Monday 13 June 2022

राष्ट्रपति और प्रधानमन्त्री में तालमेल अच्छा लेकिन उसका इशारों पर नाचना ठीक नहीं



 2007 में राष्ट्रपति का चुनाव होने वाला था | प्रो .एपीजे कलाम को दोबारा चुने जाने की बात उठी तो भाजपा उसके लिए तैयार थी |  2002 में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार के समय ही चूंकि वे  इस पद के लिए चुने गए थे लिहाजा भाजपा को उनके दोबारा चुने जाने में ऐतराज न था | देश का जनमानस भी उनको पुनः राष्ट्रपति  देखना चाहता था क्योंकि राष्ट्रपति भवन में रहते हुए वे जनता के राष्ट्रपति के रूप में लोकप्रिय हो गये थे | बजाय उस भव्य प्रासाद में कैद रहने के वे पूरे देश में लोगों से मिलते रहे | विद्यार्थियों के  साथ वे जिस तरह घुलते – मिलते उसकी वजह से उनकी छवि एक भविष्यदृष्टा की बन गई थी | मिसाइल मैन के तौर पर पहिचान बना चुके डा. कलाम के राष्ट्रपति बन जाने से भारत की छवि  वैश्विक स्तर पर ऐसे  देश के तौर पर बनी जिसने एक वैज्ञानिक को अपने सर्वोच्च पद पर प्रतिष्ठित किया | और कलाम साहेब ने भी अपने चयन को सार्थक साबित करते हुए राष्ट्रपति पद की गरिमा में वृद्धि की | ऐसे में जब उनको एक कार्यकाल और देने का विचार राजनीतिक क्षेत्र में उठा तो उसकी  अच्छी प्रतिक्रिया हुई | भाजपा की रजामंदी के बाद सपा नेता मुलायम सिंह यादव और प. बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी ने उस अभियान को आगे बढ़ाते हुए आम सहमति बनाने का प्रयास किया | हालाँकि कांग्रेस ने उस प्रस्ताव को नामंजूर कर दिया जिसके पीछे मुख्य वजह ये बताई जाती है कि 2004 में उनके कारण ही सोनिया गांधी प्रधानमन्त्री नहीं  बन सकीं | हालांकि इस बात के अधिकृत प्रमाण नहीं हैं लेकिन जिस तरह से कांग्रेस ने डा. कलाम को दूसरा कार्यकाल दिए जाने में टाँग अड़ाई , उसके पीछे और कोई कारण  दिखता भी नहीं था | उधर मुलायम सिंह और ममता ने अपनी मुहिम को आगे बढ़ाते हुए डा. कलाम की उम्मीदवारी का ऐलान करने हेतु पत्रकार वार्ता आमंत्रित कर डाली जिसमें  ममता तो पहुंच गईं लेकिन मुलायम सिंह नहीं आये और इस तरह वह कोशिश बीच रास्ते ही दम तोड़ बैठी | बाद में कांग्रेस ने प्रतिभा पाटिल का नाम आगे किया जो राष्ट्रपति बनीं लेकिन उनका कार्यकाल बेहद साधारण रहा | हालाँकि राष्ट्रपति पद पर दो अवसर  केवल प्रथम राष्ट्रपति डा.  राजेन्द्र प्रसाद को ही मिले और वह भी उनकी जिद के कारण | वरना तत्कालीन प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू उसके विरुद्ध थे | उसके बाद से राष्ट्रपति को दोबारा अवसर नहीं देने की परम्परा सी बन गयी | लेकिन उससे भी ज्यादा जो बात उभरकर सामने आई वह ये कि राष्ट्रपति भवन में अन्य क्षेत्रों के प्रतिभावान लोगों को प्रतिष्ठित करने के प्रति राजनीतिक दलों की अरुचि | हालाँकि स्व. प्रणव मुख़र्जी कुछ अपवाद कहे जा सकते हैं लेकिन इस पद हेतु उनका चयन बौद्धिकता के बजाय उनकी राजनीतिक पृष्ठभूमि की वजह से किया गया | वर्तमान राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद का जहाँ तक सवाल है तो  इस पद हेतु उनका चयन चौंकाने वाला था | यद्यपि वे उस समय बिहार के राज्यपाल  थे और राज्यसभा में भी रहे किन्तु राष्ट्रीय राजनीति में उनकी भूमिका बहुत ही सीमित रही | इसीलिए जब उनका नाम भाजपा ने तय किया तब प्रथम दृष्टया यही सुनने में आया कि नरेंद्र मोदी ने भी रबर स्टाम्प राष्ट्रपति की परम्परा को जारी रखा | हालाँकि श्री कोविंद ने राष्ट्रपति पद की गरिमा को गिरने तो नहीं दिया लेकिन वे राजेन्द्र बाबू , डा. राधाकृष्णन और डा. कलाम की श्रेणी में नहीं रखे जा सकते | अब जबकि उनका कार्यकाल समाप्त होने जा रहा है और उनके उत्तराधिकारी को लेकर अनुमानों तथा अटकलों का दौर शुरू हो गया है तब देश ये चाहता है कि जिस तरह प्रधानमंत्री श्री मोदी ने अपने व्यक्तित्व से समूचे विश्व में प्रशंसा हासिल की ठीक वैसी ही शख्सियत राष्ट्रपति भवन में विराजमान हो | भाजपा ने रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह और अपने अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा को अन्य दलों से बात कर आम सहमति बनाने का दायित्व दिया है | दूसरी तरफ ममता बैनर्जी ने भी 15 जून को विपक्षी दलों की  बैठक आमंत्रित की है | लेकिन सीपीएम के सीताराम येचुरी और महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री शिवसेना प्रमुख की ओर से इस दावतनामे को स्वीकार नहीं किया गया | श्री येचुरी ने तो सुश्री बैनर्जी द्वारा इस तरह बैठक बुलाने पर ही ऐतराज कर दिया | कांग्रेस की कार्यकारी अध्यक्ष सोनिया गांधी अस्पताल में हैं इसलिये उनकी प्रतिक्रया नहीं मिली किन्तु ऐसा लगता है राष्ट्रपति चुनाव को लेकर ममता की पहल इस बार भी अंजाम तक नहीं  पहुँच  सकेगी | इसकी एक वजह उनकी  प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा है वहीं दूसरी तरफ विपक्ष में आपसी तालमेल और विश्वास का अभाव है | ऐसे में कुछ मत कम होने के बावजूद भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए का राष्ट्रपति चुना जाना लगभग तय है | लेकिन बेहतर तो यही होगा कि संवैधानिक प्रमुख के पद पर दलीय सीमाओं में कैद किसी प्रभावहीन व्यक्ति को चुनने के बजाय आम सहमति से ऐसे व्यक्ति का चयन हो जिसका दृष्टिकोण राजनीतिक न होकर राष्ट्रीय हो | प्रधानमंत्री बनने के बाद श्री मोदी ने राजनीतिक सोच और कार्यप्रणाली में काफी सकारात्मक सुधार किये हैं | उसी कड़ी में अब उनको राष्ट्रपति पद की गरिमा में वृद्धि हेतु प्रयास करना चाहिए | देश में तमाम ऐसे व्यक्तित्व हैं जो राजनीति से अलग हटकर विभिन्न क्षेत्रों में जो काम कर रहे हैं उससे देश को फायदा मिल रहा है | भले ही राष्ट्रपति के पास प्रधानमंत्री जैसे शक्ति नहीं होती परन्तु उसकी नियुक्ति तो वही करता है | राष्ट्रपति भवन में बैठे व्यक्ति का प्रधनमंत्री से  तालमेल तो अच्छी बात है परन्तु  प्रधानमंत्री के इशारे पर उसका नाचना भी अपेक्षित नहीं है | उस दृष्टि से भाजपा से ये उम्मीद की जा सकती है कि वह चाल , चरित्र  और चेहरे  के अपने दावे के अनुरूप नए राष्ट्रपति के लिए ऐसा प्रत्याशी तय करे जिसे विपक्षी दल भी समर्थन देने बाध्य हो जाएँ | भारत का संविधान दुनिया का श्रेष्ठतम संविधान है , तो फिर  हमारा राष्ट्रपति  भी उसी के अनुरूप होना चाहिये |

-रवीन्द्र वाजपेयी

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