Tuesday 25 February 2020

तो पूरे देश में शाहीन बाग़ नजर आयेंगे




आखिर वही हुआ जिसका अंदेशा था। दिल्ली में सीएए के विरोध और समर्थन में चल रहा धरना- प्रदर्शन आमने-सामने के संघर्ष में बदल गया। गत दिवस हालात और बिगड़े जिसमें अब तक एक पुलिस कर्मी सहित 6 और लोगों की मृत्यु हो चुकी है। अनेक लोग घायल हो गये जिनमें एक वरिष्ठ अधिकारी की हालत गम्भीर बनी हुई है। तोडफ़ोड़-आगजनी भी हुई। शाहीन बाग़ में चल रहे धरने को हटवाने के लिए प्रस्तुत याचिका के सम्बन्ध में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा नियुक्त मध्यस्थों ने अपनी रिपोर्ट सीलबंद लिफाफे में सौंप दी है। इसी बीच सीएए के समर्थकों ने भी धरना देना शुरू कर दिया जो निश्चित रूप से क्रिया की प्रतिक्रिया ही कही जा सकती है। लेकिन गत दिवस जो कुछ हुआ उसके बाद दिल्ली की पुलिस ही नहीं बल्कि पूरे देश के लिये ये विचारणीय विषय है कि क्या किसी मुद्दे पर आंदोलनकारी महीनों तक सड़क पर कब्जा करते हुए बैठ सकते हैं? उन्हें महज इसलिए न हटाया गया कि उनमें महिलायें हैं और वह भी मुस्लिम समुदाय की तो दूसरे पक्ष को भी ये लगा कि जब सर्वोच्च न्यायालय तक ऐसे धरने के बारे में सीधे-सीधे कोई आदेश देने की हिम्मत नहीं जुटा सका तब हमें कौन रोकेगा? भाजपा नेता कपिल मिश्रा ने शाहीन बाग़ के जवाब में धरना-प्रदर्शन शुरू किया। उसके बाद सीएए के विरोधियों और समर्थकों के बीच नारेबाजी का मुकाबला शुरू हुआ जो अंत में पत्थरबाजी से होते हुए और आगे बढ़ गया। देश के और किसी हिस्से में ये हुआ होता तब शायद उसे इतनी गम्भीरता से नहीं लिया जाता। और फिर जिस दिन अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप सपरिवार दिल्ली पहुंचे उसी दिन राजधानी में दो सम्प्रदायों के बीच हिंसक संघर्ष से देश की छवि को कितना धक्का पहुंचा ये आकलन करना आसान नहीं है। कुछ लोग इसके लिए भाजपा नेता कपिल मिश्रा को दोष दे रहे हैं। उनका कहना है कि यदि शाहीन बाग़ के जवाब में वैसा ही आन्दोलन नहीं किया जाता तब ये हालात पैदा नहीं होते। लेकिन ऐसा कहने वाले ये भूल गए कि शाहीन बाग़ के बाद उस जैसा ही दूसरा धरना भी सीएए के विरोध में दिल्ली के दूसरे स्थान पर शुरू कर दिया गया जबकि सर्वोच्च न्यायालय पहले वाले धरने की वैधानिकता और औचित्य पर विचार कर ही रहा है। शाहीन बाग़ के धरने के प्रति जिस तरह की सहानुभूति और समर्थन एक वर्ग विशेष ने दिखाई और समाचार माध्यमों ने भी उसे सुर्खियाँ प्रदान कीं उससे एक गलत परिपाटी को प्रोत्साहन मिला। शाहीन बाग़ में बैठी महिलाओं को इस तरह महिमामंडित किया गया जैसे वे कोई स्वंतत्रता संग्राम सेनानी हों। ऐसी ही सोच कश्मीर घाटी के अलगाववादियों के बारे में रखी जाती थी। सुरक्षा बलों की छवि खलनायक की बनाने का प्रयास भी उसी तबके द्वारा किया जाता रहा जिसने शाहीन बाग़ को भी आजादी की लड़ाई जैसा महत्व दिया। घाटी में पत्थरबाजों से निपटने के लिए पैलट गन के उपयोग पर तो सर्वोच्च न्यायालय तक ने सवाल खड़े किये थे। यही वजह रही कि कश्मीर घाटी में भारत विरोधी भावनाएं मजबूत होती गईं। शाहीन बाग के धरने के पहले जामिया मिलिया विवि में हुई हिंसा को जायज ठहराते हुए पुलिस को कठघरे में खड़ा करने का अभियान चलाया गया। ये सब देखते हुए कहना गलत नहीं होगा कि कश्मीर में अनुच्छेद 370 हटाने के कारण अलगाववादी ताकतों में जो खीझ उत्पन्न हुई वही दिल्ली और देश में सीएए के विरोध में शरू किये गए सुनियोजित आन्दोलन की जड़ है। शाहीन बाग में जो और जैसे हुआ वह महिलाओं और मुस्लिमों का ध्यान रखकर बर्दाश्त किया गया जिससे और लोगों को भी बल मिल गया। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा भेजे गए मध्यस्थों से जिस तरह बात की गई उससे इस बात की पुष्टि हुई कि आन्दोलनकारियों की आड़ में देश को अस्थिर करने वाली ताकतें सक्रिय हैं। कल हुई हिंसा के बाद केंद्र के गृह मंत्रालय और दिल्ली पुलिस की उदासीनता को वे ही लोग कोस रहे हैं जो शाहीन बाग़ में सड़क कब्जाए बैठी महिलाओं की शान में कसीदे पढ़ा करते थे। चूँकि मामला सर्वोच्च न्यायालय में है जिसने शाहीन बाग़ के धरने को अवैध कब्जा बताकर तत्काल हटवाने का आदेश देने की बजाय आन्दोलन को अधिकार मानकर जनसुविधा का ध्यान रखने का उपदेश देते हुए मध्यस्थों को शंतिदूत बनाकर भेजा। लेकिन संविधान की दुहाई देने वाली आंदोलनकारी महिलाओं ने शान्ति प्रस्ताव को कमजोरी मानकर सड़क खाली करते हुए किसी दूसरे स्थान पर जाने से साफ इंकार कर दिया। कुछ देर के लिए सड़क का एक हिस्सा खोला तो गया लेकिन थोड़ी देर बाद ही उसे फिर अवरुद्ध कर दिया गया। इसकी प्रतिक्रियास्वरूप पूरे देश में सीएए के समर्थन में धरने देने की भावना मजबूत होने लगी। ये कहना कदापि गलत नहीं होगा कि सर्वोच्च न्यायालय इस बारे में पेश की गईं याचिकाओं पर कानूनी प्रावधानों के अनुसार फैसला दे देता तब शायद दिल्ली के हालात इतने संगीन नहीं हुए होते। कश्मीर घाटी में भी जब अलगाववादी पाकिस्तान का झंडा लहराते हुए भारत विरोधी नारे लगाते निकलते और सुरक्षा बल खड़े-खड़े उन्हें देखते रहते थे तब पूरे देश में जो गुस्सा नजर आता था वही शाहीन बाग़ के धरने के प्रति बरती गई नरमी से पैदा हुआ। संविधान में दिए अधिकारों की भी एक सीमा है जिसमें किसी और के अधिकार का अतिक्रमण न होना जरूरी है। शाहीन बाग़ का समूचा जमावड़ा अधिकारी के दुरूपयोग का जीता-जागता उदाहरण है। बेहतर होता उसे शुरू होते ही हटवा दिया जाता। केंद्र सरकार और दिल्ली पुलिस विधानसभा चुनाव पूर्व जिस भी दबाव में रही हो लेकिन अब और देर की जाती रही तो पूरा देश 370 हटने के पहले वाली कश्मीर घाटी का रूप ले लेगा। कश्मीर में मुंह की खाने के बाद भी देश विरोधी ताकतें शांत नहीं बैठीं। सीएए का विरोध उसकी बानगी है। यदि इसके पीछे के खेल को नहीं समझा गया तो देश भर में जगह-जगह शाहीन बाग नजर आयेंगे। बेहतर हो सर्वोच्च न्यायालय भी स्थिति की गंभीरता को समझे।

- रवीन्द्र वाजपेयी

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