Thursday 30 June 2022

बिना पद के भी पिता अभूतपूर्व थे किन्तु सत्ता पाकर भी बेटा भूतपूर्व रह गया




शिवसेना के संस्थापक बाल ठाकरे ने कभी मंत्री , सांसद , विधायक बनने की नहीं सोची | इसीलिये वे सत्ता में  आये बिना भी अभूतपूर्व बने रहे और आज भी विरोधी तक उनका लोहा मानते हैं | लेकिन महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री पद से कल रात  हटने मजबूर हुए उनके बेटे उद्धव ठाकरे केवल भूतपूर्व ही रहेंगे | जब उन्होंने राकांपा और कांग्रेस के साथ बेमेल गठबंधन कर मुख्यमंत्री पद हासिल किया तब  लग रहा था कि पिता की तेजस्विता के अनुरूप वे सत्ता चलाएंगे लेकिन अपने ही सैनिकों से हारकर सत्ता छोड़ते समय उद्धव जिस तरह निरीह नजर आये उसे देखकर किसी को नहीं लगा कि उनमें अपने स्वर्गीय पिता का कोई भी गुण है | जब एकनाथ शिंदे ने बगावत का बिगुल बजाया तब शुरुवात में उद्धव और उनके बड़बोले प्रवक्ता संजय राउत पहले तो बागियों से बात करने की गुजारिश करते दिखे | संजय को ये कहते तक सुना गया कि न एकनाथ , शिवसेना  को छोड़ेंगे और न ही शिवसेना , एकनाथ को | इसके बाद जब बागियों का कुनबा सूरत से गुवाहाटी जा पहुंचा तब श्री राउत ने उन्हें मुम्बई आकर श्री ठाकरे के सामने बैठकर शिकवे – शिकायत करने की समझाइश देते हुए ये आश्वासन तक दे डाला कि यदि बागी चाहेंगे तो शिवसेना राकांपा और कांग्रेस के साथ गठबंधन से अलग हटने राजी है | इसी के साथ उद्धव ने भी अत्यंत विनम्रता पूर्वक बागियों को सन्देश दिया कि वे चाहेंगे तो मुख्यमंत्री पद छोड़ दूंगा | लेकिन उसके बाद श्री राउत बदजुबानी पर उतर आये और श्री शिंदे के साथ गुवाहाटी में बैठे विधायकों को मुर्दा बताते हुए मुम्बई आने पर पोस्ट मार्टम करवाने जैसी बात कर बैठे | उन्होंने यहाँ तक कहा कि शिवसैनिक भड़क गये तो आग लग जायेगी | उधर उद्धव के बेटे आदित्य ने बागी विधायकों को ये कहकर डराया कि मुम्बई हवाई अड्डे से आने पर उनको वरली और बांद्रा इलाके से गुजरना होगा जो उनके प्रभाव वाले माने जाते हैं | यह भी एक तरह की धमकी ही थी | लेकिन इस सबके बावजूद उद्धव  , बाल ठाकरे वाले  रुतबे को कायम नहीं रख पाए और  उन शरद पवार की चरण वंदना करते रहे जिनको बाला साहेब , दाउद  इब्राहीम का संरक्षक मानते थे | जिस कांग्रेस और सोनिया गांधी के प्रति गत दिवस उद्धव ने आभार जताया उनके बारे में भी अपने  पिता के विचारों को उन्होंने भुला दिया | कुल मिलाकर महाराष्ट्र में बीते ढाई साल में जो अप्राकृतिक  गठबंधन सरकार में रहा  वह ठीक उसी तरह का था जैसा भाजपा और पीडीपी ने जम्मू कश्मीर में बनाया था | यद्यपि उस सरकार को गिराने के बाद धारा 370 को विलोपित करने और जम्मू कश्मीर से  लद्दाख को अलग करने जैसे निर्णयों से भाजपा ने अपने उस कदम  को रणनीति का नाम देकर अपना पाप धो लिया । लेकिन बाला साहेब की इच्छाओं के विरूद्ध श्री पवार और सोनिया गांधी का सहारा लेकर उद्धव ने सरकार क्यों बनाई इसका कोई ठोस कारण उनके पास नहीं है, सिवाय इसके कि येन - केन – प्रकारेण मुख्यमंत्री बनना था चाहे इसके लिए पार्टी के मौलिक सिद्धांतों से समझौता ही किया जाए | यदि उद्धव राकांपा और कांग्रेस को अपनी नीतियों में ढालते तब यह प्रयोग उनकी राजनीतिक सफलता माना जाता लेकिन मुख्यमंत्री रहने के बाद भी शिवसेना अपने मूल एजेंडे को रत्ती भर भी लागू नहीं कर  सकी | परिणाम ये निकला कि उद्धव नाममात्र के मुख्यमंत्री बने रहे लेकिन सत्ता का असली संचालन श्री पवार के द्वारा किया जाता रहा और यही एकनाथ शिंदे की नाराजगी की वजह बना | उससे भी बड़ी बात ये रही कि उद्धव में मुख्यमंत्री बनने का कोई गुण था ही नहीं | वे अपने बेटे आदित्य को उस कुर्सी पर बिठाकर बालासाहेब की भूमिका में रहना चाहते थे लेकिन श्री पवार और कांग्रेस उस हेतु तैयार नहीं थे लिहाजा उन्हें वह पद ग्रहण करना पड़ा | उनकी कार्यप्रणाली में भी ये देखने मिला जब पूरे कार्यकाल में वे राज्य सचिवालय में कभी – कभार ही गए | उनके लिए अच्छा होता यदि  वे एकनाथ की बगावत को रोकने के लिए शिवसेना को महाविकास अगाड़ी नामक गठबंधन से बाहर निकालकर भाजपा से दोबारा रिश्ता जोड़ते और खुद बाल साहेब की तरह  किंग मेकर की भूमिका में रहते | ऐसा करने से पार्टी की टूटन भी बचती और सरकार के साथ शिवसेना का नाम भी जुड़ा रहता | लेकिन बीते ढाई साल में ये साबित हो गया कि उद्धव बिना रीढ़ वाले नेता हैं जो ठोस दृष्टिकोण नहीं होने से श्री पवार और श्री राउत द्वारा चले गये पांसों पर दांव लगाते गए और आखिर में बड़े बे आबरू होकर  कूचे से बाहर निकलने  मजबूर हो गए | एकनाथ शिंदे को चाहे गद्दार कहा जाए या अवसरवादी लेकिन उनहोंने जो मुद्दे उठाये उनका समुचित जवाब न उद्धव और आदित्य दे सके और न ही संजय राउत | शिवसेना ने भाजपा के बड़ी   पार्टी होने के बावजूद उसका साथ छोड़कर अपने जन्मजात विरोधी शरद पवार और कांग्रेस के अलावा समाजवादी पार्टी जैसी मुस्लिम परस्त पार्टी के समर्थन से अपना  मुख्यमंत्री बनवाने की जिद क्यों पकड़ी इसका कोई वाजिब कारण आज तक वह स्पष्ट नहीं कर सकी | उल्लेखनीय है महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के परिणाम आने के साथ ही श्री राउत ने ये कहना शुरू कर दिया था कि उनके पास और भी विकल्प हैं | बाला साहेब और प्रमोद  महाजन के बीच दोनों दलों का गठबंधन होते समय ही ये तय हो चुका था कि राज्य में जिसके पास ज्यादा सीटें होंगी मुख्यमंत्री पद भी उसी के पास रहेगा | इसी के तहत जब तक शिवसेना बड़ी पार्टी रही सरकार का नेतृत्व उसे मिला | लेकिन 2014 में जब अलग – अलग लड़ने के बाद  भाजपा आगे  निकल गई तब शुरुवात में तो शिवसेना ने नखरे दिखाए किन्तु बाद में वह देवेन्द्र फड़नवीस को मुख्यमंत्री स्वीकार कर सरकार में आ गयी | लेकिन उसकी तल्खी बनी रही जिसे श्री राउत जैसे नेता हवा देते रहे | अंततः 2019 के चुनाव के बाद गठबंधन टूटा और शिवसेना एनडीए से भी अलग हट गई जिससे केंद्र सरकार में उसके मंत्री ने भी इस्तीफ़ा दे दिया | और फिर  शरद पवार द्वारा फेंके गए जाल में उद्धव फंस गये जिसका नतीजा ये निकला कि आज न उनके हाथ सरकार रही और न ही सिद्धांतों की पूंजी | यदि वह सरकार से बाहर रहकर भी भाजपा के साथ खड़े रहते तो उसका हिंदुत्व के प्रति आग्रह प्रमाणित होता | जाहिर है जाते – जाते उद्धव को अपराधबोध का एहसास हुआ और  उन्होंने औरंगाबाद का नाम संभाजी नगर और उस्मानाबाद का धाराशिव कर दिया जिससे नाराज होकर मुस्लिम मंत्री बैठक से बाहर आ गये और सपा विधायक अबू आजमी ने भी उद्धव को आढे हाथ लिया | इस्तीफे का ऐलान करते समय उन्होंने बड़े ही कातर भाव से कहा कि सत्ता भले चली गई किन्तु  उनके पास शिवसेना है और वे विधान परिषद की सदस्यता त्यागकर शिवसेना कार्यालय में बैठेंगे | लेकिन उन्हें ये याद रखना चाहिए कि अब न तो वह शिवसेना बची जिसके वे बेताज बादशाह हुआ हुआ करते थे और न ही उनकी आवाज में हिंदुत्व की हुंकार | 

-रवीन्द्र वाजपेयी

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