Tuesday 18 February 2020

सिंधिया के बगावती तेवर खतरे का संकेत



मप्र कांग्रेस इन दिनों आपसी संघर्ष में उलझी हुई है। हालाँकि इसकी शुरुवात तो उसी दिन हो गयी था जब 2018 के विधानसभा चुनाव के बाद ज्योतिरादित्य सिंधिया की उम्मीदों पर पानी फेरते हुए कांग्रेस हाईकमान ने कमलनाथ को मप्र का मुख्यमंत्री बनाने का निर्णय किया। स्मरणीय है 1993 में विधानसभा चुनाव के बाद ज्योतिरादित्य के पिता स्व. माधवराव सिंधिया भी स्व. अर्जुन सिंह की व्यूह रचना के चलते मुख्यमंत्री बनते-बनते रह गये थे जबकि तत्कालीन प्रधानमंत्री स्व. पीवी नरसिम्हा राव उन्हीं को मप्र सरकार की कमान देना चाहते थे। माधवराव जी की असामयिक मृत्यु के बाद हालांकि कांग्रेस ने उनकी गुना सीट पर ज्योतिरादित्य को उतारकर सिंधिया घराने के आधिपत्य को तो स्वीकार किया लेकिन मप्र.की सियासत में उन्हें ज्यादा मजबूत नहीं होने दिया। मनमोहन सरकार में यद्यपि वे मंत्री भी बनाये गये किन्तु राहुल गांधी से जाहिर निकटता के बावजूद वे मप्र के मध्यभारत इलाके तक ही सीमित रखे गए। अर्जुन सिंह की मृत्यु के बाद दिग्विजय सिंह ने उनकी विरासत संभाली और कमलनाथ  के साथ मिलकर प्रदेश की कांग्रेसी राजनीति पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया। हालाँकि ज्योतिरादित्य को भी दिखावे के लिए महत्व दिया जाता रहा और गत विधानसभा चुनाव में उन्हें कांग्रेस ने अपना चुनाव प्रचार प्रभारी बना दिया। भाजपा ने भी अपने प्रचार को माफ करो महाराज हमारा नेता शिवराज के नारे पर केन्द्रित कर ये संकेत दिया कि वह श्री सिंधिया को ही अपना प्रतिद्वंदी मान बैठी थी। कांग्रेस ने भी उनके चेहरे को ही आगे किया। ग्वालियर-चंबल संभाग में कांग्रेस को मिली सफलता का श्रेय श्री सिंधिया के मुख्यमंत्री बनने की संभावना को ही दिया गया। लेकिन चुनाव के बाद कमलनाथ और दिग्विजय की जोड़ी ने एक बार फिर सिंधिया राजघराने की उम्मीदों पर पानी फेर दिया। कहा जाता है राहुल गांधी ज्योत्तिरादित्य को मुख्यमंत्री बनाये जाने के समर्थक थे किन्तु कमलनाथ ने सोनिया गांधी को अपनी तरफ  कर लिया। भले ही मंत्रीमंडल में सिंधिया समर्थकों को कुछ महत्वपूर्ण विभाग मिले लेकिन सत्ता के असली सूत्र कमलनाथ ने अपने हाथ में रखे वहीं दिग्विजय सिंह ने भी बाहर रहकर खुद को समानांतर शक्ति केंद्र के तौर पर प्रचारित कर दिया। कुछ समय तक श्री सिंधिया प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बनने की उम्मीद में शांत रहे लेकिन कमलनाथ ने हाईकमान को लोकसभा चुनाव तक रुकने के लिए मना लिया। लोकसभा चुनाव में ज्योतिरादित्य सिंधिया की गुना सीट पर हुई हार ने पूरे देश को चौंका दिया। 2014 के चुनाव में प्रदेश की जिन दो लोकसभा सीटों पर कांग्रेस जीती उनमें कमलनाथ की छिंदवाड़ा और गुना थी। 2019 में मोदी लहर के बावजूद इन दोनों में कांग्रेस को पूरी उम्मीद थी किन्तु छिंदवाड़ा में कमलनाथ अपने बेटे नकुलनाथ को तो जैसे-तैसे जितवा लाये लेकिन श्री सिंधिया गुना में अपने ही पुराने सहयोगी से लम्बे अंतर से हार गये। इस परिणाम के पीछे भी राजनीति के अनेक जानकार दिग्विजय सिंह और कमलनाथ की जुगलबंदी देखते हैं। सिंधिया राजघराने को गुना और ग्वालियर में हराने की कल्पना भाजपा भी  नहीं करती थी। कहा तो यहाँ तक जाता रहा कि गुना के भाजपाई भी भीतर-भीतर महाराज का साथ देते थे। ज्योतिरादित्य की बुआ यशोधरा राजे भी गुना से विधायक हैं। बुआ-भतीजे एक दूसरे के सामने आने से कतराते रहे हैं। इस हार से श्री सिंधिया की राजनीतिक वजनदारी को जबरदस्त नुकसान हुआ। उधर कांग्रेस हाईकमान में भी राहुल गांधी की स्थिति कमजोर हो गयी। उनके पार्टी अध्यक्ष पद से हटने के बाद सोनिया जी ने फिर जिम्मेदारी संभाली और श्री सिंधिया को कांग्रेस महासचिव बनाये रखा लेकिन लोकसभा में गैर मौजूदगी की वजह से वे पूर्ववत आकर्षण का केंद्र नहीं रह सके। इधर मप्र में कमलनाथ शासन के साथ पार्टी संगठन पर अपनी पकड़ निरंतर मजबूत बनाते गये। कांग्रेस का प्रदेश अध्यक्ष पद भी वे किसी न किसी तरह कब्जाए हुए हैं। ऐसे में श्री सिंधिया को अपना भविष्य खतरे में नजर आने लगा। केन्द्रीय स्तर पर कांग्रेस की हालत लगातार कमजोर होती जाने से भी वे चिंताग्रस्त होने लगे हैं। निकट भविष्य में राज्यसभा के चुनाव होने वाले हैं। ज्योतिरादित्य को लगा कि उच्च सदन के मार्फत ही कम से कम संसद में पुनप्र्रवेश करने से वे राष्ट्रीय राजनीति में अपनी उपस्थिति दर्ज करवा सकेंगे। लेकिन जैसी खबरें आ रही हैं उनके अनुसार कमलनाथ और दिग्विजय सिंह ने उनके मंसूबों पर पानी फेरने के लिए प्रियंका गांधी को मप्र से राज्यसभा में भेजने की गोटी चल दी है। ये एक ऐसा दांव है जिसके आगे श्री सिंधिया के सारे पांसे बेअसर होकर रह जायेंगे। चारों तरफ से घिरने के कारण ही महाराज ने आखिरकार आक्रामक रुख दिखाते हुए प्रदेश सरकार पर हमला बोलते हुए घोषणापत्र में किये वायदे पूरे नहीं होने पर सड़कों पर उतरने की धमकी दे डाली। इसके पहले  किसानों के कर्जे माफ होने में हो रही देरी पर भी श्री सिंधिया सार्वजानिक रूप से प्रदेश सरकार पर निशाना साधते रहे हैं। लेकिन जब उन्होंने सड़कों पर उतरने की धमकी दी तब कमलनाथ ने भी तैश में कह दिया कि उतरकर देखें। कांग्रेस की समन्वय समिति की बैठक में बीते दिनों काफी किचकिच हुई जिसकी वजह से श्री सिंधिया नाराज होकर बाहर आ गये। उनके समर्थक मंत्री जहां उनकी तरफदारी में जुटे हैं वहीं दूसरे गुट से उन्हें आलोचना झेलनी पड़ रही है। इस बीच ये संभावना भी व्यक्त की जाने लगी कि वे बगावत करते हुए भाजपा से हाथ मिलाकर मुख्यमंत्री बनने की अपनी महत्वाकांक्षा पूरी कर सकते हैं। यद्यपि इसका ठोस आधार नहीं है और इसे राज्यसभा सीट के लिए बनाये जा रहे दबाव से जोड़कर देखा जा रहा है लेकिन सिंधिया गुट के खुलकर मैदान में आने से मुख्यमंत्री के वर्चस्व को ठेस तो पहुंच रही है। प्रदेश की आर्थिक स्थिति बेहद चिंताजनक है। लगातार कर्ज लेने के बावजूद जरूरी काम रुके हैं। वेतन और अन्य भुगतानों पर भी रोक लगी है। विपक्ष लगातार हमलावर होता जा रहा है। भाजपा ने अपने  प्रदेश अध्यक्ष पद पर एक युवा को बिठाकर हमले को और धारदार बनाने के संकेत दे दिए हैं। ऐसे में कांग्रेस की गृहकलह उसके लिए नुकसानदायक हो सकती है। पंचायत और नगरीय निकाय के चुनाव के पहले इस तरह की महाभारत से भाजपा को नगद लाभ हो जाये तो आश्चर्य नहीं होगा। ज्योतिरादित्य को कांग्रेस राज्यसभा सदस्य या प्रदेश अध्यक्ष बनाकर शांत कर देगी या उन्हें इसी तरह उपेक्षित रखा जावेगा ये देखने वाली बात रहेगी। बहरहाल प्रदेश की राजनीति में एक बार गर्माहट पैदा हो रही है। लेकिन कमलनाथ सरकार पर बाहरी हमले की बजाय घर के भीतर से गोले दागे जा रहे हैं जो ज्यादा खतरनाक हैं।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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