Monday 4 July 2022

ऐसा क्या और कैसे हो गया कि पंच परमेश्वरों पर भी उँगलियाँ उठने लगीं



न्यायाधीशों के फैसलों को लेकर होने वाली चर्चा तो स्वाभाविक होती है लेकिन आजकल न्यायाधीश अपनी बातों से चर्चा का विषय बने हुए हैं | इसकी शुरुवात प्रधान न्यायाधीश  एन. वी. रमणा द्वारा अमेरिका में दिये  एक भाषण में  की गई उस  टिप्पणी से हुई जिसमें उन्होंने भारत के राजनीतिक दलों पर कटाक्ष करते हुए कहा कि उनके बीच ये गलत धारणा है कि न्यायपालिका को उनके कार्यों का समर्थन करते हुए उनके एजेंडे को आगे बढ़ाना चाहिए | उन्होंने आजादी के अमृत महोत्सव का जिक्र करते हुए कहा कि हमारा गणतंत्र 72 वर्ष का हो गया है किन्तु हमारे संस्थानों ने संविधान द्वारा सौंपी गई जिम्मेदारियों और भूमिका की सराहना करना नहीं सीखा | आगे वे ये भी बोल गए कि सत्ताधारी दल का मानना है कि प्रत्येक सरकारी काम को न्यायिक समर्थन मिलना  चाहिए , वहीं  विपक्ष में बैठे दल न्यायपालिका से अपने राजनीतिक कारणों को आगे बढाने की उम्मीद रखते हैं | और इस प्रकार की विचार प्रक्रिया संविधान और लोकतंत्र की समझ की कमी से पैदा होती है | श्री रमणा ने स्पष्ट किया कि न्यायपालिका संविधान के प्रति उत्तरदायी है न कि किसी राजनीतिक दल के | प्रधान न्यायाधीश के उक्त विचार पूरी तरह सही हैं | न्यायपालिका एक स्वतंत्र इकाई है जिसकी स्वायत्तता लोकतंत्र के लिए अनिवार्य है | उसका झुकाव  किसी राजनीतिक दल विशेष के प्रति  होने से तो वह अपनी निष्पक्षता खो देगी जो न्याय शब्द को ही अस्वीकार करने जैसा होगा | उस दृष्टि से श्री रमणा ने  जो कहा उससे असहमति रखने का प्रश्न ही नहीं है | लेकिन इस बात पर जरूर सवाल उठेंगे कि ये कहने के लिए उन्होंने अमेरिका को ही क्यों चुना ? और वह भी तब जब उनकी सेवा निवृत्ति अगले महीने की 26 तारीख को होने जा रही है |  आम तौर पर सेवा काल समाप्त होने के समय ही न्यायपालिका के उच्च आसन पर बैठे माननीय इस तरह की बातें करने लगते हैं | श्री रमणा बीते आठ साल से सर्वोच्च न्यायालय में हैं | लेकिन इसके पहले उनसे इस तरह की बातें सार्वजनिक रूप से शायद ही किसी ने सुनी होंगी | यदि उन पर किसी सत्ताधारी या विपक्षी दल ने उसके मनमाफिक फैसला देने का दबाव डाला  तब उन्हें तत्काल उपयुक्त कार्रवाई करनी चाहिये थी | कुछ साल पहले सर्वोच्च न्यायालय के चार न्यायाधीशों ने बाकायदे पत्रकारों से बात करते हुए   न्यायपालिका में व्याप्त विसंगतियों को उजागर कर एक नई परिपाटी को जन्म दे ही दिया | लेकिन श्री रमणा से इस आशय की बात कभी सुनने नहीं मिली | अदालती बहस के दौरान आजकल जिस तरह से न्यायाधीश गण डांट – फटकार लगाने लगे हैं वैसा भी कुछ श्री रमणा ने नहीं किया तब सात समंदर पर जाकर  ऐसा कहने से हमारी न्यायापालिका की स्वतंत्रता और निष्पक्षता को लेक्रर  अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर आलोचनात्मक टिप्पणियों का रास्ता खुल गया है | इसी तरह की कुछ बातें बीते सप्ताह नूपुर शर्मा की याचिका को ख़ारिज करते हुए सर्वोच्च न्यायालय की अवकाश कालीन खंडपीठ में बैठे हुए न्यायाधीशों द्वारा कहे जाने  पर विवाद खड़ा हो गया है | याचिका से जुड़े मुद्दे से इतर जिस तरह की अप्रासंगिक और अनावश्यक टिप्पणियाँ न्यायाधीशों द्वारा की गईं उनका उल्लेख  फैसले में कहीं नहीं था |  चूंकि याचिका में की गई याचना से भी उन कटाक्षों का दूर - दराज तक कोई सम्बन्ध नहीं है इसीलिए उनके विरुद्ध न्यायपालिका से जुड़े रहे लोगों के साथ ही अन्य वर्गों से भी विरोध और आलोचना के स्वर सुनाई दे रहे हैं |  एक न्यायाधीश महोदय ने सोशल मीडिया पर लगाम लगाये जाने की वकालत करते हुए  न्यायाधीशों पर व्यक्तिगत  हमलों पर ऐतराज करते हुए कहा कि फैसले जनमत के प्रभाव में  नहीं होते | यद्यपि वे इस बात को भूल गए कि नूपुर की याचिका को रद्द करने संबंधी उनके फैसले पर किसी ने आपत्ति नहीं जताई | लेकिन  सुनवाई  के दौरान की गई उन टिप्पणियों की वजह से वे आलोचना के पात्र बने जिनका संदर्भित याचिका से सम्बन्ध नहीं था | अपनी आलोचना से विचलित होना स्वाभाविक है परन्तु  नूपुर शर्मा के बारे में जिस तरह की बातें सुनवाई के दौरान कही गईं क्या वे उचित थीं ? यदि , हाँ , तो फिर वे रिकॉर्ड में क्यों नहीं ली गईं और नहीं तो फिर वे औचित्यहीन ही कही जायेंगीं क्योंकि उनमें तो  नूपुर को दोषी ही मान लिया गया था | इस प्रकार यदि  श्री रमणा और फिर इन दो न्यायाधीशों की टिप्पणियों को निजी राय माना जावे तो फिर उनकी व्यक्तिगत आलोचना को नहीं रोका जा सकता और वे अधिकृत हैं तो उनके बारे में उनकी जवाबदेही भी बनती है | मसलन श्री रमणा को स्पष्ट   करना चाहिए कि राजनीतिक दलों द्वारा न्यायपालिका को प्रभावित करने की बात किस आधार पर उन्होंने कही और यदि उन पर कभी कोई दबाव आया तो उन्होंने तत्काल उसके विरुद्ध क्या कदम उठाया ? इसी तरह नूपुर की याचिका पर टिप्पणी करने के बाद हो रही अपनी आलोचना को व्यक्तिगत हमला मानने वाले माननीय को भी इस बात की सफाई देनी चाहिए कि न्याय की आसंदी पर बैठकर उन्होंने याचिकाकर्ता  के बारे में जिस तरह की बातें कहीं क्या वे व्यक्तिगत हमला नहीं थीं ? सवाल ये भी है कि कालेजियम नामक  चयन प्रणाली पर आधारित न्यायपालिका का वर्तमान ढांचा  क्या  प्रतिभाओं को मौके देने के बारे में निष्पक्ष है ? जब संसद ने न्यायाधीशों के चयन हेतु संघ लोक सेवा आयोग जैसी पारदर्शी व्यवस्था की  तब सर्वोच्च न्यायालय ने उसे जिन कारणों से रद्द कर दिया उनका औचित्य आज तक साबित नहीं हो सका, सिवाय इसके कि मौजूदा व्यवस्था न्यायपालिका  में परिवारवाद को जारी रखने में सहायक है | बेहतर होगा  माननीय न्यायाधीश भी अपनी बातों  को न्यायिक प्रक्रिया की जरूरतों तक ही सीमित रखें | यदि उन्हें व्यक्तिगत हमले नापंसद हैं तब उनको भी अदालती कार्रवाई के दौरान  छींटाकशी से बचते हुए अपनी गरिमा को बनाये रखना चाहिए | प्रधान न्यायाधीश ने राजनीतिक  दलों पर तो टिप्पणी कर दी किन्तु उन न्यायाधीशों पर कुछ नहीं बोले जो सेवा निवृत्त होने के बाद किसी राजनीतिक दल में शामिल हो जाते हैं या आयोग जैसे किसी अन्य पद के लिए राजनेताओं के चक्कर काटते हैं ताकि बंगला , गाड़ी और अन्य सुविधाएँ जारी रहें | न्यायाधीशों के लिए यह सोचने का भी समय आ गया है कि ऐसा क्या और क्यों हो गया कि उस  देश में उनके निर्णयों पर उँगलियाँ उठने लगीं जहां पंच को परमेश्वर कहा जाता रहा |  


- रवीन्द्र वाजपेयी

 

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