Friday 1 July 2022

सत्ता के बाद उद्धव से हिंदुत्व का मुद्दा छीनने की रणनीति



दस दिन तक महाराष्ट्र में चला घटनाचक्र कल शाम  ठहर तो गया लेकिन उसका अंत जिस नाटकीय तरीके से हुआ वह राजनीतिक पंडितों को हतप्रभ कर गया | हर घटना की नब्ज पर हाथ रखने वाले पत्रकारों और  टीवी समाचार चैनलों के अनुमान धरे रह गये | यहाँ तक कि भाजपा के वे नेता जो देवेन्द्र फड़नवीस को मुख्यमंत्री मानकर मुंह मीठा करवा रहे थे , आश्चर्यचकित रह गये जब  पत्रकार वार्ता में श्री फड़नवीस ने एकनाथ के सिर पर ताज रखे जाने और खुद सरकार से बाहर रहने की जानकारी दी | उसके पहले तक  कयास लगाए जा रहे थे कि एकनाथ उपमुख्यमंत्री बनेंगे | लेकिन सब उलट – पलट हो गया | स्मरणीय है 1989 में चौधरी देवीलाल का नाम प्रधानमंत्री हेतु तय हो जाने के बाद अगले ही पल विश्वनाथ प्रताप सिंह को आगे कर दिया गया था | उसी तरह 2004 में सोनिया गांधी ने जब डा.मनमोहन सिंह का नाम प्रधानमंत्री हेतु उजागर किया तब भी सब आश्चर्यचकित रह गए थे | उक्त फैसलों के पीछे की राजनीति आज तक रहस्यों के घेरे में है | उसी तरह का एहसास गत दिवस एकनाथ की ताजपोशी से हुआ | देवीलाल उपप्रधानमंत्री बनकर संतुष्ट हो गये थे और श्रीमती गांधी ने सत्ता  संचालन का रिमोट अपने हाथ में रखा |  देवेन्द्र ने जब सरकार से बाहर रहने का ऐलान किया तब ये अंदाज लगाया गया कि उनको केंद्र सरकार में जगह दे जावेगी किन्तु  प्रधानमंत्री , अमित शाह और पार्टी अध्यक्ष के दबाव के बाद वे उपमुख्यमंत्री बनने राजी हुए | वैसे तो इस लघुकथा को यहीं खत्म हो जाना चाहिए था लेकिन एकनाथ की ताजपोशी एक नई पटकथा की शुरुवात है | अटल – आडवाणी के दौर से सर्वथा अलग मोदी – शाह के युग की भाजपा ज्यादा आक्रामक है | अपने प्रतिद्वंदी को केवल शह देकर छोड़ने की बजाय ये जोड़ी मात देने तक हार नहीं मानती | इसमें कोई संदेह नहीं है कि आज भाजपा का राष्ट्रीय स्तर पर जैसा  विस्तार हुआ वह निश्चित रूप से मोदी – शाह की लक्ष्य केन्द्रित रणनीति का ही परिणाम है | महाराष्ट्र में  जिस तरह की राजनीति भाजपा के केन्द्रीय नेतृत्व ने दिखाई उसने शरद पवार जैसे महारथी तक को अचम्भे में डाल दिया | हालाँकि एकनाथ को उद्धव के विरुद्ध बगावत करने के लिए तैयार करने में श्री फड़नवीस का बहुत बड़ा योगदान है | लेकिन उन्हें मुख्यमंत्री बना दिया जाता तो वह साधारण सत्ता परिवर्तन होता जैसा म.प्र में दो  साल पहले हुआ था | तब ज्योतिरादित्य सिंधिया केंद्र में मंत्री बनकर अपने समर्थकों को राज्य में सत्ता दिलवाने से संतुष्ट हो गये थे परन्तु एकनाथ के साथ ऐसा सम्भव नहीं था | और फिर भाजपा सत्ता की लालची होने  के आरोप से भी बचना चाह रही थी |  उससे भी आगे   पार्टी नेतृत्व की सोच ये रही कि उनके  साथ आये विधायकों को साथ रखने की जिम्मेदारी श्री शिंदे के कन्धों पर ही रहे और दूसरा शिवसेना से मुकाबला करने के लिए उसी के पूर्व सेनापति को कमान दी जाए | असम और त्रिपुरा के बाद महाराष्ट्र वह राज्य बन गया  जहां दूसरी पार्टी से आये व्यक्ति को भाजपा ने मुख्यमंत्री बना दिया | यद्यपि  एकनाथ भाजपा में नहीं आये अपितु अपने को बाला साहेब ठाकरे का अनुयायी बताकर असली शिवसैनिक होने का दावा कर रहे हैं | भाजपा उनको  पार्टी में लाने की इच्छुक भी नहीं है क्योंकि उसका असली निशाना शिवसेना  से सत्ता छीनना ही नहीं बल्कि उसके प्रभाव को फीका करते हुए हिंदुत्व की दावेदारी छीनना है।और ये काम कोई ऐसा कट्टर शिवसैनिक ही कर सकता है जिसका अपना जनधार हो | उस दृष्टि से श्री शिंदे को उद्धव का विकल्प  बनाने की रणनीति भाजपा ने बनाई | जब उसने देखा कि वे दो तिहाई विधायकों को तोड़ने में सफल हो गये तब उसे महसूस हुआ कि शिवसैनिकों वाली कट्टरता उनमें है | विद्रोह करते समय एकनाथ ने शिवसेना द्वारा  शरद पवार , कांग्रेस और सपा जैसी पार्टियों से गठबंधन करने को नीतिगत पलायन बताते हुए शर्त रखी कि उद्धव वापिस भाजपा के साथ जुड़ें | हालाँकि वे जानते थे कि ऐसा होना संभव नहीं है क्योंकि श्री ठाकरे और उनके प्रवक्ता संजय राउत प्रधानमंत्री और अमित शाह के विरूद्ध इतना मुंह चला चुके थे कि भाजपा के साथ आना उनके लिए कठिन था | भाजपा भी बालासाहेब के न रहने  के बाद  ठाकरे परिवार की दादागिरी  खत्म करने की रणनीति पर चल रही थी | उसे ये नागवार गुजरता था कि हिंदुत्व के मुद्दे पर शिवसेना अपनी श्रेष्ठता लादने का प्रयास करती थी | इसमें संदेह नहीं है कि शिवसेना ने उग्र हिंदुत्व के नाम पर अपना एक वोटबैंक बना रखा है | भाजपा चाहकर भी उसमें सेंध नहीं लगा पा रही थी क्योंकि केंद्र की सरकार चलाते समय वैश्विक परिस्थितियों का भी ध्यान रखना जरूरी होता है | नूपुर शर्मा के मामले से ये बात प्रमाणित भी हो चुकी है | ऐसे में शिवसेना रूपी किले में सेंध लगाने के लिए उसी के घर का कोई व्यक्ति जरूरी था |  ये भी सुनने आया है कि एकनाथ और श्री फड़नवीस के बीच काफी दोस्ताना  है | ऐसे में उद्धव से मिल रही उपेक्षा का दर्द जब उन्होंने बयान किया  तब देवेन्द्र ने उनकी दुखती रग पर हाथ रखा | बीते दस दिनों में जो घटनाचक्र देखने मिला उसकी तैयारी बीते ढाई साल से चल रही थी | लेकिन गत दिवस भाजपा ने जो पैंतरा चला वह पूरी तरह अप्रत्याशित है | हालाँकि बीते आठ साल में  भाजपा इस तरह के चौंकाने वाले निर्णय करती रही है | लेकिन कल जो कुछ हुआ वह अकल्पनीय था | भाजपा ने इसके जरिये न सिर्फ उद्धव से सत्ता छीनी अपितु अब वह शिवसेना भी छीनना चाहती है | वैसे भी श्री ठाकरे अपनी ठसक खो चुके हैं | शिवसेना में जो नेता और कार्यकर्ता सत्ता के  दबदबे के चलते उनके साथ रहे , उनका मन भी डोलने लगा है | इसी के साथ ही कांग्रेस  और राकांपा में भी एक तबका है जिसके मुंह से एकनाथ की ताजपोशी देखकर लार टपकने लगी है | ये देखते हुए आगामी चुनाव के पहले अनेक नेता भाजपा के करीब आ सकते हैं | नारायण राणे और एकनाथ शिंदे के शिवसेना से निकल आने से उसकी मैदानी ताकत घटी है | अभी तक शिवसेना के जो नेता उद्धव से नाराज होने के बाद भी विकल्प के अभाव में उनके साथ चिपके हैं वे भी एकनाथ के साथ आ जाएँ तो अचरज नहीं होगा  |   भाजपा ने अपना आधा लक्ष्य  प्राप्त कर लिया परन्तु  उसकी कार्ययोजना का असली उद्देश्य शिवसेना को इतना कमजोर कर देना है जिससे वह अपने पैरों पर खड़ी न हो सके | हालाँकि  एक हिन्दुत्ववादी पार्टी को तोड़ने के आरोप से बचने के लिए उसने श्री शिंदे के सिर पर हाथ रख दिया जिन्होंने उद्धव पर हिन्दुत्व के रास्ते से भटकने का आरोप लगाकर भाजपा का मकसद सीमित हद तक तक तो पूरा कर दिया और बचा – खुचा वह उनको सिंहासन पर बिठाकर करवायेगी | वैसे भी  एकनाथ के पास पीछे लौटने की गुंजाइश नहीं है और अपना राजनीतिक अस्तित्व बचाए रखने के लिए उन्हें उद्धव के हाथ से पार्टी छीननी पड़ेगी | और यही भाजपा का भी उद्देश्य है | 

- रवीन्द्र वाजपेयी

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