Tuesday 27 November 2018

मतदान करते वक्त प्रतिबद्धता ही नहीं गुणवत्ता का भी ध्यान रखें

कल शाम प्रचार बन्द होते ही मप्र में अंतिम दौर की चुनावी जंग के लिए मैदान सज गया है। 15 वर्ष पुरानी  सत्ता बचाने के लिए एक तरफ  जहां भाजपा हाथ-पांव मार रही है वहीं कांग्रेस ने भी सत्ता के सूखे को खत्म करने के लिए खूब पसीना बहाया है। नरेंद्र मोदी, अमित शाह और राहुल गांधी ने जहां सभाएं और रोड शो किये वहीं भाजपा से मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान तो कांग्रेस से  प्रदेश अध्यक्ष कमल नाथ, चुनाव संयोजक  ज्योतिरादित्य सिंधिया ने भी पूरे प्रदेश की सड़कें नापीं। कांग्रेस से समझौता नहीं होने के कारण बसपा की मायावती और सपा के अखिलेश यादव ने भी चुनिंदा सीटों पर मैदानी प्रचार किया। भाजपा और कांग्रेस की दूसरी और तीसरी पंक्ति के नेताओं के चुनावी दौरे भी हुए। कुछ ने जनसभाएं कीं तो कुछ ने छोटी-छोटी गोष्ठियों के जरिये अपने दल की दाल गलाने का प्रयास किया। इस दौरान दलबदल भी खूब हुए किन्तु भाजपा से उल्लेखनीय पलायन नजर आया। बदले में उसने भी जवाबी तोडफ़ोड़ की। दलबदलुओं को टिकिट देने के मामले में इस बार कांग्रेस ने ज्यादा उदारता दिखाई। वहीं भाजपा तमाम दावों के बावजूद उतने विधायकों के टिकिट नहीं काट सकी जितनी उम्मीद की जा रही थी। सम्भवत: सरताज सिंह की बगावत और बाबूलाल गौर का धमकाने  वाला अंदाज देखकर  भाजपा नेतृत्व घबरा गया और अंतिम दौर में अनेक ऐसे विधायक और मंत्री टिकिट पा गए जिनकी छवि जनता में  बहुत खराब हो चुकी थी। कांग्रेस भी इस बीमारी से उबर नहीं सकी तथा गुटबाजी के आधार पर उम्मीदवारी की बंदरबांट हुई। बसपा ने तो अपनी संस्कृति के अनुरूप टिकिटों की खैरात बांटी जबकि सपा ने सबके लिए दरवाजे खोल दिये। कांग्रेस के दिग्गज नेता सत्यव्रत चतुर्वेदी ने अपने पुत्र को सपा से लड़वाकर कांग्रेस से किनारा कर लिया। कुल मिलाकर हुआ वही सब जिसके लिए राजनीति प्रसिद्ध है। लेकिन एक बात जो सर्वाधिक अखरने वाली हुई वह है प्रदेश में जातिवाद का जहर फैल जाना। कहे कोई कुछ भी किन्तु भाजपा और कांग्रेस दोनों ने जातिवाद के गंदे नाले में डुबकी लगाने से जरा भी परहेज नहीं किया। इसी तरह दलबदलुओं को टिकिट देकर उपकृत करने की संस्कृति भी दोनों बड़ी पार्टियों ने अपनाई। प्रचार शुरू तो सामान्य मुद्दों से हुआ था किंतु आखिरी दौर में वह निहायत ही घटिया स्तर को छू गया जो अत्यंत चिंताजनक है। कल शाम के बाद शोरशराबा तो थम गया लेकिन मतदाताओं को सोचने के कई ऐसे विषय दे गया जिन पर उसे चिंतन करना ही चाहिए। अशिक्षित और अविकसित लोगों को छोड़कर कम से कम पढ़े-लिखे और संपन्न वर्ग से तो ये अपेक्षा की ही जा सकती है कि  वे चुनाव के महत्व को समझें। संसदीय लोकतंत्र में जनता के पास सबसे बड़ा अधिकार मत देने का ही है लेकिन ये केवल एक कर्मकांड नहीं अपितु ऐसा दायित्व है जो न केवल अपने वरन समूचे समाज के हितों से जुड़ा हुआ है। दूसरे शब्दों में कहें तो मतदान के माध्यम से मतदाता अपने साथ-साथ लाखों लोगों के भविष्य का निर्धारण भी करता है। इसलिए ये जरूरी हो जाता है कि समझदार तबका मतदान करते समय जाति, वर्ग, धर्म, क्षेत्र से ऊपर उठकर व्यापक दृष्टिकोण के आधार पर निर्णय करे। समय आ गया है जब पार्टी और चुनाव चिन्ह के मोह से मुक्त होकर तुलनात्मक दृष्टि से बेहतर प्रत्याशी को अपना मत देकर राजनीति को दलों के दलदल से निकालकर एक नई रचना की जाए। यद्यपि दलीय व्यवस्था संसदीय लोकतंत्र का अभिन्न और अनिवार्य हिस्सा है तथा सरकार के स्थायित्व के लिए एक पार्टी को स्पष्ट बहुमत जरूरी है लेकिन लोकतंत्र के उज्ज्वल भविष्य के लिए प्रत्याशियों की गुणवत्ता सर्वोच्च पैमाना होना चाहिए। यदि इस चुनाव में मतदाता सांकेतिक तौर पर कुछ ऐसे प्रत्याशियों को हरवाने के लिए दलीय प्रतिबद्धता तोडऩे का साहसिक निर्णय करें जो नि:स्वार्थ जनसेवा की  जगह अपनी स्वार्थसिद्धि में लगे रहते हैं तो उससे राजनीतिक दलों को ये संदेश मिलेगा कि मतदाता गधे और घोड़े में फर्क करना सीख गए हैं। अब जबकि लगभग सभी राजनीतिक पार्टियों ने वैचारिक प्रतिबद्धता को चुनावी सफलता के बदले गिरवी रख दिया हो तथा सड़े-गले सामान को अपने नाम रूपी ब्रांड में पैक कर खपाने की हठधर्मिता पाल ली हो तब  मतदाता का ये फर्ज बन जाता है कि वह सही-गलत में फर्क करे। राजतंत्र में यथा राजा तथा प्रजा: की अवधारणा थी किंतु लोकतंत्र में यथा प्रजा तथा राजा: का सिद्धांत लागू होता है। इस आधार पर जरूरी हो जाता है कि हम अपनी पसंद की पार्टी के बंधुआ न बनते हुए अपने विवेकशील होने का भी परिचय दें। याद रहे राजनीतिक चर्चा और बहस के लिए तो हम सभी के पास असीमित समय होता है लेकिन मतदान का अवसर लंबी प्रतीक्षा के उपरांत आता है इसलिए उसका सोच-समझकर उपयोग करने की प्रवृत्ति विकसित होनी चाहिए। अन्यथा जो लोग अपने कर्तव्यों के निर्वहन के प्रति उदासीन और लापरवाह होते हैं उन्हें अपने अधिकारों के लिए चिल्लाने का भी कोई हक नहीं रह जाता।

- रवीन्द्र वाजपेयी

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