सर्वोच्च न्यायालय का ये कहना निश्चित रूप से उसकी सम्वेदनशीलता का परिचायक है कि कोई भी नागरिक भूख से न मरे और देश के हर व्यक्ति को राशन कार्ड दिया जावे जिससे वह मुफ्त अथवा रियायती दर पर खाद्यान्न प्राप्त कर सके | कोरोना के कारण लगाये गए लॉक डाउन के दौरान विभिन्न नगरों और महानगरों से पलायन कर अपने गाँव के लिए चल पड़े लाखों प्रवासियों की दर्दनाक हालत पर सर्वोच्च न्यायालय ने स्वतः संज्ञान लेते हुए सरकार से सवाल पूछे थे | सरकार की ओर से ये कहे जाने पर कि केंद्र और राज्य सरकारें हरसंभव मदद कर रही हैं , अदालत ने कहा कि यदि जरूरतमंद सरकार तक नहीं आ पा रहे तब सरकार को उसके पास जाना चाहिए | उसने खेद व्यक्त करते हुए कहा कि खाद्य सुरक्षा अधिनियम लागू होने के बावजूद किसी का भूख से मरना चिंताजनक है तथा अभी भी लोग पेट पर कपड़ा बांधकर एवं पानी पीकर भूख मिटाने मजबूर हैं | जिस किसी के मन में लेशमात्र भी करुणा है उसकी आँखें न्यायालय की उक्त बातें सुनकर छलछला उठेगीं | भारतीय संस्कृति में भूखे को भोजन और प्यासे को पानी देने का संस्कार घुटी में पिला दिया जाता है | आधुनिकता के बावजूद भोजन के साथ गाय की रोटी बनाने की परम्परा आज भी लाखों परिवारों में जारी है | साईं इतना दीजिये जा मे कुटुम समाय , मैं भी भूखा न रहूँ साधु न भूखा जाय , जैसा दर्शन भारत के आम आदमी के मन में गहराई तक समाया हुआ है | सुप्रसिद्ध विचारक के . एन. गोविन्दाचार्य ने एक बार कहा था कि समृद्ध कहे जाने यूरोप के अनेक देशों की आबादी से ज्यादा लोग हमारे देश में प्रतिदिन भंडारों में निःशुल्क भोजन करते हैं | गुरुद्वारों में तो बिना भेदभाव के लंगर की सुविधा हर किसी के लिए सुलभ है | कहने का आशय ये है कि हमारे देश में कुपोषण की समस्या तो है लेकिन भूख से मर जाने जैसी स्थिति और पानी पीकर पेट भरने सदृश बात पर आश्चर्य और अविश्वास होता है | सर्वोच्च न्यायालय का आकलन और अवलोकन पूरी तरह गलत है ये कहना तो अनुचित होगा क्योंकि इतने बड़े देश में अपवादस्वरूप इस तरह की घटना हो जाना असंभव नहीं है | लेकिन भूख से होने वाली मौत विशेष परिस्थितियों में ही होती होगी | इस बारे में उड़ीसा का कालाहांडी क्षेत्र काफी चर्चाओं में आया था लेकिन बीते कुछ सालों में कोरोना काल को छोड़ दें तब इस तरह की बात किसी की जानकारी में शायद ही आई होगी | यहाँ तक कि प्रवासी श्रमिकों के पलायन के दौरान भी समाज ने अपनी उदारता का परिचय देने में देर नहीं की | शहरों में रहने वाले बेघरबार श्रमिकों और रिक्शा चालकों जैसे लोगों को भोजन उपलब्ध करवाने का काम बड़े पैमाने पर हुआ | इसमें कोई दो मत नहीं है कि देश में गरीबी है जिसके कारण लाखों परिवारों के सामने दोनों समय पेट भर 🚔ने की समस्या है , पौष्टिक आहार तो बड़ी बात है | समुचित इलाज के अभाव की वजह से भी लोग जान से हाथ धो बैठते हैं | बच्चों और गर्भवती महिलाओं को पर्याप्त दूध नहीं मिल पाता | चिकित्सा सुविधा से वंचित लोग भी बहुत बड़ी संख्या में हैं | लेकिन इस सबके बाद भी यदि किसी की मौत भोजन के अभाव में होती है तो ये राष्ट्रीय शर्म का विषय है | यहाँ सवाल ये भी है कि जब 80 करोड़ लोगों को निःशुल्क और रियायती दरों पर अनाज मिल रहा है तब भुखमरी जैसे मामले सामने आना रहस्यमय है | यद्यपि ये भी सच है कि मुफ्तखोरी के साथ ही समाज की दयाशीलता ने ऐसे लोगों की भी एक जमात खड़ी कर दी है जिसमें अजगर करे न चाकरी पंछी करने न काम , दास मलूका कह गए सबके दाता राम वाली स्थिति में रहने की आदत पड़ जाने से बिना उद्यम किये खाने की प्रवृत्ति गहराई तक समा चुकी है | ये देखते हुए जरूरत इस बात की है कि भूखों की चिंता के साथ ही इस तरफ भी ध्यान दिया जाए कि लोगों में मेहनत करके पेट भरने का संस्कार पैदा हो | धार्मिक स्थलों पर भिक्षावृत्ति करते किसी वृद्ध , अशक्त अथवा दिव्यांग को देखकर हर किसी के मन में दयाभाव जागता है | लेकिन किसी हट्टे – कट्टे व्यक्ति को भोजन हेतु पैसा मांगते देख ज्यादातर लोगों को स्वाभाविक रूप से गुस्सा आता है | विशेष रूप से तब जब उससे कुछ काम करने के लिए कहने पर वह क्रोधित हो उठता है | ये स्थिति देश के बड़े हिस्से में दिखाई देती है | हालाँकि प्राकृतिक आपदा और सूखे के समय पलायन करने वालों के सामने पेट भरने की समस्या आती है लेकिन जो भी व्यक्ति सामान्यतः स्वस्थ है , वह भूखा मर जाये ये अविश्वसनीय लगता है | एक जमाना था जब गाँव से लोग रोजगार हेतु शहर का रुख करते थे | लेकिन अब तो औसत गांवों में भी श्रमिकों की जबरदस्त मांग है | खेती करने वाले ज्यादातर लोगों की शिकायत है कि उन्हें मजदूर नहीं मिलते | कोरोना काल में जब उद्योग – व्यापार ठप पड़े हुए थे तब लाखों लोगों ने आजीविका के वैकल्पिक साधन तलाशकर उदाहरण पेश किये | सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सरकार को दिए गए निर्देश पूरी तरह जायज हैं और निश्चित रूप से सरकार को इस बारे में समुचित कदम उठाना चाहिए परन्तु ये देखना भी उतना ही जरूरी है कि बिना कुछ किये पेट भरने वाली प्रवृत्ति पर भी विराम लगे | दुनिया की सबसे बड़ी आबादी वाला देश बनने की तरफ बढ़ रहे भारत में भीख मांगकर पेट भरने की सोच को खत्म करना होगा वरना खाद्य सुरक्षा योजना के ही असुरक्षित होने का खतरा है | गरीबी को परिस्थिति मान लेना तो ठीक भी है लेकिन उसे भाग्य मानकर निठल्ले बैठ जाने वालों को प्रोत्साहित और प्रेरित करने की बहुत आवश्यकता है |
- रवीन्द्र वाजपेयी
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