Friday 28 February 2020

सहयोग की आड़ में मुसलमानों का उपयोग हो रहा



दिल्ली के दंगों के लिए कौन जिम्मेदार है ये बहस तब तक चलती रहेगी जब तक वैसा ही कोई दूसरा हादसा न हो जाए। लेकिन सीएए नामक जिस मुद्दे के कारण ये स्थिति बनी वह अभी भी कायम है और रहेगा क्योंकि उसे लेकर किये गये दुष्प्रचार ने पूरे देश में सांप्रदायिक तनाव की जो स्थिति पैदा की है उसको बदलने में लम्बा समय लगेगा। इस कानून को मुस्लिम विरोधी बताकर जो राजनीति की गई उसकी वजह से भ्रम का वातावारण बन गया। चूंकि मुस्लिम समाज में आज कोई भी राजनीतिक चिन्तक-विचारक नजर नहीं आता इसलिए वह धर्मिक सोच से आगे निकल नहीं पा रहा। मुलायम सिंह और लालू यादव जैसे नेताओं ने मुसलमानों को यदि अपने साथ जोड़ा तो उसका कारण न तो उनका समाजवादी हो जाना था और न ही सामाजिक न्याय के नारे से सरोकार। दरअसल पहले मुस्लिम समाज मुख्यत: कांग्रेस का समर्थक था लेकिन आपातकाल के बाद 1977 में हुए लोकसभा चुनाव में वह पहली बार उसके छिटका। हालांकि बाद के कुछ सालों में वह लौटकर फिर उसी के साथ गया किन्तु नब्बे के दशक में जब भाजपा ने हिंदुत्व को अपनी राजनीति का घोषित एजेंडा बनाकर राम मंदिर का मुद्दा हाथ में लिया तब मुसलमानों को ये लगने लगा कि केवल कांग्रेस से चिपके रहने से उनका भला नहीं होगा। लिहाजा वे अलग-अलग राज्यों में विभिन्न पार्टियों के पीछे चलने लगे किन्तु जैसा पूर्व में कहा गया उसके पीछे राजनीतिक सिद्धांत न होकर केवल अपनी धार्मिक पहिचान को सुरक्षित रखना ही एकमात्र मकसद था। इसी के चलते ये गलती हुई कि बजाय राजनीति की मुख्यधारा में आने के वे महज मतदाता बनकर सौदेबाजी का हिस्सा बन गए। आर्थिक, शैक्षणिक या समाजिक प्रगति तो रद्दी की टोकरी में फेंक दी गयी और शरीयत की आड़ लेकर उनके दिमाग में ये भर दिया गया कि उसके बाहर जाकर सोचने मात्र तक से वे इस्लाम विरोधी बन जायेंगे। ये कहना कुछ भी गलत नहीं होगा कि मुसलमानों के बड़े वर्ग में ये डर बिठा दिया गया है कि उनकी धार्मिक पहिचान खतरे में है। इसका सबसे बड़ा कारण ये है कि मुसलमानों का नेतृत्व राजनेताओं के हाथ से निकलकर मुल्ला-मौलवियों के हाथ आ गया। धर्म में विश्वास नहीं करने वाले साम्यवादी और आधुनिकता के सांचे में ढले सुशिक्षित मुसलमान तक किसी भी सुधारवादी कदम के विरोध में खड़े नजर आये। बात शाहबानो के मामले से शुरू होकर तीन तलाक रोकने तक आ गई लेकिन शरीयत के नाम पर धार्मिक कट्टरता इस हद तक बढ़ा दी गई कि समाज के उत्थान के लिए होने वाले फैसलों तक का विरोध करने उन्हें मजबूर कर दिया गया। परिणामस्वरूप जो थोड़े बहुत मुस्लिम राजनेता थे या अन्य धर्मों के नेतागण मुस्लिम समाज के रहनुमा कहलाते थे उन सबको दरकिनार करते हुए पूरी तरह धार्मिक सोच को अपना लिया गया। यही वजह रही कि कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, लालू यादव और ऐसे ही बाकी नेताओं को छोड़कर मुस्लिम समाज असदुद्दीन ओवैसी जैसों में अपना भविष्य देखने लगा। भले ही ओवैसी अभी भी एक सीमित क्षेत्र में ही प्रभावशाली हैं किन्तु उनसे प्रभावित होकर देश के विभिन्न हिस्सों में मुस्लिम समुदाय में ऐसे नेतृत्व ने जन्म ले लिया जो मुसलमानों को शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, महिला सशक्तीकरण जैसे मुद्दों से दूर रखते हुए शरीयत के नाम पर उनका भयादोहन करने में जुट गया। तीन तलाक पर रोक चूँकि सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश पर लगी और मुस्लिम समाज की कतिपय महिलायें ही इसके लिए प्रयासरत रहीं इस कारण मुसलमानों की रहनुमाई करने वाले चाहकर भी ज्यादा कुछ नहीं कर सके। लेकिन कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाये जाने को मुस्लिम विरोधी प्रचारित करने का सुनियोजित प्रयास किया गया। इसके बाद सर्वोच्च न्यायालय ने जब राम मन्दिर के पक्ष में फैसला सुनाया तो कट्टरपंथियों को मुसलमानों के बीच खौफ  फैलाने का एक मौका और मिल गया जबकि अयोध्या ही नहीं उसके बाहर के मुसलमान भी उक्त फैसले से राहत का अनुभव करने लगे और पूरे देश में एक पत्ता तक नहीं खड़का। उसके बाद नागरिकता संशोधन विधेयक ज्योंही आया त्योंही बड़े ही सुनियोजित तरीके से पूरे देश में ये हवा बना दी गई कि इसके जरिये मुसलमानों से उनकी नागरिकता छीन ली जायेगी। ऐसे मौकों पर किसी भी कौम के भीतर धार्मिक, सामाजिक और राजनीतिक नेतृत्व का समन्वय और संतुलन रहे तो विघटनकारी तत्व कामयाब नहीं हो पाते। लेकिन मुस्लिम समाज में इसका सर्वथा अभाव होने से कभी वह ओवैसी बंधुओं की तरफ देखता है तो कभी उसे वारिस पठान में इस्लाम का संरक्षक नजर आता है। इसी का फायदा उठाकर शर्जील इमाम जैसे लोग मुस्लिमों के अघोषित हीरो बन जाते हैं। सीएए कानून से हिन्दुस्तान में रह रहे मुसलमानों का कोई प्रत्यक्ष या परोक्ष सम्बन्ध नहीं है। उसके लागू होने से न उन्हें कोई लाभ है और न ही नुकसान। लेकिन विपक्ष ने उन्हें भड़काया और धार्मिक नेताओं ने आग में घी डालकर उन्हें ऐसे रास्ते पर धकेल दिया जो कुछ दूर जाकर बंद हो जाता है। दिल्ली के जामिया मिलिया विवि में हुई घटना के बाद शाहीन बाग जैसा आयोजन पूरी तरह अतार्किक और औचित्यहीन था। उसे स्वस्फूर्त और स्वप्रेरित बताने से बड़ा झूठ भी कुछ नहीं हो सकता। मुस्लिम समाज में राजनीतिक और सामाजिक चिन्तन की धारा चूँकि पूरी तरह सूख गई है इसलिए धजी का सांप बनाने वाले कामयाब हो गए। कहना गलत नहीं होगा कि नागरिकता जाने के मिथ्या प्रचार के फेर में मुस्लिम समाज एक बार फिर मुख्य धारा में आने से वंचित कर दिया गया। दिल्ली दंगों के पहले भी देश के अनेक शहरों में मुस्लिम समुदाय की ओर से हिंसक आन्दोलन हो चुके थे। उससे सबक लेकर शाहीन बाग़ के धरने को समय रहते उठा लिया गया होता तो मुस्लिम समाज विमर्श की प्रक्रिया का हिस्सा बना रहता लेकिन अधकचरी सोच और कौआ कान ले गया की अफवाह पर आँख मूंदकर भरोसा कर लेने की वजह से अब बात करने की हैसियत भी वह गंवा बैठा। सीएए एक वास्तविकता है जिसे नकारना दिन में आँखें बंद करते हुए रात की कल्पना जैसा है। मुस्लिम समाज को दिल्ली के दंगों के बाद तो कम से कम ये समझ लेना चाहिए कि उनका सहयोग करने वाले दरअसल उनका उपयोग कर रहे हैं। अब भी यदि वह कट्टर और गैर जिम्मेदार अनुभवहीन नेताओं के चंगुल से नहीं निकला तो वह उन स्वार्थी तत्वों के शिकार होता रहेगा जो उसे आग में धकेलकर दूर जा बैठते हैं।

- रवीन्द्र वाजपेयी

No comments:

Post a Comment