Thursday 6 February 2020

मस्जिद : जमीन ठुकराने का कोई औचित्य नहीं



सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दी गई समय सीमा समाप्त होने के पूर्व ही केंद्र सरकार ने राम जन्मभूमि पर मंदिर बनाने हेतु न्यास का विधिवत गठन कर दिया। न्यास में कानूनविद, धर्माचार्य, सामाजिक कार्यकर्ता और प्रशासनिक अधिकारी रखे गए हैं। एक दलित सदस्य भी है। अच्छी बात ये है कि न्यास अपने निर्णय लेने के लिए स्वतंत्र रहेगा। कुछ न्यासियों की नियुक्ति भी उसी के द्वारा की जावेगी। अभी तक केवल एक आपत्ति आई है और वह भी मंदिर आन्दोलन के बड़े स्तम्भ रहे कल्याण सिंह की तरफ  से, जिन्होंने दलित के साथ अन्य पिछड़ा वर्ग का एक सदस्य रखे जाने की मांग रखी है। यद्यपि जिन सदस्यों को न्यास में रखा गया गया वे सभी हर दृष्टि से सुयोग्य और सुपात्र हैं। गैर राजनीतिक चेहरों की वजह से न्यास को लेकर सियासी विवाद की गुंजाईश कम ही है लेकिन धार्मिक क्षेत्र के जिन लोगों को न्यासी बनाया गया उनमें से कुछ के बारे में अन्य धर्माचार्य नाक सिकोड़ सकते हैं। फिर भी कुल मिलाकर केंद्र सरकार ने बिना समय नष्ट किये न्यास का गठन करते हुए एक अनिश्चितता को खत्म कर दिया। सर्वोच्च न्यायालय ने राम जन्मभूमि पर हिन्दुओं के अधिकार को मान्य करने के अलावा अयोध्या में ही मस्जिद हेतु 5 एकड़ शासकीय भूमि देने का निर्देश भी दिया था। गत दिवस मंदिर निर्माण हेतु न्यास के गठन की घोषणा के साथ ही सरकार ने अयोध्या के निकट मस्जिद हेतु भी भूमि आवंटित कर दी। लेकिन मुस्लिम समाज के दो प्रमुख संगठनों उप्र सुन्नी मुस्लिम वक्फ  बोर्ड और आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने शरीयत का हवाला देते हुए मस्जिद हेतु आवंटित भूमि लेने से इंकार कर दिया। हालाँकि अयोध्या के अनेक मुस्लिमों ने इस फैसले को सराहा। कुछ मुस्लिम संगठनों ने आवंटित भूमि में अस्पताल, विद्यालय जैसे संस्थान बनाने की वकालत भी की। सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के पहले ही सभी पक्षों ने उसे मानने की प्रतिबद्धता दिखाई थी। निर्णय वाले दिन उप्र सहित समूचे देश में सुरक्षा व्यवस्था पुख्ता कर दी गई थी। लेकिन हिन्दुओं और मुस्लिमों की तरफ  से प्रदर्शित समझदारी और संयम की वजह से तमाम आशंकाएं निर्मूल साबित हुईं। सबसे बड़ी बात ये रही कि न तो हिन्दू समाज ने विजयोल्लास मनाया और न ही मुसलमानों की तरफ से पराजय की खीझ जैसा एहसास देखने मिला। अयोध्या में दोनों समुदायों के लोगों ने इस लंबित मामले के निपटने पर खुशी भी जताई। फैसला आये हुए लगभग तीन महीने होने को आये लेकिन इस दौरान भी इस मुद्दे पर किसी भी तरह का सांप्रदायिक तनाव देखने नहीं मिला जिससे ये लगा कि दोनों पक्षों ने पिछली कड़वाहट भुलाकर सौजन्यता और सद्भावना का रास्ता चुनने का निर्णय किया है। लेकिन लगता है मुस्लिम समाज में कुछ विघ्नसंतोषी ऐसे हैं जिनके पेट में मंदिर मुद्दे के शांतिपूर्ण समाधान के कारण दर्द हो रहा है। इसकी वजह अदालती फैसले के बाद उनकी दुकानदारी चौपट हो जाना ही है। पूरे देश में मुस्लिम समुदाय के छोटे-बड़े अनेक अनेक संगठन हैं। उन सभी ने सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को जय-पराजय की भावना से ऊपर उठकर स्वीकार किया लेकिन उपर्युक्त दोनों संस्थाओं ने फैसले के फौरन बाद से ही नाराजगी दिखानी शुरू कर दी। मस्जिद के लिए 5 एकड़ शासकीय भूमि दिए जाने के अदालती फरमान पर कुछ हिन्दू संगठनों ने आपत्ति जताते हुए उसे अनावश्यक बताया लेकिन अधिकतर ने न्यायोचित बताकर उसका स्वागत किया। उप्र सरकार ने जहां मस्जिद हेतु भूमि प्रदान की है वह मुस्लिम आबादी वाला इलाका है। वहां प्रति वर्ष एक बड़ा उर्स भी भरा करता है। चूँकि अभी तक दोनों ओर से किसी भी तरह के तनाव के संकेत नहीं मिले हैं। इसलिए बेहतर होगा मुस्लिम समाज मस्जिद के लिए आवंटित भूमि को स्वीकार करते हुए वहां एक भव्य मस्जिद और उसके साथ ही समाज के शैक्षणिक उत्थान हेतु उच्च स्तरीय संस्थान बनाए। राम मन्दिर का निर्माण होने के साथ ही अयोध्या का समूचा क्षेत्र अंतर्राष्ट्रीय पर्यटन केंद्र बनने जा रहा है। केंद्र और उप्र सरकार द्वारा इसके लिए की जा रही तैयारियों को देखकर कहा जा सकता है कि पूरे अवध अंचल को अयोध्या के विकास का सीधा लाभ मिलेगा। ऐसे में मुस्लिम समाज यदि अपनी मस्जिद भी बना ले तब अयोध्या हिन्दुओं के अलावा मुसलमानों के बड़े आस्था केंद्र के तौर पर प्रसिद्ध होगा। मुस्लिम समाज की अपनी धार्मिक मान्यताओं का सम्मान होना पूरी तरह जायज है लेकिन समय के साथ थोड़ी व्यवहारिकता भी होनी चाहिए। शरीयत के पालन को लेकर कभी-कभी तो लगता है कि भारत के मुस्लिम समाज के नेता अरब के मुसलिम देशों की तुलना में ज्यादा कट्टर हैं। इसका कारण उनके मन में समाया ये डर है कि यदि भारत के मुसलमान भी प्रगतिशील हो गए तब उनकी पूछ-परख खत्म हो जायेगी। समय आ गया है जब मुस्लिम समाज के पढ़े लिखे वर्ग को सदियों पुरानी सोच से निकलकर बदलते समय की जरूरतों के मुताबिक अपने को ढालना चाहिये। आजादी के सात दशक बाद भी यदि मुसलमान शैक्षणिक और सामाजिक दृष्टि से पिछड़ गए तो इसके लिए उनके नेता ही जिम्मेदार हैं। इस बारे में जम्मू कश्मीर का उदाहरण सामने है। वहां के मुस्लिम नेताओं ने अपनी औलादों को तो पढऩे-लिखने विदेश भेज दिया लेकिन कश्मीर घाटी के युवकों को धार्मिक कट्टरता का पाठ पढ़ाकर हिंसा के रास्ते पर धकेल दिया। अयोध्या में मस्जिद की जमीन ठुकराने का निर्णय मुस्लिम नेताओं की हताशा हो सकती है लेकिन उसके कारण वे पूरे समाज को दांव पर लगा दें ये ठीक नहीं है। मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड और उप्र के सुन्नी वक्फ  बोर्ड के कर्ताधर्ताओं की हठधर्मिता की वजह से पहले ही मुसलमानों का बहुत नुकसान हो चूका है। अच्छा होगा युवा पीढ़ी के मुस्लिम सुधारवादी सोच के साथ आगे आयें। एक हाथ में कुरान और एक में कम्प्यूटर के नारे को अपनाने का ये सही समय है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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