Friday 2 November 2018

दक्षिण से नए समीकरण की शुरुवात

आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्राबाबू नायडू के राजनीतिक चातुर्य से कोई इंकार नहीं कर सकता। उनकी सियासत उसूलों की बजाय लेनदेन पर आधारित रहती है। संबंधों और भावनाओं को वे तनिक भी महत्व नहीं देते। इसका सबसे बड़ा उदाहरण तब मिल गया था जब उन्होंने अपने ससुर एनटीआर (एनटी रामाराव) के विरुद्ध बगावत करते हुए सत्ता हथिया ली थी। दरअसल उस समय एनटीआर के पूरे परिवार में उनकी दूसरी पत्नी लक्ष्मी पार्वती को लेकर जबरदस्त असंतोष था जिन्हें उन्होंने अपना राजनीतिक उत्तराधिकारी बनाने की कोशिश की। उसके बाद तेलुगु देशम पार्टी धीरे-धीरे श्री नायडू के कब्जे में आ गई। एनटीआर के अवसान के उपरांत लक्ष्मी पार्वती भी विस्मृतियों के धुंधलके में गुम होती चली गईं और चंद्राबाबू अविभाजित आंध्रप्रदेश की राजनीति में गैर कांग्रेसी विपक्ष के प्रतीक बन बैठे। सत्ता में आने के बाद उन्होंने हैदराबाद को सायबर सिटी बनाने का जो कारनामा किया उसकी वजह से उनकी गिनती देश के उन राजनेताओं में होने लगी जिनमें भविष्य की जरूरतों के मुताबिक सत्ता का उपयोग विकास के लिए करने की प्रवृत्ति और क्षमता है। बाबू नाम से लोकप्रिय श्री नायडू आंध्र के विभाजन के विरुद्ध थे किन्तु उसे रोक नहीं सके और मनमोहन सरकार ने भारी खूनखराबे , हिंसा और जनधन की हानि के बाद तेलंगाना बनाकर आंध्र के दो टुकड़े कर दिए जिससे इस दक्षिणी राज्य की राजनीतिक वजनदारी कम हो गई। यद्यपि उससे कांग्रेस को कोई लाभ नहीं हुआ। 2014 के लोकसभा चुनाव के संग दोनों राज्यों के भी चुनाव हुए। तेलंगाना में टीआरएस और आंध्र में तेलुगु देशम ने सत्ता प्राप्त कर ली। उस समय चंद्रबाबू ने नरेंद्र मोदी की लहर का लाभ उठाने के लिए भाजपा से नाता जोड़ लिया जिसके साथ वे वाजपेयी सरकार के दौर में भी रह चुके थे। भाजपा ने आंध्र को विशेष राज्य का दर्जा और नई राजधानी अमरावती बनाने के लिए पर्याप्त धन देने का आश्वासन दिया था। लोकसभा चुनाव में तेलुगू देशम के साथ रहने का लाभ भाजपा को भी मिला। मोदी सरकार बनने पर तेलुगू देशम के मंत्री भी बने किन्तु विशेष राज्य के दर्जे और राजधानी के लिए विशेष आर्थिक सहायता के मुद्दे पर वायदाखिलाफी को लेकर चंद्रबाबू ने एनडीए से नाता तोड़ते हुए सरकार से भी मंत्री हटा लिए। यहां तक कि वह केंद्र सरकार के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव भी ले आई। उधर भाजपा भी श्री नायडू की दबाव राजनीति से त्रस्त हो चुकी थी। इसलिए उसने भी तेलुगू देशम के नखरे उठाने की बजाय उससे दूर होना ही सही समझा। इसकी एक वजह ये भी थी कि भाजपा को ये लग गया कि चंद्रबाबू के साथ रहते हुए वह आंध्र में अपना स्वतंत्र अस्तित्व नहीं बना सकेगी। एनडीए से अलगाव के बाद से श्री नायडू भाजपा और कांग्रेस से अलग तीसरे मोर्चे को पुनर्जीवित करने में जुटे लेकिन ममता बैनर्जी , मायावती सहित अन्य नेताओं के अडिय़ल और अस्थिर रवैये के कारण वे सफल नहीं हो सके। इधर भाजपा ने जगन मोहन रेड्डी के साथ नजदीकी बढ़ाना शुरू कर दिया। तेलंगाना में विधानसभा चुनाव समय से पूर्व होने के कारण श्री नायडू को लगा कि चुनाव बाद टीआरएस राष्ट्रीय राजनीति में कहीं बेहतर भूमिका में न आ जाये क्योंकि के.चंद्रशेखर राव ने अविश्वास प्रस्ताव पर लोकसभा से बहिर्गमन कर परोक्ष रूप से मोदी सरकार की मदद कर दी। हालांकि उन्होंने विधानसभा चुनाव में  भाजपा-कांग्रेस दोनों से दूरी बनाकर लोकसभा चुनाव हेतु विकल्प खुले रखे। चंद्रबाबू ने इस शून्यकाल को भरने हेतु नए सिरे से पहल की और अंतत: वे राहुल गांधी की शरण में जा पहुंचे और इस तरह तीसरे मोर्चे की संभावना को बड़ा धक्का लगा। तेलुगू देशम के साथ आने से कांग्रेस को निश्चित रूप से आंध्र में मजबूत बैसाखी मिल गई क्योंकि जगन मोहन और भाजपा के संभावित गठजोड़ के बाद उसकी हालत और खराब हो जाती। दूसरी महत्वपूर्ण बात ये हुई कि श्री नायडू खुद होकर कांग्रेस अध्यक्ष के पास गए। लेकिन इस मुलाकात से तेलुगू देशम की गैर कांग्रेसी विपक्षी दल की छवि को भी नुकसान पहुंच सकता है। कहां तो बाबू का नाम प्रधानमंत्री के लिए चलने लगा था और कहां वे कांग्रेस के सामने नतमस्तक हो गये। उन्होंने शरद पवार सहित कुछ और विपक्षी नेताओं से भी मुलाकात की किन्तु तेलुगू देशम का कांग्रेस से मिल जाना ये दर्शाता है कि एनडीए से अलग होने के निर्णय पर भाजपा ने उनके प्रति जो उपेक्षा भाव दिखाया उससे उन्हें जबर्दस्त धक्का लगा और उनकी मानसिक स्थिति भी शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे जैसी हो गई जो सोते जागते नरेंद्र मोदी को गरियाने में लगे रहते हैं। बहरहाल राहुल से मिलने के बाद श्री नायडू ने जो बयान दिया उसे उनका गुस्सा और खिसियाहट दोनों कहा जा सकता है। भाजपा से तो वे पहले भी जुड़कर अलग हो चुके थे किंतु कांग्रेस-तेलुगू देशम की नजदीकी दुश्मन का दुश्मन अपना दोस्त की कहावत का नवीनतम पुष्टिकरण है। चंद्राबाबू की राजनीति में आए इस चारित्रिक बदलाव से न सिर्फ  दक्षिण की राजनीति अपितु राष्ट्रीय राजनीति में भी बदलाव आ सकता है। भाजपा को इससे क्या नुकसान होगा ये अभी तो नहीं कहा जा सकता लेकिन इतना अवश्य है कि श्री मोदी का विरोध राजनीतिक से ऊपर उठकर व्यक्तिगत अधिक होता जा रहा है। वैसे भाजपा के लिए भी चंद्राबाबू का कांग्रेस के साथ जुड़ाव विचारणीय है। अमित शाह के अध्यक्ष बनने के बाद भाजपा के सहयोगी दलों में जिस तरह की दहशत है वह अच्छा संकेत नहीं है। नए दोस्त मिलने और नया प्रभावक्षेत्र विकसित होने के बाद भी पुराने दोस्तों की उपेक्षा अच्छी रणनीति नहीं कही जा सकती। बहरहाल जो भी हो चंद्राबाबू ने राष्ट्रीय राजनीति में नए समीकरणों की जमीन तैयार कर दी है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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