Monday 10 February 2020

आरक्षण : दर्द बढ़ता गया ज्यों ज्यों दवा दी



बीते पांच साल पर नजर डालें तो जब भी देश में कहीं चुनाव होते हैं तब किसी एक विशेष मुद्दे को उछालकर विवाद खड़ा किया जाता है जिसके पीछे उद्देश्य केवल और केवल सियासी लाभ उठाना है। दिल्ली विधानसभा चुनाव के पहले योजनाबद्ध तरीके से सीएए और एनसीआर को लेकर भय का भूत खड़ा करते हुए दिल्ली के शाहीन बाग़ इलाके में मुस्लिम महिलाओं के धरने को राष्ट्रीय खबर बना दिया गया। उसके पीछे का मंतव्य किसी से छिपा नहीं था। दिल्ली का दंगल समाप्त होते ही राजनीतिक जमात की नजर बिहार विधानसभा के चुनाव पर आकर टिक गयी। संयोगवश सर्वोच्च न्यायालय के एक फैसले ने उसे अवसर भी दे दिया जिसके अनुसार सरकारी नौकरियों में पदोन्नति में आरक्षण मौलिक अधिकार नहीं है और न्यायपालिका इस बारे में सरकार को निर्देशित नहीं कर सकती। फैसला आते ही सियासी हलचल मच गयी। कांग्रेस ने बिना देर किये केंद्र की भाजपा सरकार के शासन में अनु.जाति और जनजाति के अधिकार खतरे में होने का हल्ला मचा दिया। पार्टी के वरिष्ठ नेता माल्लिकर्जुन खडग़े ने केंद्र से मांग की कि या तो वह सर्वोच्च न्यायालय में पुनार्विचार याचिका दायर करे या फिर संविधान में संशोधन करते हुए आरक्षण को मौलिक अधिकार बनाने की व्यवस्था करे। दूसरी तरफ केंद्र सरकार में शामिल रामविलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी के सांसद चिराग पासवान ने भी सर्वोच्च न्यायालय के फैसले से असहमति व्यक्त कर दी। दिल्ली के चुनाव परिणाम 11 तारीख को आ जायेंगे। उसके बाद बिहार की बिसात बिछने लगेगी। स्मरणीय है 2015 के चुनाव में भी वहां आरक्षण का मुद्दा जोरदारी से उठा था। चुनाव के कुछ पहले ही रास्वसंघ प्रमुख डा.मोहन भागवत ने आरक्षण की समीक्षा जैसा सुझाव दिया जिसे लालू यादव सहित अन्य भाजपा विरोधी पार्टियों ने बड़ा मुद्दा बना लिया। चुनाव परिणामों ने साबित कर दिया कि भाजपा को उस विवाद से भारी नुकसान हुआ। जब प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी ने आरक्षण जारी रखने संबंधी आश्वासन दिए तो भाजपा के परम्परागत सवर्ण मतदाता रुष्ट हो गए। वैसा ही नजारा मप्र में देखने मिला जब ग्वालियर, भिंड और मुरैना क्षेत्र में सवर्ण और अनु. जाति के गुटों में खूनी संघर्ष हुआ। प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के बयान कोई माई का लाल आरक्षण नहीं हटा सकता ने सवर्ण मतदाताओं में नाराजगी पैदा की जिसका खमियाजा भाजपा को प्रदेश सरकार गंवाने के रूप में उठाना पड़ा। सर्वोच्च न्यायालय का ताजा निर्णय अनेक राज्यों में पदोन्नति में आरक्षण के लंबित मामलों पर असर डालेगा। मप्र उच्च न्यायालय ने भी पदोन्नति में आरक्षण को रद्द किया था जिसके विरुद्ध शिवराज सरकार की याचिका सर्वोच्च न्यायालय में लंबित है। इस कारण हजारों पदोन्नतियां रुकी पड़ी हैं। सैकड़ों लोग तो इन्तजार करते-करते सेवा निवृत्त तक हो गये। सर्वोच्च न्यायालय के ताजा निर्णय ने इस मसले को नया रूप दे दिया। चूँकि संसद चल रही है इसलिए इस पर हंगामा होने की पूरी सम्भावना है। केंद्र सरकार की मुसीबत ये है कि न तो वह सर्वोच्च न्यायालय के फैसले से सहमत हो सकती है और न ही उसका विरोध करने का साहस जुटा सकेगी। वैसे तो कोई भी पार्टी आरक्षण के मौजूदा ढांचे का विरोध नहीं कर सकती क्योंकि जातीय समीकरण भारत की चुनावी राजनीति का स्थायी आधार बन चुके हैं। अनु. जाति और जनजाति के बाद अब ये अन्य पिछड़ी जातियों तक जा पहुंचा है। राज्य स्तर पर नई-नई जातियों को आरक्षण की परिधि में लाने का फैसला भी चुनाव के समय होता है। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा आरक्षण की अधिकतम सीमा निश्चित किये जाने के बाद भी घुमा-फिराकर आरक्षण का प्रतिशत बढ़ाये जाने का खेल चलता रहता है। नियुक्तियों में आरक्षण के बाद जब पदोन्नति में आरक्षण का फैसला हुआ तब यह अनारक्षित जातियों की नाराजगी का कारण बन गया। अपने परम्परागत मतदाताओं को संतुष्ट करने के लिए मोदी सरकार ने आरक्षण के लाभ से वंचितों के लिए आर्थिक आधार पर 10 फीसदी आरक्षण देने की व्यवस्था भी की जिसका लाभ भाजपा को लोकसभा चुनाव में मिला भी लेकिन उसके साथ ही ये मांग भी उठने लगी कि आरक्षण का आधार जाति की बजाय आर्थिक स्थिति को बनाया जावे। सर्वोच्च न्यायालय के ताजे फैसले में चूँकि आरक्षण को मौलिक अधिकार मानने से मना कर दिया गया इसलिए अब आरक्षण समर्थक इसे मौलिक अधिकारों में शामिल करने का दबाव बनायेंगे। कांग्रेस नेता श्री खडग़े ने तो उसकी मांग भी कर दी। जहां तक बात संविधान की है तो उसके रचयिता डा. भीमराव आम्बेडकर ने आरक्षण को एक अस्थायी व्यवस्था माना था। वरना वे उसी समय उसे मौलिक अधिकारों की सूची में शामिल करवा देते तो कोई उनका हाथ पकडऩे वाला नहीं था। जब-जब आरक्षण की समय सीमा बढ़ाई गई तब-तब संसद में किसी ने भी उसका विरोध नहीं किया। रास्वसंघ प्रमुख डा. भागवत भी बिहार के झटके के बाद अनेक मर्तबा दोहरा चुके हैं कि जब तक आरक्षण का उद्देश्य पूर्ण न हो तब तक उसे जारी रखा जाए। ताजा फैसले के परिप्रेक्ष्य में विचारणीय बात ये है कि सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयों को लेकर भी मीठा-मीठा गप और कड़वा-कड़वा थू वाली प्रवृत्ति राजनेताओं की मानसिकता पर हावी हो चुकी है। यदि सर्वोच्च न्यायालय आरक्षण को मौलिक अधिकार बता देता तो उसकी जय-जयकार हो रही होती। संसद द्वारा भारी बहुमत से पारित फैसले को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती देते समय जो लोग उसकी निष्पक्षता और अधिकार सम्पन्नता का सम्मान करते दिखते हैं वे ही फैसला मनमाफिक नहीं आने पर उसे संसद में बदलने की मांग उठाने से बाज नहीं आते। आजादी के सात दशक बीत जाने पर भी आरक्षण प्राप्त एक बड़ा वर्ग यदि अब भी सामजिक और आर्थिक दृष्टि से वंचित है तो इस बात पर विचार होना चाहिए कि आरक्षण की व्यवस्था में कमी कहाँ रह गई? सर्वोच्च न्यायालय ने तो क्रीमी लेयर का सवाल उठाकर आरक्षण से लाभान्वित तबके को आगे लाभ नहीं मिलने जैसी बात भी कही थी लेकिन उसका भी विरोध हो गया। ये सब देखते हुए आरक्षण के बारे में ये कहना गलत नहीं होगा कि दर्द बढ़ता गया ज्यों-ज्यों दवा दी। आरक्षण का मकसद बहुत ही पवित्र था। सदियों से उपेक्षित और दलित समाज के हिस्से को मुख्यधारा में शामिल किये जाने के लिए की गई अंतरिम व्यवस्था पूरी तरह कारगर नहीं हुई तो उसके कारण तलाशना समय की मांग है। जिस तरह किसी मरीज को सदैव के लिए जीवन रक्षक उपकरणों के सहारे जीवित नहीं रखा जा सकता उसी तरह आरक्षण भी है। यदि डा. आम्बेडकर को आभास होता कि उनकी नेकनीयती को आधार बनाकर वोटों की फसल काटी जायेगी तब वे भी शायद कोई और व्यवस्था करते। जाति की लकीरें मिटने की बजाय गहरी होती जाने का ही नतीजा है कि कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी के संत रैदास जयन्ती पर उनके मन्दिर जाने पर बसपा प्रमुख मायावती को ऐतराज हुआ। आरक्षण को मौलिक अधिकार बनाने की मांग पूरी होने के बाद जाति विहीन समाज की कल्पना बेमानी होकर रह जायेगी।

- रवीन्द्र वाजपेयी

No comments:

Post a Comment