Monday 25 July 2022

द्रौपदी मुर्मू : सेवा और समर्पण की राह पर चलकर शून्य से शिखर तक का सफर



राष्ट्रपति के पद को किसी दल ,  जाति , समुदाय और धर्म के दायरे में कैद किया जाना उसकी हैसियत को कमतर करना है किन्तु आज देश की 15 वीं राष्ट्रपति श्रीमती द्रौपदी मुर्मू के  सर्वोच्च संवैधानिक पद पर आसीन होने से आजादी के अमृत महोत्सव की सार्थकता और बढ़ गयी है | हमारे संविधान की सबसे बड़ी विशेषता ये है कि उसे हम भारत के लोग जैसी विराट स्वीकृति प्राप्त हुई | अन्यथा अनेक लोकतान्त्रिक देशों में संविधान भी जनता पर जबरिया लाद दिया जाता है | 75 साल पूर्व हमारे ही साथ आजाद हुए पाकिस्तान में सत्ता पलट के बाद संविधान के मूल स्वरूप को पूरी तरह नष्ट – भ्रष्ट कर दिया गया जबकि हमारे देश में विभिन्न विचारधाराओं की सरकारें बनने के बावजूद संविधान की आत्मा अक्षुण्ण बनी हुई है  | ऐसा नहीं है कि सत्ता में आये सभी लोगों ने आम जनता को चरम संतुष्टि दी हो | समस्याओं का सैलाब भी आता – जाता रहा | पराजय और विजय दोनों देश ने देखी  और  खाद्यान्न संकट  भी भोगा | आर्थिक संकट का वह दौर  भी आया जब देश का  स्वर्ण भंडार गिरवी रखने की नौबत तक आ गई | लोकतान्त्रिक ढांचे को नष्ट करने का पाप भी 1975 में लगाये गए आपातकाल के रूप में देखने मिला | लेकिन जैसा नजारा हाल ही में पड़ोसी श्रीलंका में दिखाई दिया वैसा भारत में नहीं हुआ तो उसका सबसे बड़ा कारण लोकतान्त्रिक संस्कार ही हैं जो हमारी उस सनातन परम्परा का प्रतीक हैं जिसमें भगवान स्वरूप राजा पर एक साधारण नागरिक भी उंगली उठा सकता था | बीते 75 सालों के दौरान पाकिस्तान , अफगानिस्तान , नेपाल , म्यांमार ( बर्मा ) , श्रीलंका और 1971 में जन्मे बांग्ला देश में राजसत्ता बदलने के लिए हिंसात्मक विद्रोह और गृहयुद्ध जैसी परिस्थितियां देखने मिलीं | लेकिन भारत में सत्ता जब भी बदली तो जनता ने क्योंकि हमारी शास्त्र परम्परा में जनता को जनार्दन कहा गया है | उस दृष्टि से श्रीमती मुर्मू का  देश का प्रथम नागरिक बनना उन पश्चिमी देशों के लिए एक सन्देश है जो खुद को प्रगतिशील और आधुनिक मानते हुए हमें हेय दृष्टि से देखते हैं | स्वाधीनता का अमृत महोत्सव कहने को तो एक सरकारी आयोजन है लेकिन इसका महत्व इस मायने में भी है कि आजादी की लड़ाई में शामिल हमारे पूर्वजों और उनकी गौरवगाथा सुनकर बड़ी हुई पीढी धीरे –  धीरे लुप्त होने के कगार पर है | श्रीमती मुर्मू के अलावा प्रधानमंत्री  नरेंद्र मोदी सहित देश और प्रदेश की सत्ता में बैठे ज्यादातर चेहरे स्वाधीन भारत में जन्मे हैं | उस दृष्टि से यह अमृत महोत्सव पीढ़ीगत परिवर्तन का प्रतीक बन गया है | दुर्भाग्य से राजनीतिक स्वार्थवश कुछ लोगों ने समाज को उस जाति प्रथा के जाल में फंसाने का षडयंत्र रचा जिसकी वजह से सामाजिक एकता के  लिए खतरा उत्पन्न होने लगा |  बीते तीन दशक की राजनीति जाति के नाम पर समाज को बांटने पर केन्द्रित रही | जाति मिटाने का नारा लगाने वालों ने अपनी जाति को ताकतवर बनाने के लिए समाज का मसीहा बनने का स्वांग रचते हुए सामाजिक समरसता को विद्वेष में बदलकर रख दिया | हालाँकि ऐसा करने वाले इस बात को जानते – समझते थे कि इन्हीं कारणों से देश को सैकड़ों वर्ष तक गुलाम रहना पड़ा किन्तु निजी स्वार्थवश उन गलतियों को दोहराने की मूर्खता की जाती रही जिसकी वजह से पंक्ति के अंतिम छोर पर खड़े लोग तो वहीं खड़े रह गये और उनके रहनुमा बने शातिर दिमाग वाले राजमहल में जा बैठे | लेकिन इसे शुभ संकेत कहना गलत न होगा कि देश की राजनीति जाति की संकीर्ण सोच से ऊपर उठकर अब समाज के उस वर्ग को प्रतिष्ठित करने की दिशा में आगे बढ़ रही है जिसे आश्वासनों के झुनझुने पकड़ाकर बहलाया तो बहुत गया लेकिन अधिकारों में हिस्सेदारी देते समय बेईमानी की गई | इसका लाभ उठाकर राष्ट्रविरोधी ताकतें उनके मन में भारत की संस्कृति और सामाजिक व्यवस्था के प्रति घृणा के बीज बोने में काफी हद तक कामयाब हो गईं | देश के जनजाति बहुल क्षेत्रों के निवासियों में व्यवस्था के प्रति विद्रोह की भावना प्रसारित करते हुए उन्हें अलगाववाद के रास्ते  पर जाने के लिए प्रेरित और प्रोत्साहित करने का षडयंत्र अंतर्राष्ट्रीय सहयोग से चलाया जाता रहा है | उसका ही परिणाम लोभ – लालचवश धर्मांतरण और डरा – धमकाकर नक्सलवाद के फैलाव के रूप में सामने आया  | उस दृष्टि से श्रीमती मुर्मू के राष्ट्रपति बनने से समाज के उस वर्ग में एक विश्वास जागा है कि बिना किसी हिंसा और संघर्ष के उन्हें मुख्यधारा में सर्वोच्च पद और सम्मान प्राप्त हो सकता  है | सबसे बड़ी बात ये है राष्ट्रपति बनने से पहले भी वे शासन और प्रशासन का हिस्सा रहने के अलावा सामाजिक सरोकारों से जुडी रहीं | यद्यपि इसमें दो राय नहीं हैं कि वे भाजपा के माध्यम से राजनीति करते हुए देश के सर्वोच्च संवैधानिक पद तक पहुँची हैं जिसमें पार्टी के वर्तमान नेतृत्व की भूमिका है लेकिन ये मानना होगा कि श्रीमती मुर्मू को जिस प्रकार राजनीतिक मतभेदों से ऊपर उठकर समर्थन प्राप्त हुआ उससे उनके चयन  का औचित्य साबित हो गया | यहाँ तक कि उनके प्रतिद्वंदी रहे यशवंत सिन्हा को राष्ट्रपति पद हेतु विपक्ष का  उम्मेदवार बनवाने वाली ममता बैनर्जी तक ने माना कि भाजपा नेतृत्व यदि पहले बता देता तब वे भी श्रीमती मुर्मू का समर्थन करतीं | ये बात भी देखने में आई कि उनका विरोध करने वाली पार्टियों के अनेक सांसदों और विधायकों ने भी उन्हें मत देकर उनकी विजय में योगदान  दिया | हिन्दुओं और सवर्ण जातियों की राजनीति करने के आरोप से घिरी रहने वाली भाजपा ने जहां  स्व. अटल बिहारी वाजपेयी के शासनकाल में प्रो. एपीजे कलाम को राष्ट्रपति बनवाकर एक  मुसलमान को संवैधानिक प्रमुख बनवाया जिसका चयन  योग्यता के आधार पर किया गया न कि अल्पसंख्यक तुष्टीकरण के लिए | इसी तरह नरेंद्र मोदी के रूप में जब भाजपा का दूसरा प्रधानमंत्री बना तो उस दौरान पहले दलित वर्ग के एक सुशिक्षित , सुशील और सुलझे हुए रामनाथ कोविंद को राष्ट्रपति भवन में प्रतिष्ठित  किया गया और उनके बाद द्रौपदी मुर्मू के रूप में अनु. जनजाति  की ऐसी महिला को  संवैधानिक प्रमुख बनवाया गया जिसका उत्थान उसके अपने पुरुषार्थ से हुआ और जिसने सार्वजनिक जीवन में शून्य से शिखर तक का सफर सेवा और समर्पण से तय किया | आज जिस शालीनता और गरिमामय तरीके से श्रीमती मुर्मू ने पदभार ग्रहण किया उससे भारतीय लोकतंत्र की छवि और उज्ज्वल हुई है | सबसे बड़ी बात ये है कि उनके निर्वाचन से देश के उन हिस्सों में  लोकतंत्र रूपी  अमृत की बूँदें बिखरी हैं जो आश्वासनों के भ्रमजाल में अब तक छले जाते रहे |

- रवीन्द्र वाजपेयी 

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