Friday 30 November 2018

सर्वोच्च न्यायालय के सवाल से उठे कई सवाल

बात भले निष्कर्ष तक न पहुंच सकी हो लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने गत दिवस जो सवाल उठाया है वह केवल  सीबीआई और सीवीसी पर ही नहीं अपितु उच्च पदों पर बैठे हर उस व्यक्ति पर लागू होता है जो संवैधानिक पद से जुड़ी सुरक्षा के नाम पर स्वेच्छाचारिता पर आमादा हो जाता है। सीबीआई प्रमुख आलोक वर्मा को जबरन अवकाश पर भेजे जाने के विरुद्ध प्रस्तुत याचिका पर सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों ने गत दिवस याचिकाकर्ता के अधिवक्ताओं से जिस तरह के प्रश्न पूछे उनसे और भी ऐसे सवाल खड़े हो गये जिनका उत्तर जल्द मिलना चाहिए वरना इस तरह की उलझनें आगे भी उत्पन्न होती रहेंगी । श्री वर्मा ने उन्हें जबरन अवकाश पर भेजने के निर्णय को चुनौती देते हुए कहा कि उनका चयन चूंकि प्रधानमंत्री, सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश और लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष की समिति द्वारा होता है इसलिए उसकी मर्जी के बिना उनको पद से हटाने या उनसे कार्य छीनने का अधिकार सरकार का नहीं बल्कि उस चयन समिति का ही है। उल्लेखनीय है कि सीबीआई के दो शीर्ष अधिकारियों के बीच शुरू हुई लड़ाई के बाद केंद्र सरकार ने सीबीआई डायरेक्टर को 2 माह के अवकाश पर भेज दिया था। उनका कार्यकाल 31 जनवरी तक ही है। इस फैसले की वैधानिकता पर देशव्यापी बहस प्रारम्भ हो गई। लोकसभा में कांग्रेस संसदीय दल के नेता मल्लिकार्जुन खडग़े भी इस दलील के साथ सर्वोच्च न्यायालय जा पहुंचे कि बिना चयन समिति की सहमति के श्री वर्मा से कार्यभार छीनकर उन्हें जबरन अवकाश पर भेजने का फैसला केंद्र सरकार के अधिकार क्षेत्र के बाहर है। गत दिवस इस याचिका पर बहस के दौरान सर्वोच्च्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई और न्यायाधीश केएम जोसफ ने श्री वर्मा और श्री खडग़े के अधिवक्ताओं से पूछ लिया कि यदि सीबीआई डायरेक्टर रंगे हाथ घूस लेते पकड़ जाएं तब भी क्या चयन समिति की अनुमति के लिए प्रतीक्षा करनी होगी? यहाँ तक भी पूछा गया कि भविष्य में चुनाव आयुक्त तथा सीवीसी प्रमुख के साथ ऐसा कुछ होने पर भी क्या सीधी कार्रवाई करने के बजाय उनका चयन करने वाली समिति का मुंह ताकना पड़ेगा?  इस पर श्री वर्मा और श्री खडग़े दोनों के अधिवक्ताओं ने अपनी बात पर जोर देते हुए दो टूक कहा कि उन्हें हटाने, जबरन अवकाश पर भेजने या कार्यभार छीनकर किसी अन्य को देने के पहले समिति अथवा अदालत की सहमति जरूरी होगी। उधर सरकार की तरफ  से अटॉर्नी जनरल का तर्क था कि चयन समिति सिर्फ  सिफारिश करती है जबकि नियुक्ति चूंकि सरकार द्वारा की जाती है, अत: श्री वर्मा के विरुद्ध की गई समूची कार्रवाई उसके अधिकार क्षेत्र में ही है। साथ ही ये भी स्पष्ट किया गया श्री वर्मा न हटाये गए और न ही उनका तबादला किया गया। वे दिल्ली स्थित अपने सरकारी बंगले में ही निवासरत हैं। बहस सुनने के बाद श्री गोगोई की अध्यक्षता वाली पीठ ने सीबीआई डायरेक्टर की याचिका पर न कोई फैसला दिया और न ही उन्हें किसी भी प्रकार की राहत ही दी। न्यायपालिका से जुड़े लोगों की मानें तो सर्वोच्च न्यायालय के शीतकालीन अवकाश के उपरांत भी 31 जनवरी तक श्री वर्मा और उनके समर्थन में श्री खडग़े की याचिका पर कोई फैसला आने की सम्भवना नहीं हैं और उस स्थिति में सीबीआई प्रमुख दोबारा दफ्तर में बैठे बिना ही सेवानिवृत्त हो जाएंगे। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने घूस लेते हुए पकड़े जाने पर एक पद से हटाए जाने, कार्यभार छीन लेने, अवकाश पर भेजने को लेकर जो सवाल उठाया वह तमाम संवैधानिक पदों पर आसीन लोगों से जुड़ा हुआ है। इसे और स्पष्ट करें तो उच्च और सर्वोच्च न्यायालय के सम्मानीय  न्यायाधीशों तक पर ये सवाल लागू हो जाता है कि वे भी यदि किसी अपराधिक प्रकरण में पकड़े जाएं तब क्या उनके विरुद्ध कार्रवाई के लिए भी उक्त बंदिश रहेगी? ये प्रश्न इसलिए प्रासंगिक हो उठा क्योंकि उच्च न्यायालय के कतिपय एक न्यायाधीश सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश तक के विरुद्ध कार्रवाई का निर्देश देते हुए अपने संवैधानिक कवच का लाभ लेकर दादागिरी दिखाते रहे और फिर फरार हो गए। हालांकि बाद में उन्हें उनके किये की सजा भोगनी पड़ी किन्तु उसके पूर्व उन्होंने जो हरकतें कीं उससे तो सर्वोच्च न्यायालय तक का मजाक बनकर रह गया। संवैधानिक पदों पर नियुक्त लोगों को प्राप्त सुरक्षा और विशेषाधिकार का ही कारण था कि श्री गोगोई और श्री जोसेफ  सहित सर्वोच्च न्यायालय के दो अन्य न्यायाधीशों ने तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा के विरुद्ध पत्रकार वार्ता बुलाकर बगावती तेवर दिखा दिए। यदि शासकीय पद पर बैठे अन्य किसी अधिकारी ने वह जुर्रत की होती तब उसकी क्या गति हुई होती यह बताने की आवश्यकता नहीं है। इसीलिए सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सीबीआई प्रमुख के संदर्भ में जो प्रश्न उनके अधिवक्ता से पूछा वह उन सभी महानुभावों के बारे में भी पूछा जाना चाहिए जो इस तरह के दूसरे पदों पर बैठने के बाद खुद को सर्वशक्तिमान समझने लगते हैं। ये कहने में भी संकोच नहीं होना चाहिए कि कतिपय सम्मानीय न्यायाधीशगण भी इसी विशिष्ट स्थिति का लाभ लेकर अपनी मर्जी के मालिक बन बैठते हैं। श्री वर्मा और श्री खडग़े के अधिवक्ताओं ने श्री गोगोई और श्री जोसफ  के सवाल का सीधा,-सीधा उत्तर देने की बजाय बस एक ही रट लगाई कि जिस समिति ने सीबीआई डायरेक्टर का चयन किया वही उनके विरुद्ध कोई कार्रवाई कर सकती है, न कि सरकार। सर्वोच्च न्यायालय इन याचिकाओं पर जो भी फैसला देगा  वह भविष्य के लिए तो एक नज़ीर बनेगा ही लेकिन संवैधानिक पदों पर बैठे लोगों को मिले सुरक्षा कवच को लेकर भी बहस और निर्णय होना चाहिए क्योंकि सीबीआई डायरेक्टर की ओर से दी गई दलील से ये भय उत्पन्न हो गया है कि उन जैसे उच्च पद पर आसीन व्यक्ति खुद को असाधारण समझकर निरंकुश और स्वछंद हो गए तब समूची व्यवस्था इन लोकतांत्रिक सामंतों के जूतों तले दबकर रह जाएगी।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Thursday 29 November 2018

मतदान में ग्रामीण इलाके शहरों से आगे

मप्र विधानसभा चुनाव हेतु गत दिवस सम्पन्न मतदान में लगभग 75 फीसदी मतदान को लेकर ये संतोष व्यक्त किया जा रहा है कि 2013 की तुलना में 2.34 फीसदी अधिक है। लेकिन मतदान बढ़ाने हेतु चुनाव आयोग द्वारा किये तमाम प्रयासों के बाद भी मतदान में वृद्धि संतोषजनक नहीं कही जा सकती जैसी जानकारी अब तक मिली है उसके मुताबिक तो शहरों  के सुशिक्षित समझे जाने वाले मतदाताओं की अपेक्षा ग्रामीण इलाकों में मतदान के प्रति अपेक्षाकृत अधिक जागरूकता परिलक्षित हुई। राजधानी भोपाल तक में मतदान मात्र 65 फीसदी पर ही अटक गया। इंदौर में 75 फीसदी छोड़कर बाकी सभी बड़े शहरों में आंकड़ा 70 फीसदी के आसपास रहा। जबलपुर के उत्तर विधानसभा क्षेत्र में जहां भाजपा के बागी धीरज पटेरिया ने मुकाबले को त्रिकोणीय बना दिया था, 2013 की तुलना में मतदान का 1 फीसदी कम होना चौंकाने वाला है। जिले का औसत पिछले चुनाव की अपेक्षा यदि दो-ढाई प्रतिशत बढ़ा तो उसकी मुख्य वजह शहरी क्षेत्र की चार सीटों की बजाय ग्रामीण सीटें रहीं।  संभागीय मुख्यालयों में यदि मतदान ज्यादा होता तो मप्र का औसत मतदान प्रतिशत और बढ़ जाता। शहरों में आवागमन के साधन और सूचनातंत्र ज्यादा बेहतर होने के बाद भी यदि ग्रामीण और कस्बाई सीटों की अपेक्षा कम मतदान हुआ तो इसका आशय यही निकाला जा सकता है कि इन क्षेत्रों में रहने वाले या तो परम सन्तुष्ट हैं या फिर अपने चारों तरफ  घटने वाली चीजों से पूरी तरह निर्लिप्त। देखने वाली बात ये भी है कि शहरी क्षेत्रों में मध्यम और उच्चवर्गीय लोगों की आवासीय कालोनियों और सोसायटियों में रहने वाले पढ़े-लिखे और सम्पन्न वर्ग के मतदाताओं की अपेक्षा गरीबों की बस्तियों में रहने वाले अधिक मतदान करते हैं। इसका कारण शराब, पैसा और उस जैसे अन्य प्रलोभन भी हो सकते हैं लेकिन कहना गलत नहीं होगा  कि  यही मतदाता जीत-हार तय करते हैं। शायद इसीलए  चुनाव लडऩे वाले प्रत्याशी भी इसी मतदाता वर्ग पर ज्यादा ध्यान देते हैं। प्रजातंत्र में शिक्षित वर्ग का मतदान प्रतिशत यदि अधिक हो तो वह शुभ संकेत होता है। हालाँकि इस तबके में मतदान के प्रति रुझान बढ़ा तो है लेकिन सबसे ज्यादा कुंठित भी यही है। समाजशास्त्रियों के साथ राजनीतिक दलों को भी इस दिशा में सोचना चाहिए कि सुशिक्षित और संपन्न वर्ग के लोग शत-प्रतिशत मतदान क्यों नहीं करते?  मप्र का ये चुनाव काफी संघर्षपूर्ण रहा जिसमें कांग्रेस लंबे अर्से बाद जमकर मुकाबले में खड़ी नजर आई। बसपा, सपा भी यद्यपि मैदान में थे लेकिन मुख्य संघर्ष भाजपा और कांग्रेस के बीच ही दिखा। ऐसे में पूरे प्रदेश का मतदान प्रतिशत बढ़कर 80 तक पहुँच जाता तब ये माना जा सकता था कि मतदाताओं में जबरदस्त उत्साह रहा। 2013 के विधानसभा चुनाव से मात्र 2.34 फीसदी ज्यादा मतदान तो नए मतदाताओं की वजह से हुआ होगा वरना यथास्थिति ही रहती। इस बार मतदान बढ़ाने के लिए चुनाव आयोग के अलावा भी अनेक संगठनों ने मतदाताओं को प्रेरित किया। अखबारों में इश्तहार भी खूब छपे। उसके बावजूद भी औसत मतदान में मामूली वृद्धि होना संतोषजनक नहीं कहा जा सकता। इसकी एक वजह मुख्य पार्टियों द्वारा उतारे गए प्रत्याशियों की छवि भी हो सकती है। और भी कुछ कारण इसके पीछे होंगे जिनका अध्ययन होना चाहिए। जिस तरह के आकर्षक वायदे चुनाव घोषणापत्रों में किए जाते हैं उनको देखते हुए तो मतदान औसतन 80 फीसदी से अधिक होना चाहिये। कुछ जगह यदि होता भी है तो उसका कारण जाति एवं अन्य स्थानीय कारण होते हैं। बहुकोणीय संघर्ष भी मतदान बढ़ाने का कारण बनता है किन्तु जबलपुर की उत्तर सीट पर त्रिकोणीय मुकाबले के बाद भी मत प्रतिशत घट जाना यही इशारा करता है कि इस क्षेत्र की जनता में प्रत्याशियों को लेकर या तो निराशा थी या नाराजगी। सार के तौर पर ये कहा जा सकता है कि चुनाव आयोग के प्रयासों एवं राजनीतिक दलों के जबरदस्त अभियान के बाद भी यदि पूरे प्रदेश का मत प्रतिशत 3 फीसदी से भी कम बढ़ा तब इसे उम्मीद से कम ही कहा जाना चाहिए क्योंकि जिस पार्टी की भी सरकार बनेगी वह प्रदेश के आधे से भी कम मतदाताओं का प्रतिनिधित्व करेगी। मोदी सरकार पर अक्सर ये तोहमत लगाई जाती है कि वह मात्र 31 प्रतिशत की प्रतिनिधि है। वैसे चुनाव दर चुनाव मत प्रतिशत बढ़ता जा रहा है लेकिन देश के बहुत कम मतदान केंद्र ऐसे होते हैं जिनमें 90 फीसदी से ज्यादा मत पड़ते हों। आजकल प्रचार भी काफी हाईटेक हो गया है। टीवी, अखबार, सोशल मीडिया जैसे संचार माध्यम चुनाव चर्चा से भरे पड़े रहते हैं किन्तु फिर भी शहरी क्षेत्रों में गांवों की अपेक्षा कम मतदान होना कई सवाल खड़े करता है ।

-रवीन्द्र वाजपेयी

करतारपुर कॉरिडोर : सतर्कता जरूरी


भारत-पाक सीमा से चंद किलोमीटर दूरी पर स्थित करतारपुर  साहेब गुरुद्वारे के लिए सड़क मार्ग से आवागमन का रास्ता खोलने के लिए दोनों देशों की रजामंदी वैसे तो स्वागतयोग्य है । अभी सिख श्रद्धालु भारतीय सीमा पर लगी दूरबीन से उस पवित्र स्थान का दर्शन लाभ लेते हैं जहां गुरुनानक देव का अवसान हुआ था । बीते दो - तीन.दिनों के भीतर दोनों देशों में इस कॉरिडोर के निर्माण का शुभारम्भ भी हो गया । भारत में जहां उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू समारोह में उपस्थित रहे तो पाकिस्तान में गत दिवस प्रधानमंत्री इमरान खान और उनके न्यौते पर पूर्व क्रिकेटर पंजाब सरकार में मंत्री नवजोत सिंह सिद्धू  गए । भारत  सरकार में मंत्री हरसिमरन कौर ने भी सीमा पर जाकर भारत और सिख समाज का प्रतिनिधित्व किया । बेहद खराब रिश्तों के बीच इस तरह की पहल से द्विपक्षीय रिश्ते सुधरने की उम्मीद करना गलत नहीं है लेकिन श्री सिद्धू के वहां जाने के बाद भी पंजाब के मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह ने पाकिस्तान को आतंकवाद का समर्थन करने पर लताड़ते हुए वहां जाने से मना कर दिया । बची  हुई कसर विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने पाकिस्तान के साथ किसी भी तरह की बातचीत से मना करते हुए कर दी । दरअसल सार्क सम्मेलन का आयोजन भारत के कारण रुका हुआ है । नई दिल्ली का साफ  कहना है कि पाकिस्तान जब तक आतंकवादी संगठनों को संरक्षण देकर भारत में उपद्रव मचाता रहेगा तब तक उसके साथ दुआ-सलाम का कोई लाभ नहीं। भारत के इस रुख का अन्य सार्क देशों ने भी समर्थन किया । इमरान खान ने करतारपुर कॉरिडोर खोलकर  भारत की सद्भावना अर्जित करने की कोशिश तो कर डाली किन्तु कश्मीर का जिक्र वे लगभग हर मौके पर करते हुए भारत पर दबाव बनाने की कोशिश करते हैं । गत दिवस भी वे इससे बाज नहीं आये । ऐसे में चाहे श्री सिद्धू उनसे कितना भी याराना दिखाएं किन्तु पाकिस्तान से किसी समझदारी की उम्मीद यदि करते हों तो फिर वे मूर्खों के स्वर्ग में विचरण कर रहे हैं । इस उपलब्धि का श्रेय नवजोत भले ले लें किन्तु इस सदाशयता के पीछे पाकिस्तान की क्या योजना है इसे समझ लेना ज्यादा जरूरी है । कॉरिडोर के जरिये खलिस्तानी आतंकवाद भारत में न घुस आएं इसकी चिंता नहीं की गई तो धोखा हो सकता है ।

-रवीन्द्र वाजपेयी

Wednesday 28 November 2018

हर वक्त चुनाव से ऊबने लगे हैं लोग


मप्र की चुनावी जंग खत्म होते ही राजस्थान के प्रचार में तेजी आ गई। उसके बाद मिज़ोरम और तेलंगाना में घमासान होगा। प्रधानमंत्री , राहुल गांधी और बाकी के स्टार प्रचारक आखिरी क्षणों में अपनी पार्टी की जीत के लिए पूरा जोर लगाएंगे। स्थानीय नेता भी अपनी तरफ से हरसम्भव कोशिश पहले से ही कर रहै हैं। पिछले एक माह से भी ज्यादा समय से चुनाव वाले राज्यों में शासन-प्रशासन पूरी तरह से चुनाव कार्य में जुटा हुआ है। विकास कार्य ठप्प हैं। नए शुरू होना तो दूर रहा। चूंकि हमारे देश में राजनीति जाति, धर्म, गांव-मोहल्ले में बंटी हुई है इसलिए समाज का बड़ा हिस्सा चुनावी चक्कर में फंस जाता है। सरकारी शिक्षकों और प्राध्यापकों की चुनाव ड्यूटी लगने से शिक्षण कार्य भी प्रभावित होता है। विधानसभा चुनाव खत्म होने के कुछ समय पश्चात ही लोकसभा की चुनाव प्रक्रिया प्रारंभ हो जाएगी जो मई के आखिरी तक चलेगी। उसकी वजह से इस शैक्षणिक सत्र की वार्षिक परीक्षाओं का पूरा कार्यक्रम गड़बड़ाएगा। सबसे बड़ी बात ये है कि अगले वित्तीय वर्ष का वार्षिक बजट इसकी वजह से असमंजस में फंसा है। खबर ये है कि मोदी सरकार बजाय अंतरिम के पूर्ण बजट पेश करने का मन बना रही है। इसके पीछे सोच ये है कि लोकसभा चुनाव की वजह से देश का आर्थिक प्रबंधन प्रभवित न हो। यद्यपि विपक्ष और चुनाव आयोग इसमें अवरोध उत्पन्न कर सकता है क्योंकि लोकसभा चुनाव के कुछ महीने पूर्व  केंद्र सरकार लोक-लुभावन बजट के जरिये आम मतदाता को आकर्षित कर सकती है। लेकिन दूसरी तरफ  ये भी सही है कि जो भी नई सरकार बनेगी उसका पहला बजट तकरीबन आधे साल के लिए होगा जबकि आखिरी महज तीन चार महीनों के लिए जो कि अंतरिम ही होता है। लोकतंत्र के प्रति असीम श्रद्धा रखने के साथ ये भी विचारणीय है कि क्या देश को पूरे पांच वर्ष चुनावी माहौल में रखना उचित है ? ये प्रश्न इसलिए प्रासंगिक हो गया है कि डॉ. मनमोहन सिंह और उनके बाद नरेंद्र मोदी  लगातार चुनाव के दबाव में बहुत सारे ऐसे कार्य और निर्णय नहीं कर सके जो वे करना चाहते होंगे। राष्ट्रीय स्तर के विपक्षी दल भी चुनाव दर चुनाव की वजह से अपनी भूमिका का ठीक तरह से निर्वहन नहीं कर पाते। और तो और सर्वोच्च न्यायालय तक से कहा जाता है कि अयोध्या विवाद पर निर्णय 2019 के लोकसभा चुनाव तक टाल दिया जाए। कुल मिलाकर कहने का आशय ये है कि चुनाव हमारे देश में उन टीवी धारावाहिकों की तरह हो गए हैं जो कभी समाप्त होने का नाम ही नहीं लेते। भाजपा अक्सर मनमोहन सरकार पर नीतिगत लकवे का आरोप लगाकर उसका मजाक उड़ाया करती थी लेकिन मोदी सरकार को भी अनेक महत्वपूर्ण निर्णयों को इसीलिए रोकना पड़ा क्योंकि किसी न किसी राज्य में चुनाव प्रक्रिया या तो चल रही थी या शुरू होने वाली थी। 11 दिसम्बर को पांच राज्यों के परिणाम आने के उपरांत पहले जम्मू-कश्मीर, फिर लोकसभा और उसके साथ आंध्र सहित एक दो राज्यों के चुनाव होंगे। कुछ महीने बाद महाराष्ट्र और हरियाणा में चुनावी बिगुल बजेगा और फिर यह सिलसिला अगले पांच साल यूँ ही जारी रहेगा। इसकी वजह से प्रधानमंत्री पर सदैव अपनी पार्टी को चुनावी राज्य में जिताने का दबाव बना रहता है। समाचार माध्यमों में भी राजनीतिक खबरें छाई रहती हैं। इसका दुष्प्रभाव ये हो रहा है कि पूरा समाज ही राजनीतिक अखाड़ेबाजी में फंसकर रह गया है। जिसका अंदाज सोशल मीडिया में प्रसारित होने वाले विचार और बहस से लगाया जा सकता है। समय आ गया है जब देश को सदैव होने वाले चुनाव से मुक्त करवाया जाए। 1967 तक देश भर में लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव एक साथ होते थे। 1971 में स्व.इंदिरा गांधी ने लोकसभा भंग कर मध्यावधि चुनाव करवाया जिसके बाद चुनाव की समय सारिणी जो बिगड़ी तो आज तक सुधरने का नाम ही नहीं ले रही। हालांकि सर्वोच्च न्यायालय भी इस बारे में टिप्पणी कर चुका है और चुनाव आयोग ने भी सभी दलों को बुलाकर एक देश, एक चुनाव की पहल की किन्तु  निहित राजनीतिक उद्देश्यों की खातिर क्षेत्रीय दल तो दूर , कुछ राष्ट्रीय पार्टियों तक ने उसका विरोध कर दिया। टी एन शेषन के कार्यकाल में शुरू चुनाव सुधारों का सिलसिला अभी तक चला आ रहा है। चुनाव को कम खर्चीला बनाने के लिए भी तरह-तरह की बंदिशें लगाई गईं हैं लेकिन लोकसभा और राज्यों के चुनाव अलग-अलग होने की वजह से पूरे देश पर पडऩे वाले आर्थिक बोझ से सभी चुनाव सुधार अर्थहीन होकर रह जाते हैं। यद्यपि इस संबंध में फैसला तो राजनीतिक पार्टियों को करना है किंतु जनता को भी चाहिए कि वह इस बारे में दबाव बनाए क्योंकि अंतत: वही इसका खामियाजा भुगतती है। यूँ भी जिस तरह की परिस्थितियां बनती जा रही हैं उनको देखते हुए देर सवेर ये करना तो पड़ेगा ही। तो क्यों न इसे शीघ्रतिशीघ्र कर लिया जावे वरना ये देश सब काम छोड़कर चुनावी चक्रव्यूह में ही फंसा रहेगा।

- रवीन्द्र वाजपेयी

Tuesday 27 November 2018

चुनाव की उत्सवधर्मिता लुप्त हो गई


मुझे 1962 के चुनाव की तो हल्की सी याद है। किंतु 1967 से हुए प्रत्येक चुनाव का पूरा चित्र मेरे मानसपटल पर सजीव है । देर रात तक होने वाली आम सभाएं , झंडे - बैनर , पोस्टर , पर्चे , बिल्ले , लाउडस्पीकरों का कानफोड़ू शोर , दीवारों पर लिखे नारे उस वक्त आम बात थी ।
आज लगभग 9 बजे जबलपुर के व्यस्ततम व्यवसायिक केंद्र बड़ा फव्वारा गया तो मंगलवार के कारण भले ही अधिकतर प्रतिष्ठान बंद थे किंतु कल सुबह मतदान के मद्देनजर मुझे उम्मीद थी कि शहर की इस चेतनास्थली पर कुछ तो ऐसा दिखेगा जिसे राजनीतिक कहा जा सके । लेकिन पूरी तरह निराशा हाथ लगी। फव्वारे के दो चक्कर लगाने और बड़े महावीर के दर्शन कर घर लौट आया ।
कालोनी में तो यूँ भी सन्नाटा रहता है ।
बीते सप्ताह लोकसभा सीट की विभिन्न विधानसभा सीटों का अवलोकन किया और कमोबेश वहां भी ऐसा ही दिखा ।
कुल मिलाकर कहें तो चुनाव आयोग ने सही किया या गलत लेकिन चुनावों से उनकी उत्सवधर्मिता छीन ली।
दरअसल हम भारतीय स्वभाव से उत्सव प्रिय हैं । मेले हमारी संस्कृति का अभिन्न हिस्सा रहे हैं और रहेंगे । चुनाव भी उसी तरह का आयोजन होता था किंतु बीते दो - ढाई दशक में उसकी रौनक खत्म हो गई ।
जहां तक बात पैसे की बचत की है तो उसमें कमी आई होती तब बात समझ भी आती लेकिन जो सीमा तय की गई है उससे ज्यादा तो पार्षद और पंच के चुनाव में लोग खर्च कर देते हैं ।
चुनावों को बेनूर कर देने से बहुत सारे लोगों का रोजगार छिन गया । प्रचार सामग्री का व्यवसाय भी बहुत कम हो गया ।
चुनाव आयोग की सख्ती निरन्तर बढ़ती जा रही है । उसके प्रत्यक्ष लाभ तो हैं किंतु उसकी वजह से प्रत्याशी पूरे क्षेत्र में ढंग से जनसम्पर्क तक नहीं कर पाते । बड़ी पार्टियों का चुनाव चिन्ह तो लोग जानते हैं किंतु निर्दलीय बेचारा अपना निशान घर - घर तक पहुंचाने में सफल नहीं हो पाता ।
प्रचार के लिए समय भी कम मिलता है जिस कारण प्रत्याशी और मतदाताओं के बीच सीधा संपर्क तक नहीं हो पाता ।
चुनाव कम खर्चीले और साफ - सुथरे हों ये तो हर कोई और चाहता है लेकिन उनमें मनहूसियत भरी नीरसता अच्छी नहीं लगती।
वैसे मेरे इस मंतव्य से सभी सहमत हों ये जरूरी नहीं ।

-रवीन्द्र वाजपेयी

मतदान करते वक्त प्रतिबद्धता ही नहीं गुणवत्ता का भी ध्यान रखें

कल शाम प्रचार बन्द होते ही मप्र में अंतिम दौर की चुनावी जंग के लिए मैदान सज गया है। 15 वर्ष पुरानी  सत्ता बचाने के लिए एक तरफ  जहां भाजपा हाथ-पांव मार रही है वहीं कांग्रेस ने भी सत्ता के सूखे को खत्म करने के लिए खूब पसीना बहाया है। नरेंद्र मोदी, अमित शाह और राहुल गांधी ने जहां सभाएं और रोड शो किये वहीं भाजपा से मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान तो कांग्रेस से  प्रदेश अध्यक्ष कमल नाथ, चुनाव संयोजक  ज्योतिरादित्य सिंधिया ने भी पूरे प्रदेश की सड़कें नापीं। कांग्रेस से समझौता नहीं होने के कारण बसपा की मायावती और सपा के अखिलेश यादव ने भी चुनिंदा सीटों पर मैदानी प्रचार किया। भाजपा और कांग्रेस की दूसरी और तीसरी पंक्ति के नेताओं के चुनावी दौरे भी हुए। कुछ ने जनसभाएं कीं तो कुछ ने छोटी-छोटी गोष्ठियों के जरिये अपने दल की दाल गलाने का प्रयास किया। इस दौरान दलबदल भी खूब हुए किन्तु भाजपा से उल्लेखनीय पलायन नजर आया। बदले में उसने भी जवाबी तोडफ़ोड़ की। दलबदलुओं को टिकिट देने के मामले में इस बार कांग्रेस ने ज्यादा उदारता दिखाई। वहीं भाजपा तमाम दावों के बावजूद उतने विधायकों के टिकिट नहीं काट सकी जितनी उम्मीद की जा रही थी। सम्भवत: सरताज सिंह की बगावत और बाबूलाल गौर का धमकाने  वाला अंदाज देखकर  भाजपा नेतृत्व घबरा गया और अंतिम दौर में अनेक ऐसे विधायक और मंत्री टिकिट पा गए जिनकी छवि जनता में  बहुत खराब हो चुकी थी। कांग्रेस भी इस बीमारी से उबर नहीं सकी तथा गुटबाजी के आधार पर उम्मीदवारी की बंदरबांट हुई। बसपा ने तो अपनी संस्कृति के अनुरूप टिकिटों की खैरात बांटी जबकि सपा ने सबके लिए दरवाजे खोल दिये। कांग्रेस के दिग्गज नेता सत्यव्रत चतुर्वेदी ने अपने पुत्र को सपा से लड़वाकर कांग्रेस से किनारा कर लिया। कुल मिलाकर हुआ वही सब जिसके लिए राजनीति प्रसिद्ध है। लेकिन एक बात जो सर्वाधिक अखरने वाली हुई वह है प्रदेश में जातिवाद का जहर फैल जाना। कहे कोई कुछ भी किन्तु भाजपा और कांग्रेस दोनों ने जातिवाद के गंदे नाले में डुबकी लगाने से जरा भी परहेज नहीं किया। इसी तरह दलबदलुओं को टिकिट देकर उपकृत करने की संस्कृति भी दोनों बड़ी पार्टियों ने अपनाई। प्रचार शुरू तो सामान्य मुद्दों से हुआ था किंतु आखिरी दौर में वह निहायत ही घटिया स्तर को छू गया जो अत्यंत चिंताजनक है। कल शाम के बाद शोरशराबा तो थम गया लेकिन मतदाताओं को सोचने के कई ऐसे विषय दे गया जिन पर उसे चिंतन करना ही चाहिए। अशिक्षित और अविकसित लोगों को छोड़कर कम से कम पढ़े-लिखे और संपन्न वर्ग से तो ये अपेक्षा की ही जा सकती है कि  वे चुनाव के महत्व को समझें। संसदीय लोकतंत्र में जनता के पास सबसे बड़ा अधिकार मत देने का ही है लेकिन ये केवल एक कर्मकांड नहीं अपितु ऐसा दायित्व है जो न केवल अपने वरन समूचे समाज के हितों से जुड़ा हुआ है। दूसरे शब्दों में कहें तो मतदान के माध्यम से मतदाता अपने साथ-साथ लाखों लोगों के भविष्य का निर्धारण भी करता है। इसलिए ये जरूरी हो जाता है कि समझदार तबका मतदान करते समय जाति, वर्ग, धर्म, क्षेत्र से ऊपर उठकर व्यापक दृष्टिकोण के आधार पर निर्णय करे। समय आ गया है जब पार्टी और चुनाव चिन्ह के मोह से मुक्त होकर तुलनात्मक दृष्टि से बेहतर प्रत्याशी को अपना मत देकर राजनीति को दलों के दलदल से निकालकर एक नई रचना की जाए। यद्यपि दलीय व्यवस्था संसदीय लोकतंत्र का अभिन्न और अनिवार्य हिस्सा है तथा सरकार के स्थायित्व के लिए एक पार्टी को स्पष्ट बहुमत जरूरी है लेकिन लोकतंत्र के उज्ज्वल भविष्य के लिए प्रत्याशियों की गुणवत्ता सर्वोच्च पैमाना होना चाहिए। यदि इस चुनाव में मतदाता सांकेतिक तौर पर कुछ ऐसे प्रत्याशियों को हरवाने के लिए दलीय प्रतिबद्धता तोडऩे का साहसिक निर्णय करें जो नि:स्वार्थ जनसेवा की  जगह अपनी स्वार्थसिद्धि में लगे रहते हैं तो उससे राजनीतिक दलों को ये संदेश मिलेगा कि मतदाता गधे और घोड़े में फर्क करना सीख गए हैं। अब जबकि लगभग सभी राजनीतिक पार्टियों ने वैचारिक प्रतिबद्धता को चुनावी सफलता के बदले गिरवी रख दिया हो तथा सड़े-गले सामान को अपने नाम रूपी ब्रांड में पैक कर खपाने की हठधर्मिता पाल ली हो तब  मतदाता का ये फर्ज बन जाता है कि वह सही-गलत में फर्क करे। राजतंत्र में यथा राजा तथा प्रजा: की अवधारणा थी किंतु लोकतंत्र में यथा प्रजा तथा राजा: का सिद्धांत लागू होता है। इस आधार पर जरूरी हो जाता है कि हम अपनी पसंद की पार्टी के बंधुआ न बनते हुए अपने विवेकशील होने का भी परिचय दें। याद रहे राजनीतिक चर्चा और बहस के लिए तो हम सभी के पास असीमित समय होता है लेकिन मतदान का अवसर लंबी प्रतीक्षा के उपरांत आता है इसलिए उसका सोच-समझकर उपयोग करने की प्रवृत्ति विकसित होनी चाहिए। अन्यथा जो लोग अपने कर्तव्यों के निर्वहन के प्रति उदासीन और लापरवाह होते हैं उन्हें अपने अधिकारों के लिए चिल्लाने का भी कोई हक नहीं रह जाता।

- रवीन्द्र वाजपेयी