Wednesday 7 November 2018

" सम्पन्नता के साथ प्रसन्नता का भी अनुष्ठान करें"

भारत समृद्ध हो रहा है। प्रति व्यक्ति आय बढ़ रही है। विकास दर भी आशाओं और उम्मीदों के नए आसमान छूती दिख रही है। मध्यम वर्ग का जीवन स्तर जिस तरह ऊपर उठ रहा है उससे पूरे समाज का परिदृष्य बदलता दिख रहा है। यहां तक कि उससे नीचे वाले वर्ग की आर्थिक स्थिति भी पहले से कहीं बेहतर कही जा सकती है। सबसे बड़ी बात ये है कि देश का युवा उत्साह से भरपूर है। वह केवल सपने देखता नहीं अपितु उन्हें साकार करने के प्रति भी सजग और प्रयत्नशील है। लेकिन इससे अलग हटकर एक बड़ा वर्ग ऐसा भी है जिसके लिए ये सब बेमानी है। उसकी आंखों से नींद ही गायब है तो सपने कहाँ से आएंगे? उसके शब्दकोश में जीवन स्तर जैसी कोई बात ही नहीं है। उसे देखें तो पूरा चित्र विरोधाभासी लगता है। पढ़ा-लिखा युवा भी बेरोजगार है तो मज़दूर वर्ग भी रोजी-रोटी के संकट से जूझ रहा है। एक तरफ  सड़कें आलीशान कारों से  पटी पड़ी हैं तो दूसरी तरफ  हर शहर में फुटपाथ पर सोने वालों की संख्या बढ़ती जा रही है। समृद्धि और अभाव का समानांतर चलना  आधुनिक भारत की पहिचान बन गया है किंतु यह एक तरह का कलंक भी है जिसे धोने के सारे प्रयास ईमानदारी न होने के कारण बेअसर साबित हो जाते हैं। वादे और दावे अब अविश्वसनीय लगने लगे हैं। सबसे अधिक चिंताजनक बात ये है कि समाज में जिस तेजी से समृद्धि आ रही है उसी तेजी से गरीबी भी बढ़ रही है। सामाजिक सुरक्षा की सरकारी योजनाओं के अंतर्गत भले ही करोड़ों लोगों को संरक्षण प्रदान किया जा रहा हो लेकिन उसके बाद बाद भी विकास को लेकर वैसी समानता नहीं दिखाई दे रही जैसी अपेक्षित थी। इस सबसे अलग हटकर देखें तो भौतिक उपलब्धियों के बावजूद मानसिक शांति का अभाव होता जा रहा है। बढ़ती आत्महत्याएं इस बात का प्रमाण है कि मानसिक तनाव समृद्धि के साइड इफेक्ट की तरह हमारी जि़ंदगी का अभिन्न हिस्सा बन चुका है। हाल के वर्षों में दुराचार की घटनाओं की जानकारी जिस मात्रा में मिल रही है वह संस्कारों के क्षरण का ही परिणाम है। जिस देश में गांव और मोहल्ले की बच्ची अपनी बेटी समान होती थी वहां खून के रिश्तों पर बहशीपन का हावी हो जाना ये दर्शाता है कि शिक्षा का कितना भी प्रसार हुआ हो लेकिन सभ्यता का स्तर गिरता जा रहा है। पाठक सोच सकते हैं कि दीपावली की खुशियों के बीच इन सब बातों की चर्चा का क्या औचित्य है लेकिन जिस पर्व पर पूरा समाज धन-धान्य की अधिष्ठात्री देवी लक्ष्मी की आराधना करते हुए अपनी आर्थिक संपन्नता के लिए तरह-तरह के अनुष्ठान करता हो उस अवसर पर हमें इस बात का चिंतन भी करना चाहिए कि इस समृद्धि की कीमत कहीं हमारी मानसिक शांति और नैसर्गिक प्रसन्नता तो नहीं है। बीसवीं सदी में औद्योगिक विकास की अंधी दौड़ के कारण व्यक्ति की मानसिक शांति लुप्त होती चली गई। विकास के नाम पर परिवार और रिश्ते टूटने का जो दौर चला वह अंतत: समाज के विघटन तक जा पहुंचा और तब जाकर आधुनिक  विकास के जनक देशों को ये समझ आया कि बाहरी चमक-दमक और नकली हँसी तब तक निरर्थक है जब तक व्यक्ति अंदरूनी तौर पर सन्तुष्ट और प्रसन्न न हो। और इसी के बाद प्रसन्नता सूचकांक (हैप्पीनेस इंडेक्स) की बात उछली और दुनिया के तमाम छोटे बड़े देश आर्थिक विकास की मृग मरीचिका से निकलकर अब प्रति व्यक्ति आय की बजाय प्रति व्यक्ति प्रसन्नता को विकास का मापदंड मानने लगे हैं। दरअसल ये भारतीय चिंतन पर आधारित अवधारणा ही है जो प्राचीनकाल से भारतीय मानसिकता रही किन्तु विदेशी आक्रांताओं के आने के बाद धीरे-धीरे उसमें कमी आती गई और अंतत: वह लुप्त हो गई। समय आ गया है जब हम अपनी जड़ों की ओर लौटें। दीपावली इस बारे में सोचने का सही अवसर है जब हम अपनी सम्पन्नता की कामना करते हुए जीवन को सुखमय बनाने हेतु प्रार्थना करते हैं लेकिन देवी लक्ष्मी से धनधान्य मांगने के साथ ही हमें ऐसा कुछ भी करना चाहिए जिससे हमारा अपना ही नहीं अपितु समूचे समाज में तनाव दूर होकर प्रसन्नता का भाव उत्पन्न हो। जो समृद्धि संस्कारों की कीमत पर आती हो और जो विकास हमारे जीवन को अशांत करते हुए तनावग्रस्त कर दे वह ज़हर समान है। इस दीपावली पर आइये हम सम्पन्नता के समानांतर प्रसन्नता की प्राप्ति हेतु अपने प्रयास केंद्रित करें। मप्र सरकार ने आनंदम मंत्रालय बनाकर इस दिशा में पहल जरूर की लेकिन उसे समाज की अपेक्षित स्वीकृति और समर्थन नहीं मिल सका क्योंकि ये कार्य समाज को करना चाहिए। इस सत्य को स्वीकार करने में कोई बुराई नहीं है कि सरकार संस्कार नहीं देती। इस दीपावली पर दीप जलाते समय इस बात का संकल्प भी लें कि जीवन की सफलता का आधार सम्पन्नता की बजाय प्रसन्नता को बनाया जाए।
दीपावली की हार्दिक शुभकामनाओं सहित ,
रवीन्द्र वाजपेयी

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