Friday 14 February 2020

अपराध और राजनीति : चोली दामन का साथ



भारत में चुनाव सुधारों की दिशा में राजनीति का अपराधीकरण बड़ी बाधा बना हुआ है। एक समय था जब चुनाव जीतने के लिए राजनेता अपराधी तत्वों की मदद लिया करते थे जिसके एवज में उन्हें संरक्षण दिया जाता था। कालांतर में अपराधी तबके ने खुद ही चुनावी मैदान में हाथ आजमाने की सोची। इसके पीछे उद्देश्य बिलकुल साफ था। चुनाव जीतने के बाद जन प्रतिनिधि बनते ही उसकी छवि भले न बदले लेकिन हैसियत बदल जाती है और किसी नेता की अनुकम्पा पर निर्भर रहने की बजाय वह खुद दूसरे अपराधियों को संरक्षण प्रदान करने की ताकत अर्जित कर लेता है। धीरे-धीरे अपराध और राजनीति का चोली-दामन का साथ हो गया। जिस तरह भारतीय फिल्मों में डाकुओं को शोषित और पीडि़त बताकर महिमामंडित किया जाता है उसी तरह से राजनीति में भी अपराधी को सहानुभूति का पात्र बनाकर सांसद और विधायक बनाने का खेल शुरू हो गया और बात फूलन देवी के लोकसभा में पहुँचने तक जा पहुँची। मिर्जापुर सीट पर उसके सजातीय मतदाताओं की बड़ी संख्या के कारण वह धड़ल्ले से जीत गयी। लेकिन वह अकेला नाम नहीं है। उसके पहले और बाद में भी संगीन अपराधों में लिप्त सैकड़ों कुख्यात चेहरे विधानसभाओं और लोकसभा में ससम्मान विराजमान होते रहे। चुनाव आयोग के अलावा विभिन्न संगठनों ने इस दिशा में काफी प्रयास किये लेकिन चुनाव जीतने की क्षमता के अलावा भी अनेक बातें ऐसी हैं जिनके कारण अपराधी तत्व चुनावी राजनीति में लम्बी पारी खेलने में कामयाब रहे। किसी ने जातिवाद का लाभ उठाया तो किसी ने धन और बाहुबल का। कुछ समय  से चुनाव आयोग ने ये व्यवस्था कर रखी है कि नामांकन पत्र में प्रत्याशी को अपने ऊपर चल रहे अपराधिक प्रकरणों की जानकारी देनी होगी। उसके बाद ये नियम बना कि वह इस जानकारी को समाचार पत्र में भी प्रकाशित करवाए जिससे कि मतदाताओं को उसकी कर्मपत्री का पता चल सके। अपराधिक प्रकरण में दो वर्ष से ज्यादा की सजा सुनाये जाने पर सदस्यता चली जाने और चुनाव लडऩे से वंचित किये जाने का कानून भी प्रचलन में आया जिसके अंतर्गत लालू यादव का चुनावी सफर रुक गया। इस सबके बावजूद राजनीतिक दलों ने अपराधिक पृष्ठभूमि के उम्मीदवारों के चयन से परहेज करना बंद नहीं किया। गत दिवस सर्वोच्च न्यायालय ने इस बारे में महत्वपूर्ण फैसला सुनाते हुए राजनीतिक दलों को निर्देश दिया कि वे किसी अपराधिक पृष्ठभूमि के उम्मीदवार को टिकिट देने का कारण सार्वजनिक करें तथा बेदाग़ को क्यों वंचित रखा गया ये भी स्पष्ट करें। इसके साथ ही उसका विवरण वेबसाईट के अलावा समाचार पत्रों के माध्यम से भी उजागर किया जावे। सर्वोच्च न्यायालय ने इसके पूर्व भी राजनीति को अपराधी तत्वों से मुक्त करवाने के लिए काफी निर्देश दिए थे। उनका आंशिक पालन भी हुआ लेकिन राजनीतिक दलों में ईमानदारी और इच्छाशाक्ति का अभाव होने से न्यायालय की भावना का सम्मान करने की बजाय बीच के रास्ते निकाल लिए गए। कानून की नजर में जब तक किसी को दण्डित नहीं किया जाए तब तक वह आरोपी तो हो सकता है किन्तु अपराधी नहीं माना जा सकता। लेकिन ह्त्या और उस जैसे अनेक गंभीर मामलों में जेल में बंद सांसद को राष्ट्रपति चुनाव में मत डालने लाया जाता है तब लोकतंत्र का चेहरा शर्म से झुक जाता है। इस बारे में किसी एक पार्टी या नेता को कसूरवार ठहराना अन्याय होगा क्योंकि वामपंथियों को छोड़कर बाकी सभी पार्टियां अपराधी पृष्ठभूमि को चुनावी टिकिट के लिए अयोग्यता नहीं मानतीं। वामपंथी दर अपराधियों को सांसद और विधायक तो नहीं बनाते लेकिन अपने विरोधियों से निपटने में उनका उपयोग नि:संकोच करते हैं। चूंकि किसी नेता और पार्टी की सफलता का मापदंड केवल और केवल चुनाव जिताना और सत्ता हासिल करना रह गया है इसलिए साम, दाम, दंड, भेद नामक सभी तरह के हथकंडे अपनाने में किसी को लज्जा नहीं आती। चाल, चरित्र और चेहरे की उत्कृष्टता का दावा करने वाली भाजपा हो या फिर नई राजनीति की जन्मदाता बन बैठी आम आदमी पार्टी, सभी की प्राथमिकता येन केन प्रकारेण सत्ता पर काबिज होना है। हाल ही में संपन्न दिल्ली के चुनाव में सबसे ज्यादा अपराधिक प्रकरण वाले उम्मीदवार आम आदमी पार्टी ने ही उतारे जिनमें लगभग सभी जीत भी गये। सर्वोच्च न्यायालय ने दागी को टिकिट दिए जाने के कारण स्पष्ट करने का जो निर्देश दिया वह तो ठीक है लेकिन बेदाग और योग्य को उम्मीदवारी से क्यों वंचित कर दिया इसका स्पष्टीकरण देने का निर्देश अटपटा है। बहरहाल ताजा फैसला कितना कारगर होगा कह पाना कठिन है क्योंकि अपराधी तत्वों को सांसद और विधायक चुनने का काम जो मतदाता करते हैं वे भी तो इस बारे में उदासीन हैं। छोटी-छोटी बातों को लेकर अनेक गाँव और बस्ती के मतदाता चुनाव का बहिष्कार करने का ऐलान कर देते हैं लेकिन आज तक किसी भी क्षेत्र से ये आवाज नहीं आई कि उम्मीदवारों की अपराधिक पृष्ठभूमि के कारण मतदान नहीं करेंगे। सर्वोच्च न्यायालय और चुनाव आयोग दोनों के प्रयास सैद्धांतिक तौर पर तो सही और शिरोधार्य हैं लेकिन राजनीतिक पार्टियों द्वारा उनकी काट निकालकर चुनावी राजनीति को जिस तरह से गलत लोगों के हवाले कर दिया गया उसकी वजह से अच्छी सोच और बेदाग पृष्ठभूमि के लोगों के लिए राजनीति बिना ऑक्सीजन के एवरेस्ट पर चढऩे से भी कठिन है। चुनाव सुधार और राजनीति के शुद्धिकरण में सबसे बड़ी समस्या धन के अनाप-शनाप उपयोग से भी उत्पन्न हुई। भले ही उम्मीदवार के खर्च की सीमा तय कर दी गयी है लेकिन साधारण बुद्धि वाला भी बता देगा कि लोकसभा-विधानसभा चुनाव हेतु खर्च की निर्धारित राशि जुटाना भी अच्छे-अच्छों के बस की बात नहीं है। जीते हुए उम्मीदवारों द्वारा दिये जाने वाले खर्च का ब्यौरा दरअसल शपथ लेकर बोला जाने वाला झूठ है। लेकिन सब जानते हुए भी कोई इससे रोक नहीं पा रहा। ऐसे में लोकतंत्र की इस मजबूरी के बाद भी उसके मजबूत होने का दावा वाकई मजाक है। इसीलिये सर्वोच्च न्यायालय के ताजा निर्णय से विशेष बदलाव या सुधार की उम्मीद करना जल्दबाजी होगी क्योंकि जिन्हें ये सुधार करना हैं उन्होंने तो हम नहीं सुधरेंगे की कसम खा रखी है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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