Tuesday 5 July 2022

तमिलनाडु को अलग देश बनाने की धमकी राष्ट्रद्रोह नहीं तो और क्या है



तमिलनाडु में रामास्वामी पेरियार ने न सिर्फ दलित उत्थान का आन्दोलन शुरु किया अपितु वे पृथक तमिल राष्ट्र के पैरोकार बनकर भी उभरे | तमिलनाडु की राजनीति में उनका नीतिगत प्रभाव आज भी है | वे आर्य संस्कृति के भी घोर विरोधी थे | उच्च जातियों के विरुद्ध उनका संघर्ष तमिल राजनीति की पहिचान बन गई | यद्यपि जब पेरियार ने अपने से 40 वर्ष छोटी निजी सचिव से दूसरा विवाह कर उसे अपना उत्तराधिकारी बनाया तब उनका विरोध होने लगा और उनके सबसे प्रमुख शिष्य अन्ना दोरई ने द्रविड़ मुनेत्र कड़गम ( द्रमुक ) नामक पार्टी बनाकर अलग रास्ता पकड़ा | यद्यपि वह पार्टी भी तमिल भाषा और द्रविड़ संस्कृति के नाम पर उत्तर भारत के विरोध के रास्ते पर चली किन्तु पृथक तमिल राष्ट्र की मांग से उसने पल्ला झाड़ लिया | हालाँकि अन्ना के निधन के बाद उनके उत्तराधिकारी बने करुणानिधि और तमिल फिल्मों के सबसे बड़े नायक एमजी रामचंद्रन ( एमजीआर ) के बीच मतभेद होने पर अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कड़गम ( अद्रमुक ) बनाई गई | एमजीआर के जीवनकाल में ही उनकी महिला मित्र रहीं अभिनेत्री जे.जयललिता अद्रमुक की सर्वेसर्वा बन बैठीं | वहीं करुणानिधि के अवसान के बाद उनकी चार पत्नियों की अनेक संतानों के बीच चले सत्ता संघर्ष के बाद पार्टी की कमान उनके बेटे स्टालिन के हाथ आई जो तमिलनाडु के वर्तमान मुख्यमंत्री हैं | पेरियार नास्तिक थे और उनकी  नास्तिकता समाज पर  ब्राह्मणों के वर्चस्व के विरोध की वजह से पनपी | हालाँकि बाद में दोनों द्रविड़ पार्टियाँ इस बारे में ज्यादा मुखर नहीं रहीं किन्तु देश में सबसे ज्यादा आरक्षण देने वाले राज्य के रूप में तमिलनाडु ने दलित और पिछड़ी जातियों के बड़े  वोट बैंक को द्रमुक और अद्रमुक के साथ इतनी मजबूती से जोड़ा कि 1967 से वहां इन दोनों का ही शासन बारी – बारी से चला आ रहा है } यद्यपि कांग्रेस बतौर राष्ट्रीय पार्टी मौजूद रही लेकिन उसे भी समय – समय पर उनमें से किसी एक के साथ गठबंधन करना पड़ा | भाजपा  बीते दो दशक से वहां पैर ज़माने की कोशिश कर रही है और उसे  कभी जयललिता और कभी  करूणानिधि की बैसाखी थामने मजबूर होना पड़ा | इस प्रकार  तमिलनाडु देश के उन राज्यों में है जो उत्तर पूर्व की कबीलाई संस्कृति वाले राज्यों से अलग मुख्यधारा में होने के बाद भी राष्ट्रीय राजनीति में अपनी अलग पहिचान बनाए रखने के प्रति सदैव सतर्क रहा और उसका हिन्दी  विरोध ज़िद की हद तक कायम है | इसका प्रमाण हाल ही में चेन्नई के उस समारोह से मिला जिसमें मुख्यमंत्री स्टालिन ने प्रधानमंत्री नरेंद्र  मोदी के सामने ही कहा कि तमिलनाडु पर हिन्दी लादने की जुर्रत न की जावे | दरअसल उसके पहले गृहमंत्री अमित शाह ने हिन्दी को सरकारी कामकाज की भाषा बनाने की बात कही थी | इसी तरह भले ही पृथक तमिल राष्ट्र की मांग खुले तौर पर न की जाती रही लेकिन द्रमुक नेता करूणानिधि गाहे – बगाहे इसके संकेत देते रहे | और जब लिट्टे द्वारा श्रीलंका में  तमिल इलम के नाम से अलग देश बनाने का आन्दोलन गृहयुद्ध में बदल गया तब करूणानिधि भी  वृहत्तर तमिल देश का सपना संजोने लगे थे जिसमें श्रीलंका के उत्तरी हिस्से और तमिलनाडु को शामिल करने की कल्पना थी | भगवान राम को कपोल - कल्पित और रामचरित मानस को एक अच्छी काव्यकृति  बताते हुए  उन्होंने रामसेतु को तोड़कर समुद्री मार्ग विकसित करने का प्रयास भी  किया था | जब राजीव गांधी की हत्या हुई तब उसमें भी द्रमुक की भूमिका का संदेह जताया गया था | लेकिन राजनीतिक मजबूरी के चलते कांग्रेस ने द्रमुक के साथ गठबंधन किया जो आज भी जारी है | इसका परिणाम ये हुआ कि बीते 55 साल से तमिलनाडु में  सत्ता में चाहे द्रमुक रही या अद्रमुक , हिन्दी और उत्तर भारत के प्रति विरोध यथावत है | हालाँकि  दूसरे राज्यों के नागरिकों के विरुद्ध आन्दोलन जैसी बात देखने नहीं मिली और ये भी कि द्रविड आन्दोलन के जबरदस्त प्रभाव के बावजूद न तो इस राज्य से धार्मिकता समाप्त हुई और न ही सांस्कृतिक तौर पर उसे देश से अलग किया जा सका | लेकिन ऐसा लगता है मौजूदा राजनेता एक बार फिर तमिलनाडु को विवादग्रस्त बनाने की राह पर बढ़ रहे हैं | हिन्दी का विरोध भले ही राजनीतिक औजार के रूप में प्रयुक्त्त होता हो लेकिन उसमें पहले जैसी धार नहीं रही और न ही उत्तर भारत के प्रति आम जनता में किसी भी तरह का विरोध है | इसका कारण लाखों तमिल भाषियों का नौकरी के  सिलसिले में बाहर निकलना है | देश की राजधानी दिल्ली सहित ऐसा कोई बड़ा शहर नहीं होगा जहाँ तमिल भाषी न रहते हों | लेकिन गत दिवस द्रमुक नेता और पूर्व केन्द्रीय मंत्री डी . राजा ने अपनी पार्टी के नेताओं के बीच दिये भाषण में प्रधानमंत्री और गृह मंत्री से मांग कर डाली कि वे तमिलनाडु को स्वयात्तता प्रदान करें अन्यथा द्रमुक पृथक तमिलनाडु राष्ट्र की  मांग करने बाध्य हो जायेगी | उनके ऐसा कहते समय राज्य के मुख्यमंत्री स्टालिन भी उपस्थित थे | इस बयान के बाद राजनीतिक पैंतरेबाजी शुरू हो गई | लेकिन मुख्य रूप से भाजपा ही हमलावर बनकर सामने आई है | यद्यपि द्रमुक के एक नेता ने भाजपा की आलोचना को ख़ारिज करते हुए कहा कि राज्य सरकार को स्वतंत्र होकर काम नहीं करने दिया जा रहा | विधानसभा द्वारा पारित अनेक प्रस्ताव राज्यपाल ने स्वीकृति हेतु रोक रखे हैं ,  जिससे विकास कार्य प्रभावित हो रहे हैं | लेकिन मुख्यमंत्री स्टालिन ने न तो श्री राजा को पृथक तमिल राष्ट्र की मांग करते समय रोका और न ही बाद में उनके बयान की आलोचना की जबकि मुख्यमंत्री पद ग्रहण करते समय उन्होंने देश की  अखंडता और एकता अक्षुण्ण रखने की  शपथ भारतीय संविधान के अंतर्गत ली थी | ऐसे  में उनके सामने यदि उन्हीं की पार्टी के वरिष्ट नेता ने  तमिलनाडु को भारत से अलग कर पृथक देश बनाने की मांग कर डाली तब   उनका चुप रहना उस शपथ का खुले आम उल्लंघन है | और  ये मान  लेना गलत न होगा कि श्री राजा की मांग को स्टालिन का भी समर्थन है | ऐसे में सवाल ये है कि ये राष्ट्रद्रोह नहीं तो क्या है ? कश्मीर में इसी तरह की आवाज को अनसुना करने का परिणाम देश भुगत चुका  है | अब देश के दक्षिणी राज्य से उठी अलगाववादी मांग पर केंद्र सरकार के साथ बाकी राजनीतिक दलों को अपना विरोध खुलकर व्यक्त करना चाहिए | खास तौर पर कांग्रेस को जो स्टालिन की पार्टी के साथ गठजोड़ कर सत्ता में हिस्सेदारी कर रही है | उसे ये नहीं भूलना चाहिए कि श्री लंका में  पृथक तमिल राष्ट्र के आन्दोलन  ने ही राजीव गांधी की जान ली थी | 

-रवीन्द्र वाजपेयी


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