Thursday 13 February 2020

चीन का संकट भारत के लिए वरदान




हर संकट कुछ न कुछ सिखाता और देकर जाता है। ये बात व्यक्ति और देश दोनों पर लागू होती है। 1962 के चीनी आक्रमण के बाद भारत ने अपने रक्षा उत्पादन के साथ ही सीमा पर अधो  संरचना के विकास पर ध्यान देना शुरू किया। आज भारत रक्षा उपकरणों के मामले में भले ही पूरी तरह आत्मनिर्भर नहीं हुआ हो लेकिन मिसाइलें, तोपें, गोला बारूद, छोटे युद्धक विमान जैसी चीजों के उत्पादन में काफी प्रगति हुई है। ब्रह्मोस जैसी मिसाइल तो निर्यात भी होने लगी है। सीमाओं पर आवाजाही के पर्याप्त साधन और सुविधाएं विकसित करते हुये सियाचिन जैसे दुर्गम इलाके तक नियमित आपूर्ति और आवाजाही की समुचित व्यवस्था कर ली गयी है। इसी तरह सत्तर के दशक में अन्न संकट के बाद देश में हरित क्रांति का विचार आया और धीरे-धीरे भारत अन्न उत्पादन में आत्म निर्भरता हासिल कर सका। यद्यपि अभी भी दलहन और तिलहन का आयात करना पड़ता है किन्तु किसी भी आपदा के बावजूद देश में खाद्यान्न का भरपूर भण्डार होना मानसिक सुरक्षा प्रदान करता है। जरूरतों के मद्देनजर  भविष्य के लिए तैयारी करने के फायदे अन्य क्षेत्रों में भी हुए। आज का भारत साफ्टवेयर और अन्तरिक्ष के क्षेत्र में विश्वस्तरीय हैसियत अर्जित कर चुका है। लेकिन बीते दो-तीन दशक के दौरान मैन्युफेक्चरिंग सेक्टर में काफी कमी आई। विशेष रूप से उदारीकरण के बाद ज्योंही भारत के द्वार विदेशी सामानों के लिए खुले त्योंहीं सस्ता चीनी माल घरेलू बाजार में छा गया। सुई से लेकर तो दवाइयां, फर्नीचर, खिलौने, इलेक्ट्रानिक्स और  बिजली का सामान, मशीनें, हार्डवेयर, वाहनों के कल पुर्जे, सेनेटरी फिटिंग्स जैसी अनगिनत चीजें चीन से धड़ल्ले से आयात की जाने लगीं। शुरू-शुरू में तो इनका आयात लाभप्रद लगा लेकिन जल्दी ही ये बात सामने आने लगी कि सस्ते चीनी सामान ने हमारे घरेलू उद्योग की कमर तोड़कर रख दी। चूंकि भारत में उत्पादन लागत अपेक्षाकृत ज्यादा पड़ती थी इसलिए यहाँ बनी वस्तुएं महंगी होने से चीनी माल के सामने मात खा गईं। हालांकि उसमें गुणवत्ता नहीं होने के बाद भी कम दाम की वजह से उपभोक्ता बाजार पर उसका कब्जा हो गया। जिस चीन को आम भारतीय दुश्मन मानता था वही हमारा सबसे बड़ा व्यापारिक भागीदार बन बैठा लेकिन ये रिश्ता इकतरफा कहा जा सकता है क्योंकि आपसी व्यापार पूरी तरह असंतुलित है। मसलन हम जितना आयात चीन से करते हैं उसका बहुत छोटा हिस्सा निर्यात किये जाने से व्यापार घाटा खतरनाक स्तर तक जा पहुंचा। लेकिन घरेलू उद्योगों के चौपट हो जाने से चीन से आयात जरूरत से भी बढ़कर तो मजबूरी बन गयी। विश्व व्यापार संगठन से बंधे होने से आयात को पूरी तरह रोना संभव नहीं रहा। ज्यादा से ज्यादा चीनी माल पर आयात शुल्क बढ़ाकर उसकी आवक को नियंत्रित किया जा सकता है जैसा ताजा बजट में  केंद्र सरकार ने किया भी लेकिन उस सम्बन्ध में भी ज्यादा कुछ किये जाने की गुंजाइश नहीं है। अचानक ऐसी परिस्थिति उत्पन्न हो गयी जिसमें भारत अपने मृतप्राय घरेलू उद्योग धंधों को संजीवनी देकर पुनर्जीवित कर सकता है। चीन में कोरोना वायरस नामक संकट की वजह से वहां का पूरा जनजीवन अस्तव्यस्त हो गया है। बड़ी आबादी घरों में बंद है। हजारों की संख्या में मौतों की वजह से भय का माहौल है। लाखों लोग संक्रमित होने से स्वास्थ्य सेवाएँ चरमरा गईं हैं। औद्योगिक उत्पादन ठप होने से चीन का विदेशी व्यापार भी गड़बड़ा गया है। चीनी सामान के साथ कोरोना वायरस के विषाणु आ जाने के डर से वहां से आयात बंद कर दिया गया। न कोई चीन जा रहा है और न ही चीनियों को अपने यहाँ आने दे रहा है। भारत के आटोमोबाइल क्षेत्र में कल पुर्जों की कमी हो गई है। बनारसी साडिय़ों के कारोबार में भी सिल्क का आयात रुकने से परेशानी हो रही है। उपभोक्ता सामानों का आयात अवरुद्ध  हो जाने से व्यापारी परेशान हैं। आज खबर आ गई कि चीन से  दवाइयां नहीं आने से देश में दवा संकट पैदा हो सकता है। अप्रैल तक का स्टाक तो है लेकिन कोरोना संकट आगे भी खिंचा तो  भारत में  बनने वाली दवाइयों के लिए भी जरूरी कच्चा माल चीन से न आने के कारण घरेलू दवा उद्योग बीमार होने के कगार पर आ सकता है। कुल मिलाकर कोरोना वायरस ने चीन को तो बुरी तरह से हलाकान किया है। लेकिन भारत जैसे देश की अर्थव्यवस्था और जनजीवन पर भी इसका सीधा असर होने लगा है। ऐसे में बजाय हाथ पर हाथ धरे बैठे रहने के इस अवसर का लाभ लेते हुए देश में उत्पादन क्रांति लाने की तैयारी की जानी चाहिए। हालाँकि ये काम रातों-रात नहीं हो सकता लेकिन अतीत में ऐसे ही विपरीत हालातों में हौसले के साथ आगे बढऩे के कारण भारत ने अनेक क्षेत्रों में आत्मनिर्भरता अर्जित की जिससे हमारा अर्थतंत्र सुदृढ़ हुआ। चीन को इस संकट से उबरने में लम्बा समय लगेगा। अनेक बहुराष्ट्रीय कम्पनियां चीन से पलायन करने की तैयारी कर रही हैं। भारत को ये अवसर लपक लेना चाहिए। स्वदेशी उद्योगों को अधिकतम प्रोत्साहन देकर हम चाहें तो अर्थव्यवस्था की सुस्ती दूर करते हुए बेरोजगारी की समस्या को भी काफी हद तक हल कर सकते हैं। हरित क्रांति की तरह से ही औद्योगिक उत्पादन क्रान्ति का महत्वाकांक्षी कार्यक्रम चलाकर भारत दक्षिण एशिया के छोटे-छोटे देश वियतनाम, थाईलैंड, मलेशिया, बांग्ला देश से आगे निकल सकता है जिन्होंने बीते दो दशक के भीतर जबर्दस्त तरक्की कर ली। लेकिन इसके लिए हमारे सरकारी तंत्र को ढर्रे से बाहर निकलना होगा। केंद्र और राज्य सरकारें निवेशकों के लिए लाल कालीन बिछाने के लिए तो सदैव तैयार रहती हैं लेकिन जब वे उद्योग लगाने आते हैं तब उनको खून के आंसू रुलाये जाते हैं। विदेशी निवेशकों को तो देवदूत मानकर उनकी आवभगत की जाती है लेकिन बड़े धनकुबेरों को छोड़ दें तो छोटा कारोबारी सरकारी चक्की में पिस जाता है। चीन का वर्तमान संकट लम्बा असर छोड़कर जाने वाला है। भारत के लिए ये प्रकृति प्रदत्त स्वर्णिम अवसर है। हमारे राजनेता चाहे केंद्र के हों या राज्यों के यदि इस समय ईमानदारी से औद्योगिक उत्पादन क्रान्ति का बिगुल फूंके तो आने वाले कुछ वर्षों में भारत का उद्योग व्यापार चीन को टक्कर देने की स्थिति में आ सकता है। जैसा प्रारंभ में कहा गया हर संकट कुछ न कुछ सबक देकर जाता है। भारत को चाहिए वह इच्छाशक्ति और निर्णय क्षमता का परिचय देकर आगे बढ़े क्योंकि ऐसे मौके बार-बार नहीं आते।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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