Tuesday 20 November 2018

एक्सप्रेस वे : विलम्ब की जवाबदेही तय होनी चाहिए

हमारे देश में राजनीति का अतिरेक असल मुद्दों पर हावी हो जाता है। इसका ताजा उदाहरण राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली (एनसीआर) को घेरकर बनाया गया पेरिफेरल एक्सप्रेस वे है। यह एक तरह की रिंगरोड ही है। उल्लेखनीय है इसका पूर्वी हिस्सा (ईस्टर्न पेरिफेरल वे) पहले ही लोकार्पित हो चुका था। गत दिवस प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पश्चिमी हिस्से का उद्घाटन कर इस एक्सप्रेस वे को यातायात के लिए खोल दिया। 2003 में वाजपेयी सरकार ने इस परियोजना का प्रस्ताव किया था जिसे 2009 में पूरा होना था। फिर 2012 की समयसीमा तय की गई लेकिन कार्य पूर्ण होते तक 2018 खत्म होने आ गया। प्रारम्भ में इसकी लागत 1915 करोड़ थी लेकिन अब तक उस पर 6400 करोड़ खर्च हो चुके हैं। उस पर भी विपक्ष का आरोप है कि पांच राज्यों के चुनावों के मद्देनजर प्रधानमंत्री ने गत दिवस उक्त एक्सप्रेस वे के जिस पश्चिमी हिस्से का लोकार्पण किया उसमें अभी अनेक मूलभूत सुविधाएं नहीं होने से वाहन चालकों को छोटी-छोटी परेशानियों का सामना करना पड़ेगा। इन आरोपों को किनारे रखकर इस प्रकल्प की उपयोगिता और लाभ देखें तो बाकी बातें गौण होकर रह जाती हैं। दोनों हिस्सों को मिलाकर कुल 270 किलोमीटर लम्बे इस मार्ग का सबसे बड़ा लाभ ये होगा कि दिल्ली के चारों तरफ  स्थित राज्यों से आने वाले वाहन बिना राजधानी में प्रविष्ट हुए ही  निकल सकेंगे। इससे दिल्ली में प्रतिदिन 50 हजार वाहनों की आवाजाही रुकेगी जिससे यातायात जाम और प्रदूषण रोकने में मदद मिलेगी।  हरियाणा, पंजाब, उप्र और राजस्थान से आने वाले वे सभी वाहन जिन्हें दिल्ली में नहीं रुकना वे बाहर-बाहर निकल जाएंगे। इस वजह से दिल्ली को यातायात समस्या और प्रदूषण से काफी राहत मिलेगी। दूसरा लाभ वाहन चालकों का समय और ईंधन की बचत के रूप में सामने आयेगा। व्यवसायिक वाहनों के लिए समय और परिवहन खर्च की बचत दूरगामी फायदों से जुड़ी हुई है। किसी विकसित देश के लिए इस तरह के एक्सप्रेस वे न्यूनतम आवश्यकताओं का हिस्सा होते हैं जिन पर हमारे देश में बहुत देर से सोचा गया। इसलिए उक्त मार्ग के शुभारम्भ पर सबसे बड़ा विचारणीय विषय ये होना चाहिए कि 2003 में इसके निर्माण का निर्णय करते समय 2009 तक उसे पूरा करने का लक्ष्य निर्धारित किया गया था जिसे एक बार संशोधित कर 2012 किया गया लेकिन अंतत: वह अब जाकर पूरा हो सका। उस पर भी कुछ  छोटे-छोटे काम शेष हैं। 7 साल में किया जाने वाला काम 15 वर्ष में पूरा होने का खामियाजा उसकी लागत में तीन गुनी वृद्धि के तौर पर देश को भुगतना पड़ा। दिल्ली की जनता और वहां से गुजरने वाले वाहनों को हुई परेशानी के अलावा वाहनों के धुएं से पर्यावरण को पहुंची क्षति का मूल्यांकन तो किया ही नहीं जा सकता। कहने का आशय ये है कि विश्व की सबसे तेज बढ़ती अर्थव्यवस्था में अधो संरचना के अत्यावश्यक कार्यों के प्रति इतनी उदासीनता सारी उपलब्धियों पर सवालिया निशान लगा देती है। भारत से छोटे श्री लंका, मलेशिया, थाईलैंड और वियतनाम जैसे एशियाई देशों ने बीते कुछ दशक में जो प्रगति की उसमें विकास संबंधी प्रकल्पों को निर्धारित समयसीमा में पूरा करने की प्रतिबद्धता बड़ा कारण है जिसकी वजह से वे लागत को उसके प्रारंभिक आकलन के अनुसार रखने में सफल रहे। हमारे देश में ऐसा क्यों नहीं होता या नहीं हो सकता इस बारे में सोचने की न तो जरूरत समझी जाती है और न ही इसके लिये किसी के पास फुरसत है। वाजपेयी सरकार के समय लिया निर्णय मनमोहन सरकार के कार्यकाल में भी पूरा क्यों नहीं हो सका जबकि 2009 की समय सीमा को उसी सरकार ने बढ़ाकर 2012 कर दिया था। उसके बाद भी आखिर 2018 पूरा होने को क्यों आ गया इसकी जवाबदेही किसी की तो होनी चाहिए क्योंकि इस विलंब की वजह से जो काम 2000 करोड़ से कम में होना था उसे पूरा करने में 6000 करोड़ से ज्यादा खर्च हो गये जिसका बोझ अंतत: तो देश के उन करदाताओं पर ही पड़ेगा जो इस देरी के लिए रत्ती भर भी जिम्मेदार नहीं कहे जा सकते। दिल्ली के यातायात को सुव्यवस्थित करने और प्रदूषण कम करने के अलावा इस एक्सप्रेस वे के दोनों तरफ  चार-पांच नए शहर एवं औद्योगिक केंद्र बनाने की योजना भी विचाराधीन है जिसे पूरा करने में लम्बा  समय लगेगा। जिन गांवों के निक़ट से ये एक्सप्रेस वे गुजर रहा है उनमें भी विकास का सवेरा होने की उम्मीदें बढ़ गई हैं। कुल मिलाकर इस तरह के प्रकल्पों को निर्धारित समयसीमा में पूरा करने की प्रतिबद्धता राष्ट्रीय चरित्र जब तक नहीं बनता तब तक इस तरह का विलम्ब और लागत खर्च में वृद्धि एक बड़ी समस्या बनी रहेगी जिसका दुष्परिणाम अंतत: हमारी विकास दर पर भी पड़ता है। इस संबंध में केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी ही अपवाद हैं जो ऐसे किसी भी प्रकल्प को निर्धारित समय सीमा एवं प्रस्तावित लागत में पूर्ण करने के लिए जाने जाते हैं। ये कहना गलत नहीं होगा कि यदि मोदी सरकार में श्री गडकरी नहीं होते तो उक्त एक्सप्रेस वे अभी भी लोकार्पित नहीं हो पाता। वाराणसी से हल्दिया तक गंगा में जल परिवहन शुरू करना श्री गडकरी की कार्यकुशलता का ही प्रमाण है। सही बात तो ये है कि इस तरह के कार्यों को सर्वोच्च प्राथमिकता के आधार पर पूरा करने की अनिवार्यता की जाए। दुनिया के सभी विकसित देशों में समय पर काम पूरा कर लागत खर्च बचाया जाता है। अमेरिका में 9/11 कांड में धराशायी वल्र्ड ट्रेड सेंटर की गगनचुम्बी इमारत को रिकार्ड समय में दोबारा खड़ा कर दिया गया। हमारे देश में तो ऐसे किसी हादसे के बाद मलबा उठाने में ही बरसों-बरस लग जाते हैं। दिल्ली के चारों तरफ  बने इस पेरिफेरल एक्सप्रेस वे की उपयोगिता और उसको बनाने में हुए विलम्ब से बढ़ी निर्माण लागत पर राजनीति से ऊपर उठकर राष्ट्रीय विमर्श होना चाहिए क्योंकि विलम्ब के लिए खेद व्यक्त करने की बजाय अब विलम्ब को हर हालत में टालने की प्रवृत्ति विकसित करना राष्ट्रीय आवश्यकता है। किसी कार्य में देरी के लिए जवाबदेही भी तय होने चाहिए।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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