Wednesday 19 February 2020

शाहीन बाग़ : यदि मध्यस्थों की भी नहीं सुनी गई तब ....




दिल्ली के शाहीन बाग़ इलाके की सड़क पर मुस्लिम महिलाओं द्वारा दिए जा रहे धरने से राहगीरों को हो रही परेशानी को दूर करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय ने तीन अधिवक्ताओं को बतौर मध्यस्थ नियुक्त करने की जो व्यवस्था की वह एक परिपाटी बन सकती है। न्यायालय ने सीएए (नागरिकता संशोधन कानून) के विरोध में शुरू हुए आन्दोलन को तो अधिकार मान लिया लेकिन उसकी वजह से लोगों को होने वाली परेशानी महसूस करते हुए उसे किसी वैकल्पिक जगह स्थानांतरित करने हेतु तीन अधिवक्ताओं को वार्ताकार बनाकर आन्दोलनकारियों से मिलने कहा। आज वे तीनों शाहीन बाग़ जाकर मुस्लिम महिलाओं को धरना स्थल बदलने के लिए सहमत करने का प्रयास करेंगे। लेकिन कुछ महिलाओं ने टीवी चैनलों पर दो टूक कहा कि वे उक्त कानून के हटने तक नहीं उठेंगी। जैसी चर्चा है उसके अनुसार यदि आन्दोलनकारी नहीं माने तब सर्वोच्च न्यायालय आगे की कार्रवाई पुलिस और प्रशासन पर छोड़कर अपना पल्ला झाड़ लेगा। प्रश्न ये है कि सर्वोच्च न्यायालय ने सड़क घेरकर बैठे जनसमूह को हटाने का आदेश देने की बजाय उनसे वार्ता करने जैसा विकल्प क्यों चुना? ऐसे मामलों में कार्रवाई करना तो प्रशासन और पुलिस का काम है क्योंकि किसी स्थान पर कुछ लोग अवैध रूप से बैठकर सार्वजनिक यातायात अवरुद्ध करते हुए हजारों लोगों की परेशानी का कारण बनें तो बात विरोध और आन्दोलन करने के मौलिक अधिकार से अलग हटकर जनसुविधा में बाधा उत्पन्न करने पर केन्द्रित हो जाती है। ये बात सोलह आने सच है कि सर्वोच्च न्यायालय का काम कानून व्यवस्था लागू करवाना नहीं है लेकिन वह ये तो कह ही सकता है कि दो महीने तक देश की राजधानी में बीच सड़क पर बैठकर धरना देना गैर कानूनी है। धरना पर बैठीं महिलाओं के लोकतांत्रिक अधिकार से किसी को ऐतराज नहीं है। लेकिन उन्हें सड़क रोककर यातायात में बाधा पैदा करने की छूट किस तरह का लोकतंत्र है, इसका जवाब भी मिलना चाहिए। ये बात बिलकुल सही है कि पुलिस और प्रशासन को इस धरने को खत्म करवाने या अन्यत्र कहीं स्थानांतरित करवाने की पहल करनी चाहिए थी लेकिन बीते कुछ समय से दिल्ली में पुलिस की कतिपय कार्रवाई को लेकर समाचार माध्यमों सहित सेकुलर लॉबी द्वारा जो बखेड़ा खड़ा किया गया उसकी वजह से पुलिस और प्रशासन दोनों ने अपने कदम रोककर रखे। ऊपर से मामला मुस्लिम महिलाओं का था जिनसे जऱा सी सख्ती किये जाने पर आसमान सिर पर उठा लिया जाता। चकाजाम और शाहर बंद करवाने के विरुद्ध न्यायालायों द्वारा अनेक निर्णय अतीत में दिए जा चुके हैं। जबलपुर में आयोजित बंद पर तो उच्च न्यायालय ने सम्बन्धित राजनीतिक दल के मुखिया पर आर्थिक दण्ड भी लगाया था। लेकिन शाहीन बाग़ में आयोजित धरने के विरुद्ध प्रस्तुत याचिका पर सुनवाई भी बड़े ही आराम के साथ की गयी जबकि इस मामले में तत्काल सुनवाई और फैसले की अपेक्षा और जरूरत थी। देश में धरना प्रदर्शन, अनशन, जुलूस जैसे तरीके आम हैं। सड़क दुर्घटना में किसी की मृत्यु होने पर क्षेत्रीय जन सड़क घेरकर मुआवजा मांगने बैठ जाते है। पुलिस और प्रशासन अधिकतर अवसरों पर समझाइश देकर भीड़ को अलग करवा देते हैं। लेकिन शाहीन बाग़ के धरने को कुछ समाचार माध्यमों और राजनीतिक दलों ने इस तरह से पेश किया जैसे वह कोई राष्ट्रीय आन्दोलन हो। उसके साथ गांधीगिरी जैसा विशेषण जोड़कर उसकी गुणवत्ता भी प्रमाणित की जाती रही। जबकि सही बात तो ये है कि दिल्ली की पुलिस और प्रशासन ने अभूतपूर्व धैर्य का परिचय दिया। बावजूद इसके कि धरना स्थल पर भड़काऊ भाषण होते रहे। देश के पूर्व विदेश मंत्री सलमान खुर्शीद तक छीन के लेंगे आजादी जैसे नारे लगाते देखे गए। ये सब होने के बाद सर्वोच्च न्यायलय से उम्मीद थी कि वह शाहीन बाग के धरने को गैर कानूनी बताकर उसे हटवाने का रास्ता साफ करता। जबरदस्ती सड़क कब्जाए बैठी माहिलाओं से बात करने की लिए तीन अनुभवी अधिवक्ताओं की नियुक्ति का फैसला कितना सही है इस बहस में पड़े बिना ये कहना गलत नहीं होगा कि अब देश भर में इस तरह की किसी भी गतिविधि से निपटने में पुलिस और प्रशासन के समक्ष नई समस्या पैदा हो जायेगी। चंद सैकड़ा लोग यदि किसी भी सार्वजनिक स्थल पर डेरा जमाकर बैठ जाएं तो उन्हें बलपूर्वक हटाने की बजाय मध्यस्थ नियुक्त किये जाने का चलन बन जाएगा और उसके लिए सर्वोच्च न्यायालय की व्यवस्था को आधार बनाया जावेगा। उससे भी बड़ी बात ये है कि यदि वार्ताकारों के समझाने बुझाने के बाद भी शाहीन बाग़ की आन्दोलनकारी महिलायें नहीं मानीं तब क्या सर्वोच्च न्यायालय दिल्ली पुलिस और प्रशासन को नियमानुसार कार्रवाई करने का आदेश देगा और किसी भी तरह के बलप्रयोग के बाद मानवाधिकार और महिला आयोग जैसे संगठन कानून का साथ देंगे ? सवाल और भी हैं लेकिन सर्वोच्च न्यायालय के विवेक और न्यायप्रियता पर संदेह किये बिना इतना तो कहा ही जा सकता है कि देश की सर्वोच्च न्यायिक पीठ के कुछ फैसले नई समस्या को जन्म देने वाले भी होते हैं।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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