Monday 3 February 2020

बजट : रंगहीन , गंधहीन , स्वादहीन



बीते शनिवार को आगामी वित्तीय वर्ष का जो केन्द्रीय बजट लोकसभा में वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने प्रस्तुत किया वह एक अबूझ पहेली बनकर रह गया है। विपक्ष को तो खैर उसकी आलोचना करनी ही थी लेकिन सत्ता पक्ष भी ये बताने की स्थिति में नहीं है कि बजट की तारीफ किस आधार पर की जाए। लगता है वित्तमंत्री की सोच में दार्शनिकता ज्यादा है जिसकी वजह से बजट को समझने के लिए ध्यान लगाने की जरूरत पड़े। लेकिन आम बजट कहलाने के कारण यह देश के आम जन को सीधे प्रभावित करता है इसलिए साधारण व्यक्ति भी उसमें अपने लाभ खोजता है। वैसे कड़वा सच तो ये है कि बजट बनता चंद औद्योगिक घरानों के हित संवर्धन के लिए है क्योंकि अर्थव्यवस्था का समूचा खाका उन्हीं पर निर्भर रहता है। जहां तक बात आयकर जैसे प्रत्यक्ष कर की है तो वह सरकारी राजस्व का बहुत ही छोटा हिस्सा है और उसे चुकाने वाले भी आबादी के लिहाज से बेहद कम ही हैं। बावजूद इसके बजट का यही पहलू सबसे ज्यादा चर्चित और विवादित होता है। उस दृष्टि से वित्तमंत्री ने बजाय राहत देने के बाजीगरी का सहारा लिया। एक हाथ से छूट बढ़ाई लेकिन दूसरे हाथ से उसे छीन भी लिया। ऐसा करने के पीछे जो तर्क दिए जा रहे हैं वे बाजारवाद से पे्ररित लगते हैं। करदाता को बचत पर कर छूट दिए जाने की बजाय उसे खर्च करने के लिए प्रेरित करना आर्थिक सुस्ती दूर करने के मद्देनजर एक उपाय हो सकता है लेकिन भारतीय मानसिकता आज भी पश्चिम की उपभोक्ता संस्कृति से सर्वथा भिन्न है। खाओ, पियो मौज करो की बजाय आज की बचत कल की सुरक्षा आम भारतीय के आर्थिक चिंतन का आधार सदियों से रहा है। उस दृष्टि से ऐसी कोई भी व्यवस्था भारतीय परिवेश में आदर्श नहीं हो सकती जो साधारण हैसियत के व्यक्ति को बचत के संस्कार से दूर भगाए। उस दृष्टि से वित्तमंत्री ने आयकर ढांचे में जो बदलाव किये वे अटपटे, अपर्याप्त और कुछ हद तक अनावश्यक भी लगते हैं। यद्यपि उन्होंने करदाताओं को आयकर विभाग द्वारा भयाक्रांत करते हुए प्रताडि़त किये जाने पर रोक लगाने के जो आश्वासन दिए वे जरुर स्वागतयोग्य हैं लेकिन लौट फिरकर बात फिर वहीं आ जाती है कि इससे मध्यमवर्ग को कोई राहत नहीं मिलेगी। इसी तरह निर्मला जी ने अन्य क्षेत्रों के लिए जो प्रावधान किये उनसे आर्थिक सुस्ती दूर हो सकेगी, उसमें भी संदेह है। इन्फ्रास्ट्रक्चर और ग्रामीण विकास के किये अवश्य बजट में जो घोषणाएं की गईं वे निश्चित रूप से असरकारक होगीं किन्तु उनसे तात्कालिक तौर पर राहत की उम्मीद करना बेमानी होगा। ऊर्जा क्षेत्र में एक सुधार अवश्य स्वागत योग्य है जिसके तहत किसान अपनी गैर उपजाऊ भूमि का उपयोग सौर ऊर्जा उत्पादन के लिए कर सकेंगे तथा अतिरिक्त बिजली ग्रिड के जरिये सरकार खरीद लेगी। देश में ऊर्जा संकट हल करने के साथ ही किसान को सस्ती बिजली देने का ये प्रयास सही सोच है। इसी तरह ग्रामीण विकास के लिए किये गये अन्य प्रावधान भी दूरगामी लाभ देने वाले हैं। जहां तक बात इन्फ्रास्ट्रक्चर की है तो ये इस सरकार का प्रिय विषय रहा है और श्रीमती सीतारमण ने इस क्षेत्र को भरपूर राशि दी है जो सीमेंट, लोहा जैसे उद्योगों को सहारा देने के साथ ही रोजगार भी देगा। इसी तरह सस्ते आवासीय मकान बनाने और खरीदने वालों को करों में दी जा रही छूट की अवधि में वृद्धि भी राहत देने वाली है लेकिन हाऊसिंग क्षेत्र के जो प्रकल्प बंद पड़े हैं उन्हें पुनर्जीवित करने के बारे में बजट में ज्यादा कुछ नहीं है जो व्यापार और रोजगार दोनों के लिए बड़ा सहारा है। मोदी सरकार की दूसरी पारी के इस बजट में शिक्षा, विशेष रूप से चिकित्सा शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए एक महत्वाकांक्षी योजना पेश की गई जिसके तहत हर जिले में मेडिकल कालेज खोलकर उसे जिला अस्पताल से जोड़ा जाएगा। देश में डाक्टरों की कमी और बेहतर चिकित्सा सेवाओं को छोटे शहरों तक पहुँचाने की दिशा में ये एक क्रांतिकारी कदम हो सकता है लेकिन अव्वल तो इसमें आर्थिक संसाधनों की कमी बाधक बनेगी वहीं दूसरी तरफ  शिक्षकों का अभाव भी समस्या पैदा करेगा। उल्लेखनीय है देश के अधिकतर मेडिकल कालेजों में अध्यापकों की कमी की वजह से उनकी मान्यता पर सदैव तलवार लटका करती है। विदेशी छात्रों को भारत में शिक्षा ग्रहण करने के लिए अनुकूल वातावरण बनाने और विश्वस्तरीय संस्थान खोलने के लिए निवेश की राह खोलना भी अच्छा निर्णय है बशर्ते इसे ठीक से लागू किया जा सके। अनेक वस्तुओं पर आयात शुल्क बढ़ाकर घरेलू उद्योगों को प्राणवायु देने का निर्णय देर से उठाया गया सही कदम है जिसका दायरा और बढ़ाने की जरूरत है। इसी तरह मेक इन इंडिया को और विस्तार देते हुए असेम्बलिंग हब बनाने का प्रावधान भी उत्साहित करता है। ये सोच बड़ी ही सामयिक है क्योंकि अमेरिकी दबाव के कारण चीन से ढेर सारे उद्योग बोरिया-बिस्तर समेटने की तैयारी में है। सस्ते श्रमिक की उनकी जरूरत भारत पूरी कर सकता है। कोरोना वायरस के कारण भी चीन में आर्थिक गतिविधियाँ प्रभावित होना तय है। लेकिन सरकार को अपनी नौकरशाही पर लगाम लगानी होगी जो नये उद्यमियों को चप्पलें घिसवाने में अपनी शान समझती है। इस बजट की सर्वाधिक आलोचना जिस कारण से हो रही है वह है सार्वजनिक उपक्रमों के विनिवेश का फैसला। एयर इंडिया, भारत पेट्रोलियम, आईडीबीआई और रेलवे के बाद भारतीय जीवन बीमा निगम में सरकार द्वारा अपनी हिस्सेदारी बेचकर राजस्व जुटाने को लेकर न केवल विपक्ष बल्कि वरन आम जनता भी सशंकित है। भारत जैसे परम्परावादी देश में तंगी के बाद भी साधारण व्यक्ति तक पुश्तैनी संपत्ति बेचने में शर्म और दर्द दोनों महसूस करता है। उक्त संस्थानों में जीवन बीमा निगम ऐसा है जिससे बड़ी संख्या में देशवासी अपना सुरक्षित भविष्य देखते हैं। इसी तरह रेलवे में निजी ट्रेन चलवाने से शुरू प्रक्रिया अंतत: उसके निजीकरण पर जाकर रुकेगी ऐसा भी प्रचारित हो रहा है। विनिवेश आर्थिक सुधारों की उस सोच पर आधारित है जिसमें घाटे वाली किसी भी इकाई को चलाते रहना निरी मूर्खता के साथ ही आत्मघाती माना जाता है। बीएसएनएल जैसे उपक्रमों का जब तक एकाधिकार रहा तब तक वे खूब फले फूले लेकिन प्रतिस्पर्धा में मात खा गए जिसके लिए सरकार भी कम दोषी नहीं है। एयर इंडिया भी उसी श्रेणी में है। अनेक अर्थशास्त्री घाटे वाले उद्यमों के विनिवेश के प्रशंसक हैं लेकिन आम जनता के मन में सरकार को ये भरोसा जगाना होगा कि वह ऐसा क्यों कर रही है और इससे देश को क्या लाभ होगा? इस बजट की तारीफ  और आलोचना दोनों के लिए गुंजाईश इसलिए कम है क्योंकि एक तो ये आर्थिक मंदी या सुस्ती के दौर का है दूसरी बात जो ज्यादा महत्वपूर्ण है वह है आम चुनाव में अभी चार साल का समय होना। जिन लोगों को ये लगता था कि मोदी सरकार दिल्ली विधानसभा चुनाव को ध्यान में रखकर मध्यम आय वर्ग और व्यापारी समुदाय को लुभाने वाले निर्णय करेगी उन्हें निराशा हुई होगी लेकिन पिछले पांच साल का अनुभव ये बताता है कि प्रधानमन्त्री ऐसे फैसले लेने में विश्वास करते हैं जिनका दूरगामी असर पड़े। अर्थव्यवस्था की चिंताजनक स्थिति के बाद भी अति साधारण बजट पेश करने के पीछे एक सोच ये भी है कि आगामी वर्ष में जीएसटी के कारण उत्पन्न समस्याएँ हल हो जायेंगीं और सरकार को पर्याप्त राजस्व मिलने से उसका खर्च बढ़ेगा जिसका असर बाजार में छाई सुस्ती दूर होने के रूप में सामने आयेगा। बहरहाल जैसा शुरू में कहा गया निर्मला सीतारमण के रिकार्ड लम्बाई वाले बजट भाषण में ज्यादातर नाउम्मीदी का एहसास हुआ। इसीलिये आम जनता की नजर में ये एक रंगहीन, गंधहीन और स्वाधीन बजट है। इसके फायदे जब होंगे तब होंगे लेकिन फिलहाल तो इसका आना न आना बराबर ही है।

- रवीन्द्र वाजपेयी


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