Saturday 1 February 2020

घोषणापत्र : घूस का वैधानिक तरीका



केन्द्रीय बजट पेश होने के एक दिन पहले ही भाजपा ने दिल्ली विधानसभा चुनाव के लिये अपना संकल्प पत्र जारी करते हुए सौगातों की बौछार कर डाली। इनमें छात्राओं को मुफ्त स्कूटी, बेटी को 21 साल की होने पर 2 लाख रु. और गरीबों को 2 रु. प्रति किलो की कीमत पर शुद्ध आटा देने का वायदा है। केजरीवाल सरकार द्वारा दी जा रही पेयजल और बिजली की सब्सिडी यथावत रखने की बात भी संकल्प पत्र में शामिल है। समाज के बाकी तबकों को लुभाने वाले कुछ और वायदे भी संकल्प पत्र का हिस्सा हैं। चूँकि मुफ्त उपहार अब भारतीय चुनावी राजनीति का स्थायी हिस्सा बन चुके हैं इसलिए दिल्ली में भाजपा संगठन के कर्ताधर्ताओं को इसके लिए कसूरवार नहीं ठहराया जा सकता किन्तु सवाल ये है कि देश की राजधानी में भी यदि इस तरह के लालच देने पड़ते हों तब सुदूर हिस्सों में मतदाताओं को आकर्षित करने के लिए क्या-क्या करना पड़ता होगा ये विश्लेषण का विषय है। आजादी के बाद जब चुनाव शुरू हुए तब ये बात सुनाई देती थी कि फलां प्रत्यशी ने शराब और कम्बल बांटे। किसी जाति विशेष को प्रभावित करने के लिए उनके संगठनों को सामान आदि देने की बातें सामने आती थीं। मतदाताओं पर नियंत्रण रखने वाले बाहुबलियों को खुश रखना भी चुनावी राजनीति का हिस्सा था। मतदाताओं को मतदान केंद्र तक ढोकर लाने के लिए वाहन उपलब्ध करवाना भी आम था। धीरे-धीरे चुनाव आयोग की सख्ती और सुधारवादी कदमों की वजह से उक्त तौर-तरीकों में ये बदलाव हुआ कि जो काम खुले आम होता था वह छुपाकर होने लगा। और उसकी जगह वैधानिक घूसखोरी आ गयी जिसे चुनावी घोषणा पत्र या संकल्प अथवा वचन पत्र का नाम दिया जाने लगा। इसकी शुरुवात किसने की ये भले ही शोध का विषय हो लेकिन आज की भारतीय राजनीति इसके बिना संभव नहीं रही। किसी भी लोक कल्याणकारी शासन व्यवस्था में आम जनता के हितों का संरक्षण शासक का कर्तव्य होता है। राजतंत्र के दौर में भी जो लोकप्रिय शासक हुए उन सबने जनता के हितार्थ अपने खजाने खोले। उस दृष्टि से यदि हमारे देश की राजनीतिक जमातें और उनके नेता चुनाव में मतदाताओं को मुफ्त में कुछ देने का वायदा करते हैं तो उसे गलत ठहराना आसान नहीं होता। प्रजातंत्र की समूची परिकल्पना आखिर है तो जनकल्याण पर केन्द्रित ही। जिन-जिन देशों में जनतांत्रिक प्रणाली सफलतापूर्वक संचालित हो रही है वहां भी जनता के कल्याण के लिए सरकार दिल खोलकर खर्च करती है। शिक्षा, स्वास्थ्य, सार्वजनिक परिवहन, आमोद प्रमोद जैसे विषय सरकार की सर्वोच्च प्राथमिकता में होते हैं। चुनाव के दौरान वहां भी मतदाताओं को लुभाने के लिए अनेक नीतियों और कार्यक्रमों की घोषणा होती है। लेकिन हमारे देश में उसका स्वरूप बेहद घटिया हो गया है। मतदाता को एक तरह से उपभोक्ता मानकर जिस तरह के ऑफर दिए जाने लगे हैं उनकी वजह से चुनावों की पवित्रता नष्ट हुई जिसका दुष्परिणाम अंतत: अर्थव्यवस्था का कचूमर निकलने के तौर पर सामने आ रहा है। जिन राज्यों में सत्ताधीशों ने मुफ्तखोरी को अपनी राजनीति का आधार बनाया वे सत्ता में बने रहने में भले सफल रहे हों लेकिन उनकी अर्थव्यवस्था चौपट हो गई। दिल्ली में केजरीवाल सरकार ने बिजली-पानी पर जो सब्सिडी दी उससे लोगों को फायदा जरुर हुआ लेकिन दिल्ली सरकार के खजाने पर जो असर पड़ा उसके दूरगामी नुकसान सामने आने बाकी हैं। महानगर होने से दिल्ली में करों से भरपूर आय होती है लेकिन बाकी राज्यों के पास राजस्व वसूली के उतने स्रोत नहीं होने से वहां का आर्थिक प्रबंधन मुफ्तखोरी की वजह से बुरी तरह प्रभावित हो रहा है। आम जनता के नजरिये से देखें तो ऐसी योजनाएं स्वागतयोग्य हैं लेकिन उनको लागू करने की लिए राज्यों की सरकारें लगातार कर्ज लेती जा रही हैं। उनके भुगतान हेतु उन्हें नये कर लगाने पड़ते हैं। पेट्रोल और डीजल इसके उदहारण हैं। आजकल लगभग हर राजनीतिक दल चुनावों के दौरान किसानों को मुफ्त या सस्ती बिजली के अलावा उनके ऋण माफ करने जैसा वायदा करने में नहीं हिचकता। राहुल गांधी जैसे नेता तो चुनाव प्रचार के दौरान सत्ता में आते ही दस-पंद्रह दिन के भीतर किसानों के कर्ज माफ करने का दावा करने से नहीं चूकते। इसका फायदा भी उनकी पार्टी को मिलता है लेकिन सत्ता में आने के बाद इस वायदे को पूरा करने में जो व्यावहारिक परेशानियां आती हैं उनकी जानकारी मप्र, राजस्थान, पंजाब और छत्तीसगढ़ के कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों से ली जा सकती है। दिल्ली में भाजपा ने स्कूटी और 2 रु. प्रति किलो की कीमत पर आटा देने का जो वायदा किया वह नई बात नहीं है। जिन राज्यों में उसका शासन रहा वहां भी सस्ते अनाज, मुफ्त सायकिल, लड़कियों के खाते में जन्म पर ही एक लाख रु. और मुफ्त शिक्षा जैसे कार्यक्रम चलाये गए लेकिन उसके बाद भी 2018 में पार्टी को अपने ऐसे कुछ राज्य गंवाने पड़ गए जहां वह 10 साल से भी ज्यादा सत्ता में रही। बावजूद इसके मुफ्तखोरी को बढ़ावा देकर चुनाव जीतने की प्रवृत्ति से बचने की बजाय उसे नये रूप में लागू करना ये दर्शाता है कि हमारी राजनीति दिशाहीन हो चुकी है। नब्बे के दशक में जातिवादी राजनीति का नया रूप सामने आया था उसके कारण सरकारी नौकरियों में आरक्षण को नई-नई पैकिंग में पेश किया जाने लगा। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा तय की गई सीमा रेखा को लांघने का दुस्साहस भी हुआ। इसका जो चुनावी लाभ हुआ वह अपनी जगह है लेकिन सरकार ने नौकरियां बाँटने से ही ही परहेज करते हुए निजीकरण का रास्ता अपना लिया। राजनीतिक फैसलों का प्रत्यक्ष या परोक्ष प्रभाव अर्थव्यवस्था पर पड़ता ही है। आज देश जिस तरह के आर्थिक भंवर में फंसा है उसके लिए मुफ्त उपहार वाली राजनीति काफी हद तक जिम्मेदार है। गरीबों का उत्थान हर तरह से होना चाहिए लेकिन चुनाव जीतने के लिए मुफ्त उपहार बांटने की इस संस्कृति का कहीं न कहीं तो अंत करना ही पड़ेगा। सर्वोच्च न्यायालय और चुनाव आयोग दोनों ही घोषणापत्र के नाम पर दी जाने वाली सौगातों पर दबी जुबान सवाल उठा चुके हैं। चुनाव सुधारों को लेकर होने वाली चर्चाओं में भी ये विषय उठता है लेकिन राजनीतिक दलों को इसकी चिंता कतई नहीं है। ऐसा लगता है सर्वोच्च न्यायालय को ही कुछ करना पड़ेगा। चुनाव प्रचार के दौरान किसी भिखारी को प्रत्याशी द्वारा कुछ रूपये दिए जाने पर आचार संहिता के उल्लंघन का प्रकरण दर्ज हो जाता हैं लेकिन घोषणापत्र के जरिये खुले आम लालच दिए जाने को गलत नहीं मानना मजाक नहीं तो और क्या है?

-रवीन्द्र वाजपेयी

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