Saturday 29 February 2020

कन्हैया : चार साल में आरोप पत्र तो सजा कितने साल में



9 फरवरी 2016 अर्थात चार साल से भी ज्यादा पहले दिल्ली के जेएनयू में देश विरोधी नारे लगाये जाने की घटना हुई थी। उसमें तत्कालीन छात्रसंघ अध्यक्ष कन्हैया कुमार सहित अनेक लोगों पर देशद्रोह का मामला दर्ज हुआ था। कुछ समय तक वे सभी जेल में भी रहे। प्रकरण की जाँच के बाद पुलिस ने दिल्ली सरकार से अदालत में आरोप पत्र पेश करने की अनुमति माँगी लेकिन केजरीवाल सरकार उसे दबाकर बैठी रही। इससे उसके ऊपर आरोप लगते रहे कि वह देशद्रोह के आरोपियों को बचा रही है। उक्त प्रकरण में आरोपित बाकी लोगों के बारे में तो जनसाधारण को ज्यादा पता नहीं है लेकिन कन्हैया डाक्टरेट की उपाधि प्राप्त करने के बाद राजनीति में उतर आया और अपने वामपंथी रुझान के अनुरूप विधिवत सीपीआई में शामिल होकर बिहार की बेगुसराय सीट से लोकसभा चुनाव लड़ बैठा और बुरी तरह से हारा। लेकिन बीते कुछ समय से वह बिहार में घूम-घूमकर आगामी विधानसभा चुनाव के लिए अभियान चला रहा है। राजनीति के अनेक जानकार उसे महत्व भी दे रहे हैं। गत दिवस अचानक खबर आई कि दिल्ली सरकार ने कन्हैया और उसके साथ के सभी आरोपियों पर देशद्रोह का मुकदमा चलाने की अनुमति पुलिस को दे दी है। इस पर कन्हैया ने व्यंग्यपूर्ण प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए केजरीवाल सरकार को बधाई दी और लगे हाथ ये मांग भी कर दी कि प्रकरण फास्ट ट्रैक अदालत में भेजा जाये जिससे जल्द फैसला हो सके। इस बारे में ज्ञात हुआ है कि दिल्ली सरकार ने 400 दिन अनुमति देने  में लगाये। वह भी तब जब सम्बन्धित अदालत ने इस बारे में दबाव बनाया। किसी भी अपराधिक प्रकरण में जब तक आरोप पत्र दाखिल न हो तब तक मुकदमा आगे नहीं बढ़ता। ये मामला चार साल पहले का है। अव्वल तो पुलिस ने जांच में भरपूर समय लगाया और फिर बची-खुची कसर पूरी कर दी केजरीवाल सरकार ने। अनुमति मिल जाने के बाद अब पुलिस आरोप पत्र अदालत में दाखिल करेगी जहां पेशी दर पेशी सुनवाई टलती रहेगी। निचली अदालत से होते हुए सर्वोच्च न्ययालय तक का सफर पूरा होते-होते कितना समय लगेगा ये बड़े-बड़े भविष्यवक्ता भी नहीं बता सकते। सवाल ये है कि तेज फैसले करने के लिए मशहूर केजरीवाल सरकार ने इतने चर्चित और संवेदनशील मामले में अनुमति देनी में 400 दिन क्यों लगाये ? मामला छात्र आन्दोलन के दौरान होने वाले सामान्य झगड़ों से जुड़ा होता तब इस विलम्ब पर ध्यान नहीं जाता किन्तु देशद्रोह जैसी संगीन धाराओं में दर्ज मुकदमे में आरोप पत्र दाखिल करने में की गई देरी चौंकाने वाली है। कन्हैया एक चर्चित शख्सियत बन चुका है। हालाँकि उसके राजनीतिक भविष्य को लेकर कुछ कहना जल्दबाजी होगी क्योंकि वह जिस सीपीआई से जुड़ा हुआ है वह अस्तित्वहीन होने की कगार पर है। दूसरी बात ये है कि बिहार में नीतीश सरकार के विरोधी दल उसे कितना भाव देंगे ये स्पष्ट नहीं है। लेकिन इन सबका देशद्रोह के प्रकरण से कोई सम्बन्ध नहीं है। राजनीति में उतरने के कारण कन्हैया को प्रताडि़त किया जाए ये अनुचित है। उसी तरह नेतागिरी में आने के बाद उसके अपराध को नजरंदाज किया जाना भी गलत है। कानून के सामने सभी बराबर होते हैं और कन्हैया भी अपवाद नहीं है। यही वजह है कि घटना के चार साल बाद जब गत दिवस उस पर आरोप पत्र पेश किये जाने की अनुमति दिल्ली सरकार से पुलिस को मिली और वह भी 400 दिन तक दबाए रखने के बाद तो कन्हैया और उसके साथ के बाकी आरोपी ही नहीं हर समझदार व्यक्ति को आश्चर्य के साथ गुस्सा भी आया। हमारे देश की न्याय व्यवस्था कितनी धीमी रफ्तार से चलती है उसका प्रमाण निर्भया प्रकरण के दोषियों की फांसी में हो रहे विलम्ब से मिल चुका है। दिल्ली के शाहीन बाग़ धरने को लेकर भी न्यायपालिका ने जिस तरह का टरकाऊ रवैया दिखाया वह भी शोचनीय है। लेकिन देशद्रोह के आरोपियों को सालों तक छुट्टा घूमने दिया जाए तो इससे कानून का मजाक उड़ता है। कन्हैया पर अब मुकदमे की शुरुवात होगी। गवाहों के बयान और उनका प्रति-परीक्षण चलेगा। इस सब में कितना समय लगेगा ये कोई नहीं बता सकता। अंतिम फैसला आते-आते कन्हैया युवा से प्रौढ़ हो चुका होगा। देश की राजनीति में भी न जाने कितना बदलाव आ जायेगा। लेकिन उससे भी बड़ी बात ये होगी कि लोगों की स्मृति से समूचा प्रकरण लुप्त होकर रह जाएगा। इस मामले में दिल्ली सरकार की मंशा सवालों के घेरे में आ गई है। इसके पीछे कारण राजनीतिक संरक्षण हैं या प्रतिशोध ये साफ होना चाहिए। जेएनयू को लेकर जितने भी विवाद हुए उनमें अरविन्द केजरीवाल और उनकी पार्टी ने दूर से देखने की नीति अपनाई। कन्हैया एंड कम्पनी चूँकि मोदी सरकार को पानी पी-पीकर कोसती है इसलिए वह आम आदमी पार्टी को अच्छी लगती रही लेकिन कथित देश विरोधी गतिविधियों के कारण वह अपना दामन बचाने के लिए उससे दूरी भी बनाये रही। देशद्रोह के आरोप पत्र की अनुमति में विलम्ब के पीछे केजरीवाल सरकार की राजनीतिक सोच थी या फिर सामान्य प्रशासनिक आलस्य ये स्पष्ट होना चाहिए। लेकिन इतने चर्चित और संवेदनशील मामले के चार साल बाद भी आरोप पत्र दाखिल न हो पाना शर्म और चिंता दोनों का विषय है। कन्हैया कसूरवार है या नहीं ये तो अदालत तय करेंगी किन्तु न्याय में जितनी देरी होगी उतनी ही उसे सहानुभूति मिलती रहेगी। देशद्रोह के मामले में जब ये हाल है तब बाकी का क्या होता होगा इसका अंदाज आसानी से लगाया जा सकता है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Friday 28 February 2020

सहयोग की आड़ में मुसलमानों का उपयोग हो रहा



दिल्ली के दंगों के लिए कौन जिम्मेदार है ये बहस तब तक चलती रहेगी जब तक वैसा ही कोई दूसरा हादसा न हो जाए। लेकिन सीएए नामक जिस मुद्दे के कारण ये स्थिति बनी वह अभी भी कायम है और रहेगा क्योंकि उसे लेकर किये गये दुष्प्रचार ने पूरे देश में सांप्रदायिक तनाव की जो स्थिति पैदा की है उसको बदलने में लम्बा समय लगेगा। इस कानून को मुस्लिम विरोधी बताकर जो राजनीति की गई उसकी वजह से भ्रम का वातावारण बन गया। चूंकि मुस्लिम समाज में आज कोई भी राजनीतिक चिन्तक-विचारक नजर नहीं आता इसलिए वह धर्मिक सोच से आगे निकल नहीं पा रहा। मुलायम सिंह और लालू यादव जैसे नेताओं ने मुसलमानों को यदि अपने साथ जोड़ा तो उसका कारण न तो उनका समाजवादी हो जाना था और न ही सामाजिक न्याय के नारे से सरोकार। दरअसल पहले मुस्लिम समाज मुख्यत: कांग्रेस का समर्थक था लेकिन आपातकाल के बाद 1977 में हुए लोकसभा चुनाव में वह पहली बार उसके छिटका। हालांकि बाद के कुछ सालों में वह लौटकर फिर उसी के साथ गया किन्तु नब्बे के दशक में जब भाजपा ने हिंदुत्व को अपनी राजनीति का घोषित एजेंडा बनाकर राम मंदिर का मुद्दा हाथ में लिया तब मुसलमानों को ये लगने लगा कि केवल कांग्रेस से चिपके रहने से उनका भला नहीं होगा। लिहाजा वे अलग-अलग राज्यों में विभिन्न पार्टियों के पीछे चलने लगे किन्तु जैसा पूर्व में कहा गया उसके पीछे राजनीतिक सिद्धांत न होकर केवल अपनी धार्मिक पहिचान को सुरक्षित रखना ही एकमात्र मकसद था। इसी के चलते ये गलती हुई कि बजाय राजनीति की मुख्यधारा में आने के वे महज मतदाता बनकर सौदेबाजी का हिस्सा बन गए। आर्थिक, शैक्षणिक या समाजिक प्रगति तो रद्दी की टोकरी में फेंक दी गयी और शरीयत की आड़ लेकर उनके दिमाग में ये भर दिया गया कि उसके बाहर जाकर सोचने मात्र तक से वे इस्लाम विरोधी बन जायेंगे। ये कहना कुछ भी गलत नहीं होगा कि मुसलमानों के बड़े वर्ग में ये डर बिठा दिया गया है कि उनकी धार्मिक पहिचान खतरे में है। इसका सबसे बड़ा कारण ये है कि मुसलमानों का नेतृत्व राजनेताओं के हाथ से निकलकर मुल्ला-मौलवियों के हाथ आ गया। धर्म में विश्वास नहीं करने वाले साम्यवादी और आधुनिकता के सांचे में ढले सुशिक्षित मुसलमान तक किसी भी सुधारवादी कदम के विरोध में खड़े नजर आये। बात शाहबानो के मामले से शुरू होकर तीन तलाक रोकने तक आ गई लेकिन शरीयत के नाम पर धार्मिक कट्टरता इस हद तक बढ़ा दी गई कि समाज के उत्थान के लिए होने वाले फैसलों तक का विरोध करने उन्हें मजबूर कर दिया गया। परिणामस्वरूप जो थोड़े बहुत मुस्लिम राजनेता थे या अन्य धर्मों के नेतागण मुस्लिम समाज के रहनुमा कहलाते थे उन सबको दरकिनार करते हुए पूरी तरह धार्मिक सोच को अपना लिया गया। यही वजह रही कि कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, लालू यादव और ऐसे ही बाकी नेताओं को छोड़कर मुस्लिम समाज असदुद्दीन ओवैसी जैसों में अपना भविष्य देखने लगा। भले ही ओवैसी अभी भी एक सीमित क्षेत्र में ही प्रभावशाली हैं किन्तु उनसे प्रभावित होकर देश के विभिन्न हिस्सों में मुस्लिम समुदाय में ऐसे नेतृत्व ने जन्म ले लिया जो मुसलमानों को शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, महिला सशक्तीकरण जैसे मुद्दों से दूर रखते हुए शरीयत के नाम पर उनका भयादोहन करने में जुट गया। तीन तलाक पर रोक चूँकि सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश पर लगी और मुस्लिम समाज की कतिपय महिलायें ही इसके लिए प्रयासरत रहीं इस कारण मुसलमानों की रहनुमाई करने वाले चाहकर भी ज्यादा कुछ नहीं कर सके। लेकिन कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाये जाने को मुस्लिम विरोधी प्रचारित करने का सुनियोजित प्रयास किया गया। इसके बाद सर्वोच्च न्यायालय ने जब राम मन्दिर के पक्ष में फैसला सुनाया तो कट्टरपंथियों को मुसलमानों के बीच खौफ  फैलाने का एक मौका और मिल गया जबकि अयोध्या ही नहीं उसके बाहर के मुसलमान भी उक्त फैसले से राहत का अनुभव करने लगे और पूरे देश में एक पत्ता तक नहीं खड़का। उसके बाद नागरिकता संशोधन विधेयक ज्योंही आया त्योंही बड़े ही सुनियोजित तरीके से पूरे देश में ये हवा बना दी गई कि इसके जरिये मुसलमानों से उनकी नागरिकता छीन ली जायेगी। ऐसे मौकों पर किसी भी कौम के भीतर धार्मिक, सामाजिक और राजनीतिक नेतृत्व का समन्वय और संतुलन रहे तो विघटनकारी तत्व कामयाब नहीं हो पाते। लेकिन मुस्लिम समाज में इसका सर्वथा अभाव होने से कभी वह ओवैसी बंधुओं की तरफ देखता है तो कभी उसे वारिस पठान में इस्लाम का संरक्षक नजर आता है। इसी का फायदा उठाकर शर्जील इमाम जैसे लोग मुस्लिमों के अघोषित हीरो बन जाते हैं। सीएए कानून से हिन्दुस्तान में रह रहे मुसलमानों का कोई प्रत्यक्ष या परोक्ष सम्बन्ध नहीं है। उसके लागू होने से न उन्हें कोई लाभ है और न ही नुकसान। लेकिन विपक्ष ने उन्हें भड़काया और धार्मिक नेताओं ने आग में घी डालकर उन्हें ऐसे रास्ते पर धकेल दिया जो कुछ दूर जाकर बंद हो जाता है। दिल्ली के जामिया मिलिया विवि में हुई घटना के बाद शाहीन बाग जैसा आयोजन पूरी तरह अतार्किक और औचित्यहीन था। उसे स्वस्फूर्त और स्वप्रेरित बताने से बड़ा झूठ भी कुछ नहीं हो सकता। मुस्लिम समाज में राजनीतिक और सामाजिक चिन्तन की धारा चूँकि पूरी तरह सूख गई है इसलिए धजी का सांप बनाने वाले कामयाब हो गए। कहना गलत नहीं होगा कि नागरिकता जाने के मिथ्या प्रचार के फेर में मुस्लिम समाज एक बार फिर मुख्य धारा में आने से वंचित कर दिया गया। दिल्ली दंगों के पहले भी देश के अनेक शहरों में मुस्लिम समुदाय की ओर से हिंसक आन्दोलन हो चुके थे। उससे सबक लेकर शाहीन बाग़ के धरने को समय रहते उठा लिया गया होता तो मुस्लिम समाज विमर्श की प्रक्रिया का हिस्सा बना रहता लेकिन अधकचरी सोच और कौआ कान ले गया की अफवाह पर आँख मूंदकर भरोसा कर लेने की वजह से अब बात करने की हैसियत भी वह गंवा बैठा। सीएए एक वास्तविकता है जिसे नकारना दिन में आँखें बंद करते हुए रात की कल्पना जैसा है। मुस्लिम समाज को दिल्ली के दंगों के बाद तो कम से कम ये समझ लेना चाहिए कि उनका सहयोग करने वाले दरअसल उनका उपयोग कर रहे हैं। अब भी यदि वह कट्टर और गैर जिम्मेदार अनुभवहीन नेताओं के चंगुल से नहीं निकला तो वह उन स्वार्थी तत्वों के शिकार होता रहेगा जो उसे आग में धकेलकर दूर जा बैठते हैं।

- रवीन्द्र वाजपेयी

Thursday 27 February 2020

शाहीन बाग़ को मिली शह ने दिल्ली को झुलसाया



देश की राजधानी दिल्ली में बीते तीन-चार दिनों में जो कुछ भी घटित हुआ उसके लिए किसे जिम्मेदार ठहराया जाए ये बड़ा ही जटिल प्रश्न है। इसके लिए जरुरी है पूरे घटनाक्रम पर नजर डाली जाए । सीएए (नागरिकता संशोधन कानून) के विरोध को लेकर शुरू हुआ आन्दोलन जिस मुकाम पर जा पहुंचा था उसकी परिणति यही होना थी। दिल्ली पुलिस , प्रशासन , केंद्र सरकार और चंद नेताओं पर लग रहे आरोपों के बीच इस बात पर ध्यान देना भी जरूरी है कि जामिया मिलिया और उसके बाद शाहीन बाग़ में जिस तरह से उक्त कानून के विरोध में कानून हाथ में लिया गया उससे ये संकेत गया कि अल्पसंख्यकों के नाम पर समूची व्यवस्था को चुनौती देने की हिमाकत की जा सकती है। इस बारे में ये कहना गलत नहीं होगा कि जामिया मिलिया में दिल्ली पुलिस द्वारा की गई कार्रवाईको लेकर जिस प्रकार आलोचनाओं के पहाड़ खड़े किये गये उससे उसका मनोबल कमजोर हुआ जिसकी वजह से शाहीन बाग़ में सड़क पर दिए गये धरने को हटवाने के बारे में कड़ा कदम उठाने से वह हिचकती रही। वरना पहले दिन ही शाहीन बाग़ में शुरू हुआ धरना हटवा दिया जाता और दिल्ली का वातावरण इस कदर नहीं बिगड़ता। गत दिवस सर्वोच्च न्यायालय और दिल्ली उच्च न्यायालय दोनों ने ही नेताओं के बयानों के अलावा पुलिस के गैरपेशेवर रवैये पर तीखी टिप्पणियाँ कीं। उनके बाद से राजनीति और तेज हो गयी। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने केंद्र सरकार पर सवालों की झड़ी लगाते हुए गृह मंत्री अमित शाह से इस्तीफा माँगा। लेकिन उच्च न्यायालय की उस टिप्पणी पर कुछ नहीं कहा कि बड़े ओहदों पर बैठे जेड सुरक्षा प्राप्त नेतागण उपद्रव से प्रभावित क्षेत्रों में जाकर लोगों में विश्वास जगाएं। उल्लेखनीय है पूरा गांधी परिवार इस इस श्रेणी की सुरक्षा प्राप्त है। आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला तो ऐसे अवसरों पर वैसे भी सामान्य है। लेकिन तीखी टिप्पणियों के जरिये अपना रुतबा कायम करने वाली न्यायपालिका को भी क्या आत्मावलोकन नहीं करना चाहिए ? शाहीन बाग़ के धरने के विरुद्ध प्रस्तुत याचिकाओं पर सर्वोच्च न्यायालय को साफ-साफ कहना था कि सड़क घेरकर यातायात अवरुद्ध करना गैर कानूनी है और पुलिस तथा प्रशासन तुरंत धरने को हटवाकर यातायात शुरू करवाएं। लेकिन जनहित के इतने महत्वपूर्ण मसले पर भी नोटिस और पेशियों का चिर-परिचित सिलसिला शुरू हुआ। और काफी समय गंवाने के बाद सड़क पर प्रदर्शन को गलत मानते हुए भी मध्यस्थों को भेजकर आन्दोलनकारियों के भाव बढ़ा दिए गए। उनसे किसी और स्थान पर जाकर आन्दोलन करने की मनुहार की जाती रही लेकिन वार्ताकारों को खरी-खोटी सुनाकर चलता किया गया। उन्होंने जो रिपोर्ट न्यायालय में पेश की उसे भी गोपनीय रखा गया जबकि उसे सार्वजानिक किये जाने से आन्दोलन की असलियत सामने आ जाती। गत दिवस सर्वोच्च न्यायालय में शाहीन बाग़ प्रकरण की सुनवाई पर पूरे देश की नजरें थीं। लेकिन उसने दिल्ली के ताजा हालात के मद्देनजर ये टिप्पणी करते हुए कि सड़कें प्रदर्शन के लिये नहीं होतीं और दिल्ली पुलिस पेशेवर नहीं है, सुनवाई होली के बाद तक टाल दी। उधर दिल्ली के उच्च न्यायालय ने भी एक लाइन से नेताओं , पुलिस, सरकार सभी को फटकारा लेकिन वहां से भी ऐसा आदेश जारी नहीं हुआ जिससे ये साफ़  होता कि न्यायपालिका चाहती क्या है? उसका ये कहना एकदम सही है कि पुलिस पेशेवर नहीं है। लेकिन क्या यही बात हमारी न्याय व्यवस्था पर भी लागू नहीं होती? विदेशों में पुलिस की निर्णय क्षमता का हवाला भी माननीय न्यायाधीशों द्वारा दिया गया किन्तु उन्हें ये भी तो सोचना चाहिए था कि शाहीन बाग़ का धरना खत्म करवाने में पुलिस क्यों आगे नहीं बढ़ी? जामिया मिलिया में उपद्रवियों पर की गई पुलिस कार्रवाई को लेकर जिस तरह का प्रलाप किया गया उसके बाद पुलिस भी ठंडी पड़ी। शाहीन बाग़ के आन्दोलन को मिले समर्थन के बाद दिल्ली के जाफराबाद में भी अचानक सड़क घेरने का दुस्साहस किया गया। यहाँ तक कि मेट्रो स्टेशन तक पर कब्ज़ा कर लिया गया। ये तब हुआ जब शाहीन बाग़ में वार्ताकार सड़क पर बैठी मुस्लिम महिलाओं से दूसरी जगह जाने का अनुनय-विनय कर रहे थे। फसाद जाफराबाद के धरने के बाद से ही शुरू हुए। शाहीन बाग़ का धरना लंबा खींचने के बाद जाफराबाद में भी सड़क पर कब्जे के स्थायी होने के अंदेशे में जब उसका विरोध हुआ तब आन्दोलनकारियों ने हिंसा का सहारा लेकर जो उग्र रूप दिखाया उसकी चिंगारी ही दूसरे क्षेत्रों में भड़की। जो कुछ भी हुआ या हो रहा है वह किसी भी दृष्टि से न तो स्वीकार्य है और न ही किसी के हित में है। लेकिन ऐसे मामलों में न्यायपालिका को भी अपनी भूमिका स्पष्ट करनी चाहिए। यदि शाहीन बाग़ से धरना उठवाना उसका काम नहीं है तब उसे संबंधित याचिकाओं की सुनवाई भी नहीं करनी चाहिए थी। और यदि उन्हें विचारयोग्य समझा तो फिर मामले की नजाकत समझते हुए ऐसा निर्णय करना था जिससे समस्या का त्वरित हल हो पाता। महिलाओं के धरने पर बल प्रयोग की सलाह कोई भी समझदार नहीं देगा। फिर भी सर्वोच्च न्यायालय सड़क घेरने को गैर कानूनी करार देता तब अन्दोलनकारियों का मनोबल टूटता और वे भी दूसरा स्थान तलाशते। लेकिन न्यायपलिका ने सांकेतिक शब्दों में धरने को गलत बताते हुई वार्ताकार भेजकर सड़क घेरकर बैठी महिलाओं को वीवीआईपी होने का एहसास करवा दिया। दिल्ली के समूचे घटनाक्रम का वस्तुवादी विश्लेषण होना जरूरी है। अमेरिका के राष्ट्रपति के आगमन के समय हुए फसाद के पीछे कोई षड्यंत्र था या नहीं ये भी विचारणीय है। सोनिया जी ने अमित शाह और केंद्र सरकार पर आरोप के साथं ही अरविंद केजरीवाल पर भी निशाना साधा है। आईबी के एक कर्मी की हत्या के लिए आम आदमी पार्टी के पार्षद ताहिर हुसैन पर आरोप लग रहे हैं। कल श्री केजरीवाल ने उपद्रवग्रस्त क्षेत्रों का दौरा भी किया। वे इसके पहले शाहीन बाग़ की सड़क खुलवाने क्यों नहीं गये ये भी बड़ा सवाल है। केंद्र का गृह विभाग और उसके मातहत दिल्ली पुलिस की जिम्मेदारी से कोई इनकार नहीं करेगा लेकिन ये भी स्वीकार करना चाहिए कि शाहीन बाग़ को दी गई शह ने जाफराबाद पैदा किया जिसकी वजह से दिल्ली जल उठी। अच्छा होगा न्यायपालिका समझाइश देने के साथ ही सही-गलत का फैसला करने में समय न गंवाए जिससे समस्या का इलाज वक्त रहते किया जा सके।

- रवीन्द्र वाजपेयी

Wednesday 26 February 2020

ट्रंप के दौरे से भारत का कूटनीतिक वजन बढ़ा



अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की दो दिवसीय भारत यात्रा कल रात खत्म हो गयी। इस दौरे की सबसे अहम बात ये कही जा रही है कि वे लंबा सफर करते हुए केवल भारत आये। उनके बारे में प्रचलित है कि उन्हें इतनी लम्बी यात्रा से परहेज है। वैसे भी अमेरिका के राष्ट्रपति जब विदेश यात्रा पर निकलते हैं तब अनेक देश उनके दौरा कार्यक्रम में शामिल किये जाते हैं। अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों में तो वैसे भी अनेक राष्ट्रप्रमुख मिल जाते हैं। लेकिन भारत जैसे सुदूर देश की यात्रा और वह भी बिना किसी विशेष कार्यसूची के करना अमेरिकी कूटनीति के लिहाज से बेहद महत्वपूर्ण घटना है। भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से उनकी मुलाकात अमेरिका के अलावा अनेक सम्मेलनों में होती रही है। कुछ महीने पहले जब वे अमेरिका गए तब हाऊडी मोदी नामक जलसे में श्री ट्रंप के आने से दोनों नेताओं के सम्बन्ध कूटनीति से आगे निकलकर व्यक्तिगत निकटता का रूप लेते दिखे जिसका विस्तार इस दौरे में नजर आया। कुछ लोगों का मानना है कि ये दौरा आगामी नवंबर में होने जा रहे अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव के मद्देनजर था। अमेरिका में रहने वाले 40 लाख भारतीय मूल के मतदाताओं को लुभाने के लिए ही श्री ट्रंप ने भारत आने की तकलीफ  उठाई और श्री मोदी की तारीफों के पुल बाँध दिए। इतना ही नहीं उन्होंने अपनी आदत के विपरीत विवादास्पद टिप्पणी से भी परहेज किया। भारत रवाना होने के पहले उन्होंने धार्मिक स्वतंत्रता का मुद्दा उठाने की बात कहकर खलबली मचाई थी। भारत सरकार निश्चित रूप से उस बयान से खुद को असहज महसूस करने लगी थी। पाकिस्तान ही नहीं अपितु भारतीयों का भी एक वर्ग है जो सीएए मुद्दे का वैश्वीकरण करने में जुटा रहा लेकिन अमेरिकी राष्ट्रपति ने भारत के आन्तरिक मसलों पर बोलते समय जिस तरह का संयम बरता वह न केवल चौंकाने वाला रहा बल्कि उसे भारत की बड़ी कूटनीतिक सफलता कहना गलत नहीं होगा। उनके आगमन के साथ ही दिल्ली में दंगे शुरू हो गए थे। जिनकी आड़ लेकर या तो उनके कुछ कार्यक्रम रद्द किये जा सकते थे या सुरक्षा कारणों से उनका प्रस्थान जल्दी हो जाता। लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ और श्री ट्रंप तथा उनके परिवार ने दिल्ली प्रवास के दौरान पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के मुताबिक ही प्रत्येक गतिविधि में हिस्सा लिया। प्रधानमंत्री से दोपहर हुई लम्बी बातचीत के दौरान रक्षा सौदे की जिस बड़ी डील की बात निकलकर आई उसके लिए ही श्री ट्रंप भारत आये ये बात गले नहीं उतरती क्योंकि इस तरह के सौदे लंबी प्रक्रिया के बाद अंतिम रूप लेते हैं। सेना से जुड़ी किसी भी खरीदी में सैन्य विशेषज्ञ भी अपनी राय रखते हैं। अमेरिका से जिन रक्षा सामग्रियों की खरीद का निर्णय गत दिवस हुआ वे काफी समय से विचाराधीन थीं। इसलिए उनके बारे में लिए गये निर्णय को इस यात्रा का प्रतिफल मान लेना सही नहीं होगा। लेकिन सबसे बड़ी बात ये हुई कि धार्मिक स्वतन्त्रता , कश्मीर , सीएए जैसे मुद्दों पर श्री ट्रंप ने जिस तरह अमेरिकी हस्तक्षेप से इंकार करते हुए श्री मोदी की क्षमताओं पर विश्वास व्यक्त किया उससे भारत में भले ही बहुत से लोगों को बुरा लगा होगा लेकिन कूटनीति के जानकार ये मानेंगे कि अमेरिकी राष्ट्रपति के इस रवैये से पाकिस्तान के सीने पर सांप जरुर लोटा जो ये मानकर चलता रहा है कि अमेरिका का दत्तक पुत्र होने से उसका संरक्षण उसकी मजबूरी है। हालाँकि श्री ट्रंप ने इमरान खान को भी अपना मित्र बताया लेकिन अपनी सरजमीं से आतंकवाद को मिटाने की बात कहकर पाकिस्तान को तो सन्देश दिया ही वहीं इस्लामिक आतंकवाद को खत्म करने की बात को कई अवसरों पर दोहराकर भी भारत के पक्ष को जोरदार समर्थन दिया जिससे श्री मोदी सरकार की कश्मीर नीति को परोक्ष समर्थन मिला। कुल मिलाकर राष्ट्रपति के रूप में श्री ट्रंप के प्रथम भारत दौरे को असाधारण और अभूतपूर्व तो तो नहीं कहा जा सकता किन्तु वह उन आशंकाओं से परे रहा जो उनके अनिश्चित स्वभाव के कारण अपेक्षित थीं। यदि वे कश्मीर , सीएए, धार्मिक स्वतंत्रता और ऐसे ही किसी दूसरे  विषय पर ऐसी टिप्पणी कर देते जो हमारे घरेलू मामलों में हस्तक्षेप मानी जाती तो श्री मोदी को जबर्दस्त आलोचना का शिकार तो होना ही पड़ता कितु उससे भी अधिक विदेश नीति के मोर्चे पर उनकी अब तक की सफलताओं के ऊपर पानी फिर जाता। राष्ट्रपति ट्रंप भारत के बाहर यदि कुछ बोलते हैं तब उसका उतना असर नहीं होता लेकिन हमारे मेहमान बनकर वे हमारे घरेलू मसलों पर ऐसा कुछ कह जाते जिससे भारत की वैश्विक छवि खराब होती तब वह कूटनीतिक दृष्टि से अपमानजनक होता। उनकी इस यात्रा से पाकिस्तान को भले ही प्रत्यक्ष तौर पर कोई नुक्सान नहीं हुआ हो क्योंकि श्री ट्रंप भी उसकी सीधी आलोचना से बचे लेकिन भारत आने के बाद पाकिस्तान का दौरा किये बिना उनका अमेरिका लौट जाना भी कूटनीतिक लिहाज से भारत की सफलता कही जायेगी, जिसके लिए प्रधानमन्त्री के अलावा विदेश मंत्री एस. जयशंकर भी प्रशंसा के हकदार हैं क्योंकि अमेरिका जैसे देश के राष्ट्रप्रमुख के दौरे की तैयारियां महीनों पहले शुरू हो जाती हैं जिनमें विदेश मंत्रालय की खासी भूमिका रहती है। अफगानिस्तान से अमेरिकी फौजों की वापिसी की संभावनाओं के बीच श्री ट्रंप का भारत दौरा और उसमें आपसी सहयोग की संभावनाओं पर सहमति  और निर्णयों से विश्व मंच पर भारत का महत्व बढ़ा है। अमेरिका के राष्ट्रपति से व्यक्तिगत सम्बन्ध बना लेना आसान काम नहीं है। भले ही किसी देश की विदेश नीति एक निरंतर प्रक्रिया का हिस्सा होती है जो शासक के बदलने पर ज्यादा नहीं बदलती लेकिन राष्ट्रप्रमुखों के बीच निजी तौर पर स्थापित निकटता से कूटनीतिक मोर्चे पर काफी लाभ मिलता है। पंडित नेहरु ने इसका लाभ काफी लिया किन्तु वह दौर शीतयुद्ध का होने से वे कई मोर्चों विशेष रूप से चीन को लेकर मात खा गए। इत्तेफाक से श्री मोदी शीतयुद्ध के बाद की कूटनीति का हिस्सा बने इसलिए उनको उस छुआछूत  का सामना नहीं करना पड़ा। यही वजह है कि वे अपनी कट्टर हिन्दू छवि के बावजूद अनेक मुस्लिम देशों से मधुर रिश्ते बनाने में कामयाब हो गए। डोनाल्ड ट्रंप के ताजा दौरे से भारत की कूटनीतिक वजनदारी में और भी वृद्धि हुई जिसका श्रेय कोई चाहे या न चाहे लेकिन श्री मोदी के खाते में ही जाएगा।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Tuesday 25 February 2020

तो पूरे देश में शाहीन बाग़ नजर आयेंगे




आखिर वही हुआ जिसका अंदेशा था। दिल्ली में सीएए के विरोध और समर्थन में चल रहा धरना- प्रदर्शन आमने-सामने के संघर्ष में बदल गया। गत दिवस हालात और बिगड़े जिसमें अब तक एक पुलिस कर्मी सहित 6 और लोगों की मृत्यु हो चुकी है। अनेक लोग घायल हो गये जिनमें एक वरिष्ठ अधिकारी की हालत गम्भीर बनी हुई है। तोडफ़ोड़-आगजनी भी हुई। शाहीन बाग़ में चल रहे धरने को हटवाने के लिए प्रस्तुत याचिका के सम्बन्ध में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा नियुक्त मध्यस्थों ने अपनी रिपोर्ट सीलबंद लिफाफे में सौंप दी है। इसी बीच सीएए के समर्थकों ने भी धरना देना शुरू कर दिया जो निश्चित रूप से क्रिया की प्रतिक्रिया ही कही जा सकती है। लेकिन गत दिवस जो कुछ हुआ उसके बाद दिल्ली की पुलिस ही नहीं बल्कि पूरे देश के लिये ये विचारणीय विषय है कि क्या किसी मुद्दे पर आंदोलनकारी महीनों तक सड़क पर कब्जा करते हुए बैठ सकते हैं? उन्हें महज इसलिए न हटाया गया कि उनमें महिलायें हैं और वह भी मुस्लिम समुदाय की तो दूसरे पक्ष को भी ये लगा कि जब सर्वोच्च न्यायालय तक ऐसे धरने के बारे में सीधे-सीधे कोई आदेश देने की हिम्मत नहीं जुटा सका तब हमें कौन रोकेगा? भाजपा नेता कपिल मिश्रा ने शाहीन बाग़ के जवाब में धरना-प्रदर्शन शुरू किया। उसके बाद सीएए के विरोधियों और समर्थकों के बीच नारेबाजी का मुकाबला शुरू हुआ जो अंत में पत्थरबाजी से होते हुए और आगे बढ़ गया। देश के और किसी हिस्से में ये हुआ होता तब शायद उसे इतनी गम्भीरता से नहीं लिया जाता। और फिर जिस दिन अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप सपरिवार दिल्ली पहुंचे उसी दिन राजधानी में दो सम्प्रदायों के बीच हिंसक संघर्ष से देश की छवि को कितना धक्का पहुंचा ये आकलन करना आसान नहीं है। कुछ लोग इसके लिए भाजपा नेता कपिल मिश्रा को दोष दे रहे हैं। उनका कहना है कि यदि शाहीन बाग़ के जवाब में वैसा ही आन्दोलन नहीं किया जाता तब ये हालात पैदा नहीं होते। लेकिन ऐसा कहने वाले ये भूल गए कि शाहीन बाग़ के बाद उस जैसा ही दूसरा धरना भी सीएए के विरोध में दिल्ली के दूसरे स्थान पर शुरू कर दिया गया जबकि सर्वोच्च न्यायालय पहले वाले धरने की वैधानिकता और औचित्य पर विचार कर ही रहा है। शाहीन बाग़ के धरने के प्रति जिस तरह की सहानुभूति और समर्थन एक वर्ग विशेष ने दिखाई और समाचार माध्यमों ने भी उसे सुर्खियाँ प्रदान कीं उससे एक गलत परिपाटी को प्रोत्साहन मिला। शाहीन बाग़ में बैठी महिलाओं को इस तरह महिमामंडित किया गया जैसे वे कोई स्वंतत्रता संग्राम सेनानी हों। ऐसी ही सोच कश्मीर घाटी के अलगाववादियों के बारे में रखी जाती थी। सुरक्षा बलों की छवि खलनायक की बनाने का प्रयास भी उसी तबके द्वारा किया जाता रहा जिसने शाहीन बाग़ को भी आजादी की लड़ाई जैसा महत्व दिया। घाटी में पत्थरबाजों से निपटने के लिए पैलट गन के उपयोग पर तो सर्वोच्च न्यायालय तक ने सवाल खड़े किये थे। यही वजह रही कि कश्मीर घाटी में भारत विरोधी भावनाएं मजबूत होती गईं। शाहीन बाग के धरने के पहले जामिया मिलिया विवि में हुई हिंसा को जायज ठहराते हुए पुलिस को कठघरे में खड़ा करने का अभियान चलाया गया। ये सब देखते हुए कहना गलत नहीं होगा कि कश्मीर में अनुच्छेद 370 हटाने के कारण अलगाववादी ताकतों में जो खीझ उत्पन्न हुई वही दिल्ली और देश में सीएए के विरोध में शरू किये गए सुनियोजित आन्दोलन की जड़ है। शाहीन बाग में जो और जैसे हुआ वह महिलाओं और मुस्लिमों का ध्यान रखकर बर्दाश्त किया गया जिससे और लोगों को भी बल मिल गया। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा भेजे गए मध्यस्थों से जिस तरह बात की गई उससे इस बात की पुष्टि हुई कि आन्दोलनकारियों की आड़ में देश को अस्थिर करने वाली ताकतें सक्रिय हैं। कल हुई हिंसा के बाद केंद्र के गृह मंत्रालय और दिल्ली पुलिस की उदासीनता को वे ही लोग कोस रहे हैं जो शाहीन बाग़ में सड़क कब्जाए बैठी महिलाओं की शान में कसीदे पढ़ा करते थे। चूँकि मामला सर्वोच्च न्यायालय में है जिसने शाहीन बाग़ के धरने को अवैध कब्जा बताकर तत्काल हटवाने का आदेश देने की बजाय आन्दोलन को अधिकार मानकर जनसुविधा का ध्यान रखने का उपदेश देते हुए मध्यस्थों को शंतिदूत बनाकर भेजा। लेकिन संविधान की दुहाई देने वाली आंदोलनकारी महिलाओं ने शान्ति प्रस्ताव को कमजोरी मानकर सड़क खाली करते हुए किसी दूसरे स्थान पर जाने से साफ इंकार कर दिया। कुछ देर के लिए सड़क का एक हिस्सा खोला तो गया लेकिन थोड़ी देर बाद ही उसे फिर अवरुद्ध कर दिया गया। इसकी प्रतिक्रियास्वरूप पूरे देश में सीएए के समर्थन में धरने देने की भावना मजबूत होने लगी। ये कहना कदापि गलत नहीं होगा कि सर्वोच्च न्यायालय इस बारे में पेश की गईं याचिकाओं पर कानूनी प्रावधानों के अनुसार फैसला दे देता तब शायद दिल्ली के हालात इतने संगीन नहीं हुए होते। कश्मीर घाटी में भी जब अलगाववादी पाकिस्तान का झंडा लहराते हुए भारत विरोधी नारे लगाते निकलते और सुरक्षा बल खड़े-खड़े उन्हें देखते रहते थे तब पूरे देश में जो गुस्सा नजर आता था वही शाहीन बाग़ के धरने के प्रति बरती गई नरमी से पैदा हुआ। संविधान में दिए अधिकारों की भी एक सीमा है जिसमें किसी और के अधिकार का अतिक्रमण न होना जरूरी है। शाहीन बाग़ का समूचा जमावड़ा अधिकारी के दुरूपयोग का जीता-जागता उदाहरण है। बेहतर होता उसे शुरू होते ही हटवा दिया जाता। केंद्र सरकार और दिल्ली पुलिस विधानसभा चुनाव पूर्व जिस भी दबाव में रही हो लेकिन अब और देर की जाती रही तो पूरा देश 370 हटने के पहले वाली कश्मीर घाटी का रूप ले लेगा। कश्मीर में मुंह की खाने के बाद भी देश विरोधी ताकतें शांत नहीं बैठीं। सीएए का विरोध उसकी बानगी है। यदि इसके पीछे के खेल को नहीं समझा गया तो देश भर में जगह-जगह शाहीन बाग नजर आयेंगे। बेहतर हो सर्वोच्च न्यायालय भी स्थिति की गंभीरता को समझे।

- रवीन्द्र वाजपेयी

Monday 24 February 2020

ट्रंप की यात्रा : अमेरिका को भी भारत की जरूरत है




अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप आज दो दिन की भारत यात्रा पर आए हैं। अहमदाबाद से शुरू होकर उनकी यात्रा आगरा होते हुए कल रात दिल्ली में समाप्त होगी।  इस यात्रा का समय अनेक दृष्टियों से महत्वपूर्ण है।  इसी साल सर्दियों में अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव होने वाले हैं जिसमें श्री ट्रंप दोबारा किस्मत आजमाने जा रहे हैं।  वे जीतेंगे या नहीं ये तो फिलहाल नहीं कहा जा सकता किन्तु उनके अब तक के कार्यकाल में भारत के प्रति अमेरिका का रवैया अनेक दृष्टियों से अनुकूल रहा।  हालाँकि इसके पीछे वहां रहने वाले भारतवंशियों का योगदान भी काफी है किन्तु आतंकवाद के मुद्दे पर अमेरिका का जैसा समर्थन भारत को हाल के वर्षों में मिला वह अभूतपूर्व है। वैसे श्री ट्रंप की छवि एक सनकी और मुंहफट राजनेता की मानी जाती है जो राजनयिक मर्यादाओं से इतर टिप्पणियाँ कर बैठते हैं।  लेकिन ये भी उतना ही सच है कि पाकिस्तान के प्रति उनके शासन में जिस तरह की बेरुखी नजर आई उसकी वजह से भारत को वैश्विक स्तर पर बड़ा कूटनीतिक लाभ हुआ।  सर्जिकल स्ट्राइक, बालाकोट ऑपरेशन, हाफिज सईद को अंतर्राष्ट्रीय आतंकी घोषित करना, पाकिस्तान की आर्थिक सहायता में कटौती, अनुच्छेद 370 हटाये जाने को भारत का आन्तरिक मामला मानने और रक्षा क्षेत्र में भारत के साथ रणनीतिक भागीदारी जैसे कदमों से दोनों देशों के बीच रिश्ते काफी दोस्ताना हुए हैं।  ट्रंप प्रशासन के महत्वपूर्ण पदों पर  भारतवंशियों की मौजूदगी भी इस बात का परिचायक है कि अमेरिका के लिए भारत अब एक जरूरत बन गया है।  हालाँकि बराक ओबामा के दौर में भी दोनों देशों के बीच रिश्ते बेहद अच्छे रहे परन्तु श्री ट्रंप के राष्ट्रपति बनने के बाद से इनमें जो मजबूती आई वह आशा जगाने वाली रही।  यद्यपि ये कहना सच्चाई से आँखें चुराने वाली कोशिश होगी कि अमेरिका ने भारतीय हितों का पूरी तरह समर्थन और संरक्षण किया। वीजा नियमों में कड़ाई के साथ ही अमेरिकी युवाओं को नौकरी देने को लेकर बनाये दबाव की वजह से भारतीय अप्रवासियों और कारोबारियों को कतिपय दिक्कतें भी हुईं लेकिन कुल मिलकर श्री ट्रंप के आने के बाद अमेरिका की तरफ  से भारत को जो समर्थन और महत्व मिला वह उल्लेखनीय है।  सबसे बड़ी बात ये रही कि अमेरिका ने पश्चिम एशिया में इस्लामिक आतंकवाद के विरुद्ध जो कड़ाई की उससे भारत का पक्ष सुदृढ़ हुआ।  ईरान और अमेरिका के बीच उपजे तनाव के कारण जरुर नुकसान की स्थिति बनी लेकिन अमेरिका के बदले रवैये की वजह से ही खाड़ी देशों के साथ ही सऊदी अरब जैसे इस्लामी देशों के साथ भारत के रिश्ते और मजबूत हुए।  अमेरिका की देखासीखी उसकी लॉबी के बाकी देश मसलन ब्रिटेन, कैनेडा, जापान, जर्मनी और इजरायल आदि ने भी विश्व मंचों पर भारत का समर्थन किया।  चीन के साथ व्यापार युद्ध शुरू करने की श्री ट्रंप की नीति ने भी अप्रत्यक्ष रूप से भारत को बल प्रदान किया।  इसकी वजह से दक्षिण एशिया में भारत की वजनदारी बढ़ी।  बीते कुछ सालों में चीन ने भी अनेक अवसरों पर भारत का विरोध करने में संकोच किया तो उसकी वजह भी अमेरिका का हमारे साथ खड़ा होना ही रहा।  वैसे बीच-बीच में अपनी आदतानुसार श्री ट्रंप ने ऐसे बयान दिए जिससे ऐसा लगा कि अमेरिका का मन साफ नहीं है। कश्मीर विवाद पर भारत-पकिस्तान के बीच मध्यस्थता करने की बात उन्होंने अनेक बार कही लेकिन भारत द्वारा साफ शब्दों में इसका विरोध करने पर उन्हें ये कहना पड़ा कि यदि दोनों देश चाहें तब। पाकिस्तान के प्रधानमन्त्री इमरान खान ने श्री ट्रंप को पटाने की अनेक कोशिशें कीं किन्तु विफल रहे जिससे ये साबित हुआ कि अमेरिका भारत से रिश्तों में दोबारा कड़वाहट पैदा करने का खतरा नहीं उठाना चाहता।  इसकी एक वजह ये भी रही कि प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी ने भारतीय कूटनीति को जिस तरह से बहुआयामी बनाते हुए रक्षा उपकरणों के साथ व्यापार समझौतों में गुटीय सीमाओं को तोड़कर राष्ट्रीय हितों को प्राथमिकता देते हुए अमेरिकी दबाव को नजरअंदाज किया उससे भी वाशिंगटन में बैठे हुक्मरानों को ये समझ में आ गया कि भारत की उपेक्षा और पाकिस्तान को संरक्षण से उनके अपने हित प्रभावित होंगे।  अफगानिस्तान से निकलने की तैयारी के बीच अमेरिका के लिए दक्षिण एशिया में अपने हितों की रक्षा के लिए किसी ऐसे देश की जरूरत है जो चीन के मुकाबले खड़ा होने के साथ पाकिस्तान को भी नियंत्रण में रख सके।  सबसे बड़ी बात ये है कि अमेरिका की आंतरिक परिस्थितियों में वहां रह रहे भारतवंशियों की जो प्रभावशाली भूमिका है उसकी वजह से अमेरिका का प्रशासन अब भारत की उपेक्षा करने की बजाय उसकी तरफ  मैत्री का हाथ बढ़ाने की नीति पर चल रहा है।  आगामी चुनाव में श्री ट्रंप को मिलने वाले चंदे में भी भारतवंशियों का सहयोग मायने रखता है।  उस दृष्टि से राष्ट्रपति ट्रंप का अपने कार्यकाल के अंतिम महीनों में भारत आना उनके अपने स्वार्थों के लिहाज से भी जरूरी लगता है। भारत के साथ किसी बड़े व्यापारिक समझौते की सम्भावना से भले ही उन्होंने इसीलिये इंकार कर दिया और धार्मिक स्वतंत्रता जैसे विवादस्पद विषय उठाने का संकेत भी दिया। लेकिन ये बात भी सही है कि इमरान खान की अनेक कोशिशों के बाद भी पाकिस्तान के साथ कड़ाई से पेश आने और चीन पर व्यापारिक दबाव बनाने की ट्रंप प्रशासन की नीति से भारत को काफी लाभ हुआ है। राष्ट्रपति ट्रंप की यात्रा के प्रबंधों को लेकर भारत में एक वर्ग आलोचना में जुटा हुआ है।  अहमदाबाद में आयोजित कार्यक्रम को धन की बर्बादी भी बताया जा रहा है। उनके काफिले की राह में आने वाली झुग्गियों के सामने दीवार खड़ी करने को लेकर भी तरह-तरह के सवाल खड़े किये जा रहे हैं किन्तु इन सबसे अलग हटकर देखें तो भारत और अमेरिका के बीच रिश्तों में इतनी मधुरता और नजदीकी पहले कभी नहीं रही।  इसका श्रेय श्री मोदी को देना गलत नहीं होगा किन्तु राष्ट्रपति ट्रंप ने भी इसमें अच्छा खासा योगदान दिया।  इसकी एक वजह उनकी व्यावसायिक पृष्ठभूमि भी हो सकती है। अपने अनिश्चित स्वभाव और कड़क रवैये के बावजूद उन्होंने वैश्विक स्तर पर जो नीतियाँ अपनाईं उनसे भारत भी लाभान्वित हुआ है। पाकिस्तान तो खैर, छोटी चीज है लेकिन चीन को जिस तरह से श्री ट्रंप ने घेरा उससे निश्चित तौर पर भारत को मजबूती मिली। उनकी यात्रा से भले ही सीधे तौर पर कुछ सामने न आये लेकिन कूटनीति में बहुत सारी बातें कभी बाहर नहीं आतीं। राष्ट्रपति ट्रंप की इस यात्रा के बारे में भी ऐसा होगा।  अनेक लोग इसे आगामी चुनाव में भारतीय मूल के मतदाताओं के समर्थन से जोड़ रहे हैं जो गलत भी नहीं है किन्तु अमेरिकी राष्ट्रपति की यात्रा कूटनीतिक दृष्टि से सदैव महत्वपूर्ण होती है। उनके भारत आने से न सिर्फ  पाकिस्तान अपितु चीन सहित एशिया के बाकी देश भी प्रभावित होंगे।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Saturday 22 February 2020

नसबंदी के बहाने जनसंख्या नियंत्रण पर निशाने




 मप्र की कमलनाथ सरकार में प्रशासनिक अव्यवस्था का बोलबाला साफ़ नजर आने लगा है | मध्यान्ह भोजन संबंधी निर्णय को लेकर मुख्य सचिव द्वारा कैबिनेट के निर्णय को पलटने जैसा आरोप लगने से सरकार की किरकिरी होने की बात अभी तक ताजा ही थी कि गत दिवस अवकाश के  बावजूद दफ्तर खुलवाकर राष्ट्रीय स्वस्थ्य मिशन की डायरेक्टर छवि भरद्वाज का वह आदेश र्द्द्द क्र दिया  गया जिसमें विभागीय कर्मचारियों को 5 से 10 पुरुष नसबंदी का लक्ष्य देकर ये चेतावनी दी गयी थी कि असफल रहने पर काम नहीं तो वेतन नहीं के आधार पर उनका वेतन काटने से लेकर अनिवार्य सेवा निवृत्ति जैसी कार्र्वायी तक की जावेगी | इस आदेश से कर्मचारी तो नाराज थे ही ऊपर से भाजपा ने इसे आपातकाल की पुनरावृत्ति बताते हुए विरोध के स्वर बुलंद कर दिए | इन बिन बुलाई मुसीबत से घबराई प्रदेश सरकार ने महाशिवरात्रि की छुट्टी के बाद भी कार्यालय खुलवाकर श्रीमती भरद्वाज के आदेश को वापिस ही नहीं लिया अपितु उनका तबादला भी कर दिया गया | वे फ़िलहाल प्राशिक्षण पर मसूरी गईं हुई हैं | प्राप्त जानकारी के मुताबिक उक्त विभाग ने गत वर्ष भी इस सम्ब्न्ध में आदेश जारी किये थे | जिनका पालन नहीं होने पर संदर्भित चेतावनी दी गयी | इस मामले में गलती सरकार की है या श्रीमती भरद्वाज की ये तो विस्तृत जांच से ही पता चलेगा किन्तु इस बारे में जो विवाद मचा उससे परिवार नियोजन के प्रति सरकारी स्तर पर बरती जाने वाली उदासीनता और लापरवाही एक बार फिर सामने आ गी है | सत्तर और अस्सी के दशक तक परिवार नियोजन एक ज्वलंत विषय था | 1975 में इंदिरा सरकार द्वारा थोपे गये आपातकाल के दौरान जबरन नसबंदी के अभुइयान की वजह से 1977 के चुनाव में कंग्रेस को जबर्दस्त नुक्सान हुआ | यहाँ तक कि इंदिरा जेई स्वयं चुनाव हार गईं | जनता पार्टी की सरकार ने परिवार नियोजन को परिवार कल्याण नाम देकर आपातकाल की कड़वी यादों को धूमिल करने का प्रयास किया लेकिन उसके बाद धीरे - धीरे छोटा प्ररिवार - सुखी परिवार , दो या तीन  बच्चे - होते हैं घर में अच्छे , बच्चे कम और पेड़ हजार जैसे नारे दीवारों से गायब से होते गये | जनसंख्या नियन्त्रण के लिए सरकारी स्तर पर व्यक्त की जाने वाली चर्चाएँ और निर्णय भी महज बैठकों और आंकड़ों तक सिमटकर रह गए | विकास की नई अवधारणा में मानव संसाधन विकास की बात पर तो जोर दिया जाने लगा किन्तु जनसंख्या विस्फोट राष्ट्रीय चिंताओं की सूची से लुप्त सा हो गया | परिवार नियोजन के लिए होने वाली नसबंदी , महिलाओं की शल्य क्रिया जैसे काम बंद तो नहीं हुए लेकिन इस बारे में शासकीय स्तर पर जैसा अभियान पहले कभी चलता था वह सुस्ती ओढ़कर बैठ गया | इस सबसे ये लगने लगा कि सरकार में बैठे लोगों ने जनता की नाराजगी  से बचने के लिए परिवार नियोजन को पूरी तरह लोगों की मर्जी पर छोड़ दिया | यद्यपि पढ़े - लिखे  विशेष रूप से मध्यमवर्गीय नौकरपेशा वर्ग में छोटे परिवार का महत्त्व स्वीकार कर  लिया गया किन्तु निम्न आय वर्ग में अभी भी इस बारे में लापरवाही देखी जाती है | मुस्लिम समुदाय में तो धार्मिक कारणों से परिवार नियोजन के प्रति हिचक विद्यमान है | ऐसे में ताजा विवाद न हुआ होता तब शायद किसी का ध्यान इस तरफ जाता ही नहीं कि मप्र में  जनसंख्या वृद्धि की क्या स्थिति है और उसकी वजह से प्रदेश की अर्थव्यवस्था किस हद तक प्रभावित हो रही है | श्रीमती भारद्वाज की गिनती एक सक्षम अधिकारी के रूप में होती आई है | उनकी पदस्थापना जहां - जहां हुई वहां उन्होंने अपना असर छोड़ा | विवादित आदेश में जबरदस्ती तो झलकती थी किन्तु गौरतलब ये भी है कि सम्बन्धित विभाग के कर्मचारियों ने पिछले आदेशों का पालन नहीं किया जिससे कि लक्ष्य पूरा नहीं हो पाया | एक सरकारी अधिकारी का अपने अविभागीय कर्मचारियों पर सख्ती करना सामान्य प्रक्रिया है | वित्तीय वर्ष की समाप्ति से पहले राजस्व की वसूली को लकर भी इसी तरह  से दबाव बनया जाता है | लेकिन नसबंदी चूँकि अलग तरह का अभियान है इसलिए उसके बारे में किसी भी प्रकार की सख्ती सरकार के प्रति नाराजगी का सबब बन जाता है | हालाँकि दो बच्चों की सीमा विभिन्न शासकीय औपचारिकताओं में अनिवार्यता बनी हुई है लेकिन ये बात भी सही है कि श्रीमती भारद्वाज द्वारा जारी किया गया आदेश जोर - जबरदस्ती का कारण बनता या फिर आंकड़ों का फर्जीबाड़ा किया जाता | बहरहाल बात निकली है तो परिवार नियोजन और जनसंख्या नियंत्रण पर सार्थक होना चाहिए क्योंकि सरकार की तमाम कल्याणकारी योजनाएं और कार्यक्रम बढती आबादी के सामने दम तोड़ देती हैं | बीते कुछ वर्षीं में भारत आर्थिक प्रगति के मामले में चीन से प्रतिस्पर्धा कर  रहा है लेकिन चीन की आर्थिक तरक्की में जनसँख्या नियंत्रण का सबसे बादा योगदान है | हालाँकि साम्यवादी शासन व्यवस्था की वजह से वहां तानाशाही है जिसमें आम जनता को सरकारी फैसलों की अवहेलना करने का अधिकार ही नहीं है | उसके ठीक उलट हमारे देश में प्रजातंत्र होने से  छोटी से छोटी बात का बतंगड़ बन जता है | जनसँख्या नियन्त्रण का समूचा कार्यक्रम भी इसीलिये वोटबैंक का शिकार होकर रह गया | बीते कुछ समय से इस बात पर चार्चा चल रही है कि केंद्र स्रकार जनसँख्या नियंत्रण पर कानून लेकर आ  रही है | मप्र में उठे नसबंदी विवाद के बाद ये सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या वह  ऐसा कर सकेगी क्योंकि भाजपा विरोधी पार्टियां उसे अल्पसंख्यक विरोधी बताकर आसमान सिर् पर उठाने से नहीं चूकेंगी | वैसे कमलनाथ सरकार की कमजोरी भी लगातार सामने आ रहीं हैं | माफिया उन्मूलन , ,  किसानों की कर्ज माफी और ऐसे ही बाकी मामलों में वह निरंतर असफल होती दिख रही है | उसकी एकमात्र उपलब्धि कुछ है तो वह है आये दिन तबादलों की सूची जारी करना | तबादले सरकार का अधिकार् हैं लेकिन उनका औचित्य  साबित करना भी उसका दायित्व है |

- रवीन्द्र वाजपेयी

Thursday 20 February 2020

गड़करी आ जाएं तो अच्छा ही होगा



सर्वोच्च न्यायालय द्वारा केन्द्र सरकार के किसी मंत्री को बिना सम्मन भेजे पर्यावरण संरक्षण जैसे विषय पर सलाह हेतु आमंत्रित करना अच्छा निर्णय है। गत दिवस सार्वजनिक परिवहन हेतु इलेक्ट्रानिक वाहनों के उपयोग संबंधी याचिका पर सुनवाई के दौरान मुख्य न्यायाधीश एस.ए.बोवड़े ने सरकार के जवाब पर नाराजगी जताते हुए कहा कि पटाखे और पराली से उत्पन्न प्रदूषण तो अस्थायी होता है जबकि वाहनों से होने वाला प्रदूषण हर समय जारी रहता है। चूँकि परिवहन मंत्री नितिन गड़करी ने पहल करते हुए सार्वजनिक परिवहन हेतु इलेक्ट्रानिक वाहनों के उपयोग पर काफी जोर दिया इसलिए अदालत ने उनसे सलाह करने का फैसला किया। यद्यपि सरकारी वकील ने मंत्री को बुलाने पर ऐतराज करते हुए कहा कि इसका राजनीतिक असर होगा किन्तु मुख्य न्यायाधीश ने स्पष्ट किया कि श्री गड़करी को कोई लिखित आदेश नहीं भेजा जायेगा। ये महज आमंत्रण है और वे आने के लिए बाध्य नहीं हैं। विभागीय अधिकारी उनके आने के बारे में सुनिश्चित करें। यद्यपि बाद में अदालत ने मंत्री को बुलाने का आग्रह वापिस लेकर किसी अधिकारी को भेजने पर सहमति जताई। दरअसल अदालत ये जानना चाहती है कि सरकार के पास इलेक्ट्रानिक वाहनों को लेकर क्या योजना है? इस बीच ये खबर भी आ गई कि एक अप्रैल से देश में भारत चरण-6 के अंतर्गत सबसे स्वच्छ पेट्रोल-डीजल उपलब्ध होने लगेगा। चूँकि अप्रैल 2020 के बाद वाहन निर्माता बीएस-4 वाहन नहीं बेच सकेंगे और बीएस-5 को छोड़कर सीधे बीएस-6 वाहन ही सड़कों पर आएंगे इसलिए पेट्रोलियम कंपानियों ने अंतर्राष्ट्रीय मानकों के अनुरूप ही बीएस-6 स्तर का ईंधन उपलब्ध करवाने की व्यवस्था की है। इसके लिये 35 हजार करोड़ रु. खर्च किये जा चुके हैं। अभी वाहन कंपनियों के पास जो स्टाक है उसे अप्रैल तक बेचना ही होगा। इसी तरह जो वाहन इस समय चलन में हैं वे भी एक अवधि के बाद बाहर कर दिए जावेंगे। सार्वजनिक परिवहन हेतु इलेक्ट्रानिक वाहनों के उपयोग की दिशा में श्री गड़करी मंत्री बनने से पहले से काम करते आ रहे हैं। शायद इसीलिए सर्वोच्च न्यायालय ने वाहनों से होने वाले प्रदूषण को रोकने के लिए बजाय विभागीय अधिकारियों द्वारा प्रस्तुत की जाने वाली कागजी रिपोर्ट के सीधे मंत्री से ही बात करने का मन बनाया। ये भी कहा जा सकता है कि नागपुर के होने के कारण मुख्य न्यायाधीश श्री गड़करी से परिचित भी हैं इसलिए उन्होंनें ये उचित समझा कि क्यों न उन्हीं को अदालत में बुलाकर सरकारी योजना के बारे में जानकारी ली जावे। बहरहाल उक्त दोनों खबरें पर्यावरण संरक्षण के प्रति जागरूकता का प्रमाण हैं। सर्वोच्च न्यायालय का ये आकलन पूरी तरह सही है कि पटाखे और पराली जलने से होने वाला प्रदूषण तो कुछ समय तक ही रहता है जबकि वाहनों से होने वाला प्रदूषण पर्यावरण के लिए सबसे बड़ी समस्या बन गया है। दिल्ली-मुम्बई जैसे महानगरों में हजारों की संख्या में सार्वजनिक और लाखों की संख्या में निजी वाहन चलने से जो धुंआ निकलता है वह वायु प्रदूषण का सबसे बड़ा कारण है। इलेक्ट्रानिक सार्वजनिक वाहनों के जरिये इसमें काफी कमी लाई जा सकती है। इसी तरह बीएस -6 स्तर के वाहनों के सड़कों पर आने और उसी मानक के स्वच्छ पेट्रोल-डीजल की उपलब्धता से वायु प्रदूषण को नियंत्रित करने की दिशा में हो रहे प्रयास सफलीभूत होंगे ये उम्मीद भी की जा सकती है। बहरहाल भले ही सर्वोच्च न्यायालय ने श्री गड़करी को बुलाने का आमन्त्रण वापिस ले लिया हो लेकिन अच्छा होगा यदि वे न्यायाधीश के समक्ष उपस्थित होकर इलेक्ट्रानिक वाहनों संबंधी कार्ययोजना की जानकारी दें। मुख्य न्यायाधीश ने इस बारे में आश्वस्त किया कि याचिकाकर्ता के अधिवक्ता उनसे कोई प्रश्न नहीं करेंगे। वैसे इस विषय पर श्री गड़करी का अध्ययन और अनुभव इतना समृद्ध है कि वे किसी भी सवाल का जवाब दे सकते हैं। यद्यपि किसी मंत्री को अदालत में इस तरह आमंत्रित करना स्थापित परम्परा नहीं बननी चाहिए लेकिन जिस विषय पर मुख्य न्यायाधीश ने ये पहल की वह इतना सामयिक और संवेदनशील है कि यदि श्री गड़करी अदालत में आकर सरकार का पक्ष जाहिर करें तब पर्यावरण संरक्षण के प्रति पूरे देश में वैसी ही जागृति आने की सम्भावना बढ़ेगी जैसी स्वच्छता मिशन की शुरुवात में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा खुद झाड़ू उठाने से आई थी। अप्रैल माह में बीएस-6 वाहनों के सड़कों पर उतरने और वैश्विक मानक के अनुरूप स्वच्छतम ईंधन की उपलब्धता से वाहनों द्वारा फैलाये जाने वाले प्रदूषण पर काफी नियंत्रण हो सकेगा जिसके परिणामस्वरूप साँस के साथ फेफड़ों में जाने वाले जहर को रोका जा सकेगा। इलेक्ट्रानिक सार्वजनिक वाहनों का उपयोग भी बहुत ही क्रांतिकारी कदम होगा और इस दिशा में जितनी जल्दी काम हो सके उतना अच्छा रहेगा। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सलाह लेने के लिये श्री गड़करी को आमंत्रित करने की बात खुलकर कहने से उनकी वजनदारी और बढ़ी है। मोदी सरकार के तमाम मंत्रियों में नितिन जी सफलतम मंत्री माने जाते हैं तथा जनता के बीच भी उनकी छवि लक्ष्य निर्धारित कर उसे प्राप्त करने वाले शख्स की है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Wednesday 19 February 2020

शाहीन बाग़ : यदि मध्यस्थों की भी नहीं सुनी गई तब ....




दिल्ली के शाहीन बाग़ इलाके की सड़क पर मुस्लिम महिलाओं द्वारा दिए जा रहे धरने से राहगीरों को हो रही परेशानी को दूर करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय ने तीन अधिवक्ताओं को बतौर मध्यस्थ नियुक्त करने की जो व्यवस्था की वह एक परिपाटी बन सकती है। न्यायालय ने सीएए (नागरिकता संशोधन कानून) के विरोध में शुरू हुए आन्दोलन को तो अधिकार मान लिया लेकिन उसकी वजह से लोगों को होने वाली परेशानी महसूस करते हुए उसे किसी वैकल्पिक जगह स्थानांतरित करने हेतु तीन अधिवक्ताओं को वार्ताकार बनाकर आन्दोलनकारियों से मिलने कहा। आज वे तीनों शाहीन बाग़ जाकर मुस्लिम महिलाओं को धरना स्थल बदलने के लिए सहमत करने का प्रयास करेंगे। लेकिन कुछ महिलाओं ने टीवी चैनलों पर दो टूक कहा कि वे उक्त कानून के हटने तक नहीं उठेंगी। जैसी चर्चा है उसके अनुसार यदि आन्दोलनकारी नहीं माने तब सर्वोच्च न्यायालय आगे की कार्रवाई पुलिस और प्रशासन पर छोड़कर अपना पल्ला झाड़ लेगा। प्रश्न ये है कि सर्वोच्च न्यायालय ने सड़क घेरकर बैठे जनसमूह को हटाने का आदेश देने की बजाय उनसे वार्ता करने जैसा विकल्प क्यों चुना? ऐसे मामलों में कार्रवाई करना तो प्रशासन और पुलिस का काम है क्योंकि किसी स्थान पर कुछ लोग अवैध रूप से बैठकर सार्वजनिक यातायात अवरुद्ध करते हुए हजारों लोगों की परेशानी का कारण बनें तो बात विरोध और आन्दोलन करने के मौलिक अधिकार से अलग हटकर जनसुविधा में बाधा उत्पन्न करने पर केन्द्रित हो जाती है। ये बात सोलह आने सच है कि सर्वोच्च न्यायालय का काम कानून व्यवस्था लागू करवाना नहीं है लेकिन वह ये तो कह ही सकता है कि दो महीने तक देश की राजधानी में बीच सड़क पर बैठकर धरना देना गैर कानूनी है। धरना पर बैठीं महिलाओं के लोकतांत्रिक अधिकार से किसी को ऐतराज नहीं है। लेकिन उन्हें सड़क रोककर यातायात में बाधा पैदा करने की छूट किस तरह का लोकतंत्र है, इसका जवाब भी मिलना चाहिए। ये बात बिलकुल सही है कि पुलिस और प्रशासन को इस धरने को खत्म करवाने या अन्यत्र कहीं स्थानांतरित करवाने की पहल करनी चाहिए थी लेकिन बीते कुछ समय से दिल्ली में पुलिस की कतिपय कार्रवाई को लेकर समाचार माध्यमों सहित सेकुलर लॉबी द्वारा जो बखेड़ा खड़ा किया गया उसकी वजह से पुलिस और प्रशासन दोनों ने अपने कदम रोककर रखे। ऊपर से मामला मुस्लिम महिलाओं का था जिनसे जऱा सी सख्ती किये जाने पर आसमान सिर पर उठा लिया जाता। चकाजाम और शाहर बंद करवाने के विरुद्ध न्यायालायों द्वारा अनेक निर्णय अतीत में दिए जा चुके हैं। जबलपुर में आयोजित बंद पर तो उच्च न्यायालय ने सम्बन्धित राजनीतिक दल के मुखिया पर आर्थिक दण्ड भी लगाया था। लेकिन शाहीन बाग़ में आयोजित धरने के विरुद्ध प्रस्तुत याचिका पर सुनवाई भी बड़े ही आराम के साथ की गयी जबकि इस मामले में तत्काल सुनवाई और फैसले की अपेक्षा और जरूरत थी। देश में धरना प्रदर्शन, अनशन, जुलूस जैसे तरीके आम हैं। सड़क दुर्घटना में किसी की मृत्यु होने पर क्षेत्रीय जन सड़क घेरकर मुआवजा मांगने बैठ जाते है। पुलिस और प्रशासन अधिकतर अवसरों पर समझाइश देकर भीड़ को अलग करवा देते हैं। लेकिन शाहीन बाग़ के धरने को कुछ समाचार माध्यमों और राजनीतिक दलों ने इस तरह से पेश किया जैसे वह कोई राष्ट्रीय आन्दोलन हो। उसके साथ गांधीगिरी जैसा विशेषण जोड़कर उसकी गुणवत्ता भी प्रमाणित की जाती रही। जबकि सही बात तो ये है कि दिल्ली की पुलिस और प्रशासन ने अभूतपूर्व धैर्य का परिचय दिया। बावजूद इसके कि धरना स्थल पर भड़काऊ भाषण होते रहे। देश के पूर्व विदेश मंत्री सलमान खुर्शीद तक छीन के लेंगे आजादी जैसे नारे लगाते देखे गए। ये सब होने के बाद सर्वोच्च न्यायलय से उम्मीद थी कि वह शाहीन बाग के धरने को गैर कानूनी बताकर उसे हटवाने का रास्ता साफ करता। जबरदस्ती सड़क कब्जाए बैठी माहिलाओं से बात करने की लिए तीन अनुभवी अधिवक्ताओं की नियुक्ति का फैसला कितना सही है इस बहस में पड़े बिना ये कहना गलत नहीं होगा कि अब देश भर में इस तरह की किसी भी गतिविधि से निपटने में पुलिस और प्रशासन के समक्ष नई समस्या पैदा हो जायेगी। चंद सैकड़ा लोग यदि किसी भी सार्वजनिक स्थल पर डेरा जमाकर बैठ जाएं तो उन्हें बलपूर्वक हटाने की बजाय मध्यस्थ नियुक्त किये जाने का चलन बन जाएगा और उसके लिए सर्वोच्च न्यायालय की व्यवस्था को आधार बनाया जावेगा। उससे भी बड़ी बात ये है कि यदि वार्ताकारों के समझाने बुझाने के बाद भी शाहीन बाग़ की आन्दोलनकारी महिलायें नहीं मानीं तब क्या सर्वोच्च न्यायालय दिल्ली पुलिस और प्रशासन को नियमानुसार कार्रवाई करने का आदेश देगा और किसी भी तरह के बलप्रयोग के बाद मानवाधिकार और महिला आयोग जैसे संगठन कानून का साथ देंगे ? सवाल और भी हैं लेकिन सर्वोच्च न्यायालय के विवेक और न्यायप्रियता पर संदेह किये बिना इतना तो कहा ही जा सकता है कि देश की सर्वोच्च न्यायिक पीठ के कुछ फैसले नई समस्या को जन्म देने वाले भी होते हैं।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Tuesday 18 February 2020

सिंधिया के बगावती तेवर खतरे का संकेत



मप्र कांग्रेस इन दिनों आपसी संघर्ष में उलझी हुई है। हालाँकि इसकी शुरुवात तो उसी दिन हो गयी था जब 2018 के विधानसभा चुनाव के बाद ज्योतिरादित्य सिंधिया की उम्मीदों पर पानी फेरते हुए कांग्रेस हाईकमान ने कमलनाथ को मप्र का मुख्यमंत्री बनाने का निर्णय किया। स्मरणीय है 1993 में विधानसभा चुनाव के बाद ज्योतिरादित्य के पिता स्व. माधवराव सिंधिया भी स्व. अर्जुन सिंह की व्यूह रचना के चलते मुख्यमंत्री बनते-बनते रह गये थे जबकि तत्कालीन प्रधानमंत्री स्व. पीवी नरसिम्हा राव उन्हीं को मप्र सरकार की कमान देना चाहते थे। माधवराव जी की असामयिक मृत्यु के बाद हालांकि कांग्रेस ने उनकी गुना सीट पर ज्योतिरादित्य को उतारकर सिंधिया घराने के आधिपत्य को तो स्वीकार किया लेकिन मप्र.की सियासत में उन्हें ज्यादा मजबूत नहीं होने दिया। मनमोहन सरकार में यद्यपि वे मंत्री भी बनाये गये किन्तु राहुल गांधी से जाहिर निकटता के बावजूद वे मप्र के मध्यभारत इलाके तक ही सीमित रखे गए। अर्जुन सिंह की मृत्यु के बाद दिग्विजय सिंह ने उनकी विरासत संभाली और कमलनाथ  के साथ मिलकर प्रदेश की कांग्रेसी राजनीति पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया। हालाँकि ज्योतिरादित्य को भी दिखावे के लिए महत्व दिया जाता रहा और गत विधानसभा चुनाव में उन्हें कांग्रेस ने अपना चुनाव प्रचार प्रभारी बना दिया। भाजपा ने भी अपने प्रचार को माफ करो महाराज हमारा नेता शिवराज के नारे पर केन्द्रित कर ये संकेत दिया कि वह श्री सिंधिया को ही अपना प्रतिद्वंदी मान बैठी थी। कांग्रेस ने भी उनके चेहरे को ही आगे किया। ग्वालियर-चंबल संभाग में कांग्रेस को मिली सफलता का श्रेय श्री सिंधिया के मुख्यमंत्री बनने की संभावना को ही दिया गया। लेकिन चुनाव के बाद कमलनाथ और दिग्विजय की जोड़ी ने एक बार फिर सिंधिया राजघराने की उम्मीदों पर पानी फेर दिया। कहा जाता है राहुल गांधी ज्योत्तिरादित्य को मुख्यमंत्री बनाये जाने के समर्थक थे किन्तु कमलनाथ ने सोनिया गांधी को अपनी तरफ  कर लिया। भले ही मंत्रीमंडल में सिंधिया समर्थकों को कुछ महत्वपूर्ण विभाग मिले लेकिन सत्ता के असली सूत्र कमलनाथ ने अपने हाथ में रखे वहीं दिग्विजय सिंह ने भी बाहर रहकर खुद को समानांतर शक्ति केंद्र के तौर पर प्रचारित कर दिया। कुछ समय तक श्री सिंधिया प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बनने की उम्मीद में शांत रहे लेकिन कमलनाथ ने हाईकमान को लोकसभा चुनाव तक रुकने के लिए मना लिया। लोकसभा चुनाव में ज्योतिरादित्य सिंधिया की गुना सीट पर हुई हार ने पूरे देश को चौंका दिया। 2014 के चुनाव में प्रदेश की जिन दो लोकसभा सीटों पर कांग्रेस जीती उनमें कमलनाथ की छिंदवाड़ा और गुना थी। 2019 में मोदी लहर के बावजूद इन दोनों में कांग्रेस को पूरी उम्मीद थी किन्तु छिंदवाड़ा में कमलनाथ अपने बेटे नकुलनाथ को तो जैसे-तैसे जितवा लाये लेकिन श्री सिंधिया गुना में अपने ही पुराने सहयोगी से लम्बे अंतर से हार गये। इस परिणाम के पीछे भी राजनीति के अनेक जानकार दिग्विजय सिंह और कमलनाथ की जुगलबंदी देखते हैं। सिंधिया राजघराने को गुना और ग्वालियर में हराने की कल्पना भाजपा भी  नहीं करती थी। कहा तो यहाँ तक जाता रहा कि गुना के भाजपाई भी भीतर-भीतर महाराज का साथ देते थे। ज्योतिरादित्य की बुआ यशोधरा राजे भी गुना से विधायक हैं। बुआ-भतीजे एक दूसरे के सामने आने से कतराते रहे हैं। इस हार से श्री सिंधिया की राजनीतिक वजनदारी को जबरदस्त नुकसान हुआ। उधर कांग्रेस हाईकमान में भी राहुल गांधी की स्थिति कमजोर हो गयी। उनके पार्टी अध्यक्ष पद से हटने के बाद सोनिया जी ने फिर जिम्मेदारी संभाली और श्री सिंधिया को कांग्रेस महासचिव बनाये रखा लेकिन लोकसभा में गैर मौजूदगी की वजह से वे पूर्ववत आकर्षण का केंद्र नहीं रह सके। इधर मप्र में कमलनाथ शासन के साथ पार्टी संगठन पर अपनी पकड़ निरंतर मजबूत बनाते गये। कांग्रेस का प्रदेश अध्यक्ष पद भी वे किसी न किसी तरह कब्जाए हुए हैं। ऐसे में श्री सिंधिया को अपना भविष्य खतरे में नजर आने लगा। केन्द्रीय स्तर पर कांग्रेस की हालत लगातार कमजोर होती जाने से भी वे चिंताग्रस्त होने लगे हैं। निकट भविष्य में राज्यसभा के चुनाव होने वाले हैं। ज्योतिरादित्य को लगा कि उच्च सदन के मार्फत ही कम से कम संसद में पुनप्र्रवेश करने से वे राष्ट्रीय राजनीति में अपनी उपस्थिति दर्ज करवा सकेंगे। लेकिन जैसी खबरें आ रही हैं उनके अनुसार कमलनाथ और दिग्विजय सिंह ने उनके मंसूबों पर पानी फेरने के लिए प्रियंका गांधी को मप्र से राज्यसभा में भेजने की गोटी चल दी है। ये एक ऐसा दांव है जिसके आगे श्री सिंधिया के सारे पांसे बेअसर होकर रह जायेंगे। चारों तरफ से घिरने के कारण ही महाराज ने आखिरकार आक्रामक रुख दिखाते हुए प्रदेश सरकार पर हमला बोलते हुए घोषणापत्र में किये वायदे पूरे नहीं होने पर सड़कों पर उतरने की धमकी दे डाली। इसके पहले  किसानों के कर्जे माफ होने में हो रही देरी पर भी श्री सिंधिया सार्वजानिक रूप से प्रदेश सरकार पर निशाना साधते रहे हैं। लेकिन जब उन्होंने सड़कों पर उतरने की धमकी दी तब कमलनाथ ने भी तैश में कह दिया कि उतरकर देखें। कांग्रेस की समन्वय समिति की बैठक में बीते दिनों काफी किचकिच हुई जिसकी वजह से श्री सिंधिया नाराज होकर बाहर आ गये। उनके समर्थक मंत्री जहां उनकी तरफदारी में जुटे हैं वहीं दूसरे गुट से उन्हें आलोचना झेलनी पड़ रही है। इस बीच ये संभावना भी व्यक्त की जाने लगी कि वे बगावत करते हुए भाजपा से हाथ मिलाकर मुख्यमंत्री बनने की अपनी महत्वाकांक्षा पूरी कर सकते हैं। यद्यपि इसका ठोस आधार नहीं है और इसे राज्यसभा सीट के लिए बनाये जा रहे दबाव से जोड़कर देखा जा रहा है लेकिन सिंधिया गुट के खुलकर मैदान में आने से मुख्यमंत्री के वर्चस्व को ठेस तो पहुंच रही है। प्रदेश की आर्थिक स्थिति बेहद चिंताजनक है। लगातार कर्ज लेने के बावजूद जरूरी काम रुके हैं। वेतन और अन्य भुगतानों पर भी रोक लगी है। विपक्ष लगातार हमलावर होता जा रहा है। भाजपा ने अपने  प्रदेश अध्यक्ष पद पर एक युवा को बिठाकर हमले को और धारदार बनाने के संकेत दे दिए हैं। ऐसे में कांग्रेस की गृहकलह उसके लिए नुकसानदायक हो सकती है। पंचायत और नगरीय निकाय के चुनाव के पहले इस तरह की महाभारत से भाजपा को नगद लाभ हो जाये तो आश्चर्य नहीं होगा। ज्योतिरादित्य को कांग्रेस राज्यसभा सदस्य या प्रदेश अध्यक्ष बनाकर शांत कर देगी या उन्हें इसी तरह उपेक्षित रखा जावेगा ये देखने वाली बात रहेगी। बहरहाल प्रदेश की राजनीति में एक बार गर्माहट पैदा हो रही है। लेकिन कमलनाथ सरकार पर बाहरी हमले की बजाय घर के भीतर से गोले दागे जा रहे हैं जो ज्यादा खतरनाक हैं।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Monday 17 February 2020

सीएए के फेर में मोहरे बन गए मुस्लिम



प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी ने गत दिवस वाराणसी में स्पष्ट कर दिया कि सीएए (नागरिकता संशोधन कानून) किसी भी कीमत पर वापिस नहीं लिया जावेगा। उसी के साथ उन्होंने अनुच्छेद 370 हटाये जाने के फैसले को भी देश हित में बताया। प्रधानमन्त्री की इस घोषणा से सरकार का रुख स्पष्ट हो गया। इस बारे में गृहमंत्री अमित शाह भी अनेक बार साफ़  कर चुके थे कि जिसे बात करना हो समय लेकर आ जाए लेकिन दबाव बनाकर सरकार को झुकाया नहीं जा सकता। संयोगवश कल ही दिल्ली के शाहीन बाग़ में धरना दे रही महिलाओं का जत्था श्री शाह से मिलने उनके निवास तक जाने के पहले ही रोक दिया गया। सही बात ये हैं कि 8 फरवरी को दिल्ली विधानसभा के लिए हुए मतदान के फौरन बाद ही उक्त कानून के विरोध को लेकर समाचार माध्यमों और नेताओं की रूचि घटने लगी थी। चुनाव परिणाम आने के बाद ये प्रचारित भी हुआ कि भाजपा द्वारा सीएए के बहाने हिन्दू-मुस्लिम का जो खेल खेला गया था वह विफल होकर रह गया। दिल्ली की मुस्लिम बहुल सभी सीटों पर आम आदमी पार्टी की भारी विजय को शाहीन बाग़ के आन्दोलन का प्रभाव बताया गया। लेकिन ताजा खबरों के मुताबिक शाहीन बाग़ में धरने पर बैठीं महिलाओं का उत्साह ठंडा पडऩे लगा है। बीते कुछ दिनों से धरने में संख्या घटने भी लगी है। गत दिवस श्री शाह के निवास पर प्रदर्शन करने भी पर्याप्त संख्या नहीं जुटी। नतीजों के बाद अनेक महिलाएं ये कहती टीवी पर दिखीं कि गृहमंत्री उन्हें मिलने का समय दें। इस पर श्री शाह का बयान आ गया कि जिसे मिलना हो वह समय लेकर आ जाए। बीती 14 फरवरी को वेलेंटाइन डे पर तो धरना स्थल पर बाकायदे प्रधानमन्त्री को आमंत्रित करते हुए पोस्टर लहराए गए। लेकिन गत दिवस श्री शाह के निवास पर प्रदर्शन करने गया जत्था बिना समय लिए ही जा पहुंचा जिसकी वजह से पुलिस ने उसे आगे नहीं बढऩे दिया। सही बात ये है कि शाहीन बाग़ का आन्दोलन बेमौत मरने की कगार पर आ पहुंचा है। टीवी और सोशल मीडिया पर उस आन्दोलन को राष्ट्रीय स्तर का बताने का जो सुनियोजित प्रयास चल रहा था वह भी अचानक ठंडा पडऩे लगा। इस सबसे ये साबित होने लगा है कि वह एक प्रायोजित कार्यक्रम था जिसका उद्देश्य दिल्ली के चुनाव को प्रभावित करना था। आन्दोलन में बैठने वालों को धन और भोजन दिए जाने के आरोप भी अपनी जगह सही लगने लगे हैं क्योंकि दिल्ली के चुनावी नतीजे आते ही शाहीन बाग़ के धरने की जान निकलना शुरू हो गयी। लड़कर लेंगे आजादी के नारे लगने वाले अब किसी तरह इज्जत बचाने का रास्ता तलाश रहे हैं। केंद्र सरकार के कड़े रुख के कारण धरने पर बैठी महिलाएं किसी भी तरह श्री शाह से मिलकर धरना खत्म होने का बहाना ढूंढ़ रही हैं। एक मुस्लिम युवक को ये कहते भी सुना गया कि इस धरने का कोई नेता नहीं है इसलिए गृहमंत्री से मिलने का समय कौन मांगे ये तय करना कठिन है। जब धरना अपने शबाब पर था तब आंदोलनकारी प्रधानमन्त्री को वहां आकर बात करने जैसा दम्भ भरा करते थे लेकिन अब वे किसी तरह बचकर निकलने का रास्ता तलाश रहे हैं। महिलाओं को आगे कर पर्दे के पीछे से मदद कर रहे मुस्लिम पुरुष और भाजपा विरोधी नेतागण भी 11 तारीख के बाद दिखाई नहीं दे रहे। कुल मिलाकर स्थिति चौबे जी द्वारा छब्बे बनने के फेर में दुबे बनने जैसी हो गयी है। तीन तलाक से मिली राहत की वजह से मुस्लिम समाज की महिलाओं के मन में भाजपा के प्रति बढ़ते लगाव की संभावना से चिंतित मुस्लिम समाज के धर्मगुरु और पुरुष वर्ग द्वारा सीएए के बहाने मुस्लिम महिलाओं को आगे करते हुए उस नुकसान की भरपाई करने की कोशिश की गयी। पूरे देश में मुस्लिम समाज के मन में ये भय पैदा कर दिया गया कि सीएए के जरिये उनकी नागरिकता खत्म कर दी जायेगी जबकि इस कानून का उससे कोई सम्बन्ध नहीं है। प्रस्तावित एनसीआर और एनपीआर को लेकर भी कपोलकल्पित आशंकाएं उत्पन्न करने का कुचक्र रचा गया। गैर मुस्लिम नेताओं ने भी इस बारे में जिस तरह आग में घी डालने का काम किया वह वाकई चौंकाने वाला था। अपने निहित तात्कालिक राजनीतिक स्वार्थों के लिए देश में गृहयुद्ध जैसे हालात पैदा करने का ये तरीका बेहद खतरनाक है। उस दृष्टि से केंद्र सरकार द्वारा दबाव में न आते हुए जिस दृढ़ता का प्रदर्शन किया गया वह सही नीति है। प्रधानमन्त्री द्वारा गत दिवस वाराणसी में जिस साफगोई से सीएए वापिस लेने से इंकार किया उसके बाद अब ये मुस्लिम समुदाय को तय करना होगा कि वह  टकराव जारी रखना चाहता है या ठंडे दिमाग से सोचकर उन तत्वों के शिकंजे से आजाद होना चाहेगा जिन्होंने उसे मुख्यधारा से अलग करने का षडयंत्र रचा और उस पर देश विरोधी होने का ठप्पा लगवाकर दूर जा बैठे। शाहीन बाग़ के आन्दोलन को लेकर मुस्लिम समाज में जो विजेता भाव जगाया गया था वह बीते कुछ दिनों में लुप्त होता दिख रहा है। इस आधार पर ये कहना गलत नहीं होगा कि सीएए को मुद्दा बनाकर शुरू किया गया शाहीन बाग़ का आन्दोलन मुस्लिम समाज का जबरदस्त नुकसान कर गया क्योंकि बात केवल भाजपा के घाटे और उसके विरोधी दलों के फायदे तक सीमित नहीं रही अपितु मुस्लिम समाज के अलग-थलग पड़ जाने पर आकर केन्द्रित हो गई। सबसे बड़ी बात ये हुई कि मुसलमानों का नेतृत्व अनुभवहीन हाथों में चला गया। सर्वोच्च न्यायालय रद्द कर दे तो बात अलग वरना तो सीएए अब एक वास्तविकता बन चुका है जिसे मुस्लिम समुदाय जितनी जल्दी समझ ले उतना बेहतर है वरना वह इसी तरह राजनीतिक शोषण का शिकार होता रहेगा।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Saturday 15 February 2020

फांसी के अलावा अन्य अपीलों की भी जल्द सुनवाई हो



सर्वोच्च न्यायालय ने गत दिवस एक महत्वपूर्ण दिशा निर्देश जारी करते हुए उच्च न्यायालय द्वारा फांसी की सजा प्राप्त व्यक्ति की अपील पर सुनवाई की अधिकतम समय सीमा छह महीने तय कर दी। मौजूदा व्यवस्था के मुताबिक अपील की सुनवाई में ही बरसों लग जाते हैं जिसका लाभ लेकर दोषी व्यक्ति के मृत्युदंड की तारीख टलती रहती है। इस दिशा निर्देश की जरुरत इसलिए पड़ी क्योंकि निर्भया कांड के दोषियों की फांसी जिस तरह टलती जा रही है उससे समूची न्याय व्यवस्था का मजाक उडऩे लगा है। मृत्युदंड की सजा सर्वोच्च न्यायालय द्वारा बरकरार रखी जाने के बाद भी आरोपी के पास राष्ट्रपति के समक्ष दया याचिका का अंतिम विकल्प होता है। ये याचिका केंद्र सरकार के गृह मंत्रालय के मार्फत महामहिम के पास पहुंचती है। अब तक के अनुभव बताते हैं कि इस समूची प्रक्रिया में समय सीमा निर्धारित नहीं होने से बरसों बरस बीत जाते हैं। निर्भया काण्ड इसका सबसे ताजा उदाहरण है। जिन चार लोगों को फांसी दिए जाने की तारीख तक तय हो चुकी थी उनकी ओर से दया याचिका और अपील दर अपील के जरिये कानूनी पेंच इस तरह फंसा दिया गया जिससे ये समझ ही नहीं आ रहा कि उन्हें उनके किये की सजा आखिर कब मिलेगी। एक समय था जब निर्भया काण्ड पूरे देश में चर्चित था। उससे जुड़ी हर खबर पहले पन्ने पर छाई रहती थी। पूरे देश में उस काण्ड के दोषियों को कड़ी से कड़ी सजा दिलवाने के लिए तरह-तरह के आन्दोलन होते रहे। लेकिन धीरे-धीरे केवल निर्भया की माता जी ही अकेले अदालत में खड़े होकर अपनी बेटी के साथ दरिंदगी करने वालों को उनके पाप की सजा दिलवाने की गुहार करती दिखाई देती हैं। समाचार माध्यमों और पूरे देश में मोमबत्तियां जलाने वालों ने भी इस काण्ड में पहले जैसे रूचि दिखानी बंद कर दी जो स्वाभाविक ही है। उक्त काण्ड के दोषी जिस चालाकी से एक के बाद एक याचिकाओं के माध्यम से मृत्युदंड की तारीख टलवाते जा रहे हैं उसके मद्देनजर सर्वोच्च न्यायालय के ताजा दिशा निर्देश निश्चित रूप से भविष्य में ऐसे मामलों के जल्द निपटारे का आधार बनेंगे, ये उम्मीद की जा सकती है। कानून की भी अपनी सीमाएं होती हैं जिन्हें लांघना संभव नहीं होता। निर्भया काण्ड के चारों दोषियों को एक साथ फांसी दिए जाने की तिथि घोषित हो गई थी। उसके बाद उन्होंने अलग-अलग याचिकाएं लगाने शुरू कीं। जो एक के बाद एक खारिज होती जा रही हैं। लेकिन पूर्व में डेथ वारंट चूंकि एक साथ जारी किया गया था इसलिए फांसी भी एक साथ दिए जाने का नियम होने से जिनकी सभी अपीलें निरस्त हो चुकी हैं वे भी अब तक जि़ंदा बने हुए हैं। यदि उच्च न्यायालय द्वारा फांसी दिए जाने के बाद अपीलों का निराकरण जल्दी हो जाता तो चारों दोषी कभी के फांसी पर झूल चुके होते। हमारे देश में न्याय प्रणाली की मंथर गति पर सवाल तो रोज उठते हैं लेकिन सुधार करने के बारे में अपेक्षित प्रतिबद्धता नहीं दिखाई जाती। हाल ही में खबर आई थी कि देश भर के उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों के सैकड़ों पद रिक्त पड़े हैं। नियुक्ति संबंधी तमाम औपिचारिक्ताएं भी पूरी हो चुकी हैं लेकिन सरकार अंतिम फैसला नहीं कर रही। यद्यपि लंबित प्रकरण निबटाने की दिशा में तरह-तरह के तरीके न्यायपालिका ने निकाले जिनका लाभ भी हुआ लेकिन दीवानी के साथ-साथ अपराधिक प्रकरणों के निपटारे में होने वाले विलम्ब से न्यायपालिका की छवि खऱाब होती है। हालाकि सर्वोच्च न्यायालय के ताजा दिशा निर्देश केवल मृत्युदंड के विरुद्ध अपील के बारे में हैं। जिनके पीछे निर्भया काण्ड से उत्पन्न परिस्थितियां ही कही जाएंगीं। ऐसा लगता है इस काण्ड के दोषियों द्वारा कानून में मौजूद कमियों का लाभ लेकर जिस तरह से अपनी फांसी टलवाई जा आ रही है उससे सर्वोच्च न्यायालय भी सतर्क  हो उठा। उच्च न्यायालय के फैसले के बाद सर्वोच्च न्यायालय को प्रकरण की गहराई में ज्यादा जाने की जरुरत नहीं होती। फांसी की सजा के विरुद्ध की जाने वाली अपील में शायद ही कोई बरी होता होगा। ज्यादा से ज्यादा फांसी को आजीवन कारावास में बदला जाता है। ऐसे में अपील की सुनावाई छह महीने में शुरू किये जाने की व्यवस्था एक सामयिक निर्णय है जिसके लिए सर्वोच्च न्यायालय प्रशंसा का पात्र है। न्याय में विलम्ब न्याय से इनकार है वाली युक्ति में अब ये भी जोड़ा जाना चाहिए कि न्याय में विलम्ब न्याय का मजाक है। न्याय प्रक्रिया में विलम्ब का एक नुकसान ये भी होता है कि मुकदमा लडऩे वाले पर आर्थिक बोझ बढ़ता है। चूंकि वकीलों की फीस का कोई निर्धारित मापदंड नहीं है इसलिए पक्षकार की मजबूरी का जमकर फायदा उठाने की प्रवृत्ति इस क्षेत्र में खुलकर नजर आती है। इसीलिये त्वरित न्याय एक अपेक्षा ही नहीं आवश्यकता भी बन चुकी है। गत दिवस जारी हुए दिशा निर्देशों को फांसी के अलावा अन्य अपीलों के संदर्भ में भी लागू किया जावे तो न्यायिक सुधार की प्रक्रिया में और तेजी आ सकेगी।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Friday 14 February 2020

अपराध और राजनीति : चोली दामन का साथ



भारत में चुनाव सुधारों की दिशा में राजनीति का अपराधीकरण बड़ी बाधा बना हुआ है। एक समय था जब चुनाव जीतने के लिए राजनेता अपराधी तत्वों की मदद लिया करते थे जिसके एवज में उन्हें संरक्षण दिया जाता था। कालांतर में अपराधी तबके ने खुद ही चुनावी मैदान में हाथ आजमाने की सोची। इसके पीछे उद्देश्य बिलकुल साफ था। चुनाव जीतने के बाद जन प्रतिनिधि बनते ही उसकी छवि भले न बदले लेकिन हैसियत बदल जाती है और किसी नेता की अनुकम्पा पर निर्भर रहने की बजाय वह खुद दूसरे अपराधियों को संरक्षण प्रदान करने की ताकत अर्जित कर लेता है। धीरे-धीरे अपराध और राजनीति का चोली-दामन का साथ हो गया। जिस तरह भारतीय फिल्मों में डाकुओं को शोषित और पीडि़त बताकर महिमामंडित किया जाता है उसी तरह से राजनीति में भी अपराधी को सहानुभूति का पात्र बनाकर सांसद और विधायक बनाने का खेल शुरू हो गया और बात फूलन देवी के लोकसभा में पहुँचने तक जा पहुँची। मिर्जापुर सीट पर उसके सजातीय मतदाताओं की बड़ी संख्या के कारण वह धड़ल्ले से जीत गयी। लेकिन वह अकेला नाम नहीं है। उसके पहले और बाद में भी संगीन अपराधों में लिप्त सैकड़ों कुख्यात चेहरे विधानसभाओं और लोकसभा में ससम्मान विराजमान होते रहे। चुनाव आयोग के अलावा विभिन्न संगठनों ने इस दिशा में काफी प्रयास किये लेकिन चुनाव जीतने की क्षमता के अलावा भी अनेक बातें ऐसी हैं जिनके कारण अपराधी तत्व चुनावी राजनीति में लम्बी पारी खेलने में कामयाब रहे। किसी ने जातिवाद का लाभ उठाया तो किसी ने धन और बाहुबल का। कुछ समय  से चुनाव आयोग ने ये व्यवस्था कर रखी है कि नामांकन पत्र में प्रत्याशी को अपने ऊपर चल रहे अपराधिक प्रकरणों की जानकारी देनी होगी। उसके बाद ये नियम बना कि वह इस जानकारी को समाचार पत्र में भी प्रकाशित करवाए जिससे कि मतदाताओं को उसकी कर्मपत्री का पता चल सके। अपराधिक प्रकरण में दो वर्ष से ज्यादा की सजा सुनाये जाने पर सदस्यता चली जाने और चुनाव लडऩे से वंचित किये जाने का कानून भी प्रचलन में आया जिसके अंतर्गत लालू यादव का चुनावी सफर रुक गया। इस सबके बावजूद राजनीतिक दलों ने अपराधिक पृष्ठभूमि के उम्मीदवारों के चयन से परहेज करना बंद नहीं किया। गत दिवस सर्वोच्च न्यायालय ने इस बारे में महत्वपूर्ण फैसला सुनाते हुए राजनीतिक दलों को निर्देश दिया कि वे किसी अपराधिक पृष्ठभूमि के उम्मीदवार को टिकिट देने का कारण सार्वजनिक करें तथा बेदाग़ को क्यों वंचित रखा गया ये भी स्पष्ट करें। इसके साथ ही उसका विवरण वेबसाईट के अलावा समाचार पत्रों के माध्यम से भी उजागर किया जावे। सर्वोच्च न्यायालय ने इसके पूर्व भी राजनीति को अपराधी तत्वों से मुक्त करवाने के लिए काफी निर्देश दिए थे। उनका आंशिक पालन भी हुआ लेकिन राजनीतिक दलों में ईमानदारी और इच्छाशाक्ति का अभाव होने से न्यायालय की भावना का सम्मान करने की बजाय बीच के रास्ते निकाल लिए गए। कानून की नजर में जब तक किसी को दण्डित नहीं किया जाए तब तक वह आरोपी तो हो सकता है किन्तु अपराधी नहीं माना जा सकता। लेकिन ह्त्या और उस जैसे अनेक गंभीर मामलों में जेल में बंद सांसद को राष्ट्रपति चुनाव में मत डालने लाया जाता है तब लोकतंत्र का चेहरा शर्म से झुक जाता है। इस बारे में किसी एक पार्टी या नेता को कसूरवार ठहराना अन्याय होगा क्योंकि वामपंथियों को छोड़कर बाकी सभी पार्टियां अपराधी पृष्ठभूमि को चुनावी टिकिट के लिए अयोग्यता नहीं मानतीं। वामपंथी दर अपराधियों को सांसद और विधायक तो नहीं बनाते लेकिन अपने विरोधियों से निपटने में उनका उपयोग नि:संकोच करते हैं। चूंकि किसी नेता और पार्टी की सफलता का मापदंड केवल और केवल चुनाव जिताना और सत्ता हासिल करना रह गया है इसलिए साम, दाम, दंड, भेद नामक सभी तरह के हथकंडे अपनाने में किसी को लज्जा नहीं आती। चाल, चरित्र और चेहरे की उत्कृष्टता का दावा करने वाली भाजपा हो या फिर नई राजनीति की जन्मदाता बन बैठी आम आदमी पार्टी, सभी की प्राथमिकता येन केन प्रकारेण सत्ता पर काबिज होना है। हाल ही में संपन्न दिल्ली के चुनाव में सबसे ज्यादा अपराधिक प्रकरण वाले उम्मीदवार आम आदमी पार्टी ने ही उतारे जिनमें लगभग सभी जीत भी गये। सर्वोच्च न्यायालय ने दागी को टिकिट दिए जाने के कारण स्पष्ट करने का जो निर्देश दिया वह तो ठीक है लेकिन बेदाग और योग्य को उम्मीदवारी से क्यों वंचित कर दिया इसका स्पष्टीकरण देने का निर्देश अटपटा है। बहरहाल ताजा फैसला कितना कारगर होगा कह पाना कठिन है क्योंकि अपराधी तत्वों को सांसद और विधायक चुनने का काम जो मतदाता करते हैं वे भी तो इस बारे में उदासीन हैं। छोटी-छोटी बातों को लेकर अनेक गाँव और बस्ती के मतदाता चुनाव का बहिष्कार करने का ऐलान कर देते हैं लेकिन आज तक किसी भी क्षेत्र से ये आवाज नहीं आई कि उम्मीदवारों की अपराधिक पृष्ठभूमि के कारण मतदान नहीं करेंगे। सर्वोच्च न्यायालय और चुनाव आयोग दोनों के प्रयास सैद्धांतिक तौर पर तो सही और शिरोधार्य हैं लेकिन राजनीतिक पार्टियों द्वारा उनकी काट निकालकर चुनावी राजनीति को जिस तरह से गलत लोगों के हवाले कर दिया गया उसकी वजह से अच्छी सोच और बेदाग पृष्ठभूमि के लोगों के लिए राजनीति बिना ऑक्सीजन के एवरेस्ट पर चढऩे से भी कठिन है। चुनाव सुधार और राजनीति के शुद्धिकरण में सबसे बड़ी समस्या धन के अनाप-शनाप उपयोग से भी उत्पन्न हुई। भले ही उम्मीदवार के खर्च की सीमा तय कर दी गयी है लेकिन साधारण बुद्धि वाला भी बता देगा कि लोकसभा-विधानसभा चुनाव हेतु खर्च की निर्धारित राशि जुटाना भी अच्छे-अच्छों के बस की बात नहीं है। जीते हुए उम्मीदवारों द्वारा दिये जाने वाले खर्च का ब्यौरा दरअसल शपथ लेकर बोला जाने वाला झूठ है। लेकिन सब जानते हुए भी कोई इससे रोक नहीं पा रहा। ऐसे में लोकतंत्र की इस मजबूरी के बाद भी उसके मजबूत होने का दावा वाकई मजाक है। इसीलिये सर्वोच्च न्यायालय के ताजा निर्णय से विशेष बदलाव या सुधार की उम्मीद करना जल्दबाजी होगी क्योंकि जिन्हें ये सुधार करना हैं उन्होंने तो हम नहीं सुधरेंगे की कसम खा रखी है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Thursday 13 February 2020

चीन का संकट भारत के लिए वरदान




हर संकट कुछ न कुछ सिखाता और देकर जाता है। ये बात व्यक्ति और देश दोनों पर लागू होती है। 1962 के चीनी आक्रमण के बाद भारत ने अपने रक्षा उत्पादन के साथ ही सीमा पर अधो  संरचना के विकास पर ध्यान देना शुरू किया। आज भारत रक्षा उपकरणों के मामले में भले ही पूरी तरह आत्मनिर्भर नहीं हुआ हो लेकिन मिसाइलें, तोपें, गोला बारूद, छोटे युद्धक विमान जैसी चीजों के उत्पादन में काफी प्रगति हुई है। ब्रह्मोस जैसी मिसाइल तो निर्यात भी होने लगी है। सीमाओं पर आवाजाही के पर्याप्त साधन और सुविधाएं विकसित करते हुये सियाचिन जैसे दुर्गम इलाके तक नियमित आपूर्ति और आवाजाही की समुचित व्यवस्था कर ली गयी है। इसी तरह सत्तर के दशक में अन्न संकट के बाद देश में हरित क्रांति का विचार आया और धीरे-धीरे भारत अन्न उत्पादन में आत्म निर्भरता हासिल कर सका। यद्यपि अभी भी दलहन और तिलहन का आयात करना पड़ता है किन्तु किसी भी आपदा के बावजूद देश में खाद्यान्न का भरपूर भण्डार होना मानसिक सुरक्षा प्रदान करता है। जरूरतों के मद्देनजर  भविष्य के लिए तैयारी करने के फायदे अन्य क्षेत्रों में भी हुए। आज का भारत साफ्टवेयर और अन्तरिक्ष के क्षेत्र में विश्वस्तरीय हैसियत अर्जित कर चुका है। लेकिन बीते दो-तीन दशक के दौरान मैन्युफेक्चरिंग सेक्टर में काफी कमी आई। विशेष रूप से उदारीकरण के बाद ज्योंही भारत के द्वार विदेशी सामानों के लिए खुले त्योंहीं सस्ता चीनी माल घरेलू बाजार में छा गया। सुई से लेकर तो दवाइयां, फर्नीचर, खिलौने, इलेक्ट्रानिक्स और  बिजली का सामान, मशीनें, हार्डवेयर, वाहनों के कल पुर्जे, सेनेटरी फिटिंग्स जैसी अनगिनत चीजें चीन से धड़ल्ले से आयात की जाने लगीं। शुरू-शुरू में तो इनका आयात लाभप्रद लगा लेकिन जल्दी ही ये बात सामने आने लगी कि सस्ते चीनी सामान ने हमारे घरेलू उद्योग की कमर तोड़कर रख दी। चूंकि भारत में उत्पादन लागत अपेक्षाकृत ज्यादा पड़ती थी इसलिए यहाँ बनी वस्तुएं महंगी होने से चीनी माल के सामने मात खा गईं। हालांकि उसमें गुणवत्ता नहीं होने के बाद भी कम दाम की वजह से उपभोक्ता बाजार पर उसका कब्जा हो गया। जिस चीन को आम भारतीय दुश्मन मानता था वही हमारा सबसे बड़ा व्यापारिक भागीदार बन बैठा लेकिन ये रिश्ता इकतरफा कहा जा सकता है क्योंकि आपसी व्यापार पूरी तरह असंतुलित है। मसलन हम जितना आयात चीन से करते हैं उसका बहुत छोटा हिस्सा निर्यात किये जाने से व्यापार घाटा खतरनाक स्तर तक जा पहुंचा। लेकिन घरेलू उद्योगों के चौपट हो जाने से चीन से आयात जरूरत से भी बढ़कर तो मजबूरी बन गयी। विश्व व्यापार संगठन से बंधे होने से आयात को पूरी तरह रोना संभव नहीं रहा। ज्यादा से ज्यादा चीनी माल पर आयात शुल्क बढ़ाकर उसकी आवक को नियंत्रित किया जा सकता है जैसा ताजा बजट में  केंद्र सरकार ने किया भी लेकिन उस सम्बन्ध में भी ज्यादा कुछ किये जाने की गुंजाइश नहीं है। अचानक ऐसी परिस्थिति उत्पन्न हो गयी जिसमें भारत अपने मृतप्राय घरेलू उद्योग धंधों को संजीवनी देकर पुनर्जीवित कर सकता है। चीन में कोरोना वायरस नामक संकट की वजह से वहां का पूरा जनजीवन अस्तव्यस्त हो गया है। बड़ी आबादी घरों में बंद है। हजारों की संख्या में मौतों की वजह से भय का माहौल है। लाखों लोग संक्रमित होने से स्वास्थ्य सेवाएँ चरमरा गईं हैं। औद्योगिक उत्पादन ठप होने से चीन का विदेशी व्यापार भी गड़बड़ा गया है। चीनी सामान के साथ कोरोना वायरस के विषाणु आ जाने के डर से वहां से आयात बंद कर दिया गया। न कोई चीन जा रहा है और न ही चीनियों को अपने यहाँ आने दे रहा है। भारत के आटोमोबाइल क्षेत्र में कल पुर्जों की कमी हो गई है। बनारसी साडिय़ों के कारोबार में भी सिल्क का आयात रुकने से परेशानी हो रही है। उपभोक्ता सामानों का आयात अवरुद्ध  हो जाने से व्यापारी परेशान हैं। आज खबर आ गई कि चीन से  दवाइयां नहीं आने से देश में दवा संकट पैदा हो सकता है। अप्रैल तक का स्टाक तो है लेकिन कोरोना संकट आगे भी खिंचा तो  भारत में  बनने वाली दवाइयों के लिए भी जरूरी कच्चा माल चीन से न आने के कारण घरेलू दवा उद्योग बीमार होने के कगार पर आ सकता है। कुल मिलाकर कोरोना वायरस ने चीन को तो बुरी तरह से हलाकान किया है। लेकिन भारत जैसे देश की अर्थव्यवस्था और जनजीवन पर भी इसका सीधा असर होने लगा है। ऐसे में बजाय हाथ पर हाथ धरे बैठे रहने के इस अवसर का लाभ लेते हुए देश में उत्पादन क्रांति लाने की तैयारी की जानी चाहिए। हालाँकि ये काम रातों-रात नहीं हो सकता लेकिन अतीत में ऐसे ही विपरीत हालातों में हौसले के साथ आगे बढऩे के कारण भारत ने अनेक क्षेत्रों में आत्मनिर्भरता अर्जित की जिससे हमारा अर्थतंत्र सुदृढ़ हुआ। चीन को इस संकट से उबरने में लम्बा समय लगेगा। अनेक बहुराष्ट्रीय कम्पनियां चीन से पलायन करने की तैयारी कर रही हैं। भारत को ये अवसर लपक लेना चाहिए। स्वदेशी उद्योगों को अधिकतम प्रोत्साहन देकर हम चाहें तो अर्थव्यवस्था की सुस्ती दूर करते हुए बेरोजगारी की समस्या को भी काफी हद तक हल कर सकते हैं। हरित क्रांति की तरह से ही औद्योगिक उत्पादन क्रान्ति का महत्वाकांक्षी कार्यक्रम चलाकर भारत दक्षिण एशिया के छोटे-छोटे देश वियतनाम, थाईलैंड, मलेशिया, बांग्ला देश से आगे निकल सकता है जिन्होंने बीते दो दशक के भीतर जबर्दस्त तरक्की कर ली। लेकिन इसके लिए हमारे सरकारी तंत्र को ढर्रे से बाहर निकलना होगा। केंद्र और राज्य सरकारें निवेशकों के लिए लाल कालीन बिछाने के लिए तो सदैव तैयार रहती हैं लेकिन जब वे उद्योग लगाने आते हैं तब उनको खून के आंसू रुलाये जाते हैं। विदेशी निवेशकों को तो देवदूत मानकर उनकी आवभगत की जाती है लेकिन बड़े धनकुबेरों को छोड़ दें तो छोटा कारोबारी सरकारी चक्की में पिस जाता है। चीन का वर्तमान संकट लम्बा असर छोड़कर जाने वाला है। भारत के लिए ये प्रकृति प्रदत्त स्वर्णिम अवसर है। हमारे राजनेता चाहे केंद्र के हों या राज्यों के यदि इस समय ईमानदारी से औद्योगिक उत्पादन क्रान्ति का बिगुल फूंके तो आने वाले कुछ वर्षों में भारत का उद्योग व्यापार चीन को टक्कर देने की स्थिति में आ सकता है। जैसा प्रारंभ में कहा गया हर संकट कुछ न कुछ सबक देकर जाता है। भारत को चाहिए वह इच्छाशक्ति और निर्णय क्षमता का परिचय देकर आगे बढ़े क्योंकि ऐसे मौके बार-बार नहीं आते।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Wednesday 12 February 2020

प्रशंसा और बधाई के हकदार हैं केजरीवाल



दिल्ली विधानसभा चुनाव में जैसा अनुमानित था वैसा ही हुआ। इस चुनाव से रहीम की लिखी ये बात एक बार सही साबित हो गई कि जहाँ काम आवे सुई कहा करे तलवार ? अर्थात एक महानगरीय राज्य में स्थानीय मुद्दों पर पिछली सरकार का वायदों पर खरा उतरना ज्यादा कारगर सिद्ध हुआ। भाजपा को लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी के नाम और काम का जो लाभ मिला ठीक वही फायदा अरविन्द केजरीवाल के खाते में आकर जुड़ा। मोदी के विरूद्ध जिस तरह विपक्ष ने खूब हायतौबा मचाया वैसा ही केजरीवाल के साथ हुआ। लोकसभा में आम आदमी पार्टी ने दिल्ली में अपनी उपलब्धियों के नाम पर संसद की सीटें मांगीं लेकिन दिल्ली की जनता ने उसे तीसरे नम्बर पर धकेल दिया। लेकिन मात्र आठ महीने बाद ही उसी आम आदमी पार्टी को फिर सिर आँखों पर बिठा लिया और सातों लोकसभा सीटें जीत चुकी भाजपा को 8 सीटों पर समेट दिया। इस चुनाव परिणाम के दो संकेत हैं। पहला ये कि भाजपा को प्रादेशिक स्तर पर गंभीर किस्म के सक्षम नेतृत्व को आगे लाना होगा और वहीं आम आदमी पार्टी के लिए भी ये संदेश है कि अपनी सीमा से बाहर निकलकर हाथ पाँव मारने से बचें क्योंकि राष्ट्रीय स्तर तो बड़ी बात है किसी पड़ोसी राज्य में भी आम आदमी पार्टी को दिल्ली जैसी सफलता मिलना जागती आँखों से सपने देखने जैसा होगा। आम आदमी पार्टी में जाने के बाद लौटकर दोबारा पत्रकार बने आशुतोष की ये बात काबिले गौर है कि किसी और को ये अहंकार न रहे कि दिल्ली की जीत में उसका हाथ है क्योंकि ये केवल और केवल श्री केजरीवाल के करिश्मे और विश्वसनीयता की जीत है। जहां तक बात उनके राष्ट्रीय राजनीतिक क्षितिज पर उभरने की है तो ये काफी मुश्किल है क्योंकि आम आदमी पार्टी एक क्षेत्रीय भी नहीं अपितु महानगरीय पार्टी ही है और उसका अस्तित्व भी तभी तक है जब तक वह दिल्ली में केन्द्रित रहेगी। भारतीय राजनीति की तासीर ये रही है कि क्षेत्रीय या स्थानीय पार्टी के नेता ने जब भी राष्ट्रीय स्तर पर उभरने की कोशिश की उसका मूल जनाधार कमजोर होता गया। तमिलनाडु सहित दक्षिण भारत की क्षेत्रीय पार्टियों ने इस फार्मूले को अपनाते हुए  अपने प्रभावक्षेत्र को समझकर उससे बाहर निकलने का दुस्साहस नहीं किया जिसकी वजह से वे अनेक दशकों से अपनी ताकत संजोकर रख सकीं। वैसे दिल्ली के चुनाव में भाजपा ने एक तरह से अपनी वापिसी कर ली वरना ये आशंका भी थी कि कहीं केजरीवाल नामक करिश्मे में उसकी हालत भी कांग्रेस जैसी होकर न रह जाए। आम आदमी पार्टी आन्दोलन से निकली पार्टी और अरविन्द केजरीवाल ही उसके चेहरे हैं। उन्हें मालूम है कि आन्दोलन के साथियों को बराबरी से बिठाने पर उनकी महत्वाकांक्षाएं परवान चढऩे लगती हैं। और वे अपनी कीमत मांगने लगते हैं। इसीलिए 2015 की ऐतिहासिक जीत के बाद उन्होंने बड़ी ही चतुराई से पार्टी खड़ी करने के लिए एक करोड़ का का चन्दा देने वाले शांति भूषण के अलावा प्रशांत भूषण, योगेन्द्र यादव, कुमार विश्वास और प्रोफे. अरुण कुमार जैसे नींव के पत्थरों को निकाल बाहर किया। योगेंद्र यादव के साथ तो धक्का मुक्की तक की गई। इस चुनाव में उपमुख्यमंत्री मनीष सिसौदिया का मतगणना में काफी देर तक पीछे बने रहना भी एक संकेत है कि दूसरे स्थान वाला अपने को पहले के लायक समझने की भूल न करे। चुनाव नतीजों को भाजपा और उसके द्वारा उठाये जा रहे राष्ट्रीय मुद्दों और हिन्दू मतों के धु्रवीकरण की पराजय मानने वाले दरअसल सतही आकलन करने की गलती कर रहे हैं। इस परिणाम को शाहीन बाग की जीत बताने वालों की राजनीतिक समझ पर भी हंसी आती है। एक राष्ट्रीय पार्टी किसी चुनाव में अपनी हैसियत के लिहाज से बात करे तो उसमें गलत क्या है ? कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने दिल्ली की अपनी रैलियों में नरेंद्र मोदी की नीतियों की आलोचना की क्योंकि वे भी एक राष्ट्रीय पार्टी के राष्ट्रीय नेता हैं। उन्होंने भी श्री केजरीवाल पर झूठे वायदे करने का आरोप लगाया। ये बात अलहदा है कि आम आदमी पार्टी ने कांग्रेस को इस लायक भी नहीं समझा कि उस पर कोई टिप्पणी की जाए। चुनावी नतीजे भाजपा के लिए तो निश्चित तौर पर विचारणीय हैं क्योंकि बीती मई में आम आदमी पार्टी को चारों खाने चित्त करने के बाद वह उस जन समर्थन को अपने साथ जोड़कर नहीं रख सकी। इसके लिए नेता का चेहरा न होना कारण बना या कमजोर संगठन ये जाँच का विषय हैं लेकिन कांग्रेस के लिए ये चिंता का विषय है जो 1998 से 2013 तक दिल्ली की सत्ता में रहने के बाद 2014 और 2019 के लोकसभा के अलावा 2015 और 2020 के विधानसभा चुनाव में शून्य से आगे नहीं बढ़ सकी। यदि उसे इस बात की खुशी है कि भाजपा 1998 से लगातार पांच विधानसभा चुनाव हार गई तो उसे ये याद रखना चाहिए कि भाजपा ने अपना मत प्रतिशत काफी हद तक सुरक्षित रखा जबकि कांग्रेस तो दयनीयता के स्तर तक आ गई है। जहां तक बात पूरे देश में केजरीवाल फार्मूले को अपनाकर चुनाव जीतने की है तो ये गलतफहमी होगी। हर राज्य की अपनी प्राथमिकतायें, आवश्यकताएं और भौगोलिक परिस्थितियाँ अलग हैं। दिल्ली में बीते पांच साल तक आम आदमी पार्टी सरकार ने बिजली, पानी, शिक्षा और स्वास्थ्य को लेकर जो भी उल्लेखनीय कार्य किये उन्हें उसी तेजी से जारी रखना कठिन होगा। छत्तीसगढ़ और मप्र में तमाम कल्याणकारी योजनायें चलाने के बाद अंतत: भाजपा के हाथ से सत्ता खिसक ही गई। आम आदमी पार्टी सरकार के सामने असली चुनौती नए कार्यकाल में होगी। जनता की उम्मीदों को आसमान पर चढ़ाकर हमेशा के लिए राज नहीं किया जा सकता। शीला दीक्षित ने 15 साल के शासन में दिल्ली में जो विकास किया वह अभूतपूर्व था किन्तु आखिरकार वे खुद चुनाव हार गईं। दिल्ली के मुद्दे पूरी तरह से स्थानीय और नगरीय निकाय के स्तर के थे। चूंकि उनसे गरीब और निम्न आय वर्ग के लोगों को लाभ हुआ इस कारण आम आदमी पार्टी की वापिसी का रास्ता खुल गया। अब दूसरी पारी में केजरीवाल सरकार क्या करेगी इस पर उसका भविष्य निर्भर करेगा। जहां तक बात भाजपा की है तो ये नतीजे उसके लिए धक्का हैं क्योंकि 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद मोदी सरकार ने जिस प्रभावशाली तरीके से अपने घोषणापत्र के मुख्य वायदों को अमली जामा पहिनाया उसके बाद भी राज्यों के चुनाव में पार्टी का निराशाजनक प्रदर्शन शोचनीय है। इसकी वजह प्रादेशिक नेतृत्व को कमजोर करने की कोशिश है या प्रदेश स्तर के नेताओं का केन्द्रीय नेतृत्व पर पूरी तरह आश्रित हो जाना , इसका विश्लेषण होना जरूरी है। अरविन्द केजरीवाल ने लगातार दो बार अपना करिश्मा दिखा दिया लेकिन ऐसा करने वाले वे पहले नेता नहीं हैं। तमिलनाडु, आन्ध्र, तेलंगाना, उड़ीसा, बिहार, उप्र आदि में अनेक क्षेत्रीय नेता ऐसी ही सफलता अर्जित कर राष्ट्रीय पार्टियों को जमीन दिखा चुके हैं। केजरीवाल फिलहाल तो सुपर हीरो की तरह उभरे हैं। दो बार नरेंद्र मोदी के सामने जीतना बड़ी बात है। उनकी अपनी कोई राजनीतिक विचारधारा नहीं है जो उनका सबसे मजबूत पक्ष है। जिसके कारण उन्हें सभी दलों के समर्थकों का समर्थन मिला लेकिन कालान्तर में यही उनकी सबसे बड़ी कमजोरी बनेगी क्योंकि वे दिल्ली में किसी और को नहीं घुसने देना चाहेंगे और इसी तरह दूसरे नेता उनकी पार्टी को अपने इलाके में बर्दाश्त नहीं कर पायेंगे। बावजूद इसके फिलहाल वे भाजपा विरोधी राजनीति के एक बड़े चेहरे बनकर उभरे हैं। राष्ट्रीय राजधानी में होने की वजह से उन्हें समाचार माध्यमों के जरिये काफी प्रचार भी मिल जाता है वरना उड़ीसा जैसे राज्य में तो नवीन पटनायक लगातार पांचवी बार मुख्यमंत्री बने लेकिन उनको समाचारों में उतना महत्व नहीं मिलता। इस चुनावी सफलता के लिए श्री केजरीवाल निश्चित रूप से प्रशंसा और बधाई के हकदार हैं क्योंकि उन्होंने अर्जुन की तरह केवल अपने लक्ष्य पर ध्यान केन्द्रित रखा।
-रवीन्द्र वाजपेयी


Tuesday 11 February 2020

यदि शाहीन बाग वीआईपी इलाके में होता तब ....??




दिल्ली का शाहीन बाग़ इलाका इसके पहले कभी इतना चर्चित नहीं हुआ। बीते डेढ़ महीने से वहां मुस्लिम महिलाएं बीच सड़क पर बाल-बच्चों सहित धरना दिये बैठी हैं। उसके कारण यातायात अवरुद्ध है। हजारों लोगों को रोज लम्बा चक्कर लगाकर अपने गन्तव्य तक पहुंचना पड़ रहा है। इस धरने का कारण सीएए का विरोध है। कुछ दिन पूर्व धरने पर बैठी महिला का चार महीने का शिशु सर्दी की वजह से जान गँवा बैठा। महिला अपने बच्चे के अंतिम संस्कार के बाद दोबारा धरने पर आ बैठी। आन्दोलन के समर्थकों ने उस महिला के जज्बे की तारीफ  की तो विरोधियों ने उसे निर्मोही बताते हुए आलोचना कर डाली। इस घटना से व्यथित एक बालिका ने सर्वोच्च न्यायालय को पत्र भेजकर ये सवाल उठाया कि क्या एक नौनिहाल को भीषण सर्दी में इस तरह आन्दोलन में ले जाना उचित था? इस सवाल का न्यायालय ने भी संज्ञान लिया और गत दिवस चार महीने के बच्चे को आन्दोलन का हिस्सा बनाये जाने पर तीखे सवाल दागे। शाहीन बाग़ में सड़क रोककर बैठे रहने पर भी सर्वोच्च न्यायालय ने पूछा कि आखिर कितने दिनों तक आप लोगों को परेशान कर सकते हैं? धरना देने के लिए आम सड़क और सार्वजनिक पार्क  आदि के उपयोग पर भी अदालत ने ऐतराज जताया और पहले से पेश की गई एक याचिका पर दिल्ली और केंद्र दोनों सरकारों को नोटिस जारी करते हुए 17 फरवरी को सुनवाई रखी गई। शाहीन बाग़ का धरना दिल्ली विधानसभा चुनाव में बड़ा मुद्दा बना रहा। कांग्रेस और आम आदमी पार्टी ने जहां मुस्लिम मतों के लालच में धरने का समर्थन किया वहीं भाजपा ने इसका पुरजोर विरोध करते हुए हिन्दू मतों को अपने पाले में खींचने की रणनीति पर काम किया। ये सवाल भी बार-बार उठा कि हजारों लोगों की परेशानी के सबब बने इस धरने को हटाने के लिए दिल्ली की पुलिस और प्रशासन ने कोई कदम क्यों नहीं उठाया? उल्लेखनीय है पुलिस केंद्र सरकार के अधीन होने से दिल्ली की सरकार ने इस मामले से अपना पल्ला झाड़ लिया। ये आरोप भी लगा कि भाजपा जानबूझकर शाहीन बाग़ के धरने को खत्म नहीं करवा रही जिससे हिन्दू मतदाता गोलबंद हो सकें। लेकिन राजनीति से अलग हटकर देखें तो क्या इस मामले में न्यायपालिका भी अपनी भूमिका के प्रति उदासीन नहीं रही? दिल्ली देश की राजधानी है जहां न्यायपालिका की सर्वोच्च पीठ भी विराजमान है। शाहीन बाग़ का धरना एक राष्ट्रीय खबर बना रहा। समाचार माध्यमों में इसे लेकर खूब बहस और चर्चा भी हुई। ऐसे में ये आश्चर्य की बात है कि छोटी-छोटी बातों का संज्ञान लेकर शासन और प्रशासन को हड़का देने वाले सर्वोच्च न्यायालय ने भी शाहीन बाग़ मामले में पेश के गई याचिका पर इतनी सुस्ती दिखाई? जो न्यायपालिका किसी आतंकवादी की फांसी रोकने के लिए देर रात बैठकर सुनवाई कर सकती है उसने देश की राजधानी में चल रहे एक ऐसे आन्दोलन को रोकने के लिए अपनी जागरूकता और प्रभाव का उपयोग क्यों नहीं किया जिसकी वजह से दिल्ली के हजारों लोगों को डेढ़ माह से जबर्दस्त परेशानी हो रही है। ये सवाल भी उठ सकता है कि दिल्ली का प्रशासन चला रही केजरीवाल सरकार और पुलिस का नियंत्रण करने वाली केंद्र सरकार ने भी शाहीन बाग़ में सड़क रोककर बैठी मुस्लिम महिलाओं को हटाने के लिए क्या किया? इसका जवाब ये है कि एक तो दिल्ली में चुनाव हो रहे थे और दूसरा धरने पर महिलाएं बैठी थीं जिन पर बल प्रयोग करना राजनीतिक दृष्टि से नुकसानदेह साबित होता। उससे भी बड़ी बात ये थी कि धरना स्थल पर बैठीं महिलाएं मुस्लिम थीं। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय तो राजनीतिक हानि लाभ से उपर है। यदि वह शाहीन बाग़ के धरने का संज्ञान लेते हुए जनता को हो रही परेशानी के मद्देनजर दिल्ली और केंद्र दोनों सरकारों को निर्देशित करता तब आन्दोलनकारियों पर भी दबाव पड़ता। इस बारे में ये कहना गलत नहीं होगा कि यदि किसी माननीय न्यायाधीश का उस रास्ते से आना जाने होता और धरने की वजह से उन्हें लंबा चक्कर लगाना पड़ता तब शायद न्यायपालिका स्वत: संज्ञान लेकर अपना असर दिखाती। हालाँकि ये बात सही है कि न्यायपालिका की अपनी सीमायें हैं और शासन-प्रशासन के सामान्य कार्यों में उसकी दखलंदाजी उचित नहीं मानी जाती लेकिन अनेक ऐसे ज्वलंत मामले हैं जहां जनहित को देखते हुए न्यायालय ने पहल करते हुए शासन-प्रशासन को कार्रवाई करने कहा है। विधायिका के अधिकार क्षेत्र तक में उसने दखल देने से परहेज नहीं किया। ऐसे में शाहीन बाग़ में बीच सड़क पर चल रहे धरने को हटवाने में न्यायपालिका की सुस्ती समझ से परे है। शाहीन बाग़ का धरना केवल एक खबर नहीं अपितु एक नजीर बन गया। उसकी देखासीखी सीएए के विरोध में देश के अनेक शहरों में मुस्लिम महिलाओं द्वारा बीच सड़क या अन्य किसी सार्वजनिक स्थल पर धरना शुरू कर दिया गया। जहां-जहां पुलिस और प्रशासन ने रोकने की कोशिश वहां-वहां आन्दोलन के नाम पर हिंसा की गयी। जैसा शुरू में कहा गया चूँकि मामला महिलाओं और वह भी मुस्लिमों का था इसलिए सरकार में बैठे राजनेता तो बचते रहे लेकिन न्यायपालिका को तो खुलकर ऐसे प्रकरणों में अपना मत रखना चाहिए। इस बारे में ये सवाल भी स्वाभाविक रूप से उठता है कि क्या लुटियंस की दिल्ली कहे जाने वाले वीआईपी इलाकों में और सर्वोच्च न्यायालय के करीब शाहीन बाग जैसा नजारा होता तब क्या उसे इतने लम्बे समय तक बर्दाश्त किया जाता?

- रवीन्द्र वाजपेयी

Monday 10 February 2020

आरक्षण : दर्द बढ़ता गया ज्यों ज्यों दवा दी



बीते पांच साल पर नजर डालें तो जब भी देश में कहीं चुनाव होते हैं तब किसी एक विशेष मुद्दे को उछालकर विवाद खड़ा किया जाता है जिसके पीछे उद्देश्य केवल और केवल सियासी लाभ उठाना है। दिल्ली विधानसभा चुनाव के पहले योजनाबद्ध तरीके से सीएए और एनसीआर को लेकर भय का भूत खड़ा करते हुए दिल्ली के शाहीन बाग़ इलाके में मुस्लिम महिलाओं के धरने को राष्ट्रीय खबर बना दिया गया। उसके पीछे का मंतव्य किसी से छिपा नहीं था। दिल्ली का दंगल समाप्त होते ही राजनीतिक जमात की नजर बिहार विधानसभा के चुनाव पर आकर टिक गयी। संयोगवश सर्वोच्च न्यायालय के एक फैसले ने उसे अवसर भी दे दिया जिसके अनुसार सरकारी नौकरियों में पदोन्नति में आरक्षण मौलिक अधिकार नहीं है और न्यायपालिका इस बारे में सरकार को निर्देशित नहीं कर सकती। फैसला आते ही सियासी हलचल मच गयी। कांग्रेस ने बिना देर किये केंद्र की भाजपा सरकार के शासन में अनु.जाति और जनजाति के अधिकार खतरे में होने का हल्ला मचा दिया। पार्टी के वरिष्ठ नेता माल्लिकर्जुन खडग़े ने केंद्र से मांग की कि या तो वह सर्वोच्च न्यायालय में पुनार्विचार याचिका दायर करे या फिर संविधान में संशोधन करते हुए आरक्षण को मौलिक अधिकार बनाने की व्यवस्था करे। दूसरी तरफ केंद्र सरकार में शामिल रामविलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी के सांसद चिराग पासवान ने भी सर्वोच्च न्यायालय के फैसले से असहमति व्यक्त कर दी। दिल्ली के चुनाव परिणाम 11 तारीख को आ जायेंगे। उसके बाद बिहार की बिसात बिछने लगेगी। स्मरणीय है 2015 के चुनाव में भी वहां आरक्षण का मुद्दा जोरदारी से उठा था। चुनाव के कुछ पहले ही रास्वसंघ प्रमुख डा.मोहन भागवत ने आरक्षण की समीक्षा जैसा सुझाव दिया जिसे लालू यादव सहित अन्य भाजपा विरोधी पार्टियों ने बड़ा मुद्दा बना लिया। चुनाव परिणामों ने साबित कर दिया कि भाजपा को उस विवाद से भारी नुकसान हुआ। जब प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी ने आरक्षण जारी रखने संबंधी आश्वासन दिए तो भाजपा के परम्परागत सवर्ण मतदाता रुष्ट हो गए। वैसा ही नजारा मप्र में देखने मिला जब ग्वालियर, भिंड और मुरैना क्षेत्र में सवर्ण और अनु. जाति के गुटों में खूनी संघर्ष हुआ। प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के बयान कोई माई का लाल आरक्षण नहीं हटा सकता ने सवर्ण मतदाताओं में नाराजगी पैदा की जिसका खमियाजा भाजपा को प्रदेश सरकार गंवाने के रूप में उठाना पड़ा। सर्वोच्च न्यायालय का ताजा निर्णय अनेक राज्यों में पदोन्नति में आरक्षण के लंबित मामलों पर असर डालेगा। मप्र उच्च न्यायालय ने भी पदोन्नति में आरक्षण को रद्द किया था जिसके विरुद्ध शिवराज सरकार की याचिका सर्वोच्च न्यायालय में लंबित है। इस कारण हजारों पदोन्नतियां रुकी पड़ी हैं। सैकड़ों लोग तो इन्तजार करते-करते सेवा निवृत्त तक हो गये। सर्वोच्च न्यायालय के ताजा निर्णय ने इस मसले को नया रूप दे दिया। चूँकि संसद चल रही है इसलिए इस पर हंगामा होने की पूरी सम्भावना है। केंद्र सरकार की मुसीबत ये है कि न तो वह सर्वोच्च न्यायालय के फैसले से सहमत हो सकती है और न ही उसका विरोध करने का साहस जुटा सकेगी। वैसे तो कोई भी पार्टी आरक्षण के मौजूदा ढांचे का विरोध नहीं कर सकती क्योंकि जातीय समीकरण भारत की चुनावी राजनीति का स्थायी आधार बन चुके हैं। अनु. जाति और जनजाति के बाद अब ये अन्य पिछड़ी जातियों तक जा पहुंचा है। राज्य स्तर पर नई-नई जातियों को आरक्षण की परिधि में लाने का फैसला भी चुनाव के समय होता है। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा आरक्षण की अधिकतम सीमा निश्चित किये जाने के बाद भी घुमा-फिराकर आरक्षण का प्रतिशत बढ़ाये जाने का खेल चलता रहता है। नियुक्तियों में आरक्षण के बाद जब पदोन्नति में आरक्षण का फैसला हुआ तब यह अनारक्षित जातियों की नाराजगी का कारण बन गया। अपने परम्परागत मतदाताओं को संतुष्ट करने के लिए मोदी सरकार ने आरक्षण के लाभ से वंचितों के लिए आर्थिक आधार पर 10 फीसदी आरक्षण देने की व्यवस्था भी की जिसका लाभ भाजपा को लोकसभा चुनाव में मिला भी लेकिन उसके साथ ही ये मांग भी उठने लगी कि आरक्षण का आधार जाति की बजाय आर्थिक स्थिति को बनाया जावे। सर्वोच्च न्यायालय के ताजे फैसले में चूँकि आरक्षण को मौलिक अधिकार मानने से मना कर दिया गया इसलिए अब आरक्षण समर्थक इसे मौलिक अधिकारों में शामिल करने का दबाव बनायेंगे। कांग्रेस नेता श्री खडग़े ने तो उसकी मांग भी कर दी। जहां तक बात संविधान की है तो उसके रचयिता डा. भीमराव आम्बेडकर ने आरक्षण को एक अस्थायी व्यवस्था माना था। वरना वे उसी समय उसे मौलिक अधिकारों की सूची में शामिल करवा देते तो कोई उनका हाथ पकडऩे वाला नहीं था। जब-जब आरक्षण की समय सीमा बढ़ाई गई तब-तब संसद में किसी ने भी उसका विरोध नहीं किया। रास्वसंघ प्रमुख डा. भागवत भी बिहार के झटके के बाद अनेक मर्तबा दोहरा चुके हैं कि जब तक आरक्षण का उद्देश्य पूर्ण न हो तब तक उसे जारी रखा जाए। ताजा फैसले के परिप्रेक्ष्य में विचारणीय बात ये है कि सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयों को लेकर भी मीठा-मीठा गप और कड़वा-कड़वा थू वाली प्रवृत्ति राजनेताओं की मानसिकता पर हावी हो चुकी है। यदि सर्वोच्च न्यायालय आरक्षण को मौलिक अधिकार बता देता तो उसकी जय-जयकार हो रही होती। संसद द्वारा भारी बहुमत से पारित फैसले को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती देते समय जो लोग उसकी निष्पक्षता और अधिकार सम्पन्नता का सम्मान करते दिखते हैं वे ही फैसला मनमाफिक नहीं आने पर उसे संसद में बदलने की मांग उठाने से बाज नहीं आते। आजादी के सात दशक बीत जाने पर भी आरक्षण प्राप्त एक बड़ा वर्ग यदि अब भी सामजिक और आर्थिक दृष्टि से वंचित है तो इस बात पर विचार होना चाहिए कि आरक्षण की व्यवस्था में कमी कहाँ रह गई? सर्वोच्च न्यायालय ने तो क्रीमी लेयर का सवाल उठाकर आरक्षण से लाभान्वित तबके को आगे लाभ नहीं मिलने जैसी बात भी कही थी लेकिन उसका भी विरोध हो गया। ये सब देखते हुए आरक्षण के बारे में ये कहना गलत नहीं होगा कि दर्द बढ़ता गया ज्यों-ज्यों दवा दी। आरक्षण का मकसद बहुत ही पवित्र था। सदियों से उपेक्षित और दलित समाज के हिस्से को मुख्यधारा में शामिल किये जाने के लिए की गई अंतरिम व्यवस्था पूरी तरह कारगर नहीं हुई तो उसके कारण तलाशना समय की मांग है। जिस तरह किसी मरीज को सदैव के लिए जीवन रक्षक उपकरणों के सहारे जीवित नहीं रखा जा सकता उसी तरह आरक्षण भी है। यदि डा. आम्बेडकर को आभास होता कि उनकी नेकनीयती को आधार बनाकर वोटों की फसल काटी जायेगी तब वे भी शायद कोई और व्यवस्था करते। जाति की लकीरें मिटने की बजाय गहरी होती जाने का ही नतीजा है कि कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी के संत रैदास जयन्ती पर उनके मन्दिर जाने पर बसपा प्रमुख मायावती को ऐतराज हुआ। आरक्षण को मौलिक अधिकार बनाने की मांग पूरी होने के बाद जाति विहीन समाज की कल्पना बेमानी होकर रह जायेगी।

- रवीन्द्र वाजपेयी

Saturday 8 February 2020

पूर्वोत्तर में राष्ट्रीयता का सूर्योदय



असम में चल रहे बोडो उग्रवादी आन्दोलन के शांतिपूर्ण समाधान के बाद गत दिवस प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी कोकराझार पहुंचे और बोडो आन्दोलन के केंद्र बने रहे जिलों के विकास हेतु आथिक पैकेज की घोषणा करते हुए विश्वास दिलाया कि इन इलाकों को विकास की मुख्यधारा में शामिल करने के हरसंभव प्रयास किये जावेंगे। 54 सालों से चले आ रहे बोडो आन्दोलन में हजारों लोग मारे गए। असम का ये सबसे बड़ा आदिवासी तबका अलगाववादी ताकतों के प्रभाव में आकर हिंसा के रास्ते पर चल पड़ा था। इसके लिए विदेशी मदद मिलने से भी इंकार नहीं किया जा सकता। अतीत में अनेक बार बोडो उग्रवादियों से समझौते हुए लेकिन किसी न किसी वजह से उनको लागू नहीं किया जा सका। हालांकि ये भी सही है कि सशस्त्र संघर्ष करने वालों की ताकत निरंतर कम होती जा रही थी। 2014 में मोदी सरकार बनने के बाद से पूर्वोत्तर राज्यों में भाजपा के पैर जमे। असम, मणिपुर और त्रिपुरा में उसकी सरकार बन जाने के बाद से वहां राष्ट्रवादी ताकतें मजबूत हुईं। पूर्वोत्तर में आदिवासी समुदाय बड़ी संख्या में है। आजादी के बाद से ही इस क्षेत्र के विकास की उपेक्षा की जाती रही जिससे यहाँ के लोग देश की मुख्य धारा में शामिल नहीं हो सके। ईसाई मिशनरियों और नक्सलवादियों के बीच हुए गठजोड़ ने यहाँ भारत विरोधी भावनाओं को काफी गहराई तक फैला दिया किन्तु बीते पांच वर्ष में वहां के राजनीतिक समीकरण बदल गए। जिसकी वजह से अलगाववादी संगठनों की घेराबंदी हुई और उनमें से अनेक ने समर्पण भी कर दिया। लेकिन बोडो उग्रवादी अभी तक सक्रिय थे। हाल ही में केंद्र सरकार ने उनको हथियार रख देने के लिए राजी किया और वे मुख्यधारा में शरीक हो गए। कश्मीर घाटी में अलगाववाद की जड़ों में सफलतापूर्वक मठा डालने के बाद केंद्र सरकार का हौसला निश्चित तौर पर बुलंद हुआ जिसके बाद उसने बोडो उग्रवादियों को भी हिंसा छोड़कर शांति के रास्ते पर चलने के लिए राजी किया। पूर्वोत्तर की राजनीति के अलावा वहां के विकास में भी इस समझौते से बड़ी मदद मिलेगी। ये कहने में कुछ भी गलत नहीं होगा कि यूपीए सरकार के दौर में पूर्वोत्तर राज्यों की घोर उपेक्षा हुई। प्रधानमन्त्री डॉ. मनमोहन सिंह असम से राज्यसभा के लिए चुने जाते रहे किन्तु उसके बाद भी पूर्वोत्तर में विकास का सूर्योदय नहीं आ सका। लेकिन मोदी सरकार ने सत्ता सँभालते ही न सिर्फ असम वरन समूचे पूर्वोत्तर के चौमुखी विकास की योजना शुरू की। बड़े पैमाने पर सड़कों का जाल बिछाये जाने से परिवहन आसान हुआ जिसकी वजह से व्यापार और पर्यटन दोनों में वृद्धि देखने मिली। अरुणाचल में चीन से सटी सीमा तक पक्की सड़कें, हवाई पट्टी बिजली और स्वास्थ्य सेवाओं की उपलब्धता से भारत विरोधी ताकतों का आधार कमजोर होता गया। हालाँकि अभी भी स्थिति पूरी तरह सामान्य नहीं हो सकी लेकिन धीरे-धीरे जिस तरह से अलगाववादी संगठन समर्पण करते जा रहे हैं उसे देखते हुए कहा जा सकता है कि निकट भविष्य में वहां राष्ट्रीय एकता के लिए चला आ रहा खतरा पूरी तरह से समाप्त हो जाएगा। प्रधानमन्त्री ने बोडो आन्दोलन के प्रभावक्षेत्र में जाकर विकास की जो घोषणाएं कीं वह समझदारी भरा कदम है। देश का पूर्वोत्तर इलाका अपने अप्रतिम प्राकृतिक सौन्दर्य के कारण पर्यटन की दृष्टि से बेजोड़ है। इसे भारत का स्विटजरलैंड भी कहा जाता है लेकिन विदेशी ताकतों के षडयंत्र की वजह से ये क्षेत्र अलगाववाद की चपेट में आ गया। अब हालत सुधरती दिख रही हैं। उम्मीद की जानी चाहिए कि निकट भविष्य में समूचा पूर्वोत्तर विकास का नया प्रतीक बनकर मुख्यधारा के राज्यों की कतार में खड़ा नजर आएगा।

-रवीन्द्र वाजपेयी

वर्दीधारियों पर भारी सफेदपोश साहब



मप्र में आईपीएस और आईएएस लॉबी के बीच चल रही रस्साखींच में एक बार फिर बाजी आईएएस के हाथ जाती दिख रही है। बीते दिनों राजगढ़ जिले की महिला कलेक्टर ने एक पुलिस कर्मी को चांटा रसीद कर दिया था। जिसकी डीएसपी स्तर के अधिकारी ने जांच की और कलेक्टर को दोषी ठहरा दिया। आईएएस लॉबी को खाकी वर्दी वालों का ये रवैया पसंद नहीं आया और उन्होंने अपनी चिर परिचित शैली में जाल बट्टा फैलाया जिसका नतीजा प्रदेश के डीजीपी वीके सिंह को हटाये जाने जाने की खबर के रूप में सामने आ गया। इस सम्बन्ध में अंतिम निर्णय आज कल में हो जाएगा। जिन राजेन्द्र कुमार का नाम श्री सिंह के उत्तराधिकारी के तौर पर चल रहा है वे इंदौर के चर्चित हनी ट्रैप मामले के लिए गठित एसआईटी के प्रमुख हैं। इसलिए उन्हें डीजीपी बनाने से पहले उच्च न्यायालय से अनापत्ति लेनी पड़ेगी। कलेक्टर द्वारा एक पुलिसकर्मी को सरे आम थप्पड़ मारे जाने पर कमलनाथ सरकार के एक वरिष्ठ मंत्री तक ने ऐतराज जताया था। आईएएस लॉबी को इस बात की खुन्नस है कि कलेक्टर की जांच डीएसपी ने की और उसकी रिपोर्ट डीजीपी ने मंजूर करते हुए कलेक्टर के विरुद्द्ध कार्रवाई हेतु पत्र लिख दिया। आईएएस लॉबी चूंकि सरकार के ज्यादा मुंह लगी होती है इसलिए बताया जाता है मुख्यमंत्री भी डीजीपी से खुन्नस खा गए। श्री सिंह द्वारा बिना मुख्य सचिव से चर्चा किये कलेक्टर के विरुद्ध कार्रवाई किये जाने वाले पत्र को आईएएस बिरादरी ने अपनी शान में गुस्ताखी माना और अंतत: सफेदपोश नौकरशाही एक बार फिर वर्दीधारियों पर भारी साबित होती दिख रही है। प्रशासनिक ढांचे के भीतर चल रहे इस शीतयुद्ध से कमलनाथ सरकार की प्रशासनिक कमजोरी उजागर हो गई है। एक साल की सत्ता में दूसरी बार डीजीपी का बदला जाना ये दर्शाता है कि मुख्यमंत्री का अपने अमले पर या तो सही नियंत्रण नहीं है या फिर वे आईएएस और आईपीएस के बीच समन्वय स्थापित नहीं कर पा रहे। प्रशासन के इन दो धड़ों के बीच अहं की जंग नई नहीं है। पुलिस विभाग में कमिश्नर प्रणाली लागू होने की मांग पुरानी है। इसके लागू होने पर पुलिस विभाग काफी हद तक आईएएस के प्रभुत्व से मुक्त हो जाता है। किन्तु आईएएस तबका इसमें अड़ंगा लगाया करता है। जिस भी पुलिस अधिकारी ने सफेदपोश नौकरशाहों की सर्वोच्चता को चुनौती देने की हिमाकत की उसकी हालत वीके सिंह जैसी कर दी गयी। संदर्भित प्रकरण में गलती किस तबके की है ये कह पाना कठिन है लेकिन बीते कुछ समय से पुलिस विभाग में तबादले एवं महत्वपूर्ण जिम्मेदारियों को लेकर जिस तरह से चूहा बिल्ली का खेल चल रहा है उससे पुलिस विभाग खुद को अपमानित महसूस करने लगा है। हनी ट्रैप काण्ड के जाँच में भी जिस प्रकार ताबड़तोड़ तरीके से अधिकारी बदले गये उससे भी प्रशासन से जुड़ी दोनों लॉबियों के बीच की टकराहट उजागर हो गयी थी। ताजा प्रकरण से एक बार फिर ये बात सामने आ गयी है कि कमलनाथ भी आईएएस के चक्रव्यूह में फंसकर रह गये हैं। वीके सिंह या पुलिस महकमे के अन्य अधिकारियों को पूरी तरह सक्षम या ईमानदार होने का प्रमाणपत्र देना तो अतिशयोक्ति होगी लेकिन ये भी सही है कि आईएएस लॉबी में अभी भी अंग्रेजों के जमाने में नजर आने वाली गोरी चमड़ी वाली नस्लीय श्रेष्ठता का अहंकार है जिसके आगे वे बाकी सभी को तुच्छ और हेय समझते हैं। वैसे दूध के धुले तो वर्दीधारी पुलिस वाले भी कतई नहीं हैं और जनता को खून के आंसू रुलाने में इन दोनों में से किसी को भी कम नहीं कहा जा सकता लेकिन सरकार में बैठे चुने हुए नेताओं में प्रशासनिक क्षमता यदि हो तो फिर आईएएस और आईपीएस दोनों की बीच समन्वय कायम रखते हुए सरकार का सुचारू संचालन संभव होता है। बीते एक साल की समीक्षा की जावे तो कमलनाथ अपने प्रशासनिक ढांचे में चूंकि स्थायित्व नहीं ला सके इसलिए उसमें कसावट का पूरी तरह अभाव है। नई सरकार आने के बाद सरकारी अमले का स्थानान्तरण तो साधारण प्रक्रिया है लेकिन इसका निरंतर जारी रहना ये दर्शाता है कि सरकार अपनी दिशा ही तय नहीं कर पा रही। मप्र में आईएएस और आईपीएस लॉबी के बीच ताजा जंग में कौन विजेता बनकर निकलेगा ये उतना मायने नहीं रखता जितना ये कि प्रशासन के दोनों पहियों के बीच का तालमेल बिगडऩे से प्रदेश की कानून और प्रशासनिक व्यवस्था चौपट हो सकती है जो पहले से ही बेहद खस्ता स्थिति में है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Friday 7 February 2020

नेहरु जी का पत्र : गेंद कांग्रेस के पाले में



प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी अपने ऊपर होने वाले राजनीतिक हमलों का जवाब देने में जल्दबाजी भले नहीं करें लेकिन मौका आने पर छोड़ते भी नहीं। दो दिन पहले राहुल गांधी ने युवाओं द्वारा उनको डंडे मारे जाने संबंधी बयान पर श्री मोदी ने लोकसभा में बिना श्री गांधी का नाम लिए तीखी टिप्पणी कर डाली। राष्ट्रपति के अभिभाषण पर होने वाली बहस यूँ तो महज औपचारिकता होती है लेकिन प्रधानमंत्री हर वर्ष उसका जवाब देते हुए सरकार का पक्ष रखने के साथ ही विपक्ष पर चौतरफा हमला करने में भी नहीं चूकते। गत दिवस भी ऐसा ही हुआ जब उन्होंने सीएए ( नागरिकता संशोधन कानून ) के विरोध पर कांग्रेस को कठघरे में खड़ा करते हुए प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरु के एक पत्र का उल्लेख करते हुए बताया कि उसमें भी पाकिस्तान से आने वाले अल्पसंख्यकों को ही भारत की नागरिकता देने संबंधी बात कही थी न कि हर व्यक्ति को। नेहरु - लियाकत समझौते से एक साल पहले असम के तत्कालीन मुख्यमंत्री को लिखे उक्त पत्र में नेहरु जी ने अल्पसंख्यक शब्द का जो उल्लेख किया उस पर कांग्रेस का ध्यान आकर्षित करते हुए प्रधानमन्त्री ने ये तंज भी कसा कि कांग्रेस जिन नेहरु जी को अपना आदर्श मानती है उनकी मंशा भी पाकिस्तान से आने वाले अल्पसंख्यकों को ही भारत में नागारिकता देने की थी, बाकी को नहीं। उनके इस पैंतरे का कांग्रेस के पास कोई जवाब नहीं था। एनपीआर (राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर) को लेकर भी श्री मोदी ने गेंद कांग्रेस के पाले में डालकर इसकी शुरुवात के लिए उसे ही जिम्मेदार ठहरा दिया। दिल्ली का चुनाव कल खत्म हो जाएगा। जैसी उम्मीद की जा रही है उसके अनुसार तो शाहीन बाग़ और उसकी तर्ज पर देश भर में प्रायोजित धरने - प्रदर्शन आदि भी समाप्त कर दिए जायेंगे। लेकिन केन्द्र सरकार पर समाज को बाँटने का जो आरोप कांग्रेस और बाकी विपक्षी दलों ने लगाया उसके कारण मुस्लिम समाज पूरी तरह भ्रम की खाई में जा गिरा है। प्रधानमन्त्री ने लोकसभा में पं. नेहरु का जो पत्र पढ़कर सुनाया वह सरकारी दस्तावेज है इसलिए उसकी सत्यता पर संदेह नहीं किया जा सकता। ऐसे में कांग्रेस को अब स्पष्ट करना चाहिए कि क्या वह नेहरु जी की इच्छा के विरुद्ध जाकर सीएए की मुखालफत कर रही है? भारत का विभाजन होने के बाद से ही पाकिस्तान में रह रहे हिन्दू, सिख, पारसी, जैन और ईसाई समुदाय के नागरिकों का उत्पीडऩ शुरू हो गया था। धीरे-धीरे वहां अल्पसंख्यक आबादी घटती चली गई। जान, माल और अस्मत बचाने के लिए बहुतों ने इस्लाम कबूल कर लिया, वहीं बड़ी संख्या उन लोगों की भी है जो किसी तरह बच-बचाकर भारत की सीमा में आ तो गये लेकिन बरसों - बरस बीत जाने पर भी उन्हें यहाँ की नागरिकता नहीं मिली जिससे वे बदहाली में अधिकारविहीन जि़न्दगी जी रहे हैं। ऐसे में इन लोगों को भारत की नागरिकता देने के लिए नेहरु जी की सरकार के समय बने कानून में समयानुकूल संशोधन किये जाने पर मचाया गया बवाल अनावश्यक ही नहीं औचित्यहीन और उससे भी बढ़कर देशहित के विरुद्ध है। प्रधानमंत्री द्वारा नेहरु जी के पत्र का खुलासा किये जाने के पहले पूर्व प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह का राज्यसभा में दिया भाषण चर्चा में आ चुका था जिसमें उन्होंने पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों पर हो रहे अत्याचार की चर्चा करते हुए उन्हें भारत की नागरिकता देने का सुझाव दिया था। बेहतर हो कांग्रेस इस विषय में जिम्मेदारी का परिचय दे क्योंकि दिल्ली विधानसभा चुनाव को लेकर जो पूर्वानुमान अभी तक आये हैं उनके मुताबिक कांग्रेस पूरी तरह हाशिये पर आ चुकी है। मुसलमानों में उसके प्रति झुकाव खत्म सा है वहीं हिन्दू-सिख सहित शेष समुदाय भी कांग्रेस को किसी तरह से भाव नहीं दे रहे। सीएए का विरोध जिस तरह दिशाहीन हुआ उससे कांग्रेस को जबर्दस्त नुकसान हुआ, जिसे उसके नेताओं को समझ लेना चाहिए। बेहतर हो पं. नेहरु एवं उसके बाद भी कांग्रेस के अनेक बड़े नेताओं द्वारा पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों पर अत्याचार के सम्बन्ध में व्यक्त चिंताओं को पार्टी का मौजूदा नेतृत्व समझे और तदनुसार अपनी नीति का निर्धारण करे। सीएए अब एक हकीकत है जिसमें सुधार और संशोधन समय के साथ हों ये ग़लत नहीं होगा लेकिन मौजूदा हालात में उसको लागू होने से रोकना कश्मीर में अनुच्छेद 370 की वापिसी जैसा ही रहेगा जो देश के लिए आत्मघाती साबित हो सकता है।

-रवीन्द्र वाजपेयी


Thursday 6 February 2020

मस्जिद : जमीन ठुकराने का कोई औचित्य नहीं



सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दी गई समय सीमा समाप्त होने के पूर्व ही केंद्र सरकार ने राम जन्मभूमि पर मंदिर बनाने हेतु न्यास का विधिवत गठन कर दिया। न्यास में कानूनविद, धर्माचार्य, सामाजिक कार्यकर्ता और प्रशासनिक अधिकारी रखे गए हैं। एक दलित सदस्य भी है। अच्छी बात ये है कि न्यास अपने निर्णय लेने के लिए स्वतंत्र रहेगा। कुछ न्यासियों की नियुक्ति भी उसी के द्वारा की जावेगी। अभी तक केवल एक आपत्ति आई है और वह भी मंदिर आन्दोलन के बड़े स्तम्भ रहे कल्याण सिंह की तरफ  से, जिन्होंने दलित के साथ अन्य पिछड़ा वर्ग का एक सदस्य रखे जाने की मांग रखी है। यद्यपि जिन सदस्यों को न्यास में रखा गया गया वे सभी हर दृष्टि से सुयोग्य और सुपात्र हैं। गैर राजनीतिक चेहरों की वजह से न्यास को लेकर सियासी विवाद की गुंजाईश कम ही है लेकिन धार्मिक क्षेत्र के जिन लोगों को न्यासी बनाया गया उनमें से कुछ के बारे में अन्य धर्माचार्य नाक सिकोड़ सकते हैं। फिर भी कुल मिलाकर केंद्र सरकार ने बिना समय नष्ट किये न्यास का गठन करते हुए एक अनिश्चितता को खत्म कर दिया। सर्वोच्च न्यायालय ने राम जन्मभूमि पर हिन्दुओं के अधिकार को मान्य करने के अलावा अयोध्या में ही मस्जिद हेतु 5 एकड़ शासकीय भूमि देने का निर्देश भी दिया था। गत दिवस मंदिर निर्माण हेतु न्यास के गठन की घोषणा के साथ ही सरकार ने अयोध्या के निकट मस्जिद हेतु भी भूमि आवंटित कर दी। लेकिन मुस्लिम समाज के दो प्रमुख संगठनों उप्र सुन्नी मुस्लिम वक्फ  बोर्ड और आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने शरीयत का हवाला देते हुए मस्जिद हेतु आवंटित भूमि लेने से इंकार कर दिया। हालाँकि अयोध्या के अनेक मुस्लिमों ने इस फैसले को सराहा। कुछ मुस्लिम संगठनों ने आवंटित भूमि में अस्पताल, विद्यालय जैसे संस्थान बनाने की वकालत भी की। सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के पहले ही सभी पक्षों ने उसे मानने की प्रतिबद्धता दिखाई थी। निर्णय वाले दिन उप्र सहित समूचे देश में सुरक्षा व्यवस्था पुख्ता कर दी गई थी। लेकिन हिन्दुओं और मुस्लिमों की तरफ  से प्रदर्शित समझदारी और संयम की वजह से तमाम आशंकाएं निर्मूल साबित हुईं। सबसे बड़ी बात ये रही कि न तो हिन्दू समाज ने विजयोल्लास मनाया और न ही मुसलमानों की तरफ से पराजय की खीझ जैसा एहसास देखने मिला। अयोध्या में दोनों समुदायों के लोगों ने इस लंबित मामले के निपटने पर खुशी भी जताई। फैसला आये हुए लगभग तीन महीने होने को आये लेकिन इस दौरान भी इस मुद्दे पर किसी भी तरह का सांप्रदायिक तनाव देखने नहीं मिला जिससे ये लगा कि दोनों पक्षों ने पिछली कड़वाहट भुलाकर सौजन्यता और सद्भावना का रास्ता चुनने का निर्णय किया है। लेकिन लगता है मुस्लिम समाज में कुछ विघ्नसंतोषी ऐसे हैं जिनके पेट में मंदिर मुद्दे के शांतिपूर्ण समाधान के कारण दर्द हो रहा है। इसकी वजह अदालती फैसले के बाद उनकी दुकानदारी चौपट हो जाना ही है। पूरे देश में मुस्लिम समुदाय के छोटे-बड़े अनेक अनेक संगठन हैं। उन सभी ने सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को जय-पराजय की भावना से ऊपर उठकर स्वीकार किया लेकिन उपर्युक्त दोनों संस्थाओं ने फैसले के फौरन बाद से ही नाराजगी दिखानी शुरू कर दी। मस्जिद के लिए 5 एकड़ शासकीय भूमि दिए जाने के अदालती फरमान पर कुछ हिन्दू संगठनों ने आपत्ति जताते हुए उसे अनावश्यक बताया लेकिन अधिकतर ने न्यायोचित बताकर उसका स्वागत किया। उप्र सरकार ने जहां मस्जिद हेतु भूमि प्रदान की है वह मुस्लिम आबादी वाला इलाका है। वहां प्रति वर्ष एक बड़ा उर्स भी भरा करता है। चूँकि अभी तक दोनों ओर से किसी भी तरह के तनाव के संकेत नहीं मिले हैं। इसलिए बेहतर होगा मुस्लिम समाज मस्जिद के लिए आवंटित भूमि को स्वीकार करते हुए वहां एक भव्य मस्जिद और उसके साथ ही समाज के शैक्षणिक उत्थान हेतु उच्च स्तरीय संस्थान बनाए। राम मन्दिर का निर्माण होने के साथ ही अयोध्या का समूचा क्षेत्र अंतर्राष्ट्रीय पर्यटन केंद्र बनने जा रहा है। केंद्र और उप्र सरकार द्वारा इसके लिए की जा रही तैयारियों को देखकर कहा जा सकता है कि पूरे अवध अंचल को अयोध्या के विकास का सीधा लाभ मिलेगा। ऐसे में मुस्लिम समाज यदि अपनी मस्जिद भी बना ले तब अयोध्या हिन्दुओं के अलावा मुसलमानों के बड़े आस्था केंद्र के तौर पर प्रसिद्ध होगा। मुस्लिम समाज की अपनी धार्मिक मान्यताओं का सम्मान होना पूरी तरह जायज है लेकिन समय के साथ थोड़ी व्यवहारिकता भी होनी चाहिए। शरीयत के पालन को लेकर कभी-कभी तो लगता है कि भारत के मुस्लिम समाज के नेता अरब के मुसलिम देशों की तुलना में ज्यादा कट्टर हैं। इसका कारण उनके मन में समाया ये डर है कि यदि भारत के मुसलमान भी प्रगतिशील हो गए तब उनकी पूछ-परख खत्म हो जायेगी। समय आ गया है जब मुस्लिम समाज के पढ़े लिखे वर्ग को सदियों पुरानी सोच से निकलकर बदलते समय की जरूरतों के मुताबिक अपने को ढालना चाहिये। आजादी के सात दशक बाद भी यदि मुसलमान शैक्षणिक और सामाजिक दृष्टि से पिछड़ गए तो इसके लिए उनके नेता ही जिम्मेदार हैं। इस बारे में जम्मू कश्मीर का उदाहरण सामने है। वहां के मुस्लिम नेताओं ने अपनी औलादों को तो पढऩे-लिखने विदेश भेज दिया लेकिन कश्मीर घाटी के युवकों को धार्मिक कट्टरता का पाठ पढ़ाकर हिंसा के रास्ते पर धकेल दिया। अयोध्या में मस्जिद की जमीन ठुकराने का निर्णय मुस्लिम नेताओं की हताशा हो सकती है लेकिन उसके कारण वे पूरे समाज को दांव पर लगा दें ये ठीक नहीं है। मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड और उप्र के सुन्नी वक्फ  बोर्ड के कर्ताधर्ताओं की हठधर्मिता की वजह से पहले ही मुसलमानों का बहुत नुकसान हो चूका है। अच्छा होगा युवा पीढ़ी के मुस्लिम सुधारवादी सोच के साथ आगे आयें। एक हाथ में कुरान और एक में कम्प्यूटर के नारे को अपनाने का ये सही समय है।

-रवीन्द्र वाजपेयी