Friday 30 November 2018

सर्वोच्च न्यायालय के सवाल से उठे कई सवाल

बात भले निष्कर्ष तक न पहुंच सकी हो लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने गत दिवस जो सवाल उठाया है वह केवल  सीबीआई और सीवीसी पर ही नहीं अपितु उच्च पदों पर बैठे हर उस व्यक्ति पर लागू होता है जो संवैधानिक पद से जुड़ी सुरक्षा के नाम पर स्वेच्छाचारिता पर आमादा हो जाता है। सीबीआई प्रमुख आलोक वर्मा को जबरन अवकाश पर भेजे जाने के विरुद्ध प्रस्तुत याचिका पर सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों ने गत दिवस याचिकाकर्ता के अधिवक्ताओं से जिस तरह के प्रश्न पूछे उनसे और भी ऐसे सवाल खड़े हो गये जिनका उत्तर जल्द मिलना चाहिए वरना इस तरह की उलझनें आगे भी उत्पन्न होती रहेंगी । श्री वर्मा ने उन्हें जबरन अवकाश पर भेजने के निर्णय को चुनौती देते हुए कहा कि उनका चयन चूंकि प्रधानमंत्री, सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश और लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष की समिति द्वारा होता है इसलिए उसकी मर्जी के बिना उनको पद से हटाने या उनसे कार्य छीनने का अधिकार सरकार का नहीं बल्कि उस चयन समिति का ही है। उल्लेखनीय है कि सीबीआई के दो शीर्ष अधिकारियों के बीच शुरू हुई लड़ाई के बाद केंद्र सरकार ने सीबीआई डायरेक्टर को 2 माह के अवकाश पर भेज दिया था। उनका कार्यकाल 31 जनवरी तक ही है। इस फैसले की वैधानिकता पर देशव्यापी बहस प्रारम्भ हो गई। लोकसभा में कांग्रेस संसदीय दल के नेता मल्लिकार्जुन खडग़े भी इस दलील के साथ सर्वोच्च न्यायालय जा पहुंचे कि बिना चयन समिति की सहमति के श्री वर्मा से कार्यभार छीनकर उन्हें जबरन अवकाश पर भेजने का फैसला केंद्र सरकार के अधिकार क्षेत्र के बाहर है। गत दिवस इस याचिका पर बहस के दौरान सर्वोच्च्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई और न्यायाधीश केएम जोसफ ने श्री वर्मा और श्री खडग़े के अधिवक्ताओं से पूछ लिया कि यदि सीबीआई डायरेक्टर रंगे हाथ घूस लेते पकड़ जाएं तब भी क्या चयन समिति की अनुमति के लिए प्रतीक्षा करनी होगी? यहाँ तक भी पूछा गया कि भविष्य में चुनाव आयुक्त तथा सीवीसी प्रमुख के साथ ऐसा कुछ होने पर भी क्या सीधी कार्रवाई करने के बजाय उनका चयन करने वाली समिति का मुंह ताकना पड़ेगा?  इस पर श्री वर्मा और श्री खडग़े दोनों के अधिवक्ताओं ने अपनी बात पर जोर देते हुए दो टूक कहा कि उन्हें हटाने, जबरन अवकाश पर भेजने या कार्यभार छीनकर किसी अन्य को देने के पहले समिति अथवा अदालत की सहमति जरूरी होगी। उधर सरकार की तरफ  से अटॉर्नी जनरल का तर्क था कि चयन समिति सिर्फ  सिफारिश करती है जबकि नियुक्ति चूंकि सरकार द्वारा की जाती है, अत: श्री वर्मा के विरुद्ध की गई समूची कार्रवाई उसके अधिकार क्षेत्र में ही है। साथ ही ये भी स्पष्ट किया गया श्री वर्मा न हटाये गए और न ही उनका तबादला किया गया। वे दिल्ली स्थित अपने सरकारी बंगले में ही निवासरत हैं। बहस सुनने के बाद श्री गोगोई की अध्यक्षता वाली पीठ ने सीबीआई डायरेक्टर की याचिका पर न कोई फैसला दिया और न ही उन्हें किसी भी प्रकार की राहत ही दी। न्यायपालिका से जुड़े लोगों की मानें तो सर्वोच्च न्यायालय के शीतकालीन अवकाश के उपरांत भी 31 जनवरी तक श्री वर्मा और उनके समर्थन में श्री खडग़े की याचिका पर कोई फैसला आने की सम्भवना नहीं हैं और उस स्थिति में सीबीआई प्रमुख दोबारा दफ्तर में बैठे बिना ही सेवानिवृत्त हो जाएंगे। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने घूस लेते हुए पकड़े जाने पर एक पद से हटाए जाने, कार्यभार छीन लेने, अवकाश पर भेजने को लेकर जो सवाल उठाया वह तमाम संवैधानिक पदों पर आसीन लोगों से जुड़ा हुआ है। इसे और स्पष्ट करें तो उच्च और सर्वोच्च न्यायालय के सम्मानीय  न्यायाधीशों तक पर ये सवाल लागू हो जाता है कि वे भी यदि किसी अपराधिक प्रकरण में पकड़े जाएं तब क्या उनके विरुद्ध कार्रवाई के लिए भी उक्त बंदिश रहेगी? ये प्रश्न इसलिए प्रासंगिक हो उठा क्योंकि उच्च न्यायालय के कतिपय एक न्यायाधीश सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश तक के विरुद्ध कार्रवाई का निर्देश देते हुए अपने संवैधानिक कवच का लाभ लेकर दादागिरी दिखाते रहे और फिर फरार हो गए। हालांकि बाद में उन्हें उनके किये की सजा भोगनी पड़ी किन्तु उसके पूर्व उन्होंने जो हरकतें कीं उससे तो सर्वोच्च न्यायालय तक का मजाक बनकर रह गया। संवैधानिक पदों पर नियुक्त लोगों को प्राप्त सुरक्षा और विशेषाधिकार का ही कारण था कि श्री गोगोई और श्री जोसेफ  सहित सर्वोच्च न्यायालय के दो अन्य न्यायाधीशों ने तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा के विरुद्ध पत्रकार वार्ता बुलाकर बगावती तेवर दिखा दिए। यदि शासकीय पद पर बैठे अन्य किसी अधिकारी ने वह जुर्रत की होती तब उसकी क्या गति हुई होती यह बताने की आवश्यकता नहीं है। इसीलिए सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सीबीआई प्रमुख के संदर्भ में जो प्रश्न उनके अधिवक्ता से पूछा वह उन सभी महानुभावों के बारे में भी पूछा जाना चाहिए जो इस तरह के दूसरे पदों पर बैठने के बाद खुद को सर्वशक्तिमान समझने लगते हैं। ये कहने में भी संकोच नहीं होना चाहिए कि कतिपय सम्मानीय न्यायाधीशगण भी इसी विशिष्ट स्थिति का लाभ लेकर अपनी मर्जी के मालिक बन बैठते हैं। श्री वर्मा और श्री खडग़े के अधिवक्ताओं ने श्री गोगोई और श्री जोसफ  के सवाल का सीधा,-सीधा उत्तर देने की बजाय बस एक ही रट लगाई कि जिस समिति ने सीबीआई डायरेक्टर का चयन किया वही उनके विरुद्ध कोई कार्रवाई कर सकती है, न कि सरकार। सर्वोच्च न्यायालय इन याचिकाओं पर जो भी फैसला देगा  वह भविष्य के लिए तो एक नज़ीर बनेगा ही लेकिन संवैधानिक पदों पर बैठे लोगों को मिले सुरक्षा कवच को लेकर भी बहस और निर्णय होना चाहिए क्योंकि सीबीआई डायरेक्टर की ओर से दी गई दलील से ये भय उत्पन्न हो गया है कि उन जैसे उच्च पद पर आसीन व्यक्ति खुद को असाधारण समझकर निरंकुश और स्वछंद हो गए तब समूची व्यवस्था इन लोकतांत्रिक सामंतों के जूतों तले दबकर रह जाएगी।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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