Sunday 5 June 2022

जल, जंगल और जमीन को भी साँस लेने का अवसर मिलना चाहिये




आज विश्व पर्यावरण दिवस है। इस दिन पर्यावरण को बचाने के लिये तरह - तरह के सरकारी  और गैर सरकारी आयोजन होते हैं। उनका  उद्देश्य प्रकृति का संरक्षण कम फ़ोटो छपाना ज्यादा होता है ।  जो नेता और नौकरशाह विकास के नाम पर वृक्षों के बेरहमी से कत्ले आम में रत्ती भर संकोच नहीं करते वे ही आज के दिन पौधे रोपकर पर्यावरण के सबसे बड़े हिमायती बन  जाते हैं । बीते दो वर्ष कोरोना के कारण पर्यावरण सम्बन्धी भव्य आयोजन तो नहीं किये जा सके लेकिन एक बात अधिकतर लोगों के मन में बैठ गई है  कि प्रकृति के प्रति उनका निर्दय व्यवहार ही पर्यावरण में आई विकृति का एकमात्र कारण है। कोरोना के विश्वव्यापी फैलाव को भी पर्यावरण असंतुलन से जोड़कर देखा जा रहा था। हालांकि वह अभी तक वैज्ञानिक तौर पर प्रमाणित नहीं हो सका। बावजूद उसके बीते दो वर्षों में  लॉक डाउन के दौरान प्रकृति ने जिस तरह राहत  की सांस ली उसने समूची मानव जाति को अपने भीतर झांकने के लिए प्रेरित कर दिया। दूर न जाते हुए हम अपने देश पर ही नजर डालें  तो प्रधानमंत्री के निर्वाचन क्षेत्र वाराणसी में गंगा नदी का जल न सिर्फ चमत्कारिक ढंग से स्वच्छ  हुआ अपितु जलचर भी निडर होकर अठखेलियाँ करते  किनारों पर दिखने लगे। दरअसल नदी के  किनारे पूजन सामग्री से लबालब रहने से मछलियां वहां तक आने से कतराती थीं। गंगा को प्रदूषण मुक्त करने पर  बड़ी राशि लुटाई जा चुकी है किंतु  अपेक्षित परिणाम नहीं आये।  जबकि लॉक डाउन के दौरान  वैज्ञानिक परीक्षण किये जाने पर उसके जल की शुद्धता  से वे आश्चर्यचकित  रह गये। वाराणसी के अलावा भी अन्य शहरों के पास प्रवाहित  नदियों की दशा में भी ऐसा ही गुणात्मक सुधार महसूस किया गया। औद्योगिक इकाइयों से आने वाले प्रदूषित जल के रुकने के अलावा प्रतिदिन भक्तगणों के न आने से नदियों को लंबी सांस लेने की छूट मिली। अप्रैल और मई की भीषण गर्मी ने भी उस दौरान रौद्र रूप नहीं दिखाया। छोटे और बड़े सभी शहरों में वायु प्रदूषण में  अकल्पनीय सुधार भी देखने मिला। तराई क्षेत्रों के निवासियों को तो तब बेहद आनंद मिला जब वातावरण में धूल  और धुंआ कम हो जाने से नंगी आंखों से दूर - दूर के   वे पर्वत भी नजर आने लगे जो पहले दूरबीन से भी बमुश्किल दिखते थे। ये भी अनुभव हुआ  कि गर्मी में  होने वाली आम बीमारियों से लोगों को राहत मिली। गौरतलब है लॉक डाउन में ज्यादातर  जनरल प्रैक्टिशनर अपना दवाखाना बंद कर बैठ गए ।  लेकिन अपवादस्वरूप कुछ को छोड़कर अधिकतर लोगों  को पर्यावरण में आये सुखद बदलाव ने स्वस्थ बनाये रखा।  बीते अनेक वर्षों से गायब हो चुके पक्षियों की मौजदगी का सुखद एहसास भी उस दरम्यान हुआ था । घरों की बगिया में तितलियां जहाँ मंडराती दिखीं वहीं राष्ट्रीय उद्यानों में अक्सर  छिपे रहने वाले वन्य जीव निडर होकर बाहर आने लगे। इस दृष्टि से दोनों लॉक डाउन  प्रकृति और पर्यावरण के लिए जीवनदायी साबित हुए  किन्तु ढील दिए जाते ही चंद दिनों में  स्थिति पूर्ववत बनने लगी और मानवीय वासना  पर्यावरण संरक्षण के सुखद एहसास पर पानी फेरने के लिए अपने वीभत्स  रूप में सामने आ गई। ये भी कह सकते हैं कि लॉक डाउन से कोरोना  के फैलाव को रोकने के साथ ही प्रकृति और पर्यावरण को जीवनदान मिला।  इस आधार पर उसे पर्यावरण संरक्षण का दौर भी कह सकते हैं। लेकिन इससे  हमने कुछ नहीं सीखा इसीलिए ये कहना पड़ रहा है कि हम भावी पीढ़ियों को खतरे में डालने पर आमादा  हैं । यदि लॉक डाउन  जैसा आचरण अस्थायी तौर पर ही सही सप्ताह में एक दिन हम  कर सकें तो पर्यावरण  विषयक चिंताएं कुछ हद तक तो दूर हो सकती हैं।  और इसलिए  प्रकृति का संरक्षण एक  या कुछ दिनों की रस्म अदायगी तक सीमित न रहकर हमारे जीवन का स्थायी हिस्सा बनना चाहिए। जिस तरह  सांस लेना हमारे लिए जरूरी है वैसी ही अनिवार्यता प्रकृति और पर्यावरण को बचाने की भी है। जिस दिन हम इसके महत्व को समझ लेंगे तो वर्ष का हर दिन  पर्यावरण दिवस होगा। जल, जंगल और जमीन के प्रकृति प्रदत स्वरूप को  ज्यादा से ज्यादा सुरक्षित रखने पर ही भावी पीढ़ियां  स्वस्थ और सुरक्षित रहेंगी। बुजुर्गों से विरासत में  हरी-भरी धरती मिली थी लेकिन हम अपनी संतानों को जो प्रदूषित वातावरण देने जा रहे हैं उसकी चिंता करने का समय आ चुका है। यदि अब भी हम सतर्क और जिम्मेदार न हुए तो ये मान लेना ही सही रहेगा  कि हमने खुद अपने विनाश की शुरुवात कर दी है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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