Tuesday 27 November 2018

चुनाव की उत्सवधर्मिता लुप्त हो गई


मुझे 1962 के चुनाव की तो हल्की सी याद है। किंतु 1967 से हुए प्रत्येक चुनाव का पूरा चित्र मेरे मानसपटल पर सजीव है । देर रात तक होने वाली आम सभाएं , झंडे - बैनर , पोस्टर , पर्चे , बिल्ले , लाउडस्पीकरों का कानफोड़ू शोर , दीवारों पर लिखे नारे उस वक्त आम बात थी ।
आज लगभग 9 बजे जबलपुर के व्यस्ततम व्यवसायिक केंद्र बड़ा फव्वारा गया तो मंगलवार के कारण भले ही अधिकतर प्रतिष्ठान बंद थे किंतु कल सुबह मतदान के मद्देनजर मुझे उम्मीद थी कि शहर की इस चेतनास्थली पर कुछ तो ऐसा दिखेगा जिसे राजनीतिक कहा जा सके । लेकिन पूरी तरह निराशा हाथ लगी। फव्वारे के दो चक्कर लगाने और बड़े महावीर के दर्शन कर घर लौट आया ।
कालोनी में तो यूँ भी सन्नाटा रहता है ।
बीते सप्ताह लोकसभा सीट की विभिन्न विधानसभा सीटों का अवलोकन किया और कमोबेश वहां भी ऐसा ही दिखा ।
कुल मिलाकर कहें तो चुनाव आयोग ने सही किया या गलत लेकिन चुनावों से उनकी उत्सवधर्मिता छीन ली।
दरअसल हम भारतीय स्वभाव से उत्सव प्रिय हैं । मेले हमारी संस्कृति का अभिन्न हिस्सा रहे हैं और रहेंगे । चुनाव भी उसी तरह का आयोजन होता था किंतु बीते दो - ढाई दशक में उसकी रौनक खत्म हो गई ।
जहां तक बात पैसे की बचत की है तो उसमें कमी आई होती तब बात समझ भी आती लेकिन जो सीमा तय की गई है उससे ज्यादा तो पार्षद और पंच के चुनाव में लोग खर्च कर देते हैं ।
चुनावों को बेनूर कर देने से बहुत सारे लोगों का रोजगार छिन गया । प्रचार सामग्री का व्यवसाय भी बहुत कम हो गया ।
चुनाव आयोग की सख्ती निरन्तर बढ़ती जा रही है । उसके प्रत्यक्ष लाभ तो हैं किंतु उसकी वजह से प्रत्याशी पूरे क्षेत्र में ढंग से जनसम्पर्क तक नहीं कर पाते । बड़ी पार्टियों का चुनाव चिन्ह तो लोग जानते हैं किंतु निर्दलीय बेचारा अपना निशान घर - घर तक पहुंचाने में सफल नहीं हो पाता ।
प्रचार के लिए समय भी कम मिलता है जिस कारण प्रत्याशी और मतदाताओं के बीच सीधा संपर्क तक नहीं हो पाता ।
चुनाव कम खर्चीले और साफ - सुथरे हों ये तो हर कोई और चाहता है लेकिन उनमें मनहूसियत भरी नीरसता अच्छी नहीं लगती।
वैसे मेरे इस मंतव्य से सभी सहमत हों ये जरूरी नहीं ।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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