संसद का हर सदस्य जानता है कि सदन के संचालन में हर मिनिट लाखों रुपये खर्च होते हैं | कोई भी सदस्य एक मिनिट के लिए भी सदन के भीतर जाकर बाहर आ जाता है तो उसे पूरे दिन का भत्ता मिल जाता है | यही  वजह है कि अनेक महत्वपूर्ण विधेयकों और मुद्दों पर चर्चा के दौरान सदन आधे से भी ज्यादा खाली नजर आता है | राज्यसभा की स्थिति तो इस मामले में और भी दयनीय है क्योंकि उसके सदस्यों को अपने निर्वाचन क्षेत्र की जनता को संसद में अपनी सक्रियता का परिचय नहीं देना होता | ऐसे में विचारणीय मुद्दा है कि संसद सत्र के पहले पीठासीन अधिकारी द्वारा बुलाई गई बैठक में  सदन को व्यवस्थित तरीके से चलाने के लिए किये गए निर्णयों का पालन क्यों नहीं किया जाता ? यद्यपि इसके लिए किसी एक दल या पक्ष को जिम्मेदार ठहराना तो गलत होगा क्योंकि आज जो सत्ता में बैठे हैं विपक्ष में रहते हुए उन्होंनें भी सदन को बाधित करने में कोई कसर नहीं छोडी थी | बेहतर हो आजादी का  अमृत महोत्सव मनाते समय संसद के दोनों सदनों का एक विशेष संयुक्त अधिवेशन संविधान सभा की तर्ज पर आयोजित कर सदन के भीतर अनुशासन बनाये  रखने के साथ ही बहस के स्तर को सुधारने पर विचार  करते  हुए इस तरह की व्यवस्था लागू की जाए जिसका उल्लंघन करने वाले सदस्य को संसद की अवमानना का दोषी मानकर कुछ समय के लिए निलम्बित किया जाये और जो सदस्य लगातार ऐसा करे उसकी  सदस्यता समाप्त करने का नियम बने | आजदी के 75 साल पूरे होने का अवसर केवल जश्न मनाने और अच्छे – अच्छे भाषण देने के अलावा इस बारे में आत्मावलोकन करने का भी है कि क्या हमारी संसद उस स्तर और गरिमा को बरकरार रख सकी जो स्वाधीनता प्राप्ति के प्रारम्भिक वर्षों में नजर आती थी | ऐसा नहीं है कि लोकसभा और राज्यसभा में राष्ट्रीय महत्व के विभिन्न विषयों पर बोलने  वाले कुशल वक्ता और गंभीर  किस्म के जानकार सांसदों का अभाव है किन्तु सदन में होने वाले होहल्ले के कारण उनकी प्रतिभा दबी रह जाती है |  यहाँ तक कि  बजट जैसे जरूरी मुद्दे पर भी जैसी बहस होनी चाहिए वह देखने - सुनने नहीं मिलती | संदन के भीतर दिए  जाने वाले भाषण  से किसी सदस्य का बौद्धिक स्तर और संस्कार व्यक्त होते हैं | इसके साथ ही वह किस  वातावरण से आता है ये भी पता चल जाता है | जबसे टीवी पर सीधा प्रसारण शुरू हुआ तबसे बजाय अच्छी बहस के शोर शराबा ,टोकाटाकी ,गर्भगृह में आकर हंगामा करने जैसे तरीके  संसदीय आचरण पर हावी हो गये हैं  | ऐसे  में राज्यसभा महासचिव का ये कहना कि ऐसे परिपत्र हर सत्र के पहले जारी होते हैं ये दर्शाने के लिये पर्याप्त है कि हमारे सांसद और उनकी पार्टियाँ संसद परिसर और सडक में फर्क करने तैयार ही नहीं हैं | पीठासीन अधिकारियों द्वारा जो सर्वदलीय बैठक सत्र के पहले बुलाई जाती है वह भी अपना अर्थ और उपयोगिता खो चुकी है | ये देखते हुए मानसून सत्र केवल राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति चुनाव के लिए मतदान तक सीमित रह जायेगा | जहां तक विधायी कार्य की बात है तो सरकार अपने बहुमत के बल पर विपक्ष के हंगामे के बीच उसे संपन्न करवा लेती है |  ये स्थिति संसदीय प्रणाली के लिए अच्छी नहीं कही जा सकती | लेकिन दुःख इस बात का है न ही सत्ता पक्ष को इसकी फ़िक्र है और न ही विपक्ष को | 

-रवीन्द्र वाजपेयी


Friday 15 July 2022

पंचायत चुनाव का बाजारीकरण लोकतंत्र की बुनियाद पर चोट



म.प्र में पंचायत चुनाव के अधिकतर परिणाम गत दिवस घोषित हो गए | यद्यपि ये चुनाव गैर दलीय आधार पर करवाए जाते हैं लेकिन राजनीतिक दल अपने उम्मीदवारों को उतारकर उन्हें जितवाने का प्रयास करते हैं |  जिला  और जनपद पंचायत के लिए  चुने गए सदस्य  अध्यक्ष का चुनाव करते हैं | जबकि ग्राम पंचायत का सरपंच सीधे मतदाताओं द्वारा ही निर्वाचित होता है | कल जैसे ही जिला और जनपद पंचायत के परिणाम घोषित हुए ,  भाजपा और कांग्रेस ने अनेक जिलों में अपने समर्थित विजयी उम्मीदवारों को सुरक्षित स्थानों पर पहुंचा दिया जिससे वे दूसरे पक्ष के साथ न चले जाएँ | गैर दलीय चुनाव होने से दलबदल कानून इन पर लागू नहीं होता इसलिये खरीद – फरोख्त भी जमकर होती है | इस कारण अक्सर एक पार्टी ये दावा करती है कि उसके पास बहुमत है लेकिन अध्यक्ष दूसरे दल का बन जाता है | चूंकि जीते हुए सदस्य स्वतंत्र तौर पर चुनकर आते हैं इसलिए वे दलीय प्रतिबद्धता से भले ही  मुक्त रहें  लेकिन पार्टी के  चिन्ह पर न लड़ने के बाद भी  जीतते तो उसके समर्थन से ही हैं | ऐसे में उनकी निष्ठा उस पार्टी के प्रति होना अपेक्षित है परन्तु  इस बारे में कानूनी बंदिश न होने से  चुनाव जीतते ही जिला और जनपद पंचायत सदस्य की बोली लगने लगती है | विधानसभा और लोकसभा चुनाव में होने वाले भारी - भरकम खर्च और मतदाताओं को प्रलोभन देने की चर्चा तो आम है लेकिन पंचायत के चुनावों में भी जिस तरह से पैसा खर्च होता है और अध्यक्ष बनने के लिए सदस्यों के दाम लगते हैं उसे देखते हुए  कहना गलत न होगा कि ये चुनाव उस पंचायती राज से पूरी तरह अलग है जिसकी कल्पना महात्मा गांधी ने की थी | ग्राम पंचायत की जो परम्परागत व्यवस्था भारत में थी उसमें पंचों को परमेश्वर माना जाता था तथा  पंचायत के निर्णय हर किसी पर बंधनकारी होते थे |  लेकिन आज का पंचायती राज पूरी तरह राजनीतिक प्रदूषण का शिकार हो चुका है और उसके चुनाव बजाय जन कल्याण के निजी  स्वार्थ साधना का जरिया बन गए हैं | जो परिणाम गत दिवस आये उनके बारे में ज्यादातर टिप्पणियाँ इसी बात पर हैं कि किस नेता का परिजन जीता या हारा | चूंकि इन चुनावों में महिलाओं के लिए भी सीटें आरक्षित होती  हैं इसलिए बड़ी संख्या में ऐसी महिला उम्मीदवार चुनाव मैदान में उतरने लगी हैं जिनका सार्वजनिक जीवन से कोई सम्बन्ध नहीं होने से  वे पिता या पति के नाम पर लड़ती हैं और पद पर आने के बाद भी उनके काम परोक्ष तौर पर उनके परिवारजन ही करते हैं | इसीलिये भ्रष्टाचार के मामलों में ज्यादातर महिलाओं की आड़ में उनके पुरुष सहयोगी की ही भूमिका होती है | चुनाव होते ही जीते उम्मीदवारों को एकत्र कर एक ही स्थान पर रखने का उद्देश्य वैसे तो उन्हें दूसरे पक्ष के हाथों बिकने से बचाना है | लेकिन ऐसा करने का अर्थ उन पर अविश्वास करने जैसा ही है | किसी भी पार्टी के सदस्य यदि  निष्ठावान हैं तब उनके बिकने का खतरा नहीं होता किन्तु  आजकल राजनीति में जिस तरह के अवसरवादी आने लगे हैं और राजनीतिक दल भी क्षणिक लाभ के लिए उनकी सैद्धांतिक प्रतिबद्धता और ईमानदारी परखे बिना उन्हें सिर आँखों पर बिठाते  हैं उसके कारण उन पर अविश्वास बना रहता है | राज्यों में होने वाली राजनीतिक खींचतान के दौरान विधायकों को  किसी पञ्च सितारा होटल या आरामगाह में रखने की संस्कृति का फैलाव पंचायत  तक होना प्रजातंत्र रूपी भूमि  में  लोभ , लालच और बेईमानी का बीजारोपण करना है | पंचायत स्तर पर ही सौदेबाजी का स्वाद चख चुका व्यक्ति विधायक और सांसद बनने के बाद  अपनी कीमत और ज्यादा बढ़ा दे तो अचरज नहीं होता | हाल ही में संपन्न राज्यसभा के द्विवार्षिक चुनाव में भी  अनेक राज्यों में विधायकों को खरीददारों से बचाने के लिए सुरक्षित स्थान पर रखा गया | राजस्थान में सचिन पायलट बागी होने के बाद अपने समर्थक विधायकों को लेकर गुरुग्राम के एक होटल में जा बैठे थे वहीं  जयपुर में मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने अपने  पक्ष के विधायकों को एक आलीशान होटल में एक साथ रखा जिससे वे पायलट खेमे में न जा सकें , जबकि दोनों एक ही  पार्टी के हैं | महाराष्ट्र में शिवसेना की टूटन के बाद जो कुछ हुआ वह भी किसी से छिपा नहीं है | सही मायनों में  म.प्र में पंचायत चुनाव के नतीजों के बाद चुने हुए  जिला एवं जनपद  पंचायत सदस्यों को बटोरकर एक स्थान पर छिपाना पंचायती राज की धज्जियां उड़ाने के लिए पर्याप्त हैं | जब प्रजातंत्र की प्राथमिक और माध्यमिक स्तर की संस्थाओं के चुनाव में ये सब हो रहा है तब ऊपरी स्तर पर क्या – क्या होता होगा ये अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है |  चुनाव के दौरान जिस सदस्य पर जनता ने विश्वास किया वह जीतने के बाद इतना अविश्वसनीय हो जाता है कि उसकी पार्टी को   ही  उसकी ईमानदारी पर संदेह होने लगता है | इस खेल में एक भी ऐसा खिलाड़ी नहीं दिखाई देता जो सीना तानकर इस बात का ऐलान करे कि वह कहीं नहीं छिपेगा और कोई उसे खरीदने की हिम्मत न करे | सही बात ये है कि विश्वास का संकट इस हद तक गहरा गया है कि दायाँ हाथ , बाएँ पर विश्वास करने तैयार नहीं | ये देखते हुए पंचायती राज के रूप में सत्ता के  विकेंद्रीकरण का जो उद्देश्य था वह रास्ते से भटकते हुए भ्रष्टाचार नामक खरपतवार की तरह निचले स्तर तक फ़ैल गया | लोकतंत्र के बाजारीकरण की ये स्थिति निश्चित रूप से चिंताजनक है | प्राथमिक पाठशाला में विद्यार्थी के उज्जवल भविष्य की नींव रखी जाती है | उस दृष्टि से पंचायत व्यवस्था लोकतंत्र की पहली पाठशाला है | यदि इसमें बजाय  नैतिकता , निःस्वार्थ सेवा और ईमानदारी के अनैतिकता , स्वार्थसाधना और बेईमानी का पाठ पढ़ाया जावेगा तब भविष्य की कल्पना ही भय पैदा कर देती है | यद्यपि इस सबकी वजह से लोकतंत्र की इस बुनियाद की जरूरत और सार्थकता पर सवाल उठाना गलत होगा परन्तु  इसकी पवित्रता इसी तरह नष्ट होती गयी  और चुने हुए जनप्रतिनिधि भरे बाजार में नीलाम होते रहे तब विश्वास का संकट बढ़ते – बढ़ते विस्फोट में बदल जाए तो अचरज नहीं होगा क्योंकि  एक सीमा के बाद जनता की सहनशक्ति जवाब दे ही जाती है | पड़ोसी देश श्रीलंका में  जो कुछ हुआ और हो रहा है वह  चेतावनी भी है और सबक भी | 

- रवीन्द्र वाजपेयी

Thursday 14 July 2022

शेरों का मुंह बंद कराने का असफल प्रयास : छेड़छाड़ तो पहले की गई थी



शेरों का मुंह बंद कराने का असफल प्रयास :  छेड़छाड़ तो पहले की गई थी

हालाँकि राष्ट्रीय प्रतीक चिन्हों को लेकर बरती जाने वाली सतर्कता स्वागतयोग्य है लेकिन बीते दिनों नये  संसद भवन में लगाये गए चार शेरों वाले राष्ट्रीय चिन्ह का अनावरण प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी द्वारा किया गया तो विपक्ष सहित असहिष्णुता के झंडाबरदारों की  छाती पर सांप लोटने लगा | पहले – पहल तो इस बात पर उंगलियां उठाई गईं कि उस चिन्ह का अनावरण प्रधानमन्त्री से क्यों करवाया गया ? लेकिन जब इस मुद्दे पर किसी ने  ध्यान नहीं दिया तब इस बात को लेकर हाय - तौबा मचाया जाने लगा कि वाराणसी के निकट  सारनाथ में जिस अशोक स्तम्भ की अनुकृति को आजादी के बाद राष्ट्रीय चिन्ह बनाया गया उसमें बने शेर शांत और सौम्य हैं जबकि नई संसद में लगाये जा रहे  प्रतीक चिन्ह वाले शेरों का मुंह खुला हुआ है जिससे भय की अनुभूति होती है | इस आधार पर  हर किसी को ये ऐतराज सही लगा क्योंकि बीते सात दशक से भी ज्यादा से जो प्रतीक चिन्ह प्रचलित  है उसमें प्रदर्शित शेर अपना मुंह बंद किये हुए हैं | ये आरोप भी लगाया गया कि मौजूदा सरकार ने हिंसा की पक्षधर होने से क्रोधित शेरों वाले प्रतीक चिन्ह को नये संसद भवन में लगाने का फैसला किया | ये भी कहा गया कि जिस अशोक स्तम्भ से हमारा प्रतीक चिन्ह लिया गया है यह उसका और शांति – अहिंसा के प्रवर्तक बौद्ध धर्म का अपमान है | इस बारे में दो राय नहीं हो सकतीं कि राष्ट्रीय प्रतीक चिन्ह और राष्ट्रध्वज के मौलिक स्वरूप से छेड़छाड़ का अधिकार किसी को नहीं है | राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री  बदलने की तरह ही परस्पर विरोधी विचारधारा वाले दल और गठबंधन सत्ता में आते – जाते रहते हैं | केंद्र और राज्यों में अलग – अलग दलों की सत्ता भी होती है | लेकिन देश की पहिचान कहे जाने वाले राष्ट्रीय चिन्ह अपरिवर्तित रहते हैं | एक देश के तौर पर हमारी एकता और अखंडता की अभिव्यक्ति के साथ ही कश्मीर से कन्याकुमारी तक भारत एक है जैसे नारे की सार्थकता इन चिन्हों से ही प्रमाणित होती है | इन्हें विकृत करने का इरादा किसी भी दृष्टि से स्वीकार्य नहीं हो सकता और इसीलिये जब  नये संसद भवन पर लगाये जा रहे राष्ट्रीय प्रतीक चिन्ह के बारे में  आरोप लगा कि  मूल  छवि को बदल दिया गया तब हर किसी का ध्यान उस तरफ गया | सोशल मीडिया के जरिये  केंद्र सरकार और प्रधानमंत्री पर  हमले होने लगे | फासीवादी मानसिकता जैसे घिसे – पिटे आरोप भी हवा में उछाले गए | लेकिन झूठ की हवा उस समय निकल  गई जब  शिल्पकार लक्ष्मण व्यास इस दावे के साथ सामने आये कि सारनाथ में रखी मूल आकृति वाले शेरों का मुंह भी खुला हुआ है और जिस प्रतीक चिन्ह का अनावरण श्री मोदी द्वारा किया गया वह उसकी हूबहू नक़ल है | नए संसद भवन के केन्द्रीय कक्ष के ऊपर लगने वाले इस प्रतीक चिन्ह की प्रामाणिकता सामने आने के बाद विरोध के स्वर तो शांत हो गये लेकिन इस प्रकरण से एक बार फिर उन लोगों की कुंठा सामने आ  गई जो 2014 के बाद से चैन की नींद नहीं सो पा रहे | दरअसल  जिस सत्ता के बलबूते वे देश में राष्ट्रवादी शक्तियों के विरुद्ध अभियान चलाया करते थे वह हाथ से चली जाने के बाद उनकी असलियत सामने आने लगी है | वामपंथी विचारधारा के लोगों ने कांग्रेस में घुसपैठ कर सत्ता का खूब दोहन किया और साहित्य , कला संस्कृति जैसे क्षेत्रों में शहरी नक्सलवाद की जड़ें मजबूत कीं | मोदी सरकार ने चूंकि  इनकी गतिविधियों पर नकेल कसते हुए  देश – विदेश से मिलने वाली खैरात पर रोक लगाई तो ये तत्व बौखलाकर असहिष्णुता जैसे मुद्दे उछालकर अशांति और अस्थिरता पैदा करने का षडयंत्र रचने  लगे | लेकिन 2019 में भी इनके मंसूबों पर जनता ने पानी फेर दिया | जातिवाद , परिवारवाद और तुष्टीकरण के जरिये  अपनी राजनीति चलाने वाले जिस तरह मतदाताओं द्वारा तिरस्कृत किये जा रहे हैं उससे उनमें घबराहट भी है और बौखलाहट भी | इसी कारण आये दिन कुछ न कुछ ऐसा मुद्दा उछाला जाता है जिससे देश में तनाव बढ़े | राष्ट्रीय प्रतीक चिन्ह के बारे में वास्तविकता सामने आने के बाद  सवाल ये उठता है कि जब सारनाथ में रखे अशोक स्तम्भ वाले शेरों के मुंह खुले हुए हैं तब बंद मुंह वाले प्रतीक चिन्ह को स्वीकार करने वालों द्वारा मौलिकता का उल्लंघन किये जाने पर  आज तक किसी का  ध्यान क्यों नहीं गया ?  अब जबकि सही स्थिति का पता चल गया है तब क्या राष्ट्रीय प्रतीक चिन्ह की प्रचलित आकृति को भी मूल आकृति के अनुरूप ढाला जायेगा क्योंकि उसमें एकरूपता होना जरूरी है | लेकिन उसके पहले जिन्होंने ये विवाद खड़ा किया उन्हें अपने किये पर माफी मांगना चाहिए | इसी के साथ केंद्र सरकार को इस बारे में मानसून सत्र में संसद की स्वीकृति भी ले लेनी चाहिये जिससे भविष्य में राष्ट्रीय प्रतीक चिन्ह को लेकर इस तरह के गैर जिम्मेदार विरोध की गुंजाईश न रहे | दरअसल नई संसद बनाने का फैसला भी विघ्नसंतोषियों को हजम नहीं हो रहा जबकि ये बात सामने आ चुकी है कि न सिर्फ वर्तमान संसद भवन अपितु साउथ  और नॉर्थ ब्लॉक नामक केन्द्रीय सचिवालय में स्थान का अभाव होने से अनेक मंत्रालय दूर - दूर स्थित हैं | नई संसद  प्रधानमंत्री की दूरगामी सोच का प्रमाण है जिसे रिकॉर्ड समय में तैयार किया जा रहा है | इसके बन जाने के बाद केंद्र सरकार का समूचा सचिवालय एक ही स्थान पर आ जायेगा जिससे मंत्रियों और सांसदों  के साथ ही उनमें  जाने वाले आम लोगों  को भी बेवजह भागदौड़ और परेशानी से मुक्ति मिलेगी | 

-रवीन्द्र वाजपेयी


Wednesday 13 July 2022

उद्धव की स्थिति बिना दांत और नाखून वाले शेर जैसी हो गई है



 
महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री और शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे अपने राजनीतिक जीवन में इतने निरीह और लाचार इसके पहले कभी नजर नहीं आये | यद्यपि उनके  स्वर्गीय पिता बाल ठाकरे जैसा कड़क अंदाज उनका नहीं रहा लेकिन शिवसेना की पहिचान बने उग्र हिन्दुत्व का झंडा जरूर उन्होंने उठाये रखा |  2019 के विधानसभा चुनाव के बाद विघ्नसंतोषी सलाहकारों के चंगुल में फंसकर उद्धव ने सत्ता के लिए सिद्धांतों से समझौता करने की गलती की और राकांपा तथा कांग्रेस  के साथ मिलकर महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री बन बैठे | वैसे कहा तो ये जाता है कि वे स्वयं सत्ता में आने के बजाय अपने बेटे आदित्य को मुख्यमंत्री बनाना चाह रहे थे लेकिन  शरद पवार तथा सोनिया गांधी ने उससे इंकार कर दिया | और तब उद्धव को सरकार की कमान संभालनी पड़ी | लेकिन  दूसरी कहानी ये भी है कि उस बेमेल गठबंधन के असली शिल्पकार शिवसेना के मुंहफट प्रवक्ता संजय राउत थे जिन्होंने चुनाव के दौरान ही श्री ठाकरे के मन में मुख्यमंत्री पद के लिए भाजपा के समक्ष अड़ जाने की बात बिठा दी थी | परिणाम आने के पहले ही श्री राउत का ये कहना उन इरादों का संकेत देने लगा था कि शिवसेना के पास दूसरे विकल्प भी हैं | उसके बाद का घटनाक्रम सब जानते हैं | लगभग ढाई साल तक अपनी घोर वैचारिक विरोधी राकांपा और कांग्रेस के साथ सरकार चलाने के दौरान उद्धव को तो शिवसेना की आधारभूत पहिचान से समझौता करना पड़ा  लेकिन  उस गठबंधन के बाकी घटक  अपनी नीतियों पर अडिग बने रहे  | एकनाथ शिंदे ने भी अपनी बगावत के कारणों में इस बात का उल्लेख किया है कि उद्धव को मुख्यमंत्री बनाकर राकांपा और कांग्रेस अपना जनाधार मजबूत करते रहे  लेकिन शिवसेना की पकड़ कमजोर होती गई |  कहने वाले तो यहाँ तक कहते थे कि उद्धव तो नाम के मुख्यमंत्री थे और सत्ता का असली नियंत्रण राकांपा प्रमुख शरद पवार के हाथ में रहा  | आख़िरकार अपने अंतर्विरोधों के कारण वह सरकार चलती बनी | लेकिन उसके साथ ही शिवसेना में जो विभाजन हुआ उसने ठाकरे परिवार की ठसक और धमक दोनों खत्म कर दीं  | जो उद्धव और उनके बेटे आदित्य खुद को शिवसेना को अपनी निजी जागीर  समझते थे उनके हाथ से पहले तो सत्ता गयी और उसके बाद  पार्टी पर बना हुआ एकाधिकार भी खतरे में पड़ने लगा | 39 विधायकों के पाला बदलने के बाद उद्धव के साथ रहे विधायकों की सदस्यता पर खतरे के बादल मंडराने लगे हैं | ये आशंका भी है कि उनमें से भी कुछ शिंदे गुट के साथ जा सकते हैं | दूसरी तरफ पार्टी के अनेक सांसद पहले से ही श्री शिंदे के पाले में आ गये थे | उद्धव के साथ बचे सांसदों ने भी जब सार्वजनिक तौर पर एनडीए की राष्ट्रपति प्रत्याशी  द्रौपदी मुर्मू को समर्थन देने की इच्छा जताई तब उद्धव के कान खड़े हुए और उन्होंने उनकी बैठक बुलाई जिसमें लगभग सभी ने श्रीमती मुर्मू के समर्थन पर जोर दिया जिसके बाद उद्धव ने भी तत्संबंधी घोषणा कर डाली | कहा जा रहा है कि श्री राउत ने आख़िरी समय तक विपक्ष के संयुक्त उम्मीदवार यशवंत सिन्हा के समर्थन के लिए सांसदों को मनाने का प्रयास किया लेकिन  श्री ठाकरे ने सांसदों के दबाव के समक्ष झुकने की  अक्लमंदी दिखाई | हालांकि उन्होंने और श्री राउत दोनों ने दबाव में आकर यह निर्णय लेने से इंकार किया है किन्तु वे कहें कुछ भी लेकिन श्री शिंदे के दांव से चारों खाने चित्त होने के बाद उद्धव अपनी मर्जी थोपने की हैसियत में नहीं रह गये थे | उनको ये भय सता रहा था कि सांसदों की बात  न मानी गई तो कंगाली में आटा गीला वाली कहावत चरितार्थ होते देर न लगेगी | और इसीलिए उन्होंने बची – खुची पूंजी सहेजकर रखने का फैसला लिया | हालाँकि राकांपा ने ये कहकर इस फैसले का बचाव किया कि एनडीए में रहते हुए भी शिवसेना ने प्रतिभा पाटिल और प्रणब मुखर्जी का राष्ट्रपति चुनाव में समर्थन किया था लेकिन कांग्रेस को  ये  अच्छा नहीं लगा | दरअसल श्री ठाकरे ये समझ गए हैं कि सरकार चली जाने के बाद यदि पार्टी पर भी  आधिपत्य खत्म हो गया तो  राजनीति के मैदान में वे अकेले और असहाय खड़े रहने बाध्य होंगे | हालांकि श्रीमती मुर्मू का समर्थन करने के बावजूद श्री राउत ये कहने से नहीं चूके कि इसे भाजपा का समर्थन न माना जाए परन्तु इस कदम को भाजपा से दोबारा जुड़ने की प्रक्रिया की शुरुवात माना जा सकता है | महाराष्ट्र की राजनीति के जानकार ये भी कह रहे हैं कि अब तक उनके साथ बने हुए शिवसेना के नेताओं ने उद्धव को ये समझाइश दी है कि वे पार्टी में शरद पवार के एजेंट बन बैठे संजय राउत से पिंड छुडाते हुए भाजपा के साथ दोबारा जुड़ने की संभावना तलाशें | सांसदों की सलाह या दबाव को मानते हुए उद्धव द्वारा श्रीमती मुर्मू के पक्ष में आ जाने का निर्णय उसी दिशा में बढ़ने की शुरुवात हो सकती है | ये भी सुनने में आया है कि श्री ठाकरे की पूर्व मुख्यमंत्री और श्री  शिंदे को भाजपा के साथ जोड़ने के लिए जिम्मेदार देवेन्द्र फड़नवीस से भले ही न पटती हो लेकिन केन्द्रीय मंत्री नितिन गडकरी के साथ उनके रिश्ते बेहद सौहार्द्रपूर्ण हैं जो  इस मामले में वही भूमिका निभा सकते हैं जो बालासाहेब ठाकरे के ज़माने में शिवसेना – भाजपा गठबंधन को आकार देने में प्रमोद महाजन ने निभाई थी | हालाँकि इस बारे में पक्के तौर पर कुछ भी कह पाना कठिन है लेकिन उद्धव द्वारा राष्ट्रपति चुनाव में भाजपा द्वारा उतारी गईं प्रत्याशी द्रौपदी मुर्मू का समर्थन करना इतना तो दर्शाता ही है कि उनकी अकड़ खत्म हो चुकी है और उन्हें   ये भी समझ में आने  लगा है कि शरद पवार और कांग्रेस से पिंड छुडाकर हिंदुत्व के रास्ते पर चलकर ही वे अपना राजनीतिक अस्तित्व बचा सकेंगे वरना संगठन भी उनके हाथ से  जाना तय है | सही कहें तो भाजपा भी मन ही मन यही चाह रही होगी क्योंकि अब उद्धव की स्थिति बिना दांत और नाखून वाले शेर जैसी हो गयी है |

-रवीन्द्र वाजपेयी

Tuesday 12 July 2022

राहुल खुद भी तो बताएं चीनी दूत और मंत्रियों से उनकी क्या बातें हुईं



विपक्ष का काम है सरकार पर नजर रखना और जनहित तथा देशहित की  उपेक्षा होने पर सवाल पूछना | हालांकि कुछ विषयों के गोपनीय होने से उनकी जानकारी सार्वजनिक नहीं की जाती | केवल मंत्री ही नहीं अपितु सांसद  भी  ऐसी  जानकारी को  उजागार न करने की शपथ लेते हैं | संसद की  विभिन्न सलाहकार समितियीं के सामने भी कई ऐसी रिपोर्ट आती हैं जिनमें गोपनीयता बनाये रखना जरूरी होता है | इनमें ज्यादातर विदेश नीति और सुरक्षा संबंधी मामले होते हैं | अनेक ऐसे विषय भी होते हैं जिनकी जानकारी सरकार विपक्ष के नेता को दे देती है | सर्वदलीय बैठक बुलाने की परम्परा भी  प्रजातंत्र में प्रचलित है | भारत ने आजादी के बाद से अनेक युद्ध लड़े | इनमें 1962 में चीन से हम बुरी तरह हारे और हमारी हजारों वर्ग किलोमीटर भूमि पर उसने कब्जा कर लिया | आगामी अक्टूबर में उस युद्ध को 60 साल हो जायेंगे | उसके बाद यद्यपि चीन के साथ युद्ध तो नहीं हुआ लेकिन अपनी  विस्तारवादी नीति के चलते वह सीमा पर तनाव बनाये रखता है | इसके अलावा उसने जबरदस्त सैन्य ढांचा तैयार कर लिया है | जवाब में भारत ने भी  लद्दाख से लेकर सिक्किम तक  सड़क – पुल  , हवाई पट्टी के साथ ही आधुनिक युद्ध सामग्री आदि का पर्याप्त इंतजाम कर लिया है | यही वजह है कि चीन 1962 जैसा हमला करने की हिम्मत नहीं कर पा रहा | वैसे तो उसकी तरफ से घुसपैठ की कोशिश चलती रहती है जिसे हमारी सेना उसे सफल नहीं होने देती | वर्ष  2017 के दौरान भूटान के पठारी क्षेत्र  डोकलाम में हुए संघर्ष और 2020 के जून में लद्दाख की गलवान घाटी में हुई झड़प ही चर्चा में रही | डोकलाम का मामला  तो धक्का – मुक्की तक ही सीमित था किन्तु गलवान में विवाद ज्यादा बढ़ गया | एक स्थान पर चीन के कब्जे को रोकने गई टुकड़ी का नेतृत्व कर रहे कर्नल की चीनी सैनिकों से  झड़प में हुई मौत के बाद गुस्साए भारतीय सैनिकों ने भी  जमकर धुनाई की जिसमें चीन के दर्जनों सैनिक मारे गये |  उसके बाद से दोनों देशों के बीच दर्जन भर से ज्यादा सैन्य स्तर की बातचीत हो चुकी हैं  | चूंकि सीमा का निर्धारण आज तक नहीं हुआ  इसलिए दोनों  एक दूसरे पर आरोप लगाया करते हैं | चीन लद्दाख के साथ ही अरुणाचल प्रदेश को भी अपना मानता है | यही नहीं तो भारत के प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति के इस प्रदेश के दौरे तक पर आपत्ति जताता है |  हाल ही में दोनों देशों के विदेश मंत्री भी मिले  और सीमा विवाद हल करने पर चर्चा की | गलवान संघर्ष के बाद शुरू हुई सैन्य वार्ताओं का दौर भी जारी है | हालाँकि उसके बाद से कोई भी बड़ी घटना सुनने नहीं मिली सिवाय इसके कि कभी वायु तो कभी जमीन पर सीमा का उल्लंघन हुआ जिसे हमारी सेना ने विफल कर दिया | लेकिन  कांग्रेस नेता राहुल गांधी समय – समय पर प्रधानमंत्री पर सीधा हमला करते हुए  तथ्य छिपाने और चीन से डरने जैसे आरोप लगाया करते हैं | उनका कहना है कि चीन ने पूर्वी लद्दाख में हमारी काफी जमीन हाल ही के कुछ सालों में कब्जाई है लेकिन उसकी सरकार से इस बारे में बात करने का साहस उनमें नहीं  है | जबकि इस बारे में सेनाध्यक्ष तक सफाई दे चुके हैं | बेहतर होता वे इस बाबत प्रधानमंत्री और रक्षा  मंत्री से व्यक्तिगत मिलकर स्थिति का पता लगाते | चूंकि मामला सुरक्षा से जुड़ा है इसलिए हो सकता है उनके आरोप का जवाब सार्वजनिक तौर पर दिए जाने लायक न हो | और फिर इस बारे में श्री गांधी पर भी तो ये आरोप लगते रहे हैं कि जब डोकलाम में  विवाद चल्र रहा था उसी समय वे दिल्ली स्थित चीन के दूतावास जाकर  राजदूत से मिले | लेकिन आज तक उन्होंने इस बारे में सरकार या संसद को कुछ नहीं बताया | 2019 में  वे  चीन के रास्ते मानसरोवर भी गये थे और वापसी में उन्होंने चीनी नेताओं से बातचीत की | कुछ दिनों पहले ही उनकी काठमांडू यात्रा भी विवादों में घिर गयी जहाँ एक मित्र की विवाह पार्टी में शामिल होने वे एक नाईट क्लब में गये जिसमें नेपाल स्थित चीन की राजदूत भी शरीक थीं | हालाँकि प्रधानमंत्री से प्रश्न पूछने का श्री गांधी को पूरा अधिकार है | लेकिन बतौर सांसद और देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी के नेता होने के कारण उनसे ये अपेक्षा रहती है कि सुरक्षा संबंधी मामलों में  गंभीरता बरतें | गौरतलब है  दूतावासों के जनसंपर्क अधिकारी  सांसदों से संवाद और संपर्क बनाये रखते हैं | दूतावास में होने वाली दावतों में भी सांसदों को आमंत्रित करना कूटनीतिक जगत में आम है | लेकिन जब सीमा पर युद्ध की स्थिति हो तब हमलावार देश के  , जो हमारा ऐलानिया दुश्मन माना जाता है , के दूतावास में श्री गांधी क्या करने गये थे इस बात का खुलासा उन्हें करना चाहिये था | इसके उलट वे दूतावास जाने से ही इंकार करते रहे लेकिन बाद में मान गए | यदि वहां हुई बात सार्वजनिक करने योग्य नहीं थी  तब वे प्रधानमंत्री या रक्षा मंत्री से मिलकर  जानकारी दे सकते थे | लेकिन ऐसा करने की बजाय वे प्रधानमंत्री पर चीन से डरने जैसी बात कहें तो उनकी राजनीतिक  परिपक्वता पर संदेह और बढ़ता ही है | 2019 में बीजिंग में श्री गांधी ने चीन सरकार के कुछ मंत्रियों से बातचीत की थी  | लेकिन श्री गांधी ने आज तक इस बारे में मुंह नहीं खोला | ये देखते हुए  प्रधानमंत्री पर चीन से डरने जैसा आरोप लगाकर वे अपने को हंसी का पात्र बना रहे हैं | कांग्रेस में चूंकि उनको रोकने – टोकने वाला कोई है नहीं इसलिए वे जो मुंह में आता है बोल जाते  हैं जिसका नुकसान पार्टी को उठाना पड़ता है | ये कहने में कुछ भी गलत नहीं है कि आज कांग्रेस जिस दयनीय हालत में आ गई उसके लिए श्री गांधी ही ज्यादातर जिम्मेदार हैं जिनको राष्ट्रीय  राजनीति में  लंबा समय बीतने के बाद भी ये समझ नहीं आई की कब , कहां और क्या बोलना है ? वायनाड स्थित अपने कार्यालय में चीन समर्थित सीपीएम की छात्र इकाई एसएफ़आई द्वारा की गई तोड़फोड़ का विरोध करने का साहस तक तो उनमें हुआ नहीं | ऐसे में  वे प्रधानमंत्री के साहस पर उँगलियाँ उठाकर ये साबित करने का ही प्रयास कर रहे हैं कि उनके प्रति अक्सर प्रयुक्त होने वाला संबोधन गलत नहीं है | 

- रवीन्द्र वाजपेयी



Monday 11 July 2022

ब्रिटेन की राजनीति में भारतीय मूल के लोगों का बढ़ता प्रभाव शुभ संकेत



रूस द्वारा यूक्रेन पर हमला किये जाने के बाद से दुनिया भर में कूटनीतिक , सामरिक और आर्थिक समीकरण बदल रहे हैं | ये  महज संयोग है या ज्योतिषीय गणना के अनुसार नक्षत्रों की स्थिति  में होने वाले परिवर्तन का प्रभाव ये विश्लेषण का विषय है किन्तु वैश्विक परिदृश्य में लगातार आ रहे बदलाव निश्चित रूप से चौंकाने वाले हैं | श्रीलंका में आये आर्थिक संकट से उत्पन्न राजनीतिक अस्थिरता और चीन द्वारा ताईवान पर सैन्य कार्रवाई के जरिये कब्ज़ा करने की आशंका के बीच जापान , आस्ट्रेलिया ,अमेरिका और भारत के बीच बने क्वाड नामक संगठन की बैठक , रूस पर लगे आर्थिक प्रतिबंधों के कारण विश्व भर में महंगाई की मार , कच्चे तेल और गैस की किल्लत से उत्पन्न ऊर्जा संकट , रूस और यूक्रेन की लड़ाई लम्बी खिंचने से विश्व युद्ध का बढ़ता खतरा आदि बातों के बीच जापान के पूर्व  प्रधानमंत्री शिंजो आबे की हत्या और श्रीलंका में जन विद्रोह की घटनाओं से पूरी दुनिया हैरान कर दिया | लेकिन इसी बीच ब्रिटेन में प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन के विरुद्ध उनकी पार्टी में उठे विरोध  ने न सिर्फ यूरोप अपितु भारत का ध्यान भी आकर्षित किया  है | जॉनसन पर मुख्य आरोप ये हैं कि उन्होंने अपने एक सहयोगी क्रिस पिंचर पर लगे यौन दुराचार के आरोपों की  उपेक्षा करते हुए उन्हें संसद में उप मुख्य सचेतक बना दिया | हालाँकि उन्होंने उसके लिए माफी मांग ली लेकिन उनके साथियों ने ही इसे स्वीकार नहीं किया और 50 से ज्यादा मंत्रियों और  सांसदों ने त्यागपत्र देकर उन पर दबाव बना दिया | उसके बाद वे प्रधानमंत्री  पद त्यागने के लिए तो राजी हो गए लेकिन आगामी अक्टूबर में कंजरवेटिव पार्टी के अधिवेशन  तक सत्ता  पर बने रहने की जिद कर रहे हैं | दूसरी ओर उन पर तत्काल कुर्सी खाली करने और कार्यवाहक प्रधानमंत्री नियुक्त करने की मांग जोर पकड़ रही है | उनके उत्तराधिकारी के तौर पर जिन लोगों की चर्चा हो रही है उनमें भारतीय मूल के पूर्व मंत्री ऋषि सुनक और प्रीति पटेल भी हैं |  ऋषि के पास वित्त और प्रीति के पास गृह विभाग का होना इस बात का सूचक है कि भारत को सैकड़ों वर्षों तक गुलाम बनाकर रखने वाले ब्रिटेन में भारतीय मूल के लोगों ने  चिकित्सा , शिक्षा और व्यवसाय के अलावा  राजनीति में भी  अपना दखल इस हद तक बढ़ा लिया कि उन्हें प्रधानमंत्री की दौड़ में शामिल माना जाने लगा | उल्लेखनीय है ऋषि के पूर्वज बहुत पहले भारत छोड़कर कीनिया और फिर वहां से ब्रिटेन में जा बसे | लेकिन उनका विवाह देश की प्रमुख आईटी कम्पनी इन्फोसिस के संस्थापक नारायण मूर्ति की बेटी से हुआ है | और इस वजह से भारत के साथ उनका जीवंत सम्पर्क मानना गलत नहीं होगा | हालाँकि प्रीति पटेल के पति अंग्रेज हैं और वे पूरी तरह से ब्रिटिश रंग में रंगी हैं | बावजूद इसके यदि इन दोनों में से कोई भी प्रधानमंत्री बन जाता है तो भारत के साथ ब्रिटेन के रिश्तों में नजदीकी  बढ़ेगी |  यूक्रेन संकट के बाद  रूस पर प्रतिबंध लगने के बावजूद जब भारत ने उसकी निंदा करने से खुद को अलग रखते हुए व्यापार जारी रखा तब अमेरिका के साथ ब्रिटेन भी काफी नाराज था | लेकिन उसके बाद भी वह भारत के साथ मुक्त व्यापार समझौता करने की दिशा में आगे बढ़ रहा है जिसे जल्द अंतिम रूप दे दिया जायेगा | कुछ  समय पहले श्री जॉनसन की भारत यात्रा के पीछे ये भी एक उद्देश्य था | बहरहाल ये तो तय है कि अमेरिका और कैनेडा की तरह ही ब्रिटेन में भी भारतीय मूल के लोगों के दबदबे  में वृद्धि हुई  है | आज की दुनिया में कैरीबियन देशों के साथ ही कैनेडा , अमेरिका , ब्रिटेन , ऑस्ट्रेलिया , मॉरीशस , द. अफ्रीका  सहित अनेक अफ्रीकी देशों में भारतीय मूल के लोगों ने व्यापार , उद्योग , विज्ञान , बैंकिंग के साथ ही राजनीति में  जो  पकड़   बनाई वह निश्चित तौर पर शुभ संकेत है | भले ही ऐसे लोगों ने  उन देशों की  नागरिकता ग्रहण कर ली हो और  ऋषि तथा  प्रीति  सदृश  युवाओं के जन्म  के साथ लालन - पालन भी वहीं हुआ किन्तु उनका नाम भारतीय होना इस बात का प्रमाण है कि उनके परिवार का भारत के साथ सांस्कृतिक जुड़ाव  कायम है | संचार क्रांति और आवागमन के साधनों के विकसित हो जाने से भारत के साथ इन लोगों के सम्पर्क में नवीनता और निरंतरता दोनों नजर आने लगे हैं | दो पीढ़ी से विदेश में रह रहे भारतीय  मूल के अनेक लोगों ने अपने पूर्वजों की भूमि में  निवेश के लिये हाथ बढ़ाये हैं | 11 मई 1998 को भारत  द्वारा परमाणु परीक्षण किये जाने पर दुनिया भर की बड़ी ताकतों ने हम पर आर्थिक प्रतिबंध लगा दिए थे | उसके बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने दुनिया भर में फैले भारतीय मूल के लोगों से सहयोग की अपील की जिसका जादुई असर हुआ और देखते ही देखते बड़ी मात्रा में  विदेशी मुद्रा भारत में आई | उसके बाद से ही प्रवासी भारतीय सम्मेलन आयोजित होने लगे जिसका जबरदस्त लाभ देश को हुआ | बीते कुछ दशकों से  बहुत बड़ी संख्या में युवा पीढ़ी विदेशों में जाकर कार्यरत है | खाड़ी देशों में तो श्रमिक स्तर तक के भारतीय भी  हैं लेकिन विकसित देशों में इंजीनियरिंग , चिकित्सा , शिक्षा , अनुसन्धान , अन्तरिक्ष विज्ञान , सूचना तकनीक , प्रशासनिक और वित्तीय प्रबंधन के अलावा राजनीति में भी भारतवंशियों ने कामयाबी के झंडे फहराए हैं | इसकी वजह से साठ – सत्तर के दशक तक सपेरों और मदारियों का देश समझे जाने वाले भारत के प्रति दुनिया का नजरिया बदला है | भारत के उद्योगपतियों ने दुनिया की प्रतिष्ठित  औद्योगिक   इकाइयों को खरीदने का जो साहस बीते वर्षों में दिखाया उसने देश की प्रतिष्ठा में वृद्धि की है | यही वजह है कि आजादी के पहले या उसके एक –  दो दशक बाद तक विदेशों में जा बसे भारतीयों को उतना सम्मान नहीं मिला जितना आज मिल रहा है | उस दृष्टि से विदेशों में सरकारी अथवा अन्य किसी महत्वपूर्ण दायित्व को ग्रहण करने वाले  भारतीय को अपने मूल देश का नाम बताने में शर्म महसूस नहीं होती | अमेरिका में उपराष्ट्रपति कमला हैरिस का भले ही सीधे तौर पर भारत के साथ रिश्ता न हो लेकिन उनके निर्वाचन में भारतीयों का बड़ा योगदान था | उस देश में राज्यों के गवर्नर और सांसदों के साथ ही अमेरिकी राष्ट्रपति की प्रशासनिक टीम में भारतीयों की बड़ी संख्या का ही प्रभाव है कि वहाईट हॉउस में भी दीपावली मनाई जाने लगी | ये देखते हुए यदि भारतीय मूल का कोई भी व्यक्ति ब्रिटेन का प्रधानमंत्री बनने में सफल होता है तो उससे भारत की प्रतिष्ठा और स्वीकार्यता वैश्विक स्तर पर और बढ़ेगी |

- रवीन्द्र वाजपेयी

Sunday 10 July 2022

श्रीलंका की आग में भारत को अपने हाथ जलने से बचाना होगा



भारत के पड़ोसी देश श्रीलंका में जिस तरह का जन विद्रोह हो गया है उसके लिए वहां के शासक विशेष रूप से राजपक्षे परिवार पूरी तरह दोषी है जिसने बजाय भारत के , चीन जैसे शातिर और गैर भरोसेमंद राष्ट्र के साथ नजदीकियां बढ़ाकर खूब कर्ज लिया और अपने देश के  अनेक महत्वपूर्ण बंदरगाह तथा अन्यथा परियोजनाएं उसके हाथ सौंप दीं | इनमें हब्बनटोटा बंदरगाह सबसे प्रमुख है जिसे महिंद्रा राजपक्षे सरकार ने 99 साल के लिए चीन को पट्टे पर दे दिया | इसकी शर्तों के अनुसार इसके निर्माण पर आये खर्च की वसूली चीन उसके व्यवसायिक उपयोग से करेगा | हालांकि बाद में श्रीलंका को जब अपनी गलती का एहसास हुआ तब उसने बंदरगाह की सुरक्षा का जिम्मा चीन की सेना को देने की बजाय खुद करने का फैसला किया | वरना चीन चाहता था कि उस बंदरगाह पर उसकी अनुमति के बिना श्रीलंका का कोई नागरिक तक प्रवेश न करे | धीरे – धीरे वहां  की जनता को भी ये बात समझ में आई कि उनका देश चीन का आर्थिक उपनिवेश बनने के कगार पर आ चुका है | लेकिन राजनीतिक अस्थिरता का लाभ लेकर राजपक्षे परिवार थोक के भाव सत्ता पर काबिज हो गया | राष्ट्रपति , प्रधानमंत्री , महत्वपूर्ण विभागों के मंत्री और यहाँ तक कि सेना के ताकतवर पदों पर भी इसी परिवार के सदस्य अथवा कृपापात्र पदस्थ हो गए | परिणाम ये हुआ कि लोकतंत्र एक ही परिवार की कैद में चला गया | इसके साथ ही श्रीलंका  आय के स्रोत बढ़ाये बिना ताबड़तोड़ कर्ज लेता चला गया | बावजूद इसके किसी तरह उसका काम चल रहा था | 2009 में लिट्टे के खात्मे के बाद ये टापूनुमा देश तेजी से पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र बनने लगा था | उसके कारण अर्थव्यवस्था में सुधार के साथ ही  विदेशी निवेश आने की रफ्तार बढ़ी | श्रीलंका में वैसे औद्योगिक उत्पादन न के  बराबर होता है लेकिन चाय और मसालों के निर्यात में वह अग्रणी था | वैश्विक मंदी और  कोरोना ने दुनिया के साथ – साथ इस देश को भी झकझोरा। लेकिन इसी दौरान सरकार ने खेती को पूरी तरह से जैविक बनाने का फैसला लेकर रासायनिक खाद और कीटनाशकों का आयात रोक दिया | इसके कारण कृषि उत्पादन में बड़ी गिरावट आई और किसान गुस्से से भर उठे | कोरोना ने पर्यटन उद्योग को तबाह कर दिया किन्तु सरकार ने स्थिति से निबटने के लिए समुचित कदम नहीं उठाने के बजाय देश के खजाने को खाली करने वाले प्रकल्पों पर बेतहाशा धन खर्च किया | विदेशों से लिए गए कर्ज का उपयोग अनुत्पादक कार्यों में किये जाने की वजह से भुगतान संतुलन की स्थिति बुरी तरह गड़बड़ा गई और देश दिवालियेपन की तरफ बढ़ता गया | महंगाई आसमान पर जाने लगी , पेट्रोल डीजल के अलावा बाकी जरूरी चीजों का आयात करने के लिए विदेशी मुद्रा का अभाव हो गया | राष्ट्रीय मुद्रा का अवमूल्यन होने से अंतर्राष्ट्रीय साख भी लगभग खत्म हो गयी | जब पानी सिर के ऊपर से गुजरने लगा तब विपक्षी दल ,  बुद्धिजीवी और सामाजिक  संगठन सामने आये और देश अस्थिरता की ओर बढ़ चला | जो महिंद्रा राजपक्षे  लिट्टे का खात्मा करने के लिए वैश्विक विरोध को दरकिनार करते हुए नरसंहार  करने तक से नहीं डरे उनको न सिर्फ प्रधानमंत्री की कुर्सी छोड़ने के बाद किसी गुप्त स्थान पर  अपनी जान बचाने के मजबूरी झेलनी पड़  रही है | कुछ लोग उनके विदेश भाग  जाने की बात भी कह  रहे हैं | गत दिवस उनके भाई गोटबाया राजपक्षे भी राष्ट्रपति भवन छोड़कर भागे वहीं उनके सरकारी निवास पर भीड़ ने कब्ज़ा कर लिया | कार्यवाहक प्रधानमंत्री रानिल विक्रमसिंघे ने भी इस्तीफा दे दिया और उनका निजी आवास भी जनता ने आग के हवाले कर दिया | कुल मिलाकर श्रीलंका इस समय अराजकता , अनिश्चितता और अव्यवस्था के चरमोत्कर्ष पर है | वहां सरकार नाम की कोई चीज नहीं है | पेट्रोल – डीजल के दाम अकल्पनीय ऊंचाई पर हैं | पेट्रोल पम्पों पर सेना तैनात है | लाखों लोग दो समय के भोजन से वंचित हैं | महंगाई अनियंत्रित होने से जनता का धैर्य जवाब दे चुका है | जिसकी परिणिति राष्ट्रपति भवन में जनता के घुसने के रूप में हुई | संकट प्रारंभ होते ही श्रीलंका के तमिल भाषी , तमिलनाडु आने लगे थे | कुछ तो ऐसे भी हैं जो 2009 के संकट के समय से भारत में बतौर शरणार्थी रह रहे हैं | दूसरा बड़ा खतरा श्रीलंका में तमिल राष्ट्र के आन्दोलन का  पुनर्जन्म होने का है जिसका नुकसान भारत को होना तय है क्योंकि तमिलनाडु में शासन कर रही द्रमुक और कुछ अन्य पार्टियां उस  मांग को समर्थन देती रही हैं | द्रमुक नेता डी. राजा तो कुछ दिन पहले ही इस आशय की धमकी भी केंद्र सरकार को दे चुके हैं | इसके अलावा श्रीलंका भारत से आर्थिक सहायता के आलावा सैन्य मदद भी मांग सकता है क्योंकि वहां बड़ा वर्ग ऐसा है है जिसे चीन के हस्तक्षेप का डर है | यद्यपि अभी तक चीन ने श्रीलंका के मामले में हस्तक्षेप नहीं किया लेकिन आगे भी वह निर्लिप्त रहेगा ये सोचना गलत है क्योंकि उसने  बहुत बड़ा निवेश वहां कर रखा है | यहाँ ये भी याद रखने वाली बात है कि पृथक तमिल राष्ट्र का आन्दोलन जिस लिट्टे नामक आतंकवादी संगठन द्वारा चलाया गया वह भी चीन द्वारा ही पालित – पोषित था | इस प्रकार चीन ने श्रीलंका को लेकर दोगली नीति बनाई जिसका दुष्परिणाम सामने है | भारत के लिए वहां के हालत विभिन्न दृष्टियों  से खतरनाक हैं | शरणार्थी समस्या के अलावा तमिल राष्ट्र की नई मांग के अलावा चीन के वहां जाकर बैठ जाने जैसी अनेक बातें हमारी अर्थव्यवस्था के अलावा आन्तरिक और बाहरी सुरक्षा के साथ ही दक्षिण एशियाई शक्ति संतुलन की दृष्टि से बेहद संवेदनशील और चिंता पैदा करने वाली हैं | भारत की  अमेरिका , जापान और आस्ट्रेलिया के साथ मिलकर क्वाड नामक संगठन में सक्रियता से नाराज चीन मौका पाते ही हमें घेरने का प्रयास  कर सकता है जिसका अवसर  श्रीलंका संकट से  उसको मिल सकता है | हालाँकि  वैकल्पिक सरकार बनाने की कोशिशें की जा रही हैं लेकिन उसके बाद भी आर्थिक संकट का समाधान हुए  बिना वहाँ  स्थिरता नहीं आ सकती | भारत को श्रीलंका में लगी आग से खुद को बचाना होगा । हालाँकि केंद्र सरकार ने हालिया महीनों में इस देश की जो मदद की उसका श्रीलंकाई जनमानस पर  सकारात्मक असर है लेकिन उसके बाद भी हमें बहुत ही  संभलकर आगे बढ़ना होगा क्योंकि लिट्टे संकट के दौरान स्व. राजीव गांधी ने श्रीलंका को लेकर  जिस नीति को अपनाया वही अंततः उनके लिए जानलेवा साबित हुई | अतीत की उन्हीं गलतियों से सीखते हुए फैसला न लिया गया तो फिर वहाँ की आग बुझाने के फेर में हमारे हाथ भी जल सकते हैं | 

-रवीन्द्र वाजपेयी

Saturday 9 July 2022

अमरनाथ हादसा : प्रकृति की शांति भंग करने का दंड है ये आपदाएं



ये पहला हादसा नहीं है जब किसी पर्वतीय तीर्थस्थान पर प्राकृतिक आपदा की वजह से जनहानि हुई हो | 16 जून 2013 की रात उत्तराखंड के चार धामों में से एक केदारनाथ में आये जल सैलाब में  हजारों तीर्थयात्रियों बह गये थे | मंदिर को छोड़कर वहाँ कुछ भी नहीं बचा | केदारनाथ की चढ़ाई जिस गौरीकुंड से प्रारम्भ होती है वहां तक जलप्रलय की स्थिति बन गयी | आज भी अनेक लोग ऐसे हैं जिनका पता नहीं चला | दरअसल  एक दिन पहले से हुई भारी वर्षा के कारण केदारनाथ धाम से और ऊपर स्थित पहाड़ी झीलें लबालब हो जाने के बाद उनसे बहा पानी मौत लेकर नीचे आया |  समूचे उत्तराखंड में वैसी प्राकृतिक आपदा उसके पहले नहीं देखी गयी थी | यद्यपि उसके पहले चमोली में आये भीषण भूकम्प ने भी काफी नुकसान किया था | लेकिन केदारनाथ में आया पानी मानों इन्द्रदेव के कोप का प्रदर्शन ही था | उसका कारण  भी बादल का फटना रहा | उसके बाद केदारनाथ सहित उत्तराखंड के बाकी तीनों धामों में मूलभूत सुविधाओं का काफी विस्तार हुआ | तीर्थयात्रियों की बढ़ती संख्या को दृष्टिगत रखते हुए सड़कों का निर्माण बड़े पैमाने पर किया गया ताकि  आवागमन सुलभ होने के साथ ही दुर्घटनाओं को कम किया जा सके | ठहरने के सुरक्षित और सुविधाजनक स्थल विकसित किये जाने से तीर्थयात्रियों का प्रवास पूर्वापेक्षा सुखद होने लगा | लेकिन इस कारण हिमालय के  सुख - चैन में भी खलल पड़ा  | प्रकृति इंसानी जुबान नहीं बोलती लेकिन अपनी बात संकेतों के जरिये समय – समय पर बताती रहती है जिसे मनुष्य या तो बिलकुल नहीं समझ पाता या समझने के बाद  भी उसकी अनदेखी करने का अपराध करता है | यही वजह है कि कभी – कभी  आने वाली प्राकृतिक आपदाएं  जल्दी – जल्दी आने लगी हैं | लेकिन बजाय डरने के इन्सान प्रक्रृति को चुनौती देते हुए उससे लड़ने पर आमादा तो हो जाता  है परन्तु वह ये भूल जाता है कि उसकी तमाम वैज्ञानिक और तकनीकी उपलब्धियां उसकी  अदृश्य शक्ति के सामने बौनी हैं | गत दिवस कश्मीर घाटी में स्थित  अमरनाथ में भी केदारनाथ जैसी घटना की पुनरावृत्ति  हुई |  दुर्घटना के बाद सुरक्षित लौटे एक यात्री के अनुसार बादल फटने के समय गुफा के पास अस्थायी आवासीय क्षेत्र में 10 से 15 हजार श्रद्धालु थे | आज सुबह तक 16 मौतों के अलावा लगभग 60 लोगों के लापता होने एवं दर्जनों के आहत होने की जानकारी आई है | यात्रियों के लिए चलाये जा रहे लंगर और अनेक तम्बुओं के बहने के कारण उनका  सामान  भी बाढ़ की भेंट चढ़ गया | हालाँकि इस साल यात्रा की शुरुवात में भी बादल फटने की घटना हुई थी और  जुलाई 2021 में भी जल सैलाब आया था लेकिन जानमाल का इतना नुकसान नहीं हुआ जितना गत दिवस देखने मिला | फिलहाल यात्रा रोक दी गई है और हालात सुधरने के बाद दोबारा प्रारंभ होने का आश्वासन भी प्रशासन दे रहा है | अमरनाथ जाने वाले दोनों रास्तों अर्थात  पहलगाम और बालटाल में हजारों यात्री फंसे हुए हैं |  कोरोना के कारण दो वर्ष के विराम के बाद तीर्थ स्थानों को खोले जाने से इस वर्ष उत्तराखंड के चारों धामों में तीर्थयात्रियों का सैलाब आ गया है | उसी तरह की स्थिति कश्मीर घाटी  में भी है जो  इन दिनों पर्यटकों से लबालब रहती है | लेकिन इस साल अपेक्षा से ज्यादा सैलानी  आये हैं | यही बात अमरनाथ पर भी लागू हो रही है | वैसे ये यात्रा  सैकड़ों सालों से चली आ रही है किन्तु  आतंकवाद के उदय के बाद प्रतिक्रियास्वरूप देश के अन्य हिस्सों से इसमें शामिल होने वालों की संख्या साल दर साल बढ़ती जा रही है | गुफा के निकट का खुला इलाका भी इतना बड़ा नहीं है कि वहां बड़ी संख्या में लोगों के ठहरने का स्थायी प्रबंध हो सके | ऐसे में जरूरी है  कि आस्था के इन केन्द्रों में जाने वाले श्रृद्धालुओं की संख्या पर नियन्त्रण लगाया जाए जिससे पहाड़ों की शांति  में उतना ही  खलल पड़े जितना वे सहन कर सकते हैं | उत्तराखंड स्थित चारों प्रमुख तीर्थों की यात्रा भी सदियों से होती रही है जिसके लिए  पहले यात्री गण पैदल जाया  करते थे | 1962 में चीन के हमले के बाद इन इलाकों में सीमा सड़क संगठन (बीआरओ) द्वारा  बड़े पैमाने पर सड़कों का जाल बिछाये जाने के बाद   वाहनों द्वारा होने से तीर्थयात्रा   , पर्यटन में बदलने लगी | दूसरी तरफ यात्री सुविधाओं का विस्तार करने के लिए प्रकृति के साथ अत्याचार किये जाने  का परिणाम   पर्यावरण असंतुलन के तौर पर सामने आने लगा  | जो इलाके निर्जन हुआ करते थे वहां लाखों लोगों की आवाजाही और  वाहनों की वजह से ध्वनि और वायु प्रदूषण में वृद्धि दिखने लगी  | शहरों की तरह कचरा भी फैलने लगा | जिसका दुष्प्रभाव ऊंचाई पर स्थित ग्लेशियरों के पिघलने के रूप में सामने आ रहा है  | बादल फटने जैसी घटनाएँ अतीत में भी होती रहीं लेकिन भीड़ कम होने से ज्यादा नुकसान नहीं होता था | कालान्तर में  जो  हालात बने वे  प्रकृति के क्रोध  को बढाने में सहायक हुए और जिन आपदाओं के बारे में बुजुर्गों से सुना करते थे वे हर साल दो साल बाद लौटकर आने लगीं | दरअसल इनके जरिए प्रकृति हमें चेतावनी दिया करती है लेकिन हम हैं कि विकास और विलासिता की वासना में डूबे होने से उसकी तरफ ध्यान ही नहीं देते | केदारनाथ के बाद अमरनाथ की ताजा घटना को प्रकृति की चेतावनी मानकर यदि हम उसके प्रति अपना व्यवहार नहीं सुधारते तब इस तरह के हादसे बढ़ते जायेंगे और हम लाचार खड़े देखने के सिवाय और कुछ भी करने में असमर्थ रहेंगे | जल , जंगल और जमीन हमें जीने के लिए बहुत कुछ देते हैं लेकिन अभार स्वरूप यदि हम उनकी शांति में बाधा डालेंगे तब उनका रौद्र रूप दिखाना नितान्त स्वाभाविक ही माना जाएगा | 

- रवीन्द्र वाजपेयी

Friday 8 July 2022

रोम जलता रहा और नीरो बांसुरी बजाता रहा की उक्ति चरितार्थ हो रही कांग्रेस पर



महाराष्ट्र की राजनीति से फुरसत मिलते ही भाजपा ने नए लक्ष्यों की तरफ कदम बढ़ा दिए हैं | जिसके तहत हैदराबाद में राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक कर तेलंगाना में पैर ज़माने का पैंतरा दिखाया गया | वहां के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव इन दिनों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का विरोध करने में प. बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी से आगे निकलने की कोशिश में  दिल्ली में कई दिनों डेरा डालकर  विपक्षी  गठबंधन बनाने में जुटे रहे किन्तु राष्ट्रपति चुनाव में भाजपा ने द्रौपदी मुर्मू को उतारकर विपक्षी खेमे को बिखरने मजबूर कर दिया | यहाँ तक कि ममता भी ये कहने लगीं कि भाजपा पहले बता  देती वे भी श्रीमती मुर्मू का  संमर्थन करतीं | दरअसल उन्हें अपने राज्य में अनु. जनजाति के मतदाताओं की नाराजगी  का डर सता रहा है | इस तरह एनडीए के पास 2 फीसदी मतों की कमी का लाभ उठाते हुए  विपक्षी एकता के जरिये गैर भाजपाई राष्ट्रपति बनाकर श्री मोदी की नाक  में नकेल डालने का सपना एक झटके में टूट गया | इससे उत्साहित भाजपा ने राज्यसभा के लिए दक्षिणी राज्यों से चार सदस्यों का मनोनयन करते हुए बड़ा दांव खेल दिया | जिन हस्तियों को नामित किया गया उन पर कोई भी उंगली  नहीं उठा सकता | मसलन केरल से पी.टी. उषा , तमिलनाडु से इलैया राजा , कर्नाटक से वीरेंद्र हेगड़े और आंध्र से के.वी. विजेंद्र प्रसाद का चयन करते हुए  महिला , दलित और धार्मिक अल्पसंख्यक समुदाय को प्रतिनिधित्व देने के साथ ये भी ध्यान रखा गया कि वे अपने – अपने क्षेत्र में कामयाब और लोकप्रिय हों | महाराष्ट्र में शरद पवार की रचना कही जाने वाली शिवसेना , राकांपा और कांग्रेस की गठबंधन सरकार भविष्य में विपक्षी एकता का आधार बन सकती थी | लेकिन भाजपा ने उस संभावना की भ्रूण हत्या कर दी | शिवसेना में हुई टूटन के कारण उद्धव ठाकरे तो बुरी तरह कमजोर हुए ही लेकिन मुख्यमंत्री की कुर्सी पर एकनाथ शिंदे के रूप में मराठा को बिठाकर भाजपा ने श्री पवार के पावर में भी कटौती का दांव चल दिया | दूसरी ओर देश भर में हो रही राजनीतिक उठापटक के बीच कांग्रेस में छाई मुर्दानगी से न सिर्फ जनता अपितु विपक्षी दल भी परेशान हैं | राष्ट्रपति चुनाव में पहले ममता और बाद में श्री पवार ने अगुआई की जबकि राष्ट्रीय पार्टी होने के नाते इसकी पहल कांग्रेस से अपेक्षित थी | महाराष्ट्र में  सरकार बचाने के लिए भी श्री पवार ही सक्रिय दिखे जबकि कांग्रेस  उदासीन  बनी रही  | राहुल गांधी से दिल्ली में ईडी द्वारा पूछताछ के विरोध में कांग्रेस के तमाम छोटे – बड़े नेता सड़क पर उतरे किन्तु केरल स्थित उनके संसदीय क्षेत्र वायनाड में सत्ताधारी सीपीएम से जुड़े स्टूडेंट  फेडरेशन आफ इण्डिया के कार्यकर्ताओं द्वारा उनके कार्यालय में की गई तोड़फोड़ का विरोध करने का साहस न श्री गांधी में हुआ और न पार्टी में | उलटे राहुल ने लड़के बताकर हमलावरों को माफ़ कर दिया | इससे ऐसा लगता है कांग्रेस अपनी धार खोती जा रही है  | बीते माह राजस्थान के उदयपुर में हुए नव संकल्प चिन्तन शिविर में ऐसा दिखाया गया जैसे पार्टी  नई ऊर्जा के साथ  कूदेगी किन्तु शिविर के दौरान पंजाब में सुनील जाखड़ और उसके बाद गुजरात में हार्दिक पटेल ने उसे छोड़कर भाजपा का दामन थाम लिया | राष्ट्रपति चुनाव में श्रीमती मुर्मू के पक्ष में  विपक्षी खेमे से  समर्थन आने का क्रम जारी है | कांग्रेस की कार्यकारी अध्यक्ष सोनिया गांधी तो अस्वस्थ हैं लेकिन राहुल चाहते तो यशवंत सिन्हा के पक्ष में प्रयास करते हुए कांग्रेस को जीवंत दिखा सकते थे | लेकिन ताजा खबर ये है कि उपराष्ट्रपति के चुनाव में एनडीए की प्रचंड जीत के आसार देखते हुए कांग्रेस ने अपनी पार्टी के किसी नेता को उतारने तक से इंकार कर दिया है | झारखंड में हेमंत सोरेन के श्रीमती मुर्मू के पक्ष में नजर आने के बाद बड़ी बात नहीं , देर - सवेर वहां भी सत्ता पलट जाए | ऐसे में राजस्थान और छत्तीसगढ़ में ही कांग्रेस का झंडा फहराता नजर आयेगा | लेकिन  राजस्थान में अशोक गहलोत और साचिन पायलट के बीच गतिरोध को उलझाए रखने के कारण कांग्रेस अपने पांव  पर कुल्हाड़ी मारने जैसी मूर्खता कर रही है | उदयपुर में मुस्लिम कट्टरपंथियों द्वारा कन्हैया नामक हिन्दू दर्जी को नूपुर शर्मा का समर्थन किये जाने पर जिस नृशंस तरीके से मौत के घाट उतारा गया उसकी प्रतिक्रियास्वरूप राज्य में हिंदु भावनाएं उफान पर हैं जिनका सीधा लाभ भाजपा के खाते में जायेगा | यदि श्री पायलट को गांधी परिवार इसी तरह वायदों का झूला झुलाता रहा तब वे भी ज्योतिरादित्य सिंधिया का अनुसरण कर लें तो चौंकाने वाली बात नहीं होगी | वहीं छत्तीसगढ़ में बाहरी प्रत्याशियों को राज्यसभा भेजे जाने से उत्पन्न नाराजगी के साथ ही अनु. जनजाति के अनेक कांग्रेस विधायकों द्वारा  श्रीमती मुर्मू को समर्थन देने की इच्छा जताए जाने से भी  खतरा नजर आने लगा है | भूपेश बघेल सरकार के वरिष्ट मंत्री टी.एस.सिंहदेव भी ढाई – ढाई साल तक मुख्यमंत्री रहने  वाले समझौते के उल्लंघन से भन्नाए हुए हैं और चुनाव के पहले बड़ा धमाका कर सकते हैं | कुल मिलाकर कांग्रेस अब बिना राजा की फौज बनती जा रही है | गत दिवस राज्यसभा से हाल ही में निवृत्त हुए पूर्व केन्द्रीय मंत्री और जी - 23  नामक असंतुष्ट समूह के सदस्य आनंद शर्मा ने भाजपा अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा से मुलाकात कर हलचल मचा दी | इसे  हिमाचल प्रदेश के आगामी विधानसभा चुनाव से जोड़कर देखा जा रहा है | हालाँकि श्री शर्मा ने ये कहते हुए उस मुलाकात के उद्देश्य पर पर्दा डाले रखा कि वे  दोनों एक ही राज्य के होने से मिलते रहते हैं परन्तु इसके पूर्व इन नेताओं की भेंट की इतनी चर्चा शायद ही हुई हो | ऐसे में राज्यसभा से बाहर होने के बाद श्री शर्मा भी श्री नड्डा से निकटता का लाभ लेते हुए भाजपाई बन जाएँ  तो बड़ी बात नहीं होगी | वैसे भी  त्रिपुरा में मानक साहा और असम में हिमंता बिस्वा सर्मा को मुख्यमंत्री बनाकर भाजपा ने कांग्रेस से आने वालों को सत्ता रूपी प्रसाद का लालच तो दे ही दिया है  | ताजा उदाहरण महाराष्ट्र में श्री शिंदे की ताजपोशी है | ऐसे में यदि हिमाचल में श्री शर्मा को सुरक्षित भविष्य नजर आ रहा हो तो वे भाजपा में आने में संकोच शायद ही करें | इन सब बातों से लगता है कांग्रेस अपना आकर्षण खोती जा रही है | राष्ट्रीय परिदृश्य में भाजपा उस पर बहुत भारी नजर आने लगी है जबकि  ज्यादातर राज्यों में क्षेत्रीय पार्टियों ने उसे हाशिये पर धकेल दिया है | पता नहीं गांधी परिवार को ये सब दिखता है या वह रोम जलता रहा और नीरो बान्सुरी बजाता रहा वाली उक्ति को चरितार्थ कर रहा है ?

-रवीन्द्र वाजपेयी