Thursday 30 June 2022

बिना पद के भी पिता अभूतपूर्व थे किन्तु सत्ता पाकर भी बेटा भूतपूर्व रह गया




शिवसेना के संस्थापक बाल ठाकरे ने कभी मंत्री , सांसद , विधायक बनने की नहीं सोची | इसीलिये वे सत्ता में  आये बिना भी अभूतपूर्व बने रहे और आज भी विरोधी तक उनका लोहा मानते हैं | लेकिन महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री पद से कल रात  हटने मजबूर हुए उनके बेटे उद्धव ठाकरे केवल भूतपूर्व ही रहेंगे | जब उन्होंने राकांपा और कांग्रेस के साथ बेमेल गठबंधन कर मुख्यमंत्री पद हासिल किया तब  लग रहा था कि पिता की तेजस्विता के अनुरूप वे सत्ता चलाएंगे लेकिन अपने ही सैनिकों से हारकर सत्ता छोड़ते समय उद्धव जिस तरह निरीह नजर आये उसे देखकर किसी को नहीं लगा कि उनमें अपने स्वर्गीय पिता का कोई भी गुण है | जब एकनाथ शिंदे ने बगावत का बिगुल बजाया तब शुरुवात में उद्धव और उनके बड़बोले प्रवक्ता संजय राउत पहले तो बागियों से बात करने की गुजारिश करते दिखे | संजय को ये कहते तक सुना गया कि न एकनाथ , शिवसेना  को छोड़ेंगे और न ही शिवसेना , एकनाथ को | इसके बाद जब बागियों का कुनबा सूरत से गुवाहाटी जा पहुंचा तब श्री राउत ने उन्हें मुम्बई आकर श्री ठाकरे के सामने बैठकर शिकवे – शिकायत करने की समझाइश देते हुए ये आश्वासन तक दे डाला कि यदि बागी चाहेंगे तो शिवसेना राकांपा और कांग्रेस के साथ गठबंधन से अलग हटने राजी है | इसी के साथ उद्धव ने भी अत्यंत विनम्रता पूर्वक बागियों को सन्देश दिया कि वे चाहेंगे तो मुख्यमंत्री पद छोड़ दूंगा | लेकिन उसके बाद श्री राउत बदजुबानी पर उतर आये और श्री शिंदे के साथ गुवाहाटी में बैठे विधायकों को मुर्दा बताते हुए मुम्बई आने पर पोस्ट मार्टम करवाने जैसी बात कर बैठे | उन्होंने यहाँ तक कहा कि शिवसैनिक भड़क गये तो आग लग जायेगी | उधर उद्धव के बेटे आदित्य ने बागी विधायकों को ये कहकर डराया कि मुम्बई हवाई अड्डे से आने पर उनको वरली और बांद्रा इलाके से गुजरना होगा जो उनके प्रभाव वाले माने जाते हैं | यह भी एक तरह की धमकी ही थी | लेकिन इस सबके बावजूद उद्धव  , बाल ठाकरे वाले  रुतबे को कायम नहीं रख पाए और  उन शरद पवार की चरण वंदना करते रहे जिनको बाला साहेब , दाउद  इब्राहीम का संरक्षक मानते थे | जिस कांग्रेस और सोनिया गांधी के प्रति गत दिवस उद्धव ने आभार जताया उनके बारे में भी अपने  पिता के विचारों को उन्होंने भुला दिया | कुल मिलाकर महाराष्ट्र में बीते ढाई साल में जो अप्राकृतिक  गठबंधन सरकार में रहा  वह ठीक उसी तरह का था जैसा भाजपा और पीडीपी ने जम्मू कश्मीर में बनाया था | यद्यपि उस सरकार को गिराने के बाद धारा 370 को विलोपित करने और जम्मू कश्मीर से  लद्दाख को अलग करने जैसे निर्णयों से भाजपा ने अपने उस कदम  को रणनीति का नाम देकर अपना पाप धो लिया । लेकिन बाला साहेब की इच्छाओं के विरूद्ध श्री पवार और सोनिया गांधी का सहारा लेकर उद्धव ने सरकार क्यों बनाई इसका कोई ठोस कारण उनके पास नहीं है, सिवाय इसके कि येन - केन – प्रकारेण मुख्यमंत्री बनना था चाहे इसके लिए पार्टी के मौलिक सिद्धांतों से समझौता ही किया जाए | यदि उद्धव राकांपा और कांग्रेस को अपनी नीतियों में ढालते तब यह प्रयोग उनकी राजनीतिक सफलता माना जाता लेकिन मुख्यमंत्री रहने के बाद भी शिवसेना अपने मूल एजेंडे को रत्ती भर भी लागू नहीं कर  सकी | परिणाम ये निकला कि उद्धव नाममात्र के मुख्यमंत्री बने रहे लेकिन सत्ता का असली संचालन श्री पवार के द्वारा किया जाता रहा और यही एकनाथ शिंदे की नाराजगी की वजह बना | उससे भी बड़ी बात ये रही कि उद्धव में मुख्यमंत्री बनने का कोई गुण था ही नहीं | वे अपने बेटे आदित्य को उस कुर्सी पर बिठाकर बालासाहेब की भूमिका में रहना चाहते थे लेकिन श्री पवार और कांग्रेस उस हेतु तैयार नहीं थे लिहाजा उन्हें वह पद ग्रहण करना पड़ा | उनकी कार्यप्रणाली में भी ये देखने मिला जब पूरे कार्यकाल में वे राज्य सचिवालय में कभी – कभार ही गए | उनके लिए अच्छा होता यदि  वे एकनाथ की बगावत को रोकने के लिए शिवसेना को महाविकास अगाड़ी नामक गठबंधन से बाहर निकालकर भाजपा से दोबारा रिश्ता जोड़ते और खुद बाल साहेब की तरह  किंग मेकर की भूमिका में रहते | ऐसा करने से पार्टी की टूटन भी बचती और सरकार के साथ शिवसेना का नाम भी जुड़ा रहता | लेकिन बीते ढाई साल में ये साबित हो गया कि उद्धव बिना रीढ़ वाले नेता हैं जो ठोस दृष्टिकोण नहीं होने से श्री पवार और श्री राउत द्वारा चले गये पांसों पर दांव लगाते गए और आखिर में बड़े बे आबरू होकर  कूचे से बाहर निकलने  मजबूर हो गए | एकनाथ शिंदे को चाहे गद्दार कहा जाए या अवसरवादी लेकिन उनहोंने जो मुद्दे उठाये उनका समुचित जवाब न उद्धव और आदित्य दे सके और न ही संजय राउत | शिवसेना ने भाजपा के बड़ी   पार्टी होने के बावजूद उसका साथ छोड़कर अपने जन्मजात विरोधी शरद पवार और कांग्रेस के अलावा समाजवादी पार्टी जैसी मुस्लिम परस्त पार्टी के समर्थन से अपना  मुख्यमंत्री बनवाने की जिद क्यों पकड़ी इसका कोई वाजिब कारण आज तक वह स्पष्ट नहीं कर सकी | उल्लेखनीय है महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के परिणाम आने के साथ ही श्री राउत ने ये कहना शुरू कर दिया था कि उनके पास और भी विकल्प हैं | बाला साहेब और प्रमोद  महाजन के बीच दोनों दलों का गठबंधन होते समय ही ये तय हो चुका था कि राज्य में जिसके पास ज्यादा सीटें होंगी मुख्यमंत्री पद भी उसी के पास रहेगा | इसी के तहत जब तक शिवसेना बड़ी पार्टी रही सरकार का नेतृत्व उसे मिला | लेकिन 2014 में जब अलग – अलग लड़ने के बाद  भाजपा आगे  निकल गई तब शुरुवात में तो शिवसेना ने नखरे दिखाए किन्तु बाद में वह देवेन्द्र फड़नवीस को मुख्यमंत्री स्वीकार कर सरकार में आ गयी | लेकिन उसकी तल्खी बनी रही जिसे श्री राउत जैसे नेता हवा देते रहे | अंततः 2019 के चुनाव के बाद गठबंधन टूटा और शिवसेना एनडीए से भी अलग हट गई जिससे केंद्र सरकार में उसके मंत्री ने भी इस्तीफ़ा दे दिया | और फिर  शरद पवार द्वारा फेंके गए जाल में उद्धव फंस गये जिसका नतीजा ये निकला कि आज न उनके हाथ सरकार रही और न ही सिद्धांतों की पूंजी | यदि वह सरकार से बाहर रहकर भी भाजपा के साथ खड़े रहते तो उसका हिंदुत्व के प्रति आग्रह प्रमाणित होता | जाहिर है जाते – जाते उद्धव को अपराधबोध का एहसास हुआ और  उन्होंने औरंगाबाद का नाम संभाजी नगर और उस्मानाबाद का धाराशिव कर दिया जिससे नाराज होकर मुस्लिम मंत्री बैठक से बाहर आ गये और सपा विधायक अबू आजमी ने भी उद्धव को आढे हाथ लिया | इस्तीफे का ऐलान करते समय उन्होंने बड़े ही कातर भाव से कहा कि सत्ता भले चली गई किन्तु  उनके पास शिवसेना है और वे विधान परिषद की सदस्यता त्यागकर शिवसेना कार्यालय में बैठेंगे | लेकिन उन्हें ये याद रखना चाहिए कि अब न तो वह शिवसेना बची जिसके वे बेताज बादशाह हुआ हुआ करते थे और न ही उनकी आवाज में हिंदुत्व की हुंकार | 

-रवीन्द्र वाजपेयी

Wednesday 29 June 2022

इस जघन्यतम अपराध की सजा मौत से कम नहीं हो सकती



राजस्थान के उदयपुर शहर में  कन्हैया नामक एक दर्जी ने 10 दिन पहले भाजपा से निलंबित नूपुर शर्मा के समर्थन  में व्हाट्स एप पर अपने विचार पोस्ट किये थे | उस पर उसे कुछ मुसलमानों ने धमकियां  दीं जिनकी नामजद रिपोर्ट उसने पुलिस में की | भयवश लगभग एक सप्ताह उसने दूकान बंद रखी | उसे पुलिस सुरक्षा दिए जाने की बात भी सुनने में आई जिसे बाद में हटा लिया गया | शायद हत्यारे इसी की प्रतीक्षा में रहे होंगे | गत दिवस दोपहर के समय दो मुस्लिम युवक आये और पायजामा सिलवाने के लिए उनमें से एक नाप देने लगा जबकि दूसरा उसका वीडियो बनाने में जुट गया | अचानक नाप दे रहे युवक ने धारदार हथियार से कन्हैया पर हमला किया और अंततः उसे मारकर दोनों भाग निकले | उसके बाद उनके द्वारा जारी एक वीडियो में अपने कृत्य को स्वीकार करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और नूपुर शर्मा के साथ भी वैसा ही करने की धमकी दी गई | इस घटना की खबर फैलते ही उदयपुर सहित पूरे राजस्थान और फिर देश भर में गुस्सा व्याप्त हो  गया | राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के घटना की निंदा करने के बाद किसी कार्यक्रम  के सिलसिले में जोधपुर चले जाने से भी लोगों की नाराजगी बढ़ी | बयानों और आलोचनाओं का दौर शुरू हो गया | गहलोत सरकार पर मुस्लिम तुष्टीकरण का आरोप लगाते हुए भाजपा आक्रामक हो उठी | घटना इतनी दहला देने वाली थी कि जो मुस्लिम धर्मगुरु और संगठन नूपुर शर्मा के विरुद्ध आग उगलते आ रहे थे उन्हें भी मजबूरी में हत्यारों की आलोचना करनी पड़ी | वहीं मुस्लिमों के नए मसीहा बन रहे असदुद्दीन ओवैसी ने कानून के राज की वकालत कर डाली | लेकिन असहिष्णुता के नाम पर मोमबत्ती जुलूस निकालने वाले  बुद्धिजीवी न जाने कहाँ दुबके बैठे हैं ? यदि यही वारदात किसी मुस्लिम के साथ घटी होती तो उनके द्वारा अब तक आसमान सिर पर उठा लिया जाता | कहने को तो राहुल गांधी और प्रियंका वाड्रा ने भी घटना की निंदा की लेकिन राजस्थान में कानून - व्यवस्था की खराब स्थिति के बारे में कुछ नहीं कहा |  बीते दिनों करौली में हुए दंगों के अपराधियों के विरुद्ध यदि गहलोत सरकार कड़ाई से पेश आती तब शायद कट्टरपंथियों के हौसले इस हद तक बुलंद नहीं होते | गत दिवस भी श्री गहलोत बजाय उदयपुर के जोधपुर चले गए जो इस बात का सूचक है कि इतनी बड़ी घटना के प्रति उनका रवैया कितना गैर जिम्मेदाराना था | कन्हैया की हत्या कोई साधारण अपराध नहीं है | हत्यारों ने अपने जुर्म और मकसद दोनों को खुद होकर उजागर कर दिया | ऐसे में अब उन्हें साधारण सजा देने की बजाय  इस तरह से दण्डित किया जाना चाहिए जिससे कि आगे कोई ऐसी हिम्मत न करे | जिन युवकों ने गुस्ताखे  नबी की एक सजा , सिर तन से जुदा का नारा लगाते हुए अपने कृत्य का हँसते हुए बखान किया उन्होंने इस्लाम का तालिबानी रूप देश के सामने रखा है | ऐसे में यदि उनको चौराहे पर तालिबानी शैली में फंसी दी जाए तो फिर ओवैसी जैसों को ऐतराज नहीं करना चाहिए | हालाँकि हमारे देश में इस तरह के हत्यारे के साथ  भी विधि सम्मत मानवीय व्यवहार किया जाता है किन्तु इस मामले में कुछ अलग हटकर किया जाना जरूरी है | भले ही उन दोनों युवकों को इस्लामी तरीके से सजा न दी जाए लेकिन जब उन्होंने खुद होकर अपना अपराध सार्वजनिक तौर पर स्वीकार कर लिया है तब उनको लम्बी कानूनी प्रक्रिया की बजाय विशेष अदालत बनाकर शीघ्रातिशीघ्र फांसी दी जानी चाहिए  | देखने वाली बात ये होगी कि इस्लाम के नाम पर किसी की गर्दन रेत देने जैसी  हैवानियत करने वालों  के बचाव  के लिये कौन – कौन सामने आता है और कौन से वकील इन हत्यारों को बेगुनाह साबित करने अदालत में खड़े होते हैं | वैसे जिन दो मुस्लिम युवकों ने कन्हैया की हत्या करने के बाद हँसते हुए वीडियो जारी किया वे अव्वल दर्जे के कायर हैं वरना घटनास्थल से भागते नहीं | निश्चित रूप से ये इस्लाम के नाम पर फैलाये जा रहे आतंकवाद का ही रूप  है जो तालिबानी मानसिकता से प्रेरित होकर भारत में पांव ज़माने की फिराक में है | रही बात मुस्लिम समाज की तो यदि वह इस मानसिकता को ख़ारिज करता है तो उसे कन्हैया के कातिलों को सजा ए मौत की मांग करते हुए वैसा ही कड़ा रवैया दिखाना चाहिए जैसा नूपुर शर्मा के बारे में उसका रहा | कन्हैया को मारने वाले पेशेवर अपराधी न होकर धर्मांध मुस्लिम लगते हैं | उनका किसी आतंकवादी संगठन से सम्बन्ध है कि नहीं ये जांच एजेंसियां पता करेंगीं किन्तु जन अपेक्षा है उन दोनों के विरुद्ध दंड प्रक्रिया में तेजी लाने हेतु विशेष अदालत गठित की जावे | वे अपना अपराध चूंकि स्वीकार कर चुके हैं जो जघन्यतम की श्रेणी में आता है इसलिए अब उनके पास बचाव की कोई गुंजाईश नहीं बची | बेहतर यही होगा कि बजाय अदालती प्रक्रिया बरसों – बरस खींचकर उन्हें महानायक बनने का  अवसर देने के ,  इस पाप की माकूल सजा अविलम्ब दी जावे जो कि फांसी से कम नहीं  हो सकती | जब तक ऐसी वारदातों को अंजाम देने वालों को जल्द कड़े से कडा दंड देने की व्यवस्था नहीं होगी तब तक इस मानसिकता को रोकना संभव नहीं होगा | मुस्लिम  समाज के  लिए भी ये घटना बड़ा सबक है | यदि वह इसका  विरोध करने में संकोच करेगा तो फिर उसकी नीयत पर भी संदेह उत्पन्न हुए बिना नहीं रहेगा |

-रवीन्द्र वाजपेयी

Tuesday 28 June 2022

नशामुक्त गाँव : कल्पना तो अच्छी है लेकिन ....



म.प्र के  मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान का जनता से सीधा जुडाव ही उनकी राजनीतिक सफलता का आधार है | समाज के सभी वर्गों से वे समय – समय पर जिस प्रकार संवाद करते हैं उसका बहुत ही सकारात्मक प्रभाव पड़ता है |  गत दिवस उन्होंने  प्रदेश भर में निर्विरोध जीतकर आये पंचों और सरपंचों का भोपाल में स्वागत किया और उनसे ग्रामीण  क्षेत्रों की समरस पंचायतों  में नशा मुक्ति हेतु सार्थक प्रयास करने कहा | इसके लिए उन्होंने आपससी बातचीत और प्रेरणास्पद आयोजनों की सलाह देते हुए आश्वासन दिया कि पूरी तरह नशामुक्त गाँव को दो लाख का पुरस्कार दिया जावेगा | श्री चौहान के अलावा पूर्व मुख्यमंत्री उमाश्री भारती भी शराब की बिक्री के विरुद्ध बेहद आक्रामक हैं | कुछ  दुकानों में  तो वे तोड़फोड़ तक कर चुकी हैं | उनके द्वारा चलाये जा रहे शराब बंदी आन्दोलन को हालाँकि भाजपा की तरफ से किसी भी प्रकार का समर्थन  नहीं मिला परन्तु  तोड़फोड़ पर उनके विरुद्ध किसी भी तरह की कार्रवाई भी नहीं की गई | उमाश्री इस बारे में श्री चौहान से भेंट भी कर चुकी हैं | मुख्यमंत्री ने भी सैद्धांतिक तौर पर उनकी मांग को उचित तो माना लेकिन जहां बात राजस्व की आ जाती है वहां बाकी बातें भुला दी जाती हैं | शिवराज सिंह स्वयं बड़े ही सात्विक और आध्यात्मिक अभिरुचि के व्यक्ति हैं | लेकिन बतौर मुख्यमंत्री उनके लिए शराब बिकवाना मजबूरी है क्योंकि इससे प्रतिदिन करोड़ों की  जो आय होती है वह सरकार के खजाने को भरती है  | अरबों के कर्ज में डूबी राज्य सरकार यदि शराब की बिक्री रोक दे तो उसके पास दैनिक खर्च चलाने तक के लिए धन नहीं रहेगा | ऐसे में मुख्यमंत्री द्वारा नशामुक्त  ग्राम को दो लाख का पुरस्कार देने की योजना सतही तौर पर देखने में तो बहुत ही नेक लग रही है और इसका कुछ न कुछ असर तो पड़ेगा ही किन्तु जिन राज्यों में शराब बंदी है वहां भी चोरी – छिपे शराब की बिक्री होती है | ज्यादा बंदिश होने पर पीने के शौक़ीन पड़ोसी राज्य में जाकर गला तर कर आते हैं | आजकल आवागमन के पर्याप्त साधन होने से गाँव और शहर की दूरी कम हो गई है | ऐसे में किसी ग्राम विशेष को पूरी तरह से नशामुक्त्त करने की अपेक्षा पूरी होना आसान नहीं है | बावजूद इसके मुख्यमंत्री द्वारा पंचायतों के प्रतिनिधियों को दिया प्रस्ताव गुणात्मक दृष्टि से स्वीकार करने योग्य है | ये बात सौ फीसदी सच है कि शराबखोरी के मामले में अब गाँव और शहर में विशेष अंतर नहीं रहा | विशेष रूप से मनरेगा शुरू होने के बाद से तो ग्रामीण इलाकों में शराब की बिक्री में बेतहाशा वृद्धि हुई है | यहाँ तक कि जिस आदिवासी समुदाय को अपने उपभोग हेतु कच्ची शराब बनाने की  अनुमति है वह भी दूकान से खरीदकर पीने का आदी होता जा रहा है | मनरेगा के अंतर्गत मिलने वाला पारिश्रमिक चूँकि नगद होता है लिहाजा पीने वालों को सुविधा हो जाती है | लेकिन उनकी शराबखोरी परिवार वालों पर बहुत  भारी पड़ती है | घरेलू हिंसा और महिलाओं के उत्पीडन के पीछे शराब भी बड़ा कारण है | उस दृष्टि से श्री चौहान ने बहुत ही सही सलाह दी है किन्तु इसका पालन करने के लिए  केवल पंच और सरपंच ही काफी नहीं हैं | दरअसल  हमारे देश की चुनाव प्रणाली इतनी प्रदूषित हो चुकी है कि चुने हुए जनप्रतिनिधि  नशामुक्ति अभियान शुरू करने का नैतिक साहस खो चुके हैं | इसका एक कारण ये भी है कि पंचायत चुनाव में भी शराब बांटने का काम  बड़े पैमाने पर होता है | ऐसे में शराबखोरी के बल पर चुनाव जीतकर आया जनप्रतिनिधि किस मुंह से पियक्कड़ों से शराब छोड़ने की बात कहेगा ? मुख्यमंत्री द्वारा नशामुक्त ग्राम को दो लाख रूपये बतौर पुरस्कार देने का जो प्रस्ताव दिया वह भी फर्जी आंकड़ों के जाल में फंसकर न रह जाए ये देखना जरूरी है क्योंकि पंचायती राज आने के बाद भ्रष्टाचार की जड़ें देश  की राजधानी से गाँव की चौपालों तक में फ़ैल चुकी हैं | और यही कारण है कि प्रदेश और केंद्र सरकार की अनेक जनकल्याणकारी योजनायें कागजों में सिमटकर रह गईं हैं और उनके लिए आया धन नेता और नौकरशाहों की जेब में चला गया | पंचायत चुनाव लड़ने वाले जिस तरह से पैसा खर्च करते हैं उसके कारण जीते हुए जनप्रतिनिधि से नैतिकता और आदर्श की उम्मीद करना बेमानी लगता है | शहरों में भी कमोबेश यही स्थिति है | शराब माफिया सत्ता प्रतिष्ठान के सिर पर सवार होकर धड़ल्ले से वैध – अवैध काम करता है | उसे संरक्षण देने वालों में पक्ष और विपक्ष दोनों शामिल हैं | शराब दूकानों में कहीं खुलकर और कहीं परदे के पीछे से नेताओं की हिस्सेदारी के चलते शासन और प्रशासन कोई कार्रवाई करने के पहले दसियों बार सोचते हैं | दूकानों को खोलने के लिए बनाये गए नियमों की धज्जियां भी खुलकर उडाई जाती है | अनेक दूकानों में तो पुलिस और प्रशासन से जुड़े लोगों की अघोषित भागीदारी होने से उन्हें  अभयदान मिल जाता है | आबकारी विभाग सरकार के सबसे बेईमान महकमों में माना जाता है | इसलिए शराब के कारोबार में होने वाला भ्रष्टाचार बेरोकटोक चला करता है | ऐसे में मुख्यमंत्री  द्वारा पंचायत प्रतिनिधियों से नशा मुक्त ग्राम बनाने का जो  आह्वान किया गया है वह तभी पूरा हो सकेगा जब पंचायतों में चुनकर आये पंच – सरपंच पूरी तरह से ईमानदार और नैतिकता के प्रति समर्पित हों | आज तो आलम ये है कि प्रधानमंत्री  आवास योजना की राशि स्वीकृत करने में भी पंचायत के पंच – सरपंच धडल्ले से कमीशन खाते हैं | यद्यपि मुख्यमंत्री ने बहुत ही सामयिक प्रस्ताव दिया है किन्तु उसे मूर्तरूप देने के लिए उन्हें खुद होकर आगे आना पड़ेगा क्योंकि राजनीति चाहे शहर की हो या गाँव की , उसका शराब के साथ नजदीकी रिश्ता बन गया है | ग्रामीण क्षेत्रों में शराब दूकानों  और पीने वालों  की संख्या में निरंतर वृद्धि राजनीतिक न होकर सामाजिक समस्या है | ग्रामीण इलाकों में भी जिस तेजी से शराब को सामाजिक स्वीकृति मिलने लगी है उसे देखते हुए नशा मुक्त गाँव की कल्पना निश्चित रूप से बड़ी चुनौती  है | मुख्यमंत्री के ईनामी प्रस्ताव को  पंचायत प्रतिनिधियों का कितना समर्थन मिलता है ये देखने वाली बात होगी क्योंकि शराबखोरी रोकना जहां सामाजिक तौर पर जरूरी है वहीं दूसरी ओर शराब सरकारी अर्थव्यवस्था की रीढ़ बन चुकी है |   

-रवीन्द्र वाजपेयी



Monday 27 June 2022

मुफ्त बिजली – पानी सत्ता तो दिलवा सकते हैं लेकिन .... संगरूर से निकला जनादेश आने वाले खतरे का संकेत


 

पंजाब की संगरूर लोकसभा सीट के उपचुनाव में आम आदमी पार्टी की पराजय निश्चित तौर पर बड़ी खबर है | तीन महीने पहले ही जिस पार्टी ने विधानसभा चुनाव में  ऐतिहासिक बहुमत हासिल किया उसके मुख्यमंत्री भगवंत सिंह मान द्वारा रिक्त की गई लोकसभा सीट पर उसका प्रत्याशी हार जाए ये सहज रूप से हजम होने वाली बात नहीं है | इसका सीधा – सीधा अर्थ तो यही लगाया जावेगा कि भगवंत के नेतृत्व वाली सरकार लोगों की अपेक्षा पर खरी उतरने में नाकाम रही जिससे नाराज मतदाताओं ने उसे सजा दे डाली | लेकिन जिस पार्टी का उम्मीदवार जीता वह भी कहने को तो शिरोमणि अकाली दल है परन्तु  उसके साथ बादल की बजाय अमृतसर जुड़ा हुआ है और यह पार्टी खालिस्तान की पक्षधर है | विजयी हुए सिमरनजीत सिंह मान आईपीएस अधिकारी रहे हैं | 1984 में अमृतसर के स्वर्ण मंदिर में हुए ऑपरेशन ब्ल्यू स्टार के विरोध में उन्होंने नौकरी छोड़ दी थी और  गिरफ्तार भी हुए | अतीत में भी दो बार वे लोकसभा सदस्य रह चुके हैं  | संसद में कटार ले जाने की जिद के कारण उनको प्रतिबंधित भी किया गया था | काफी दिनों से वे चर्चाओं से बाहर थे लेकिन गत दिवस संगरूर उपचुनाव जीतते ही 77 वर्षीय सिमरनजीत फिर सुर्ख़ियों में आ गये | लेकिन उसकी वजह आम आदमी पार्टी को हराना नहीं वरन जीतते ही भारत सरकार के विरुद्ध ज़हर उगलने वाले बयान बने | अपनी  जीत का श्रेय उन्होंने पार्टी कार्यकर्ताओं के साथ ही ऑपरेशन ब्ल्यू स्टार में मारे गए खालिस्तानी नेता  जरनैल सिंह भिंडरावाले की तालीम को देते  हुए कहा अब भारतीय हुकूमत सिखों के साथ वैसा व्यवहार नहीं कर सकेगी जैसा मुसलमानों के साथ कर रही है | आगे वे बोले भारतीय हुकूमत मुसलमानों  की मस्जिदें ढहा रही है , कश्मीर में  ज़ुल्म कर रही है | भारतीय फौज कश्मीरियों को मार देती है जिसकी जाँच तक नही होती | झारखंड और छतीसगढ़ के आदिवासियों  को माओवादी और नक्सली समझकर भारतीय हुकूमत सीधे गोली मार देती है | उन्होंने दीप सिद्धू और सिद्धू मूसेवाला की  मौत को शहादत बताया | उल्लेखनीय है मूसेवाला इस उपचुनाव में सिमरनजीत का प्रचार करने आने वाले थे | अपने ट्विटर हैंडल पर खुद को खालिस्तान स्वतंत्र राज्य के लिए प्रयासरत बताने वाले इस शख्स की  जीत को केवल आम आदमी पार्टी की पराजय तक सीमित रखना खतरनाक होगा क्योंकि वे जिस तरह से भारतीय हुकूमत के बारे में बोले उससे तो लगा मानों कोई पाकिस्तानी बोल रहा हो | इस बारे में उल्लेखनीय है कि बीते साल दिल्ली में चले किसान आन्दोलन के दौरान खालिस्तान  समर्थक सिख खुलकर सामने आये और कृषि कानूनों के विरोध के नाम पर पंजाब में देश विरोधी भावनाओं को दोबारा जीवित करने का षडयंत्र रचा | इसका प्रमाण उन हिंसक घटनाओं से मिला जिनके पीछे खालिस्तान समर्थक तत्वों का हाथ खुलकर सामने आया | आम आदमी पार्टी की सरकार बनने के बाद खालिस्तान समर्थक अचानक जिस प्रकार आक्रामक होने लगे उससे इस पार्टी पर लगाये गये आरोपों की पुष्टि होने लगी | भगवंत सिंह मान को मुख्यमंत्री बनाये जाने के फैसले पर भी सवाल उठने लगे हैं | इतने विशाल बहुमत के बावजूद मान सरकार खालिस्तान समर्थकों को दबा पाने में असमर्थ दिख रही है | जिस तरह की बातें सिमरनजीत ने गत दिवस कहीं उन्हें बानगी मानकर उनकी हरकतों पर नजर रखनी चाहिये | संसद में ऐसे व्यक्तियों के आने से ओवैसी जैसे लोगों का हौसला मजबूत होगा |  पंजाब की धरती पर एकाएक देश की अखंडता को चुनौती देने वाली ताकतें जिस तरह सक्रिय हो उठीं वह राष्ट्रीय चिंता का विषय है | आम आदमी पार्टी को चाहिए वह भगवंत सिंह मान के स्थान पर किसी ऐसे व्यक्ति को मुख्यमंत्री बनाये जो इस सीमावर्ती राज्य में आतंकवाद के बीजों को अंकुरित होने से रोकने का माद्दा रखता हो क्योंकि मुफ्त बिजली और पानी सत्ता तो दिलवा सकते हैं लेकिन देश की सुरक्षा के लिए मजबूत इरादे चाहिए | 

-रवीन्द्र वाजपेयी

अखिलेश से विरासत संभल नहीं रही : मुस्लिम - यादव समीकरण बेअसर



गत दिवस देश के अनेक राज्यों में लोकसभा  और विधानसभा की कुछ सीटों के लिए हुए उपचुनाव के परिणाम घोषित किये गए  | इनमें सर्वाधिक चर्चा उ.प्र की आज़मगढ़ और रामपुर लोकसभा सीट को लेकर हो रही है जो क्रमशः अखिलेश यादव और आज़म खान द्वारा विधायक बनने पर खाली की गई थीं | मुस्लिम - यादव समीकरण के कारण ये सीटें समाजवादी पार्टी के गढ़ के रूप में जानी जाती रही हैं | लेकिन इस उपचुनाव में मतदाताओं ने उलटफेर करते हुए भाजपा को जिता दिया | आजमगढ़ से भोजपुरी फिल्मी सितारे दिनेश लाल यादव निरहुआ और रामपुर से घनश्याम लोधी ने जीत हासिल की | आजमगढ़ में तो सपा की हार का कारण बसपा प्रत्याशी गुड्डू जमाली बने जिन्होंने तकरीबन दो लाख मत हासिल कर लिए |  उन्हें बड़ी संख्या में मुस्लिम मत मिलने से सपा को भारी  नुकसान हुआ | इस सीट पर अखिलेश ने अपने चचेरे भाई धर्मेन्द्र को उतारा था | लेकिन रामपुर में 55 फीसदी मुस्लिम मतदाता होने के बावजूद सपा के आसिम राजा का 42 हजार से हार जाना सपा की चिंता बढाने वाली बात है | इन परिणामों ने उ.प्र के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के राजनीतिक कद को और ऊंचा कर दिया | सबसे अच्छी बात  ये हुई कि उ.प्र में जाति आधारित राजनीति अपना असर खोती जा रही है वहीं  मुस्लिम मतदाताओं की भाजपा विरोधी  गोलबंदी भी कारगर साबित नहीं हो रही | कहा जा रहा है कि मुस्लिम समुदाय का कुछ हिस्सा भाजपा की तरफ झुक रहा है जिसकी वजह सपा की गिरती साख और धाक है | मुलायम सिंह यादव के अस्वस्थ होने के कारण अखिलेश के हाथ जबसे पार्टी की कमान आई है तबसे वह लगातार बिखराव और भटकाव का शिकार हो रही है | मुसलमानों के मन में ये बात घर करने लगी है कि सपा के भरोसे वे अपना राजनीतिक महत्व बरकरार नहीं रख पा रहे | कांग्रेस डूबती नाव है और बसपा अपने बनाये जाल में फंस चुकी है | इस कारण उ.प्र के मुसलमानों के मन भी उथल – पुथल है | राम मंदिर का निर्माण तेजी से होने के साथ ही एक तरफ  ज्ञानवापी मस्जिद का विवाद गरमाया और दूसरी तरफ  मथुरा में कृष्ण जन्मभूमि के मामले  को भी हवा मिलने लगी |  इस सबके बीच सपा या अन्य गैर भाजपा पार्टियाँ जिस तरह असहाय बनी हुई हैं उससे मुसलमानों को लगने लगा है कि या तो उनका अपना नेतृत्व होना चाहिए अथवा भाजपा के अंधे विरोध  से  बचकर  उसके साथ  समन्वय बनाकर चलना चाहिए | अनेक मुस्लिम धर्मगुरुओं ने भी ज्ञानवापी और हाल ही में उठे नूपुर शर्मा विवाद पर जिस तरह का समझौतावादी रुख अपनाया वह इस बात का संकेत है कि मुस्लिम समुदाय के बीच भाजपा को लेकर विमर्श  शुरू हो गया है | हालाँकि मस्जिदों से निकले नमाजियों द्वारा किये गए हालिया दंगों से ये संकेत भी मिला कि मुसलमानों को मुख्यधारा में आने से रोकने का षडयंत्र जारी है | लेकिन आजमगढ़ और रामपुर उपचुनाव के नतीजे इस बात का प्रमाण हैं कि वे  एक सीमा से बाहर  जाकर हेकड़ी दिखायेंगे तो जवाब में हिन्दू ध्रुवीकरण स्वाभाविक रूप से होगा |  अखिलेश के उपचुनाव में प्रचार हेतु नहीं जाने को लेकर भी पार्टी के भीतर ही सवाल उठने लगे हैं | दोनों सीटों पर कम मतदान  होने का अर्थ सपा समर्थकों में व्याप्त उदासीनता और निराशा माना जा रहा है | बसपा ने आजमगढ़ में जिस तरह मुस्लिम प्रत्याशी उतारकर सपा के हाथ से जीत छीन ली वह भी काफी रोचक है | इस लोकसभा सीट के अंतर्गत आने वाली सभी दस विधानसभा सीटों पर सपा का कब्जा है | ऐसे में निरहुआ का जीत जाना अखिलेश के लिए बड़ा धक्का है | परिणाम आने के बाद आजम खान और शिवपाल यादव की प्रतिक्रिया से साफ़ झलकता है कि पार्टी में बिखराव की प्रक्रिया रुकने का नाम नहीं ले रही | विधानसभा चुनाव में मिली हार के झटके से अखिलेश अभी तक उबर नहीं पाए हैं | यदि यही हाल रहा तो 2024 का लोकसभा चुनाव आते – आते तक सपा भी शिवसेना जैसी हालत में आ जाए तो आश्चर्य नहीं होगा क्योंकि मुलायम सिंह यादव के हाशिये पर चले जाने के बाद अखिलेश का जो रवैया है उसकी वजह से पार्टी का एकजुट बने रहना संभव नहीं लगता | यादवों  के साथ मुसलमानों को जोड़कर बनाया गया  एम. वाय समीकरण काठ की हांडी साबित हो चुका है | 2014 और 2019 के लोकसभा के अलावा  2017   तथा 2022 के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने उ.प्र में जिस तरह अपने प्रभावक्षेत्र में वृद्धि की वह साधारण बात नहीं है | भाजपा जहां अपने मौलिक एजेंडे पर चलते हुए 80 लोकसभा सीटों वाले इस प्रदेश में अपनी पकड़ मजबूत करती जा रही है वहीं सपा आत्ममुग्धता की शिकार होकर अपने मजबूत  किले गंवाती जा रही है | कल के नतीजों के लिए सपा के नए सहयोगी ओमप्रकाश राजभर ने अखिलेश को जिम्मेदार ठहराते हुए कहा कि वे अपने वातानुकूलित कमरे से ही बाहर नहीं निकले और नामांकन  के अंतिम दिन प्रत्याशी घोषित किये | उन्होंने यहाँ तक कह दिया कि यदि वे स्वयं और उनके साथी आजमगढ़ में मोर्चा नहीं सँभालते तो हार लाखों में होती | दरअसल विरासत में मिली राजनीति को सहेजकर रखना हर किसी के बस में नहीं होता | अखिलेश को भी अपने पिता से सत्ता और सियासत दोनों बतौर उत्तराधिकार मिल तो गये किन्तु उनसे उसका वजन सम्हल नहीं रहा | हालाँकि  वे अकेले नहीं हैं जिन्हें पारिवारिक सम्पत्ति के तौर पर पार्टी मिली हो | आज की राजनीति पर नजर डालें तो नवीन पटनायक , राहुल गांधी , तेजस्वी यादव , चिराग पासवान , चौटाला बंधु , हेमंत सोरेन , उद्धव और आदित्य ठाकरे ,जगन मोहन रेड्डी और स्टालिन जैसे नेता हैं जिन्हें उनके परिवार  की राजनीतिक सम्पति हासिल हुई | इनमें नवीन , जगन , स्टालिन और कुछ हद तक हेमंत ने तो अपनी काबलियत साबित कर दी किन्तु शेष सभी विरासत की रक्षा करने में विफल रहे तो उसका कारण उनमें दूरदर्शिता का अभाव होने के साथ ही नेता पुत्र होने का अहंकार है | आजमगढ़ और रामपुर के उपचुनाव परिणाम अखिलेश यादव के लिए बहुत बड़ा झटका है | इससे अपनी पार्टी के भीतर भी उनकी वजनदारी में कमी आयेगी | और सबसे बड़ी बात  ये है कि सपा  संस्थापक मुलायम सिंह अब उस स्थिति में नहीं रह गये कि उनकी ढाल बन सकें | ऐसे में शिवपाल यादव और आज़म खान ज्यादा दिन खामोश नहीं बैठेंगे | वैसे भी समाजवादी शब्द और बिखराव एक दूसरे के समानार्थी माने जाते हैं |

- रवीन्द्र वाजपेयी

Saturday 25 June 2022

आपातकाल : लोकतंत्र की हत्या का असफल प्रयास



आज 25 जून है | कहने को ये कैलेंडर की एक तारीख मात्र है लेकिन स्वाधीन भारत के इतिहास में ये तिथि बहुत ही महत्वपूर्ण है | 47 साल पहले आज ही आधी रात के समय तत्कालीन प्रधानमंत्री स्व. इंदिरा गांधी ने लोकतंत्र की हत्या का दुस्साहसिक प्रयास किया था | 12 जून 1975 को अलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा 1971 में रायबरेली से श्रीमती गांधी  के विरुद्ध लोकसभा चुनाव लड़े प्रख्यात समाजवादी नेता स्व. राजनारायण की चुनाव याचिका को स्वीकार करते हुए उस चुनाव को अवैध निरुपित कर दिया | स्व. जगमोहनलाल सिन्हा नामक न्यायाधीश के उस फैसले ने राजनीतिक भूचाल ला दिया | उस लोकसभा चुनाव ने इंदिरा जी को सर्वशक्तिमान बना दिया था | उसके बाद बांग्ला देश के  निर्माण ने तो उन्हें अपने पिता पंडित नेहरु से  भी बड़ा नेता बना दिया | पूरी दुनिया में उनके नाम का डंका बजने लगा | ऐसी स्थिति में उच्च न्यायालय द्वारा उनका चुनाव अवैध घोषित किये जाने के कारण अचानक  उनकी गद्दी खतरे में आ गई | लेकिन उन्होंने पद छोड़ने के बजाय लोकतान्त्रिक मूल्यों को छोड़ना बेहतर समझा | देश भर में न्यायमूर्ति स्व. सिन्हा के पुतले जलाए गये | इंदिरा जी के पुत्र स्व. संजय गांधी को तो ये कहते तक सुना गया कि करोड़ों मतदाताओं का प्रतिनिधित्व करने वाली प्रधानमंत्री को भला एक न्यायाधीश कैसे हटा सकता है ? दूसरी तरफ विपक्षी दल इंदिरा जी से  पद त्यागने की मांग कर रहे थे | संसद में विशाल बहुमत के बावजूद वे तेजी से लोकप्रियता खो रही थीं | 1974 में शुरू हुआ गुजरात का छात्र आन्दोलन बिहार होता हुआ स्व. जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में सम्पूर्ण क्रांति के आह्वान में बदल चुका था | 6 मार्च 1975 को दिल्ली में लालकिले से बोट क्लब तक निकली सर्वदलीय रैली ने इंदिरा जी की सत्ता को हिला दिया | घपले – घोटालों की चर्चा के कारण संसद चल नहीं पा रही थी | कांग्रेस के भीतर भी नेताओं का एक समूह श्रीमती गांधी के तानाशाही रवैये और संजय गांधी की स्वेच्छाचारिता से नाराज था | ऐसी स्थितियों में जब उच्च न्यायालय के निर्णय के बाद इंदिरा जी चारों तरफ से घिरने लगीं तब उन्होंने लोकतान्त्रिक प्रक्रिया को ही अवरुद्ध करने का दुस्साहस कर डाला और 25 तथा 26 जून 1975 की दरम्यानी रात में जब  पूरा देश निद्रामग्न था तब तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद को जगाकर उनसे अध्यादेश पर हस्ताक्षर करवाकर आपातकाल घोषित कर दिया | सुबह होते तक जयप्रकाश नारायण , आचार्य कृपालानी , अटल बिहारी वाजपेयी , चौधरी चरण सिंह , लालकृष्ण आडवाणी , चन्द्रशेखर , मधु लिमये , राजनारायण , मधु दंडवते , नानाजी देशमुख , प्रकाश सिंह बादल आदि गिरफ्तार कर  लिए गये |  उनके साथ ही देश भर में प्रदेश , जिला और तहसील स्तर तक के विपक्षी नेता जेल भेज दिए गए | समाचार पत्रों पर सेंसर लगा दिया गया | अभिव्यक्ति की आजादी के साथ ही  मौलिक अधिकार भी निलंबित कर दिए गए | जयप्रकाश नारायण के आन्दोलन को  आंतरिक सुरक्षा के लिए खतरा बताते हुए उनकी तुलना हिटलर से की जाने लागी | सरकारी प्रचार तंत्र ये साबित करने में जुट गया कि  विपक्ष इंदिरा जी की चुनी हुई सरकार को अपदस्थ करने के षडयंत्र में लिप्त था | यद्यपि इस कुकृत्य को वाजिब ठहराने के लिए कुछ समाज विरोधी तत्वों  को भी गिरफ्तार  कर लिया गया | लेकिन आपातकाल का असली कारण अलाहाबाद उच्च न्यायालय का उक्त  फैसला  ही था जिसके आधार पर  इंदिरा जी को  सत्ता छोड़ देना चाहिए था | लेकिन वे कुर्सी से हटने के बजाय लोकतंत्र के रास्ते से ही हट गईं | 19 महीने देश में लोकतंत्र के नाम पर श्रीमती गांधी की तानाशाही  चली | लोकसभा का कार्यकाल  एक साल बढ़ाकर अनेक ऐसे प्रावधान कर दिए गए जिनके आधार पर उच्च न्यायालय का फैसला बेअसर होकर रह गया | जब उन्हें लगा कि अब विपक्ष दम तोड़ बैठा है तब उन्होंने मार्च 1977 में लोकसभा  चुनाव करवाए  जिसमें कांग्रेस पराजित हुई और नई नवेली जनता पार्टी की सरकार बन गयी | आपातकाल के दौरान जो जनता डर के मारे चुप रही  उसने मतदान के जरिये अपना गुस्सा इस कदर व्यक्त किया कि श्रीमती गांधी  रायबरेली और संजय  गांधी अमेठी से चुनाव हार गये | ये पहला अवसर था जब दुनिया के किसी देश का प्रधानमंत्री पद पर रहते हुए भी  संसद का चुनाव तक हार गया था | हालांकि जनता पार्टी की सरकार भी अपने अंतर्विरोधों के कारण महज 27 महीने में चल बसी और 1980 में इंदिरा जी की वापिसी हो गई | लेकिन आपातकाल लगाने का अपराधबोध उन पर हावी रहा | और यही वजह रही कि वे राजनीतिक तौर पर पूर्व की तरह प्रभावशाली नहीं हो सकीं | जनता पार्टी की सरकार ने एक काम तो अच्छा कर दिया जिससे भविष्य में  आपातकाल लगाये जाने की आशंका नहीं रही  | आज जो लोग लोकतंत्र और संविधान को खतरे में बताते हैं वे इंदिरा जी द्वारा थोपे गये आपातकाल और उसके दौरान हुए अत्याचारों के बारे में पढ़ें और जानें तब उनको एहसास होगा कि 19 माह का वह दौर कितना भयावह था | हालंकि उस दौर की  जनता बधाई की हकदार है जिसने इंदिरा की तानाशाही को मतपत्र की ताकत से उखाड़ा फेंका | तबसे हमारा लोकतंत्र मजबूत तो हुआ लेकिन जनता पार्टी की लहर में ऐसे लोग भी प्रथम पंक्ति के नेता बन बैठे जिन्होंने जयप्रकाश जी द्वारा सम्पूर्ण क्रान्ति के नाम पर जिस व्यवस्था  परिवर्तन का प्रारूप पेश किया उसकी धज्जियां उड़ाते हुए  जातिवाद का जो  जहर फैलाया वही आज  भरतीय राजनीति की पहचान बन गया है | जहाँ तक बात आपातकाल की है तो 25 जून हर लोकतंत्र प्रेमी के लिए आत्मावलोकन का  दिन है | ये भी अजीब संयोग है कि उस आपातकाल के शिकार नेता और उनकी पार्टियां आज उसी कांग्रेस की बगलगीर बनी हुई हैं जिसके माथे पर लोकतंत्र की हत्या के प्रयास का कलंक लगा हुआ है | युवा पीढ़ी के लिए भी 1974 से 1980 तक के कालखंड का अध्ययन करना जरूरी है जिससे उन्हें ये एहसास हो सके कि लोकतंत्र की जरूरत और अहमियत क्या है ?


-रवीन्द्र वाजपेयी


Friday 24 June 2022

जब सबने मना कर दिया तब यशवंत सिन्हा बलि के बकरे बनाए गये



राष्ट्रपति चुनाव में एनडीए प्रत्याशी द्रौपदी मुर्मू की विजय तो उनकी उम्मीदवारी घोषित होते ही सुनिश्चित हो गयी थी जब उड़ीसा के मुख्यमंत्री ने अपनी पार्टी बीजू जनता दल का समर्थन देने की घोषणा कर दी | ज्ञातव्य है श्रीमती मुर्मू उड़ीसा की ही मूल निवासी हैं | इसके बाद ये खबर भी आ गई कि झारखंड मुक्ति मोर्चा भी उन्हें समर्थन दे सकता है | इसका कारण झारखंड के मुख्यमंत्री हेमत सोरेन और श्रीमती मुर्मू का संथाल आदिवासी होना है | झारखंड की राज्यपाल रहते हुए दोनों के बीच रिश्ते भी काफी अच्छे रहे | यद्यपि श्री सोरेन ने इस आशय की घोषणा नहीं की है क्योंकि वे कांग्रेस के साथ मिलकर सरकार चला रहे हैं और संयोगवश विपक्ष के संयुक्त उम्मीदवार बने यशवंत सिन्हा भी मूलतः झारखंड के ही हैं | फिर सुनने में आया  कि छत्तीसगढ़ के अनेक आदिवासी विधायक पार्टी सीमा से ऊपर उठकर श्रीमती मुर्मू का समर्थन करने के इच्छुक हैं | वैसे भी राष्ट्रपति चुनाव में सांसदों और विधायकों के लिए व्हिप जारी किये जाने की व्यवस्था नहीं है | कुछ और क्षेत्रीय पार्टियाँ आदिवासी  मतदाताओं को खुश करने के लिए उनके पक्ष में मतदान कर दें तो आश्चर्य नहीं होगा | आन्ध्र के मुख्यमंत्री जगन मोहन रेड्डी ने अपेक्षानुसार एनडीए उम्मीदवार को समर्थन देने की घोषणा कर उनकी विजय को और पक्का कर दिया | आज नामांकन भर रही श्रीमती मुर्मू के पक्ष में जिस तरह से चौतरफा समर्थन आ रहा है उसे देखते हुए आगामी 24 जुलाई को उनका राष्ट्रपति पद पर आसीन होना संदेह से परे है | सबसे बड़ी बात ये हुई कि केवल श्री सिन्हा को छोड़कर अन्य किसी ने भी आदिवासी महिला को राष्ट्रपति बनाए जाने पर ऐतराज नहीं जताया | श्री सिन्हा ने अवश्य ये तंजा कसा कि राष्ट्रपति रबर स्टाम्प नहीं होना चाहिए लेकिन उनका समर्थन कर रही बाकी पार्टियों ने श्रीमती मुर्मू के बारे में आलोचनात्मक टिप्पणी करने से खुद को रोके रखा है | अब जबकि ये तय है कि श्री सिन्हा महज सांकेतिक विरोध ही कर सकेंगे और श्रीमती मुर्मू बहुत लम्बे अंतर से उन्हें पराजित कर देंगीं तब विपक्षी दलों को चाहिए कि वे  अपने प्रत्याशी का नाम वापिस लेकर निर्विरोध चुनाव का मार्ग प्रशस्त करें |  उल्लेखनीय है 2002 में  केंद्र की  वाजपेयी सरकार के समय प्रो. एपीजे कलाम को जब एनडीए ने राष्ट्रपति प्रत्याशी बनाया तब अटल जी के अनुरोध पर सोनिया गांधी और मुलायम सिंह यादव ने कलाम साहब का समर्थन किया था |  हालांकि वामपंथी दलों ने सर्वसम्मति नहीं होने दी और  कैप्टन लक्ष्मी सहगल को अपना उम्मीदवार बनाकर मतदान की स्थिति पैदा कर दी  | दरअसल कलाम साहब को जिस तरह का व्यापक समर्थन मिला उसका एक कारण उनका गैर राजनीतिक होना था | बतौर वैज्ञानिक वे पूर्ववर्ती प्रधानमंत्रियों के साथ  काम कर चुके थे | इसलिए उनका समर्थन करने में प्रमुख दलों को परेशानी नहीं हुई | और उन्होंने भी उसका मान रखते हुए राष्ट्रपति भवन पर पक्षपात का आरोप नहीं लगने दिया | श्रीमती मुर्मू ने भी झारखंड की राज्यपाल रहते हुए पहले भाजपा और फिर झामुमो सरकार के साथ बेहतर समन्वय बनाकर काम किया | मुख्यमंत्री श्री सोरेन तो उन्हें बुआ कहकर संबोधित करते हैं | ऐसे में यदि विपक्ष उनके विरुद्ध अपना उम्मीदवार न उतारे तो इससे पूरी दुनिया  में ये सन्देश जायेगा कि भारत में  समाज के सबसे पिछड़े और वंचित वर्ग का उत्थान करने के प्रति व्यापक राजनीतिक सहमति है | जहां तक बात श्री सिन्हा की है तो उनके सांसद बेटे जयंत सिन्हा ने भी ये स्पष्ट कर दिया कि वे अपने पिता की बजाय अपनी पार्टी भाजपा समर्थित श्रीमती मुर्मू को मत देंगे | यही नहीं तो यशवंत जी की  धर्मपत्नी तक ने श्रीमती मुर्मू को अच्छा प्रत्याशी बताते हुए उनकी जीत को सुनिश्चित बताया | देश के राजनीतिक हालात भी लगातार श्रीमती मुर्मू की ऐतिहासिक  जीत के प्रति आश्वस्त कर रहे हैं | ऐसे में श्री सिन्हा को खुद होकर उम्मीदवारी वापिस लेने की घोषणा कर देना चाहिए | सही बात ये है कि वे अपने हिस्से की राजनीति कर चुके हैं | बीते कुछ सालों से वे जिस तरह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर व्यक्तिगत और नीतिगत हमले करते आ रहे हैं उसकी वजह से उनकी अपनी छवि तो धूमिल हुई ही , उनके सुयोग्य पुत्र की राजनीति को भी नुकसान हुआ | मोदी सरकार के पिछले कार्यकाल में जयंत मंत्री थे लेकिन पिता के नकारात्मक रवैये ने उनको बाहर करवा दिया | यशवंत जी आईएएस की नौकरी छोड़कर राजनीति में आये और केंद्र में मंत्री बने | 2014 में उन्होंने खुद होकर अपनी हजारीबाग़ सीट जयंत को दिलवा दी | लेकिन बाद में उनकी अतृप्त महत्वाकांक्षाएँ जोर मारने लगीं जिनके फेर में भटकते – भटकते वे तृणमूल की शरण में जा पहुंचे | लेकिन ममता द्वारा खुद बुलाई गई विपक्षी दलों की बैठक में  राष्ट्रपति पद हेतु श्री सिन्हा को भूलकर गोपालकृष्ण गांधी के साथ डा. फारुख अब्दुल्ला का नाम प्रस्तावित किया गया | उसके पूर्व वे शरद पवार से भी आग्रह कर  चुकी थीं | लेकिन जब सभी ने इंकार कर दिया तब बलि के बकरे के तौर  पर यशवंत जी  को आगे कर दिया गया जिसका औचित्य उनके प्रायोजक दल भी साबित नहीं कर पा रहे क्योंकि वे राजनीति में अभिजात्य वर्ग के चेहरे जो हैं   |  दूसरी और अनु,जनजाति से होने के कारण श्रीमती मुर्मू बड़े सामाजिक बदलाव की जीवंत प्रतीक बनेंगी | आज से नामांकन प्रक्रिया प्रारंभ हुई है | इसलिए अभी भी विपक्ष के पास समय है | यदि वह अपना उम्मीदवार वापिस ले लेता है तो इसका दूरगामी असर देश की राजनीति ही नहीं वरन सामाजिक ढांचे पर भी पड़ेगा | 

- रवीन्द्र वाजपेयी


Thursday 23 June 2022

उद्धव : हिन्दुत्व को छोड़ने से न धाक बची न साख


 
महाराष्ट्र का राजनीतिक संकट एकाएक पैदा नहीं हुआ | इसकी शुरुवात  उसी दिन हो गयी थी जिस दिन उद्धव ठाकरे ने अपने वैचारिक विरोधी शरद पवार और कांग्रेस के साथ मिलकर मुख्यमंत्री पद हासिल किया था | ठाकरे परिवार कट्टर हिन्दुत्ववादी  रहा है | कुछ मामलों में तो संघ परिवार से जुड़े लोग भी ये स्वीकार करते हैं कि हिंदुत्व के प्रति स्व. बाल ठाकरे और शिवसेना कहीं ज्यादा आक्रामक रहे हैं | स्व. ठाकरे की ये ख़ास बात रही कि उनकी पार्टी चाहे महाराष्ट्र की सत्ता में रही या केंद्र की  , लेकिन उन्होंने स्वयं अथवा अपने परिवार के किसी सदस्य को मंत्री  तो क्या सांसद – विधायक  तक नहीं बनने दिया | इसीलिये  वे अपनी शर्तों पर राजनीति करते थे  | उनके न रहने के बाद उद्धव और उनके बेटे आदित्य ने उस मर्यादा को तोड़ दिया और पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा की सीटें लगभग दोगुनी आने के बावजूद शिवसेना मुख्यमंत्री के लिये अड़ गई |  जब भाजपा राजी नहीं हुई और  उसने श्री पवार के भतीजे अजीत के साथ मिलकर सरकार बनाने की असफल कोशिश की तब उद्धव , श्री पवार की राकांपा के अलावा कांग्रेस के समर्थन से मुख्यमंत्री की कुर्सी पर जा बैठे | साथ ही अपने बेटे आदित्य को भी मंत्री बना लिया | चूंकि उद्धव विधायक नहीं थे इसलिए विधानसभा में एकनाथ शिंदे नेता बने | वे बालासाहेब  ठाकरे के दौर से ही स्थापित नेता थे किन्त्तु उद्धव और आदित्य ने उन्हें उपेक्षित और अपमानित करने की जो गलती की उसने उनके हाथ से सत्ता छिन जाने का रास्ता तैयार कर  दिया | यद्यपि समूचे घटनाक्रम में परदे के पीछे से पूर्व मुख्यमंत्री देवेन्द्र फड़नवीस की भूमिका से इंकार नहीं किया जा सकता लेकिन भाजपा को मौके का लाभ उठाने का अवसर तो उद्धव और उनके बेटे की अधकचरी राजनीतिक  शैली और ऊल जलूल निर्णयों ने दिया | सही बात तो ये है कि मुख्यमंत्री भले उद्धव  रहे लेकिन सत्ता  और गठबंधन के सूत्र पूरी तरह से श्री पवार के पास थे  |  उल्लेखनीय है कि  शिवसेना और श्री  पवार के बीच राजनीतिक मतभेद जग जाहिर रहे हैं | स्व. बालासाहेब ठाकरे तो उन्हें दाउद इब्राहीम का संरक्षक मानते रहे लेकिन सत्ता की चाहत में उद्धव उन्हीं की गोद में जा बैठे | गौरतलब है कांग्रेस शुरुवात में शिवसेना के साथ आने से हिचक रही थी क्योंकि  उसे मुसलमानों की नाराजगी का डर था जो शिवसेना को फूटी आँखों नहीं देखना चाहते | उसे मनाने के लिए शरद पवार खुद सोनिया गाँधी  के पास पहुंचे  | इस फैसले से  शिवसेना के नेता और कार्यकर्ता भी हतप्रभ थे क्योंकि जिन शक्तियों से वे लड़ते आये थे उन्हीं के साथ बैठकर सत्ता सुख लूटना उनके गले नहीं उतर रहा था | लेकिन उद्धव , आदित्य और उनके बड़बोले प्रवक्ता संजय राउत ने शिवसेना की तासीर के विरुद्ध  समझौता किया जिसके पीछे ठाकरे परिवार में जागी सत्ता की भूख थी | शेर  की तरह गरजने वाले उद्धव  सत्ता में आते ही भीगी बिल्ली बन गये और  हिंदुत्व की बजाय धर्मनिरपेक्षता का राग गाने लगे | यहाँ तक कि भाजपा पर सांप्रदायिक होने का आरोप लगाने से भी बाज नहीं आये | मस्जिदों से लाउड स्पीकर हटवाने के मामले में उनका लचीला रवैया शिवसेना की समूची साख को ले डूबा | भाजपा से लड़ने में असफल रहने की खुन्नस में कभी कंगना रनौत के दफ्तर पर बुलडोजर चलवाना और कभी नवनीत राणा को गिरफ्तार करने जैसी मूर्खता उनकी सत्ता ने की | लेकिन सबसे बड़ी गलती उद्धव से ये हुई कि वे राकांपा और कांग्रेस के मंत्रियों की लूटपाट को नहीं रोक सके जिससे कि शिवसेना का जनाधार कमजोर पड़ने लगा |  शिवसेना  कोटे के मंत्री भी राकांपा और कांग्रेस के बेजा हस्तक्षेप से दुखी थे | बची – खुची कसर पूरी कर दी आदित्य की युवराज गिरी ने | एकनाथ शिंदे की नाराजगी यदि व्यक्तिगत होती तब उनके साथ दो तिहाई विधायकों और ज्यादातर मंत्रियों का जमावड़ा न होता | बगावत का आकार देखकर ये कहना गलत न होगा कि इसकी आग लंबे समय से सुलग रही थी जिसे भांपने में उद्धव का असफल रहना उतना आश्चर्यचकित नहीं करता जितना श्री पवार का बेखबर बने रहना | राज्यसभा के बाद विधानपरिषद के चुनाव  में भी भाजपा ने जिस तरह सत्तारूढ गठबंधन में सेंध लगाकर शिवसेना की उम्मीदों पर पानी फेरा तब भी यदि उद्धव सतर्क  हो जाते तब बात बन सकती थी | लेकिन वे लम्बी तानकर सोते रहे और सत्ता उनके हाथ से खिसक गयी | श्री शिंदे ने बगावत का कारण स्पष्ट करते हुए कहा कि वे और उनके साथी श्री ठाकरे को आगाह करते रहे कि रांकापा और काँग्रेस मिलकर शिवसेना को कमजोर कर रही हैं और हिन्दुत्व की पक्षधर होने से हमारा स्वाभाविक गठबंधन भाजपा के साथ ही उपयुक्त है | लेकिन उन्होंने अपने बयानों और कार्यशैली से भाजपा के विरुदध जो कहा और किया उसके बाद वे उसके निकट जाने से बच रहे थे | उनके इस रवैये से मंत्री और विधायकों के साथ ही आम शिव सैनिक तक नाराज थे  | निश्चित तौर पर भाजपा  इस मौके की तलाश में थी और उसने उसे लपकने में तनिक भी विलम्ब नहीं किया | उसके बाद भी ऐंठ दिखाने में न उद्धव बाज आये और न ही  श्री राउत | लेकिन जब लगा कि सत्ता के साथ पार्टी भी हाथ से निकलती जा रही है तब मुख्यमंत्री पद श्री शिन्दे को सौंपने के  प्रस्ताव के साथ भावनात्मक बातें करने लगे | उधर श्री शिंदे के साथ शिवसेना के दो तिहाई विधायकों के गुवाहाटी पहुंचने से उनको दलबदल क़ानून का डर भी नहीं है | सुना है अब तो  सांसद भी उद्धव का साथ छोड़ने जा रहे हैं | इन पंक्तियों के लिखे जाने तक उन्होंने इस्तीफा नहीं दिया था | हालांकि मुख्यमंत्री निवास वे कल रात छोड़कर अपने घर लौट आये थे | हो सकता है अभी श्री पवार कोई और दांव चलें | लेकिन उद्धव के हाथ से सत्ता और शिवसेना दोनों निकल गए हैं जिसके लिए वे खुद दोषी हैं क्योंकि उन्होंने सत्ता की खातिर उन ताकतों से हाथ मिला लिया जिन्हें हिंदुत्व नाम से ही चिढ़ है | काँग्रेस तो वीर सावरकार के विरुद्ध आये दिन विषवमन करती रही जिनकी शिवसेना पूजा करती है | आगे क्या होगा ये तो एकनाथ   शिंदे और भाजपा के बीच तय होगा लेकिन महाराष्ट्र की राजनीति में ठाकरे युग के अवसान की शुरुवात हो चुकी है | 

- रवीन्द्र वाजपेयी

Wednesday 22 June 2022

द्रौपदी मुर्मू : आदिवासियों को मुख्यधारा में लाने का दूरगामी प्रयास



भाजपा संसदीय बोर्ड द्वारा गत दिवस अनु.जनजाति समुदाय की द्रौपदी  मुर्मू को एनडीए की ओर  से राष्ट्रपति पद का प्रत्याशी बनाये जाने पर राजनीतिक जगत में किसी भी प्रकार का आश्चर्य नहीं हुआ क्योंकि बीते काफी समय से भाजपा खेमे में जिन नामों पर चर्चा चल रही थी उनमें श्रीमती मुर्मू के अलावा छत्तीसगढ़ की राज्यपाल अनुसुइया उइके , झरखंड के पूर्व मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडे , केन्द्रीय मंत्री मुख्तार अहमद नकवी और केरल के राज्यपाल आरिफ मो. खान शामिल थे | लेकिन श्रीमती मुर्मू की संभावना इसलिए ज्यादा बताई जा रही थीं क्योंकि भाजपा का ध्यान देश के बड़े अदिवासी वर्ग पर केन्द्रित है | आम तौर पर ये माना जा सकता है कि ऐसा उनके मत बटोरने की गरज से किया गया है परन्तु  इसके पीछे बहुत ही दूरगामी सोच काम कर रही है | ये बात तो सही है कि आजादी के बाद आदिवासी समुदाय को जिसे सरकारी तौर पर अनु. जनजाति कहा जाता है , आरक्षण के जरिये  सामाजिक और आर्थिक क्षेत्र में आगे आने के अवसर के साथ ही  चुनावी राजनीति के कारण  सत्ता प्रतिष्ठान में बैठने की पात्रता भी मिल सकी | लेकिन उनके बीच कार्यरत विदेशी ताकतें उन्हें हिन्दू समाज से अलग करने का जो अभियान चला रही हैं उसकी वजह से उनके समाज की मुख्य धारा से कटने का खतरा पैदा बढ़ता जा रहा है |  दुर्भाग्य से  हिन्दू धर्माचार्यों ने इस ओर जो दुर्लक्ष्य किया उसका लाभ लेकर  विदेशी पैसे पर पलने वाली मिशनरियों ने आदिवासियों के मन में हिन्दू समाज के प्रति जहर भरना शुरू कर दिया | उनकी अशिक्षा और अज्ञानता का लाभ उठाकर उनके मन में ये बात बिठाने का सुनियोजित प्रयास किया जाता रहा कि वे हिन्दू समाज से अलग हैं | इस दुष्प्रचार का कुछ असर भी देखने भी मिला | इसी तरह नक्सलियों ने भी अपनी गतिविधियों को ज्यादातर आदिवासी क्षेत्रों में ही केन्द्रित किया | बिहार ,  छत्तीसगढ़ , उड़ीसा , आन्ध्र , तेलंगाना , महाराष्ट्र और म.प्र में नक्सली संगठनों का कार्यक्षेत्र मुख्यतः आदिवासी अंचलों में ही है | हालाँकि सरकार द्वारा   इन इलाकों के विकास के लिए अनाप - शनाप धन खर्च किया गया किन्तु उसका ज्यादातर हिस्सा भ्रष्टाचार की बलि चढ़ जाने से अपेक्षित नतीजे  नहीं मिल सके | और इसी का लाभ उठाकर मिशनरियों एवं नक्सलियों ने आदिवासी समुदाय के बीच व्यवस्था के विरुद्ध गुस्सा भड़काने का खेल रचा | हालांकि बीते एक – दो दशक से राष्ट्रवादी शाक्तियां भी पूरी ताकत से आदिवासी अंचलों में सक्रिय हैं और हिन्दू धर्माचार्य भी अपने दायित्व बोध के प्रति गंभीर हुए हैं लेकिन उनके मन में भरे गये जहर को बाहर निकालने में काफी समय लगेगा | और इसके लिए ज़रूरी है कि आदिवासी समुदाय को ये एहसास करवाया जाए कि वे समाज के लिए बेहद महत्वपूर्ण हैं और सत्ता के सर्वोच्च शिखर पर आसीन होने की पात्रता रखते हैं | बीते  तीन दशक से सामाजिक समरसता , समता मूलक समाज और पिछड़ी जातियों के उत्थान का मुद्दा राजनीति के केंद्र बिंदु में रहा | लेकिन जिन राजनेताओं ने  समाज के वंचित – शोषित वर्ग के सामाजिक और  आर्थिक विकास का बीड़ा उठाया उनकी समूची राजनीति उनके अपने कुनबे के विकास के इर्द – गिर्द सिमटकर रह गई | कहने को आदिवासी समुदाय के बीच से भी राजनीतिक नेतृत्व उभरा परन्तु या तो वह पिछलग्गू बनकर रहा या उसमें भी परिवारवाद का कीटाणु प्रवेश कर गया | इस बारे में किसी का नाम लेने की जरूरत नहीं क्योकि ऐसे लोगों के नाम और काम सर्वविदित हैं | उस दृष्टि से प्रधानमंत्री  नरेंद्र मोदी और भाजपा की प्रशंसा करनी होगी जिन्होंने  पहले दलित वर्ग के रामनाथ कोविंद को राष्ट्रपति बनाया और अब आदिवासी समुदाय की  बेहद साधारण पृष्ठभूमि से जुडी महिला को देश का संवैधानिक प्रमुख बनने का सुअवसर प्रदान किया | झारखंड की राज्यपाल रहने के पूर्व श्रीमती मुर्मू उड़ीसा सरकार में मंत्री भी रही हैं | पार्षद से अपनी राजनीतिक यात्रा प्रारम्भ करने के बाद उन्होंने समाजसेवा के क्षेत्र में भी उल्लेखनीय कार्य किये | उड़ीसा से राष्ट्रपति बनने वाली वे पहली उम्मीदवार होंगी और देश की दूसरी महिला जो राष्ट्रपति भवन को सुशोभित करेंगी | उड़ीसा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक ने अपनी  पार्टी बीजू जनता दल का समर्थन उनको देने की घोषणा कर एनडीए के पास पर्याप्त बहुमत होने की व्यवस्था कर दी | ऐसे में संयुक्त विपक्ष के प्रत्याशी बनाये गए यशवंत सिन्हा की पराजय सुनिश्चित हो गयी है | विपक्ष ने पूर्व में भाजपा द्वारा सर्वसम्मति की पहल पर प्रत्याशी का नाम बताने की शर्त रखी और फिर  श्री सिन्हा के नाम की घोषणा करते हुए उस सम्भावना को पलीता लगा दिया | लेकिन श्रीमती मुर्मू का नाम सामने लाकर भाजपा ने विपक्ष के सामने धर्मसंकट की  स्थिति उत्पन्न कर दी है | राष्ट्रपति पद हेतु पहली बार आदिवासी समुदाय से किसी का चयन निश्चित तौर पर एक बड़े सामाजिक बदलाव का आधार बनेगा जिसे राजनीति के बजाय हिन्दू समाज में दरार पैदा करने के षडयंत्र को विफल करने के प्रयास के तौर पर देखना सही रहेगा | श्रीमती मुर्मू की जीत में कोई संदेह न होने से अब विपक्ष को चाहिये वह भी उन्हें अपना समर्थन देकर रचनात्मक सोच का परिचय दे | देश के करोड़ों आदिवासियों के बीच इस निर्णय का जो सकारात्मक सन्देश जायेगा उससे सामाजिक  समरसता का उद्देश्य तो पूरा होगा ही लेकिन  उसके साथ ही देश की एकता , अखंडता और आंतरिक शान्ति के लिए खतरा पैदा करने वाली राष्ट्रविरोधी ताकतों के भी हौसले पस्त होंगे | पूरी दुनिया को श्रीमती मुर्मू के चयन से ये सन्देश चला गया कि भारत में अपने सामजिक ढांचे को सुरक्षित रखने की इच्छाशक्ति , सामर्थ्य और सूझबूझ है |

- रवीन्द्र वाजपेयी

Tuesday 21 June 2022

राष्ट्रपति चुनाव : विपक्ष इतना दयनीय पहले कभी नहीं रहा



राष्ट्रपति चुनाव में विपक्षी एकता का प्रयास दरअसल अगले लोकसभा चुनाव में भाजपा विरोधी गठबंधन की बुनियाद को मजबूती प्रदान करने की दिशा में बढ़ाया गया कदम था | इसकी शुरुवात प. बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी द्वारा गत 15 जून को दिल्ली में बुलाई गई विपक्षी दलों की बैठक से की गई थी | हालाँकि उसके पहले तेलंगाना के मुख्यमंत्री के.चंद्रशेखर राव ने भी दिल्ली में गैर भाजपा दलों के नेताओं से बात कर विपक्षी एकता का पांसा चला था | लेकिन राष्ट्रपति चुनाव संबंधी पहल ममता द्वारा ही की गयी | उस बैठक में कुछ भी ठोस निकलकर सामने नहीं आया क्योंकि अनेक विपक्षी दल उससे दूर ही रहे | वामपंथी दलों को तो बैठक बुलाने के तरीके पर ही आपत्ति थी | लेकिन उसे बिना किसी फैसले के खत्म होने की तोहमत से बचाने के लिए सुश्री बैनर्जी ने गोपाल कृष्ण गांधी और डा. फारुख अब्दुल्ला का नाम उछालकर औपचारिकता पूरी कर दी | उल्लेखनीय है शरद पवार बैठक के पूर्व ही राष्ट्रपति चुनाव लड़ने से इंकार कर चुके थे | उधर  भाजपा ने भी इस दौरान आम सहमति बनाने के लिए सभी दलों से संपर्क साधने के लिए रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह और पार्टी अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा को  तैनात किया किन्तु अधिकतर ने यही कहा कि पहले भाजपा अपना उम्मीदवार बताये उसके बाद वे अपनी मंशा व्यक्त करेंगे | लेकिन चौंकाने वाली बात ये है कि विपक्ष अपना प्रत्याशी तय करने में सफल नहीं हो रहा | इसी बीच श्री पवार ने भी एक बैठक बुलाई किन्तु ममता उसमें शामिल नहीं हुईं जिससे विरोधी दलों के बीच आपसी सामंजस्य का अभाव सामने आ गया  | और उसी के बाद गत दिवस गोपाल कृष्ण गांधी और डा. अब्दुल्ला ने भी मैदान में उतरने से इंकार कर दिया | स्मरणीय है श्री गांधी पिछले चुनाव में भी विपक्ष के संयुक्त प्रत्याशी थे किन्तु भाजपा ने रामनाथ कोविंद को उतारकर जो दलित कार्ड चला उसने विपक्ष के समीकरण बिगाड़ दिए | हालाँकि एनडीए के पास इस बार कुछ मत कम पड़ रहे हैं लेकिन उसका आत्मविश्वास ये दर्शा रहा है कि उसने लगभग 2 प्रतिशत मतों के उस टोटे को बीजू जनता दल और वाई.एस.आर कांग्रेस की मदद से ही पूरा कर लिया है | बावजूद उसके भाजपा विपक्षी दलों से सम्पर्क कर आम सहमति बनाने की कोशिश कर रही है | उसे पता है विपक्ष इस चुनाव में अपना प्रत्याशी जितवा नहीं सकेगा लेकिन चुनाव सर्वसम्मति से हो जाये तो भी जनता के बीच ये संदेश जायेगा कि विपक्ष में लड़ने का मनोबल नहीं बचा | बहरहाल श्री गांधी और डा. अब्दुल्ला द्वारा इंकार कर दिए जाने के बाद अब  विपक्ष  के पास कोई  ऐसा चेहरा नहीं है जिसे आगे करके वह भाजपा पर दबाव बना सके | यद्यपि  एक ज़माने में कांग्रेस के  मुकाबले विपक्ष के काफी कमजोर होने से राष्ट्रपति चुनाव इकतरफा हुआ करता था | केवल  1969 छोड़कर जब स्व. इंदिरा गांधी ने कांग्रेस के अधिकृत प्रत्याशी नीलम संजीव रेड्डी के विरुद्ध तत्कालीन उपराष्ट्रपति वी.वी गिरि को उतारकर आत्मा की आवाज पर मतदान का आहवान करते हुए कांग्रेस के विभाजन का रास्ता साफ़ कर दिया | वामपंथी दलों ने इंदिरा जी का साथ दिया और कशमकश भरे चुनाव में श्री गिरि ने दूसरी वरीयता के मतों में 15 हजार की बढ़त लेकर भारतीय राजनीति में इंदिरा युग की शुरुवात कर दी | हालाँकि राष्ट्रपति चुनाव में मुकाबला आगे भी होता रहा लेकिन वैसा रोमांच दोबारा देखने नहीं मिला | विपक्ष ने अनेक मर्तबा मुकाबले की औपचारिकता भी निभाई | क्षेत्रीयता के नाम पर उसमें  बिखराव भी हुआ | मसलन श्रीमती प्रतिभा पाटिल को शिवसेना ने मराठी भाषी होने के नाते समर्थन दिया | प्रणब मुख़र्जी भी शिवसेना का समर्थन हासिल करने में सफल रहे जिसमें अंबानी परिवार की भूमिका बताई जाती है | लेकिन कांग्रेस जैसी राष्ट्रीय पार्टी आज इस स्थिति में नहीं है कि राष्ट्रपति चुनाव में अपनी ओर से एक प्रत्याशी का नाम तक विपक्ष को सुझा सके | क्षेत्रीय दलों के सामने वह किस कदर दबी – दबी नजर आने लगी है उसका ताजा प्रमाण यह चुनाव है जिसमें देश की सबसे पुरानी पार्टी की कोई भूमिका नजर नहीं आ रही | शेष  विपक्ष के बिखराव का कारण भी कांग्रेस की उदासीनता ही है | श्री पवार द्वारा आहूत बैठक से सुश्री बैनर्जी का किनारा कर लेना विपक्ष के बीच विश्वास की कमी के साथ ही अहं की लड़ाई का संकेत है | राष्ट्रपति चुनाव सही मायनों में लोकसभा चुनाव के पूर्व भाजपा  को घेरने का सबसे अच्छा अवसर हो सकता है | लेकिन लगता है कांग्रेस की तरह से ही शेष विपक्ष भी नीतिगत भटकाव का शिकार होकर निर्णय क्षमता गँवा बैठा है | यही वजह है कि बजाय सत्ता पक्ष को चुनौती देने के वह आपसी खींचतान से ही नहीं उबर पा रहा | नामांकन की तिथि करीब है किन्तु अभी तक विपक्ष की  रणनीति समझ से परे है  | ये जानते हुए भी कि एनडीए के पास निर्वाचक मंडल के केवल 48 फीसदी मत ही हैं उसकी तरफ से मुकाबले की  तैयारी नजर ही नहीं आ रही | वैसे कांग्रेस को चाहिए वह अपनी ओर से पहल करते हुए किसी ऐसे  प्रत्याशी का नाम पेश करे जिसे देखकर एनडीए भी पशोपेश  में पड़ जाए | लेकिन उसका पूरा ध्यान तो गाँधी परिवार को नेशनल हेराल्ड मामले में ईडी से बचाने में लगा हुआ है | शेष विपक्ष भी उसकी इस कमजोरी को भांपकर उसे भाव न देने की नीति अपना चुका है | केंद्र में पहले भी भारी बहुमत वाली सरकार रही है | लेकिन संसद में कम संख्या के बावजूद विपक्ष कभी भी इतना दिशाहीन और अनिर्णय का शिकार नहीं दिखा | और इसका प्रमुख कारण राष्ट्रीय राजनीति में कांग्रेस का लगातर पराभव और क्षेत्रीय दलों का उभरना है जो उसके उभार को अपने लिए खतरा मानकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा दिए कांग्रेस मुक्त भारत के नारे को मूर्त रूप देने में परोक्ष रूप से सहयोग दे रहे हैं | 

- रवीन्द्र वाजपेयी

Monday 20 June 2022

अग्निपथ की भर्ती प्रक्रिया उसकी अग्निपरीक्षा होगी



अग्निपथ योजना के विरोधस्वरूप आज विपक्ष ने भारत बंद का आह्वान किया गया है | केंद्र सरकार को ये समझाइश दी जा रही है कि युवा आग समान हैं अतः उनके साथ खेलने का दुस्साहस न करे | सरकार की आलोचना करते – करते कुछ नेताओं ने सेनाध्यक्षों पर भी जिस तरह की टिप्पणियां कीं वे निश्चित तौर पर उस मर्यादा का उल्लंघन है जिसके अंतर्गत सेना को राजनीतिक आरोप – प्रत्यारोप से परे रखा जाता है | इस योजना के बारे में प्रारम्भिक तौर पर लगा कि इसे जल्दबाजी में तैयार किया गया  है | लेकिन धीरे – धीरे ये बात स्पष्ट होती  जा रही है कि बीते अनेक दशकों से  इस पर मंथन चल रहा था | जिसकी शुरुवात स्व. राजीव गांधी के प्रधानमंत्री कार्यकाल में ही हो चुकी थी | उनकी सरकार में रक्षा मंत्री रहे अरुण सिंह की अध्यक्षता में गठित समिति  ने रक्षा सुधारों को गति देने की प्रक्रिया शुरू की | उसके बाद जब वाजपेयी सरकार के समय कारगिल युद्ध हुआ तब कारगिल  रक्षा समिति बनाई गयी | मंत्रीमंडलीय स्तर की इन समितियों ने सेना के वरिष्ठ अधिकारियों के साथ लम्बी मंत्रणा और अध्ययन के बाद सेना के आधुनिकीकरण के साथ ही उसकी औसत आयु में कमी हेतु जो कार्ययोजना बनाई उसी का परिणाम है अग्निपथ | बीते कुछ दिनों में जो विमर्श इस विषय को लेकर चल रहा है उसमें पक्ष और विपक्ष दोनों पहलू सामने आये हैं | चार साल बाद सेवानिवृत्त होने वाले नौजवान का अपने भविष्य के प्रति चिंतित होना स्वाभाविक है | ये बात भी सही है कि किसी भी नौकरी का आकर्षण वेतन के अलावा मिलने वाली अन्य सुविधाएँ और भत्ते तो होते ही हैं लेकिन सेवा निवृत्ति के बाद मिलने वाली इलाज की सुविधा और पेंशन आदि का भी बड़ा महत्व है | विशेष रूप से सेना की नौकरी से निवृत्त्त जवान को मिलने वाली आर्थिक सुरक्षा तथा सुविधाओं की वजह से ही बड़ी संख्या में नौजवान सैनिक बनने की चाहत पालते हैं |   लेकिन स्व. राजीव गांधी से लेकर डा. मनमोहन सिंह तक न जाने कितने प्रधानमंत्री आये - गये परंतु किसी ने भी सेना में सुधार कार्यक्रम तैयार  करने वाली समितियों और उनकी गतिविधियों को रोका नहीं | ये भी जानकारी मिल रही है कि सेना की तरफ से समय – समय पर रक्षा मंत्रालय को तत्संबंधी सुझाव दिए गये  जिन पर सरकार द्वारा विचार किया जाता रहा  | विपक्ष में बैठे कुछ ऐसे नेता भी अग्निपथ योजना की मुखालफत कर रहे हैं जो अतीत में सत्ता में रहने के दौरान इस प्रक्रिया के या तो साक्षी थे या उससे प्रत्यक्ष तौर पर जुड़े रहे | दस साल तक डा. मनमोहन   सिंह की सरकार भी रही | कारगिल रक्षा समिति उसके पूर्व ही बन चुकी थी | फौज की औसत आयु घटाने संबंधी जो फैसले दुनिया के तमाम देशों ने किये वे ही मूल रूप से उक्त समितियों की विषय सूची में रहे होंगे | अनेक पूर्व सेनाध्यक्षों ने टीवी चर्चाओं में ये स्पष्ट किया कि वेतन और पेंशन पर कुल बजट का 85 फीसदी खर्च हो जाने के कारण सेना के आधुनिकीकरण का काम पिछड़ रहा था | ये बात भी सामने आई है कि आजकल युद्ध में सैनिकों के साथ – साथ  तकनीक की  भूमिका काफी बढ़ती जा रही है | जिसमें नई पीढ़ी जल्दी  पारंगत होती है | ये भी कि युद्ध की स्थिति में 21 से 25 साल आयु वर्ग के जवान और अधिकारी ही सबसे बढ़िया शौर्य प्रदर्शन करते हैं | इस बारे में कारगिल युद्ध का नेतृत्व कर चुके जनरल स्तर के एक अधिकारी ने स्पष्ट किया कि उस लड़ाई में जिन जवानों या अधिकारियों ने वीरता की गौरव गाथा लिखी उनमें अधिकतम उम्र 25 वर्ष ही थे  | जो आंकड़े आये हैं उनके अनुसार भारतीय सेना में औसत आयु 32 वर्ष है जबकि दुनिया के प्रमुख देशों ने इसे घटाकर 26 वर्ष कर लिया है | ऐसे में अग्निपथ योजना को लेकर खड़ा किया गया विरोध गलत अवधारणाओं और दुष्प्रचार पर आधारित लगता है | ऊपर से तोड़फोड़ , आगजनी और हिंसा का सहारा लिए जाने से इस योजना का विरोध कर रहे युवा राजनीतिक दलों के  दुष्चक्र में फंसकर अपना भविष्य चौपट कर बैठे | केंद्र सरकार ने भी स्पष्ट रूप से कह दिया है कि जिन युवकों की उपद्रव में भागीदारी पाई जावेगी उनको अग्निमित्र नहीं बनाया जावेगा | इसके साथ ही रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह के अलावा तीनों सेनाओं के प्रमुखों ने संयुक्त रूप से ये ऐलान कर दिया कि अग्निपथ  योजना को वापिस नहीं लिया जाएगा | दूसरी तरफ सेना के सभी अंगों को इस  योजना के अंतर्गत भर्ती की  प्रक्रिया तत्काल शुरु करने के निर्देश भी मंत्रालय ने जारी कर दिए हैं | कहा जा रहा है थल , वायु और नौसेना ने इस हेतु तैयारियां भी प्रारंभ कर दी है | उम्मीद जताई जा रही है कि इस वर्ष के अंत तक ही 10 हजार से ज्यादा  अग्निमित्र सेना में शामिल हो जायेंगे | जो ताजा आंकड़े हैं उनके अनुसार तकरीबन 13 हजार जवान  प्रतिवर्ष सेवा निवृत्त हो जाते हैं या नौकरी छोड़ देते हैं | सरकार द्वारा योजना वापिस न लिए जाने की घोषणा से एक बात तो साफ हो गई कि वह और सेना दोनों अग्निपथ को लेकर संकल्पित हैं और उन्हें ये विश्वास है कि ये योजना सेना और अग्निवीर दोनों  के लिए फायदेमंद साबित होगी | वैसे इसकी अग्निपरीक्षा भर्ती शुरू होते ही हो जायेगी | यदि युवाओं ने इसमें बढ़ - चढ़कर हिस्सा लिया तो ये माना जाएगा कि तोड़फोड़ , हिंसा तथा  आगजनी उसी साजिश का हिस्सा है जिसके तहत बीते कुछ समय से देश के अनेक हिस्सों में अशांति फैलाई जा रही है |  

-रवीन्द्र वाजपेयी

 

 

Saturday 18 June 2022

अग्निपथ : हिंसा करने वाले नौजवानों के भविष्य पर खतरे के बादल



सेना में जवानों की भर्ती के लिए लाई गयी अग्निपथ योजना का विरोध जिस तरह हिंसक हुआ उसमें कुछ ऐसे लोगों का हाथ भी बताया जा रहा है जो कोचिंग संस्थान चलाते हैं | विपक्ष में बैठे राजनीतिक दलों द्वारा सरकार की किसी योजना का विरोध करना तो स्वाभाविक लगता है लेकिन पिछले कुछ वर्षों से ये देखने में आ रहा है कि कुछ  अदृश्य शक्तियाँ  युवा पीढ़ी को भड़काकर हिंसा के रास्ते पर जाने हेतु प्रेरित करती हैं | पूर्व में भी उ.प्र और बिहार में रेलवे की भर्ती को लेकर युवाओं द्वारा तोड़फोड़ और आगजनी की गई थी जिससे  बिहार की एक कोचिंग के संचालक का नाम भी जुड़ा | अग्निपथ योजना के विरोध में अचानक जिस तरह से देश के अनेक शहरों में आंदोलन भड़का वह सामान्य नहीं है | सबसे प्रमुख बात जो इस बारे में देखने मिल रही है वह ये कि हर जगह आन्दोलनकारियों का व्यवहार एक समान है | रेलवे स्टेशनों को नुकसान पहुँचाने की करतूत ये साबित करती है कि आन्दोलनकारियों की आड़ में असामाजिक और देश विरोधी तत्व अपना काम कर रहे हैं | सेना जैसी संस्था के साथ जुड़ने के इच्छुक युवाओं का इस तरह की गतिविधि में हिस्सा लेने का अर्थ है कि वह उस आधारभूत भावना को ही त्याग बैठा है जो एक सैनिक की पहिचान होती है | अर्थात अनुशासन जिसके लिए भारतीय सेना पूरे विश्व में सम्मानित है | भारत सरकार के साथ ही सेना के अनेक पूर्व अधिकारियों ने भी इस योजना को युवाओं और सेना दोनों के हित में बताया है | बेहतर होता आन्दोलन करने से पहले अग्निपथ के बारे में विस्त्तृत जानकारी हासिल कर ली जाती | अब सवाल ये उठता है कि जिन युवाओं ने बीते दो – तीन दिनों में हिंसा , आगजनी , तोड़फोड़ जैसे अपराध किये क्या वे इस योजना के अंतर्गत प्रारम्भ होने जा रही भर्ती का बहिष्कार करेंगे और ये भी कि क्या जो उम्मीदवार अग्निपथ में शामिल होंगे उनको भी  रोका जावेगा ? ऐसा लगता है इस आन्दोलन का हश्र भी कृषि कानूनों के विरोध में हुए आन्दोलन जैसा होगा जिसके अंत में किसानों की स्थिति हासिल आई शून्य वाली बन गई | कोरोना के कारण सेना में भर्ती बीते दो साल से रुकी हुई थी | आन्दोलनकारियों में से कुछ का कहना है कि इस दौरान वे 21 वर्ष की आयु सीमा पार कर लेने के कारण चयन प्रक्रिया से ही बाहर हो जायेंगे | इस बात को समझकर सरकार ने तत्काल आयु सीमा 23 वर्ष कर दी | उसके बाद भी विरोध में जो तर्क दिए जा रहे हैं वे बेमानी हैं | रही बात चार वर्ष बाद सेवा - निवृत्त किये जाने की तो उस समय मिलने वाली राशि से पूर्व अग्निमित्र या तो स्व रोजगार का साधन विकसित कर सकता है या फिर अगली नौकरी के लिए प्रयास | अग्निमित्र के रूप में  चार साल की सेवा के दौरान उसे इग्नू से आगे की पढ़ाई करने की सुविधा भी मिलेगी जिससे वह भावी जीवन में बेहतर नौकरी कर सके | उसे पूर्व सैनिक न सही किन्तु पूर्व अग्निमित्र कहा जावेगा और सेना के साथ उसका जुड़ाव किसी चरित्र प्रमाणपत्र से कम न होगा | कुछ लोग अग्निमित्रों को दिहाड़ी मजदूर जैसा बताकर मजाक उड़ा रहे हैं किन्तु वे इस तथ्य की अनदेखी कर रहे हैं कि अवकाश प्राप्त अग्निमित्रों के लिए  केन्द्रीय सशस्त्र पुलिस बल और असम रायफल्स में 10 फीसदी आरक्षण  के साथ ही अधिकतम आयुसीमा में 3 वर्ष की छूट रहेगी जो पहले बैच  के लिए 5 वर्ष होगी | सच्चाई  समझे बिना हिंसा के रास्ते पर बढ़ जाने के कारण ऐसे हजारों नौजवनों का  भविष्य चौपट हो गया जिनके विरुद्ध आपराधिक प्रकरण दर्ज हो गए हैं | इस कारण न सिर्फ अग्निपथ अपितु अन्य किसी भी शासकीय सेवा के लिए वे अयोग्य माने जायेंगे | केंद्र सरकार ने अग्निमित्र भर्ती प्रक्रिया इसी हफ्ते से शुरू करने का जो फैसला किया  वह मौजूदा परिस्थितियों में पूरी तरह उचित है क्योंकि जो  बेरोजगार नौजवान वाकई जरूरतमंद हैं , वे इसका लाभ उठा सकेंगे | यदि भर्ती के लिए अभ्यर्थियों की बड़ी संख्या आई तो इस योजना की उपयोगिता को प्रमाणित करने की जरूरत नहीं रह जायेगी | वैसे भी अब तीस साल की सरकारी सेवा वाला दौर खत्म हो चुका है | सरकार पर वेतन , भत्ते और पेंशन का भार बढ़ते जाने से आर्थिक प्रबंधन गड़बड़ा गया है | सेना को ही लें तो उसके कुल बजट का मुख्य हिस्सा वेतन और पेंशन पर ही खर्च हो जाता है | ऐसे में सैन्य साजो – सामान और आधुनिकीकरण के लिये राशि कम पड़ती है | और  फिर इस तरह की योजना केवल राजनीतिक निर्णय का  परिणाम न होकर सेना के वरिष्ट अधिकारियों की सलाह पर ही बनी होगी जो उसकी जरूरतों को बेहतर तरीके से समझते हैं | ये सब देखते हुए विरोध पर उतारू नौजवानों को ठंडे दिमाग से योजना  के सभी पहलुओं को समझना चाहिए | जो प्रावधान अनुचित प्रतीत होते हों उनमें सुधार या बदलाव किया जा सकता है लेकिन उसके लिए हिंसात्मक आंदोलन करना उन देश विरोधी ताकतों के हाथों में खेलने जैसा होगा जो किसी न किसी बहाने देश में अशांति और अस्थिरता फैलाने पर आमादा हैं |  सौभाग्यवश वे अपने मकसद में सफल नहीं हो सकीं | सीएए और एनआरसी विरोधी आन्दोलन जिस तरह अपनी मौत मरे उससे साबित हो गया कि भारतीय जनमानस इन ताकतों को सिर उठाने का अवसर नहीं देगा | बीते कुछ दिनों से नूपुर शर्मा के बयान को लेकर अनेक शहरों में जुमे की नमाज के बाद जिस तरह की हिंसा की गई उससे मुस्लिम समाज की छवि खराब होने के साथ ही नूपुर शर्मा  को समर्थन और सहानुभूति मिल रही है | किसान आन्दोलन भी गणतंत्र दिवस पर दिल्ली में हुई हिंसा के बाद ही जनता की निगाहों से उतरने  लगा था | ये सब देखते हुए अग्निपथ योजना के विरोध में हिंसा कर रहे नौजवानों को अपने साथ ही देश के भविष्य के बारे में भी सोचना चाहिए क्योंकि जिस रास्ते पर वे चल रहे हैं वह उनके भविष्य को अंधकारमय बना देगा और तब जो ताकतें उन्हें भड़का रही हैं वे दूर – दराज  तक नजर नहीं आयेंगीं |  

- रवीन्द्र वाजपेयी


Friday 17 June 2022

बुलडोजर गैरकानूनी तो पत्थरबाजी किस कानून का हिस्सा है ?



 मुस्लिम संगठन जमीयत उलमा – ए – हिन्द की ओर से  प्रस्तुत की गई याचिका की सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने उ.प्र में दंगाइयों की संपत्ति पर बुलडोजर चलाये जाने पर रोक लगाने से इंकार कर दिया | हालाँकि अदालत ने राज्य सरकर को बुलडोजर रूपी कार्रवाई को कानून सम्मत और निष्पक्ष रखने की हिदायत देते हुए  तीन दिनों में जवाब पेश करने कहा है | याचिका में इस बार पर आपत्ति की गयी है कि उपद्रव के नाम पर उ.प्र सरकार बिना नोटिस दिए अचल संपत्ति को जमींदोज कर रही है | और ये भी कि अवैध निर्माण तोड़ना स्थानीय निकाय का काम है , न कि राज्य सरकार का | दूसरी  तरफ सरकार की तरफ से कहा गया कि जिन संपत्तियों पर बुलडोजर चलाये गए उन्हें हालिया दंगों के पूर्व ही सम्बंधित स्थानीय निकाय द्वारा नोटिस दिए जा चुके थे | तीन दिन बाद सरकार का उत्तर आने पर  अदालत का रुख पता चलेगा | इस बारे में ये कहना पूरी तरह सही है कि किसी का भी  मकान या अन्य अचल संपत्ति तोड़ने के पहले कानून का पालन किया जाना जरूरी है | अन्यथा प्रशासनिक अराजकता का बोलबाला हो जायेगा | लेकिन दूसरी तरफ ये भी  सही है कि जिस तरह से पत्थरबाजी को पुलिस और सरकार के विरुद्ध बतौर हथियार उपयोग किये जाने का चलन बढ़ रहा है , यदि उसे न रोका गया तो कश्मीर घाटी जैसे खतरनाक हालात पूरे देश में पैदा होना सुनिश्चित है | इस बारे में ये बात ध्यान रखनी होगी कि कश्मीर में अलगाववादी संगठन हुर्रियत कांफ्रेंस के नेता स्व. सैयद अली शाह जिलानी ने घाटी के बेरोजगार नौजवानों को पैसे देकर पत्थर फेंकने के काम में झोंका | बाद में लड़कियां भी उसमें शामिल होने लगीं | सुरक्षा बलों द्वारा किसी आतंकवादी को घेर लिए जाने पर पत्थरबाज उनके काम में व्यवधान पैदा करते हुए ये प्रयास करते थे कि आतंकवादी सुरक्षित भाग जाएँ | इसी तरह सैन्य टुकड़ियों पर पथराव कर उनकी गश्त में बाधा डालने का सुनियोजित अभियान लम्बे समय तक चला | मानवीयता के आधार पर सुरक्षा बलों को बहुत ज्यादा मजबूरी  में ही गोली चलाने के निर्देश थे | इस कारण पत्थरबाज बेखौफ होने लगे | इस पर पैलेट गन का प्रयोग किया जाने लगा जिससे निकलने वाले छर्रे उपद्रवियों को घायल तो करते किन्तु उनकी जान बच जाती थी | पैलेट गन का उपयोग काफी कारगर रहा क्योंकि उसकी वजह से हजारों उपद्रवी शारीरिक तौर पर कमजोर हुए और कुछ विकलांगता के शिकार भी | उसके विरुद्ध  सर्वोच्च न्यायालय में राज्य की  बार कौंसिल द्वारा गुहार लगाई गई जिस पर न्यायालय ने टिप्पणी की थी कि वह  सरकार को इस बारे में निर्देश दे सकता है बशर्ते पत्थरबाजी रुके | केंद्र सरकार ने उस मामले में पैलेट गन को अंतिम विकल्प बताया था | उ.प्र सहित अनेक राज्यों में हालिया दंगों के दौरान जिस तरह से पुलिस बल पर पत्थरबाजी की गई वह हूबहू कश्मीर घाटी की याद दिलाने वाली है | लेकिन वहाँ के  मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और उनकी देखादेखी म.प्र के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने भी   दंगे के बाद बुलडोजर का इस्तेमाल करते हुए दंगाइयों और उनके सरपरस्तों के आशियाने ढहाने शुरू किये तो उपद्रवी तत्वों खास तौर पर मुस्लिम समुदाय में खलबली मच  गयी | यहीं नहीं तो मुस्लिम  वोटों के लालची राजनेताओं को  भी बुलडोजर के उपयोग में तानशाही और योगी में हिटलर नजर आने लगे | लेकिन अपवाद स्वरूप छोड़ दें तो किसी भी मुस्लिम संगठन और धर्मगुरु के अलावा ओवैसी जैसे मुसलमानों के नये – नये रहनुमा ने इस पत्थरबाजी के विरुद्ध जुबान नहीं खोली | लेकिन जब दंगाइयों को  प्रोत्साहन तथा संरक्षण देने वाले माफिया सरगनाओं के निर्माणों को ध्वस्त किया जाने लगा तो छाती पीटकर मातम मनाने का सिलसिला शुरू हो गया | देश के अधिकतर राजनीतिक दल महज इसलिए बुलडोजर के उपयोग का विरोध करने आगे – आगे आ रहे हैं क्योंकि उसकी चपेट में आये ज्यादतार लोग मुस्लिम समुदाय से थे | लेकिन ये वर्ग इस हकीकत से आँख मूँद लेता है कि मस्जिदों से नमाज पढ़कर निकली मुस्लिमों की भीड़ ने ही अकारण पत्थरबाजी , लूटपाट और आगजनी को अंजाम दिया | ये बात सही है कि हमारे देश में जनांदोलनों के साथ हिंसा अनिवार्य रूप से जुडती जा रही है | चाहे आरक्षण का आन्दोलन हो या किसानों का , उसमें किसी न किसी रूप में हिंसा हो ही गई | बीते  दो दिनों से सेना में भर्ती हेतु शुरू की जा रही अग्निपथ योजना के विरोध में भी जो आन्दोलन देश के अनेक हिस्सों में हो रहे हैं उनमें भी हिंसा , तोड़फोड़ , आगजनी की  जा रही है | सेना जैसी अनुशासित संस्था में भर्ती होने के इच्छुक नवयुवक यदि कानून की धज्जियां उड़ायेंगे तो फिर वे सैनिक  बनने का दावा किस मुंह से करेंगे ? ये देखते हुए  जनादोलनों अथवा विरोध प्रदर्शनों की भी आचार संहिता बननी चाहिए जिसका उल्लंघन करने वालों को कड़ा दंड दिया जावे | वरना पटेल , जाट , गुर्जर और मराठा आरक्षण के दौरान अरबों – खरबों  के सार्वजानिक संपत्ति को नुकसान पहुँचाने के जिम्मेदार नेता बाद में किसी राजनीतिक दल में घुसकर बेदाग़ बरी होते रहेंगे  | ताजा उदाहरण हार्दिक पटेल का है | फिर भी  मुस्लिम समाज का ये आरोप गलत  है कि बुलड़ोजर के जरिये उनको धमकाया जा रहा है क्योंकि  अनेक गैर मुसलमान अपराधियों की संपत्ति भी इसके जरिये ध्वस्त की गयी है | सर्वोच्च न्यायालय इस बारे में क्या फैसला करता है ये देखने वाली बात होगी क्योंकि दंगा या उस जैसी किसी भी घटना को अंजाम देने वाले समाज विरोधी तत्वों को  प्यार और दुलार की भाषा समझ में नहीं आती | इसलिए पुलिस पर बेवजह पत्थरबाजी करने और करवाने वालों के घरों को ही नहीं अपितु मंसूबों को भी ध्वस्त करना देश हित में आवश्यक है | 

- रवीन्द्र वाजपेयी 


Thursday 16 June 2022

कांग्रेस और गांधी परिवार खुद को कानून से ऊपर समझना बंद करें



नेशनल हेराल्ड मामले में ईडी ( प्रवर्तन निदेशालय ) द्वारा पूछताछ हेतु बुलाया जाना राहुल गांधी को बहुत ही नागवार गुजर रहा है | सवालों के जवाब में उनकी खिसियाहट साफ झलक रही है | जनतांत्रिक राज परिवार की ठसक कम होने का मलाल उनके गुस्से के तौर पर प्रकट हो रहा है | लेकिन इससे भी बड़ी बात ये है कि कांग्रेस पार्टी ईडी  दफ्तर के सामने , जुलूस , धरना , प्रदर्शन कर परिवार भक्ति का प्रदर्शन करने में जुटी है | जिस दिन राहुल पहले मर्तबा ईडी पहुंचे उस दिन कांग्रेस के तमाम दिग्गजों की भीड़ शक्ति प्रदर्शन के उद्देश्य से जमा हुई जिसमें दो मुख्यमंत्री भी थे | हालाँकि पुलिस ने उन्हें वहां तक पहुँचने नहीं दिया | उसके बाद भी अगले दिनों में  कांग्रेसजन किसी न किसी रूप में ईडी कार्यालय के सामने अपने नेता से की जा रही पूछताछ का विरोध करने जमा होते रहे | पुलिस द्वारा रोके जाने पर वे वही सब करते हैं जो हमारे देश में आये दिन देखने मिलता है | कांग्रेस  एक राजनीतिक दल है जिसे लोकतान्त्रिक तरीके से सरकार का विरोध करने का पूरा अधिकार है | लेकिन न्यायालयीन प्रक्रिया के तहत चल रही किसी भी कार्रवाई का इस तरह विरोध करना ये दर्शाता है कि पार्टी में समझदारी पूरी तरह खत्म हो चुकी है | ईडी यदि गलत तरीके  से श्री गांधी से पूछताछ कर रही है तो उसे रुकवाने के लिए पार्टी के दिग्गज अधिवक्ता अदालत में गुहार लगा सकते थे | ईडी के सामने प्रदर्शन करने गये नेताओं के हुजूम में पी . चिदम्बरम जैसे देश के सुप्रसिद्ध  अधिवक्ता भी रहे | राज्यसभा सदस्य विवेक तन्खा ने गत दिवस कुछ केन्द्रीय मंत्रियों को पूछताछ का विवरण सार्वजनिक करने पर कानूनी  नोटिस भी दिया है | अभिषेक मनु सिंघवी और सलमान खुर्शीद जैसे नामी अधिवक्ता  भी पार्टी में हैं | ऐसे में यदि श्री गांधी और पार्टी को इस पूछताछ में अवैधानिकता प्रतीत हो रही है तो उनको  बेशक कानूनी लड़ाई लड़कर अपने आरोप साबित करने चाहिए | लेकिन ऐसा करने के स्थान पर पूछताछ स्थल के पास जाकर उत्पात मचाने का औचित्य शायद ही किसी की समझ में  आ रहा होगा | उससे भी बड़ी बात ये है कि इसके पहले भी अनेक कांग्रेस नेता ईडी और सीबीआई द्वारा पूछताछ अथवा जाँच हेतु बुलाये जा चुके हैं | श्री चिदम्बरम को तो सीबीआई द्वारा गिरफ्तार तक किया गया था | लेकिन उस समय क्या राहुल और कांग्रेस के अन्य नेताओं ने उनके समर्थन में जाँच  एजेंसियों के कार्यालय पर जाकर ऐसा ही उत्पात मचाया था ? अभी हाल ही में श्री चिदम्बरम के सांसद बेटे कार्ति के यहाँ भी छापेमारी हुई किन्तु कांग्रेस पार्टी ने किसी भी प्रकार का जुलूस नहीं  निकाला | ऐसे में श्री गांधी के लिए जो कि वर्तमान में कांग्रेस के सांसद होने के अलावा कार्यसमिति सदस्य ही हैं , इतना बवाल काटने का कारण मात्र परिवार परिक्रमा ही है जिसकी वजह से कांग्रेस आज वर्तमान दुरावस्था से गुजरने मजबूर है | स्मरणीय है पार्टी की कार्यकारी अध्यक्ष सोनिया गांधी को भी  नेशनल हेराल्ड मामले में पूछताछ हेतु उक्त संस्था द्वारा बुलाया गया है किन्तु अस्वस्थ हो जाने से उन्हें अगली तिथि दी जावेगी | क्या उनके ईडी जाते समय कांग्रेस इससे भी बड़ा आन्दोलन करेगी ? और फिर उसके बाद अदालत में पेशियाँ होंगी तब पार्टी के नेता और कार्यकर्ता क्या उसका भी घेराव करेंगे  ? निश्चित रूप से कांग्रेस में गांधी परिवार की हैसियत बहुत  बड़ी होगी | लेकिन जहां  क़ानून की बात आती है तब पार्टी के पद या किसी व्यक्ति  का सार्वजनिक आभामंडल अर्थहीन हो जाता है | राजनीति में बड़े पदों पर विराजमान लोग जब अपने आपको सर्वशक्तिमान मानकर कानून को अपनी मुट्ठी में रखने लग जाते हैं तब इस तरह की मानसिकता सहज रूप से विकसित होती है जिसका प्रत्यक्ष अनुभव आये दिन हमारे देश में होता है | यद्यपि ये भी  काफी हद तक सही है कि राजनीतिक विद्वेषवश भी अनेक प्रकरण नेताओं पर दर्ज होते हैं जो बाद में सबूतों के अभाव में  दम तोड़ देते हैं | लेकिन संदर्भित प्रकरण दस्तावेजी  साक्ष्य पर आधारित होने से वजनदारी रखता है और इसीलिये श्री गांधी और उनकी माताजी ने ईडी द्वारा पूछताछ हेतु भेजे  गए समन को अदालत में चुनौती देने का साहस दिखाने की बजाय सड़कों पर राजनीतिक विरोध करने जैसी  गलती कर दी | ईडी ने क्या सवाल राहुल से पूछे और उन्होने उनका क्या उत्तर दिया ये तो उन दोनों को ही पता होगा लेकिन इस घटनाक्रम को यदि वे सहजता से लेते हुए एक सामान्य नागरिक की तरह पूछ्ताछ की प्रक्रिया से गुजरते तब शायद नेशनल हेराल्ड की खरीदी – बिक्री के विवाद की विस्तृत जानकारी लोगों को न हुई होती | बेहतर हो गांधी परिवार और उनको घेरे रखने वाले दरबारी संस्कृति वाले समर्थक  अपने तौर तरीके बदलकर इस सच्चाई को समझें कि अब वह दौर नहीं रहा जिसमें गांधी परिवार और कांग्रेस के सौ खून माफ़ हुआ करते थे | 1977 में जब कांग्रेस के हाथ से सत्ता गई और इंदिरा गांधी और संजय गांधी तक क्रमशः रायबरेली और अमेठी की पुश्तैनी सीटों पर हारे तब  देश की जनता में ये आत्मविश्वास जाग गया कि नेहरु – गांधी परिवार के बिना भी देश चल सकता है | उसी के बाद केंद्र में सत्ता  परिवर्तन का सिलसिला शुरू हुआ | 1984 में राजीव गांधी जिस लहर पर सवार होकर सत्ता में आये थे वह दरअसल इंदिरा जी की हत्या की  प्रतिक्रिया थी | और इसीलिए महज पांच साल बाद जनता ने उन्हें हटा दिया | तब से 2014 तक का कालखंड राजनीतिक अनिश्चिता का  रहा लेकिन बीते आठ साल से देश ने एक दिशा तय की है | बेहतर हो गांधी परिवार के साथ कांग्रेस भी इस बात को समझ ले कि 21 वीं  सदी में भारतीय जनमानस अब व्यक्ति और परिवार की  अंधभक्ति से ऊपर उठकर मुद्दों पर बात करना और सुनना पसंद करता है | खुद को महिमामंडित करने वाली राजनीति के दिन लद चुके हैं | ऐसे में नेताओं को चाहे वे गांधी उपनाम धारी हों या दूसरा कोई  , ये समझना होगा कि संसद में बैठकर कानून बनाने वाले भी उससे ऊपर नहीं हैं | और ये भी कि यदि कोई भी एजेंसी जाँच अथवा पूछताछ हेतु किसी को बुलाती  है तो वहां सामान्य तरीके से जाने पर नेता की प्रतिष्ठा बढ़ती है | इस दृष्टि से श्री गांधी और कांग्रेस पार्टी दोनों ने बदलते हुए समय को पहिचानने में भूल कर दी | यदि आगे भी वे  इसी तरह की गलतियाँ करते रहे तब जो हाल प. बंगाल और उ.प्र में कांग्रेस का हुआ वैसा ही पूरे देश में होने लगे तो आश्चर्य नहीं होगा | 

- रवीन्द्र वाजपेयी



Wednesday 15 June 2022

अग्निपथ : बेरोजगारी दूर करने के साथ ही सेना को सक्षम बनाने में भी सहायक



 केंद्र सरकार ने अग्निपथ नामक नई योजना के जरिये भारतीय सेना के तीनों अंगों में चार वर्ष के लिए सेवा का जो ऐलान किया वह अपने ढंग का अनूठा निर्णय है | जैसा बताया गया है 21 वर्ष तक की आयु के युवक इसका लाभ ले सकेंगे | उन्हें सैन्य प्रशिक्षण देकर बाकायदा सैनिक के रूप में कार्य करने का अवसर मिलेगा | चार वर्ष के उपरान्त उनमें से 25 फीसदी को योग्यता और क्षमता के आधार पर स्थायी कर लिया जावेगा | जबकि बाकी को पूर्व सैनिक के तौर पर दूसरी नौकरी  करने का अधिकार रहेगा | सेवा निवृत्ति पर एकमुश्त राशि  भी दी जायेगी | प्रशिक्षण के दौरान  उनका जो कौशल विकास  होगा वह भविष्य में उनके लिए  सहायक साबित होगा | इन सैनिकों को अग्निवीर कहा जावेगा | इस योजना का उद्देश्य एक तो भारतीय सेना को सदैव युवाओं से परिपूर्ण बनाये रखना  है और दूसरा बेरोजगारी दूर करना | उल्लेखनीय है सेना में एक निश्चित अवधि के बाद सेवानिवृत्ति की  सुविधा होने से बड़ी संख्या में सैनिक और अधिकारी त्यागपत्र दे देते हैं | उन्हें पूरी  पेंशन और अन्य सुविधाएं भी मिलती हैं | अग्निपथ योजना का सबसे बड़ा लाभ ये होगा कि सेना में कभी भी जवानों की कमी नहीं रहेगी | वहीं  नौजवान सैनिकों की बड़ी संख्या मारक क्षमता बढ़ाने में भी सहायक साबित होगी | अमेरिका जैसे विकसित देश में पांच वर्ष की सैन्य सेवा अनिवार्य है | उसके पीछे की सोच यही है कि सेना में सैन्यबल की कभी भी कमी न हो | भारत की सेना विश्व की सबसे पेशेवर सेना मानी जाती है | चूंकि हमारी विशाल भौगोलिक सीमा चीन तथा पाकिस्तान जैसे शत्रु राष्ट्रों से घिरी  है इसलिए सैन्य बल की पर्याप्त संख्या आवश्यक है  | कुछ राज्यों और जातिगत समुदायों में तो सेना की सैन्य सेवा पुश्तैनी रूप से चली आ रही है | ऐसे में अग्निपथ नामक योजना से  रोजगार सृजन के काम  में निरंतरता बनी रहेगी | चूंकि प्रति चार वर्ष बाद भर्ती किये गए 75 फीसदी लोग निवृत्त हो जायेंगे इसलिये नए बेरोजगारों को अवसर मिलता रहेगा | जो नवयुवक लम्बे समय तक बतौर सैनिक काम  नहीं करना चाहते उनके लिये  ये सेवा बेरोजगारी से बचने का अच्छा अवसर है क्योंकि चार वर्ष बाद उन्हें किसी सरकारी अथवा निजी संस्थान की नौकरी प्राप्त करने में पूर्व सैनिक होने का लाभ भी मिल सकेगा | अनेक नौकरियों में तो पूर्व सैनिक का ही चयन किया जाता है | इसके अलावा प्रधानमन्त्री ने केंद्र सरकार के विभिन्न विभागों में रिक्त पड़े तकरीबन 10 लाख पदों को भरने के निर्देश दिए हैं | जाहिर तौर पर ये कदम 2024 के लोकसभा चुनाव की  तैयारी की तरफ इशारा करते हैं किन्तु बेरोजगारी जिस तरह से बढ़ती जा रही है उसे देखते हुए इनका स्वागत किया जाना चाहिए | यद्यपि विपक्ष ने 2 करोड़ रोजगार देने के वायदे का हवाला  देकर सरकार पर तंज भी कसा है | लेकिन मनरेगा के साथ ही रोजगार प्रदाता कोई भी योजना युवाओं के हित में ही  कही जावेगी | वैसे आत्मनिर्भर भारत की अवधारणा सरकारी नौकरी को रोजगार का एकमात्र जरिया मानने के विरुद्ध है | आजादी के बाद  सरकार द्वारा दी जाने वाली नौकरियों का अपना आकर्षण था | लम्बे समय तक सेवा करने के  अवसर के साथ ही सेवा निवृत्ति के उपरान्त पेंशन का लालच था | केन्द्रीय सेवाओं में तो जीवन भर सीजीएचएस के जरिये निःशुल्क चिकित्सा की सुविधा भी है | हालाँकि अब पुरानी पेंशन योजना तो नहीं है लेकिन आज भी सरकारी नौकरी की चाहत अधिकतर नौजवानों में देखी जा सकती है | इसका कारण उसमें नौकरी की सुरक्षा के साथ ही नए वेतनमानों का लाभ है जो निजी संस्थानों में अपेक्षाकृत नहीं मिलता | लेकिन उससे भी बड़ी बात ये है कि सरकारी नौकरी में ऊपरी कमाई का अतिरिक्त आकर्षण है | हालाँकि बीते कुछ सालों में स्व - रोजगार के प्रति नौजवान पीढ़ी  अग्रसर हुई है | सूचना तकनीक के क्षेत्र में तो निजी  क्षेत्र  ही सबसे बड़ा  रोजगार का स्रोत है |  लेकिन उसके अलावा अन्य क्षेत्र उतना रोजगार नहीं दे सके | ऐसे में तकनीकी और पेशेवर शिक्षा प्राप्त अनेक युवा अकेले या समूह बनाकर अपना उद्यम संचालित करते हुए बजाय  रोजगार मांगने के रोजगार प्रदाता बन गये हैं | स्टार्ट अप प्रकल्पों की संख्या में वृद्धि इसका प्रमाण है | कोरोना काल और उसके बाद स्व -रोजगार का चलन जिस  तरह बढ़ा  वह अच्छा संकेत है किन्तु दूसरी तरफ ये भी सही है कि सरकारी नौकरियों के बिना  बेरोजगारी  दूर नहीं हो सकती | हालाँकि वेतन के बढ़ते हुए बोझ से से बचने के लिए सरकार उनमें कमी करते हुए संविदा का सहारा ले रही है | बहुत सी सेवाएँ तो उसने निजी क्षेत्रों को ही सौंप दी हैं जिसके   नुकसान और फायदे दोनों देखने मिल रहे हैं | लेकिन ये बात पूरी तरह सही है कि रक्षा उत्पादन के क्षेत्र में भले ही निजी क्षेत्र की सेवाएँ ली जाएँ किन्तु जहाँ तक बात  सैन्य बल की है तो उसका निजीकरण नहीं हो सकता | सीमा पर लगातार तनाव बने रहने के कारण हमें अपनी सेना को सतर्क , सक्रिय और सक्षम बनाये रखना बहुत जरूरी है और उस दृष्टि से अग्निपथ एक महत्वपूर्ण कदम है | केंद्र सरकार के अन्य विभागों में जो रिक्त पद हैं उनके लिए भर्ती शुरू करने का ऐलान भी अच्छा संकेत है | नई पीढ़ी के आने से शासकीय कार्यप्रणाली में नयापन आयेगा जो समय की मांग है | रोजगार हमारे देश में चुनावी मुद्दा बनता रहा है | बिहार विधानसभा के पिछले चुनाव में तो राजद नेता तेजस्वी यादव ने इसी के बलबूते युवाओं का जबरदस्त  समर्थन बटोरा | लेकिन सरकारी नौकरियों के अलावा कौशल विकास पर जोर दिया जाना भी जरूरी है जिससे नौजवांन  अपने पैरों पर खडा होने का आत्मविश्वास अर्जित कर सकें  | अग्निपथ के जरिये केंद्र सरकार ने एक अवसर पेश किया है उन नौजवानों के लिए जो बिना कुछ किये निठल्ले घूमा करते हैं | यदि वे इस अवसर का लाभ नहीं उठाते  तब ये कहना गलत न होगा कि उनकी बेरोजगारी की असली वजह कामचोरी है |

-रवीन्द्र वाजपेयी



Tuesday 14 June 2022

तेल के खेल में आम जनता का बजट फेल



भारत के कुछ राज्यों  में पेट्रोल और डीजल की  किल्लत के समाचार आ रहे हैं | एक पेट्रोलियम कंपनी द्वारा आपूर्ति कम किये जाने से उसके  पेट्रोल  पम्प बंद हो गए हैं | इसका दबाव अन्य कंपनियों पर भी पड़ने लगा है | जानकार सूत्रों के अनुसार आने वाले दिनों में पेट्रोल - डीजल की आपूर्ति में कमी आने की आशंका है | इसकी वजह से कुछ लोगों ने बिना जरूरत के इनकी खरीदी करना शुरू कर दिया है | इस संकट की वजह तेल कंपनियों के घाटे को बताया जा रहा है | लेकिन दबी जुबान ये भी चर्चा है कि भाजपा की पूर्व प्रवक्ता नूपुर शर्मा द्वारा मो. पैगम्बर के बारे में की गयी टिप्पणी के बाद तेल उत्पादक मुस्लिम देशों ने जिस प्रकार की प्रतिक्रियाएं दीं उससे भारत सरकार के कान खड़े हो गए | हालाँकि अभी तक उनमें से किसी  भी देश ने तेल आपूर्ति रोकने की बात नहीं की और न ही उसकी  संभावना ही नजर आ रही है | लेकिन रूस से सस्ते कच्चे तेल के सौदे की वजह से हो सकता है भारत सरकार ने अरब देशों  से मिलने वाले महंगे कच्चे तेल के आयात में कमी करने की पहल की हो | रूस से आयात किये गये कच्चे तेल को उपयोग लायक बनाने में समय लगने की वजह से भी आपूर्ति में कमी आ सकती है | बहरहाल सरकार ने ये आश्वस्त किया है कि देश में पेट्रोल – डीजल की कमी नहीं है | बावजूद इसके आशंकित लोग जमाखोरी में जुट गए हैं | लेकिन जहां तक घाटे का प्रश्न है तो तेल कम्पनियों का जो आय – व्ययक प्रकाशित होता है और समय – समय पर  उनकी ओर से अधिकृत आंकड़े आते हैं , उनसे तो यही बात उजागर होती है कि उनको भारी कमाई होने से उनके पास अपार नगदी उपलब्ध है और इसी के कारण वे सस्ता तेल मिलने पर तत्काल सौदा करने में सफल हो जाती हैं | वरना रूस और यूक्रेन के बीच चल रहे युद्ध के दौरान रूस से सस्ता तेल खरीदकर जमा करने की हिम्मत न पड़ती | तेल कम्पनियाँ बीच – बीच में ये भी प्रचारित करती हैं कि उनको अमुक अवधि में इतनी राशि  का मुनाफा हुआ | कोरोना काल में जब कच्चे तेल के दाम गिरे तब इन कम्पनियों ने अनाप – शनाप कमाई की किन्तु उसका लाभ उपभोक्ता को देने से इस आधार पर इंकार कर दिया कि पिछले घाटे की भरपाई की जा रही है | सही बात तो ये है इस बारे में असलियत सामने नहीं आती | ज्यादातार तेल कम्पनियाँ चूंकि सरकारी हैं इसलिए उनके क्रियाकलापों में सरकार का हस्तक्षेप भी प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष तरीके से रहता है | लेकिन उनके द्वारा दाम ऊंचे  रखे जाने की वजह से निजी क्षेत्र की तेल कंपनियों को भी जमकर  मुनाफाखोरी करने का अवसर मिल जाता है | बीच – बीच में सरकार पेट्रोल – डीजल की  कीमतों को पूरी तरह बाजार के भरोसे छोड़ देती है | उसके बाद उनकी कीमतें सोने – चांदी की तरह लगभग रोजाना ही कम या ज्यादा होने लगती हैं किन्तु ज्योंही चुनाव करीब आते हैं , दाम स्थिर कर दिए जाते  हैं | गत वर्ष दीपावाली के ठीक पहले प्रधानमत्री ने पेट्रोल – डीजल सस्ता कर दिया था क्योंकि पांच राज्यों की विधानसभा के चुनाव होने वाले थे | चुनाव संपन्न होते  ही स्थितियां पूर्ववत होने लगीं और दामों में वृद्धि होने लगी | लेकिन इस बीच जिस तेजी से दाम  रोजाना बढ़ना शुरू हुए उसकी वजह से महंगाई का हल्ला मचा | विपक्ष को भी केंद्र सरकार पर ये ताना कसने का अवसर मिला कि पेट्रोल –  डीजल के दाम बाजार द्वारा नियंत्रित होने की बात सरासर झूठ है क्योंकि सरकार जब चाहे दाम घटाकर वाहवाही लूट लेती है | लेकिन  कीमतों के रोजाना बढ़ते समय निर्विकार बनकर बैठ जाती है | पेट्रोल – डीजल की कमी होने से आपूर्ति का जो संकट है उससे लोग इस बात से आशंकित हैं कि इसकी वजह से जमाखोर तबका कालाबाजारी शुरू कर सकता है | इस बारे में जनता की अपेक्षा है कि कच्चे तेल के तिलिस्म को लेकर व्याप्त आनिश्चतता सरकार दूर करे |  इस बात का जवाब मिलना चाहिए कि सरकारी तेल कम्पनियां घाटे में क्यों हैं , जबकि k  निजी क्षेत्र की तेल कम्पनी जबरदस्त मुनाफे में हैं | ये मुद्दा इसलिए उछलता है क्योंकि कच्चा तेल तो सभी को एक जैसे दाम पर मिलता है |  ऐसे में सरकारी कम्पनियाँ कभी तो भारी कमाई का ढोल पीटती हैं और कभी घाटे का रोना लेकर बैठ  जाती हैं | सबसे बड़ी बात है पेट्रोल और डीजल पर लगने वाले केंद्र  और राज्य के भारी  – भरकम कर | हाल ही में केंद्र सरकार ने उनमें थोड़ी कटौती की तो दाम भी धडाम से नीचे आ गये | लेकिन अभी भी इस बारे में और गुंजाईश है | बेहतर हो केंद्र और राज्य मिलकर पेट्रोल – डीजल के दाम और उनमें लगने वाले करों के पहाड़ को छोटा करें जिससे आम उपभोक्ता को  राहत  महसूस  हो | सरकार को ये ध्यान रखना चाहिए कि महंगाई के वैसे तो अनेक कारण हैं लेकिन पेट्रोल – डीजल की उनमें मुख्य भूमिका होती है | प्रधानमंत्री ,  गरीब कल्याण योजनाओं पर पानी की तरह पैसा बहा रहे हैं | राज्य सरकारें भी खुद को जन हितैषी साबित करने के लिए खजाना लुटाने में संकोच नहीं करतीं किन्तु पेट्रोल – डीजल उनकी नजर में विलासिता की वस्तु है | जबकि ये भी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तौर पर आम जनता के बजट पर असर डालती हैं | 


- रवीन्द्र वाजपेयी

Monday 13 June 2022

राष्ट्रपति और प्रधानमन्त्री में तालमेल अच्छा लेकिन उसका इशारों पर नाचना ठीक नहीं



 2007 में राष्ट्रपति का चुनाव होने वाला था | प्रो .एपीजे कलाम को दोबारा चुने जाने की बात उठी तो भाजपा उसके लिए तैयार थी |  2002 में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार के समय ही चूंकि वे  इस पद के लिए चुने गए थे लिहाजा भाजपा को उनके दोबारा चुने जाने में ऐतराज न था | देश का जनमानस भी उनको पुनः राष्ट्रपति  देखना चाहता था क्योंकि राष्ट्रपति भवन में रहते हुए वे जनता के राष्ट्रपति के रूप में लोकप्रिय हो गये थे | बजाय उस भव्य प्रासाद में कैद रहने के वे पूरे देश में लोगों से मिलते रहे | विद्यार्थियों के  साथ वे जिस तरह घुलते – मिलते उसकी वजह से उनकी छवि एक भविष्यदृष्टा की बन गई थी | मिसाइल मैन के तौर पर पहिचान बना चुके डा. कलाम के राष्ट्रपति बन जाने से भारत की छवि  वैश्विक स्तर पर ऐसे  देश के तौर पर बनी जिसने एक वैज्ञानिक को अपने सर्वोच्च पद पर प्रतिष्ठित किया | और कलाम साहेब ने भी अपने चयन को सार्थक साबित करते हुए राष्ट्रपति पद की गरिमा में वृद्धि की | ऐसे में जब उनको एक कार्यकाल और देने का विचार राजनीतिक क्षेत्र में उठा तो उसकी  अच्छी प्रतिक्रिया हुई | भाजपा की रजामंदी के बाद सपा नेता मुलायम सिंह यादव और प. बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी ने उस अभियान को आगे बढ़ाते हुए आम सहमति बनाने का प्रयास किया | हालाँकि कांग्रेस ने उस प्रस्ताव को नामंजूर कर दिया जिसके पीछे मुख्य वजह ये बताई जाती है कि 2004 में उनके कारण ही सोनिया गांधी प्रधानमन्त्री नहीं  बन सकीं | हालांकि इस बात के अधिकृत प्रमाण नहीं हैं लेकिन जिस तरह से कांग्रेस ने डा. कलाम को दूसरा कार्यकाल दिए जाने में टाँग अड़ाई , उसके पीछे और कोई कारण  दिखता भी नहीं था | उधर मुलायम सिंह और ममता ने अपनी मुहिम को आगे बढ़ाते हुए डा. कलाम की उम्मीदवारी का ऐलान करने हेतु पत्रकार वार्ता आमंत्रित कर डाली जिसमें  ममता तो पहुंच गईं लेकिन मुलायम सिंह नहीं आये और इस तरह वह कोशिश बीच रास्ते ही दम तोड़ बैठी | बाद में कांग्रेस ने प्रतिभा पाटिल का नाम आगे किया जो राष्ट्रपति बनीं लेकिन उनका कार्यकाल बेहद साधारण रहा | हालाँकि राष्ट्रपति पद पर दो अवसर  केवल प्रथम राष्ट्रपति डा.  राजेन्द्र प्रसाद को ही मिले और वह भी उनकी जिद के कारण | वरना तत्कालीन प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू उसके विरुद्ध थे | उसके बाद से राष्ट्रपति को दोबारा अवसर नहीं देने की परम्परा सी बन गयी | लेकिन उससे भी ज्यादा जो बात उभरकर सामने आई वह ये कि राष्ट्रपति भवन में अन्य क्षेत्रों के प्रतिभावान लोगों को प्रतिष्ठित करने के प्रति राजनीतिक दलों की अरुचि | हालाँकि स्व. प्रणव मुख़र्जी कुछ अपवाद कहे जा सकते हैं लेकिन इस पद हेतु उनका चयन बौद्धिकता के बजाय उनकी राजनीतिक पृष्ठभूमि की वजह से किया गया | वर्तमान राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद का जहाँ तक सवाल है तो  इस पद हेतु उनका चयन चौंकाने वाला था | यद्यपि वे उस समय बिहार के राज्यपाल  थे और राज्यसभा में भी रहे किन्तु राष्ट्रीय राजनीति में उनकी भूमिका बहुत ही सीमित रही | इसीलिए जब उनका नाम भाजपा ने तय किया तब प्रथम दृष्टया यही सुनने में आया कि नरेंद्र मोदी ने भी रबर स्टाम्प राष्ट्रपति की परम्परा को जारी रखा | हालाँकि श्री कोविंद ने राष्ट्रपति पद की गरिमा को गिरने तो नहीं दिया लेकिन वे राजेन्द्र बाबू , डा. राधाकृष्णन और डा. कलाम की श्रेणी में नहीं रखे जा सकते | अब जबकि उनका कार्यकाल समाप्त होने जा रहा है और उनके उत्तराधिकारी को लेकर अनुमानों तथा अटकलों का दौर शुरू हो गया है तब देश ये चाहता है कि जिस तरह प्रधानमंत्री श्री मोदी ने अपने व्यक्तित्व से समूचे विश्व में प्रशंसा हासिल की ठीक वैसी ही शख्सियत राष्ट्रपति भवन में विराजमान हो | भाजपा ने रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह और अपने अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा को अन्य दलों से बात कर आम सहमति बनाने का दायित्व दिया है | दूसरी तरफ ममता बैनर्जी ने भी 15 जून को विपक्षी दलों की  बैठक आमंत्रित की है | लेकिन सीपीएम के सीताराम येचुरी और महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री शिवसेना प्रमुख की ओर से इस दावतनामे को स्वीकार नहीं किया गया | श्री येचुरी ने तो सुश्री बैनर्जी द्वारा इस तरह बैठक बुलाने पर ही ऐतराज कर दिया | कांग्रेस की कार्यकारी अध्यक्ष सोनिया गांधी अस्पताल में हैं इसलिये उनकी प्रतिक्रया नहीं मिली किन्तु ऐसा लगता है राष्ट्रपति चुनाव को लेकर ममता की पहल इस बार भी अंजाम तक नहीं  पहुँच  सकेगी | इसकी एक वजह उनकी  प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा है वहीं दूसरी तरफ विपक्ष में आपसी तालमेल और विश्वास का अभाव है | ऐसे में कुछ मत कम होने के बावजूद भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए का राष्ट्रपति चुना जाना लगभग तय है | लेकिन बेहतर तो यही होगा कि संवैधानिक प्रमुख के पद पर दलीय सीमाओं में कैद किसी प्रभावहीन व्यक्ति को चुनने के बजाय आम सहमति से ऐसे व्यक्ति का चयन हो जिसका दृष्टिकोण राजनीतिक न होकर राष्ट्रीय हो | प्रधानमंत्री बनने के बाद श्री मोदी ने राजनीतिक सोच और कार्यप्रणाली में काफी सकारात्मक सुधार किये हैं | उसी कड़ी में अब उनको राष्ट्रपति पद की गरिमा में वृद्धि हेतु प्रयास करना चाहिए | देश में तमाम ऐसे व्यक्तित्व हैं जो राजनीति से अलग हटकर विभिन्न क्षेत्रों में जो काम कर रहे हैं उससे देश को फायदा मिल रहा है | भले ही राष्ट्रपति के पास प्रधानमंत्री जैसे शक्ति नहीं होती परन्तु उसकी नियुक्ति तो वही करता है | राष्ट्रपति भवन में बैठे व्यक्ति का प्रधनमंत्री से  तालमेल तो अच्छी बात है परन्तु  प्रधानमंत्री के इशारे पर उसका नाचना भी अपेक्षित नहीं है | उस दृष्टि से भाजपा से ये उम्मीद की जा सकती है कि वह चाल , चरित्र  और चेहरे  के अपने दावे के अनुरूप नए राष्ट्रपति के लिए ऐसा प्रत्याशी तय करे जिसे विपक्षी दल भी समर्थन देने बाध्य हो जाएँ | भारत का संविधान दुनिया का श्रेष्ठतम संविधान है , तो फिर  हमारा राष्ट्रपति  भी उसी के अनुरूप होना चाहिये |

-रवीन्द्र वाजपेयी

Saturday 11 June 2022

नमाज के बाद फसाद : ये कैसा इस्लाम



उ.प्र के कानपुर शहर में जुमे की नमाज से लौटे लोगों की भीड़ द्वारा किये गए दंगे की आग अभी ठंडी भी नहीं हुई थी कि गत दिवस उ.प्र के प्रयागराज , सहारनपुर और मुरादाबाद आदि के अलावा झारखंड के रांची , और प. बंगाल के हावड़ा में भी नमाज से लौट रहे मुस्लिमों की भीड़ ने बेवजह पुलिस पर पत्थर फेंकने के साथ लूटपाट और आगजनी की | इसे सांप्रदायिक दंगा कहना गलत होगा क्योंकि जिन स्थानों पर भी नमाजियों ने फसाद के हालात उत्पन्न किये वहाँ अन्य धर्मावलम्बियों के साथ उनका किसी भी  प्रकार का विवाद नहीं हुआ | हालाँकि हावड़ा में भाजपा का कार्यालय भी जला दिया गया | पुलिस की मौजूदगी ज़ाहिर है एहतियातन ही थी | लेकिन जिस तरह से उसको निशाना बनाया गया उसका कारण समझ से परे है | भाजपा से निलंबित नूपुर शर्मा द्वारा की गयी  टिप्पणी के विरोध में मुस्लिम समुदाय को विरोध का पूरा अधिकार है | वैसे भी देश भर में अनेक स्थानों पर उनके विरुद्ध अपराधिक प्रकरण दर्ज हो चुके हैं | ऐसे में मुस्लिम समुदाय को चाहिए कि वह प्रतीक्षा करे | बजाय पुलिस पर पत्थर फेंकने , आग लगाने और लूटपाट के जरिये दहशत फैलाने वालों का बचाव करने के देश के मुल्ला – मौलवियों और मुस्लिमों के स्वयंभू नेता बने फिर रहे असदुद्दीन ओवैसी यदि आतंकवादी संगठन  अल कायदा द्वारा भारत में धमाके करने की धमकी  के विरुद्ध मुंह खोलते तब उन्हें साहसी कहा जाता | ध्यान देने लायक बात ये है कि जो बात नूपुर ने कही वह तो सोशल मीडिया पर न जाने कब से प्रसारित की जाती रही है |  लेकिन तब मुसलमानों का गुस्सा नहीं जागा और न ही बैरिस्टर ओवैसी को ध्यान रहा कि उसके विरुद्ध कानूनी कदम उठाये जाते | इसी के साथ ही यू ट्यूब पर अनेक मौलवियों और मुस्लिम वक्ताओं के सैकड़ों  वीडियो उपलब्ध हैं जिनमें हिन्दू देवी – देवताओं के अलावा उनके धार्मिक ग्रन्थों के बारे में अनर्गल बातें कही गईं हैं | लेकिन किसी भी हिन्दू ने तो उनके विरुद्ध हिंसा का सहारा नहीं   लिया | इस्लाम दुनिया के सबसे नए धर्मों में है | उसका इतिहास लगभग 1500 साल पुराना ही है लेकिन उसके धर्माचार्य ऐसा प्रचारित करते हैं मानों दुनिया शुरू ही इस्लाम के आने के बाद हुई हो | अपने धर्म की श्रेष्ठता का प्रचार और उसके उपदेशों का प्रसार पूरी तरह जायज है | दुनिया में जो भी अच्छा विचार है उसका प्रचार – प्रसार धर्म  और देश की सीमाओं से ऊपर उठकर होना चाहिए | लेकिन जिन बातों से वैमनस्य फैलता है उनका तिरस्कार किया जाना भी आवश्यक है | उस दृष्टि से इस्लाम के  मानने वालों को ये  ध्यान रखना होगा कि जिस तरह वे अपने धर्म और उसके महापुरुषों के प्रति आस्था रखते हैं ठीक वैसी ही अन्य धर्मावलम्बी भी | इसलिए जब उन्हें ये अपेक्षा रहती है कि उनकी धार्मिक आस्था के प्रति दूसरे सम्मान और सहिष्णुता का भाव रखें तो इसके एवज में उन्हें भी वैसी ही  सौजन्यता दिखानी होगी | भारत में रहने वाले आम और ख़ास दोनों वर्गों के मुस्लिमों को ये बात साफ़ तौर पर समझ लेनी चाहिए कि ये मोहम्मद गौरी , चंगेज खान और नादिर शाह का दौर नहीं है और न ही ये वह हिन्दुस्तान है जिसे  आतंक के बल पर एक बार फिर बाँटा जा सके  | बेहतर हो मुस्लिम समुदाय के मुल्ला – मौलवी अपनी कौम को बजाय  मरने – मारने   जैसी  बातों  के प्रति उकसाने के इस बात की समझाइश दें  कि नमाज के बाद हिंसा करना इबादत नहीं शरारत है जिसे  कोई समझदार व्यक्ति शायद ही पसंद करेगा | गत दिवस जुमे की नमाज के बाद प्रयागराज के अलावा उ.प्र के कुछ और शहरों सहित अन्य राज्यों में जो कुछ भी  मुसलमानों की भीड़ ने किया उसकी  यदि मुल्ला – मौलवी निंदा नहीं करते तो ये मान लेना गलत न होगा कि वह सब उनकी जानकारी और सहमति से  ही हो रहा है | लेकिन सबसे बड़ा सवाल  है कि ये सब करने से मुसलमानों को हासिल क्या हो रहा है ? उलटे उनके विरुद्ध समाज में नकारात्मक सोच बढ़ती ही जा रही है | मस्जिद से नमाज पढ़कर लौटते व्यक्ति का मन तो शुद्ध और तनावरहित होना चाहिए | लेकिन मस्जिद में जाते समय नमाजी और लौटते समय फसादी का रूप धारण कर लेने वाले मुसलमान कैसे भी हों लेकिन बतौर इंसान उन्हें बेहद घटिया दर्जे का कहा जावेगा | वैसे भी इस तरह की भीड़ में अधिकतर कबाड़ी , मिस्त्री और पंचर जोड़ने वाले तबके के ज्यादा होते हैं  जिनकी अशिक्षा का लाभ लेकर उन्हें बलवा करने के लिए प्रेरित किया जाता है | लेकिन मुस्लिम समाज में जो पढ़ा – लिखा और तथाकथित तरक्की पसंद तबका है , ऐसे फसादों पर उसके मौन रहने  से  ये शक होने लगता है कि इस समुदाय में गलत बात का विरोध करने का साहस किसी में नहीं बचा है | बीते कुछ महीनों में करौली , खरगौन , जहांगीर पुरी , कानपुर और उसके बाद गत दिवस नमाज के बाद विभिन्न शहरों में जिस तरह की घटनाएं हुईं वे किसी धारावाहिक की पटकथा का हिस्सा प्रतीत होती  हैं  | हिन्दुओं के  जुलूस निकलते समय हुए विवाद का दंगे में बदल जाना एक बारगी समझ भी आता है  किन्तु पहले कानपुर और फिर कल नमाज के बाद मस्जिद से निकली भीड़ ने जिस तरह का हिंसक व्यवहार किया वह सरासर आतंकवाद है जिसका उद्देश्य देश की सत्ता को चुनौती देना है | जरूरी हो गया है जब नमाज पढने वालों का रिकॉर्ड  मस्जिद में दर्ज किया  जावे जिससे पता चल सके कि वहां से बाहर निकले किन  लोगों ने दंगा फैलाने का आपराध किया | प. बंगाल और झारखंड में तो गैर भाजपा सरकारें हैं लेकिन उ.प्र की  योगी सरकार का दंगाइयों से निपटने का तरीका पूरी तरह जायज है क्योंकि मजहब के नाम पर अंधे लोगों को प्यार – मोहब्बत की भाषा समझ में नहीं आती | यदि आने वाले जुमे पर भी यही  रवैया रहा तो फिर  मस्जिदों में  नमाज पढने वालों का पंजीयन कर उन्हें पहिचान पत्र  दिया जाना अनिवार्य करना पड़ेगा | वरना पुलिस के साथ ही कानून का पालन करने वाले नागरिकों में निराशा और नाराजगी  बढ़ेगी | इसके पहले कि जुमे की नमाज या अन्य किसी अवसर पर संगठित  पत्थरबाजी , आगजनी , लूटपाट और पुलिस बल पर हमले नियमित गतिविधि का रूप ले लें ,  इस प्रवृति पर ही  बुलडोजर चलाना जरूरी है | कश्मीर घाटी में अंतिम सांस गिन रहा आतंकवाद देश के भीतरी हिस्सों में न फैलने पाए ये देखना आन्तरिक  सुरक्षा के लिए बेहद आवश्यक  है | जिन उपद्रवियों ने पुलिस के जवानों और अधिकारियों को घायल किया है उनको  हत्या के आरोप में गिरफ्तार किया जाना चाहिये | दरअसल  दंगा महज एक अपराध नहीं अपितु मानसिकता है जिसे कड़ाई से कुचलना जरूरी है | धर्मनिरपेक्ष देश में शांति के साथ नमाज का अधिकार प्रत्येक मुसलमान को है लेकिन फसाद का किसी को भी नहीं |

- रवीन्द्र वाजपेयी 


Friday 10 June 2022

राष्ट्रपति चुनाव : नीतीश कर सकते हैं उलटफेर



 भारत के अगले राष्ट्रपति का चुनाव कार्यक्रम गत दिवस घोषित हो गया | इस हेतु 18 जुलाई को मतदान और 21 जुलाई को परिणाम घोषित होंगे | वर्तमान राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद का कार्यकाल  24 जुलाई को समाप्त होने वाला है | पिछली मर्तबा श्री कोविंद आसानी से चुन लिए गये थे | दलित होने के नाते उनको भाजपा के विरोधी दलों का समर्थन भी मिला था | लेकिन इस बार केंद्र में सत्तारूढ़ एनडीए के पास तकरीबन 10 हजार मत कम पड़ रहे हैं जिनकी भरपाई उड़ीसा के नवीन पटनायक और आंध्र के जगन मोहन रेड्डी से किये जाने की उम्मीद भाजपा कर रही है | चूंकि अभी तक उसने अपने उम्मीदवार के बारे में कोई संकेत नहीं दिया इसलिए अन्य दलों से समर्थन की सम्भावना स्पष्ट नहीं है किन्तु प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी  सहित गृह मंत्री अमित शाह और भाजपा के शीर्ष नेताओं ने राष्ट्रपति चुनाव जीतने के लिए पांसे चलने शुरू कर दिए हैं | श्री मोदी और श्री पटनायक की हाल में हुई मुलाकात को इसी से जोड़कर देखा जा रहा है | देश के वर्तमान राजनीतिक माहौल में चूंकि भाजपा के विरुद्ध ममता बैनर्जी , स्टालिन , विजयन , चन्द्रशेखर राव , उद्धव ठाकरे और हेमंत सोरेन  जैसे विपक्षी मुख्यमंत्री सक्रिय हैं वहीं कांग्रेस किसी भी सूरत में भाजपा प्रत्याशी का समर्थन नहीं करेगी | राजस्थान और छत्तीसगढ़ में उसकी सरकार है जबकि महाराष्ट्र में वह शिवसेना और रांकपा तथा झारखंड में  गठबंधन सरकार का हिस्सा है | भाजपा की तरह ही विपक्ष  भी अभी तक राष्ट्रपति चुनाव के बारे में कोई नाम तय नहीं कर सका है |  जो गणित सामने आया है उसके अनुसार एनडीए के पास निर्वाचक मंडल के 49 और विपक्ष के पास 51 फीसदी मत है | हालांकि  विपक्ष में एकजुटता  और सामंजस्य का अभाव होने से भाजपा अपना उम्मीदवार जिताने के प्रति आश्वस्त तो है लेकिन उसके  सबसे प्रमुख सहयोगी जनता दल ( यू ) के तेवर देखते हुए  उलट – पुलट होने की आशंका भी है | कुछ समय पहले तक ये चर्चा थी कि बिहार के मुख्यमंत्री  नीतीश कुमार को भाजपा राष्ट्रपति या उपराष्ट्रपति बनाने की सोच रही है | लेकिन बीते कुछ महीनों से वे  जिस तरह से उसको परेशान कर रहे हैं उसकी वजह से  लगता है उस सम्भावना की भ्रूण हत्या हो गई है | नीतीश सरकार द्वारा जाति आधारित जनगणना का फैसला निश्चित तौर पर भाजपा को चिढाने वाला है | लालू यादव के परिवार के साथ उनके मेल – मुलाक़ात और सौजन्यता के आदान –प्रदान से भी ये अटकलें हवा में तैर रही हैं कि नीतीश एक बार फिर अपने पुराने साथी के साथ चले जायेंगे | हालाँकि अब तक  उनकी तरफ से कोई कदम नहीं उठाया गया किन्तु उनकी सियासत को जानने वाले ये अनुमान लगा रहे हैं कि वे भाजपा  को बड़ा झटका देने की तैयारी में हैं और उस दृष्टि से राष्ट्रपति चुनाव सबसे अच्छा अवसर हो सकता है | उल्लेखनीय है विपक्ष के पास देश के संवैधानिक प्रमुख हेतु सबसे वजनदार प्रत्याशी शरद पवार नजर आते हैं लेकिन उम्र के इस पड़ाव पर वे हारने के लिए मैदान में नहीं उतरना चाहेंगे | ऐसे में नीतीश यदि भाजपा से नाता तोड़कर विपक्ष के साझा उम्मीदवार बनते हैं तब भाजपा की मुश्किलें और बढ़ जावेंगी क्योंकि अभी जो अंतर मामूली नजर आ रहा है वह और बड़ा हो जाएगा | यदि नीतीश इस चुनाव  में भाजपा के विरुद्ध उतर गए तब मुकाबला बेहद कडा होने के साथ ही रोचक हो जाएगा क्योंकि उनके भाजपा का साथ छोड़ते ही 2024 का विपक्षी गठबंधन आकार लेने लगेगा | हालाँकि उसमें प्रधानमंत्री पद को लेकर काफी खींचातानी है लेकिन राष्ट्रपति पद के लिए नीतीश कुमार विपक्ष के लिए मुंह माँगी मुराद साबित होंगे | उनके विपक्ष के साथ आने से बड़ी बात नहीं नवीन  पटनायक और जगन मोहन रेड्डी भी भाजपा को ठेंगा दिखा दें | हालाँकि फ़िलहाल इस बात पर यकीन कर पाना कठिन लगता है लेकिन नीतीश बेहद अनुभवी और चतुर राजनेता हैं | वे इस बात को अच्छी तरह जान  चुके हैं कि बिहार में अब उनके पास करने के लिए   कुछ बचा नहीं है और भाजपा जिस तरह अपने पैर वहां जमाती जा रही है उसके कारण अगला विधानसभा चुनाव उनके लिए मुश्किल भरा होगा | ऐसे में यदि वे विपक्ष के प्रत्याशी बनकर राष्ट्रपति चुनाव जीत  जाते हैं तो राष्ट्रपति भवन में बैठने के बाद भी वे राजनीति में प्रासंगिक बने रहेंगे क्योंकि केंद्र सरकार के लिए उनकी उपेक्षा करना  आसान नहीं होगा | 2014 में प्रधानमंत्री की कुर्सी हासिल न कर पाने का मलाल उनको अभी तक है | लेकिन  राजनीतिक मजबूरियों वश न चाहते हुए भी उनको श्री मोदी के साथ आना पड़ा जिनके कारण उन्होंने एनडीए छोड़ा था | लेकिन यदि उनको लगता है कि वे इस मुहिम में सफल नहीं होंगे तब वे श्री पवार को समर्थन देकर भाजपा को गच्चा देने का  दांव खेल सकते हैं | मौजूदा हालात में विपक्ष बुरी तरह से बिखरा हुआ एवं हताश है | कांग्रेस अपने अंतर्द्वंद में ही उलझी  हुई है | तीसरे मोर्चे के स्तम्भ रहे नेता धीरे – धीरे हाशिये पर चले गए | और फिर विपक्षी एकता में प्रधानमंत्री पद पाने की हसरत भी बाधा बन जाती है | परन्तु राष्ट्रपति के चुनाव में यदि नीतीश भाजपा को शह देने के लिए विपक्ष के साथ खड़े हो जाएँ तो श्री मोदी के सामने कठिन स्थिति बन जायेगी |   हालाँकि मोदी - शाह की जोड़ी भी नीतीश सहित विपक्ष की  किसी भी संभावित चाल पर पैनी नजर रख रही होगी  लेकिन  विपक्ष अपने छोटे – छोटे मतभेद  किनारे रख दे तो राष्ट्रपति  चुनाव के जरिये वह प्रधानमंत्री के लिए परेशानी पैदा करने में सफल हो जाएगा | ये सम्भावना किस हद तक वास्तविकता में बदलेगी ये कहना कठिन है क्योंकि जिस तरह श्री मोदी अपने विरोधियों को चौंकाने में सिद्धहस्त हैं ठीक वही गुण श्री पवार और नीतीश में भी है | ये देखते हुए आगामी कुछ सप्ताह राष्ट्रीय राजनीति में बेहद उथल - पुथल भरे होंगे | हालाँकि 1969  के राष्ट्रपति चुनाव में ही सबसे बड़ा धमाका हुआ  जब  इंदिरा गांधी ने कांग्रेस के अधिकृत उम्मीदवार नीलम संजीव रेड्डी के विरुद्ध वीवी गिरि को उतारकर आत्मा की आवाज पर मत देने का आह्वान कर दिया था | श्री गिरि की विजय ने कांग्रेस के दो टुकड़े करवा दिए लेकिन इंदिरा जी राजनीतिक तौर पर शक्तिशाली नेता के तौर पर स्थापित हो गईं | एक बात और उल्लेखनीय है कि इक्का – दुक्का अवसरों को छोड़कर राष्ट्रपति ने प्रधानमंत्री से टकराव लेने की स्थिति उत्पन्न नहीं होने दी लेकिन फिर भी डा. राजेन्द्र प्रसाद के अलावा किसी और राष्ट्रपति को दूसरा कार्यकाल नहीं दिया गया | और वह भी क्योंकि राजेंद्र बाबू उसके लिए अड़ गये थे वरना पंडित नेहरु उन्हें नापसंद करने लगे थे | इसी तरह  डा.एपीजे कलाम को दोबारा राष्ट्रपति बनाने की मुहिम चली भी किन्तु कांग्रेस राजी नहीं हुई | उस दृष्टि से श्री कोविंद मोदी सरकार के  लिए काफी अनुकूल थे किन्तु उनको राष्ट्र्पति भवन में दूसरी पारी शायद ही नसीब हो |

- रवीन्द्र वाजपेयी

Thursday 9 June 2022

जहाँ ताकत दिखाना चाहिए वहां तो दिखाती नहीं कांग्रेस



आम जनता को न तो ई. डी ( प्रवर्तन निदेशालय ) समझ आता है और न ही उसे नेशनल हेराल्ड मामले से कोई सरोकार है | दरअसल उसका ई. डी से कोई वास्ता नहीं पड़ता और दूसरी तरफ नेशनल हेराल्ड की संपत्ति में हुई कथित हेराफेरी भी  उसके संज्ञान में नहीं है | भाजपा के राज्यसभा सदस्य रहे डा. सुब्रमण्यम स्वामी की शिकायत पर ये मामला अदालत के विचाराधीन है | लेकिन हाल ही में ई.डी ने सोनिया गांधी और राहुल गांधी दोनों को समन भेजकर पूछताछ हेतु बुलाया | श्रीमती गांधी तो कोरोना संक्रमित होने के कारण हाजिर नहीं हो सकीं वहीं राहुल ने विदेश में रहने के कारण 13 तारीख को पेश होने पर सहमति दी | लेकिन इसी के साथ ये समाचार भी आ गया कि श्री गांधी ई.डी के बुलावे पर अकेले नहीं जायेंगे | बल्कि कांग्रेस के समस्त सांसद एवं वरिष्ट नेता दिल्ली स्थित पार्टी मुख्यालय से ई.डी कार्यालय  तक रैली की शक्ल में जायेंगे | पार्टी सूत्रों के अनुसार ये रैली कांग्रेस का शक्ति प्रदर्शन होगी | पार्टी का कहना है कि केंद्र सरकार ई.डी  के जरिये उसके नेताओं को परेशान कर रही है | उसी के विरोध स्वरूप ये रैली निकाली जायेगी | इस रैली का महत्व इसी से समझा जा सकता है कि इसके लिए पार्टी के सभी सांसदों और वरिष्ठ नेताओं को दिल्ली पहुँचने का निर्देश दिया गया है | लेकिन सवाल ये है कि पिछले दिनों जब कांग्रेस के कोषाध्यक्ष पवन बंसल से भी इसी प्रक्ररण में ई.डी द्वारा पूछताछ की गई थी तब कांग्रेस पार्टी को न ताकत दिखाने की याद रही और न ही उनके पक्ष में बयान जारी किये जाने की | श्री बंसल से ई.डी ने कब पूछताछ कर ली ये पता ही नहीं चला | लेकिन ज्योंही बात गांधी परिवार की आई त्योंही कांग्रेस को ताकत दिखाने का ध्यान आया | सवाल ये है कि अगर श्री गांधी 13 तारीख को साधारण तरीके से ई.डी के सामने पेश हो जाएँ तो क्या उससे कांग्रेस  की  कमजोरी जाहिर हो जायेगी ? और पार्टी मुख्यालय से ई.डी दफ्तर तक सांसदों और बड़े नेताओं की रैली निकालने से उसे ऐसा शक्तिवर्धक टॉनिक मिल जाएगा जो उसकी दुर्बलता को पलक झपकते ही दूर कर दे | पार्टी की मौजूदा हालत वाकई दयनीय है | संगठन के चुनाव लगातार टल रहे हैं | 2019 के  लोकसभा चुनाव में शर्मनाक प्रदर्शन के बाद राहुल गांधी ने नैतिकता के नाम पर  अध्यक्ष पद से त्यागपत्र दे दिया | अनेक महीनों तक  मान  – मनौव्वल  के बाद भी जब वे पद पर बने रहने को राजी नहीं हुए तब पार्टी ने  सोनिया जी को कार्यकारी अध्यक्ष बनाकर गाड़ी खींचने का फैसला किया | वह एक तदर्थ व्यवस्था थी , नया अध्यक्ष चुने जाने तक | लेकिन जहां भाजपा और अन्य विपक्षी दल 2024 के आम चुनाव हेतु अपनी रणनीति बनाने में जुट गये  हैं तब कांग्रेस पूर्णकालिक अध्यक्ष से वंचित है | हाल ही  में उदयपुर में आयोजित नव संकल्प और चिंतन शिविर में परिवारवाद से परहेज किये जाने की बात उठी थी | और भी अनेक ऐसे फैसले लिए गए जिनसे लगा कि पार्टी अतीत में की गयी गलतियों को सुधारकर भविष्य में आने वाली चुनौतियों का सामना करने के लिए कमर कसेगी | लेकिन उस शिविर के बाद ही सुनील जाखड़ , हार्दिक पटेल और कपिल सिब्बल ने कांग्रेस से नाता तोड़ लिया | राज्यसभा चुनाव के लिए जिस तरह के प्रत्याशियों का चयन पार्टी नेतृत्व ने किया उसकी चौतरफा आलोचना हुई | भाजपा के घोर विरोधी पत्रकारों और राजनीतिक विश्लेषकों तक ने ये  कहने में लेशमात्र संकोच नहीं किया कि कांग्रेस का भविष्य खतरे में है क्योंकि बजाय  सुधार करने के वह गलतियों को दोहराने पर आमादा है | उच्च सदन के लिए  प्रत्याशी चयन चूंकि गांधी परिवार द्वारा ही किया गया इसलिये वही सबके  निशाने पर आ गया | अनेक राज्यों में पार्टी विधायक पाला न बदल लें  इसलिए उनकी घेराबंदी की गयी है |  लेकिन इस सबके बीच जब पता लगाया गया कि श्री गांधी कहां हैं तब पता चला वे किसी आयोजन में गत माह लंदन गये थे | उनके साथ गए अन्य विपक्षी नेता तो कार्यक्रम के बाद देश आ गये लेकिन श्री गांधी लंबे समय तक वहीं रुके रहे | वैसे भी जब – जब देश में बड़ा  राजनीतिक घटनाक्रम होता है  तब आम तौर पर वे विदेश में ही होते हैं | जहां तक नेशनल हेराल्ड मामले में उनसे पूछताछ होनी है तो वह एक कानूनी प्रक्रिया का हिस्सा है | ई.डी उनसे पूछताछ करना चाह रही है तो उस दौरान पार्टी द्वारा रैली निकालकर शक्ति प्रदर्शन करने का क्या औचित्य है और इससे पार्टी या राहुल को कौन सी संजीवनी मिल जायेगी ये बड़ा सवाल है | यदि वे निर्दोष हैं तो ई.डी अथवा अदालत उन्हें जबरन तो दण्डित करेगी नहीं क्योंकि ये प्रकरण दस्तावेजी प्रमाणों पर आधारित है जिसमें सब कुछ खुला – खुला है और झूठी गवाही जैसी कोई आशंका भी नहीं है | बेहतर हो कांग्रेस अपनी ताकत वहां दिखाए जहां उसकी जरूरत है | गांधी परिवार के निजी मामलों में पार्टी के सांसद और अन्य नेताओं की रैली निकालने का उसका निर्णय परिवार - परिक्रमा से ज्यादा  कुछ  भी साबित नहीं होगा | उ.प्र में कुछ दिनों बाद ही  लोकसभा उपचुनाव होने वाले हैं जिनमें पार्टी ने प्रत्याशी नहीं उतारने का फैसला कर अपनी हताशा उजागर कर दी | जबकि  विधानसभा चुनाव में पार्टी की जो दुर्गति हुई उसके बाद जरूरत इस राज्य में ताकत दिखाने की है जहाँ से लोकसभा की 80 सीटें हैं | इस बारे में ये कहना गलत न होगा कि मोदी सरकार की तीखी ज़ुबानी आलोचना करने वाले राहुल ने बीते आठ साल में कांग्रेस की ओर से सरकार के विरोध में एक भी ऐसा प्रदर्शन दिल्ली में नहीं किया जिससे आम जनता को ये लगता कि वे  विपक्ष की भूमिका में अपने दायित्वबोध के प्रति सतर्क हैं  |  इसी उदासीनता का लाभ लेते हुए आम आदमी पार्टी उसके प्रभाव क्षेत्र पर कब्जा करने में सफल हो रही है | हिमाचल और गुजरात विधानसभा के आगामी चुनाव हेतु वह जिस तरह से मोर्चेबंदी कर रही है उससे कांग्रेस को सबसे ज्यादा नुकसान होना तय है | लेकिन इस सबसे बेखबर पार्टी में दरबारी संस्कृति के पैरोकार गांधी परिवार का महिमामंडन करने में ही जुटे रहते हैं | जी – 23  नामक समूह भले ही अपनी मुहिम में नाकामयाब रहा लेकिन उसने जो मुद्दे उठाये और प्रशांत किशोर ने भी पार्टी को दुबारा उभरने के लिये जो सुझाव दिए उनको नजरंदाज करते हुए पुराने ढर्रे को जारी रखने की गलती पार्टी को लगातार गर्त में ले जा रही  है | ऐसे में श्री गांधी के समर्थन में रैली निकालने से  पार्टी को कोई लाभ नहीं होने वाला |  

- रवीन्द्र वाजपेयी