Thursday 23 June 2022

उद्धव : हिन्दुत्व को छोड़ने से न धाक बची न साख


 
महाराष्ट्र का राजनीतिक संकट एकाएक पैदा नहीं हुआ | इसकी शुरुवात  उसी दिन हो गयी थी जिस दिन उद्धव ठाकरे ने अपने वैचारिक विरोधी शरद पवार और कांग्रेस के साथ मिलकर मुख्यमंत्री पद हासिल किया था | ठाकरे परिवार कट्टर हिन्दुत्ववादी  रहा है | कुछ मामलों में तो संघ परिवार से जुड़े लोग भी ये स्वीकार करते हैं कि हिंदुत्व के प्रति स्व. बाल ठाकरे और शिवसेना कहीं ज्यादा आक्रामक रहे हैं | स्व. ठाकरे की ये ख़ास बात रही कि उनकी पार्टी चाहे महाराष्ट्र की सत्ता में रही या केंद्र की  , लेकिन उन्होंने स्वयं अथवा अपने परिवार के किसी सदस्य को मंत्री  तो क्या सांसद – विधायक  तक नहीं बनने दिया | इसीलिये  वे अपनी शर्तों पर राजनीति करते थे  | उनके न रहने के बाद उद्धव और उनके बेटे आदित्य ने उस मर्यादा को तोड़ दिया और पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा की सीटें लगभग दोगुनी आने के बावजूद शिवसेना मुख्यमंत्री के लिये अड़ गई |  जब भाजपा राजी नहीं हुई और  उसने श्री पवार के भतीजे अजीत के साथ मिलकर सरकार बनाने की असफल कोशिश की तब उद्धव , श्री पवार की राकांपा के अलावा कांग्रेस के समर्थन से मुख्यमंत्री की कुर्सी पर जा बैठे | साथ ही अपने बेटे आदित्य को भी मंत्री बना लिया | चूंकि उद्धव विधायक नहीं थे इसलिए विधानसभा में एकनाथ शिंदे नेता बने | वे बालासाहेब  ठाकरे के दौर से ही स्थापित नेता थे किन्त्तु उद्धव और आदित्य ने उन्हें उपेक्षित और अपमानित करने की जो गलती की उसने उनके हाथ से सत्ता छिन जाने का रास्ता तैयार कर  दिया | यद्यपि समूचे घटनाक्रम में परदे के पीछे से पूर्व मुख्यमंत्री देवेन्द्र फड़नवीस की भूमिका से इंकार नहीं किया जा सकता लेकिन भाजपा को मौके का लाभ उठाने का अवसर तो उद्धव और उनके बेटे की अधकचरी राजनीतिक  शैली और ऊल जलूल निर्णयों ने दिया | सही बात तो ये है कि मुख्यमंत्री भले उद्धव  रहे लेकिन सत्ता  और गठबंधन के सूत्र पूरी तरह से श्री पवार के पास थे  |  उल्लेखनीय है कि  शिवसेना और श्री  पवार के बीच राजनीतिक मतभेद जग जाहिर रहे हैं | स्व. बालासाहेब ठाकरे तो उन्हें दाउद इब्राहीम का संरक्षक मानते रहे लेकिन सत्ता की चाहत में उद्धव उन्हीं की गोद में जा बैठे | गौरतलब है कांग्रेस शुरुवात में शिवसेना के साथ आने से हिचक रही थी क्योंकि  उसे मुसलमानों की नाराजगी का डर था जो शिवसेना को फूटी आँखों नहीं देखना चाहते | उसे मनाने के लिए शरद पवार खुद सोनिया गाँधी  के पास पहुंचे  | इस फैसले से  शिवसेना के नेता और कार्यकर्ता भी हतप्रभ थे क्योंकि जिन शक्तियों से वे लड़ते आये थे उन्हीं के साथ बैठकर सत्ता सुख लूटना उनके गले नहीं उतर रहा था | लेकिन उद्धव , आदित्य और उनके बड़बोले प्रवक्ता संजय राउत ने शिवसेना की तासीर के विरुद्ध  समझौता किया जिसके पीछे ठाकरे परिवार में जागी सत्ता की भूख थी | शेर  की तरह गरजने वाले उद्धव  सत्ता में आते ही भीगी बिल्ली बन गये और  हिंदुत्व की बजाय धर्मनिरपेक्षता का राग गाने लगे | यहाँ तक कि भाजपा पर सांप्रदायिक होने का आरोप लगाने से भी बाज नहीं आये | मस्जिदों से लाउड स्पीकर हटवाने के मामले में उनका लचीला रवैया शिवसेना की समूची साख को ले डूबा | भाजपा से लड़ने में असफल रहने की खुन्नस में कभी कंगना रनौत के दफ्तर पर बुलडोजर चलवाना और कभी नवनीत राणा को गिरफ्तार करने जैसी मूर्खता उनकी सत्ता ने की | लेकिन सबसे बड़ी गलती उद्धव से ये हुई कि वे राकांपा और कांग्रेस के मंत्रियों की लूटपाट को नहीं रोक सके जिससे कि शिवसेना का जनाधार कमजोर पड़ने लगा |  शिवसेना  कोटे के मंत्री भी राकांपा और कांग्रेस के बेजा हस्तक्षेप से दुखी थे | बची – खुची कसर पूरी कर दी आदित्य की युवराज गिरी ने | एकनाथ शिंदे की नाराजगी यदि व्यक्तिगत होती तब उनके साथ दो तिहाई विधायकों और ज्यादातर मंत्रियों का जमावड़ा न होता | बगावत का आकार देखकर ये कहना गलत न होगा कि इसकी आग लंबे समय से सुलग रही थी जिसे भांपने में उद्धव का असफल रहना उतना आश्चर्यचकित नहीं करता जितना श्री पवार का बेखबर बने रहना | राज्यसभा के बाद विधानपरिषद के चुनाव  में भी भाजपा ने जिस तरह सत्तारूढ गठबंधन में सेंध लगाकर शिवसेना की उम्मीदों पर पानी फेरा तब भी यदि उद्धव सतर्क  हो जाते तब बात बन सकती थी | लेकिन वे लम्बी तानकर सोते रहे और सत्ता उनके हाथ से खिसक गयी | श्री शिंदे ने बगावत का कारण स्पष्ट करते हुए कहा कि वे और उनके साथी श्री ठाकरे को आगाह करते रहे कि रांकापा और काँग्रेस मिलकर शिवसेना को कमजोर कर रही हैं और हिन्दुत्व की पक्षधर होने से हमारा स्वाभाविक गठबंधन भाजपा के साथ ही उपयुक्त है | लेकिन उन्होंने अपने बयानों और कार्यशैली से भाजपा के विरुदध जो कहा और किया उसके बाद वे उसके निकट जाने से बच रहे थे | उनके इस रवैये से मंत्री और विधायकों के साथ ही आम शिव सैनिक तक नाराज थे  | निश्चित तौर पर भाजपा  इस मौके की तलाश में थी और उसने उसे लपकने में तनिक भी विलम्ब नहीं किया | उसके बाद भी ऐंठ दिखाने में न उद्धव बाज आये और न ही  श्री राउत | लेकिन जब लगा कि सत्ता के साथ पार्टी भी हाथ से निकलती जा रही है तब मुख्यमंत्री पद श्री शिन्दे को सौंपने के  प्रस्ताव के साथ भावनात्मक बातें करने लगे | उधर श्री शिंदे के साथ शिवसेना के दो तिहाई विधायकों के गुवाहाटी पहुंचने से उनको दलबदल क़ानून का डर भी नहीं है | सुना है अब तो  सांसद भी उद्धव का साथ छोड़ने जा रहे हैं | इन पंक्तियों के लिखे जाने तक उन्होंने इस्तीफा नहीं दिया था | हालांकि मुख्यमंत्री निवास वे कल रात छोड़कर अपने घर लौट आये थे | हो सकता है अभी श्री पवार कोई और दांव चलें | लेकिन उद्धव के हाथ से सत्ता और शिवसेना दोनों निकल गए हैं जिसके लिए वे खुद दोषी हैं क्योंकि उन्होंने सत्ता की खातिर उन ताकतों से हाथ मिला लिया जिन्हें हिंदुत्व नाम से ही चिढ़ है | काँग्रेस तो वीर सावरकार के विरुद्ध आये दिन विषवमन करती रही जिनकी शिवसेना पूजा करती है | आगे क्या होगा ये तो एकनाथ   शिंदे और भाजपा के बीच तय होगा लेकिन महाराष्ट्र की राजनीति में ठाकरे युग के अवसान की शुरुवात हो चुकी है | 

- रवीन्द्र वाजपेयी

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