Saturday 2 July 2022

टीवी चैनलों पर होने वाली बहस की सार्थकता पर सवाल



सर्वोच्च न्यायालय की खंडपीठ ने  भाजपा की पूर्व प्रवक्ता नूपुर शर्मा के बारे में गत दिवस जो टिप्पणियाँ कीं उनके बाद टीवी चैनलों पर आयोजित की जाने वाली बहसों की सार्थकता पर बहस शुरू हो गई है | दरअसल जिस चैनल पर नूपुर ने विवादास्पद बयान दिया उसकी भी जिम्मेदारी तय होनी चाहिए थी | कहा  जाता है बहस में बैठे मौलाना के उकसाने पर सुश्री शर्मा आपा खो बैठीं और उन्होंने भी उसी शैली में जवाब दिया तो भारत सहित अनेक इस्लामी देशों में बवाल मच गया | मामले की गंभीरता को देखते हुए भाजपा ने नूपुर को पार्टी से निलम्बित कर दिया  वहीं उनके समर्थन में आये दिल्ली भाजपा के प्रवक्ता का निष्कासन कर डाला | मुस्लिम देशों की नाराजगी दूर करने के लिए उठाये गए कूटनीतिक क़दमों का माकूल असर हुआ और कुछ ही दिनों में उनका   गुस्सा  ठंडा पड़ गया |  लेकिन हमारे देश में राजनीतिक कारणों से विरोध की चिंगारी भड़काई जाती रही | कानपुर के साथ ही देश के अनेक शहरों में मुस्लिम समुदाय ने जुमे की नमाज के बाद जिस तरह का उपद्रव मचाया उसकी वजह से उत्तेजना और बढ़ी जिसका चरमोत्कर्ष उदयपुर में कन्हैया नमक दर्जी की नृशंस हत्या के रूप में सामने आया | इस वारदात से पूरे देश में गुस्सा है | जाँच एजेंसियों ने  जो संकेत दिए उनके अनुसार कन्हैया की हत्या केवल धार्मिक उत्तेजना नहीं वरन आतंकवादी षडयंत्र का परिणाम थी , जिसके तार पाकिस्तान से जुड़े पाए गये हैं | इसके बाद देश के अनेक शहरों से उसी तरह की धमकियां दिए जाने की  खबरें आने लगीं जैसी कन्हैया को दी गई थी | बकौल सर्वोच्च न्यायालय इस सबका कारण नूपुर का वह बयान था जिसके लिए उनके द्वारा माँगी गयी माफी सशर्त होने के कारण घमंड का एहसास करवाती है | न्यायालय ने उनको टीवी पर आकर माफी मांगने की नसीहत भी दी और उनकी गिरफ्तारी न होने पर भी ऐतराज जताया | लेकिन उसकी इस आपत्ति पर लोगों का ज्यादा ध्यान नहीं गया  कि जब ज्ञानवापी मस्जिद का प्रकरण अदालत में लंबित था तब टीवी चैनल ने उस पर बहस क्यों करवाई ? नूपुर के वकील के ये कहने पर कि उन्हें बहस के दौरान उकसाया गया तो न्यायाधीश ने कहा कि उनको टीवी एंकर के विरुद्ध शिकायत दर्ज करानी चाहिए थी | न्यायालय की टिप्पणी के बाद टीवी चैनलों की कार्यप्रणाली पर विचार करने की जरूरत है | बीते काफी समय से ये देखा जा रहा है कि समाचार चैंनलों की दर्शक संख्या में तेजी से कमी आती जा रही है और ये भी कि उनके द्वारा आयोजित बहस की प्रमाणिकता को लेकर संदेह बढ़ता जा रहा है | ये भी आम चर्चा है कि मुख्य रूप से हिन्दू – मुस्लिम  से जुड़े किसी भी विषय पर जिन मेहमानों को बुलाया जाता है उन्हें उसके लिए पैसे दिए जाने के साथ ही पूरी बहस की पटकथा पहले तय कर ली जाती है | जो लोग टीवी के परदे पर एक दूसरे पर हमला करने तक का दिखावा करते हैं वे बहस खत्म होने के बाद एक साथ बैठकर चाय पीते और अक्सर एक ही वाहन से जाते हुए दिखाई देते हैं | सच्चाई जो भी हो लेकिन तकनीक के कन्धों पर बैठकर आई टीवी पत्रकारिता ने बहस और विमर्श दोनों को जिस तरह बाजारू बना दिया उसके कारण यह माध्यम अपनी प्रतिष्ठा और विश्वसनीयता  गंवाता जा रहा है | नूपुर प्रकरण पर गत दिवस सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अदालत में लंबित मामलों पर बहस कराये जाने पर जिस प्रकार का सवाल उठाया उसका संज्ञान लेते हुए  चैनलों में दिखाई जाने वाली सामग्री को लेकर भी आचार संहिता लागू करने का समय आ चुका है | राजनेताओं , विशेष तौर पर सत्ता में बैठे लोगों का ये दायित्व बनता है कि वे इलेक्ट्रानिक मीडिया को अतिरिक्त महत्व देना बंद करें | जो दिखता है वह बिकता है , वाली धारणा को त्यागकर जो दिखाया जाए वह प्रामाणिक हो , वाली मानसिकता विकसित करनी होगी | कल खंडपीठ द्वारा जो टिप्पणियाँ नूपुर के बारे में की गईं उनको वापिस लिए जाने संबंधी याचिका प्रधान न्यायाधीश के समक्ष लगाते हुए एक सामाजिक कार्यकर्ता ने नूपुर को निष्पक्ष सुनवाई का अवसर दिए जाने का आग्रह किया है | ये सवाल भी उठ रहा है कि नूपुर को उकसाने वाले मौलवी पर शिकंजा क्यों नहीं कसा गया ? कुल मिलाकर इस मामले में जो निष्कर्ष सामने आ रहा है उसके अनुसार टीवी चैनलों का विशुद्ध व्यवसायिक रवैया देश में अनेक विवादों का कारण बनता रहा है | उस दृष्टि से देखें तो दूरदर्शन और लोकसभा टीवी पर होने वाली चर्चाओं में कहीं ज्यादा गंभीर और तथ्यात्मक बातें सुनने मिलती हैं | उनके एंकर खुद कम बोलते हैं और मेहमानों को ज्यादा अवसर दिया जाता है | लेकिन निजी चैनल विशुद्ध व्यवसायिक दृष्टिकोण से बहस आदि का आयोजन करवाते हैं | उनका मुख्य उद्देश्य दर्शकों को व्यर्थ की बातों में उलझाकर ज्यादा से ज्यादा विज्ञापन बटोरना है  जिसके लिए  सनसनी फैलाना आवश्यक होता है | संदर्भित प्रकरण के पीछे भी यही वजह समझ में आती है | उस दृष्टि से सर्वोच्च न्यायालय की खंडपीठ ने जितनी लताड़ नूपुर को लगाई उससे ज्यादा जरूरी उस चैनल के प्रति भी थी जिसने इस बवाल की जमीन तैयार की | अच्छा होगा कि टीवी चैनल आपसी प्रतिस्पर्धा के बावजूद इस तरह के विवादों को रोकने के बारे में आत्मानुशासन का उदाहरण पेश करें क्योंकि सरकार इस बारे में कडाई करेगी तो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन और असहिष्णुता का रोना शुरू हो जायेगा | यदि चैनल वाले खुद होकर सुधारवादी तरीके नहीं अपनाते तो सरकार या अदालत जो करेगी वह तो अलग है लेकिन दर्शक उनसे विमुख होते चले जायेंगे क्योंकि अधिकाँश दर्शक टीवी चैनलों के समाचार और निष्कर्षहीन बहसों से ऊबने लगे हैं | 

- रवीन्द्र वाजपेयी

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